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________________ वायवः सह गृह्यते । तामिन्द्रो मध्यतौऽवक्रम्य व्याकरोत् । तस्मादियं व्याकृता वागुच्यते इति । –कि पहले वाणी अव्याकृत थी। देवों ने इन्द्र को उसे व्याकृत करने को कहा तो उसने इन्द्र और वायु के मेल से बने पद - ऐन्द्रवायवः को मध्य से तामखण्डां वाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृति प्रत्ययविभागं सर्वत्राकरोत्सायण) व्याकृत कर दिया; इसलिए वाणी व्याकृत कही जाने लगी। इस प्रकार इन्द्र पहले ज्ञात शाब्दिक माने जा सकते हैं। कथासरित्-सागर (तरंग-४) में लिखा है ... तेन प्रणष्टमैन्द्रं तस्मात् व्याकरणं भुवि कि इन्द्र का व्याकरण नष्ट कर दिया गया । हमारी समझ में यह पहला प्राकृत व्याकरण है । 'चरक संहिता' की भट्टारक हरिश्चन्द्र व्याख्या में-अथ वर्ण समूह इति ऐन्द्रव्याकरणस्य और दुर्गाचार्य की निरुक्तवृत्ति में-नैक पद जातम्, यथा अर्थ पदम् इत्यैन्द्राणाम्-ये दो सूत्र ऐन्द्र व्याकरण के हैं। दूसरे आदि शाब्दिक स्पष्ट ही प्राकृतलक्षण के कर्ता हैं। उन्होंने आर्ष प्राकृत के नियमादि दिए हैं। प्राकृत-लक्षण का एक संस्करण ए. एफ. रॉडल्फ ने कलकत्ता से सन् १८८० में प्रकाशित किया है। इसकी स्वोपज्ञ वृति का आरंभ इस प्रकार है'सिद्धं प्रणम्य सर्वज्ञं सवीर्यं जगतो गुरुम् । तीसरे आदि शाब्दिक काशकृत्स्न का कन्नड़ टीका सहित 'काशकृत्स्न शब्द कलाप धातु पाठ' मिला है जिसमें ८०० धातुएं ऐसी हैं जो पाणिनीय धातु पाठ में नहीं हैं और ३५० धातुएं पाणिनीय धातुपाठ में ऐसी हैं जो काश कृत्स्न धातुपाठ में नहीं हैं। इस प्रकार धातु संख्या की दृष्टि से काश कृत्स्न धातु पाठ में ४५० धातुएं अधिक हैं। इन धातुओं से प्राकृत के अनेकों शब्द निस्पन्न हो सकते हैं जो अन्यथा अव्युत्पन्न (असाधनीय) कहे गए हैं ।" चौथे और पांचवें आदि शाब्दिक --आपिशल और शाकटायन के संबंध में जैन आचार्य पाल्यकीति, शाकटायन - व्याकरण की अमोघा वृत्ति (२.४.१८२) में उदाहरण देते हैं- अष्टका आपिशल पाणिनीयाः । यही उदाहरण शाकटायन-व्याकरण की दूसरी व्याख्या-चिन्तामणि वृत्ति में भी है। इससे ज्ञात होता है कि पाणिनीय अष्टाध्यायी की तरह आपिशल और शाकटायन व्याकरणों में आठ, आठ अध्याय थे। वर्तमान में दोनों ही व्याकरण अनुपलब्ध हैं; किन्तु उपलब्ध प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि शाकटायन व्याकरण में लौकिक और वैदिक, उभयविद पदों का अन्वाख्यान था। सातवें और आठवें आदि शाब्दिक- अमर एवं जनेन्द्र के व्याकरण भी नहीं मिलते । अमरकोश के तृतीय काण्ड के पांचवें सर्ग में ' लिंङ्गादि संग्रह' है और देवनंदी (पूज्यपाद) के नाम से प्रसिद्ध जैनेन्द्र व्याकरण के दो संस्करण- औदीत्य और दाक्षिणात्य है । चान्द्रव्याकरण की तरह औदीच्य संस्करण में एक शेष प्रकरण नहीं है इसलिये उसे ही प्राचीन माना जाना चाहिए।' । उपर्युक्त इन आठों आदि शाब्दिकों में पाणिनि के अलावा सातों, प्राकृत-संस्कृत तुलसो प्रज्ञा ८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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