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________________ हिलवाड़ा पाटन से क्रमवार इतिहास नहीं मिला। बिना क्रम का इतिवृत, विभिन्न स्रोतों से जैसा हमें मिला है, वह यहां दिया जा रहा है ।" वि० सं० १३०२ में पाटन छूटने के कई पीढियों बाद नृपराज का वंशज भोज देपावत सिरोही में (माल मगरा के आस-पास) के गांव लास-मुणावद (मणादर) में आवासित था।२ भोज (भोजराज) और सिरोही के राव लाखा (वि० सं० १५०८४०) के बीच शत्रुता हो गई और पांच-सात लड़ाइयों में भोज जीत गया। फिर ईडर के राव ने मदद की तो भोज मारा गया । लास की जागीर छूट जाने पर वे (सोलंकी) मेवाड़ के महाराणा रायमल (वि० सं० १५३०-६६) से मिलने कभलमेर गये। उस समय देसूरी का क्षेत्र मादड़ेचा चौहानों के अधिकार में था और वे (मादड़ेचा) महाराणा की आज्ञा की अवहेलना करते थे, जिससे महाराणा ने उन (सोलंकियों) को मादड़ेचों से देसूरी लेने को कहा। इस पर (भोज के पौत्र) रायमल ने आपत्ति की कि मादड़ेचे तो उनके संबंधी हैं। महाराणा ने कहा कि दूसरी जगह देने को नहीं। तब सोलंकियों ने मादड़ेचों को मार कर (१४० गांवों-सहित) देसूरी का पट्टा लिया । रायमल के चार पुत्र थे, जिनमें से अग्रज शंकरसी के वंशधर तो भीलवाड़ा में जा बसे और दूसरे पुत्र सामंतसी की औलाद वाले रूपनगर में आबाद हुए। भोजराज सोलंकी के दूसरे पुत्र गोड़ा के पुत्र सुलतानसिंह के बेटों ने, जिनमें अखैराज विशेष पुरुषार्थी था, सबने मिल कर महाराणा रायमल के समय वि० सं० १५३५ में जीवराज यादव को मार कर पानरवा (भोमट-मेवाड़) पर अधिकार कर लिया। इसी तरह भोजराज (भोज) का एक अन्य प्रपौत्र सामन्तसिंह का भाई भैरवदास गुजरात के सुलतान बहादुरशाह की चित्तौड़ की दूसरी चढ़ाई में भैरवपोल पर लड़ता हुआ काम आया । महाराणा लाखा व स्थानीय ठाकुर मांडण के समय में पार्श्वनाथ के चैत्य के मंडप के जीर्णोद्धार किये जाने का लेख मिला है ।२६ इससे स्पष्ट होता है कि देसूरी व उसके आसपास का भू-भाग वि० सं० १४७५ से पूर्व ही सोलंकियों के अधीन हो गया था। संभवतः सिरोही के महाराव लाखा के बीच वि० सं० १४८८ में लड़ाई ____लाछ गांव से कुछ अन्तर पर स्थित वाघसीण (बागसीन) ग्राम के शान्तिनाथ मन्दिर से वि० सं० १३५९ वैशाख सुदि १० शनिवार का महाराज सामंतसिंह (जालोर) के समय के लेख से ज्ञात होता है कि सोलंकियों ने सामूहिक रूप में ग्राम, खेत और कुएं के हिसाब से मन्दिर के निमित्त कुछ अनुदान की व्यवस्था की थी। इससे सिद्ध है कि डोडियाल देश (वि० सं० १३१९ संघा शिलालेख में निरुपित) जो उस समय जालोर के सोनगिरों के आधीन था। वहां सोलंकियों का प्रवेश वि० सं० १३५९ तक हो चुका था और यदि सोलंकियों के एक राव के कथन पर विश्वास करें कि वि० सं० १३२६ में कंवरपालजी के खानदान ने सिया का परित्याग किया तो इसका फलितार्थ यही होगा कि वि० सं० १३२६ से १३५९ के मध्य सोलंकियों का लाछ-मणादर में पदार्पण हुआ और वि० सं० १३५९ से १४७५ के बीच किसी समय मेवाड़ की ओर उन्होंने कूच किया। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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