SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वस्त्र का उपयोग होता था, जिसको वर्धमानक भूल गया था और इसी को लाने के कारण गाड़ियों की अदलबदली हुई थी। बसन्तसेना की माता तैल युक्त जूते पहनती थीउवणह जुअलणिक्खित तेल्ल चिक्कणेहि __पादे हिं उच्चासणे उवविट्ठा चिट्ठदि ।" ६. प्रसाधन सामग्री तत्कालीन समाज में प्रचलित प्रसाधन सामग्री में आभूषण, पुप्पों की माला, विभिन्न प्रकार के विलेपन आदि प्रमुख थे। अलंकारों में कुण्डल, नूपुर तथा मणिनिर्मित करधनी का प्रयोग समृद्ध घरानों में किया जाता था। वसन्तसेना जैसी स्त्रियां इन आभूषणों को धारण करती थी । पुरुष अंगूठी तथा कटक (कंकण) धारण करते थे। वसन्तसेना के महल के छठे प्रकोष्ठ में विविध प्रकार के बहुमूल्य रत्नमणियों द्वारा आभूषण निर्माण किए जाने का विवरण मिलता है।" आभूषणों के बाद शृंगार प्रसाधन में पुष्पों की मालाओं का उपयोग किया जाता था। वसन्तसेना पुष्प की माला पहनती थी। विट कहता है--हे भीम तुम्हारी माला से उत्पन्न होने वाली यह गन्ध तथा नूपुर के शब्द तुम्हें सूचित कर देंगे-- त्वां सूचयिष्यति तु माल्यसमुद्भवोऽयं गन्धश्च भीरु मुखराणि च नपुराणि ॥४ उसके छठे प्रकोष्ठ में शंख, कुंकुम, कस्तूरी, चन्दन रस तथा सुगन्धित लेप के प्रयोग का विवरण मिलता है। ७. धार्मिक जीवन __मृच्छकटिक काल में वैदिक धर्म अपनी विकसित अवस्था में था। अनेक प्रकार के यज्ञ एवं याज्ञिक क्रियाएं समाज में प्रचलित थीं। पूजा-पाठ, बलि, तर्पण आदि क्रियाओं का विशेष महत्त्व था। देव-पूजा, बलिकर्म आदि में चारुदत्त निरत दिखाई पड़ता है। विदूषक के द्वारा पूजाकर्म पर प्रश्न चिह्न खड़ा किए जाने पर वह कहता है तपसा मनसा वाग्भिः पूजिता बलि कर्मभिः । तुष्यन्ति शमिनां नित्यं देवता: कि विचारित:।। सामान्य जनता विभिन्न प्रकार के उपवास, व्रत आदि किया करती थी तथा ब्राह्मणों को दान देती थी। निम्नवर्ग के लोग भी धर्म के प्रति श्रद्धालु एवं जागरूक थे। स्थावरक विट आदि के स्थान से यह प्रतीत होता है। परलोक और पुनर्जन्म में विश्वास था। विट कहता हैएनामनागसमहं यदि घातयामि केनोडुपेन परलोकनदीं तरिष्ये ॥ बौद्ध संन्यासियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उनका दर्शन अपणकुन समझा जाता था। कुछ भिक्षु सिर मुंडाकर भी संसारिक वासनाओं में फंसे रहते थे। संभवतः ऐसे ही लोगों के लिए कहा जाता था -- खण्ड २२, अंक १ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy