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________________ है कि आगम साहित्य की भाषा पिटकों से अर्वाचीन हो । किन्तु, इसमें कुछ तारतम्य भी है । स्थल दृष्टि से जितने आघात पालि साहित्य पर होते हैं उतने आगम साहित्य पर नहीं होते । पिटक लिखे गये सिंहलद्वीप में, उनको ले जाने वाला उज्जैन से प्रभावित, उनकी रचना हुई थी पाटलीपुत्र में। अलबत्त, यह सब होता है अल्पसमय में, बुद्ध के उपदेश की स्मृति भी ताजी होगी उसमें शक नहीं। जब सम्राट अशोक अपने लेख में कहते हैं कि ये धम्मपलियाय 'स्वयं भगवता बुद्धेन भासिते तब उनको न मानने के लिए कोई प्रमाण नहीं । प्रादेशिक बोलियों का उस भाषा पर कुछ प्रभाव होते हुए भी मूल का अर्थ व्यवस्थित रहा होगा। आगम साहित्य में कुछ अलग व्यवस्था है। उसमें बहत सा साहित्य नष्टप्राय हो गया होगा। किन्त जो कछ बच गया उसकी भाषा इतनी मिश्रित नहीं है, जितनी पालि साहित्य की है । आगम साहित्य के प्राचीनतम स्तरों में मगध की भाषा का कुछ खयाल मिलता है और स्पष्टता से भी। इसका कारण यह हो सकता है कि जैन धर्म का प्रसार परिमित था, संघ और विहार इतने विपुल न थे, जितने बौद्धों के और परंपरागत साहित्य की सुरक्षा करने में जैन साधु संघ अधिक जागृत भी था। इन सब कारणों से, सामान्य दृष्टि से पालि से अर्वाचीन होते हुए भी, अर्धमागधी साहित्य स्थल दृष्टि से अधिक आधारभूत बुद्ध और महावीर के काल की भाषापरिस्थिति समझने के लिए धार्मिक साहित्य को छोड़कर यदि हम शिलालेखों के प्राकृतों का निरीक्षण करें तो अधिक आधारभूत सामग्री प्राप्त होती है। हमने देखा कि जो अर्धमागधी आगम साहित्य हमारे समक्ष आता है वह काल-क्रम से ठीक-ठीक परिवर्तित स्वरूप से आता है, यद्यपि पूर्व की बोली के कुछ लक्षण उसमें है। पालि साहित्य में भी प्राचीन तत्त्वों की रक्षा होती है, किन्तु पूर्व की अपेक्षा उसमें मध्यदेश का अधिक प्रभाव है इसलिए इस साहित्य से प्राचीन बोलियों के आधारभूत प्रमाण निकालना मुश्किल हो जाता है। इसमें हमको अधिक सहाय तो सम्राट अशोक के शिलालेख---जो ई० पू० २७०-२५० के अरसे में लिखे गए हैं--से मिलती है। उनके विशाल साम्राज्य की फैली हुई सीमाओं पर खुदवाये गये इन शिलालेखों को सचमुच ही भारत का प्रथम लिंग्वीस्टीक सर्वे का नाम मिला है । अशोक ने ये शिलालेख उनके धर्म को फैलाने के लिए व उनके राज्याधिकारिओं को उनकी दृष्टि समझाने के लिए खुदवाये । यद्यपि ये शिलालेख एक ही शैली में लिखे गये हैं, फिर भी उनकी भाषा मे स्थलानुसार भेद मालूम होता है। दूर उत्तरपूर्व में शाहवाझगढी और मानसेरा में लिखे गए लेख दक्षिण-पश्चिम के गिरनार के लेख से भाषा-दृष्टि से भिन्न हैं। इन शिलालेखों के सभी भाषाभेद यद्यपि समझाना मुश्किल हैं तो भी ये शिलालेख तत्कालीन भाषापरिस्थिति समझने के लिए एक अनोखा साहित्य है । ये लेख लिखे गए ई०पू० के तीसरे शतक में और उनकी भाषा है अशोक की राजभाषा, उनके administration और court की भाषा। राजभाषा हमेशा बोलचाल की भाषा से कुछ प्राचीन (archaic) ढंग की होती है। उससे उसकी शिष्टता निभती है। ई० पू० के तीसरे शतक की राजभाषा, ई० पू० के तुमसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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