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३. (ग) करत्-"स नो विश्वहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्" (वे श्रेष्ठ बुद्धि वाले वरुण हमको सदा सुन्दर मार्ग दें).
___--ऋ १.२५.११ "करोतेलेंटि व्यत्ययेन शप् । शयो लुकि । लेटोऽडाटो इति अड़ागमः इतश्च लोपः ""इति इकार लोपः । यद्वा छान्दसे लुङि कृमृदूहिभ्यः पा. ३.१.५९ इति च्लेः अङ । ऋदृशोऽङि गुणः पा. ७.४.१६ इति गुण: । बहुलं छन्दस्यमाङ योगेऽपि" इति अड़भावः ऋ १.२५.१२ ।
__ "डुकृन करणे। लडि व्यत्ययेन शप् । यद्वा लेटि अडागमः इतश्च लोपः इति इकार लोपः । यद्वा लुडि "कृमृ...' इति च्लेः अङ्गादेशः । ऋदृशोऽङ्गिगुणः इति गुणः ऋ १.४३.२
उपर्युक्त सायण भाष्य के अनुसार 'करत्' का निर्वचन लेट, लङ् अथवा लुङ् इन तीन लकारों में किया जा सकता है।
+लेट→सिप्, कृ+शप्+ति व्यत्यय हेतु 'उ' के स्थान पर शप् । कृ+ति =बहुलं छन्दसि पा. २ ४.७३ से शप् का लोप । कृ+अट्-अ+तिम्लेटोऽडाटो पा. ३.४.९४, क+अ+ति सार्वधातु पा. ३.७.८४, करत्-इतश्च लोपःपा . ३.४.९७ से ति के इकार का लोप होकर करत बनता है।
लङ लकार मानने से पूर्ववत् शप, इकार लोप, गुण तथा “बहुलं छन्दस्य ... पा. ६.४.७५" से अडागम का अभाव होकर यह पद बनता है।
लुङ् में कृ+लुङ, कृ+ति, कृ+च्लि+ति=पा. ३.१.४३ से चिल। कृ+अङ्-- अ+ति= कृमृदृरुहि""पा. ३.१ ५९ से अङ् कर+अ+ति=ऋदृशोऽङिगुणः पा. ७.४.१६ से धातु के स्वर को गुण, इतश्च पा. ३.४.१०० से इकार का लोप तथा पूर्ववत् अडागम का अभाव कर यह बनता है।
मैकडोनल (१९१०, ५०२), हिट्नी (१८७९, पृ ८३, A,B) आदि इस पद को धातु-लुङ् (Root-Aorest) के लेट् लकार का रूप मानते हैं। सायण ने ऊपर उद्धृत दो भाष्यों में इस पद के हेतु तीन अलग-अलग लकार माने है। किन्तु पाश्चात्य वैयाकरणों ने इस पद को द्विलकारीय शैली में दर्शाने का प्रयास किया है।
लेट अथवा लङ् लकार के पदों के निर्वचन के समय में सायण ने व्यत्यय से 'शप्' का आगम और अडागम का निषेध कर इसकी प्रक्रिया को दर्शाया है। उनका यह निर्णय कृ→कर करना ही है। मेरे विचार से यहां व्यत्यय ग्रहण आवश्यक नहीं है । क्योंकि पाणिनि के अनुसार लुडः लकार में चिल के स्थान में अडादेश (पा. ३.१.५९) होता है। अङ् हेतु धातु के स्वर (इ उ ऋ) को (पा. ७.४.१६) गुण होकर इसका निर्वचन सम्भव है। पाणिनीय सिद्धान्त के अनुसार अगर इसका विचार किया जाए तो यह भ-लुङ् (a-Aorist) का साधारण रूप होता है । परन्तु यहां यह द्रष्टव्य है कि आधुनिक वैयाकरणों के अनुसार धातु के स्वर का गुण विधान नहीं होता है । क्योंकि अ-लुङ का चरित्र साधारणतया तुदादि लङ के समान होता है (मैक. १९१६,
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तुलसी प्रज्ञा
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