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में स्पष्टतया मिलती है । यह अवस्था शब्दान्तर्गत असंयुक्त व्यंजनों के संपूर्ण ह्रास की पूर्वावस्था है।
प्राचीन अर्धमागधी-आगमों की भाषा में जो कुछ प्राचीन हिस्से मिलते हैं, जैसे कि आचारांग और सूत्रकृतांग के कुछ अंश, इस भूमिका की अन्तिमावस्था में आ सकते हैं। इस समय में घोषभाव की प्रक्रिया सर्वसामान्य है, किन्तु स्वरान्तर्गत व्यंजनों का सर्वथा लोप नहीं होता, स्वरान्तर्गत महाप्राणों का ह भी सर्वथा नहीं होता ।
___ तीसरी भूमिका में आते हैं साहित्यिक प्राकृत, नाटकों के प्राकृत और वैयाकरणों के प्राकृत। इन प्राकृतों में अन्यान्य बोलियों के कुछ अवशेष रह जाते हैं, किन्तु इनका स्वरूप केवल साहित्यिक ही है। इस भूमिका में स्वरान्तर्गत व्यंजनों का सर्वथा ह्रास होता है और महाप्राणों का सर्वथा ह होता है। मूर्धन्यों का व्यवहार बढ़ जाता है।
चौथी भूमिका के प्राकृत ..... अन्तिम प्राकृत-- को हम अपभ्रंश कहते हैं। यह साहित्यिक स्वरूप हमारी नव्य भारतीय आर्य भाषाओं का पुरोगामी साहित्य है। यह केवल साहित्यिक स्वरूप है, बोली भेद अत्यन्त न्यून प्रमाण में दृष्टिगोचर होते हैं । अधिकांश, पूर्व से पश्चिम तक एक ही शैली में लिखा गया यह केवल काव्य साहित्य
प्राचीन आगम साहित्य को हम दूसरी और तीसरी भूमिका के संक्रमण काल में और शेष आगम साहित्य को तीसरी भूमिका में रख सकते हैं। स्थल की दृष्टि से, अर्धमागधी पूर्व की भाषा होते हुए भी कालक्रम से पश्चिम-मध्यदेश-के प्रभाव से अंकित होने लगी। इस वास्ते पूर्व के श की जगह अर्धमागधी में स का प्रयोग शुरू होता है, पूर्व के-अस्→-ए की जगह पश्चिम का-ओ भी आगमों में व्यवहृत होता है, यद्यपि प्राचीन-ए भी आगमों में कई जगह सुरक्षित है ही। पूर्व के ल की जगह पश्चिम का र भी धीरे-धीरे व्यवहृत होता जाता है। इन सबसे यही सूचित होता है कि आगमों की पूर्व की भाषा का पश्चिमी संस्करण आगमों की भाषा का महत्त्व का प्रकार है। जैनधर्म पूर्व में पैदा होकर पश्चिम और दक्षिण में फैला और वहां ही उसके साहित्य के प्रथम संस्करण हुए। इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मगध-पाटलिपुत्र के ह्रास के बाद साहित्य और संस्कृति के केन्द्र भी पश्चिम में जा रहे थे।
-डॉ० प्रबोध बे. पंडित प्रोफेसर्स क्वार्टर्स अहमदाबाद-३८०००९
खंड २२, अंक १
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