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________________ सुवर्ण की प्रधानता थी । व्यापारी अपने धन का बहुत भाग धार्मिक कार्यों में व्यय करते थे । चारुदत्त ने अनेक उपनगर, विहार, आराम, देवालय, तडाग और कूपों का निर्माण कराया था । न्यायालय में चारुदत्त पर अभियोग लगाए जाने पर विदूषक कहता है भो भो अज्जा जेण दाव पुरट्ठावणविहारारामदेउलतडागकूबजूवेहि अलंकिदा णअरी उज्जइणी । जो लोग व्यापार से धन-अर्जन कर सम्पन्न हो जाते थे या किसी कारण वशात् सम्पन्न थे, उनकी बहुत सी सम्पत्ति वेश्याएं ले लेती थीं, इसलिए वेश्याओं का आर्थिक जीवन काफी सम्पन्न था। उनकी सम्पत्ति कुबेर के समान थी । उनके अनेक भवन होते थे जो धन-दौलत, हाथी-घोड़े आदि से भरे रहते थे । जो लोग व्यापार एवं कृषि नहीं करते थे वे राज्य सेवा से अपनी वृत्ति अर्जित करते थे । ३. मनोरंजन उस समय अनेक प्रकार के मनोरंजन के साधन थे, जिनमें द्यूतक्रीड़ा, संगीत, नृत्य आदि प्रसिद्ध हैं । उस समय जुए की प्रथा अत्यधिक थी। जुआरियों की अपनी मण्डली तथा उसके अपने नियम थे जो सबके लिए पालन करना अनिवार्य था । जुए को सरकारी मान्यता प्राप्त थी । यदि कोई हारा हुआ जुआरी धन की अदायगी नहीं करता था तो न्यायालय में वाद उपस्थित किया जाता था । द्यूतकर कहता हैं— लाभउलं गदुअ णिवेदम्ह ।' -- अर्थात् राजकुल में जाकर निवेदन किए देते हैं । संगीत का भी काफी प्रचार था। रेमिल सुप्रसिद्ध गायक था जो चारुदत्त आदि प्रधान पुरुषों का अपने सुस्वर गायन के द्वारा मनोरंजन किया करता था। बच्चों में गाड़ी द्वारा खेलने की पद्धति का भी उल्लेख मिलता है। रोहसेन पड़ोसी के बच्चे की सोने की गाड़ी के समान गाड़ी के लिए रो रहा था । मिट्टी की गाड़ी उसे पसन्द नहीं थी । वेश्या वसन्तसेना ने मिट्टी की गाड़ी को अपने आभूषणों से लाद दिया था। रोते हुए रोहसेन को आश्वासन देते हुए कहती है (अलङ्कारमृच्छकटिकं पूरयित्वा ) जाव कारेहि सोबण्णसअडिमं । ४. भोजन मृच्छकटिक में अनेक प्रकार को भोज्य सामग्रियों का उल्लेख मिलता है । सूत्रधार के घर में उसकी पत्नी द्वारा आयोजित 'अभिरूपपति' व्रत के अवसर पर अनेक प्रकार के पकवान बनाए गये थे आमितण्डुलोदअपवाहा रच्छा, लोहकडाहपरिवत्तण कसण सारा किदविसेसआ विअ जुअदी अहिअदरं सोहदि भूमी । सिद्धिगन्धेण उद्दीविअन्ती विअ अहिअं बाधेदि मं बुभुक्खा । " चावल का प्रयोग अत्यधिक होता था । उसे विविध प्रकार पकाया जाता खण्ड २२, अंक १ ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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