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________________ है तो वह राग, द्वेष एवं मोह को बार-बार अवलोकन कर हटाता है । जब ये तीन हेतु हट जाते हैं तो चित्त में प्रभास्वरता आती है। तब उसे यह बोध होने लगता है कि मेरा चित्त वीतराग, वीतद्वेष एवं वीत मोह है। साधक जब अनुपश्यना करते हए चित्त को पर्यवदात बनाने के क्रम में आगे बढ़ता है तो देखता है कि मेरा चित्त इधर-उधर विकीर्ण है । पुनः वह देखता है कि मेरा चित्त विक्षिप्त है। यहां विक्षिप्त मूढ़ के अर्थ में प्रयुक्त है। पुनः साधक साधना के क्रम में ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है तो देखता है कि मेरा चित्त महग्गत अर्थात् श्रेष्ठ है अथवा श्रेष्ठ गुणों से युक्त है। पुनः वह अनुपश्यना करता है कि मेरा चित्त सउत्तर है अर्थात् ठीक ढंग से उठा हुआ है और अनुत्तर भी है अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है । पुनः साधक अवलोकन करता है कि मेरा चित्त समाहित है। यहां समाहित शब्द का अर्थ है----एकाग्रभूत । पुनः साधक देखता है कि मेरा चित्त असमाहित है अर्थात् अभावित है। पुनः वह साधना के क्रम में आगे बढ़ता हुआ देखता है कि मेरा चित्त सम्पूर्ण क्लेशों से विगत, रहित अथवा विमुक्त है अर्थात् सुगुप्त एवं सुरक्षित है। इन्हीं चित्तों को साधक के द्वारा यथाभूत जानकर भावना करना, अभिवृद्धि करना ही चित्तानुपश्यना कहलाता है। ४. धर्मानुपश्यना चित्तानुपश्यना के अनन्तर अन्तिम अनुपश्यना में धर्मानुपश्यना का विवेचन किया गया है। बौद्ध वाङ्मय में 'धम्म' शब्द बहुव्यापक अर्थों में प्रयुक्त होता है। सामान्य रूप से अपने स्वभाव को धारण करना ही धर्म है ... अत्तनो लक्खणं धारेतीति धम्मो। - आचार्म बुद्धघोष ने धर्म शब्द को परिभाषित करते हुए कहा है कि निःसत्त्व और निजीविता ही धर्म है । जितने भी परमार्थ सत्य बौद्ध वाङ्मय में हैं वे सभी धर्म के अन्तर्गत आते हैं। इस धर्मानुपश्यना के अन्तर्गत पञ्चनीवरण (कामच्छन्द, व्यापाद, थीन-मिद्ध, उद्धच्च-कुकुच्च तथा विचिकित्सा) का विवेचन किया गया है और कहा गया है कि जब तक ये नीवरण विद्यमान रहते हैं तब तक ध्यान की ओर चित्त उन्मुख नहीं रहता है। अतः ध्यान की ओर उन्मुख रहने के लिए नीवरणों का प्रहाण आवश्यक है । धर्मानुपश्यना के अन्तर्गत पञ्चुपादानस्कन्ध का विवेचन किया गया है। पञ्चउपादानस्कन्ध में स्कन्ध शब्द समुदाय का पर्याय है 'रासठेन खन्धो' के अनुसार स्कन्ध शब्द राशि का बोधक है। पञ्चुपादानस्कन्ध रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान में परिगणित है। प्रथम आर्यसत्य के व्याख्या के क्रम में तथागत ने कहा है कि यदि संक्षेप में कहा जाय तो पञ्चुपादानस्कन्ध ही दुःख है। धर्मानुपश्यना के अन्तर्गत बारह आयतनों का भी विवेचन किया गया है। आयतन शब्द विविध अर्थों का परिज्ञापक है। अभिधर्म दर्शन के अनुसार पञ्चस्कन्धों का विस्तार रूप ही आयतन है। बारह प्रकार के आयतन निम्नलिखित हैं - चक्षरायतन. श्रोतायतन, घ्राणायतन, जिह्वायतन, कायायतन, मनायतन, तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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