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प्राचीन शौरसेनी में ता मिलता है, तदनुसार सम्बन्धक भूतकृदंत में-स्वा+-पा मिलता है।
हेत्वर्थ-छमितवे (*क्षमितुम्) द्व का द्व द्वादस में मिलता है। दुवे द्वे का प्रयोग भी मिलता है।
अकारान्त पु० प्रथमा ए. व. का प्रत्यय सामान्यत :-ओ है, सप्तमी ए. व. का. म्हि ।
अशोक के शिलालेखों में मध्यदेश की भाषा के नमूने व्यवस्थित रूप से नहीं मिलते, किन्तु यदि उत्तरकालीन साहित्य पर दृष्टिपात करें तो अश्वघोष के नाटकों की नायिका और विदूषक की भाषा- जिसको ल्यूडसं यथार्थ प्राचीन शौरसेनी कहते हैं कि तुलना अशोक के गिरनार के लेख के साथ हो सकेगी। मध्यदेश की भाषा के कुछ लक्षण हमको गिरनार में मिलते हैं और गिरनार के साथ अश्वघोष की भाषा का साधर्म्य वधर्म्य कितना है उसका पता लग सकता है। मध्यदेश के कुछ लक्षण सर्वसामान्य है- अस् का ओ, श, ष, स का स। अश्वघोष की शौरसेनी में ज्ञ का न होता है, यद्यपि उत्तरकालीन वैयाकरणों ने ण्ण का विधान किया है, किन्तु गिरनार में भी न मिलता है : कृतज्ञता। र युक्त संयुक्त व्यंजनों का सावर्ण्य अश्वघोष की शोरसेनी में भी होता है । मध्यदेश की सामान्य प्रक्रिया ऋ→इ अश्वघोष में मिलती है, गिरनार में नहीं । संयुक्त व्यंजनों में व्य → व्व होता है, गिरनार में नहीं। ष्ट, ष्ठ का ट्ट होता है, गिरनार में स्ट ही रह जाता है। मध्यदेश की विशिष्ता क्ष→ख अश्वघोष की शौरसेनी में मिलती है, गिरनार में सामान्यतया छ मिलता है। अश्वघोष के नाटकों की भाषा प्राचीन है ही, इससे इसको प्राचीन शौरसेनी कहना ठीक ही है । यह प्राचीन शौरसेनी इस अवस्था में है जहां एकाध अपवाद को छोड़कर स्वरांतर्गत व्यंजनों का घोषभाव-त का द, जो बाद में शौरसेनी का प्रधान लक्षण हो जाता है--मिलता नहीं । प्रायः सब स्वरान्तर्गत म्यंजन अविकृत रहते हैं। इस प्राचीन शौरसेनी की मथुरा के लेखों से .. जो शौरसेनी का प्रभव स्थान हो सकता है--तुलना करना मुश्किल है, किन्तु यह अभ्यास स्वतंत्र चिंतन का विषय तो है ही। इन लेखों की भाषा पर से संस्कृत का आवरण हटा कर -- जो वहां की बोली पर लादा गया है-जब उसका अभ्यास होगा, तब इन हकीकतों पर अधिक प्रकाश जरूर डाला जा सकेगा।
अशोक के पूर्व के लेखों के साथ केवल पूर्व के ही नहीं मगध के पश्चिम में लिखे गए कुछ लेखों को भी गिनना होगा। हमने आगे इस बात की चर्चा की है कि जहां मगध की राजभाषा दुर्बोध न थी, वहां के शिलालेख प्रायः पूर्व की ही शैली में लिखे गए । खास तौर से मध्यदेश में जो लेख मिलते हैं उनसे यह बात स्पष्ट होती है। वहां के राज्याधिकारी अशोक की राजभाषा से सुपरिचित होंगे इससे मध्यदेश की छाया उन लेखों पर खास मालूम नहीं होती और इससे मध्यदेश की बोली के उदाहरण हमको अशोक के लेखों में नहीं मिलते। इस वजह से कालसी टोपरा इ० के लेख पूर्व के धौली जोगड से खास भिन्न नहीं। पूर्व में जो ध्वनिभेद सार्वत्रिक है वह कालसी
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तुलसी प्रज्ञा
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