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________________ २१ शिल मुण्डिदे तुण्डमुण्डदे चित्त ण मुण्डिते कीश मुण्डिते । जाह उण अचित्तमुण्डिदे शाहु शुरु शिल ताह मुण्डिते ॥ धार्मिक मान्यताओं के साथ कुछ अन्य प्रकार के लोक विश्वास भी प्रचलित थे । कुछ ग्रहों के योग को अनिष्ट समझा जाता था अङ्गारकविरुद्धस्य प्रक्षीणस्य बृहस्पतेः । ग्रहोsयमपरः पार्श्वे धूमकेतुरिवोत्थितः ।। २२ अनेक प्रकार के शकुन और अपशकुन पर भी विचार किया जाता था । सामने कौवे का रूखे स्वर में बोलना, पुरुष के लिए बायीं आंख फड़कना आदि अपशकुन माने जाते थे रूक्षस्वरं वाशति वायसोऽय मात्मृत्या मुहुराह्वन्ति । सव्यं च नेत्रं स्फुरति प्रसह्य २३ मानिमित्तानि हि खेदयन्ति ॥ स्खलति चरणं भूमौ न्यस्तं न चार्द्रतमा मही । स्फुरति नयनं वामो बाहु मुहुश्च विकम्पते ॥ २४ ८. शिक्षा उस समय ब्राह्मण वेद अध्ययन में निपुण । रामायण, महाभारत, पुराण, गीता आदि का भी अध्ययन किया जाता था । गणित और ज्योतिष भी पढ़े जाते थे । शूद्रक विविध विद्याओं में निष्णात था । वह गणित, नाट्यविद्या, हस्तशिक्षा आदि में निष्णात था ऋग्वेदं सामवेदं गणितमथ कलां वैशिकीं हस्तिशिक्षा | M हस्तिविद्या के अतिरिक्त चौर्यविद्या का भी प्रभूत प्रचार-प्रसार था। सेंध लगाने के भी नियम थे । " कनकशक्ति, भास्करनन्दी तथा योगाचार्य इस शास्त्र के आद्याचार्य माने जाते थे नमो वरदाय कुमार कार्तिकेयाय नयो भास्कर नन्दिने Jain Education International नमः कनकशक्तये ब्रह्मण्यदेवाय देवव्रताय । नमो योगाचार्याय यस्याहं प्रथमः शिष्यः । १७ चौर्य में बल एवं साहस के अतिरिक्त शिक्षा - बल की आवश्यकता थी । चोर शर्विलक कहता है कृत्वा शरीरपरिणाहसुखप्रवेशं शिक्षा बलेन च बलेन च कर्ममार्गम् । " ६. कला कलाक्षेत्र में 'नृत्य, गीत, अभिनय एवं वाद्य कला विकसित अवस्था में थी । स्वयं महाकवि शुद्रक 'वैशिकी कला' में निपुण था । वसन्तसेना के लिए विट ने कहा था कि वह नृत्य गीतादि के अभ्यास से दूसरों को ठगने में कुशल हो गई है और अपना स्वर परिवर्तन भी कर लिया है ६६ For Private & Personal Use Only तुलसी प्रशा www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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