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________________ विक्रम संवत्सर में न्यूनाधिक मास (सं० १ से २५०० वर्षों तक) []'स्व० मुनि हड़मानमलजी, सरदारशहर [मुनिश्री हड़मानमलजी, सरदारशहर की दीक्षा वि० सं० १९९३ में हुई थी। वे तेरापंथ साधु समाज में अग्रगण्य थे और ज्योतिष एवं अंक गणित में दक्ष थे । वि० सं० २०५२ चैत्र सुदी ७ को उन्होंने इस देह का त्याग किया। उनके द्वारा तैयार किए अनेक पत्रों में प्रस्तुत विवरण मिला है। इसमें विक्रम सं० १ से २५०० वर्षों तक के न्यूनाधिक मासों का उपयोगी संकलन है, इसलिए उसे प्रकाशित किया जा रहा है। -संपादक अति प्राचीन काल से वर्ष (संवत्सर) को सौर और चान्द्र भ्रमण के आधार पर परिगणित किया जाता रहा है । तैत्तिरीय संहिता (१४.१४) में बारह महिनों के नाम क्रमशः मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभस्, नभस्य, इष, ऊर्ज, सहस, सहस्य, तपस् और तपस्य आये हैं और साथ ही संसर्प और अहंस्पति रूप में अधिक और क्षय मासों के भी नाम दिये हैं । ऋग्वेद के एकमंत्र (१.१६४.४८) की व्याख्या में बताया गया है कि वर्ष में १२ माह, ३६० दिन और ७२० रात दिन होते हैं और प्रत्येक तीसरे वर्ष चान्द्र और सौर वर्ष का समन्वय अधिक मास अथवा मल तास से किया जाता था। विक्रम संवत्सर में गणना करने पर ढाई हजार वर्षों में ९२५ बार मास बढ़े-घटे हैं यह बढ़ना-घटना कैसे जाना जा सकता है ? इसका सर्व शुद्ध फार्मूला उपलब्ध नहीं है परन्तु यह अध्ययन रोचक है इसलिए न्यूनाधिक मासों के उल्लेख सहित सं० १ से २५०० तक के वर्षांक लिखे जा रहे हैं। खण्ड २१ अंक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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