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नैतिक बल से आपूरित हैं । इसीलिए श्रीराम की प्रतिष्ठा भी है । निश्चय ही इन पात्रों को एक पारिवारिक सूत्र में बांधकर कवि ने यह दिखलाना चाहा है कि सदस्यों में नैतिकता का होना अनिवार्य है। नैतिक बल के विना मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन जितना अधूरा एवं निष्फल होता है, उतना ही पारिवारिक और सामाजिक जीवन भी।
(iv) पारिवारिक जीवन ही श्रेष्ठ --- मनुष्य अपना जीवन अकेले रहकर व्यतीत कर सकता है, विवाहित होकर संतति जनन भी कर सकता है और पति-पत्नी एक साथ भी नहीं रह सकता है । अर्थात् दाम्पत्य सूत्र में ग्रथित किन्तु दूर-दूर रहने वाले स्त्री पुरुष भी जीवन-यापन कर सकते हैं। परन्तु वह जीवन कवि को कदापि पसन्द नहीं है । ये तो चाहते हैं कि हर व्यक्ति विवाहित एवं पारिवारिक (गार्हस्थ्य) जीवन व्यतीत करे । परिवार में पति-पत्नी हों, उनके प्यारे-प्यारे बच्चे हों। पत्नी के हृदय में बच्चों के प्रति असीम वात्सल्य हो, स्तनों में दूध हो और पति के प्रति प्रगाढ़ अनुराग हो । सबको एक साथ मिलकर रहने में जो आनन्द मिलता है, वह पृथक्-पृथक रहकर नहीं मिल सकता। उस स्थिति में भी उसे आनन्द की प्राप्ति या अनुभूति नहीं हो सकती, जबकि पति-पत्नी बच्चे एक साथ, एक घर में रहें किन्तु न तो पति का पत्नी के प्रति, न पत्नी का पति के प्रति, न स्त्री-पुरुष का बच्चों के प्रति और न बच्चों का मां-बाप के प्रति स्नेह हो, श्रद्धा हो। ऐसी स्थिति में भी जीवन नारकीय हो जायगा । सभी साथ रहें, प्रेम सूत्र में बंधकर रहें, मर्यादित रहें--यही सुन्दर परिवार का स्वरूप है। वनवासकाल में सीता एकाकिन है। दोनों पुत्र वाल्मीकि आश्रम में है । यह तमसा के साथ छाया रूप में पंचवटी विचरण कर रही है । वार्तालाप के क्रम में उन्हें पुत्रों की याद आती है, स्तनों में दूध भर जाता है; उधर श्रीराम भी उसी जगह है। सीता को क्षण भर के लिए पारिवारिक सुख की अनुभूति होती है। वह कहती है कि एक क्षण के लिए मैं संसारिणी हो गयी हूं। यहां सीता की उक्ति से असीम आनन्दानुभूति की अभिव्यञ्जना होती है । लगता है पारिवारिक जीवन के लिए सीता के हृदय में उत्कण्ठा है, ललक है । परन्तु वह कहां से मिलेगा ? दुर्लभ है। अभी पुत्रों की याद मात्र से पुत्र संयोग का अनुभव करती है और आर्यपुत्र को तो नयनों से निहार रही है। कवि भवभूति की लेखनी इतनी सशक्त है जो सीता के मनोभावों को यहां इतनी सफलता से प्रकट कर सकी है। सीता की वह प्रसन्नता केवल अनुभावन करने योग्य है, शब्दों से अभिव्यक्त करने योग्य नहीं। सीता की एक ही उक्ति यह बतलाने के लिए पर्याप्त है कि गार्हस्थ्य जीवन ही सर्वोपरि है। पारिवारिक जीवन में जो आनन्द है वह किसी अन्य आश्रम में नहीं। भवभूति की दृष्टि में पारिवारिक जीवन ही सर्वश्रेष्ठ
संक्षेपतः, महाकवि भवभूति परिवार को एक व्यक्ति तक सिमट कर नहीं रखना चाहते । ये 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना के समर्थक हैं। उन्होंने परिवार के सदस्यों को नैतिकता से संवलित होने की प्रेरणा दी है। गृहस्थ का संबंध तपस्वी से भी हो ताकि तपः जन्य पवित्रता परिवार में आवे । गृहस्थ अग्निहोत्री हो। पारिवारिक जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है।
खण्ड २२, अंक १
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