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में जो नाटकों के प्राकृत के प्राचीनतम उदाहरण हैं - ल्यूडर्स के मतानुसार, प्राचीन मागधी का प्रयोग किया गया है। उनके एक नाटक का खलपात्र 'दुष्ट', मागधी का प्रयोग करता है । इस पात्र की भाषा की अशोक की पूर्व की भाषा के साथ और जोगीमारा की मागधी के साथ तुलना की जा सकती है । अश्वघोष का प्राकृत, अशोक के प्राकृत से तीन चार शतक अर्वाचीन होते हुए भी, साहित्यिक शैली में लिखे जाने से, हमारे पुराणप्रिय देश में कुछ पुरानापन निभाता है, यह स्वाभाविक ही है । 'दुष्ट' की भाषा के ये लक्षण र काल, स श का श, अकारान्त पु० प्र० ए० व० का ए मागधी के लक्षण ही हैं । इनके अतिरिक्त कई लक्षण ऐसे भी हैं जो उत्तरकालीन वैयाकरणों की मागधी से मिलते नहीं, किन्तु वे प्राचीन मागधी के सूचक हैं- स्वरान्तर्गत असंयुक्त व्यंजन अविकृत रहते हैं, न का मूर्धन्यभाव नहीं होता, सर्वनाम के रूपाख्यानों में व्यक्ति वाचक के प्र. पु. ए. व. में अहकम् -- जो हगे का पुरोगामी है - का प्रयोग होता है । इन आधारों पर ल्यूडर्स खलपात्र की इस भाषा को प्राचीन मागधी कहते हैं और नाटकों की मागधी का यह पुरोगामी स्वरूप है ऐसा अभिप्राय प्रदर्शित करते हैं । अगर इसे प्राचीन मागधी कहा जाय और यह कहने में कोई खास दिक्कत नहीं, तो अर्धमागधी का स्वरूप क्या होगा ?
अर्धमागधी शब्द का अर्थ क्या ? आगम साहित्य में बार-बार ऐसा कहा गया है कि भगवान अर्धमागधी भाषा में उपदेश करते हैं । अश्वघोष के नाटकों की भाषा की सहायता इस बारे में मिल सकती है । उनके नाटकों का एक पात्र गोवं. ल्यूडर्स के मत के अनुसार, अर्धमागधी का व्यवहार करता है । उसकी भाषा के लक्षण ये हैं : -अस्ए, र ल और श, सस । प्रथम दो लक्षण उसको मागधी के साथ मिलाते हैं, किन्तु तीसरा उसको मागधी से अलग करता है । इसके अतिरिक्त अकारान्त नान्यतर नामों के द्वि. व. व. के पुप्फा, वाक्यसंधि में पुप्फा येव, हेत्वर्थ कृदंत भुंजित, वर्तमान कृदंत गच्छमाने, स्वार्थिक-क की बहुलता ये सब लक्षण उल्लेखनीय हैं। पुप्फा और भुंजितये का साम्य अर्धमागधी से ही है और श सस होना अर्धमागधी का ही लक्षण है । इन आधारों से ल्यूडर्स इस पात्र की भाषा को प्राचीन अर्धमागधी कहते हैं । भरत के नाट्यशास्त्र के प्रख्यात विधान के अनुसार, नाटकों में अर्धमागधी का प्रयोग स्वाभाविक ही है । उत्तरकालीन नाटकों में यह प्रयोग नहीं मिलता, किन्तु अश्वघोष के पात्र की भाषा को प्राचीन अर्धमागधी कहने में कोई आपत्ति नहीं ।
पूर्व की भाषा
वस्तुत:, अगर भाषा की दृष्टि से देखा के बोलीभेद कितने ? और किस तरह के ? → सु, र→ल, श, सस और कंठ्यों का तालुकरण ।
जाय तो, इस समय की, अशोक की पूर्व की भाषा लक्षण - अश्वघोष की प्राचीन मागधी
के
अस्
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लक्षण -- अस्ए, र ेल, श, सश। एक ओर हम अश्वघोष की मागधी और बागीमारा लेख रख सकते हैं और दूसरी ओर अशोक की पूर्व की भाषा और अश्वघोष की अर्धमागधी को रख सकते हैं । इन दो बोलियों का एक मात्र भेदक लक्षण श और स का उच्चारण है । इतने कम आधार पर बोलीभेद नियत नहीं किए जाते । . बोली - विस्तार में बोलियों की भेदरेखा खिंचते समय हमारे सामने, कुछ अधिक
एक ही
खण्ड २२, अंक १
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