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१४७ पंक्ति) । प्रस्तुत पद में गुण विधान होने से इसे धातु-लुङ, के लेट् (RootAorist, subjunctive ) में स्वीकार करना उचित होगा । पाणिनि सूत्र के आधार पर अङ (चल) परे केवल ऋवर्णान्त तथा √दृश् धातु का ही गुण होता है जिसे आधुनिक विद्वान् भी मानते हैं । मैकडोनल (१९१०, ५०७ A) के अनुसार अ. वे. में प्रयुक्त अकरत्, अगमत् केवल अ-लुङ का उदाहरण होते हैं । तदनुसार ये सभी परिवर्तित होकर ( धातु लुङ अङ - लुङ) बनते हैं । वस्तुतः मैकडोनल का यह विचार पूर्णतया पाणिनि सिद्धान्त का अनुरूप है । रचना गत दृष्टि से इसे अ-लुङ के विधिमूलक ( Injunctive ) का रूप भी कहा जा सकता है । वि. मू. में साधारणतः अडागम का अभाव रहता है । यद्यपि इस पद को धातु-लुङ के लेट् अथवा अ-लुङ के वि.मू. में निर्वचन किया जा सकता है तथापि इसमें ज्यादातर लेट् का भाव रहता है । लेट् (धातु-लुङ, लेट्) से बने कुछ पद इस प्रकार है
आत्मनेपद में
परस्मैपद में करति, करसि, करतः, करथः, करन्ति, करन्, कराणि, कराम । करते, करसे, करामहे, इन सबका विवेचन सायण ने व्यत्यय से ' शप्' विकरण लगाकर किया है।
सायण ने 'करताम् ' प्रभृति लोट् लकारान्त पद को पूर्व के समान / कृ धातु में ' शप्' विकरण लगाकर भ्वादि की तरह करने का प्रयास किया हैं ।
लेट् और लोट् के इन पदों के विषय में प्रायः सभी विद्वान् एक सिद्धान्त में उपनित नहीं हो पाए हैं क्योंकि मैकडोनल (१९१०, ५०९, ५१२) जब इन पदों को धातुलुङ (Root-Aorist ) के लेट् तथा अ-लुङ के लोट् का रूप कहते हैं तभी ह्विट्नी (१८८५ पृ ११ ) के अनुसार ये धातु-लुङ के साधारण प्रकार के रूप होते हैं । ग्रेसमैन ( ३३७) तथा आवेरी ( करताम् २४४ ) इन सबको लङवर्गीय रूप कहते हैं । ग्रेसमैन, आवेरी का विचार भारतीयों के समान है पर हम इनको धातु-लुङ, (Root - Aorist ) का रूप कह सकते हैं ।
३. (घ) करवावः / करवाव
उत्तमस्य ( पा. ३.४.९८ )
दीक्षित ने सिद्धान्तकौमुदी (सि. को ) में पाणिनीय से सूत्र व्याख्यान के समय इसे उदाहरण के रूप में दर्शाया है । लेट् लकार में वस्, मस के सकार का लोप इस सूत्र के द्वारा विकल्प से होता है । कृ + उ + वस्तनादिकृञ भ्य उ: (पा. ३.१.७९) से 'उ' विकरण, कृ + उ + आ + आ + वस् ( पा. ३.३.९४ ) अवस्था में सार्वधातु (पा. ७.३.८४ ) से गुण रपरत्व ( पा. १.१.५१ ) करु + आ + वस् में विकरण का गुण तथा अवादेश (पा. ६.४.७८ ) कर करवास रहता है । तत् पश्चात् स उत्तमस्य ( पा. ३.४९८ ) से विकल्प से 'स्' का लोपः होकर करवाव / करवावः रूप बनता है । तनादिगणीय / कृ धातु के परस्मैपद का यह रूप वैदिक साहित्य के किस ग्रन्थ में प्रयुक्त हुआ है यह कहना अब तक सम्भव नहीं हो पाया है (द्र सि. को कार ने काशिका से इसको उद्धृत किया है ) । तदर्थं पाश्चात्य वैयाकरणों ने इस पर कुछ विचार नहीं किया है।
कृ धातु के करवाणि (छा. ३.६.३.३ ) और करवावहै, वं. श्री. ८,१९.१२
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खण्ड २२, अंक १
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