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________________ होते हैं और उनका समय है ई० का दूसरा शतक । इन प्राचीन नाटकों की भाषाप्रणाली, उत्तरकालीन नाटकों से कुछ भिन्न है । उत्तरकालीन नाटकों में अनुपलब्ध, किन्तु भरतविहित, नाटकों की अर्धमागधी भी यहां प्राप्त होती है। यहां शौरसेनी, मागधी, अर्धमागधी के प्राचीन स्वरूपों का प्रयोग किया गया है । तदनन्तर, भास के नाटकों में प्राचीन प्राकृतों का व्यवहार मिलता है और प्राकृतों का वैविध्य देखने को मिलता है शुद्रक के मृच्छकटिक में, यद्यपि शूद्रक का प्राकृत भास से ठीक-ठीक अर्वाचीन है । भारत के बाहर जो प्राकृतें मिलती हैं उनसे एक विशिष्ट दिशा - सूचन होता है । नियप्राकृत के व्याकरण का स्वरूप अत्यंत विकसित है । जो विकास अपभ्रंश काल में भारत में होता है वह विकास ई० के दूसरे और तीसरे शतक के इस नियप्राकृत में होता है । इन प्राकृतों का ध्वनिस्वरूप प्राचीन ही है, सिर्फ व्याकरण का स्वरूप अत्यंत विकसित है । इससे अनुमान तो यही होता है कि भारत के साहित्यिक प्राकृत प्रधानतथा रूढिचुस्त ( conservative ) थे, वैयाकरणों के विधि-विधान से ही लिखे जाते थे, और संस्कृत को आदर्श रखकर केवल शिष्टस्वरूप में लिखे जाते थे, किन्तु संस्कृत के प्रभाव से दूर जो प्राकृत लिखे गये वे अधिक विकासशील थे । प्राकृतों के अभ्यास में हमें यह देखना होगा कि उसमें भी शिष्टता का प्रभाव कितना है और हम तत्कालीन बोलचाल से कितने दूर वा निकट हैं । प्राकृतों के प्राचीनतम स्वरूप का खयाल पाने के लिए हमको साहित्यिक प्राकृत, लेखों के प्राकृत, नाटकों के प्राकृत और भारत बाहर के प्राकृतों का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करना होगा, सब में से अंशत: सहायता मिलेगी । इन सब में से लेखों के प्राकृत तत्कालीन भाषा स्वरूप के खयाल को विशद करने में अधिक सहायकारक हैं, इस वास्ते उनको केन्द्र में रखकर बुद्ध और महावीर के काल की भाषापरिस्थिति का कुछ चित्र उपस्थित होगा । उत्तरपश्चिम की भाषा का खयाल हमको मानसेरा और शाहबाझगढी के लेखों से मिलता है । तदुपरान्त भारत बाहर के प्राकृत और उत्तरकालीन खरोष्टी लेखों का संबंध भी उत्तर के साथ ही है । ॠ का विकास दो तरह से होता है— रि, रु, क्वचित् 'र' भी होता है । इस 'र' के प्रभाव से अनुगामी दंत्य का मूर्धन्य शाहबाझगढी में होता है, मानसेरा में ऐसा नहीं होता । शाह० मुग, किट, ग्रहथ, वुढेपु, मान० म्रिग, बुधेसु (वृद्धेपु) । प्रधानतया स्वरान्तर्गत असंयुक्त व्यंजन कुछ विशेष परिवर्तन होते हैं । स्वरान्तर्गत और इन घोषवर्णों का घर्षभाव होता है । आवश्यक अवान्तर अवस्था है : "I 1 1 अवकाश' - अवगज, प्रचुर --प्रशुर, कुक्कुट - ककूड, कोटि-कोडि, यह विशिष्टता १. शब्द के ऊपर दण्ड '' घर्षत्व सूचक है । as २२, अंक १ मूल रूप में ही रहते हैं । निय प्राकृत में क च ट त प श स का घोषभाव होता है यह घटना व्यंजनों के संपूर्ण नाश के पूर्व की Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only ४९ www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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