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________________ तोरवाली से और अशोक के उत्तरकालीन खरोष्ठी लेखों से है। गिरनार के लेख की भाषा का संबंध साहित्यिक पालि से है, उसका कारण यही हो सकता है कि साहित्यिक पालि का अधिक संबंध मध्यदेश की भाषा से है और गिरनार के लेख की भाषा पर जो मध्यदेश की भाषा का प्रभाव है वह उनको पालि की ओर खिंचता है । गंगा जमना से लेकर महानदी पर्यन्त के पूर्व के शिलालेखों की भाषा से संबंध है नाटकों की मागधी का । दक्षिण के आलेख आर्येतर भाषा-भाषी प्रजा के बीच में लिखे गए हैं, इसलिए प्रधानतः ये आलेख पूर्व के आलेखों की भाषा से तात्त्विक दृष्टि से भिन्न नहीं और जो कुछ भिन्नता मालूम होती है वह भिन्नता उनको जनों की अर्धमागधी की ओर खिंच जाती है। कुछ अंश से वैराट, सांची और रूपनाथ के लेख भी इनसे साम्य रखते हैं यह बात आगे सूचित की गई है। साहित्यिक प्राकृतों और लेखों के प्राकृत का सम्बन्ध हमको तत्कालीन बोली विभागों का कुछ ख्याल अवश्य स्पष्ट कराता है। अलबत्त, यह भाषाचित्र कितना अपूर्ण है, उसमें कितने शंकास्थान है, उसका ख्याल तो जब हम यह विविध भाषासामग्री का विवरण करेंगे तब ही आएगा। प्राचीन बोली विभागों के अभ्यास में कुछ दिशासूचन नाटकों के प्राकृत से भी मिलता है संस्कृत नाटकों में प्राकृत का प्रयोग करने की प्रणालिका संस्कृत नाटकों के जितनी ही पुरानी है। नाटयशास्त्र के विधानों से पूर्व ही नाटकों में विविध पात्रों के लिए विविध प्रकार के प्राकृतों का प्रयोग करना ऐसी रूढि होगी। कौन से पात्र किस तरह का प्राकृत का व्यवहार करें इस विषय में जो निर्णय किए गए हैं उसका प्राचीन बोली विभाजन से कुछ संबंध है ? संस्कृत नाटक, जिस रूप में वह हमारे सामने है उसको क्या प्राचीन लोक जीवन का चित्र गिना जा सकता है ? सिल्वां लेव्ही ने ठीक ही कहा है कि काव्य और आख्यानसंवाद (Epic) को साहित्य से तख्तों पर ले जाने का जो प्रयोग वही है संस्कृत नाटक । उसका समर्थन करते हुए, उनके शिष्य झुल लोखने भी ठीक ही लिखा है कि अगर हम संस्कृत नाटक को लोक जीवन का प्रतिबिंब मानेंगे तो भ्रान्ति होगी। और खास तौर से संस्कृत नाटक में भाषा की जो रूढियां हैं उनका तो प्रत्यक्ष जीवन से कोई संबंध नहीं। प्रधानतया तीन भाषाओं का व्यवहार संस्कृत नाटक में होता है - संस्कृत, शौरसेनी और मागधी। शिष्टजन संस्कृत में व्यवहार करते हैं, शिक्षित स्त्रीवर्ग और अशिक्षित पुरुषवर्ग शौरसेनी में व्यवहार करते हैं और जिनकी मजाक करनी है, जो नीच कुल के हैं, वे मागधी में व्यवहार करते हैं। ये विभाग क्या किसी बोली भेद के विशिष्ट व्यंजक हो सकते हैं ? शौरसेनी उच्चकुल की स्त्रियों और मध्यमवर्ग के पुरुषों की भाषा नहीं, किंतु वह सूचक है मथुरा में विकसित नटवर्ग की बोलचाल के शिष्ट प्रतीक की। पूर्व के लोक, मध्यदेश की अपेक्षा हमेशा असंस्कृत और अशिष्ट माने जाते थे, इसलिए जिस पात्र को नीच मानना हो, जिसकी मजाक करने की हो उसके मुख में मागधी रखना एक रूढि ही बन गई । प्राचीनतम नाटकों में और खास करके अश्वघोष के नाटकों में उत्तरकालीन नाटकों की अपेक्षा, अन्य प्रकार की प्रणाली दिखाई देती है । अश्वघोष के नाटक कुशानकाल की ब्राह्मी में लिखे हुए मालूम ४८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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