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________________ प्राकृत भाषा संगोष्ठी लाडनूं । यहां सम्पन्न प्राकृत संगोष्ठी में इस कथन का तीव्र प्रतिवाद हुआ कि मथुरा से महाराष्ट्र तक एक ही प्राकृत भाषा बोली जाती थी और उस प्राचीन शौरसेनी से ही महाराष्ट्री प्राकृत का निर्माण हुआ। विद्वानों ने आगम और पिटकों के उद्धरणों से यह आम राय प्रकट की है कि भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध की एक ही भाषा थी तथा बुद्ध वचन और महावीर वाणी में विषमताएं कम, समानताएं अधिक हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा कि पाली और प्राकृत समानार्थवाची शब्द है । पाली का मूल अर्थ ग्रामीण अथवा पल्लियों की भाषा है। जैन आगमों की मूल भाषा अर्द्धमागधी रही है । अर्द्धमागधी में केवल शौरसेनी ही नहीं, अठारह देशी भाषागत विशेषताएं उपलब्ध हैं। आरम्भ में भगवती सूत्र के अनुवाद कार्य में लगे डॉ० नथमल टाटिया ने दिल्ली की एक पत्रिका में छपे और उनके नाम से प्रचारित इस कथन का खण्डन किया कि महावीर वाणी शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट मत प्रकट किया कि आचारांग, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और दशवकालिक में अर्द्धमागधी भाषा का उस्कृष्ट रूप है । डॉ० टाटिया ने यह भी स्वीकार किया कि बुद्ध वचन की भाषा सीलोन में लिपिबद्ध होते समय वहीं की जनभाषा से प्रभावित हो गई, इसीलिए उसे प्राकृत न कहकर पालि भाषा कहा गया है। इस सम्बन्ध में समवायांग का उद्धरण देते हुए परमेश्वर सोलंकी ने विचार व्यक्त किया कि प्राकृत भाषा मूल भाषा है और यह चराचर सब प्राणियों की भाषा है। उसे संस्कार करके वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषाएं बना दी गई है। उन्होंने समवायांग के उद्धरण के साथ यजुर्वेद की यजूंषि को उद्धृत करते हुए स्पष्ट किया कि बेद जिस कल्याणी वाणी को सबके द्वारा विचार व्यक्त करने का माध्यम कहता है वही वाणी भगवान महावीर बोलते थे जो सब चराचर प्राणियों की भाषा बन जाती थी। इसलिए वही मूल प्राकृत भाषा है । डॉ० राय अश्विनी कुमार ने कहा किवेदों में वैदिक भाषा के अनेक रूप मिलते हैं वे उनके जन भाषा होने के परिचायक हैं। यास्क और पाणिनि ने उस वैदिक भाषा को नियमों में जकड़ दिया तो भगवान महावीर और बुद्ध के समय पुनः जन भाषा का प्रचार बढ़ा। डॉ० जगतराम भट्टाचार्य ने कहा कि भारत में द्रविड भाषाओं के अलावा सब भाषाएं एक ही परिवार की हैं। उनके स्थानीय भेद अनेक हैं और उन्हें एक दूसरे पर आश्रित कहना गलत है। __ संगोष्ठी में डॉ० टाटिया से सवाल- जवाब हुए। मुनि सुखलालने प्राचीन शौरसेनी का स्वरूप जानना चाहा और मुनि धनंजयकुमार ने 'प्राकृत भाषा' में छपे उनके वक्तव्य को पढ़कर उस संबंध में डॉ० टाटिया से स्पष्टीकरण मांगा जिसके प्रत्युत्तर में डॉ० टाटिया ने प्राकृत भाषा में छपे वक्तव्य से असहमति प्रकट की और कहा कि मेरा वक्तव्य वही है जो मैंने यहां दिया है। डॉ० टाटिया ने कहा कि हमें मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, पालि और महाराष्ट्री का एक साथ अध्ययन करना होगा। अन्त में संगोष्ठी का समाहार करते हुए संयोजक ने विषय के महत्त्व को उजागर किया और उस पर राष्ट्रीय चितन के लिए एक कार्यशाला की आवश्यकता बताई । उन्होंने कहा कि प्राकृत भाषा के के संबंध में डॉ. होर्नले और कॉवेल में जो मतभेद हैं, डॉ० वूलनर, लेसन, याकोबी और क्रिस्टेन ने जो नतीजे निकाले हैं तथा नितिडोलची, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी आदि के अध्ययन से जो भ्रम उठ खड़े हुए हैं उन सब पर गंभीर चिंतन-मनन की अपेक्षा है। --(प्रेस विज्ञप्ति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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