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विद्यमान थे।
व्याकरण की दृष्टि से इस विभाग की एक दो हकीकत खास उल्लेखनीय हैं । संबंधक भूतकृदंत का प्रत्यय यहां त्वी है। वेद में इस प्रत्यय का काफी प्रयोग मिलता है। नियाप्राकृत में भी ति मिलता है : श्रुनिति (श्रुत्वा), अघुछिति (अपृष्टवा) । प्राकृत धम्मपद में भी उपजिति, परिवजेति । उल्लेखनीय बात तो यह है कि यहां सामान्यत: त्व का त्प होते हुए भी भूतकृदंत में त्व चालू रहता है। हेत्वर्थ का प्रयोग अशोक में और नियप्राकृत में----'नये' है : क्षमनये। अन्यत्र तवे मिलता है। निय में तुम् के कुछ रूप मिलते हैं : कर्तु, अगन्तु ।
यह पश्चिमोत्तर विभाग में अकारान्त नामों के प्रथमा ए. व. के दोनों प्रत्यय-ए और-ओ प्रचलित मालम होते हैं । प्रधानतः शाह० में-ओ है, मान० में-ए । निय प्राकृत में भी-ए अधिक प्रचलित है। उत्तरकालीन खरोष्ठी लेखों में तो दोनों का प्रयोग है, सिन्धु नदी के पश्चिम के लेखों मे-ए, अन्यत्र-ओ। प्राकृतधम्मपद में ओ और-उ मिलते हैं,-उ अधिक अर्वाचीनता के प्रभाव का सूचक है। निय प्राकृत में पंचमी ए. व. काआतः का भीए प्रचलित है : तदे, चडोददे, गोठदे, शवथदे । हम आगे देखेंगे कि यहए प्रत्यय मागधी की विशिष्टता माना जाता है।।
ध्वनि की अपेक्षा निय प्राकृत के व्याकरण का स्वरूप अत्यंत विकसित है । भारत के अन्य प्राकृत साहित्य पर संस्कृत का प्रभाव गहरा है, किन्तु निय प्राकृत भारत बाहर सुरक्षित होने से शायद इस प्रभाव से मुक्त रहा, वही उसका कारण हो सकता है। निय प्राकृत का काल ई. की तीसरी सदी है, किन्तु उसके व्याकरण का स्वरूप तत्कालीन भारत के अन्य प्राकृत साहित्य की तुलना में अधिक विकसित है । उसके कुछ उदाहरण उल्लेखनीय है।
नाम के सब रूपाख्यान अकारान्त नामों के अनुसार होते हैं ।-इ-उL ऋ कारान्त नामों को-अ लगा देने से ऐसी परिस्थिति बनाई गई है जिससे अपभ्रंश की याद आती है। अपभ्रश की तरह प्रथमा और द्वितीया में प्रत्ययभेद नहीं। भूतकाल कर्मणिभूतकृदंत से सूचित होता है-active भूतकाल- इसके उदाहरण तो हमको नव्य भारतीय आर्य भाषाओं से ही मिलेंगे। उदा--निय में 'दा' का active भूतकाल ऐसा होगाए. व.
व. व. दितेमि
दितम दितेसि
दितेथ दित
दितन्ति इसकी विकास रेखा इस प्रकार सूचित की गई है : दितः अन्निदितेमि, दिताः स्म-दितम, इसका आधार भी मिलता है, क्योंकि प्र. पु. ए. व. में कहीं-ओस्मि भी मिलता है, जो मूल रूप को सूचित करता है। जहां कर्मणिभूत का सूचन करना हो वहां-क का आगम होता है जैसे दित 'दिया', दितग (वा दितए) 'दिया हुआ'। इस ग्रंथ के समय को लक्ष्य में रखते हुए, भूतकाल का यह प्रयोग अत्यन्त महत्त्व का हो
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तुलसी प्रज्ञा
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