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________________ छठे भाग को संध्या कहा गया है, फिर भी प्रयोग में संधियां सदा युगों में ही शामिल रखी हैं, अलग से उपयोग में नहीं ली गई हैं। अथर्ववेद का प्रमाण अथर्ववेद (८-२-२१) में सृष्टि की आयु एक कल्प अर्थात् १००० चर्तयुग कही है। इतनी ही प्रलय की अवधि है । जो ४३२००००,००० वर्ष उपरोक्त मंत्र कहता है। इस मंत्र में कृत, आदि युगों की संख्या १७२८०००, १२९६०००, ८६४००० तथा ४३२००० वर्ष क्रम से है । यह दिव्य वर्षों में ४८००, ३६००, २४००, १२०० वर्ष है। सूर्य सिद्धान्त (१-१७) से संधियां १/६ करने पर ८००=४००+४००, ६००=३००+ ३००, ४००-२००+२००, २००=१००+१०० लें तो युग ४००+४०००+४०० = ४८००, ३००+३००+३०००=३६००, २००+२०००+२०० =२४०० तथा १००+१०००+१००=१२०० संधियों सहित होते हैं । युगों की इस सन्धि रूप ने उनके स्व स्वरूप को जटिल बना दिया है । इस व्याख्या का कहीं पर भी प्रयोग नहीं किया गया हैं। परन्तु मनुओं में इस सन्धि कल्पना का उपयोग सूर्य सिद्धान्त (१-४५४६-४७) में किया गया है । जिससे ६ मनु के आदि में एक, बीच में पांच तथा अन्त में सातवीं सन्धि जोड़ कर (सात संधियां जोड़कर) सृष्टि संवत् की सख्या १९७२९४ ९०९६ वर्ष हो गई है, इस तरह इन सात संधियों की संख्या १२०९६००० ही इस अन्तर का कारण है । सूर्य सिद्धान्त (१-१९) में संधि सहित (ससंध्ययः) ६ मनु लिखा है फिर भी ६ मनु के अतिरिक्त सात संधियां जोड़ दी गई हैं । ये गड़बड़ करती हैं, यही विचार का विषय है। वैदिक ज्योतिष में ३०=१५+१५ तथा १२=६+६ अर्थात् ३० और १२ संख्याएं गणना का आधार हैं । १ सौर अहोरात्र=१५ मुहर्त दिन+१५ मुहर्त रात के साथ ज्योतिषी मानते हैं, तथा गणना में उपयोग लाते हैं, ३० मुहूर्तों के नाम तैत्तिरीय संहिता में (३-१०-१३) लिखे हैं । एक पितर अहोरात्र=१ शुक्ल पक्ष+१ कृष्ण पक्ष=१ पितर दिन+१ पितर रात-१५ मुहूं त+१५मुहूं त=३० पितर मुहूं त अर्थात् १ चन्द्रमास में ३० मुहूत हुए हैं। इन्हीं को तिथियां कहते हैं, एक से पन्द्रह को, प्रतिपदा से पूर्णिमा शुक्ल पक्ष तथा १-१५ एकम से अमावस्या, कृष्ण पक्ष को अमावस्या को ३० प्रत्येक पंचांग व कैलेन्डर में दिया रहता है। यह चन्द्र मास है, जो गणना का दूसरा आधार है । १ ब्रह्म अहोरात्र-१ कल्प सृष्टि+१ कल्प प्रलय=१ ब्रह्म दिन+१ ब्रह्म रात१५ ब्रह्म मुहूर्त + १५ ब्रह्म मुहूर्त = ३० ब्रह्म मुहूर्त । एक ब्रह्म मुहूर्त का नाम एक मनु कहा जाता है, इन ३० मनुओं के नाम वायु पुराण (?) तथा भागवत पुराण (?) में दिए गए हैं, जो इस प्रकार हैं-स्वयंभुव, स्वारोचिष उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत् आदि हैं। खण्ड २२, अंक १ ३५ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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