Book Title: Sudansan Chariu
Author(s): Nayanandi Muni, Hiralal Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SUDAMSANACARIU OF MUNI NAYANANDI Dr. HIRALAL JAIN RESEARCH INSTITUTE OF PRAKRIT, JAINOLOGY AND AHIMSA, VAISHALI 1970 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prakrit Jain Institute Research Publications Series Volume III General Editor Dr. NATHMAL TATIA, M.A., D.LITT., Director, Research Institute of Prakrit, Jainology and Ahimsa, Vaishali SUDAMSANACARIU MUNI NAYANANDI Edited by DR. HIRALAL JAIN, M.A., D.LITT. RESEARCH INSTITUTE OF PRAKRIT, JAINOLOGY AND AHIMSA, VAISHALI 1970 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ All Rights Reserved Price Rs. 10160 PUBLISHED ON BEHALF OF THE RESEARCH INSTITUTE OF PRAKRIT, JAINOLOGY & AHIMSA, VAISHALI, BY DR. NATHMAL TATIA, M.A., D.Litt., DIRECTOR AND PRINTED AT THE TARA PRINTING WORKS, VARANASI. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत जैनशान शोध-संस्थान शोध-प्रन्थमाला प्रधान संपादक डा० नथमल टाटिया, एम.ए., डी.लिट., निदेशक, प्राकृत जैन-शास्त्र और अहिंसा शोध-संस्थान, वैशाली मुनि नयनंदी विरचित . सुदंसणचरिउ [भूमिका, हिन्दी अनुवाद एवं संस्कृत टिप्पण आदि सहित] संपादक रा. हीरालाल जैन, एम.ए., एल.एल.बी., डी.लिट., अध्यक्ष : संस्कृत-पालि-प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय, जबलपुर भूतपूर्व निदेशक : प्राकृत, जैन-शास्त्र और अहिंसा शोध-संस्थान, वैशाली ( बिहार ) प्रकाशक प्राकृत, जैनशास्त्र, और अहिंसा शोध-संस्थान वैशाली (बिहार) १९७० Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SYS The Government of Bihar established the Research Institute of Prakrit, Jainology and Ahimsa at Vaishali (Muzaffarpur) in 1955 with the object, inter alia, to promote advanced studies and research in Prakrit, Jainology and Ahimsa, and to publish works of permanent value to scholars. This Institute is one of the five institutions planned by this Government as a token of their homage to the tradition of learning and scholarship for which ancient Bihar was noted. Apart from the Vaishali Research Institute, four others, namely, the Mithila Institute of PostGraduate Studies and Research in Sanskrit Learning at Darbhanga, the K. P. Jayaswal Research Institute at Patna, the Bihar Rashtra Bhasha Parishad for Research and Advanced Studies in Hindi at Patna and the Nalanda Institute of Research and Post-Graduate Studies in Buddhist Learning and Pali at Nalanda have been established and have been doing useful work during the last few years. As part of this programme of rehabilitating and reorientating ancient learning and scholarship, this is the Research Volume III, which is a critical edition of Nayanandi's Sudamsaņacariu prepared by Dr. H. L. Jain, an eminent scholar of Prakrit and Jainology. The Government of Bihar hope to continue to sponsor such projects and trust that this humble service to the world of scholarship would bear fruit in the fulness of time. . Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकथन डा० हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित नयनंदी-विरचित सुदंसणचरिउ पाठकों के सम्मुख रखते हुए हमें अतीव हर्ष हो रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ एक चरित काव्य है जिसका उद्देश्य धर्माचरण का सुफल दिखलाना है। पंचनमोकार मंत्र के जाप के फलस्वरूप सुभग नामक ग्वाला सुदंसण श्रेष्ठी के रूप में जन्म लेता है। इस भव में भी वह वासनाओं के प्रलोभन से विचलित नहीं होता है। फलतः देवता आकर उसकी रक्षा करते हैं। और वह राजा के द्वारा दिए गए मृत्यु-दण्ड से बच जाता है। अन्ततः अपने धर्माचरण से वह चार घातिया कर्मों को नष्ट कर केवल ज्ञान तथा सिद्धत्व प्राप्त करता है। धर्माचरण का सुफल दिखलाने वाले अन्य चरित काव्यों की तरह इसमें भी आश्चर्य तत्त्व की बहुलता है। विद्याधर, यक्ष, देव आदि सहज रूप से प्रकट हो पात्रों की सहायता करते हैं। तंत्र-मंत्र में विश्वास, मुनियों की वाणी में श्रद्धा तथा स्वप्नफल और शकुनों में विश्वास भी इस ग्रन्थ के पात्रों में सामान्यतया पाये जाते हैं। एक सीमित उद्देश्य को लेकर चलने के कारण ऐसे काव्यों में कवि प्रायः जीवन के विविध पहलुओं को नहीं छू सकता और भावनाओं का अन्तर्द्वन्दू भी नहीं दिखला सकता है। इनमें प्राधान्य घटनाओं का रहता है और विचारतत्त्व क्षीण रहते हैं। कथा में नायक और नायिका का प्रेम और फिर नायक के प्रति अन्य महिलाओं का प्रेम केन्द्रस्थानीय है। अतः प्रस्तुत काव्य में शृङ्गार रस बहुलता से मिलता है। वीर रस का भी अभाव नहीं है। लेकिन अन्त में सदाचार की स्थापना और वैराग्य की प्रवृत्ति होती है अतः रसों का पर्यवसान शान्त रस में होता है। नयनंदी का यह चरित काव्य आलंकारिक काव्यशैली की परम्परा में है। जहां तहां वर्णनों में समासों की शृङ्खलाएं एवं अलंकारों के जटिल प्रयोग पाठकों को बाण और सुबन्धु की याद दिलाते हैं। अर्थालंकारों के साथ शब्दालंकारों का प्रयोग भी बहुलता से हुआ है। भाषा को अनुरणनात्मक बनाने के लिए शब्दों की और शब्दसमूहों की आवृत्ति के अनेक उदाहरण मिलते हैं। लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा में स्वाभाविकता और लालित्य आया है। ग्रन्थ का एक अत्यन्त ही आकर्षक तत्व छन्दों की विविधता है। इसमें सन्देह नहीं है कि अपने साहित्यिक गुणों से ग्रन्थ पाठकों का चित्ताकर्षण करेगा। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) पुस्तक की प्रस्तावना में डा० जैन ने ग्रन्थ और ग्रन्थकार के परिचय के साथ ही सम्बन्धित कथा की पूर्व परम्परा की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। इस प्रसंग में संस्कृत, प्राकृत तथा पालि साहित्य से अनुरूप कथाओं का उल्लेख किया गया है। काव्य में प्रयुक्त छन्दों की सूची लक्षण उदाहरण के साथ दी गई है जो कि एक स्वतंत्र कोश ही हो गया है। प्रस्तावना का यह अंश विविध छन्दों के जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। डा. जैन ने पुस्तक के साथ हिन्दी अनुवाद संलग्न कर इसे और भी अधिक उपादेय बना दिया है। हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत ग्रन्थ डा. जैन द्वारा सम्पादित मणयकुमार चरिउ, करकण्ड चरिउ, सावयधम्म दोहा, पाहुड दोहा और मयणपराजय चरिउ आदि ग्रन्थों की भांति ही अपभ्रंश साहित्य के पाठकों के लिए अत्यन्त ही उपादेय सिद्ध होगा। वैशाली ७-३-७० नथमल टाटिया Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रस्तावना आदर्श प्रतियों का परिचय प्रन्थकार परिचय सुदंसणचरिउ विषय-सूची कथावस्तु कथा की पूर्व परम्परा भाषा, शैली और काव्य गुण छंद - विश्लेषण २. मूलपाठ विषय सूची ३. सुदंसणचरिउ का मूलपाठ ४. हिंदी अनुवाद संस्कृत टिप्पण ५. ६. शब्द-कोश : ... : : : ... : ... ... पृ० ११-१३ पृ० १३-१४ पृ० १४-१७ पृ० १७-२६ पृ० २६-२७ पृ० २७-४४ पृ० ४५-४८ पृ० १-१५१ पृ० १५३ - २६४ पृ० २६५-३०२ पृ० ३०३-३२२ Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना आदर्श प्रतियों का परिचय 'सुदंसण चरिउ' के मूल माठ का प्रस्तुत संस्करण निम्नलिखित प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों के आधार से तैयार किया गया है तथा प्रत्येक पृष्ठ के अंत में उनके पाठांतर भी अंकित किये गये हैं। क प्रति : यह प्रति कारंजा के सेनगण भंडार की है। और उसके हाशियों पर प्रचुर टिप्पण लिखे हुये हैं। ये टिप्पण प्रस्तुत संस्करण के परिशिष्ट में उद्धृत किये जाते हैं। पत्र संख्या ८३, पंक्तियां प्रति पृष्ठ १० से १३ तक। अक्षर प्रति पंक्ति ३२ से ४० तक। आकार ११३" ४५३" । ग्रंथ के अंत में लेखक की निम्न प्रशस्ति पायी जाती है। ग्रंथ २००० संख्या। संवत् १६०५ वर्ष आषाढ़ वदि १०, शुभे श्री मूलसंधे श्री सरस्वती गच्छे श्री बलात्कारगणे भ० श्री विद्यानंदिदेवास्तत्पट्टे भ० श्री मल्लिभूषण देवास्तत्पट्टे भ० श्री लक्ष्मीचंद्र देवा, भ० श्री वीरचंद्रदेवास्तत्प? भ० श्री ज्ञान भूषण देवा । एतेषां मध्ये । भ० श्री लक्ष्मीचंद्राणां शिष्य आ० सकलकीर्तिना स्वपर पकारार्थ लिखितं । श्री प्रभाचंद्रः ब्र. गुणराजाय प्रदत्तं । श्रीरस्तु । आ० श्री गुणनंदिनां पुस्तकमिदं। इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि यह प्रति संवत् १६०५ आषाढ़ बदी १० को लिखकर पूर्ण की गई थी तथा उसकी गुरु परंपरा निम्न प्रकार है :-मूलसंघ सरस्वती गच्छ, बलात्कारगण, भ० विद्यानंदि, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचंद, वीरचंद, ज्ञानभूषण । अन्यत्र प्राप्त पट्टावलियों से ज्ञानभूषण का काल संवत् १६०० से १६१६ तक पाया जाता है (देखिये : भ० संप्रदाय)। प्रस्तुत पट्टावली में भ० लक्ष्मीचंद्र के शिष्य तथा प्रतिलेखक आ० सकल कीर्तिका नाम नया है। प्रशस्ति के अंत में जो इस प्रति के प्रभाचन्द्र द्वारा गुणराज को दिये जाने का उल्लेख है, वह किसी अन्य हाथ से अन्य स्याही में अन्य समय पर जोड़ा गया है, जो उचित ही है; क्योंकि भ० प्रभाचन्द्र का काल सं० १६२५ से अर्थात् प्रति के लिखे जाने से २० वर्ष पश्चात् पाया जाता है। ख प्रति : यह प्रति अतिशयक्षेत्र महावीरजी के शास्त्रभंडार की है। पत्र संख्या ६५ । पंक्तियां प्रति पत्र १० । अक्षर प्रति पंक्ति ३६ । आकार ११" + ५"। अंत में प्रतिकार की निम्न प्रशस्ति अंकित है : संवत् १५६७ वर्ष माघमासे कृष्णपक्षे द्वितीयायो तिथौ बुधवासरे पुष्यनक्षत्रे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे नंद्याम्नाये श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये भ० श्री पद्यनंदिदेवास्तत्पट्टे भ० श्री शुभचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भ० श्री जिनचंद्रदेवास्तत्पट्टे भ० श्री प्रभाचंद्रदेवास्तच्छिष्य मंडलाचार्य श्री धर्मचन्द्रदेवा तोडागढमहादुर्गात् राजाधिराज Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) सोलंकीराय श्री सूर्यसेन विजयराज्ये तदाम्नाये खंडेलवालान्वये साहगोत्रे साह तेजा भार्या करमती द्वितीय भार्या लोचमदे । प्रथमभार्या करमइती तत्पुत्र साह दूलह । द्वितीय भार्या चमदे तत्पुत्र साह श्रीपाल । साह दूलह भार्या दूलहदे । तत्पुत्रौ द्वौ साह आखा, द्वितीय पुत्र साह हेम । आखा भार्या अहंकारदे द्वितीया कनौलादे । साह हेमभार्या हर्षम । साह श्रीपाल भार्या सरस्वती । तत्पुत्रौ साह होला, द्वितीयः साहाला । होला भार्या हुलसरी तत्पुत्र साह सुरतान | लाला भार्या ललितादे, साह रत्नसी भार्या रयणादे । एतेषां मध्ये साह रतनसी इदं सुस्तक सुदर्शन चरित्रं लिखापितं पल्लिविधानव्रतनिमित्तं । आ० श्री अभयचन्द्रदेवा तत्शिष्य मुनि मदुकीर्ति समर्पितं । पुत्र ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात् सुखी नित्यं निर्व्याधिर्भेषजादू भवेत् ॥ इस प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उक्त प्रति संवत् १५६७, माघ बदी द्वितीया बुधवार को लिखकर पूर्ण हुई थी तथा उसके लिखाने वाले साह रतनसी खंडेलवाल वंश के थे और वे तोडगढ़ में निवास करते थे जहां सोलंकी राजा सूर्यसेन का राज्य था । उन्होंने यह ग्रंथ पल्लिविधानव्रत के निमित्त से लिखाया था और उसे ० श्री अभय चंद्र के शिष्य मुनि पद्मकीर्तिको समर्पित किया था। प्रशस्ति में साह रतनसी के वंश का विस्तार से परिचय दिया गया है और मूलसंघ, बलात्कार गण, सरस्वतीगच्छ नंद्याम्नाय, कुंदकुदाचार्यान्वय भ० पद्मनंदी, शुभचंद्रदेव, जिनचंद्रदेव और प्रभाचंद्रदेव तथा उनके शिष्य मंडलाचार्य धर्मचंद्रदेव का उल्लेख है । भ० पद्मनंदी से प्रभाचंद्र तक के आचार्यों का उल्लेख बलात्कारगण की दिल्ली जयपुर शाखा की पट्टावलियों में पाया जाता है तथा शुभचंद्र से लेकर प्रभाचंद्र तक संवत् १४५० से १५८० तक के उल्लेख मिलते हैं । प्रति : यह प्रति भी अतिशयक्षेत्र महावीर जी के शास्त्रभंडार की है । पत्र संख्या १००, पंक्तियाँ प्रति पृष्ठ है | अक्षर प्रति पंक्ति लगभग ४१-४२ । पत्रों का आकार १०३' x ३१० " । हाशिया दाहिने बायें " तथा ऊपर नीचे ३" है । दोनों हाशियों पर कुछ टिप्पण भी लिखे हैं, जो बहुत अशुद्ध हैं । प्रति की अंतिम पुष्पिका निम्नप्रकार है : - इति सुदर्शनचरित्रं समाप्तं शुभमस्तु | सर्व ग्रंथाग्र २ लो सं० २७७७ अथवा संवत्सरे संवत् १५१७ वर्षे माघवदी पडिवा शनिवासरे । इस पुष्पिका में लिपिकार का कोई उल्लेख नहीं है । किन्तु इतना स्पष्ट है कि प्रति संवत् १५१७ माघ वदी १ शनिवार को लिखकर पूर्ण की गई थी । प्रति इस प्रति की पत्र संख्या १०६ है । पंक्तियाँ प्रति पृष्ठ ८,१० और अक्षर प्रति पंक्ति लगभग ३३, ३४ । आकार १०३ " x ३३" । हाशिया दाहिने बायें १" व ऊपर नीचे ?" । ग्रंथ के अन्त में लिपिकार की निम्नलिखित प्रशस्ति पायी जाती है : -: समाप्तमिदं अशुभकर्मक्षयकारकं सुदर्शन चरित्रं । संवत् १५९८ वर्षे चैत्र सुदी ५ शुक्रवारे श्री गोपाचलदुर्ग निकटस्थ नरेले नाम नगर शुभस्थाने श्री नेमिजिनचैत्या Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लये श्री मूलसंघे पुष्करगच्छे सेनगणे वृषभसेन गणधरान्वये भ० श्री देवभद्र देवाः तत्पट्टे भ० श्रीमत् त्रैविद्य सोमसेन भट्टारकाः तत्पट्टे भ० श्रीमदभिनव गुणभद्रभट्टारक देवाः तत् शिष्य आचार्य मानिकसेनेन लिखितं सुदर्शनचरित्रं स्वपठनाय स्व-लिपिशक्त्या। शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः। सुरत्राण साहि आलम सूरवंश पठानान्वयेश श्री साहि आलमराज्ये लिखितं । इस प्रशस्ति से स्पष्ट है कि उक्त प्रति संवत् १५६८ चैत्र सुदी ५ शुक्रवार गोपाचल अर्थात् ग्वालियर के समीप नरेले ग्राम के नेमिनाथ जैन चेत्यालय में लिखकर पूर्ण की गई थी। उस समय वहाँ सूरवंशी पठान सुलतान शाह आलम का राज्य था। इतिहास से सुज्ञात है कि मुगलवंशीय सम्राट हुमायूँ की अफगान शेरखान के द्वारा सन् १५३६ में पराजय हुई थी और वह पश्चिम की ओर भाग गया था। प्रस्तुत प्रति के लेखनकाल सन् १५४१ में संभवतः इसी अफगान या पठान वंश का सुलतान शाह आलम ग्वालियर के प्रदेश में शासक पद पर आरूढ़ था। यह उल्लेख उस काल के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण है। इन पूर्वोक्त चार हस्तलिखित प्रतियों में से प्रथम क प्रति के आधार से ही मूल ग्रंथ की प्रथम प्रतिलिपि की गई थी। किंतु संपादन में इन चारों प्रतियों का मिलान कर जो पाठ उचित प्रतीत हुआ वही मूल में रखा गया है व अन्य पाठान्तर पाद टिप्पणियों में अंकित कर दिये गये हैं। यों तो चारों प्रतियाँ अपनी-अपनी स्वतंत्रता रखती हैं, किंतु सामान्यतः कहा जा सकता है कि एक ओर क और ख तथा दूसरी ओर ग और घ के पाठ परस्पर मिलान खाते हैं और अपनी दो प्रतिपरंपराओं को सूचित करते हैं। ग्रन्थकारपरिचय __ ग्रंथ की बारहों संधियों की पुष्पिकाओं में कवि ने अपना व अपने गुरु का नाम अंकित कर दिया है। जिससे ज्ञात होता है कि इस काव्य के रचयिता नयनंदी और उनके गुरु माणिक्यनंदी त्रैविद्य थे। ग्रंथ की अंतिम संधि के नौवें कडवक में कवि ने अपनी गुरु परंपरा कुछ और विस्तार के साथ वर्णन की है। तदनुसार महावीर तीर्थंकर की महान् आचार्य परंपरा में महान कुंदकुंदान्वय हुआ और उसमें क्रमशः सुनक्ष, पद्मनंदी, विष्णुनंदी, नंदिनंदी, विश्वनंदी, विशाखनंदी रामनंदी, माणिक्यनंदी और नयनंदी (प्रस्तुत कवि) नामक आचार्य हुए। इनमें उन्होंने विश्वनंदी को अनेक ग्रंथों के कर्ता व जगत्प्रसिद्ध कहा है, विशाखनंदी को सैद्धांतिक की उपाधि दी है, एवं रामनंदी को एक महान धर्मोपदेशक, निष्ठावान् तपस्वी एवं नरेन्द्रों द्वारा वंदनीय कहा है । अपने गुरु माणिक्यनंदी को उन्होंने महापंडित की उपाधि दी है और कहा है कि वे समस्त ग्रंथों के पारगामी, अंगों के ज्ञाता एवं सद्गुणों के निवासभूत थे। यहां स्वयं नयनंदी के संबंध में कहा गया है कि वे एक निर्दोष जगद्विख्यात मुनि थे तथा उनके द्वारा रचित इस सुदर्शनचरित का विद्वानों द्वारा अभिनंदन किया गया था। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) ग्रंथ के संबन्ध में कवि ने कुछ और विशेष महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है । यहाँ उन्होंने कहा है कि अवंती देश की धारा नगरी में जब त्रिभुवन नारायण श्रीनिकेत नरेश भोजदेव का राज्य था, तभी उसी धारा नगरी के एक जैन मन्दिर के महाविहार में बैठकर उन्होंने वि० संवत् ११०० में इस सुदर्शनचरित्र की रचना की । स्पष्ट ही यह उल्लेख मालवा के परमार वंशी सुप्रसिद्ध नरेश भोजदेव का है, जिनके राज्यकाल के शिलालेख ई० सन् १०२० से २०४७ अर्थात् संवत् १०७७ से ११०४ तक के पाये जाते हैं तथा जिनका राज्य राजस्थान में चित्तौड़ से लेकर दक्षिण में कोंकण व गोदावरी तक विस्तीर्ण था । इनकी ख्याति विद्वन्मंडली के संरक्षण तथा संस्कृत - प्राकृत भाषाओं के साहित्य सृजन के लिए विशेष रूप से पायी जाती है । वे स्वयं सरस्वतीकंठाभरण जैसे विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थों के रचयिता हैं । उनके राज्यकाल में अनेक जैन ग्रंथों की रचना हुई पायी जाती हैं । कथावस्तु प्रस्तुत सुदंसणचरिउ कथात्मक काव्य है, जिसकी रचना विशेष रूप से जैनधर्म के सुप्रसिद्ध पंचनमोकार मंत्र के जाप का पुण्य-प्रभाव प्रगट करने के लिये हुई है। ग्रंथ में बारह संधियां हैं । प्रथम संधि में नमोकार मंत्र का पाठ करके उसके द्वारा एक ग्वाले के सुदर्शन सेठ के रूप में जन्म पाने का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की गयी और महावीर जिनेन्द्र की वंदना के पश्चात् जंबूद्वीप, मगधदेश, राजगृह नगर तथा वहां के राजा श्रेणिक का वर्णन किया गया है । तदुपरांत विपुलाचल पर्वत पर भ० महावीर की समोशरण रचना, राजा द्वारा उनकी वंदनायात्रा स्तुति एवं गौतम गणधर से तीर्थंकर, त्रेसठशलाका पुरुषों संबंधी प्रश्न किये जाने पर गणधर द्वारा उनके समाधान का वर्णन है । ( संधि - १) । राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर से दूसरा प्रश्न पंचनमोकार मंत्र के फल के संबंध में किया । इसके उत्तर में गौतम गणधर ने त्रैलोक्य का वर्णन करके अंगदेश चंपानगरी, राजा धाईवाहन तथा वहां के निवासी सेठ ऋषभदास उनकी पत्नी अर्हद्दासी तथा उनके सुभग नामक ग्वाले का वर्णन किया । इस ग्वाले को एक बार वन में मुनिराज के दर्शन हुए और उनसे उसने नमोकार मंत्र का उपदेश पाया उस मंत्र को वह निरंतर उच्चारण करने लगा । सेठ ने उसकी बात सुनकर उसे मंत्र का माहात्म्य समझाया और धर्मोपदेश भी दिया। एक बार वह गोप गंगा नदी में जल क्रीड़ा कर रहा था, तभी एक ठूंठ से आहत होकर उसी मंत्र का स्मरण करते हुए उसका देहावसान हो गया । ( संधि - २ ) । इधर सेठानी ने एक स्वप्न देखा, जिसका फल जानने के लिये पति-पत्नी जिन मंदिर को गये। वहां एक मुनिराज ने उस स्वप्न के फलस्वरूप उन्हें पुत्र प्राप्ति का शुभ समाचार सुनाया । यथासमय सेठानी ने एक अति सुंदर व शुभ लक्षणों से युक्त पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम सुदर्शन रखा गया। जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया । बाल-क्रीड़ा करता हुआ सुदर्शन कुछ बड़ा हुआ । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) उसने नाना विद्याएं और कलाएं सीखीं और कामदेव जैसा यौवन प्राप्त किया। उसे देख नगर की नारियां उस पर मोहासक्त होने लगीं। (संधि-३)। __ सुदर्शन का एक घनिष्ठ मित्र कपिल था। उसके साथ नगर में भ्रमण करते हुए सुदर्शन ने मनोरमा नामक युवती को देखा और वह उस पर कामासक्त हो गया। मनोरमा भी उस पर मोहित हो गयी। इस प्रसंग में यहाँ कामशास्त्र प्रणीत देश-देश की नारियों की प्रकृति आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। (सन्धि -४)। सुदर्शन और मनोरमा की कामपीड़ा से उनके माता-पिता को चिन्ता हुयी। दोनों पिताओं ने मिलकर अपने पुत्र-पुत्री का परस्पर विवाह करने का निश्चय किया। विवाह की लग्न शोधी गयी और विवाहोत्सव मनाया गया। विवाह के समय की ज्योनार का भी अच्छा वर्णन किया गया। तदुपरान्त सूर्यास्त वर्णन, रात्रि वर्णन, वर-वधू की काम-क्रीड़ा एवं प्रभात वर्णन के साथ सन्धि समाप्त होती है । (सन्धि -५)। सुदर्शन के पिता सेठ ऋषभदास ने मुनि दर्शन किया, जिनसे उन्होंने मद्य, मांस और मधु के दोषों तथा अहिंसादि अणुव्रतों व गुणव्रतों, पात्र-दान, रात्रि भोजन के दोष आदि का उपदेश पाया। अन्त में मुनि ने मधुबिन्दु का दृष्टान्त देकर समझाया। यह समस्त धर्मोपदेश सुनकर सेठ ऋषभदास को वैराग्य उत्पन्न हो गया, और उन्होंने अपने पुत्र को गृहस्थ मार्ग की शिक्षा देकर व उसे कुटुम्ब का सब भार सौंपकर मुनि दीक्षा धारण की और यथासमय स्वर्ग गति प्राप्त की। (सन्धि-६)। सेठ सुदर्शन सुख से रहने लगे। किंतु उन पर उनके मित्र की पत्नी कपिला मोहासक्त हो गयी। उसने छल से सुदर्शन को अपने यहां बुलाया और उनसे काम-याचना की। किन्तु धार्मिक सेठ ने स्वयं नपुंसक होने का बहाना करके अपने प्राण छुड़ाये। वसंत ऋतु का आगमन हुआ, जिसका उत्सव मनाने राजा और प्रजा ने उपवन यात्रा की। इस यात्रा में रानी अभया ने सुदर्शन की पत्नी मनोरमा को देखा और उसकी प्रशंसा की, विशेष रूप से इस कारण कि वह पुत्रवती थी। जबकि रानी स्वयं पुत्रहीन थी। इस बात पर कपिला ने आपत्ति की कि जब उसका पति षंढ है तो उसे पुत्र प्राप्ति कहां से संभव है ? कपिला के मर्म की बात जानकर रानी ने उसका उपहास किया और स्वयं प्रतिज्ञा की कि वह सुदर्शन सेठ को अपने वशीभूत करके रहेगी। उद्यान क्रीड़ा की रंगरेलियों के पश्चात् राजा और प्रजा सब नगर को लौट आये। (संधि-७)। ___अभया रानी तभी से विरह वेदना में रहने लगी। उसकी दयनीय अवस्था देखकर उसकी पंडिता नामक सखी ने उसके हृदय की बात जानने का प्रयत्न किया और जानकर रानी को बहुत समझाया एवं शील की प्रशंसा की, किंतु रानी का हठ न छूटा और अंततः विवश होकर पंडिता को अभया की कामवासना तृप्त कराने के लिए वचनबद्ध होना पड़ा। सीधे उपाय से दृढव्रती सुदर्शन को फुसलाना असंभव Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानकर पंडिता ने एक कुटिल चाल चली। उसने कुम्हार से मनुष्याकृति के मिट्टी के सात पुतले बनवाये। वह प्रतिपदा से लेकर सप्तमी तक क्रम से एक-एक पुतला ढक कर अपने साथ लाती, प्रतोली द्वार पर द्वारपाल से झगड़कर पुतला फोड़ डालती तथा द्वारपाल को रानी का भय दिखलाकर आगे के लिए उसे चुप करा देती। इस प्रकार उसने महल के सातों द्वारपालों को अपने वश में करके अपने लिये अंतःपुर का प्रवेश निर्बाध बना लिया। अष्टमी के दिन सुदर्शन श्मशान में कायोत्सर्ग किया करता था। उस दिन जब वह सायंकाल श्मशान जाने लगा तब उसे नाना अपशकुन हुए, जिनकी चिंता न कर वह श्मशान में जाकर ध्यान करने लगा। पंडिता ने उसके पास जाकर पहले तो उसे ध्यानच्युत व प्रलोभित करने का प्रयत्न किया, किंतु जब वह अपने इस असत्प्रयास में सफल न हुई तो वह उसे उसी प्रकार उठाकर राजमहल में ले गयी जिस प्रकार वह उन मिट्टी के पुतलों को ले जाया करती थी। रानी के शयनागार में सुदर्शन को बहुत प्रलोभित किया गया, किंतु वह अपने व्रत से लेशमात्र भी विचलित नहीं हुआ। रात्रि बीती जा रही थी। अतएव रानी ने निराश होकर दूसरा कपट जाल रचा। उसने अपने शरीर को स्वयं नोच-नोचकर क्षत-विक्षत कर डाला और यह पुकार मचा दी कि सेठ सुदर्शन ने बल पूर्वक अंतःपुर में प्रवेशकर उसका शील भंग करने का प्रयत्न किया। यह समाचार राजा तक पहुंच गया और उसने बिना सोचे समझे सेठ को प्राण दंड का आदेश दे दिया। राजपुरुष उसे पकड़कर श्मशान ले जाने लगे। नगर में हाहाकार मच गया और सुदर्शन की पत्नी मनोरमा ने बड़ा हृदयद्रावक विलाप किया। श्मशान में राजपुरुषों ने सुदर्शन को अपने इष्टदेव का स्मरण करने की बात कही। सुदर्शन तो पहले से ही धर्मध्यान में लीन था, ज्योंहीं उसके ऊपर शस्त्रों का प्रहार हुआ त्योंही एक व्यंतर देव ने आकर उनको स्तंभित कर दिया और इसप्रकार धर्म के प्रभाव से सुदर्शन के प्राणों की रक्षा हुई (संधि-८)। व्यंतर देव का राजा की सेनाओं से भयानक युद्ध हुआ। राजसेना के परास्त होने पर स्वयं नरेश उस व्यंतर से युद्ध करने आये, किंतु अंततः राजा को अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ी और उस व्यंतर देव के आदेशानुसार सुदर्शन की शरण में जाना पड़ा। राजा ने सुदर्शन से क्षमा याचना की तथा उसे अपना आधा राज्य समर्पण करना स्वीकार किया। सुदर्शन ने राजा को तो अभयदान दिया, किन्तु स्वयं राज्य वैभव स्वीकार नहीं किया। वह संसार की भीषणता व जीवन की क्षणभंगुरता से विरक्त हो गया और उसने मुनि-दीक्षा धारण करने का निश्चय कर लिया। राजा ने सुदर्शन की स्तुति की। उधर राजा के लौटने से पूर्व ही अभया रानी ने आत्मघात कर लिया और मरकर वह पाटलिपुत्र नगर में व्यंतरी होकर उत्पन्न हुई। पंडिता भी पाटलिपुत्र भाग गयी और वहां देवदत्ता गणिका के घर रहने लगी । (संधि-६) जीवन संकट से मुक्त होकर सुदर्शन जिन मंदिर में गया। वहां इसे विमलवाहन मुनि के दर्शन हुए, जिनसे उसने अपने भवांतर पूछे। मुनि ने उसके क्रमशः Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) व्याघ्र नामक क्रूर भील, श्वान तथा सुभग गोपाल इन तीन पूर्वभवों का वर्णन किया और बतलाया कि किस प्रकार वह नमोकार मंत्र के प्रभाव से सुदर्शन सेठ हुआ है। उसी प्रकार जो व्याघ्री भील की पत्नी थी, वह एक धोबी की पुत्री हुई और विधवा होकर निशि-भोजन त्याग व्रत के फलस्वरूप वह उसकी मनोरमा नामक भार्या के रूप में जन्मी। मुनि का धर्मोपदेश सुनकर सुदर्शन ने मुनि के महाव्रत धारण किये। (संधि-१०)। सुदर्शन के पूर्वभव तथा मुनि-दीक्षा लेने का समाचार सुनकर चम्पा के राजा धाईवाहन को भी वैराग्य हो गया और उन्होंने भी अपने पुत्र को राज्य देकर मुनिव्रत धारण किये । इसी प्रकार उनकी रानियों तथा नगर की अन्य नारियों ने भी व्रत धारण किये । सुदर्शन मुनि कठोरता से व्रत पालन करने लगे। वे विहार करते हुए पाटलिपुत्र पहुँचे, जहाँ पंडिता ने देवदत्ता गणिका को उनका परिचय कराया। गणिका ने छल से उन्हें अपने गृह में प्रवेश कराकर कपाट बन्द कर दिये और मुनि को प्रलोभित करने की गणिकाने सुलभ समस्त चेष्टाएँ की। अन्त में निराश होकर उसने उन्हें श्मशान में जा डाला। वहाँ जब वे ध्यानस्थ थे, तभी एक देवांगना का विमान उनके ऊपर आकर अचल हो गया। देवांगना रुष्ट हुई। और मुनि को देखकर उसे अपने अभया रानी के पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। उसने अपनी वैक्रियिक ऋद्धि से मुनि के चारों ओर घोर उपसर्ग करना आरम्भ किया। भूतों और बैतालों की कुत्सित लीलाएँ होने लगी, किन्तु फिर भी सुदर्शन मुनि स्थिर रहे। इसी बीच एक रक्षक व्यंतर ने आकर उस व्यंतरी को ललकारा और उसे पराजित कर भगा दिया। (सन्धि -११)। ___ कुछ समय पश्चात् सुदर्शन मुनि के चार घातिया कमों का नाश हो गया। और उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। देवलोक से इन्द्र ने आकर उनकी स्तुति की और कुबेर ने समोशरण की रचना की । केवली के अतिशय तथा उनके उपदेश को देख सुनकर उस व्यंतरी को भी वैराग्य भाव हो गया और उसने तथा अन्य नर-नारियों ने सम्यक्त्व भाव धारण किया। इस प्रकार पंच नमोकार मंत्र के पुण्य-प्रभाव का वर्णन कर गौतम स्वामी ने राजा श्रेणिक से कहा कि कोई भी अन्य नर-नारी इस मन्त्र की आराधना द्वारा सांसारिक बैभव व मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। यह सुनकर मगधेश्वर ने जिनेन्द्र की स्तुति की और विपुलाचल से उतरकर अपने राजभवन को गमन किया। (संधि-१२) । कथा की पूर्व परम्परा प्रस्तुत ग्रन्थ के कथानक से स्पष्ट है कि उसकी केन्द्रीय घटना एक स्त्री के परपुरुष के ऊपर मोहासक्त होकर उसका प्रेम प्राप्त करने का एक उत्कट प्रयत्न करना है। यह कथातत्व सांसारिक जीवन का प्रायः एक शाश्वत अंश है और उसके दृष्टान्त प्राचीनतम ग्रन्थों से लेकर वर्तमानकालीन साहित्य तक में पाये जाते हैं। यहाँ ऐसे ही कुछ आख्यानों की ओर ध्यान आकर्षित किया जाता है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) स्त्री की ओर से अनुचित प्रेम के प्रस्ताव और पुरुष द्वारा उसके निषेध के कुछ प्रसंग हमें प्राचीनतम भारतीय साहित्य में भी दिखायी देते हैं । इस विषय का सबसे प्रसिद्ध ऋग्वेद का वह सूक्त (१०, ११) है जिसमें यम और यमी का संवाद पाया जाता है। यमी अपने जुड़वां भ्राता यम से प्रेम का प्रस्ताव करती है और यम उसे अनुचित समझकर अस्वीकार करता है । वह वार्तालाप इस प्रकार है यमी-विस्तृत समुद्र के मध्य द्वीप में आकर, इस निर्जन प्रदेश में, मैं तुम्हारा सहवास व मिलन चाहती हूँ, क्योंकि गर्भावस्था से ही तुम मेरे साथी हो । विधाता ने मन ही मन समझा है कि तुम्हारे द्वारा मेरे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा वह हमारे पिता का एक श्रेष्ठ नाती होगा। यम-यमी, तुम्हारा साथी यम तुम्हारे साथ ऐसा सम्पर्क नहीं चाहता, क्योंकि तुम सहोदरा भगिनी हो, अगन्तव्या हो । यह निर्जन प्रदेश नहीं है, क्योंकि बली प्रजापति के धुलोक का धारण करनेवाले वीर पुत्र ( देवों के चर ) सब देखते हैं। यमी-यद्यपि मनुष्य के लिए ऐसा संसर्ग निषिद्ध है, तो भी देवता लोग इच्छा पूर्वक ऐसा संसर्ग करते हैं। इसलिए मेरी जैसी इच्छा होती है, वैसे ही तुम भी करो। पुत्र-जन्मदाता पति के समान मेरे शरीर में पैठो। यम-हमने ऐसा कर्म कभी नहीं किया। हम सत्य-वक्ता हैं। कभी मिथ्याकथन नहीं किया है। अन्तरिक्ष में स्थिर गन्धर्व वा जल के धारक आदित्य और अन्तरिक्ष में ही रहने वाली योषा ( सूर्य की स्त्री सरण्यू ) हमारे माता-पिता हैं। इसलिए हम सहोदर बन्धु हैं । ऐसा सम्बन्ध उचित नहीं। यमी-रूपकर्ता, शुभाशुभ प्रेरक, सर्वात्मक, दिव्य और जनक प्रजापति ने तो हमें गर्भावस्था में ही दम्पति बना दिया है। प्रजापति का कर्म कोई लुप्त नहीं कर सकता। हमारे इस सम्बन्ध को द्यावा-पृथिवी भी जानते हैं । जैसे एक शय्या पर पत्नी पति के पास अपनी देह का उद्घाटन करती है, वैसे ही तुम्हारे पास, यम, मैं अपने शरीर को प्रकाशित कर देती हूँ। तुम मेरी अभिलाषा करो। आओ, एक स्थान पर दोनों शयन करें रथ के दोनों चक्कों के समान हम एक कार्य में प्रवृत्त हों। यम-देवों के जो गुप्तचर हैं, वे दिन रात विचरण करते हैं, उनकी आँखें कभी बन्द नहीं होती। दुखदायिनी यमी, शीघ्र दूसरे के पास जाओ, और रथ के चक्कों के समान उसके साथ एक कार्य करो । इत्यादि। ऋग्वेद के वृषाकपि सूक्त (१०.८६) में जो इन्द्राणी और वृषाकपि के उत्तरप्रत्युत्तर पाये जाते हैं तथा इन्द्राणी ने उसके विरुद्ध इन्द्र से जो शिकायत की है उसमें भी प्रेम के प्रस्ताव, अस्वीकार और बदले में विनाश की भावना पायी जाती है । यथा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) इन्द्राणी - मुझ से बढ़कर कोई स्त्री सौभाग्यवती नहीं है, सुपुत्रवाली भी नहीं है । मुझ से बढ़कर कोई स्त्री पुरुष के पास शरीर को नहीं प्रफुल्ल कर सकती इत्यादि । वृषाकपि-माता इन्द्राणी, तुमने सुन्दर लाभ किया है । तुम्हारा अंग, जंघा, मस्तक आदि आवश्यकतानुसार हो जायेंगे । प्रेमालाप से कोकिलादि पक्षी के समान तुम पिता को प्रसन्न करो । इन्द्र सर्वश्रेष्ठ हैं । इन्द्र-सुन्दर भुजाओं, सुन्दर अंगुलियों लम्बे बालों और मोटी जांघों वाली, वीरपत्नी इन्द्राणी, तुम वृषाकपि पर क्यों क्रुद्ध हो । इन्द्राणी -- यह हिंसक वृषाकपि मुझे पति-पुत्र- विहीना के समान समझता है । परन्तु मैं पति-पुत्र वाली इन्द्रपत्नी हूँ । मेरे सहायक मरुत् लोग हैं । इन्द्र - इन्द्राणी, अपने हितैषी वृषाकपि के बिना मैं नहीं प्रसन्न रहता । वृषाकपि का ही प्रीतिकर द्रव्य देवों के पास जाता है । इन्द्र सर्वश्रेष्ठ हैं । पुरुषों पर कामासक्त होकर स्त्रियों द्वारा उनके फुसलाये जाने की अनेक कथायें पालि जातकों में पायी जाती हैं। समिद्धि जातक (१६७ ) के अनुसार एक बार बोधिसत्व के सुन्दर शरीर को देखकर एक देव कन्या उन पर आसक्त हो गयी और बोली कि आप बिना भोग विलास का सुखानुभव किये भिक्षु बन गये यह उचित नहीं । सुख भोग कर ही भिक्षु बनना उचित है । इस पर बोधिसत्व ने उसेयह कह कर चुप कर दिया कि कौन जानता है मृत्यु कब आ जाय ? अतः जितने शीघ्र हो सके, बिना भोगविलास में समय खोये प्रब्रजित होकर अपना कल्याण करना उचित है ! महापद्म जातक (४७२) में यह प्रवृत्ति एक और चरण आगे बढ़ी पायी जाती है । यहाँ न केवल पर-पुरुष पर किन्तु अपने ही सोतेले पुत्र पर कामासक्त होकर उसे प्रेरित करने और असफल होकर उसे मरवा डालने का भी प्रयास पाया जाता है । बोधिसत्व वाराणसी के राजा के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए । मुख की अपूर्व शोभा के कारण उनका नाम पद्मकुमार रखा गया । माता की मृत्यु हो गयी और राजा ने दूसरी पटरानी बनायी । एक बार राजा विद्रोह को शान्त करने के लिए राजधानी से बाहर गया । अवसर पाकर रानी ने पद्मकुमार से प्रेम का प्रस्ताव किया जिसे उसने सर्व ठुकरा दिया । निराश होकर रानी ने उसका सिर कटवा डालने की भी धमकी दी। तो भी कुमार नहीं माना। रानी ने अपने शरीर को अपने ही नखों से नोंच डाला और मैल कुचैले वस्त्र पहन कर शय्या पर पड़ रही । राजा के आने पर उसने कहा पद्मकुमार ने उस पर कामासक्त होकर उसकी यह दुर्दशा की है । राजा ने रुष्ट होकर पद्मकुमार को चोर-प्रपात से गिराकर मार डालने का आदेश दिया । वनदेवी ने उसे गिरते हुए अपनी हथेली पर लेकर बचाया । कुमार प्रव्रजित हो गया । राजा को पता चला और उसने कुमार को मनाकर राज्य में वापिस लाने का प्रयत्न किया । किन्तु कुमार ने नहीं माना। सच्ची बात जानकर राजा ने उस रानी को उलटे पैर चोर-प्रपात से गिरवा कर उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) इसी प्रकार की एक और कथा बन्धनमोक्ष जातक (१२०) में आयी है। बोधिसत्त्व ने पुरोहित के घर जन्म लिया और यथासमय स्वयं राजपुरोहित बना। एक बार राजा विद्रोह-दमन के लिए बाहर गया । अवसर पाकर रानी ने राजपुरोहित से प्रेम की माँग की। उसके अस्वीकार करने पर रानी ने अपने शरीर को नोंच खसोट डाला और मलिन वस्त्र पहन कर पड़ रही। राजा के आने पर उसने राजपुरोहित को दोषी ठहराया । राजा ने उसे बाँधकर वध स्थान पर ले जाकर सिर काट डालने का आदेश दे दिया। पुरोहित ने राजा से मिलने की इच्छा प्रकट की और उन्हें सप्रमाण सच्ची बात बतला दी और रानी के प्रति राजा के क्रोध को यह कहकर शान्त किया कि स्त्रियों में स्वभावतः ही कामुकता अधिक होती है। संस्कृत बौद्ध साहित्य में भी इस प्रकार का एक आख्यान ध्यान देने योग्य है। दिव्यावदान नामक ग्रंथ के शार्दूलकर्णावदान नामक ३३ वें अवदान में कहा गया है कि एक बार भगवान बुद्ध के प्रधान शिष्य आनन्द श्रावस्ती नगरी में भिक्षा के लिये गये । लौटते समय उन्हें प्यास लगी। एक कुएँ पर कोई युवती पानी भर रही थी। उससे आनन्द ने पानी माँगा। युवती ने अपनी जाति चाण्डाल बतलायी। आनन्द ने कहा मैं तुम्हारी जाति नहीं पूछता, पानी पीना चाहता हूँ । कन्या ने पानी पिला दिया। वह आनन्द के रूप और गुणों पर मोहित हो गयी। घर आकर अपनी माता से आनन्द को स्वामी के रूप में पाने की अपनी इच्छा प्रकट की। माता महाविद्याधारी थी, उसने मंत्र के प्रभाव से आनन्द के चित्त को भ्रान्त कर दिया और वह उस चाण्डाली के घर जा पहुँचा, चाण्डाल कन्या प्रकृति ने शय्या तैयार कर आनन्द को अपने पास बुलाया। यह देख आनन्द रोने व भगवान बुद्ध का स्मरण करने लगा। बुद्ध ने अपनी मंत्र-विद्या से चाण्डाली के मंत्र प्रभाव को दूर कर दिया। और आनन्द अपने विहार में लौट आया, किन्तु प्रकृति का मोह दूर नहीं हुआ और वह प्रतिदिन भिक्षा के समय आनन्द का पीछा किया करती थी। बुद्ध ने उस कन्या को अपने पास बुलवाया और भिक्षुणी की दीक्षा दे दी। इससे नगर के ब्राह्मणों में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ। राजा प्रसेनजित को भी यह खबर मिली और वे अन्य ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि नागरिकों सहित बुद्ध के पास गये । बुद्ध ने उन्हें चाण्डाल नरेश त्रिशंकु की कथा सुनायी जिसके अनुसार उसने अपने पुत्र शार्दूलकर्ण का विवाह पुष्करसारी नामक ब्राह्यण की कन्या से कराना चाहा। स्वभावतः पुष्करसारी ने इसका विरोध किया। किन्तु जब त्रिशंकु ने जाति-भेद की निरर्थकता तथा कर्म सिद्धान्त की अनिवार्यता का व्याख्यान किया, तब पुष्करसारी ने त्रिशंकु के ज्ञान से प्रभावित होकर उक्त विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दे दी। बुद्ध ने यह भी बतलाया कि पुष्करसारी की वही कन्या इस जन्म की चाण्डाल-कन्या प्रकृति है। शार्दूलकर्ण ही आनन्द है और वे स्वयं भी वही त्रिशंकु हैं। ___ पुराणों में अनेक ऐसे आख्यान पाये जाते हैं जहाँ कामिनी स्त्रियों की ओर से अनुचित प्रेम के प्रस्ताव किये गये और नीतिमान पुरुषों ने उन्हें ठुकरा दिया, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) जिसके फलस्वरूप उन्हें कभी-कभी जीवन का संकट भी भोगना पड़ा। इस सम्बन्ध में विष्णुपुराण (५,२७) का यह आख्यान उल्लेखनीय है: कामदेव ने कृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न कुमार के रूप में जन्म लिया। जन्म से छठे दिन ही कृष्ण के शत्रु शम्बरासुर ने बालक का अपहरण कर उसे लवण समुद्र में पटक दिया। वहाँ उसे एक मत्स्य ने निगल लिया। वह मत्स्य मछुओं द्वारा पकड़ा गया और शम्बर के ही भोजनालय में पहुँच गया। मत्स्य के उदर से निकले कुमार को देखकर आश्चर्य चकित हई शम्बर की पत्नी मायावती को नारद ने उसका सब वृत्तान्त बतला दिया। उसने उसे पुत्रवत् पाला। किन्तु जब वह युवक हुआ तो मायावती उस पर मोहित हो गयी और उसने नाना प्रकार से उसे प्रेरित करने की चेष्टा की। तथापि प्रद्युम्न किसी प्रकार भी उसके अनुचित प्रस्ताव को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ। तब मायावती ने उसे उसके कृष्ण-रुक्मिणी का पुत्र होने तथा शम्बर द्वारा अपहरण आदि का सब वृत्तान्त सुना दिया। इस पर प्रद्युम्न बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने काल शम्बर को मार डाला और मायावती को लेकर अपने पिता के घर आ गया, क्योंकि मायावती ने उसे यह भी बतलाया कि वह उसकी पूर्वजन्म की पत्नी रति ही है। यही कथानक भागवत (१०,५५ आदि) में भी आया है। यह कथानक वसुदेवहिंडी (पढ़िया) में निम्न प्रकार पाया जाता है। प्रद्युम्न कुमार के जन्मते ही उसे पूर्व जन्म का वैरी धूमकेतु नामक ज्यौतिषी देव उठा ले गया और भूतरमण नामक अटवीं में शिलातल पर यह सोच कर छोड़ गया कि वह सूर्य की गर्मी से झुलसकर मर जायगा। किन्तु कालसंवर और कनकमाला विद्याधर पति-पत्नी वहां से निकले और बालक को उठा ले गये। उन्होंने उसका नाम प्रद्युम्न रखा। युवा होने पर कनकमाला उस पर आसक्त हो गई। प्रद्युम्न के अस्वीकार करने पर वह रुष्ट हा गयी और कंचुकी से राजा को कहलवाया कि प्रद्युम्न दुष्ट है, मेरा उल्लंघन करना चाहता है, अतः उसे दण्ड दिया जाय । राजा को प्रद्युम्न के विषय में भरोसा था, अतः उक्त बात सुनकर भी कुपित नहीं हुआ। तब कनकमाला ने अपने पुत्रों से कहा कि वे उस दुराचारी का शीघ्र विनाश करें। दोनों पुत्रों ने स्वीकार किया। उन्होंने कालाम्बुक वापी में एक शूल गड़ाया और प्रद्युम्न से कहा चलो उसमें स्नान करें। प्रद्युम्न ने कहा भाई तुम लोग जाओ और मज्जन करो, जननी के द्वारा दूषित मेरे मज्जन से क्या ? उन्होंने कहा देवी द्वारा रोष में कही बात पर कौन विश्वास करेगा चलो स्नान करें। यह कहकर वे उसे ले गये और उसे बीच में करके वापी में गिरा दिया। प्रद्युम्न शूल में छिदकर रह गया। उसने प्रज्ञप्ति विद्या का स्मरण किया जिससे उसका शूल से उद्धार हो गया। उसने वापी से निकल कर घर जाते हुए भाइयों को ललकारा और युद्ध में उन्हें मार गिराया। पुत्रवध की बात सुनकर राजा कुपित हुआ, किन्तु मंत्रियों ने समझा-बुझाकर उसे शान्त किया। इधर भ्रातृ-वध के शोक से वयं Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २२ ) व्याकुल हुए प्रद्यम्न कुमार को नारद मुनि ने आकर संबोधन किया और वे उसे उसकी सच्ची माता रुक्मिणी के यहां ले गये। यही कथानक जिनसेन कृत हरिवंश पुराण (४३-४७) में इस प्रकार वर्णित है। प्रद्युम्न का जन्म होते ही उसे उसके पूर्व जन्म का बैरी धूमकेतु नामक असुर हरकर ले गया और खदिरावटी में तक्षशिला के नीचे छोड़कर चला गया । अकस्मात् मेघकूट नगर का राजा कालसंबर नामक विद्याधर अपनी स्त्री कनकमाला के साथ वहां से निकला और उस बालक को देखकर वे उसे उठा ले गये। उन्होंने उसका नाम प्रद्युम्न रखा । उसके युवक होने पर कनकमाला उस पर मुग्ध हो गयी और प्रेमदान की प्रार्थना करने लगी। किन्तु प्रद्युम्न कुमार ने यह स्वीकार नहीं किया। इस पर क्षुब्ध होकर कनकमाला ने अपने कक्ष, वक्षःस्थल व स्तनों को नखों से नोच डाला और पति से प्रद्युम्न के दुराचार की शिकायत की। कालसंवर ने रुष्ट होकर अपने पांच सौ पुत्रों को आज्ञा दी कि प्रद्युम्न को चुपचाप मार डाला जाय । वे उसे कालाम्बु नामक वापिका पर ले गये और वहां जलक्रीड़ा करने का उससे आग्रह करने लगे। प्रद्युम्न ने प्रज्ञप्ति विद्या द्वारा सब बात जान ली और स्वयं वापी में न जाकर एक अपने मायामयी शरीर से वापी में कूद पड़ा। उन पांच सौ कुमारों ने उसके ऊपर कूदकर मार डालने का बहुत प्रयत्न किया, किंतु वे सफल नहीं हुए, प्रत्युत प्रद्युम्न ने उन सभी को वहीं कील दिया, केवल एक को घर खबर देने को भेजा। समाचार पाकर कालसंबर अपनी समस्त सेना सहित वहां आया, किंतु प्रद्युम्न ने अपनी विद्या के प्रभाव से उसे बांध कर एक शिला पर रख दिया। उसी समय वहां नारद मुनि आ उपस्थित हुए और उन्होंने सब को समझा-बुझा कर शांति करायी। प्रद्य म्न ने सबको बन्धन मुक्त किया और कालसंवर की अनुमति लेकर अपने माता-पिता के दर्शन निमित्त प्रस्थान किया। यही कथानक गुणभद्र कृत उत्तर पुराण (७२) व महासेन कृत प्रद्युम्न चरित (८) में भी आया है। इस कथानक में और बातें तो प्रायः विष्णुपुराण के समान हैं, किंतु प्रेमासक्त रानी की प्रद्युम्न को मरवा डालने की कुचेष्टा नयी है। हरिभद्र-कृत समरादित्य कथा (५वे भव) में एक उपाख्यान आया है। सेतविया नामक नगरी के राजा यशोवर्मा का पुत्र सनत्कुमार एक बार अपने पिता से रुष्ट होकर घर से चला गया। ताम्रलिप्ति के राजा ईशानचन्द ने उसका स्वागत किया और उसे अपने नगर में रखा। एक बार सनत्कुमार अपने मित्र वसुभूति के साथ राजकुमारी विलासवती के भवन के समीप से निकला। उसे देख राजकुमारी उस पर मोहित हो गई और वह राजकुमारी पर। यह प्रेम-प्रसंग चल ही रहा था कि एक दिन रानी अनंगवती ने उसे अपने पास बुलवाया और स्वयं उससे प्रेम याचना की। सनत्कुमार ने इसे स्वीकार नहीं किया और वह अपने निवास को लौट आया। कुछ काल पश्चात् राजा का विशेष विश्वासपात्र नगर-रक्षक विनयधर उसके पास आया और बोला कि वह सनत्कुमार के पिता के ही राज्य में रहने वाले एक कुलीन शूरवीर वीरसेन का पुत्र है और मेरे पिता के ऊपर तुम्हारा और तुम्हारे Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) पिता का एक विशेष उपकार है, जिसके कारण मैं तुम्हारा कुछ प्रत्युपकार करना चाहता हूं। ___आज जब राजा ईशानचन्द रानी अनंगवती के महल में गया तो उसने देखा कि रानी का मुख नखों से तुचा हुआ है और अश्रु जल से उसके कपोलों की पत्रलेखा धुल गई है। पूछने पर रानी ने बतलाया कि कई दिनों से सनत्कुमार उससे प्रेम याचना कर रहा था, जिसे उसने स्वीकार नहीं किया, किंतु आज सनत्कुमार ने स्वयं आकर व अपनी मनमानी कर उसकी यह दुर्दशा की है। यह सुनकर कुपित हो राजा ने मुझे आदेश दिया कि मैं तुम्हें चुपचाप मार डालूँ, किन्तु तुम मेरे पिता के उपकारी हो और मैं तुम्हें कदापि मारना नहीं चाहता, अतएव तुम्ही बतलाओ अब मैं क्या करूँ ? विनयंधर की बात सुनकर सनत्कुमार ने पहले तो उसे राजा के आदेशानुसार करने को कहा। किन्तु उसके यह बात न मानने पर सनत्कुमार ने ताम्रलिप्ति से भाग जाना ही उचित समझा। अतएव उसने विनयंधर से विदा लेकर अपने मित्र वसुभूति सहित स्वर्ण द्वीप को जाने वाले जहाज द्वारा वहाँ से प्रस्थान कर दिया। विनयंधर ने जाकर राजा से कह दिया कि सनत्कुमार मार डाला गया। उक्त प्राचीन आख्यानों में हमें प्रायः वे सभी कथानक दृष्टिगोचर हो जाते हैं जो सुदर्शनचरित कथा के अभिन्न घटक हैं । जहाँ तक इस कथा के नायक का वैयक्तिक सम्बन्ध है, सुदशेन नामक वणिक् के अनेक उल्लेख अर्द्ध-मागधी आगम ग्रंथों में पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ पाँचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) के अनुसार सुदर्शन नामक वणिक् राजगृह निवासी एक धनी थे, तथा तीर्थंकर महावीर के समकालीन व्यक्ति थे । वे एक आदर्श श्रावक थे और उन्होंने भगवान् महावीर को अनेक बार आहार-दान दिया था। उन्होंने श्रमण निग्रंथ धर्म की दीक्षा भी ली थी, और इस सम्बन्ध में उनके पूर्व ऋषभदत्त श्रावक का भी उल्लेख किया गया है। उन्होंने कठोर तपश्चरण किया, संपूर्ण अंगों का अध्ययन किया और केवल ज्ञान प्राप्त किया (भग० सू० ९, १३, ३८२, ११, ११, ४२४-४३२; १५, १ ५४१ आदि)। इन उल्लेखों में प्रस्तुत कथानक से केवल कथानायक के नाम, उनके धामिक व धनी गृहस्थ होने तथा मुनि-दीक्षा धारण कर केवल ज्ञान प्राप्त करने मात्र बातों का साम्य है। इतनी बात और ध्यान देने योग्य है कि उन्हीं के समान ऋषभदत्त श्रावक भी थे और उन्होंने भी मुनि-दीक्षा ली थी। प्रस्तुत कथानायक सुदर्शन के पिता का नाम ऋषभदास है । इतनी विषमता भी है कि वहाँ सुदर्शन सेठ राजगृह के निवासी हैं, जब कि यहाँ चम्पा नगरी के।। __ सात अंग णायाधम्मकहा-के पाँचवें अध्ययन में शुक परिव्राजक की कथा आयी है। शुक वेदों का ज्ञाता व धर्म-प्रचारक और सुदर्शन नामक एक गृहस्थ उसका अनुयायी था। पश्चात् सुदर्शन तीर्थकर के सम्पर्क में आकर जैनधर्म का अनुयायी बन गया। इस पर शुक परिव्राजक ने उसको पुनः अपने धर्म में लाने हेतु कहा कि हम तुम्हारे धर्माचार्य से मिलना चाहते हैं। यदि वे हमारे प्रश्नों Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) का उचित समाधान कर सकेंगे तो मैं उनका शिष्य हो जाऊँगा। हुआ भी यही और शुक उन जैनाचार्य का शिष्य हो गया। तृतीय सूत्र ठाणांग में जो नमि, मातंग आदि दश अन्तकृत् केवलियों के नाम पाये जाते हैं, वे प्रायः वे ही हैं जो अकलंककृत तत्त्वार्थराजवार्तिक (सूत्र १.२०) में पाये जाते हैं । अन्तकृत् उन्हें कहते हैं जो दारुण उपसगों को जीतकर समस्त कर्मों का क्षय करके संसार से मुक्त हो जाते हैं। इनमें पाँचवें अन्तकृत् का नाम सुदर्शन है। ये दशों केवली महावीर तीर्थकर के तीर्थ में कहे गये हैं। वर्तमान में उपलब्ध नवमें अंग अन्तकृद्दशा में यद्यपि उक्त प्रकार से अन्तकृत् केवलियों के नाम नहीं पाये जाते, तथापि वहाँ एक प्रसंग में सुदर्शन का नाम आया है। इस अंग के छठे वर्ग के मुद्गरपाणि नामक अध्ययन में अर्जुनमाली के विषय में कहा गया है कि उसने मुद्गरपाणि नामक यज्ञ की मूर्ति की निष्फल आराधना से रुष्ट होकर मूति के हाथ से मुद्गर छीन लिया और उस मार्ग से जाने वालों पर प्रहार करने लगा। राजा श्रेणिक ने नागरिकों का उस मार्ग से यातायात निषिद्ध कर दिया। संयोगवश उसी समय वहाँ भगवान महावीर का आगमन हुआ । अर्जुनमाली के भय तथा राजा के मार्ग-निषेधादेश के कारण कोई नागरिक उनकी वन्दना को नहीं जा सके। किन्तु भगवान महावीर का एक परम भक्त सुदर्शन नामक युवक किसी प्रकार भी अपने माता-पिता द्वारा रोके जाने पर भी नहीं रुका। अर्जुनमाली ने उस पर आक्रमण किया। किन्तु उसकी धर्मनिष्ठा और शान्त प्रकृति से प्रभावित होकर वह उसका मित्र बन गया, उसके साथ वह भी भगवान के दर्शन करने गया और उसने भी मुनि-दीक्षा लेकर सिद्धि प्राप्त की। निश्चय ही ये सुदर्शन पाँचवें अन्तकृत् केवली हुए हैं, और वे ही प्रस्तुत काव्य के कथा-नायक हैं, क्योंकि ग्रन्थ के आदि के द्वितीय कडवक में भी स्पष्टतः कह दिया गया है कि आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ से लेकर सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में भी दस-दस अन्तकृत् केवली होते हैं। उनमें अन्तिम तीर्थंकर महावीर के तीर्थ के पाँचवें अन्तकृत् सुदर्शन हुए। उन्हीं का यह चरित्र प्रारम्भ किया जाता है। सुदर्शन की कथा का एक अन्य प्राचीन संकेत हमें शिवार्यकृत मूलाराधना या भगवती आराधना की निम्न गाथा में मिलता है जो निम्न प्रकार है अन्नाणी वि य गोवो आराधित्ता मदो नमोक्कारं। चांपाए सेट्ठि-कुले जादो पत्तो य सामन्नं ।। (गाथा ७६२) इस गाथा में यद्यपि सुदर्शन का नाम नहीं आया, तथापि उनके पूर्व भव में एक अज्ञानी ग्वाल होने और नमोकार मन्त्र की आराधना द्वारा मरकर चंपा के श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होने एवं श्रमणधर्म स्वीकार करने का स्पष्ट उल्लेख होने से उसके कथानायक सुदर्शन ही होने में कोई संदेह नहीं रहता। सुदर्शन की पूरी कथा हमें प्रथम बार हरिषेण-कृत बृहत्कथाकोष (६०) में उपलब्ध होती है । यहाँ १७३ संस्कृत श्लोकों में सुदर्शन-चरित्र की वे सभी घटनाएँ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) समाविष्ट पायी जाती हैं जिनका विस्तार से काव्य-शैली में वर्णन प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है । बृहत्कथाकोष का रचनाकाल सम्वत् ६८६ अर्थात् प्रस्तुत रचना से १११ वर्ष पूर्व पाया जाता है। प्रस्तुत रचना से २७ वर्ष पश्चात् अर्थात् विक्रम सम्वत् ११२७ के लगभग विरचित श्रीचन्दकृत अपभ्रंश कहकोसु (कथाकोष) सन्धि २२ में भी यह कथानक १६ कडवकों में पाया जाता है। सुदंसणचरिउ की रचना से लगभग एक शताब्दी पश्चात् रामचन्द्र मुमुक्षु ने अपने पुण्यास्रव कथाकोष (१७) में भी इस कथा को समाविष्ट किया है। यहाँ कथानक की रचना संस्कृत गद्य में हुई है। डॉ. हरि दामोदर वेलंकर कृत जिन-रत्न कोष (पूना १९४४) में प्रस्तुत अपभ्रंश रचना के अतिरिक्त पाँच अन्य सुदर्शन-चरित नामक ग्रन्थों का उल्लेख है, जिनके कर्ता हैं ब्रह्मनेमिदत्त, सकलकीति, विद्यानन्द और विश्वभूषण । एक के कर्ता का नाम अज्ञात है । सकलकीति की रचना को तो कोशकार ने संस्कृत भाषात्मक कहा ही है। विद्यानन्द की रचना को मैंने देखा है और वह भी संस्कृत में है। अनुमानतः शेष ग्रन्थ भी संस्कृत में हैं और प्रस्तुत अपभ्रंश काव्य से शताब्दियों पश्चात् की रचनाएँ हैं। प्रस्तुत रचना की आठवीं संधि के ११वें आदि कडवकों में पण्डिता द्वारा सात दिन के लिए सात मनुष्याकार पुतले बनवाना और उनके द्वारा राजप्रासाद के सात द्वारपालों को क्रमशः आश्वस्त करके आठवें दिन सेठ सुदर्शन को उनकी अनिच्छा से भी अन्तःपुर में प्रवेश कराने का वर्णन है। जान पड़ता है यह पुतलों की सूझ कवि को उस अभय कुमार व चण्डप्रद्योत के कथानक से प्राप्त हुई जिसका संकेत नन्दीसूत्र (७९) में तथा विवरण आवश्यक चूर्णि (२ पृ. १५६ आदि) में पाया जाता है। राजगृह के राजा श्रेणिक व राजकुमार अभय और अवन्ती के राजा प्रद्योत में तनातनी और परस्पर छल कपट द्वारा जय-पराजय की परम्परा चल रही थी। अभय को प्रद्योत ने बन्दी बनाया तथा छूटने पर अभय ने प्रद्योत को बाँध कर राजगृह ले जाने की प्रतिज्ञा की। वह एक वणिक् का वेष बनाकर उज्जैनी में रहने लगा। दो वेश्याओं के द्वारा उसने प्रद्योत को उनकी ओर आकर्षित कराया व सातवें दिन मिलने का आश्वासन दिलाया। फिर उसने एक मनुष्य का प्रद्योत नाम रख कर व उसे पागल घोषित कर प्रतिदिन खाट पर बाँधकर वैद्य के यहाँ ले जाने और उसके प्रद्योत-प्रद्योत चिल्लाने का ढोंग रचा। ऐसा छः दिन तक किया गया जिससे नगरवासियों को विश्वास हो गया कि उस वणिक् का एक भाई प्रद्योत नामक पागल है और वह जब उसे बाँधकर वैद्य के यहाँ उपचारार्थ ले जाता है. तब वह 'मैं प्रद्योत हूँ, मैं प्रद्योत हूँ' कहता हुआ चिल्लाता है। सातवें दिन जब राजा प्रद्योत अकेला उन वेश्याओं के निवास स्थान पर गया तब वह अभयकुमार के पुरुषों द्वारा खाट पर बाँध कर ले जाया गया। राजा बराबर चिल्लाता रहा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) 'मैं प्रद्योत हूँ, मैं प्रद्योत हूँ' किंतु लोगों ने समझा वह उस वणिकू का पागल भ्राता होगा जो प्रतिदिन की भाँति वैद्य के यहाँ ले जाया जा रहा होगा । इस कारण किसी ने कोई रोक टोक नहीं की, और अभयकुमार अपनी प्रतिज्ञानुसार चण्ड प्रद्योत को बन्दी बनाकर राजगृह ले गया । यहाँ जिस प्रकार एक पागल मनुष्य af द्वारा नगरवासियों को आश्वस्त करके अभयकुमार प्रद्योत को बन्दी बना ले गया, उसी प्रकार यहाँ पण्डिता ने पुतलों द्वारा द्वारपालों को लापरवाह बनाकर सुदर्शन का अन्तःपुर में प्रवेश कराया । भाषा, शैली और काव्यगुण सुदंसणचरिउ की रचना भारतीय आर्य भाषा के मध्ययुगीन तृतीय स्तर की उसी विशेष भाषा में हुई है जो अपभ्रंश नाम से प्रसिद्ध है तथा जिसका विकासकाल पांचवीं से दशमी शती ईस्वी के बीच माना जाता है । काव्य शास्त्रों में बहुधा अपभ्रंश को संस्कृत और प्राकृत से भिन्न भाषा प्रकार माना गया है । किन्तु वैयाकरणों ने उसे अपने प्राकृत व्याकरणों में उसी प्रकार स्थान दिया है जैसा शौरसेनी, मागधी व पैशाची को और इस प्रकार यह सूचित किया है कि वह प्राकृत का ही एक भेद है । गत अर्ध शताब्दी में अपभ्रंश का प्रचुर साहित्य प्रकाशित हो चुका है तथा उस भाषा के अध्ययन व साहित्य के इतिहास पर भी अनेक लेख व ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं । इस भाषा के प्राचीन और प्रकाण्ड कवि स्वयंभू और पुष्पदन्त की रचनाओं में इस भाषा और इसकी काव्यशैली का स्वरूप बहुत स्पष्टतया हमारे सम्मुख आ चुका है । प्रस्तुत रचना में भी वही टकसाली भाषा का स्वरूप व काव्यशैली पायी जाती है । अपभ्रंश की ध्वनियां तथा शब्द भण्डार वे ही हैं जो अन्य प्राकृतों में पाये जाते हैं । शब्द तत्सम तद्भव और देशी इन तीनों प्रकार के विद्यमान हैं । देशी शब्दों की मात्रा यहां अन्य प्राकृतों की अपेक्षा अधिक पायी जाती है । किन्तु काव्य शैली की यहां अपनी विशेषता है । चरित काव्य या कथा का विभाजन संधियों में और प्रत्येक संधि का विभाजन कडवकों में किया जाता है । कडवक की रचना अधिकता से पज्झटिका और अलिल्लह छंदों में की जाती है जिनके अन्त में एक घत्ता छंद रहता है । प्रसंगानुसार विविध छंदों का उपयोग किया जाता है। जिनका एक सामान्य लक्षण है पादान्त यमक या तुकबन्दी जो इन छंदों को संस्कृत प्राकृत के छन्दों से पृथक् निर्दिष्ट करता है । प्रस्तुत रचना में छन्दों का विपुल वैचित्र्य है । कवि को इस कला में अच्छा सौष्ठव प्राप्त है । उन्होंने अनेक स्थलों पर तो अपने विलक्षण छन्दों के नाम निर्दिष्ट कर दिये हैं । ग्रंथों के समस्त छन्दों का परिचय यहां अलग से दिया जा रहा है। जहां लगभग एक सौ छन्दों का निर्देश प्राप्त होगा। इनमें कवि द्वारा प्रयुक्त विषमपदी छंद विशेष ध्यान देने योग्य है । मात्रिक और वर्णिक छंदों का यहां अच्छा प्रतिनिधित्व पाया जाता है । कवि ने स्वयं विविध प्रसंगो में काव्य के विषय में जो बातें कही हैं उनसे परोक्ष रूप से उनके काव्य के गुणों का संकेत मिलता है । वे आदि में ही कहते हैं Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) कि भुवन में यश की वृद्धि तीन उपायों से ही हो सकती है, अच्छे कवित्व से, दान व पौरुष से (१, १, १४), 'महाकवि का कथाबंध अर्थ-प्रचुर होता है' (२, ५, ८) 'सुकवि की कथा जनमनहारी (२, ६, ३) और लक्षणों अलंकारों से संयुक्त होती है (८, २)। सरस, व्यंजन सहित, मोदकसार व प्रमाणसिद्ध भोज्य और काव्यविशेष विरले ही होते हैं (६, १)। कोमल पद, उदार, छन्दानुवर्ती, गंभीर, अर्थसमृद्ध तथा हृदयेच्छित सौन्दर्ययुक्त कलत्र और काव्य संसार में कभी किसी को प्राप्त होते हैं, (८, १)। __ यह काव्य विशेष रूप से छन्द और अलंकार-प्रधान कहा जा सकता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक आदि अलंकारों का पद-पद पर उपयोग पाया जाता है और ये अलंकार बहुधा श्लेषाधारित हैं जिनसे कवि की कल्पना और शब्दचातुरी का अच्छा परिचय प्राप्त होता है। मगध देश के वर्णन में कवि ने श्लेषात्मक विशेषणों द्वारा कामिनीमुख, धूर्तकुल, वेश्या, पथिक स्त्री, नन्दनवन आदि उपमानों का (१, ३,) राजगृह नगर के वर्णन में त्रिदशेन्द्र, मन्मथ व अमथित उदधि की उपमाओं का (१,४), विपुलाचल पर्वत संबंधी उत्प्रेक्षाओं का चम्पापुर के वर्णन में रामायण, महाभारत, छंद (१, ८) मन्दरपर्वत आदि उपमानों का (२, ३) राजा धाईवाहन के वर्णन में मेघ, सूर्य, विभीषण, इन्द्र, अर्जुन, भीम बाहुबलि, राम, कातिकेय, ब्रह्मा, विष्णु आदि से वैशिष्टय-दर्शक व्यतिरेक अलंकारों का वर्णन कवि की अलंकार-शैली के अच्छे उदाहरण हैं। उसी प्रकार राजश्रेष्ठी ऋषभ दास (२, ५) सेठानी तथा गोप के वर्णन (२, ६) भी अलंकार-योजना के अच्छे द्योतक हैं । वर्णन-शैली का सौन्दर्य खाद्य पदार्थों (५, ६) वादित्रों (७, ६), प्रमोद वन के वृक्षों (७, ८) मनुष्याकार माटी के पुतलों (८, ११) के वर्णनों में देखने योग्य है। संधि ४ में कवि ने स्त्री जाति के लक्षणों का व संधि : में युद्ध का जो विस्तार से वर्णन किया है वह उनके पाण्डित्य और कला-प्रावीण्य का उत्तम द्योतक है। छन्द-विश्लेषण ___ यों तो अपभ्रंश के काव्य में छन्दों का अपना वैशिष्ट य रहता ही है, 'सुदंसण चरिउ' में छन्दों का वैचित्र्य अन्य काव्यों की अपेक्षा बहुत अधिक पाया जाता है। वैसे तो कवि ने आदि में ही इस रचना को 'पद्धडिया बन्ध' कहा है। किन्तु यह अपभ्रंश छन्दशैलियों का सामान्य नाम प्रतीत होता है। यर्थाथतः तो जान पड़ता है कि कवि ने अपना छन्दकौशल प्रगट करने का इस काव्य में विशेष प्रयत्न किया है । अनेक अपरिचित छन्दों का तो नामोल्लेख भी कर दिया है तथा कहीं-कहीं उनके लक्षण भी दे दिये हैं। उन्होंने स्वयं कहा भी है कि काव्य की विशेषता उसके 'छन्दानुवर्ती' (२.६.७) अर्थात् नाना छन्दात्मक होने में है। ग्रन्थ में प्रयुक्त छन्दों का कुछ परिचय उनके नाम, प्रत्येक चरण की मात्रा-संख्या या वर्णसंख्या, अन्य लक्षण, सन्दर्भ और उदाहरण क्रम से प्रस्तुत किया जाता है । आदि में Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २८ ) मात्रिक छन्दों, तत्पश्चात् वर्णिक छन्दों, फिर विषमपदी, मात्रिक व वर्णिक छन्दों तथा अन्त में घत्ता छन्दों का परिचय प्रस्तुत है। . खण्ड क-मात्रिक छन्द १. आनन्द-मात्रा ५ अन्त लघु सं० ४. १२, ११. २२. उदा०-मा रमसु परिहरसु। इय छन्दु आणंदु । १. करिमकरभुजा-मात्रा ८ अन्त ल ग सं० २.११ । (द्विपदी)उदा:- बहुदिपहिं पुणो संतुठ्ठमणो। सो घरहे तओ सुरसरिहे गओ। करिमयरभुया दुवई भणिया। ३. कुसुमविलासिका-मात्रा ८ आदि न गण (- -) अन्त ल ग सं० ६.३ । (द्विपदी) उदा०-कुणइ परिमलं रुणइ अलिउलं । दुवइ भासिया कुसुमविलासिया । ४. चन्द्रलेखा-मात्रा ८ अन्त ग ल सं० ५.७, ६.१२, ८.२६; १२.४ । .. (द्विपदी) उदा०-रविकणयकुंभु ल्हसियउ सुसुंभु । दुवई वि एह फुडुचन्दलेह । ५. मदनविलासा-मात्रा ८ अन्त ग ग सं० ४.१ । (द्विपदी) उदा०-हरिसविसट्टो छुडु जि पयट्टो जा ता अग्गे आवणमग्गे। तणु सोमाला दिठ्ठा बाला दुवई एसा मयणविलासा । ६. मदन-मात्रा ८ सं० ४.७; १.१६, ८.२८; १.१३ । उदा.-सच्चे विणएँ दाणे पणएं। मा किं पि वि भणु तहे घिप्पई मणु । छंदु पवुत्तउ मयणु निरुत्तउ । ७. मधुभार-मात्रा ८ सं० ६.२ ६.१५ । उदा.-तिहुवणरम्महुँ तो वि ण धम्महुँ । लग्गहिं मूढिउ पावपरूढिउ । (६.१५; १७-१८) चउमत्त वे वि महुभार एवि (प्रा० पिं० १७५) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( २९ ) ८. अमरपुरसुन्दरी-मात्रा १० अन्त ल ग सं० ६.१०, ६.११।. (द्विपदी) ... उदा०-निसहिं छुडु भोयणं करइ मणमोयणं । .. अमरपुरसुंदरं नाम छंदोवरं (६.१०.१२-१३) ६. चारुपदपंक्ति- मात्रा १० अन्त ल सं० ८.२५, ६.१२ । ... (द्विपदी) उदा० खंडियउ धणु छत्तु महिवीढे संपत्तु । वर दुवइ णउ भंति इय चारुपयपंति । (६.१२.११-१२) १० तोमरेखपुष्पमाला-मात्रा १२ अन्त ग ल सं०६३ । उदा०-धम्मु मंसभक्खणेण के वि भणंति पसुवहेण .. एस छंदु हे गुणाल तोमरेहपुप्फमाल । (६.३.११-१२)। ११. विसिलोयछन्द-मात्रा १५ अन्त न गण (10) सं०६.६ । (पद्धडिया) उदा०-तरवारिवारिपूरे विसम सरजालणिविडकोट्टिमसुगम । परिसोहइ रुहिरतरंगिणिय विसिलोयछन्द पद्धडि भणिय । (९.६.७-८) १२. अलिल्ल (अडिल्ल)-मात्रा १६ अन्त ल ल सं० १.३, ८,१०, २.१,२,४-६, “१५, ३.३,७; ४.२,३,६,८,१०, ५.२,३,८,१०,६४,८,१७, १८; ७.२, ३,५,६,१३, १६, ८.२,३,५,७,८,१०,१४,१७, १९,२१,३५,३८ से ४०, ६.२,४,५,१६,१९,२३, ११.४, ५,७,१०,११, १२.५। टिप्पण : मूल में-८.२ को पद्धडिया तथा ८.५ व ८१०, ८.१७, ३८ से ४० एवं ९.१६ को पारंदिया अथवा पारंदिय पद्धडिया कहा गया है। उदा:- जहिं सुसरासण सोहियविग्गह' कयसमरालीकेलिपरिग्गह रायहंस वरकमलुक्कंठिय' विलसइँ बहुविहपत्तपरिट्टिय। _ (१.३.७-८) १३. त्रोटनक- मात्रा १६ अन्त ल ग सं० ४.४ । उदा०-सिक्खावय चारि अणथमियं जो जपइ जीवहियं सुमियं । जो कम्ममहीरुहमोहणउ छंदो इह वुच्चइ तोडणउ । (४.४.९-१०) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३० ) १४. पद्धडिया (पज्झटिका)-मात्रा १६ अन्त ज गण सं० १. १, २, ४, ९, २. ३, १२, १४, ३. २, ८, ११, १२, ४. ११, १५, ५. १, ६, ६. १,७,६, १३, ७. १०, ११, १४, १५, १७, ८. ९, ६. १७, १८, २१, २२, २०० ६, ८ से १०; ११. ३,८,९, १३, १५, १२. १,७,८, १० । टिप्पण : इनके अतिरिक्त ८.-१८, ३० से ३४, ४२, ४३ तथा ९.८ में भी यही छन्द है, जिसे वहां 'रयडा' नामक पद्धडिया कहा गया है। उदा०-जसु केवलनाणे जगु गरिछु करयल-आमलु व असेसु दिछ । तहो सम्बई जिणहो पयारविंद वंदेप्पिणु तह अवर वि जिणिंद ।। (१. १. ११-१२) १५. पादाकुलक-मात्रा १६ (क) सर्व लघु सं० १.५. उदा.-परियणहिययहरणु गुणगणणिहि दहछहसयलु लहु य अविचलदिहि । (१. ५.८) (ख) अन्त गुरु० सं० १, १२, ४. ५ । उदा०-अवरें दोसे को तहिं कलओ ऐसो छंदो पायाउलओ। (४.५. २३) (ग) अन्त ल ग सं० ८. ११, १२, २२ । उदा०-कि पि वि सकज्जु विरयंतियहे तुह काइँ हुयउ पइसतियहे । जइ किंपि दोसु इसे संभवइ तो अम्हहँ राणउ णिग्गहइ । (८. १२. ९-१०) १६. विलासिनी-मात्रा १६ अन्त ल ग सं० ७. १६, ८. १६, ९. १, १०. २; ११. १२। उदा०-पत्थिउ व्व कुवलयविराइयं पुंडरीयनियरेण छाइयं । करिरहंगसारंगभासियं छंदयं क्लिासिसि पयासियं । (७. १६.९-१०) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) १७. मत्तमातंग - मात्रा १८ अन्त ज गण ( ~~~) सं० ३.५ उदा० - वालु सोमालु देविंदसमदेहु लेवि भत्ती जाएवि जिगेहु । तीन पेच्छिउ पुच्छियउ मुणिचंदु मत्तुमायंगु णामेण इय छंदु | १८. जवली - मात्रा २० अन्त ल ग सं० ८.२६ उदा०- जइ इच्छसि मणोज्जचंचलाया णिज्झरवंत उत्तंगस इलोवम-गया । कंचणमणिमऊहचिंधइय- रहवरा सेवाय असेस पणवंति किंकरा ॥ १६. उर्वशी - मात्रा २० अन्त र गग (--) सं० ७.७ । उदा० - चलिय तुच्छोयरी पोमवत्तच्छिया कविणामपिया तासु णं लच्छिया । चलिउ णिस्सेसलोओ मणे तोसिओ सहइ छंदो इमो उव्वसी भासिओ । २०. चप्पर (चउपही ) - मात्रा २० अन्न ल ल सं० ५.४ । (३.५.८-६) २१. मन्दयार - मात्रा २० अन्त ल ग सं० ६.६ । उदा :- पुणु दुइज्जम्मि गुणवए रइभंजणं भवभयपरिणामपरिरंजणं । तइयगुणवए पयासेमि जं जुत्तउ मंदारु त्ति छंदो इमो वुत्तउ । (८.२६०, ११-१२) (७.७.६-१०) उदा० - दोहिं वि घरहिं विविहु आहरणु लइज्जइ दोहिं वि घरहिं लडतरुणिहिं णश्चिज्जइ । सच्चुवाणु एहु णारिहिं दिहिगारउ कलहु दुद्धु जामाइउ तूरु पियारउ । (५.४.९-१०) (६.६.१५-१८) २२. मदनावतार - मात्रा० २० अन्त ल सं० ४.९; ६.२०, ७.६; ८.२७; १२.६ । उदा० - दीहुण्हणीसास पुणु पुणु विमेल्लंति परिहरिवि कुलमग्गु उम्मग्गे चल्लंति । तिक्खयरभावेण णारीड कंपंति सच्छंदु मयावयारं पयंपंति । (४०६.७८) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) २३. शशितिलक-मा० २० सर्व लघु सं० १.११।। उदा-जय अमरणरखयरविसहरहिं अहिमहिय । जय परमपरसयलअइसयहिं णिरुसहिय । (१.११.१५-१६) २४. सारीय-मात्रा २० अन्त ग ल सं० ८.२० । उदा०-भणु कस्स तुट्ठो देसि ठाणस्स. लइ अज जायं फलं तुज्झ झाणस्स। . तुहुं माणिणीचित्तअंभोरुहे मित्तु सारीयणामेण छंदो इमो वुत्तु । (८.२०.६-७) २५. मंजरी (गुणमंजरी)-मात्रा २१ अन्त र गण (-~-) सं० ४.१४ । उदा०-उद्धरेह चक्कंकुसकुंडलराइया अद्धइंदुभालंकिय-णहसुच्छाइया । जा सणिद्धमुत्ताहलसणिय सुंदरी सा हवेइ चक्कवइहे पिय गुणमंजरी। . (४.१४.१-२) २६. रासाकुलक मात्रा २१ अन्त न गण (2 ) सं० ८.४१ । उदा०-सुमरमि चारुकवोलहिं पत्तावलिलिहणु ईसि ईसि थणपेल्लणु वरकुंतलगहणु। तो वि ण फुटु महारउ हियडउ वजमउ - वुत्तु छंदु सुपसिद्धउ इय रासाउलउ । (८.४१.१७-२०) २७. मागवणकुडिया--मात्रा २२ सं०७-४ । उदा०-पर कसु वि म अक्खसु जाणहि संढउ मइँ इह । बाहिरे परसुंदर इंदवारुणीफलुजिह । सहसत्ति विरत्तिा कपिलप्र मुक्कु वणिंदो। मागहण कुडिया णामें एसो छंदो .. (७.४.१६.२२) २८. हेला द्विपदी-मात्रा २२ अंत ग ग सं० ६.५ । उदा० जीववहं ण कीरए इय मुणेवि सम्म । परु अप्पं सामाणयं दीसए णिछम्मं । . तसु पुणु काइँ सीसए जो करेइ हिसा। . हेला णाम दुवइया वुत्त णवर एसा । (६.५.१५-१८) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) २९. कुवलयमालिनी-मात्रा २४ अन्त ग सं० ११. १६-१९। उदा०-अण्ण वि किलिण्णइँ मडयचडिण्णइँ रडियाइँ। अण्णइँ गयवत्थइँ पसरियहत्थई णडिया। अण्णइँ सयवयण पिंगलणयण बहुभुअ।ि अण्णइँ किमिवड्ढई बहुदुग्गंध. लहु मय.। (११.१६.११-१४) ३०. शालभंजिका-मात्रा २४ अन्त ल ग सं० ७.१२ । उदा०-मयरकेउ सुहदसणु जइ ण रमेमि हउँ हले। तो मरेमि ओलंबेवि पासउ कंठकंदले। जइ पइज्ज णउ पालमि तो हउँ कविले लंजिया। छंदु एउ सुपसिद्धउ णामें सालहंजिया । (७.१२.१५-१८) ३१. कामलेखा-मात्रा २७ अन्त ल ल सं० ७.८ । (पद्धडिया) उदा०-कंचणवंत सुमंड कोइलललियालावसुहासिणि । तरुराइय वणे तेत्थु दिद्विय राएं णाई विलासिणि । इय गुणेहिं परउण्ण कासु ण हियवउ हरइ णिरुत्तिय । कामलेह णामेण पद्धडिया फुडु एस पउत्तिय । (७. ८. १३-१६) ३२. भ्रमरपदा-मात्रा २७ १०+८+९ अन्त ल ल सं० ८.२६.५-८ । (षट्पदी) उदा०-जइ इच्छहि बालउ अलिणिहबालउ कुवलयसामलिउ । मयरद्धयलोलिउ मुंभुरभोलिउ किसलयकोमलिउ ।। थणभारक्कंतिउ जियससिकंतिउ कुलिसकिसोयरिउ । ओलंबियहारउ जणमणहारउ रइहे सहोयरिउ ॥ ३३. द्विपदी-मा० २८ अन्त ल ग सं० ४.१४ १०-११, (गाही कडवक) ५.१ आदि (प्रत्येक कडवक के प्रारम्भ में) उदा०-गमणुत्तावलीय सव्वंगसमुठ्ठियरोमराइया। सा फुडु होइ पुत्तभत्तारविओयदुहेण छाइया ।। (४.१४. १०-११) ३४. रचिता-मात्रा २८ अन्त ल ग सं०.११.१ आदि (प्रत्येक कडवक के आदि में) . उदा०-तहो तवचरणु णवर णिसुणेप्पिणु णखइ धाइवाहणो __ अणिमिसणयणु पुणु वि पुणु चित भवभयतसियणियमणो । (११.१.२-३) ३५. विज्जुला- (द्विपदी) रचिता के समान ९. ७ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ३४ ) ३६. षट्पदी–मात्रा २८ (१०+८+१०) पदांत स गण (--)सं० ११. ६ । उदा०-जो हुंतउ वणिवरु सो हुउ मुणिवरु किं वण्णियउ पई। जे जे गलगज्जिय ते ते रंजिय कवण ण कवण मई। __ (११. ६. १५-१६) ३७. श्रारणाल-मात्रा २९ (१२+८+8) सं० ६.१ आदि (प्रत्येक कडवक के (षट्पदी) आदि में) उदा०-साहुसमाहिगुत्तओ छुडु पहुत्तओ ताम रिसहदासो। वंदणहत्तिए गओ करिविलग्गओ जिणहो णं सुरेसो । (६.१.५-६) ३८. मदिरा-अथवा लताकुसुम-मात्रा ३० अन्त स गण (--)सं० ११.२ । उदा०-इथितिरक्खणउसयउज्झिए ठाणे वसेइ करेइ दमं । ___ एहु वि जो मइरा किर छंदउ के वि भणंति लयाकुसुमं । (११.२.२१-२२) खण्ड ख-वर्णिक छंद ३९. मध्यम-वर्ण ३ त गण (--) सं० २.७ । उदा०-वंदेवि वण्णेवि तत्थाउ हं आउ एयस्स छंदस्स तो णामु मज्झम्मु । (२.७.६) ४०. कामबाण-वर्ण ४ र (-~-) ल सं० ३.९, ६. ११ । उदा०-पत्थि ताण माणवाण । कामबाणा छंदु जाण । (६. ११. २१-२२) ४१. सिद्धक-वर्ण ५ र (--) ल ग सं० ९. ९ । उदा-कंपवज्जिया देवपुज्जिया। ___ छंदु सिद्धओ सुपडिबद्धओ। (६.६. ११-१२) ४२. मौक्तिकदाम-वर्ण ६ ज (--) (-) सं० ६. १४ । उदा०–मणम्मि परिदुं पयासिउ छंदु । सुमोत्तियदामु जणे अहिरामु । (९. १४. १५-१६) ४३. सोमराजी-वर्ण ६ य (---) य (~-) सं० १०-५। उदा०-किवाणेण भीसं हयं तस्स सीसं। णरिदो पहिंछो पुरे सो पइठ्ठो। (१०.५. १८-१९) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) ४४. उष्णिका-वर्ण ७ र (-~-) ज (--) ग सं० ८.२३ । उदा०-जो ण कामखंडिओ सो सलग्घु पंडिओ। उहिया णिरुत्तओ एसु छंदु वुत्तओ। (८.२३.११-१२) ४५. प्रमाणिका-वर्ण ८ ज र ल ग सं० १.७ उदा०-णराहिवाणुराइणी खिवेसये विलासिणी। ___ इमो सुछंदु उत्तओ पमाणिया णिरुत्तओ। (१.७.१३-१४) ४६. विद्युन्माला-वर्ण ८ सर्व गुरु सं० १२.३ । उदा०-सव्वेसि साहूणं सामी दुल्लंभे लोयग्गे गामी । तं सव्वण्हू भव्वाणंदो विज्जूमालो एसो छंदो । (१२.३.७.२) ४६. (क) अनुसारतुला वर्ण ८ सर्वलघु सं० १२.२ ४७. समानिका --वर्ण ८ र ज ग ल सं० ३.१०, ९.२० __उदा०-कुम्मयार हेमलाय दीहअंगुलिल्लपाय । भासए णहाण पंति छंदओ समाणियं ति । (३.१०.१६-२०) ४८. रसारिणी-वर्ण १० र ज र ल सं० २.८ । उदा०-तं सुणेवि सिट्टिणा पवुत्तु दुल्लहो जयम्मि एसु मंतु । ___झाई चित्ते वजिऊण तंदु जाणिमो रसारिणी वि छंदु । .. (२.८.७-८) ४९. इन्द्रवज्रा--वर्ण ११ त त ज ग ग सं० ४.१३ (एक पद्य) उदा०-कायस्स जंघोरुजुयं अभई कायस्स दिट्ठी तह कायसद । पायंगुली काउ समाउ जीए जाणेहि दीहाउसु णत्थि तीए (४.१३.५-८) ५०. उपजाति-वर्ण ११ इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा का मिश्रण सं० ४.१३ (एक पद्य) उदा०-सुवेणु वीणाकलहंसवाणी सुवित्तणाहीथणचारुपाणी। मायंगलीलागइ मुद्धसामा . सा होइ पुत्ताइयलच्छिधामा ।। (४.१३.६-१२) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. उपेन्द्रवज्रा-वर्ण ११ ज त ज ग ग सं० ४.१३ (एक पद्य) उदा०-पसत्थजंघोरु थणग्गवित्ता पईहहत्थंगुलिणखणेत्ता। सुणास हेमच्छवि उच्चमाला ... तिउत्तरंती स हवेइ बाला ॥ ....... - - -- (४.१३.१-४) ५२. आख्यानक-४.१३-१६ उपेन्द्रवका के समान । ५३. दोधक-वर्ण ११ भ भ भ ग ग सं० ३.६ उदा०-वड्ढइ णं वयपालणे धम्मो वढ्ढइ णं पियलोयणे पेम्मो। वड्ढइ णं णवपाउसि कंदो एसु पयासिउ दोहय छंदो ॥ (३.६.७-८) ५४. निःश्रेणी-वर्ण ११ र ज र ल ग सं १०.१ उदा०-जं वणु व्व यंत जंत सावयं जं वणु व्व मोक्खमग्गदावयं । तं णियच्छिऊण सो पहिओ छंदओ गिसेणि णाम सिठ्ठओ ॥ ___ (१०.१.१४-१५) ५५. कामावतार-वर्ण १२ त त त त सं० ८.१३ । उदा०-एवं सुणेऊण चित्तम्मि भीएहिद णावंत सीसेहिँ ता भासियं तेहि। अम्हाण णो एरिसं कारिउं जुत्तु छंदो वि कामावयारो इमो वुत्तु ।। (८.१३.७-८) ५६. त्रोटक (तोटनक)-वर्ण १२ स स स स सं २.१३ उदा० -- तुह गाविउ जोविउ जतियउ परतीरे- गहीरे पहुत्तिययऊ । णिसुणेवि धुणेवि सिरं चलिओ " इय छंदु वि तोडणउ भणिओ ॥ (२. १३. ७-८) ५७. रमणी-त्रोटक के समान सं० ३.१ उदा० -भणिओ रमणी इय छंदु मुणी। (३.१.१७) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) ५८. भुजंगप्रयात - वर्ण १२ न ( ~~~) न न न सं० २.६; १२.९ उदा० - गया मेहसारीए उत्तु गदेहा विरेति विज्जुज्जला णाइँ मेहा । णिओ चल्लिओ लीलए णं सुरिंदो भुजंगtपया इमो गाम छंदो || ५६ मौक्तिकदाम - वणं १२ ज ज ज ज सं० ५.५६ ८.४४ उदा०- - पईवर खट्ट रई हरवण्णु समप्पइ दाइजयं सहिरण्णु । वहू- वराहं वियंभइ कामु पयासि छंद मोत्तियदामु । ६० वसन्तचत्वर - वर्ण १२ ज र ज भ सं० ५.६, ८.१ उदा० - सुदंसणो णहेहि घाउ दावए मोरमाहि अंगे सेउ धावए । पुणो र रमंति बेवि सुंदरं इयं पिछंदयं वसंत चच्चरं ॥ (५.५.१४-१५) (५.६.६-१०) ६१ वंशस्थ -- वर्ण १२ ज त ज र सं० ७.१ ; तथा सन्धि ७ के प्रत्येक कडक का आदि वद उदा० - कयाविणाणाविहकज्जगुत्तओ अणेयसंकष्पवियप्पजुत्तओ । समीह छेलहए वदिओ इमो वि वंस हवे छंदओ ॥ ६२ स्रग्विणी - वर्ण १२ रररर सं० ११.१४ (१.६.९-१०) ६३ तोणक - वर्ण १५ र ज र ज र सं० ६.१५ उदा उदा० - केरण णिव्वाण सेलो समुच्चालिओ के मूढे काला लो जालिओ । कोणिरुंभेइ चंडणी संदणं को विमाणं वि एवं मणाणंदणं || ( ७.१.११-१२) (११.१४.९-१०) रक्ख सेण गायवासु पेसिओ पईहरो धावाहण बागु भासुरो खगेसरो । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) तो णिसायरो णिवस्स संगरे पलाणओ तक्खणेण झत्ति पत्तु वुत्तु छंदु तोणो। (९.१५.२१-२४) ६४ मन्दारदाम-वर्ण १५ र र र र र सं० ११.१८ उदा० - ताण कल्लोलमालाप वोमंगणं वोलियं ताप चंदक्कताराक्ली झत्ति झंकोलियं । एम संहारकालो अकाले वि णं पत्तओ एम मंदारदामोत्ति छंदो फुडं वुत्तओ। __(११.१८. १६-२२) ६५. मालिनी-वर्ण १५ न न म य य सं०३४ उदा०-खलयणसिरसूलं सज्जणाणंदमूलं । पसरइ अविरोलं मग्गणाणं सुरोलं। सिरणवियजिणिंदो देइ चायं वणिंदो वसहुयजइजुत्तो मालिणीछंदु वुत्तो ॥ (३.४.७-८) ६६. चित्रा-वर्ण १६ र ज र ज र ल सं० ८.२४ उदा०-थूलसण्हपाणभूय जीवसत्तदारणेहिं 'लोलचक्खुसोयघाण-जीहफासपेरणेहि । एम चिंतिऊण लेइ सुप्पइण्ण सो वणिंदु वुत्तु अद्धजाइया य एस चित्तु णाम छंदु ॥ (८.२४.१३-१६) ६७. पंचचामर- वर्ण १६ ज र ज र ज ग सं० १०.३ उदा०-महाकसाय-णोकसायभीमसत्तुतोडणो अहिंसमग्गु धीसु णग्गु कम्मबन्धसाडणो। कुतित्थपंगु मुक्कसंगु तोसियाणरामरो लगुत्तिसोल अक्खरेहि छंदु पंचचामरो॥ (१०.३.१८-२१) ६८. पृथिवी-वर्ण १७ ज स ज स य ल ग सं० ८.३७ उदा०-हुयास अहि वेरिणो चउर जार उपेक्खए। ण सो सुइरु णंदए गरुवआवयं पेक्खए । सुदुठ्ठणरणिग्गहं सुयणपालणं जुत्तयं । णिवस्स जइ भूसयं पुहइछंदयं वुत्तयं ॥ (८.३७.१७-२०) ६९. मन्दाक्रान्ता-वर्ण १७ म भ न त त ग ग सं० ३.१ (एक पद्य) उदा०-णो संजादं तरुणिअहरे विद्दुमारत्तसोहे। णो साहारे भमियभमरे णेव पुंडुच्छुदंडे । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) णो पीऊसे हि मिगमदे चंदणे जेव चंदे । सालंकारे सुकइभणिदे जं रसं होइ कव्वे । (३.१.१-४) ७०. दिनमणि (धवला ) - वर्ण १९ न न न न न न ग सं० ७.१८ । 9 उदा - कहिं मिकवि रमणि तहिं लहिवि पियफरिसणं । बहलहुयपुलय परिहरइ मणे रणरणं । मणि घडण णिवडिय जले । सहहि पडिफुरिय ससहररवि व हयले । (७.१८-१८.१५) ७१. शार्दूलविक्रीडित - वर्ण १६ म स ज स त त ग, सं० ३.१ (एक पद्य) उदा० - रामो सीयविओयसोयमहुरं संपत्तु रामायणे । जादा पडंव धायरट्ठ सददं गोत्तंकली भारहे । डेडाकोडिय चोररज्ञ्जणिरदा आहासिदा सुद्धए । एक पि सुदंसणस चरिदे दोसं समुब्भासिदं । (३.१.५-८) ७२. शशितिलक - वर्ण २० सर्व लघु सं० ११.१७ । उदा - पुणु कलइँ गिलिगिल हूँ नहि मिलहूँ णिरु रसहूँ । अइपबल हलमुसल पुणु पुणु विखल दिसइँ | विणियखो मुणि चलइ गुणणिलउ | इ भणिउ दहृदहहिं लहुकलहिं समितिलउ ॥ (११.१७.१५-१८) ७३. चंडपाल (दंडक) - वर्ण ५० न स य ( ८ बार) ल ग सं० ८.२६.१-४ । उदा - देखिये मूल | खण्ड - विषम मात्रिक छंद ७४. मुखंगलीला खंडक - मात्रा ७+२७ अन्त र (--) गण सं० ८.२६. ९-१० उदा० - वर उलं उब्भियविविहछत्त सिरिग्गिरिधयवडेहि समाउलं । जसलं जइ इच्छहि वदि णिच्चुच्छवेहिं रइय मंगलं । ७४. (क) विद्युल्लेखा (पद्धडिया) मात्रा ८ + १६ सं० २,१० ७५. गाथा - [] -- मात्रा ८, १४ ८.१४ सं० ६.१, ३-४ । उदा० - अह तहिं अवसरे परिमित संघेण असेसें । उबवणे पत्त तवपुंजु गाइँ मुणिवेसें || Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) ७६. [ख] मात्रा १२, १८.; १२.१५ सं० ६.१, १-२ उदा०-सरसं विजणसहियं मोययसारं पमाणसिद्धखु । भोज कव्वविसेसं विरलं सहि एरिसं लोए॥ नोट : ८.४.३-४ में इसी को पथ्या कहा गया है। ७७. [ग]-मात्रा १२, १६ ; १२.१६ .. -सं० ८.४.१-२ । उदा.-अव्वो जेणोवाएं सूहको एइ तेण आणेहि। धरि धरिणिए णिवडती विरहमारि किं णिठुरा होहि ॥ ७८. [५]-मात्रा १२, १८ , १२, १८ सं० ४.१४.५-६। उदा०-थोरसुमंथरणासा लंजिय अह होइ थोव धणवंती । जा वायसगइसइदिट्ठी सा दुक्खभायण कण्णा ॥ ७९. []-परपथ्या-मात्रा १२, १८, १२.१५ सं० ८.४. ५-६, ११-१२ । लक्षण:-प्रथम यति शब्द के मध्य में पड़ती है। उदा-विरयइ डाहो अहसणेण जसु दंसणेण पासेओ । तस्सोवरि सुविरत्ती माए इह कस्स णिव्वहइ । (८.४.५-६) ८०. [च] विपुला (i) मात्रा १२, १८ , १२, १५ [प्रथम और तृतीय चरणों की यतियाँ शब्द के मध्य में] सं० ८.४.७-८ । उदा०--कोमलबाहुलयालिंगणेण तं सोक्खं जइ वि णउ हवइ । इह तो वि सुवल्लहदसणेण किं किं ण पज्जत्तं । ८१. विपुला (ii) मात्रा १२, १८; १ , १८ [प्रथम और तृतीय चरणों की यतियाँ शब्द के मध्य में] सं० ८.४.१५-१६। उदा०-अभया वयणं णिसुणेवि पंडिया भणइ पुत्ति जं किं पि । कीरइ कज्जं परिभाविऊण तं सव्वं सुंदरं होइ । ८२. रत्नमाला-मात्रा १३,५ अन्त ल ल सं० ६.१४.१३-१४ । उदा०-करइ कील सहुँ सहयरिहिं मणहरिहिं । __इय रयणमाल पद्धडिय पायडिय। ८३. दोहा-मात्रा १३, ११, १३, ११ सं० ८.६ (अष्टक) उदा-जाणमि वणि गुणगणसहिउ परजुवईहिं विरत्तु । पर महु अंबुले हियवडउ' णचिंतेइ परन्तु ॥ (८.६.१-२) ८४. खंडिका-मात्रा १४, १६ अन्त स गण (- -) सं० ४.१४.३-४ । उदा०-तित्तिरसहालावणिया पारेवय सम णरभोयणिया। मिलियभउह कुललंछणिया सा छिछ। छेयल्लहिं भणिया ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) ८५. वस्तु-मात्रा १५ + २७ + २६ + दोहा सं० ८.३६ तथा सन्धि १० में प्रत्येक ___ कडवक के आदि में। उदा०-वोमि वियहँ सलिले 'जलयरहँ। गमणागमणायरहँ पायमग्गु जइ कह व दीसइ । आदसणे पडिबिंबु हत्थगेज्झु जइ कह व सीसइ । पारयरसु जइ सूइमुहे इह थिरु होई णिरुत्तु । तियहो चित्तु पुरिसहो उवरि तो ण चलइ अणुरत्तु ॥ (८.३६.१-५) ८६. चित्रलेखा-मात्रा १६ + ८ अंत ज गण (--) सं० २, ६; ८. १५ । (पद्धडिया) उदा०-तहो सोक्ख वि को वण्णेवि सक्कु सक्कु वि असक्कु । पद्धडिया णामें चित्तलेह पयविसम एह । (२.६.११-१२) ८७. पादाकुलक-मात्रा १६ + १० अंत ग सं० ६.१६ । उदा.-सो झत्ति वि उड्ढम्मुहुजाओ' णिसुणिवि तहो राओ विसमपओ इय पायाउल श्रो' सोलह-दह कलओ। (६.१६.१३-१४) ८८. मणिशेखर-मात्रा २० + १० अंत ल ग सं० ११.२१ उदा०-दुसहजलतिसए फुटेइ जीहादल सरइ जणु तरुतलं । भणिउ इय छंदु णामेण मणिसेहरों विसमपयमणहरो (११.२१.११-१२) ८९. विषमवृत्त-मात्रा ३० + ६ अंत ग ल सं० १०.४। उदा०-उद्धकेसु भीमवेसु आहवे अजेउ कूरचित्तुणं कयंतु । पीणपीवरत्थणीकुरंगिणीए जुत्तु दुण्णिवारु मोटियारु । (१०.४.१४-१५) (खण्ड घ--विषमवृत्त वर्णिक ९०. विषमवृत्त वर्ण ३ + १२ सं० ११.१ । ___ज ( --) + ज ४ उदा०-विचित्तु' ण देव वि जाणहिं णारिचरित्तु । अयाणु अहं किह जाणमि ताहे पमाणु । (११.१.५.६) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) ६१. मानिनी-वर्ण ८+४ सं० ११.२० । र ज ग ग+रल उदा०-णं असालिया समत्थं दिव्य सत्थ एस माणिणी णिरुत्तु' छंदु वुत्तु (११.२०-२२-२३) ९२. विषमवृत्त-वर्ण १२+६ --- सं० १०.७॥ ज ४ + ज २ उदा०-पमत्तु समांसलगत्तु मयंगु करंतु पसंगु। घणम्मिणिबद्ध वणम्मि असज्मे झसो जलमझे। (१०.७.६-७) खण्ड ङ--सन्धि व कडवक क्रमानुसार छन्द-योजना . सन्धि-क्रमानुसार छन्द-योजना सन्धि कडवक व छन्द नाम १. १, २, ४, ९ पद्धडिया (१४); ३, ८, १० अलिल्लह (१२); ५ पादाकुलक (१५क); ६ भुजंगप्रयात (५८); ७ प्रमाणिका (४५), ११ शशितिलक (२३); १२ पादाकुलक (१५) ख । २. १,२,४,५, ६, १५ अलिल्लह (१२); ३, १२, १४ पद्धडिया (१४); ७ मध्यम (३६); ८ रसारिणी (४८); ९ चित्रलेखा (८६); १० विधु ल्लेखा (७४ क); ११ करिमकरभुजा (२); १३ त्रोटक (५६) । ३. १ रमणी (५७); मन्दाक्रान्ता (६९), शार्दूलविक्रीडित (७१); २, ८, ११, १२ पद्धडिया (१४); ३, ७ अलिल्लह (१२); ४ मालिनी (६५); ५ मत्तमातंग (१७) ६ दोधक (५३); ९ कामवाण (४०); १० समानिका (४७)। ४. १ मदनविलास (५); २, ३, ६, ८, १० अलिल्लह (१२); ४ त्रोटनक (१३); ५ पादाकुलक (१५); ७ मदन (६); ६ मदनावतार (१२); १२ आणंद (१); १३ इन्द्रवज्रा (४६); उपजाति (५०); उपेन्द्रवजा (५१); १४ मंजरी (२५); खंडिका (८४); गाथा (७८)। ५. १, ६ पद्धडिया (१४); २, ३, ८, १० अलिल्लह (१२); ४ चप्पइ (२०); ५ मौक्तिकदाम (५९); ७ चन्द्रलेखा (४); ६. वसन्तचत्वर (६०)। १, ७,६, १३ पद्धडिया (१४); २, १५ मधुभार (७); ३ तोमरेख (१०); ४, ८, १७, १८ अलिल्लह (१२); ५ हेला (२८); ६ मंदयार (२१); १० अमरपुरसुंदरी (८); ११ कामवाण (४०); १२ चन्द्र Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखा (४); १४ रत्नमाला (८२); १६ पादाकुलक (८७), १९ मदन (६); २० मदनावतार (२२)। १ वंशस्थ (६१); २, ३, ५, ९, १३, १६ अलिल्लह (१२); ४ मागधनकुडिया (२७); ६ मदनावतार (२२); ७ उर्वशी (१६); ८ कामलेखा (३१); १०, ११, १४, १५, १७ पद्धडिया (१४); १२ शालभंजिका (३०); १६ विलासिनी (१६); १८ दिनमणि (७०); ८. १ वसन्तचत्वर (६०); २, ३, ५, ७, ८,६, १०, १४, १७, १८, १९, २१, ३० से ३५, ३८, ३६, ४०, ४२, ४३ पद्धडिया (१४); ४ गाथा (७७); ६ दोहा (८३); ११, १२, २२ पादाकुलक (१५); १३ कामावतार (५५); १५ चित्रलेखा (८६); १६ विलासिनी (१६); २० सारीय (२४); २३ उष्णिका (४४); २४ चित्रा (६६); २५ चारुपदपंक्ति (); २६ भ्रमरपदा (३२), आवली (१८); २७ मदनावतार (२२); २८ मदन (६) २६ चंडपालदंडक (७३); २६ चन्द्रलेखा (४); ३६ वस्तु (८५); ३७ पृथिवी (६८); ४१ रासाकुलक (२६); ४४ मौक्तिकदाम (५६)। ६. १ विलासिनी (१६, २, ४, ५, १६, १६, २३ अलिल्लह (१२), ३ कुसुम विलासिनी (३); ६ विसिलोयछंद (११); ७ विज्जुला (३५); ८, १७, १८, २१, २२ पद्धडिया (१४), ६ सिद्धक (४१), १० मुखंगलीला खंडक (७४); ११ अमरपुरसुन्दरी (८); १२ चारुपदपंक्ति (8); १३ मदन (६); १४ मौक्तिकदाम (४३); १५ तोणक (६३), २० समानिका (४७)। १०. १, निःश्रेणी (५४); २ विलासिनी (१६); ३ पंचचामर (६८); ४ विषमवृत्त (८६); ५ सोमराजी (४३), ६, ८, ६, १० पद्धडिया (१४); ७ विषमवृत्त (९२)। ११. १ विषमवृत्त (६०) २ मदिरा (३८); ३, ८, ९, १३, १४, १५ पद्धडिया. . (१४); ४, ५, ७, १०, ११ अलिल्लह (१२), ६ षट्पदी (३६) १० स्रग्विणी (६२), १२. विलासिनी (१६); १६, १६ कुवलयमालिनी (२६), १७ शशितिलक (७२); १८ मंदारदाम (६४): २० मानिनी (६१); २१ मणिशेखर (८८); २२ आणंद (१)। १२. १, ७, ८, १० पद्धडिया (१४); २ अनुसारतुला (४६ क); ३ विद्युन्माला (४६), ४ चन्द्रलेखा (४); ४ अलिल्लह (१२); ६ मदनावतार (२२), ६ भुजंगप्रयात (५८) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४४ ) खण्ड च-कडवकों के आदि अन्त पद्य (ध्रुवक या पत्ता द्विपदी आदि)। संधि कडवकों के मात्रायें कडवकों के मात्रायें आदि में . अन्त में घत्ता चतुष्पदी १५+ १२= २७ x. x. षट्पदी . ..६१८+१२२९ ___x चतुष्पदी १५ + १२:२७ 06 n xsee who द्विपदी १६+ १२ = २८ षट्पदी आणाल १२+ ८+ १० = ३० चतुष्पदी । वंशस्थ ज त जर १३+७+१४ = ३४ ८+१४ = २२ ९+ १२ = २१ १३+१४ = २७ १३ + १६ = २४ ६+६+१२ % २४ १० वस्तु देखो (८५) ११ रचिता १६+ १२ = २८ १२ xx षट्पदी द्विपदी षट्पदी १२+८+१२ = ३२ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलपाठ-विषयसूची सन्धि १ (१) पंच नमोकार मंत्र (२) कवि-विनय व जम्बूद्वीप-भरतक्षेत्र (३) मगध देश का वर्णन (४) राजगृह नगर वर्णन (५) राजा श्रेणिक का वर्णन (६) विपुलाचल पर महावीर का समोसरण (७) राजा की वंदन-यात्रा (८) विपुलाचल-दर्शन (8) समोसरण वर्णन (१०) राजा श्रेणिक का सद्विचार (११) जिनेन्द्र-स्तुति (१२) त्रैसठ शलाका पुरुष। सन्धि २ (१) राजा श्रेणिक का गौतम गणधर से प्रश्न (२) अंगदेश का वर्णन (३) चंपानगरी का वर्णन (४) राजा धाईवाहन की प्रशंसा (५) ऋषभदास सेठ की गुणगाथा (६) अर्हदासी सेठानी तथा सुभगगोप का गुण-वर्णन (७) गोप का मुनिराजदर्शन () पंचनमोकार मंत्र की प्राप्ति (8) णमोकार मंत्र का प्रभाव (१०) व्यसनों के दुष्परिणाम (११) चोरी के कुफल (१२) गंगानदी का वर्णन (१३) गोप-क्रीड़ा (१४) नदी में एक छूट से फंसकर सुभगगोप की मृत्यु (१५) पंच णमोकारमंत्र की महिमा। सन्धि ३ (१) सेठानी का स्वप्न (२) स्वप्न-फल (३) सुदर्शन का जन्म (४) सेठ के घर पुत्र-जन्मोत्सव (५) प्रकृति ने भी जन्मोत्सव मनाया (६) पुत्र का नामकरण (७) बाल क्रीड़ा (८) बालक का विद्यारंभ (९) नाना विद्याएँ और कलाएँ (१०) शरीर के सुलक्षण (११) युवक सुदर्शन के प्रति नगर की नारियों को मोह (१२) नारियों का अनुराग। सन्धि (१) सुदर्शन का मित्र कपिल ब्राह्मण (२) मनोरमा-दर्शन (३) मनोरमा का सौन्दर्य (४) मनोरमा का परिचय (५) कामशास्त्रानुसार स्त्रियों के लक्षण (६) देशदेश की स्त्रियाँ कैसी होती हैं (७) नारी प्रकृति (८) नारी के संकीर्ण भाव (६) स्त्री की भाव-दृष्टियाँ (१०) स्त्री का अशुद्ध भाव (११) इंगित वर्णन (१२) त्याज्य स्त्रियों के लक्षण (१३) सौभाग्यशाली स्त्रियों के लक्षण (१४) स्त्रियों के शुभ और अशुभ लक्षण (१५) मनोरमा की काम-दशा। सन्धि ५ (१) मनोरमा की कामपीड़ा (२) सुदर्शन के पिता की पुत्र-विवाह सम्बन्धी चिंता (३) वर-कन्या के मिताओं की बातचीत (४) ज्योतिषी द्वारा लग्न-शोध और Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) विवाह (५) विवाहोत्सव (६) मध्याह्न भोजन ( जेवनार ) (७) सूर्यास्त-वर्णन । (८) रात्रि वर्णन (९) वर-वधू की काम क्रीड़ा (१०) सूर्योदय- वर्णन । सन्धि ६ (१) ऋषभदास का मुनि-दर्शन ( २ ) मद्यपान के दोष (३) मांस भक्षण के दोष (४) मधुपान के दोष (५) जीवों के भेद व हिंसा से पाप (६) अमृषा आदि व गुणव्रत (७) सामयिक आदि शिक्षा व्रत (८) पात्र दान का स्वरूप और फल (ह) रात्रि भोजन के दोष (१०) रात्रि-भोजन से अन्य सब साधनाओं की निष्फलता (११) रात्रि भोजन के परिणाम (१२) रात्रि भोजन का फल दरिद्रता (१३) रात्रि भोजन त्याग से उत्पन्न सुख (१४) स्त्रियों के रात्रि - भोजन के सुफल (१५) स्त्रियों के रात्रि भोजन से दुष्परिणाम (१६) मधु-बिन्दु दृष्टान्त (१५) दृष्टान्त संसार का रूपक (१८) सेठ का स्वपुत्र को लोक व्यवहार का शिक्षण (१६) राजसभा योग्य आचरण (२०) ऋषभदास की सुदर्शन को गृहभार सौंपकर मुनि दीक्षा और स्वर्ग-गमन (२१) । सन्धि ७ (१) सुदर्शन का सुखी जीवन (२) सुदर्शन पर कपिला का मोह (३) कपिला की विरह वेदना ( ४ ) सुदर्शन से कपिला की भेंट और निराशा (५) वसन्त का आगमन (६) नानावादित्रों की ध्वनि (७) राजा और प्रजा की उपवन-यात्रा (८) वन की वृक्षावली का विलासिनी सदृश सौंदर्य (६) रानी द्वारा मनोरमा की प्रशंसा (१०) रानी द्वारा कपिला का मर्म - ज्ञान (११) कपिला का मर्म - प्रकाशन व रानी का उपहास (१२) रानी की कुत्सित प्रतिज्ञा (१३) उद्यान की रंगरेलियाँ (१४) कानन और कामिनी विलास (१५) प्रेमियों की वक्रोक्तियाँ (१६) सरोवर की शोभा ( १७ ) रमणियों की जलक्रीड़ा (१८) जलक्रीड़न में आसक्त नारियों की शोभा (१६) अभया रानी का साज-शृङ्गार | सन्धि ८ (१) राजमन्दिर की शोभा (२) अभया की विरह-वेदना (३) पंडिता का रानी को सम्बोधन (४) रानी का उन्माद (५) पंडिता का रानी को पुनः हितोपदेश (६) रानी का प्रत्युत्तर (७) पंडिता द्वारा शील की प्रशंसा (८) स्त्री- हठ दुर्निवार है ( ९ ) भवितव्यता टल नहीं सकती (१०) दुर्भावना की जीत (११) पंडिता द्वारा पुतलों की कल्पना (१२) द्वारपालों से संघर्ष (१३) द्वारपालों को पंडिता की धमकी (१४) द्वारपालों का वशीकरण (१५) सुदर्शन को अपशकुन हुए (१६) श्मशान का दृश्य (१७) सायंकाल का दृश्य (१८) कामिनियों की काम लीलाएँ (१६) वेश्याएँ और उनके प्रेमी (२०) पंडिता का सुदर्शन को प्रलोभन (२१) अभया के प्रेम का दर्शन (२२) पंडिता का सुदर्शन को जबर्दस्ती राजप्रासाद में ले जाना ( २३ ) रानी के शयनागार में सुदर्शन का धर्म-संकट (२४) सुदर्शन की धर्म - भावना व भीष्म प्रतिज्ञा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) (२५) अभया का प्रेम-प्रस्ताव (२६) उसके प्रेम को स्वीकार करने के सुख (२७) देवों में काम विकार के पौराणिक दृष्टान्त (२८) अभया की लुभाऊ काम-चेष्टाएँ (२९) अभया की सुदर्शन को भर्त्सना (३०) अभया का अन्तिम प्रलोभन और धमकी (३१) सुदर्शन और अभया की विरोधी मानसिक दशाएँ (३२) सम्यक्चारित्र की दुर्लभता (३३) अभया का पश्चात्ताप (३४) अभया का कपट-जाल (३५) पुरुष और स्त्री का चित्तभेद (३६) स्त्री क्या नहीं कर सकती ? (३७) राजा को खबर और उसका रोष (३८) भटों की अपनी-अपनी डींग (३९) खबर पाने पर मनोरमा की दशा (४०) मनोरमा विलाप (४१) वह सुख-संस्मरण (४२) इधर मनोरमा और उधर सुदर्शन का चिंतन (४३) व्यन्तर देव द्वारा सुदर्शन की रक्षा (४४) धर्मध्यान का प्रभाव । सन्धि ९ (१) व्यंतर देव की युद्धलीला (२) भट-भार्याओं की वीरतापूर्ण कामनाएँ (३) राजा के सैन्य का भीषण संचार (४) राजा और निशाचर की सेनाओं का संघर्ष (५) संग्राम में उठी धूलिरज का आलंकारिक वर्णन (६) रुधिरवाहिनी का आलंकारिक वर्णन (७) हस्त युद्ध (८) राक्षस और नरेश की परस्पर गर्वोक्तियाँ (९) दोनों मल्लों का युद्ध (१०) निशाचर राजा के हाथी पर आ कूदा (११) फिर दोनों रथारूढ़ हुए (१२) दोनों का रथ युद्ध (१३) निशाचर की पराजय व मूर्छा (१४) निशाचर की विक्रियाएँ (१५) निशाचर और राजा का विक्रियायुद्ध (१६) निशाचर के दुगने दुगने मायारूप (१७) सुदर्शन द्वारा राजा की रक्षा (१८) राजा द्वारा सुदर्शन से क्षमा याचना (१९) राजा का अर्द्धराज्य समर्पण व सुदशन द्वारा अस्वीकार (२०) राजा द्वारा प्रलोभन तथा सुदर्शन का वैराग्य (२१) सुदर्शन द्वारा जीवन की क्षणभंगुरता का निरूपण (२२) संसार की क्षणभंगुरता से पूर्व महापुरुषों में विरक्ति के उदाहरण (२३) राजा द्वारा सुदर्शन की स्तुति । सन्धि १० (१) जिन मन्दिरों का आलंकारिक वर्णन (5) जिनेन्द्र स्तुति (३) विमलवाहन मुनि का वर्णन (४) व्याघ्र भील का वर्णन (५) व्याघ्र भील से संग्राम (६) सुदर्शन के पूर्व जन्मों का वृत्तान्त (७) इन्द्रियों की लोलुपता के दुष्परिणाम (८) इन्द्रियों के वशीभूत हुए देवों व महापुरुषों की विडम्बना (९) इन्द्रियविजय के महा सुफल (१०) नरजन्म और धर्म की दुर्लभता। सन्धि ११ (१) राजा धाईवाहन का वैराग्य (२) गोचरी के समय नगर में सुदर्शन मुनि की चर्चा (३) मुनिधर्म का पालन (४) सुदर्शन मुनि की साधनाएँ (५) पंडिता ने देवदत्ता को सुदर्शन का पूर्ववृत्त सुनाया (६) देवदत्ता की भीषण प्रतिज्ञा (७) सुदर्शन मुनि विहार करते हुए पाटलिपुत्र पहुँचे। (८) पंडिता ने देवदत्ता को Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) सुदर्शन का परिचय कराया। (6) रत्न खचित कपाटों को देख सुदर्शन मुनि का वैराग्यभाव (१०) विलासिनी द्वारा मुनि को प्रलोभन (११) विलासिनी की कामलीला व मुनि की निश्चलता (१२) देवांगना के विमान का वर्णन (१३) मुनिराज के ऊपर आकर विमान कैसे स्थिर हुआ (१४) देवांगना का रोष (२५) व्यंतरी का पूर्वजन्म स्मरण व मुनि का उपसर्ग (१६) भूतों और वेतालों की उद्वेगकारिणी माया (१७) महान् उपसगों के बीच सुदर्शन मुनि की स्थिरता (१८) व्यंतरी का घोरतर उपसर्ग और मुनि की वही निश्चलता (१९) सुदर्शन का पूर्व उदाहरणों का स्मरण और स्वयं दृढ़ रहने का निश्चय । (२०) रक्षक निशाचर व्यंतरी को ललकारता है। (२१) शिशिर और ग्रीष्म वागों का प्रयोग । (२२) निशाचर द्वारा वर्षा वाण का प्रयोग व व्यंतरी का पराजय । संधि १२ (१) माया गज का निर्माण और उस पर आरूढ़ हो सुरेन्द्र का आगमन (२) इन्द्र द्वारा सुदर्शन केवली की स्तुति । (३) इन्द्र की स्तुति हो जाने पर कुबेर द्वारा समोसरण की रचना। (४) केवली भगवान के विशेष अतिशय (५) सुदर्शन केवली का उपदेश व व्यंतरी का वैराग्यभाव (६) व्यंतरी व नगरजनों का सम्यक्त्वधारण व मुनिराज का मोक्षगमन (७) पंचनमोकार का महात्म्य (८) इस कथा की श्रुत परम्परा । (8) कवि नयनन्दी की गुरु परम्परा (१०) काव्य रचना का स्थान, राज्य व काल। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणंदि-विरइयउ सुदंसण-चरिउ ५ णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं ।। इय' पंच-णमोकारइँ लहेवि गोउ विर हुवउ सुदंसणु। गउ मोक्खही अक्खमि तह। चरिउ वर-चउवग्ग-पयासणु ॥ ध्रुवकं ।। जसु रूउ णियंतउ सहसणेत्तु हुउ विभियमणु णउ तित्ति पत्तु। जसुचरणंगुठे सेलराइ टलटलियउ" चिरजम्माहिसेइ। महि कंपिय उच्छल्लिय समुद्द डोल्लिय गिरि गलगज्जिय गइंद। ओसरिय सीह जग्गिय फणिंद उद्धसिय झत्तिणहे ससि-दिणिंद । उत्तसिय ल्हसिय गुरु दिक्करिंद आसंकिय विजाहर सुरिंद। जसु सिद्धि-पुरंधित रत्तिया १० तव-सिरि दुई पट्टविय णाई। जसु केवलणाणे ११ जगु गरिट्ट करयल-आमलु व असेसु दिछ । तही सम्मइ-जिणही पयारविंद वंदेप्पिणु तह अवर वि जिणिंद । घत्ता-अह एक्कहिँ दिणि वियसिय-वयणु मणे णयणाणंदि वियप्पइ । सुकवित्त १२ चाएँ पोरिसण जसु भुवणम्मि'३ विढप्पइ ॥ १ १० सुकवित्त ता हउँ अप्पवीणु सुहडत्तु तह व दूरे णिसिद्ध णिय-सत्तिय तं विरयेमि कव्वु . चाउ वि करेमि किं दविण-हीणु । एवंविहो वि हउँ जस-विलुद्भु। पद्धडिया-बंधे जं अउव्वु । १. १ क ख इह । २ क गोवउ ; ग घ गोविउ। ३ ग घ हुअउ । ४ ग घ तेत्ति । ५ ख टलटलिअ य। ६ ख उच्छिल्लिय। ७ ख मइंद; ग घ गयंद । ८ ग घ ओरसिय । ६ ख ओसरिय; ग घ ओरसिय। १० ख ग घ रत्तियाए। ११ ख ताए। १२ क सुकहत्ते । १३ ग घ भुवणयले। २, १ ख तवहो । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणंदिविरइयउ [ १. २. ४छुडु कीरइ जिण-संभरणु चित्तता सई जि पवट्टइ मइ कविति॑ । जल-विंदु उ णलिणीपत्तजुत्तु किं सहइ ण मुत्ताहल-पवित्तु । अंतयड सुकेवलि सुप्पसिद्ध ते दह दह संखy गुणसमिद्ध । रिसहाई-जिणिंदहँ तित्थे ताम इह होति चरिमतित्थयरु जाम । तही तिथे जाउ कयकम्महाणि पंचमु जो तहिँ अंतयडणाणि । णामेण सुदंसणु तहाँ चरित्तु पारंभिउ आयण्णहु पवित्तु । वरतिरिय लोट पिहुजंबुदीर्व सोहायमाण रविससि-पईवे। १० दक्खिणदिसाहे सुरमहिहरासु अत्थस्थि भरहु जयसिरि-णिवासु। देवुत्तर-कुरुपाविय-विसेसु तत्य वि॰ सुपसिद्धउ मगहदेसु । घत्ता- जहिँ णइउ पओहर मणहरिउ दीसहिँ मंथरगमणिउ । णाहहा सायरही सलोणहो जंतिउ" णं वररमणिउ ।।२।। जहिँ पंडुच्छुवणइँ कयहरिसइँ कामिणिवयणाइँ व अइसरसइँ । दलियइँ पीलियाइँ पर्यमलियइँ धुत्तउलाइँ गाइँ मुहगलिय। जहि वेस व कलरवमुह रत्तिय णित्तु सुकरइ धण्ण सुयपंतिय । जहि छेत्तइँ णं पहियकलत्तइँ घणसासइँ मि ण मेरण चत्त । उववणाई सुरमणकयहरिसइँ भद्दसाल णंदणवणसरिसइँ। कमलकोर्स भमरहिँ महु पिज्जइ महुयराहँ अह एउ जि छज्जइ । जहिं सुसरासण सोहियविग्गह कयसमरालीकेलिपरिग्गह। रायहंस वरकमलुक्कंठिय विलसइँ बहुविहपत्तपरिट्रिय। पत्ता-वहिँ पट्टणु णामे रायगिहु अत्थि सुरहँ णावइ णिलउ । महि-महिलष्ट णियमुहि णिम्मविउ णाईं कवोलपत्तु तिलउ ।।३।। २ २ घ पयट्टइ। ३ ख घ मुत्ताहलु विचित्त । ४ घ रिसिहाई। ५ घ तेत्थ । ६ ख तिरियए; घ तिरय। ७ ख अत्थीह; घ अत्थीहु। ८ ख तेत्थ । ६ क पवहइ । १० ख मणहरउ। ११ क भंतिउ। ३. १ ख पई। २ घ मुहगुलियइ । ३ क घ धरण । ४ ख घ वि। ५ घ एहो। ६ ख घ ससरासण। ७ ख हु। ८ ख घ विलसहि । ६ क सुरहं वि णाहि णिलउ टि° सुराणामपि न निलयः एवंभूतः ख सुरहिं वरणह घ सुरहि वएणहि । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. ५. १०] सुदसणचरित उज्जाणवणु व उत्तुंगसालु उल्लसियसोणपेसलपवालु। तियसिंदु व विबुहयणही मणिव रंभापरिरंभिउ सइँ गरिह। वम्महु जिह रइपीईसमिद्ध णहयल परिघोलिरमयरचिंधु । वम्महु जिह णिम्मलधम्मसज्जु उप्फुल्लियकुसुमसरू मणोज्जु । अणमंथियउअहि व रयणठाणु मणहरणसुरालउ सिरिणिहाणु। अणमंथियउअहि व अपयखोहु तह दिव्वतुरयकरिवरससोहु । अणमंथियउअहि व अमयजुत्तु - परमहिहरिंदउकंपचत्तु। अणमंथियउअहि व सुरहिवासु असमच्छर जणविरइयविलासु । घत्ता-तहिं अस्थि किति धवलियभुवणु रिद्धिश हसियसुरेसरु । चेल्लणमहएवी परियरिउ सेणिउ णाम णरेसरु ॥४॥ णहमणिकिरणअरुणकयणहयलु भुयबल-तुलिय-सवल-दिसंगयउलु । असरिस-कमलणयणु सिरिवहुवरु इहणसउणअणुणियफलु जिह तरु । छणससिवयणु कुसुमसर-गुणहरु विसहर-मणुय तियस-तियमणहरु । वरकलनिवहहसिय-छण-ससहरु कणयगउरु अहिणवजलहरसरु । णियपहविजियदुसहतवरवियाँ अणुदिणु णवियपरमपहुजिणवरु। अलिउलचिहुरु अमरकरिकरकरु थिरयरगुणहिं विजियसुरमहिहरु । जिणवरकहियपवरतिरयणहरु परियणहिययहरणु गुणगणणिहि दहछहसयलु लहु य अविचलदिहि । घत्ता-मरगयमन रयणणियरजडिश थिठ णरवइ सिंहासणे । णं णिम्मलतारासंवलिश छणमयंकु गयणंगणे ॥५॥ ४. १ क ख विवुयणः घ बुहयणहो। २ घणहयर । ३ ख घ कोसुमसर । ४ यह पंक्ति क में नहीं है। ५ क ग पयरबोहु । ६ ग °तियह सोहु घ तहिदिट्ठउ रयकरि तियहुसोहु । ७ क उवकंपचत्तु व उक्कंपवित्तु। ८ ग घ असमच्छर । ६ क कंति। १० ग घ महएविए । ___५. १ ग घ दिसि । २ ख असरिसु कमलणयणु; घ असरिस-कमल-णयण । ३ ख अहण सउण अणुणिय जिह फलतरुः ग घ ग्रहण। ४ क णियपह विजय; ख ग घ णवरवियरु। ५ प्रतिषु ‘सयल' इतिपाठः । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणदिविरइयउ [१. ६.१ तहिं अच्छए जाम रायाहिराओ णरो को वि ता णं' मणाणंदु आओ। णमंसेवि सो जंपए लखमाणो अहो देव पत्तो जिणो वड्ढमाणो । सहालंकिओ सोहए सेलसीमे मयंको व्व नक्खत्तमज्मम्मि वोमे । तमायण्णिऊ उढिओ जाम राओ तओ झत्ति अत्थाणसंखोहु जाओ। उरेणं उरो हारसोहाधरेणं .. समुप्पेल्लिओ सेहरो सेहरेणं ।। मऊरो व्व मेहागमे हिट छु राया हयाणंदभेरी गओ सत्त पाया। णमंसेवि वीरं गइंदे णरिंदो वलग्गो णवे मेहि णं पुण्णिमिदो । रहा जाण जंपाण भिच्चा तुरंगा पया समुद्दे चला गं तरंगा। गया मेहसारी उत्तुगदेहा. विरेहति विज्जुज्जला णाई मेहा। णिओ चल्लिओ ललए णं सुरिंदो भुयंगप्पयाओ इमो णाम छंदो। घत्ता-करिमयरछत्तफेगावरिउ तुरयतरंगरहल्लिउ । धयमालाचलकल्लोलयरु णं समुहु उच्छल्लिउ ।।३।। दिणेस-अस्सचंचलो कहिं पि आहओ हओ सुरिंददंतिभेसओ करेणु'फाससंगओ सुरंगणाण दुलहा सुणग्गखग्गउब्भडा मराललीलगामिणी जिणिंदभत्तिपेल्लिया कहिं पि सेलसंकडे धओ धए विलग्गओ गओ गएण पेल्लिओ खुरग्गखुण्णभूयलो। जवेण णिग्गओ तओ। गलंतगंडएसओ। कहिं पि धाइओ गओ। चलच्छिलच्छिवल्लहा। कहिं पि चल्लिया भडा। कहिं पि का वि कामिणी। हसंति संति चल्लिया। वणे महातरुब्भडे। रहो रहेण भग्गओ। भडो भडेण वोल्लिओ। ६. १ ग घ 'तो णं'। २ क सीलसीमे। ३ क सोहावरेणं। ४ क हिट । ५ घणवो। ६ क सारीस। ७ क भुयंगप्पहारो। ८ क रहवल्लिउ । ७. १ क ग करेणु। २ ख खोल्लियाः ग खुल्लिया। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. ९.६ सुदंसणचरिउ अहो झडप्पिमापरो णसेइ एस वेसरो। णराहिवाणुराइणी खिवेसए विलासिणी। इमो सुंछदु उत्तओ पमाणिया णिउत्तओं। घत्ता-जिणदसणम्मि अणुरत्तु जणु हरिसे कहिँ मि ण मंतओ । रेहइ चंदुग्गर्म मयरहरु णं कल्लोलहिँ जंता ।।७।। १५ दीसइ पत्थिवेण जणमणहरु तुंगसिहरु' विउलइरि महीहरु । करिगजियहिँ पाहुणं वाय कोइलकलरवेहि णं गायइ। वरहिणीहि णडियहिँ गं णञ्चइ णं कुरंगउड्डाणहिँ वच्चइ । तिणरोमेहिँ गाइँ पुलइज्जइ णिज्झरेहि णं बहुलु पसिज्जइ । इय चाडुय करेइ जगवंदहीणं दरिसंतु भत्ति जिणइंदहीं। तिहुवणसिरिह णाहु कहिँ आवइ आयओं वि कहिँ खणु वि चिरावइ । हउँ कयत्थु जिणरिद्धिविसेसे पभणई महिहरिंदु हरिघोसे । अह को संपयाए णउ गजइ विरलउ णियगुणेहि पर लज्जइ । घत्ता-सकाणण धणयविणिम्मियउ समवसरणु महिवाले । दीसइ गयणयले परिट्ठियउ माणससरु व मराले ॥॥ धणुसहस पंच महि परिहरेवि जहिं चउदिसु मंदर छाय दिति महि इंदणीलमाणिक्कबद्ध चउमाणथंभ जिणकेयणाइँ धयकप्परुक्ख सुरहर महंत मंगलव्वट्ठ पवित्त दित्त - थिउ जोयणेक्कु णहि वित्थरेवि । सोहइ सुवण्णसोवाणपंति । जोयणपमाण गयणयल सुद्ध । परिहा वल्ली वणउववणा। कोट्ठय मणिथूह परिप्फुरत। चउ जक्ख धम्मचक्केण जुत्त । ७. ३ क ख फरो। ४ ख ग घ. तसेवि। -५ ख ग घ इमो वि छंदु वुत्तो । ६ ग घ गिरुत्तो। ८. १ क सिहरि ।- २ क ख पयडु। ३ क वाहइ। ४ ख वरहिणेहि । ५ ख उड्डाणेहि । ६ ख जिणयंदहो। ७ क आगो। ८ ख भणइ व। ६ क कयघोसें। ६. १ ग घ महि । २ क थूवह; ग घ थूव । ३ क ग घ चउसट्ठि जक्ख चक्केण जुत्त । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१. ९. ७ णयणंदिविरइयउ मेहलउ तिण्णि हरिवीढु रुंदु तहिं सहसवत्तु कणयारविंदु। तही उवरि परिहिउ वड्ढमाणु अंगुलचउक्क अच्छिज्जमाणु । पुव्वासासम्मुहु णिहयतंदु सण्णाणवंतु इंदाइवंदु । अणिमिसअरोसणीरायणेत्तु णहकेसविद्धितणुकाहिचत्तु । घत्ता-सियचमरछत्तदुंदुहिसहिउ कुसुमवाससंवलियउ। जिणु सहइ सिद्धिवहु डोल्लियहं णाइँ विवाहहँ चलियउ ।।६।। पेच्छिवि जिणवरु सेणियराएँ चिंसिउ णियमणम्मि अणुराएँ । मणुयत्तही फलु धम्मविसेसणु' मित्तही फलु हियमियउवएसणु। विहवहाँ फलु दुत्थियआसासणु तकही फलु वरसकय भासणु । सुहडही फलु भीसणरणमंडणु तवचरणही फलु इंदियदंडणु। सम्मत्तही फलु कुगइविहंसणु सुयणही फलु परगुणसुपसंसणु । पंडियमइफलु पावणिवत्तणु मोक्खही फलु पुणरवि अणिवत्तणु । जीहाफलु असञ्चअवगण्णणु सुकइत्तही फलु जिणगुणवण्णणु। पेम्मही फलु सम्भावणिहालणु सुपहुत्तहाँ फलु आणापालणु। णाणही फलु गुरुविणयपयासणु लोयणफलु जिणवरपयदसणु । घत्ता-इय चिंतिवि पारद्धउ थुणहुँ संतुट्टेण णरि दे। कइलाससेलसिहरम्मि ठिउ जिह पुरएउ सुरिंदे । ११ जय अमरगिरिव्हविय सयमहिण जगतिलय । जय भविय-सरकमलेदिवसयर सुहणिलय ॥ जय अणह चउदिसु वि पडिफुरिय चउवयण । जय गलियमलपडल कमलदलसमणयण ॥ ६ ४ क विवाहहुं चल्लिउ। १०. १ ख धम्मु विसेसणु। २ ख हिउ मिउ ग हि समिय। ३ क सक्कई । ४ क भीसण नर मंडणु। ५ ग घ विहंडणु। ६ क वत्तणु। ७ ग घ सपहुत्तहो। ११. १ ख कमलसर । २ ख पडिफुडिय। ३ ग घ दलकमल । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 १५ १. १२.९] सुदंसणचरिउ जय अरुह कुसुमसरइसुपहरअवहरण । जय जणणजरमरणपरिहरण सुह-चरण । जय धणयकयसमवसरणागयजणसरण । जय विमलजसपसरभुवणयलसियकरण । जय विगयभय विसयरइजलणणवजलय । जय सहसयरसरिसपरिफुरियजुइवलय । जय रसियसुरभुरयबुहजणियमणहरिस । जय चरमजिण तियसकयकुसुमघणवरिस । जय अमय झुणि-समय-परसमय-उवसमण । जय चलिय-चलचमर सिवणयर-कय-गमण ॥ जय अमर-णर-खयर-विसहरहिं अहिमहिय । जय परमपर सयल-अइसयहिं णिरु सहिय ॥ (ससितिलओ णाम छंदो) घत्ता–इय समवसरणे सेणिउ ससिर कयकरमउलि पहिउ"। चिरु भरहु व जिणवरु संथुणिवि णरकोट्ठम्मि वइट्ठउ ॥११॥ १२ पुणु कयसुरणरविसहरसेवं पुच्छइ सेणिउ गणहरएवं। जिण चक्कवइ सिरीहरि राया पडिहरि इह केत्तिय' संजाया। तो वीराणए जणियाणंदो अक्खइ गणहरु सुणइ गरिंदो। रिसहो अजिओ संभवणाहो अहिणंदणु सुमई पउमाहो। पुणु सुपासु चंदप्पहु संसो पुप्रफयंतु सीयल सेयंसो। वासुपुज्जु पुणु भवतरुदंती- विमलु अणंतो धम्मो संती। कुंथू अरु मल्ली मयणासो मुणिसुव्वउ णमि णेमी पासो। वड्ढमाणु चरिमिल्लु जिणिंदो भरहो-सयरो महवणरिंदो। सणकुमारु संती कुंथु यरो -णिवइ सुभउमो पउमो पवरो । ११. ४ क सिवकरण। ५ ग घ जुइविलय। ६ ख चरिमजिण। ७ ख अमिय । ८ घ उवसवण। ६ ग घ विसहरिहि। १० क मउलिय हिट्ठउ । १२. १ क कित्तिय। २ क मघव । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणंदिविरइयउ [१. १२. १०जयसेणो हरिसेणो जाओ बंभदत्तु चक्की विक्खाओ। १० हलहरु विजओ अचलो धम्मो सुप्पहु तह य सुदंसणु णामो। नंदी नंदिमित्तु पुणु रामो पउमो णवमो चिंतहि रामो। हवइ हरी वि तिविठु दुविट्ठो पुणु सुयंभु पुरुसोत्तमु सिट्ठो। णरसीहो पुंडरिओ दत्तो .. णारायणु कण्हो मयमत्तो । आसग्गीओ तारो मेरो महुकीडो णिसुंभु कयवेरो। पल्हाओ बलि रामणु सजसो चरमु" जरासंधो पडिहरिसो। इय तिसटुिपुरिसहँ सुपवित्तं अणुकमेण णिसुणेवि चरित्तं । मज्झिम लोयाणं णिरु वंदो -- पायाउलओ एसो छंदो। घत्ता-णयणंदियसयलमहीयलेण सेणियराएँ गणहरु। कर मउलि करेप्पिणु णयसिरंण पणविउ भत्तिण गणहरु ॥१२॥ २० १४ एत्थ सुदंसग चरिए पंचणमोकारफलपयासयरे माणिकणंदितहविजसीसणयणंदिणा रइए असेससुरसंथु णवेवि वड्ढमाणं जिणं तओ विसओ पट्टणं णयरपत्थिओ पव्वयं समोसरणसंगयं महापुराण-प्राउच्छणं इमाण कयवण्णणो णाम पढमो संधी सम्मत्तओ। संधि ॥१॥ १२ ३ ग घ विजयसेणु। ४ ख बंभयत्तु । ५ ख उमो। ६ क सयंभु । ७ घ पुरिसोत्तमु। ८ घ मयवंतो। ६ क रावणुः ख राम्वणु। १० ख जससो । ११ ख चरिमु। १२ ख ग घ जरासिंधो। १३ ख ग घ सुविचित्तें। १४ ख ग घ चरित्तें। १५ क घ मज्झे। १६ ख °लोया रिणय णरु। १७ क ग घ मणहरिण । १८ क जिणवरु । १६ ख संथुई। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि २ गुण भरियइँ णाणाचरियइँ णिसुणेवि राएँ वुत्तउ । पंचपयहँ फलु कहि भवियहँ लहु जेण जेम संपत्तउ । ध्रुवकं । तं णिसुणेवि वयणु जणमणहरु उल्लवेइ सिरिगोत्तमु गणहरु । अही सेणिय गरिंद जगसुंदर जिणचरणारविंदइंदिदिर। संपयाए उवहसियपुरंदर णियजसेण पूरियगिरिकंदर। जिह णिरु अप्पमाणु सायरजलु तिह पुणु पंचणमोकारह फलु । एहउ जइवि तो वि णउ रक्खमि संखेवेण किं पि तं अक्खमि। ईरिउ अरिहंत दयगेहे" . जगु चउदह रज्जुय उच्छेहे । गयणे अणंताणंतत्र थक्कर तिपवणवलयहिँ वेढिवि मुक्कउ । हेट्टष्ट मझुप्परि सोहइ इस वेत्तासणझल्लरिमद्दलकमु। हेहए णरयविलहिँ अवरंडिउ मज्झy दीवसमुद्दहिँ मंडिउ । उप्परि कप्पविहूइविहूसिउ लोयग्गु वि सिद्धहिँ उब्भासिउ । मज्मलोट तहिँ अस्थि पहिल्लउ जंबुदीउ अंबुहिवलइल्लउ । एक्कु लक्ख जोयण वित्थारे सहइ पुण्णससिबिंबायारे । तहिँ वि मझे मंदरु केहउ" थिउ णं जगहरही थंभु विहिणा क्रिउ । घत्ता-सुरमेलही तासु जि सेलही दाहिणदिसहि सुमणहरु । गुणभासुरु थिउ कोडीसरु भरहखेत्तु णं धणहरु ॥१॥ तहिँ मणोज्जु रिद्धीश समिद्धउ अस्थि देसु अंगउ सुपसिद्धउ । निविडण्णोण्णु' भिडिय गुरुअज्जुण दुजोहणसुभीमगयकयरण । १. १ ख ग घ में नहीं। २ ख जेव। ३. क णमोयारहं । ४ ग घ अरहति । ५ क रजउ। ६ ग घ गयणु। ७ ग घ हिट्ठए। ८ ग घ सिद्धिहिं । ६ क जंबूदीवंबुहि । १० घ एक। ११ ख मज्झि सुंदरु मंदरु। १२ ग घ दिसिहिं। १३ घ कोडीभरु । १४ क धणुवरु; घ धणुहरु । २. १ ग घ णिविडोणोएणु। २ क अजरण । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणंदिविरहयउ [२. २. ३सरहभीसवाणवलिछाइय भारहसरिस जेत्थु वणराइय। सुविसालाइँ सिसिरसाहाल अविरलसुरहिपसवसोहाल।। तरुणिकायलग्गिरपोमरय जहिँ उववण व गोउलणियर'। ५ खत्तसारपरिसाहिय खेत्तइँ बहु करिसणइँ ललियकरजुत्तइँ। णियवइरक्खियाइँ दिढकच्छइँ जहिँ गामइँ सामंतसरिच्छइँ। सुरयणपरियंचियकल्लाणइँ जहिँ जिणवरसरिसइँ पुरठाणइँ । घत्ता-रयणायरु णावइ सायरु तहिँ चंपापुरु छज्जइ । बहुसुरहरु विबुह-मणोहरु अह सुरवइपुरु णज्जइ ॥२॥ . १० जलपरिहसालगोउरमहल्लु णं समवसरणु धयसंकडिल्लु । रामायणु व्व कइयणपगामु लक्खणसमेयरामाहिरामु। अह भारहु व्व गुरुकण्णमाणु वावरियपत्थु कणभरियदोणु। अह सहइ जाइवित्तेहिँ रुंदु जइगणहिँ अलंकिउ णाइँ छंदु । महणस्थिय मंदरतुल्लसोहु चउदिसु अणंतपयजणियखोहु । अहवा गयणयलु व भमियमित्तु तमहरमंगलबुहगुरुपवित्तु । अहवा पायालु व णायवंतु मणहर पोमावइसोह दिंतु । अहवा वरिणजइ काइँ तेत्थु मणिरयणाइयहुँ ण संख जेत्थु । घत्ता-तहिँ राणउ अस्थि सयाणउ धाईवाहणु णामे । मणहरणउ जणवसियरणउ णं सरु सजिउ कामे ॥३॥ जो अहिणवमेहुवि णउ जलमउ जो सोमु वि अदोसु उज्झियमउ । सूरु वि णउ कुवलयसंतावणु वज्जियरयणियरु वि ण विहीसणु । २. ३ ख पोमारइ। ४ ख परिसोहिय। ५ क णियणिय वइरक्खियं । ६ ग घ सुरठाणई। ७ क विविह। ३. १ ख समेउ। २ क पंथ । ३ घ जाम । ४ ग घ मणहत्थिय । ५ क . भमइमित्तु। ६ क बुहुः ख तमहरु मंगलु । ७ ख मणहरु । ८ ख संधिउ। ४. १ ग घ अहिणउ मेहु । २ क ग घ जड़मउ। ३ क प्रदोस । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदंसणचरिउ विबुहवइ वि जो सुर ण णिहालउ अज्जुणगुणु वि ण गुरुपडिकूलउ। णरजेठु वि इच्छियधयरट्टउ बाहुबलि वि जो भरहगरिठ्ठउ । जो रामु वि हलहरु णउ भणियउ परवंसग्गि वि णउ अविणीयउ । जो सामि वि णउ ईसरसंगउ सारंगु वि पुंडरियसमग्ग। णायवियारणो वि ण मयाहिउ सायरो वि णउ झससंखोहिउ । चउरासु वि जो अक्खरहियकरु जो विवर्खवहणु वि णउ सिरिहरु । णीसु वि कमलच्छीआलिंगणु सगुणधणु वि ण परम्मुहमग्गणु । घत्ता-तही रायही जगविक्खायही अभया णामे राणी। रइ कामही सीया रामही णं इंदहा इंदाणी ॥४॥ अह तहिँ रायसेट्टि धणरिद्धउ रिसहदासु णामे सुपसिद्धउ । चंदु व सयलउ' कुवलयकतउ जिणसमउ व्व सहइ णयवंतउ । अहवा माहउ व्व सवियाणउ अमरेसरवारणु व सदाण। दिणयरउग्गवणु व णिहोसउ सिसिरयालु णं जणियपोसउ । माहिसखीरु व सव्वसणेहउ वासारत्तु व उण्णयमेहउ। सञ्चाउलु णं पुरवरआवणु भोयवंतु फणिवइ व सुहावणु। सोहइ वायरणु व बहुलक्खणु अज्जुणु इव कण्णंतणिरिक्खणु । चडियसरासणु व्व सुगुणड्ढउ महकइकहबंधु व अत्थड्ढउ । घत्ता-बहुलक्खण तहाँ सुवियक्खण अरुहदासि णामे पिय। सइ इंदही रोहिणि चंदही सहइ मुरारिहे ण सिय ।।५।। दीहरच्छि रयणावलिभासिय अइपसण्ण कतिल्ल सुहावह णं धम्महँ णयरी आवासिय । ससिरेहा इव कुवलयवल्लह । ४. ४ क पत्थिव । ५ ग घ वि.रण। ६ क समुग्गउ । ७ क सजन संखोहिउ । ५ ख विक्क्छ । ख गय । ५. १ क ख सयल सु। २ क गणिसमउ। ३ क माहवोः ख नारायणो। ४ ग घरगाइ। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणदिविरहयउ लक्खणवंति य सालंकारिय सुकइकहा इव जणमणहारिय । कुंकुमकप्पूरेण पसाहिय वणराइ व तिलयंजणसोहिय । उअयदिणेससंझ जिह रत्तहुँ दोहिँ वि तहु अण्णोण्णासत्तहुँ। तही सुहओ णामे गोवालउ णवकलत्तु जिह भुंभुरभोलउ। णिरु छंदाणुवट्टि कइकव्वु व किंपुरिसहँ पिउ मेरुणियंबु व। णरवइ व्व गोमहिसीपालणु रमइ भमइ काणणे कयकीलणु । कइ जिह तरुपालंबहिँ मुल्लइ हरिणु जेम उड्डाणई मेल्लइ । भमररवाई व घोरई मुञ्चइ हरिसोल्लिउ मऊरु जिह णच्चइ । घत्ता-तंबागणु वणे चारेविणु आवइ घरहा मणि?हो । पहसियमुहु गोवालहिँ सहुँ वासुएउ णं गोट्ठहो ॥६॥ ता तम्मि गेहम्मि अच्छंतु पेच्छंतु खेलंतु मल्हंतु जुझतु रुज्झतु । सोवंतु चेवंतु चेटुंतु उटुंतु णच्चंतु वच्चंतु भासंतुणासंतु । तूसंतु रूसंतु सो मंतु अच्चंतु घोसेइ रूसेइ तो सेट्टि सदिट्रि। कोक्केइ हक्केइ गोत्तेण बप्पेण संचत्तअप्पत्त णिक्किट्ठ रे धिट्ठ। संसारणित्थार जे कंत ते मंत तं केण कज्जेण जित्थेव तत्थेव। घोसेहि दोसेहि णमंतु तो वुत्तु गोवेण भावेण भो णाह आराह । माहम्मि मासम्मि भीमम्मि रणम्मि संझाट वेलाट णिग्गंथु णं पंथु । सोक्खस्स मोक्खस्स जोग्गेण मग्गेण" जा दिट छु है हिट ठु सो साहु आराहु । वंदेवि वण्णेवि तत्थाउ" हउँ आउ एयस्स छंदस्स तो णामु मज्झम्मु । घत्ता-सुमंहतरु महु मणिचिंतश रयणिहिँ णिंद ण ढुक्किय । हिंडंती असइ दुचित्ती णं संकेयही चुक्किय ।।७।। १३ ६. १ घ भंभर । २ क क वि। ३ ग व जेम्व। ४ ख वि; ग घ मि। - ७. १ ख चेयंतु। २ क भावंतु। ३ क रोसंतु। ४ क काकेइ । ५ ग घ हे चिट्ठ णिकिट्ठ। ६ ख प्रत्थेव। ७ ख ग घ दीसेहि। ८ क-णिपंथु । ९ क जोएण । १० ग घ जोग्गेण। ११ क तत्थाहु । १२ ख है। १३ क मज्झिम्मः ख मज्झिम् । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. १२] सुदसणचरित संभरंतु साहु णाणसुद्ध' राइच्छेप्ट जामए विउद्ध। लेवि वण्हि पक्खलंतु संतु पत्तो पएसु तं तुरंतु। जाम उण्ह हत्थ बे करेमि वारवार तासु अंगि देमि। ताम झत्ति उग्गओ दिणेसु तो गओ णहेण सो मुणीसु। पंचतीसअक्खरा भणेवि तत्थ हे पुणो इमे सुणेवि । तेण एत्थ तत्थ उच्चरेमि किं पि णोवहासणं करेमि । तं सुणेवि सिट्टिणा पवुत्तु दुल्लहो जयम्मि एसु मंतु । भाइ चित्त वजिऊग तंदु जाणिमो रसारिणी वि छंदु । पत्ता-झायहि वर पणतीसक्खर सोलह पंच दु एक्कु वि। सिरि मुहि गले तह वच्छत्थलि णाहिकमले कमसेण वि ॥८॥ १० एयह फलेण गुणमणिणिहाण चउरंसठाण। वरवजरिसहणारायणाम संहणणधाम। अट्ठोत्तरसयलक्खणणिवास हयकम्मपास। चउतीसातिसय विसेससोह उप्पण्णबोह। देविंदमउडमणिघट्टपाय गयरोसराय। सोमत्तजित्तच्छणयंदकंति जिणवर हवंति। चक्कवइ चउद्दहरयणसिद्ध वणिहिसमिद्ध। बलएव वासुएव वि महल्ल पडिवक्खमल्ल । कप्पामर सोलहविह महंत गुणइंड्ढिवंत । णवअणुदिसपंचाणुत्तरिल्ल तिहुयणि महल्ल। तही सोक्ख वि को वण्णेवि सक्कु सक्कु वि असक्कु । पद्धडिया णामें चित्तलेह पयविसम एह । 5. १ ख °सुटु । २ क रायच्छेयए; ख राएच्छिया ग घ राइच्छेय। ३ ख विउटु, । ५ क बराहु । ५ ख जावं । ६ ख ताव । ७ क भो। . १ क सहयणः ग घ संहणय। २ ख घ धिट्टः घ मउडरिणघट्ट । ३ क सोम. राजुत्ता ख सोमित्तजित्त। ४ क तहुं । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणंदिविरइयउ [२. ९.१४ पत्ता-पंच वि गुरु छुडु सुमरइ णरु अइसय भत्ति जुत्तउ। ण चिरावइ मोक्खु वि पावइ णहे गमु केत्तियमित्तउ ॥६॥ १० आयणि पुत्त सप्पाइ दुक्खु विसय वि ण भंति चिरु रुद्ददत्तु वदु आयरेण सो च्छोहजुत्तु जूयं रमंतु मंसासणेण अहिलसइ मज्जु पसरइ अकित्ति जंगलु असंतु मइरापमत्तु रच्छह पडेइ होता सगव्व साइणि व वेस तहो जो वसेइ वेसापमत्त" कयदीणवेसु जे सूर होंति वणे तिण चरति वणमयउलाई जह आग सत्त वि वसण वुत्त । इह दिति एक्क भर्व दुणिरिक्खु । जम्मतरकोडिहिँ दुहु जणंति । णिवडिउ णरयण्णव विसयजुत्तु । जो रमइ जूउ वहुडफ्फरेण। आहणइ जणणि सस घरिणि पुत्तु । णलु तह य जुहिटिल्लु विहुरु पत्तु । वड्ढेइ दप्पु दप्पेण तेण। जूउ वि रमेइ बहुदोससज्जु । ते कज्जे कीरइ तही णिवित्ति। वणु रक्खसु मारिउ णरए पत्तु। कलहेप्पिणु हिंसइ इट्टमित्तु । उब्भियकरु विहलंघलु" णडेइ। . गय जायव मज्जे खयहो सव्व । रत्तापरिसण दरिसइ सुवेस। सो कायरु उच्छिट्ठउ असेइ। णिद्धणु हुउ इह वणि चारुदत्तु। णासंतु परम्मुहु छुट्टकेसु। सवरा हु वि सो ते णउ हणंति। णिसुणेवि खडक्कउ णिरु डरति। किह हणइ मूदु किउ तेहि काइँ। २० १०. १ क पायएण। २ ख जिहः ग घ जहि । ३ ख विसये। ४ क जलु । ५ क ग घ मासा । ६ क जूइ। ७ क नरय । ८ ख मइराइ मत्तु। ६ घ इट्ट, मित्त । १० क उब्भिवि करु; ख उज्झवि करुः ग घ उब्भवि कर। ११ क विहिघंघलु । १२ ख ग घ परिसण। १३ ख तहे । १४ ख घ कास्य । १५ ख वेसाए मत्त; ग घ वैसाए सत्तु । १६ ख ग घ चिरु। १७ ग घ गणंति। १८ क मउकुलाई। १६ ग घ तेण । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. ११. १५ ] पारद्धिरन्तु चलु चोरु धिट्ठ णियभुयबले २१ भयकूवि छू दु पद्धडिय एह सुदंसणचरिउ घत्ता-' - पावेज्जइ बंधेवि णिज्जइ वित्थारेवि रहे चश्चरे । दंडिज्जइ तह खंडिज्जइ मारिज्जइ पुरवाहिरे ||१०|| परवसुरयहो अंगारयहो' इय णिवि जणो' तावि मुढमणोरे जो परजुवइ इह अहिलसइ विरहे णडिओ अच्छइ पडिओ जा जाहि तुहुँ पत्थेवि लहु उवयारसयं जुंजेइ सयं ५ हे सुहु अइदी मुहु अह का वि चला इच्छइ अबला तू सयं किर रमइ रयं ७ खरे छरहरियमरणू कंपंततणू को विरइ करे आरुहि सहिऊण जए विडइ णरए परयारश्या चिरु खयहो गया गहिऊण मं" परिवज्जि तुमं बहुदिणीहिं पुणो संतुट्टमणो .११ -१२ १०. ११ पेच्छेवि । रावण । १३ ख किय। चक्कवइ णरत गड बंभयत्तु । २० गुरुमायबप्पु माणइ ण इछु । वंच ते अवर विसो छलेण । ts freeक्खु पावेइ मृदु । सुपसिद्धी नामें विज्जलेह । सूलि भरणं जायं मरणं । चोरी करइ उ परिहरइ । सो जीससइ गायइ हसइ । उ रs लहइ मित्तहो कहइ । सा आणि घरे महु लाइ उरे कवि होइ सई च्छइ जुवई । दावेइ जणे जूरेइ मणे । देउलसिहरे तह सुण्णहरे । सो सुणिवि सरं उव्वहइ डरं । णिहुय दडइ णासइ पडइ । वित्थारणयं तह मारणयं । २० ख ग घ मरणइ । २१ क भव । २२ ग घ चंदलेह । २३ ख रहु । ११. १ घ पसुयरहो अंग्गाइयरहो । ५ ख गो लहइ सुहं । ६ क हि १० क कमरणाः ख करिणा । २ ख ज । ३ ख मणे । ४ क ग घ । ७ क धरे । खारुहिय । ६ ख ११ ख ग घ गहिऊरिणयमं । १२ ख परवज्जि । १० होऊ अबुहा रामण पहा | सत्त विवसणा एए कसणा" । saf गिरा समणि थिरा । सो घर तओ सुरसरिहे गओ । १३ १५ २५ ५ १५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणदिविरइयउ [२. ११:१घत्ता-सुंदरपयलक्खणसंगय विमल पसण्ण सुहावह । णावइ तिय सहइ सइत्तिय णइ अहवा सुकइह कह ॥११॥ १२ पप्फुल्लकमलवत्ते हसति' . अलिवलयघुलियअलय' कहति । दीहरझसणयणहिँ मणु हरति .. सिप्पिउडोटउडहिदिहि जणंति । मोत्तियदंतावलि दरिसयंति पडिबिंबिउ ससिदप्पणु णियंति । तडविडविसाह बाहहि णडंति पक्खलणतिभंगिउ पायडंति । वरचक्कवाय थणहर णवंति गंभीरणीरभमणाहिवंति। फेणोहतारहारुव्वहंति उम्मीविसेसतिवलिउ सहति । सयदलणीलंचलसोह दिति जलखलहलरसणादामु लिति । मंथरगइ लीलए संचरंति वेसा इव सायरु अणुसरंति । ५ घत्ता–हरिसियमणु गंजोलियतणु सुहउ णियच्छिवि सुरसरि । कयरोलहिँ सहुँ गोवालहिँ कीलइ चिरु णावइ हरि ॥१२॥ १० खणे लिहक्कइ थक्कइ देइ झडा खणे णासइ तासइ एइ अहो खणे संकइ ढंकइ आणणयं खणे धावइ आवइ णाइँ मणो अह एक्कु चमक्कु वहंतु मणे णिरु कंपइ जंपइ सो सहसा तुह गाविउ जोविउ जंतियउ णिसुणेवि धुणेवि सिरं चलिओ खणे लोट्टइ पेट्टइ गोवथडा'। खर्ण कीडइ पीडइ णाइँ गहो । खर्ण मोडइ लूडइ काणणयं । खणे दीसइ णासइ णाइँ घणो। इल-रक्खु समक्खु पहुत्तु खणे । अही चल्लि म खेल्लि महंतजसा। परतीरे गहीरे पहुत्तियउ । इय छंदु वि तोडणउ कहिओ । ११. १४ क साहिय। १२. १ ख ग घ सहति । २ क दोहरक्खमीणहिं। ३ ख अणुहरति । ४ सिप्पियउडेहि गह। ५ क पडिबिबिय। ६ क बाहडे । ७ ख बहंति ।। १३. १ क गेडिदडा। २ ग घ एह। ३ ख लूडइ मोडइ। ४ क लइ। ५ क वलेवि। ६ ख छंदउ। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. १५. १०] सुदंसणचरिउ घत्ता-सो गोवउ आउसुथोवउ सुमरेवि पयपरमेट्ठिहिँ। विसभरियहिँ णं णाइणियहिँ णिवडिउ णं जमदिद्विहि ॥१३॥ १० १४ तहिँ जलमज्झि हिथिउ थाणु एक्कु जिह गयणु तेम सो उद्धसुक्कु । जिह गयणु तेम सो मीणजुत्तु जिह गयणु तेम कक्कडविचित्तु । जलि बुड्डउ सो केरिसु विहाइ तहा पाणहरणु थिउ कालु णाई। कयझंपहा तं तहा हियश जाइ वम्मइ लुणंतु खलवयणु णाई। भिंदइ उरु भक्खइ पुट्ठिमांसु खुटुंवि तहा कम्मे हुउ पलासु । उव्विविरु सो णिउँ धुणइ अंगु जले जालि वडिउ णं मीणसंगु। पर्य कर वि ण चल्लहि तासु केम कुणरेसही उज्जडि गाम जेम। तहिँ कालि विवजेवि देहसोउ बंधइ णियाणु लहु एस गोउ। घत्ता-पंचपयहँ फलु जइ अायहँ अस्थि होउ तो वणिकुलु । बहुसोक्खहो गच्छमि मोक्खही जेण विणासिय-कलिमलु ॥१४॥ १० । जिह पंचिंदिएहिँ सोहई मणु पंचवण्ण'कुसुमहि जिह उववणु। पंचसिलीमुहेहि जिह वम्महु पंचहिँ पंडवेहि जिह भारहु । पंचाणुव्वएहि जिह भवियणु पंचमहवएहि जिह मुणिगणु । पंचपंच भावगहिँ वयक्कमु पंचाचारहि जिह रिसिपुंगमु । पंचमहाकल्लाणहिँ जिह जिणु पंचत्थियकायहिँ जिह तिहुयणु। ५ पंचहिँ मंदरेहि जिह महियलु पंचच्छरियहि जिह दाणही फलु। पंचंगे मंते जिह महिपहु पंचविहहिँ जोइसयहि जिह णहु । पंचसयहिँ पमाणु जोयणु जिह पंचणमोकारहिँ मरणु वि तिह । धत्ता-मणु खंचेवि जे पय पंच वि इय झायहि आणंदिय । सिद्धालउ अट्ठगुणालउ ते लहंति णयणंदिय ॥१५॥ एस्थ सुदंस गरिए पंचगमोक्कारफलपयासयरे माणिक्कणंदितइविजसीसणयणंदिणा रइए तिलोउ विसउ पुरं णिवइ सेट्ठि तहो गेहिणी पुणो सुहयगोवहो मुणिसयासे पुण्णजगं तरंगिणिमहाजले तसु खुंटउरभेयगेण मरणं इमाग कयवण्णणो दुइजओ संधी सम्मत्तओ। संधि ॥२॥ १३. ७ ग घ गोविउ पाउसुथोविउ। ८ ग घ गइ हाइणिहे । १४. १ख जलहो मझे। २ क जलबुडउ। ३ घवम्मह। ४ क खंड घ खंट । ५ क वुरगइ। ६ ख घ जाल। ७ क ख पए। ८ क सुहं ग घ सहु। ६ ख विणासेवि । १५. १ ख वएणुः ग घ पंचवरणजिह । २ क भावहिं जिह वयकमु । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ३ १ णो संजादं तरुणिअहरे विदु मारत्तसोहे | णो साहारे भमियममरे णेव पुंडुच्छुदंडे । णो पीऊसे हि मिगमदे' चंदणे व चंदे । सालंकारे सुकइभणिदे जं रसं होइ कव्वे । मदाक्रांता । रामो सीयविओयसोयविहुरं संपत्तु रामायणे । ३ जादा पंडव धायरट्ठ सददं गोत्तं कली भारहे । डेड कोड' चोररजणरदा आहासिदा सुद्धए । णो एकं पि सुदंसणस्स चरिदे दोसं समुब्भासिदं ॥ शार्दूलविक्रीडितं ॥ सुतरंगहे गंगई गोउ किर जाव' जम्मि णउ गच्छइ । ता सुहइ जिणमइ सयणयले सुत्तिय सिविनय पेच्छइ । सुरचित्तहरो सिहरी पवरो पवरंबुणिही पजलंतु सिही पसरम्मि सई वरसुद्धमई णिसि लक्खिय तसु अक्खियउ ११ लइ" जाहुँ वरं जिणचेइहरं .१२ पयडंति अलं सिविणस्स हलं ' भणि रमणीय छंदु मुणी णवकप्पयरू अमरिंदघरू । सुविराइयओ अवलोइयओ । सिग्घु तहिं थिउ कंतु जहिं | पभणेइ पई पिय हंसगई । अविलंबणी भयवंतमुणी । चलहारमणी चलिया रमणी । घत्ता-गय जिणहरु मुणिवरु परिणवेवि जिणदासिन निसि दिउ । गिरिवरु तरु सुरहरु जलहि सिहि इय सिविणंतरु सिट्ठउ || १|| १. १ क बिबि । २ क हलिसहिण तं ख हलसहिरण तंग सेलसिहरे । ३ ख जादव । ४ क गोमूकला; ख गोत्तंकले । ५ ग घ कोलिय । ६ ख सुदए; ग घ सुद्दए । ७ ख समुब्भाविदं । ५ ख जाम् । 8 क देवाण घरू । १० क तहो । ११ ख लहु । १२ क फलं । ५ १५ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ३.८] सुदसणचरिउ किं फलु इय सिविणयदसणेण होसइ परमेसर कहि खणेण । इय णिसुणिवि णवजलहरसरेण सुणि सुंदरि पभणिउ मुणिवरेण । उत्तुंगे भरभारियधरेण होसइ सुधीरु सुउ गिरिवरेण । कुसुमरयसुरहिकयमहुअरेण चाइउ लच्छीहरु तरुवरेण । सुररमणीकीलामणहरेण' सुरवंदणीउ वरसुरहरेण । जललहरीचुंबियअंबरेण गुणगगगहीरु रयणायरेण । अइणिविडजडत्तविणासणेण _कलिमलु णिड्डहइ हुआसणेण । सुंदरु मणहरु गुणमणिणिकेउ जुवईयणवल्लहु मयरकेउ। णियकुलमाणससररायहंसु णिम्मच्छरु बुहयणलद्धसंसु । उवसग्गु सहेवि हवेवि साहु पावेसइ झाणे मोक्खलाहु । जिणु मुणि णवेवि हरिसियमणाइँ णियगेहु गयइँ विण्णि वि जणा' । गोवउ वि णियाणे तहि मरेवि थिउ वणिपियउयरण अवयरेवि । घत्ता-तहि गब्भन अब्भट णाइँ रवि कमलिणिदले णावइ जलु । सिप्पिउडन णिविडम ठिउ सहइ णं णितुल्लु मुत्ताहलु ॥२॥ परही रिद्धि पेच्छेवि णं दुजण कसणवण्ण जाया विणि' वि थग । सोहइ वयणु ताहे जियससहरु णं गंदणजसेण आपंडुरु। गइ मंथर हवेइ चल्लंतिह तह पुणु सुहुम वाणि बोल्लंतिह। खणे खणे जणियपयडतणुभंग ___ जायइँ सालसाइँ अटुंगईं। दोहलाइँ संजाय एय जिणण्हवणाइँ सुदाणविवेय.। पोसे पुहुर्त सेयपक्खन हुए बुहवारण चउस्थितिहिसंजुष्ट। सयमिसरिखे जोष्ट वरियाणण पढमे करणे वउणामपहाणा । अंसइँ पंच मेल्लि णवमासहि जणिउ ताप्न सुउ पुण्णविसेसहि । २. १ क कीलमणोहरेणा ग कीलणमणहरेण। २ ख उवसग्ग। ३ क कालें। ४ ग घ णिउडए । ३. १ ख दोरिण। २ क वेएं। ३ क तिहे ख तह। ४ क घ हए । ५ ख उव। ६ क मंसए पढमेल्लि । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यणदिविरइयां [३. ३. ६घत्ता-पायालय विउलट जीवगणु णिवडंतप्ट पेच्छेविणु। दुहपावणिसुंभणु धम्मु सई णं थिउ णरु होएविणु ॥३॥ १० तहि वणिवरगेहे चारु लच्छीसुसोहे अइ पहसियवत्ता पुण्णकुंभेण जुत्ता। मणहरपयराई घोसमाणा समाई' – मिलेवि बहुपयट्टा आगया चट्टभट्टा । पडपडहरवालं डक्ककंसालतालं करडटिविलसालं वेणुवीणावमालं। णडियपुरमऊरं दिम्मुहासेसपूरं गयवइमणजूरं वजए तत्थ तूरं । स रि ग म प धणी यं किण्णरासंसणीयं अमियरसुवमेयं गायणाढत्त-गेयं । ५ दुरयगइ सुमंदं सण्णियं वम्मि रुदै पिहुथणमुहयंदं णञ्चये णारिविंदं । खलयणसिरसूलं सजणाणंदमूलं पसरइ अविरोलं मग्गणाणं सुरोलं । सिरणवियजिणिंदो देइ चायं वणिंदो वसुयजइजुत्तो मालि गीछंदु वुत्तो। घत्ता-वणिजेटे तुटेणियसुयहाँ किउ जम्मुच्छउ जेहउ । साणंदे इंदे जिणवरही जइ परकीरइ तेहउ ।।।। १० तेण पुत्तेग जणु तुट् ठु खे महंतेहि मेहेहि जलु बुट्छ। दुट्ठपाविट्ठपोरत्थगणु त छु - गदि आणंदि देवेहि णहे घुट छु । दुंदुहीघोसु कयतोसु हुउ दिव्वु फुल पप्फुल्ल मेल्लेइ वणु सव्वु । मंदु आणंदयारी हुओ वाउ वावि कूवेसु अब्भहिउ जलु जाउ । गोसमूहेहि विक्खित्तु थणदुद्ध एंतजंतेहि पहिएहिँ पहु रु ।। तो दिणे छट्ठि उक्कि? कमसेण दाविया छट्ठिया उझत्ति वइसेण । अट्ठ दो दिवह वोलीण छुडु जाय ताम जा णाम जिणयासि सणुराय । ३. ७ ख ग घ सुहपावणु पावणु। ४. १ ख सुमाई। २ क आनया। ३ ख लालं। ४ के गायणा तत्थ । ५ क दुरगदयसमुई; ग घ मुरयाइसुमंदं । ६ ख सुरिणयं । ७ ग घ मागहाणं । ८ ग घ चावें। ६ घ जुइजुत्तो। १० ग घ वणिसुग्रहो।। ५. १ ख पुट्ठ। २ ग घ तुर्छ। ३ घ वविसु । ४ ख उक्किट्ठि। ५ क जिणयास; घ जिरण्यासु । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ७. ६ सुदसणचरिउ वालु सोमाल देविंदसमदेहु लेवि भत्तीय जाएवि जिणगेहु । ती पेच्छियउ पुच्छियउ मुणिचंदु मत्तमायंगु णामेण इय छंदु । पत्ता-मंदरु जिह थिरु तिह बुयणहि कुंभरासि पणिजइ। महुतणउ तणउ एरिसु मुणिवि मुणिवर णामु रइन्नइ ।।५।। १० तं सुणिऊण पणदुरईसो मेहणिघोसु भणेइ जईसो। दिट् ठु तए सिविणंतरे सारो पुत्तिए तुंगु सुदंसणमेरो। किजउ तेण सुदंसणु णामो सजणकामिणिसोत्तहिरामो । तो जिणयासे णविवि जईसं चिर्त पहिट्ठ गया सणिवास। सोहणमासे दिणे छुड़ दित्तं बद्धउ पालणयं सुविचित्तं । देवमहीहरि णं सुरवच्छो वड्ढइ तत्थ परिहिउ वच्छो। वडढइ णं वयपालणे धम्मो वड्ढइ णं पियलोयणे पेम्मो। वड्ढइ णं णवपाउसि कंदो एसु पयासिउ दोहयछंदो। घत्ता-जगतमहरु ससहरु मयरहरु-जिह वडढंतउ भावइ। ____ मणवल्लहु दुल्लहु सजणहँ पुरएवहीं सुउ णावइ ॥६॥ १० तरुणिहि हुरुहुल्लरु वुञ्चंतउ घणथणसिहरोवरि मुच्चंतउ। पाणियलहि किउ चुंबिजंतर एत्तहिं पुणु एत्तहिं णिजंतउ । करयलु वयणकमलि घल्लंतउ .... काइँ वि लेवि झत्ति मेल्लंतउ। गयहि सत्तमासहि बोटिजइ संवच्छरजुएण मुंडिजइ। अच्छइ घरपंगणे खेहंतउ अपरिप्फुडु वयण बोल्लंतउ । मंद मंद पय धरहि धरतउ णेउरसर झणझणिय करतउ । ५. ६ खणिहदेहु । ७ ख जाएवि भतीए। ८ ख तियए वि । ६ क मत्तमातंगु। १० क ग घ भणिजइ। -...--- ६. १ क ग पइट्ठ । २ ग घ ताए । ३ क ख सो अहिरामो। ४ ख ग सोहणु मासु। ५ ख ग घ दिणं छुड्डु वित्तं । ६ क सुरचित्तं । ७ ख मेलणे। ८ ख पाउसु । ६ क तिह एयहो। ७, १ क अपरिप्फुडु। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणदिविरइयउ [३. ७. ७घग्घर-घवघवरर्वण सहतउ मम्मणगिरहि डिंभ मोहंतउ । कंचणकडिदोरय णासंतउ किंकिणिकणिउ सुणेवि विहसंतउ । चलइ वलइ पडिखलइ सुहावहु जिणजम्माहिसेट णं सयमहुँ । उट्ठइ पडइ रडइ सुणडइ किह वासारत्तै पत्ते सिहिगणु जिह। १० घत्ता-इय लीलय कीला तहाँ सुयहा अट्ट वरिस गय जावहि । मगहरणिय घरिणित सहुँ चवइ सहरिसु वणिवइ तावहि ॥७॥ किं वित्थरेण' हले कहमि तुझु पडिहासइ एहउ मंतु मुज्झु । पाढणही णिमित्ते गंथसत्थ - देविणु सहसा परिहाणवत्थ । मुणिवरही समप्पमि पुत्त ताम सहत्थवियक्खणु होइ जाम। गुरुसिक्खालाव सिसुर्त दिण्ण लग्गहि जिह घडए अपक्कि कण्ण । सामग्गिरइयवज्जियअवज्जु भणु पुण्यहिँ को सिज्झइ ण कन्जु । सोहइ परिमिउ माणसणीहि सिसु रायहंसु णं हंसणीहि । गंपिणु चेईहरि मुणिवरिंदु पुजिउ णं इंदे जिणवरिंदु। उवणिय छत्तय चोल्लय मणोज वसुभेय रइय जिणसुयहा पुज । पुणु लिहिवि सिद्धमाइयकमेण घोसाविउ सो मुणिपुंगमेण । लीलण पढंतु सुंदरु विहाइ कुंभेण भरिजइ बुंभु णाइ। घत्ता-पहसियमणु अणुदिणु मुणिपवरु वणिवरिंदअंगरुहहो । सुपसत्थई सत्थई वजरई रिसहणाहु जिह भरहही ।।८।। संधि चंग धातु लिंग। लक्षणेक कव्य तक। छंद देसि. णाम रासि । दिण्ण दिहि लुक्क मुट्ठि। ७. २ ख घुग्घुर। ३ क भासंतउ। ४ °सए सयसमहु। ५ ख जामहि । ६ ताम्वहि। ८. १ घ वित्थरेमि। २ ख सुप्पत्थ। ३ ख ग घ वजियउवज्जु । । ४ क ख ग घ मउ । ५ क मुरिण। ६ क गंथई बहु कहइ । ६. १ क इट्ठि। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. १०.७] सुदंसणचरित णायकील भसील । गंधउत्ति रायणित्ति । ए पढेइ तो गुणेइ। पत्तछेय णट्टगेय। पट्टवज वीणवज । खग्गकुंत बृहयंत । चंदवेझ मल्लजुज्झ। सुट्ठुरम्म कट्टकम्म । चित्तयम्म लेययम्म। धाउवाय चुण्णजोय । अग्गिथंभ वारिरंभ। इंदजाल पुप्फमाल। णारिलक्ख. हत्थिसिक्ख । जाणमाणु थक्कु सृणु। छंद जाणु कामबाणु। घत्ता–कयहरिसहि वरिसहि सोलहहि सो णवजोव्वर्ण चडियउ। २० महु भावइ णावइ हिययहरु सुरवइ सग्गही पडियउ ॥६॥ जस्स णीलणिद्ध केसु दिव्वउण्णयं विसालु सुंदराउ भूलयाउ चंचलच्छिदंदु रम्मु कुंडलेहिँ जुत्त कण्ण चंपहुल्लणासवंसु सुद्ध णिद्ध दंतपंति आयवर्तवित्तु सीसु। अद्धयंदतुल्लभालु। णं दुहंडु कामचाउ। कीलरं व मच्छ जुम्मु । सोह दिति का वि अण्ण। मञ्चलोयमझि संसु। मोत्तियाण दिण्णभंति । ९. २ क दंत । ३ ख लिप्पयम्म चित्तकम्म ग घ लेपककम्म । ४ ग घ वारिथंभ । ५ क सुक्खए। १०. १ ख घ प्रायवत्तु । २ घ दुंदु। ३ ग घ मच्छि । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पक्क बिंबवण्ण हो विहादु कंठमज्भु सुठु भाइ सुडहुड जित्तसोयवत्त हत्य वच्छु 'चक्कलं विहाइ मज्झए मुट्ठिगेज् सुग्गीरुणाहि सोहगी दो वि पीण जंधियाउ गूढगुफया सहति ६ कुम्माय भास हा पंति १०. ११. दिविर सुहिसहिउ णयरे हिंडंतु भाइ ता सरइ समुहु तो तरुणिजू हु कवि अघाडिय थण करेइ कवि भणइ सुहय थिरु थाहि ताम काहिँ विरइहु हु उ दंसणेण कवि भइ महराहरण लेहि कवि गिरविमुक्त एत्तिउ करे इ कवि भइ रक्खि मइँ एक्कवार सिहितविय सिलाइव हउँ जि तत्त आहरण का विवरीय लेइ किंण होंति लच्छि | रिब्भपुरणमिंदु | तिणिरेहसंखु णाइ । सुरिंदहत्थिसुंड । चूर समत्य । च्छिक हम्मु णाइ | ५ इँ वजदंड णं अणंगसप्पगेहु । -गाई कामरायपीदु । ऊवमाविवज्जियाउ । णाइँ कामरायमंति । । अंगुलिल्ल पाय । छंद समाणियं ति । घत्ता - बहुभेयइँ एयइँ लक्खणइँ अवरइँ जाइँ वि गयमल हूँ । इह दीसहिँ सीसहिँ कइयणहिँ ताइँ ताइँ धम्मो फलइँ ॥१०॥ ११ [ ३.१०.८ उडुगणसमाणु ससि गयणि णाइ । सुरकरिहि णाइँ करिणीसमूहु । इंगिउ ह ण करे घरेइ । महु णयणरंक भवलिंति' जाम । पुणुरुत्तत् किं फंसणेण । बोलावं तिहि पविणु देहि । पण केलि जिह थरह रेइ । विरहिं मारंतिहि णिव्वियार । परकज्जु व तुहुँ सीयलउ मित्त । दप्पणियबिंब तिलउ देइ । ४ ख ग घ चकलो । १ ख धवलेंति; घ धउलिति । २ ख विरहेण मरति ह । ५ ख ग घ इंदवन' । ६ ख कुम्मराय । १० १५ २० ५. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. १२. १२] सुदंसणचरिउ २५ घत्ता - हउँ वण्णमि मण्णमि सो जि पर जं णिएवि ण विरावइ । रइ लुद्धहँ मुद्धहँ लोयणहँ मच्छुच्छल्लणु दावइ ॥११॥ १२ पेक्खेवि सुदंसणु पुरउ झत्ति काश वि णियकंतही किय णिवित्ति । मेल्लंती लोयण चलझलक क वि लज्जन कुड्तरिय थक्क । भुयमूलपओहरणाहिदेसु क वि पयडइ मोडइ तणु असेसु। क वि मयणपरव्वस भणइ बाल हउँ सहवि ण सक्कमि विरहजाल । अवियाणतिष्ट' विरहाउराष्ट्र अणहियन हियउ मइँ दिण्णु माय। किं अण्णहिँ भवि वरतउ ण चिण्णु जे एहउ पइ दइवेण दिण्णु । क वि णिवसणु ल्हसियउ णउ मुणेइ इयरउ विरहिणियउ धीरवेइ । अह सच्चु जि णियपयतले जलंतु जणु णियइ ण उम्मग्गे चलंतु । जिह मणु पसरइ पियवयणु जेत्थु तिह जइ कर पसरहि कहव तेत्थु । तो हेलप आलिंगणु करेइ जणु सय लु णिरंकुसु को धरेइ । घत्ता हे सुहमइ णरवइ वणिसुयही णयणंदिय जणगणहरे । सा णवि तिय रत्तिय जा ण तहा हिंडतही चंपापुरे ॥१२॥ एत्थ सुदंसणवरिए पंचणमोक्कारफलपयासयरे माणिक्कणंदितइविज्जसीस-णएणंदिणा । रइए सुदंसणहो जम्मणं सरसबालकीला पुणो कलाणियरसिक्खणं मणहिरामयं जोवणं असेसपुरसंदरीजणियक्खोहकार्मिगियई इमाग कयवण्णणो तइयउ संधी सम्मत्तउ । संधि ॥३॥ ११. ३ ख ग घ वहि। ४ घ रइलुद्ध इ मुद्धइ । १२. १ क अविमाणंतिए। २ ख अण्णभवे चिर तउ। २ क ग घ ललियए । ४ ख जियए। ५ ख पिय वसइ। ६ क पसरइ। ७ क सयं। ८ ख जणु गुणहरे; गघ जणगुणहरे । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ४ कुलु बलु पगुणु पंडित्तगुणु रूवलच्छि जसु णिम्मलु । आरोगत्तणु सोहग्गु पुणु इय महंतधम्मही फलु ॥ध्रुवकं ।। पुरि हिंडतो जिणमइपुत्तो पेच्छइ कविलं गुणगणविमलं। अइसयरम्मं कयछक्कम वेयवियाणं णिञ्चसुण्हाणं । वंदियसोत्तं दियगुरुभत्तं पुज्जियसिहिणं तिलजवहुअणं। चंदणलित्तं पंडुरगत्तं खंध तिसुत्तं कयसिरछत्तं । मुणियणिमित्तं दयदमचित्तं पियरायत्तं धम्मासत्तं। वियसियवत्तं गेलणेत्तं इय गुणजुत्तं दि8 मित्तं । वणिवइउत्तो भूसियगत्तो णेहणुलग्गो कंठविलग्गो। हरिसविसट्टो छुडु जि पयट्टो जा ता अग्गे आवणमग्गे। तणुसोमाला दिट्ठा बाला दुवई एसा मयणविलासा । घत्ता-जा लच्छिसम तह का उवम जाई गइट सकलत्तइँ। णिरु णिज्जिय िणं लज्जियइं हंसइँ माणसि पत्तइँ ॥१॥ जाहे चरण सारुण अइकोमल जाहे पायणहमणिहिँ विचित्तई जाहे गुप्फगूढिमय विहप्फइ' जाई लडहजंघहिँ ओहामिउ जाह णियंबविंबु अलहंते पेच्छेवि जले पइट्ठ रत्तुप्पल । णिरसियाइँ णहे ठिय णक्खत्तइँ। उवहसियउ विसेसमइविप्फई। रंभउ णीसारउ होगवि थिउ । परिसेसियउ अंगु रइकते। १. १ क विणयविनाणं। २ ख हवणं। ३ क सुणिय। ४ क ग घ पियरासत्तं । ५ ख जाहि गयई। २. १ क वियप्पई ग घ वियप्फइ। २ ख उवहसियइ । ३ क ख विप्पइ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ४. ४.२] सुदंसणचरिउ जाहे चारुतिवलिहे ण पहुच्चहि जलउम्मिउ सयसक्करु वच्चहि । जाहे णाहिगंभीरिमजित्तउ* गंगावत्तु ण थाइ भमंतउ । जाहे मज्झु किसु अवलोनवि हरि णं तवचरणचित्तु गउ गिरिदरि । जाहे सुरोमावलिए परजिय णाइणि बिले पइसइ णं लज्जिय । घत्ता-अयसइँ कलिय रोमावलिय जइ णवि विहि विरयंतउ । तो मणहरेण गुरुथगहरेण मज्झ अवसु भजंतउ ॥२॥ जाहे गिएविणु कोमलवाहउ बिस वि करहिं तग्गुणउम्माहउ । जाहे पाणिपल्लवइँ सुललियइँ कंकेल्लीदलहिँ वि अहिलसियइँ । जाहे सद्दु णिसुणिवि अहिहवियए णं किण्हत्तु धरिउ माहवियए । जाहे कंठ रेहत्तयणिजिय संख समुद्दे बुड्ड णं लज्जिय । जाह अहरराएँ विद्दुमगुणु जित्तउ तेण धरिउ कढिणत्तणु। जाहे दसणकतिट जिय णिम्मल सिप्पिहि ते पइट्ठ मुत्ताहल । जाहे साससुरहिम णउ पावइ पवणु तेण उव्वेविरु धावइ । जाह विमलमुहयंदसयासट णिवडणखप्परं व ससि भास। जाहे णासवंसे ओहासिय ते सर्वक पयडइ सुउ णासिय । जाहे णयण अवलोपवि हरिणहि विभिएहि रइ बद्धी गहणहि । जाहे भउहवंकत्ते सुरधणु जित्तउ हवइ तेण सो णिग्गुणु । जाहे भालजिउ किण्हट्ठिमिससि हवइ खीणु अज्जु वि खेयही वसि । केसहि जाट जित्त अलिसत्थ वि रुणरुणंत रइ करहिण कत्थ वि। ___घत्ता-सोमालियर्ह तह बालियह रूठ णियच्छिवि सुहयरु । विभियमणेण सुहृदंसणेण पुणु आउच्छिउ सहयरु ॥३॥ किं तार तिलोत्तम' इंदपिया किंणायवहू इह एवि थिया। किं देववरंगण किं व दिही ---- किं कित्ति अमी सोहग्गणिही। २. ४ ग घ इ । ५ ख जुत्तउ। ६ ख गंगावुत्तु ण। ७ प्रतिषु 'अहमई । ८ ख कलि । ३. १ ख घ घरइ। २ क थिविरू। ३ क प्रोहामिय। ४ ख बंधिय । ५ क मुहयरु; ख वणिवरु। ६ ख सइंसणेण । ४. १ क तिलोत्तम। २ क वेइ। ३ ग घ उम्मी। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणंदिविरइयउं [४. ४. ३ - किं कति सुबुद्धि कइंदथुआ किं रोहिणि रण सुकंतिजुया। किं मंदोअरि किं जणयसुआ किं वा दमयंती चारुभुआ। किं पीइ रई अह" खेयरिया किं गंग उमा तह किण्णरिया। आयण्णेवि जंपइ ता कविलो हे सुहि मत्तः किं तुहुँ गहिलो । जो सायरदत्तु णिहार्णवरो जो कुंजरइन्भु जणत्तिहरो । जो पालइ पंच अणुव्वयई अण्णाइँ मि तिण्णि गुणव्वयई। सिक्खावय चारि अणथमियं जो जंपइ जीवहियं सुमियं । जो कम्ममहीरहमोहणउ छंदो इह वुच्चइ तोडणउ । घत्ता-उत्तुंगथणा तहाँ अस्थि धणी सायरसेण अणोवम । तीए जणिया णं सुरगणिया णामे एह मणोरम ।।४।। तही हिययं वम्महसरवणियं हवइ दुलक्खु जुवइअहिवाओ कामीयणमणजणियहियत्थे जाई अंसय सत्तइँ देसिउ एयाणं जो जाणइ लक्खं भद्दा मंदा तह लय हंसी भद्दा सव्वंगेहि सरूवी लय दीघंग लया इव तणुआ रिसिविज्जाहरजक्खकुलंसउ अणु परिवाडि जाणसु णूणं खेयरियाणं मइरावाणं दविणं इ8 जक्खिणियाणं मुणिवि तेण सुहिणा' तो भणियं । जाणेविणु कीरइ अणुराओ। तं जाणिज्जइ विडगुरुसत्थे । पयइ भाव इंगियहँ विसेसिउ । भुंजइ सो रमणीरइसोक्खं । चउविह जुवईजाइ अहासी। मंदा थूलंगी जाणेवी। हंसि समंसल देहे अणुआ। रक्खसअंसउ होंति असंसउ । उज्जुअभावो तावसियाणं। भावइ कमलामोयसमाणं । दुचरित्तं लई णिसियरियाणं । ४. ४ क रत्त। ५ ख इह। ६ ख प्रह। ७ ख मित्त हुअउ । ८ ख ग घ हिहाण। ६ ख कुंजरदत्तु । ५. १ ख सहिणो। २ ख अलक्खु। ३ क ग घ संतई। ४ ख एव भाव अग्गियहि । ५ क भावं, ख अजवभावो। ६ ख मयरावाणं । ७ ख देविणइच्छं । ८ ख दुचरियाणं । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. ६.८] सुदंसगचरित कहियइँ चउ अंसय णिरुत्तइँ अट्ठविहइँ आयण्णहि सत्तइँ । सारसि मिगि रिट्ठी ससि हंसी महिसी खरि मयरी गुणभंसी। ताणं मज्झे इच्छियफासं सारसि णउ छंडइ पियपासं । उज्जुअसला कीलयगेहे झिन्जिवि मरइ णडिय पियविरहे। मिगि ईहइ पिययमसंजोयं बंधवसम्माणं णिरु गेयं । ण मुयइ ठाणं रिट्ठी दीणा जंपइ फरुसं दुक्खणिहीणा। ससि णिग्घिण" परछिदणिहाली । मीलियणयणा हिंडणसीली। कमलायरकीलिणि धयरट्ठी ____ अइकोवाउर महिसी सिट्ठी । खरि मेल्लइ हसति गुरुणायं सहइ चवेडं करकमघायं । मयरी दिढगाहामिसलुद्धा साहससारा अप्पडिरुद्धा। अवरे दोसे को तहिँ कलओ एसो छंदो पायाउलओ। घत्ता-भो मित्त पुणु देसीउ सुणु मालविणी" सगुणायर । कीलाहरहिं गिरिसरिसरहिं वारागसिय कयायर ।।५।। २५ अब्बुयवासिणि तिय धणु लेप्पिणु सुरउ रमइ दिणमाणु करेप्पिणु । सिंधवि आसत्ती पियगेयहाँ देइ दव्वु णियपाण वि दइयही । कोसलि कुडिलवत्त मणु अप्पइ सिंहलि गुणविसेसि पर रप्पइ। दिविडि दंतरसुदिति ण लज्जइ अंगिय वर सुरयही वि ण भज्जइ। लाडिय ललिया लावहिँ रज्जइ विण्णाणेण गउडि रइ भिज्जइ । कालिंगी उवयारहि रक्खु वि" रज्जइ किं ण मणुउ पञ्चक्खु वि। सोरहिहं चुंबणरसु सल्लइ गुजरि णियकजहाँ णउ भुल्लइ । धुत्ति होइ मरहट्टि विलासिणि उवयारहि वसि कोंकणवासिणी। ५. ६ ख ताण मज्झे इत्थिय कयफास घ भासं। १० क खण रिट्ठी परलीणा। ११ घ णिग्घिणि । १२ क पीलियमयणा । १३ ख लुद्धी। १४ ख बुद्धी। १५ घ मालिविणी। ६. १ ख घ पच्चुय । २ क ते। ३ घ दिणि । ४ क गेहहोः ख मिउ गेहहो; घ मिउगेयहु । ५ घ कुडिलचत्त। ६ ख दिविडरत्त असु, घ दिविडिरत्तप्रसु । ७ ख धार । ८ क जि वि पुज्जइ। ६ घ लाडि ललिय पालावहिं । १० ख विरणाणें। ११ ख रक्ख वि। १२ घ चुंबणु। १३ ख वि ण । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोल्ली आयारे णिम्मच्छर पाडलिया नियगुण वित्थारइ जाइ हिमवंतिणि वसियरणइँ मारुयपणइणि बहुपत्यविणि कहंगी हिंडणसीलिय सही सासेविजइ जा पुणु पित्तल गोरिय का ए अइउण्हँगी रूसइखणे खर्ण संतसेवी घत्ता - अण्णु विकमि एहु सयलहँ मि पयइपहाण अणुक्कम । रजम्मे " थिय वाय पित्तसिंभलसम" ||६|| १६ सातिविहक आलिंग सीलु दिज्जइ घणु घणु जेत्ति सिंभलपयई कयली कोमल अइवि सह साहारणक दिट्ठे दोसे ७. दिणे जि दि । दिव रइविलासे कण्णाडी कोच्छर । पारयत्ति पुरिसाय सारइ । कोमलमज्झएसति करणइँ ।.. ँ ७ । चल बहुभो कक्कस फरुसणि । पाइँ भुयंगी। गोजीहालिय । कढणपहारहि । किज्जइ । साहपिंगल | कडुसे' । इँ कुरंगी । धुत्तिय दिदि । पिउभासेवी । गंधविव । सुरउ रमिज्जइ । भावइति । णिसुणहि जुअई । व सामल । उसोणीयल । दिहि जायए रन । कंपइ रोसे ँ । ६. १४ करणारी । १५ घ घर जम्मे । १६ घ वाइय । १७ ख घ सिलेसम । १ क घ गोरोकार्यं कडुयपसेयं । २ क ग घ उपहार हंगी । [४.६. ३ ग घ धुत्ति १० १० १५ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. ६.५] सुदसणचरित झत्ति विरप्पइ अंगु ण अप्पइ। सच्चे विणएँ दाणे पणएँ। मा किं पि वि भणु तहे घिप्पइ मणु। छंदु पवुत्तउ मयणु णिरुत्तउ। घत्ता-जिह लक्खियउ तिह अक्खियउ पयइउ जाउ विहिण्ण। गुण गंथियउ एक्कहिँ थियउ ताओ होंति संकिण्णउ ॥७॥ २५ संकिण्णउ जिह पयइउ' भासिउ जाइ अंस सत्तइ तिह देसिउ। चाउरंगसेण्णे जिह राणउ होइ तिह वि तयभावपहाणउ । सो वि तिविहु संखेने वुत्तउ सुद्धअसुद्धमिस्सगुणजुत्त। सो विसुद्धभाउ वि तिपयारउ जाणहि मंदु तिक्खु तिक्खयरउ । ईसि ईसि लज्जंकमणिहिष्ण मंदभाउ जाणिज्जइ दिट्ठिए। दिहि वि तिविह मउल तह लुलिया अवर कडक्खवलिय परिकलिया। हिययविहियवरगुणउक्करिसे पियमाणसे जा पेल्लिय हरिसे । मउलिय पुणु वित्थरही ण वच्चई मउला णाम दिट्ठि" सा वुच्चइ । घत्ता-मणजाएण अणुराएण वियसइ पिययम वच्चइ। जले मच्छु जिह जा ललई लुलिय दिट्ठि सा वुच्चइ ॥८॥ गुरुयणहँ मज्झम्मि लज्जंकुसंकुसिय करिणि व्य अणुसरइ पिउ पेम्मभरवसिय । सुकडक्खविक्खेव करिऊण जा वलइ सुकडक्खवलिय त्ति बुहलोउ' सा कलई। वियसइ णसंदेहु पिष्ट दिढे मुहु मलिणु दिवसयरउग्गमणे कमलसर जिह णलिणु। उट्ठउडु परिफुरइ थरहरइ मणु केम खरचटुलपवणहउ देवउलधउ जेम । धावइ पसेओ वि गंडयले सुहि जाणु सो तिक्खभावेण मयगलही णं दाणु। ५ ७. ४ ख पयई जाइ वि दिएणउ। ५ क तो तडियउ । ८. १ ख पयएं। २ क तह; घ तिहि। ३ ख पियसमाणः ग घ वियसमाण । ४ ख वुच्चइ। ५ ख म उल दिट्ठि णामें। ६ घ जले मज्झ जिहं जा ललइ । __६. १ क कोउ। २ ख संकलइ। ३ ख दिवसयरि उग्गवरिण सरि कमलि । ४ ख हउट्ठवडि। ५ ख हउपवण देवलह । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयणंदिविरइयउ [ ४. ६.६मुणि जेम भयलोहगुरुलज्ज वजंति बहुलम्मि ससि जेम अणुदियहु खिज्जति। दीहुण्हणीसास पुणु पुणु वि मेल्लंति परिहरिवि कुलमग्गु उम्मग्गे चल्लंति । तिक्खयरभावेण णारीउ कंपंति सच्छंदु मयणावयारं पयंपंति । घत्ता–बुहं संसियउ इह भासियउ सुद्धभाउ तिहि भेयहिँ । दुइजउ कहमि णउ तुह रहमि भाउ असुद्धउ एयहि ॥॥ १० अण्णदेसंगममणेण गुरुक्के धगलोहे दुटुमइवियक्के । दुसहेण वि सवत्तिपयणमणे २ वार वार कय अंतोगमणे । अइपसंग अइईसाकरणे - कयपच्छण्णदोससंभरणे । एयहि कारणेहिँ चंचलमणु वहइ असुद्धभाउ जुवईयणु। ते वयणारविंदु वियसावइ ढोयइ हत्थु णाहि थणु दावइ। भंपइ पुणु कलेण उग्घाडइ छोडइ केसबंधु तणु मोडइ। आसत्तउ भणेवि णरु लक्खइ ओसरेवि अप्पाणउ रक्खइ । सो वि वियक्खणेहिँ जाणिजइ बुद्धिहिँ संकिण्णत्तहाँ णिज्जइ । पत्ता-वरणिवसहिँ सुविहूसणहिँ चाडुयवयणहिँ भोयहि । तणुरूवेण पडुदूएण घिप्पइ एह" उवायहिँ १२॥१०॥ १० भो जिगवरपयपंकयदुरेह अण्णमणदुक्खभुक्खासकाम गमणिंगिण सुण्णालाउ होइ णिहिंगिए जंभाइय हवेइ सुणि गमणणिदभयरोसणेह। णिक्काम एस इंगियहिँ णाम । वलियाणणु चारु जि परिणिएइ। लोयण मउलइ गीवा णवेई । ६. ६ क जेमि। ७ ग घ छंदो वि मयणावयारो। ८ क ग व बहु । ६ ग घ एमहिं। १०. १ घ दोस। २ ख णवणें। ३ ख अइवसंग। ४ ख चंचलु मणु । ५ ख करेण। ६ क पासरण। ७ ग घ ऊसरेइ। ८ घ लक्खइ। ६ ग घ हे । १० ख भोयणहिं। ११ ग घ एहि । १२ ख एय उपावहिं । ११. १ क मुणि ( टि० जानीहि ) २ ख ग घ वलियासणु। ३ ख जंभावइ हवेइ । ४ क मउलंगी मारणवेइ (टि० ज्ञायते ); ग घ मउलहिं गीया एवेइ । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. १२. १२] सुदंसणचरिउ भयइंगिण हवइ सुदीणवयण वेविरतणु तह तरलंति णयण । रोसिंगिट डसियाहरु सुखेउ अरुणच्छि फुरियणासा सुसेउ । णेहिंगिष्ट पयडइ हिययगुज्झ पप्फुल्लावइ मुहु सुहय बुज्झ । अण्णमणिंगिट मुहु रायवत्तु गिर सुण्ण जि दरपिहियंसँणेत्तु । दुक्खिगिरणासइ पुव्वछाय णीसरइ मुहाउ ण वियडवाय।। भुक्खिगट खाम कवोल होति वियलइ मई तह पाय ण वहति । कामिगित" छोडइ चिहुरभारु णिस्सेसु वि दावइ तणुवियारु। णिक्कामिगिष्ट दोसाइँ लेइ _गुण झंपइ सेच्छप संचलेइ । घत्ता-धूमे अणलु फुल्लेण फलु जिह किर संभाविज्जइ । बुहसंथुयहिँ तह इंगियहि जणभाउ वि भाविज्जइ ॥११॥ १० भो मित्त । पयईहिँ। भावेहि। देसियहिँ। गुणजुत्त जाईहिँ सत्तेहि भासियहिँ अंसयहिँ वरदेह जाणेसु बहुभमणु कयरोल खलसंग वियराल अवियड्ढ इंगियहिँ। कयणेह। माणेसु। अण्णमणु। धणलोल। दुमियंग। णिहाल। सोयड्ढ़। ११. ५ ख °च्छवि फुरइ णासावसेउः ग घ घुलिय णासा। ६ ग घ गिरि सुबह । ७ ग घ °पिहियंसु। ८ ख दुक्खंगें ; ग घ दुक्खंगिए। ८ घ भुक्खंगिए। १० क मय । ११ ख ग घ कामंगिए। १२ ग घ णिकामंगिए। १३ ख संधियहिं; ग घ संघियहि । १४ ख प्रालिंगियहिं । १२ १ क दमियंग; ग घ दुमिइंग। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयणदिविरइयउ [४. १२. १३ णिल्लज्ज हयकज्जा जा हवइ सा जुवइ। मा रमसु परिहरसु। इय छंदु आणंदु। घत्ता–करिकरभुयहाँ वणिवरसुयही दियवरु पणएँ जुत्तउ । रहसु ण रहइ अवरु वि कहइ थीलक्खणु संखित्तउ ।।१२।। पसत्थजंघोरु थणग्गवित्ता। पईहहत्थंगुलिणक्खणेत्ता ।। सुणास हेमच्छवि उच्चभाला। तिउत्तरंती स हवेइ बाला ।। ( उविंदवजा ) कायस्स जंघोरजुयं अभदं । कायस्स दिट्ठी तह कायसहं ।। पारंगुली काउं-समाउ जीए। जाणेहि दीहाउसु णस्थि तीए । सुवेणुवीणाकलहंसवाणी। । सुवित्त णाहीथण चारुपाणी ॥ सवित्त मानी जाती मायंगलीलागइ मुद्ध सामा। सा होइ पुत्ताइयलच्छि धामा ।। ( उवजाई ) सव्वे वि रत्तुप्पलच्छाय जाया । मुहं णहुट्ठाहरहत्थपाया॥ णासुच्चओ सिंधुरदिट्टि जीए। हवेइ Yणं सुहवत्तु तीए ॥ ( अक्खाणए) १२. २ क ‘गयतंदु जाणेहि' इतना अधिक पाठ जोड़ा गया है। ३ ख ग घ करिवर कर भुयहो। ४ क संकित्तउ (टि० प्रशस्ताः )। १३. क चित्ता। २ क ो विसाला। ३ ख ग घ तिपुत्तवंती। ४ ख ग घ पायंगुलीया। ५ क सव्वे रत्तु वि छाय जाय । मुहं नहाहर; ख सुहत्थ उंचेहर। ६ क ग घ मक्खीणई। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. १५, ४] - सुदंसणचरिउ घत्ता-विस झस दाम सिल द्धय पोम गिरि गोउर वामन करें। जा उव्वहइ सा सुहु लहइ चिरु अहिणंदइ णियघर ।।१३।। १४ उद्धरेह चक्कुसकुंडलराइया अद्धइंदुभालंकिय णहसुच्छाइया । जा सणिद्धमुत्ताहलदसणिय सुंदरी सा हवेइ चक्कवइहे पिय गुगमंजरी ।। (मंजरी) तित्तिरसद्दालावणिया' पारेवयसम णरभोयणिया। मिलियभउह कुललंणिया सा छिछइ छेयल्लहिं भणिया ॥ (खंडिया) थोरसुमंथरणासा लंजिय अह होइ थोवधणवंती। जा वायसगइसद्ददिट्ठी सा दुक्खभायणा कण्णा ॥ (गाहा) ( इय तिभंगियणाम छंदो )। जा कुम्मुण्णयचलण विसमंगुलि खरिलंबोट्टि खोसला । सिर फलंसुद्धकेस चललोयण करजंघोरुमंसला ॥ गमणुत्तावलीय सव्वंगसमुट्ठियरोमराइया । सा फुडु होइ पुत्तभत्तारविओयदुहेण छाइया ।।दुवई।। (गाहीकडवयं ) "मुहमंसुर कडिउरणाहिलोमकरि कढिणफास कढिणंगी। सा रक्खसि पञ्चखं वजसु हे सुहय किं बहुत्तेण ॥ घत्ता-इय गिर सुणेवि तही गुण थुणेवि कामाणलसंतत्तउ । तो सुण्णमणु झिजंततणु वणिसुउ णियघरु पत्तउ ॥१४॥ तहि सुंदरि मंदिर' जइवि पत्त कर मोडइ छोडइ केसभारु भूभंग तुंग' खणे करेइ सइँ अलियउ ललियउ दरहसेइ १५ सुकुमाला बाला रत्तचित्त । गले घल्लइ मेल्लइ तारु हारु । सयणीयलु कोमलु परिहरेइ । सा झायइ गायइ णीससेइ । १३. ७ क विसि । १४. क तित्तिरच्छि दालिद्दिणियाः ख सद्दा लक्खणिया। २ ख ग घ पारेवय पर। ३ क कुडिलं ग घ कुलिलं। ४ क छिछइ जइ छेल्लहिं । ५ क ख जा पुणु । ६ क फुरुः ख सिरफुर। ७ क गाथा नहीं। १५. १ क मंदरि। २ ख ग घ तु । ३ क खलियउ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयणदिविरइयउ [४. १५. ५खणे गाढिउ दाढिउ आलवेइ णिरु दित्तहि दंतहि अहरु लेइ। ५ मणु जोयइ झायइ जहि जि जहि पडिहासइ भासइ तहि जि तहि । सुंदरि पर थणहरणवियदेह दिहि दिती ती णवसणेह। . संबोहणु सोहणु खणे पढेइ पर ताहि तिसाइहि मणि लढेइ ।। घत्ता-सेणिउ सुणइ गोत्तमु भणइ णयणंदिउ जगसामिउ"। बुहलिणरवि जिणवरु मुयवि मयणे को णायामिउ ॥१५॥ १० एत्थ सुदंसणचरिए पंचणमोक्कारफलपयासयरे माणिकर्णदितइविजसीसणयणंदिणा रइए मणोहरउ जाइउ पुणु वि अंस तह सत्तई तओ सयलदेसिउ पयइभावदेहिंगिय पुणो जुबइलक्खणं विरतु रायसेट्टिसुए इमाण कयवण्णणो चउत्थो संधी सम्प्रत्तो । संधि ॥४॥ १५. ४ ग घ पावलेइ। ५ क ख ग जोयइ। ६ क मणु जोयइ जहिं जहिं पडिहसेइ भासह तहि तहि कामु जि भणेइ। ७ ख परि। ८ क णिवसणेह । ६ ख सखि । १० क परताइति साइति मणु लढेइ ख पडितोइवि साइवि मणि लुढेइ घ परताहिइ तिसाइहि मणु लुढेइ । ११ ख जगि। १२ ख को वि ण यामिउ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ५ सेणिय णिवइ मगोरमहिं एत्तहिं वितहि रइ' कहि वि पएसि ण भावइ । एक्कण वि विणु वल्लहेण अइदुल्लहेण जणसंकुलु घरु वणु णावइ ।। ध्रुवकं ।। कमलजल गेउ भूसणविहि ण वि कप्तूरचंदणं । असणु ण सयणु भवणु पडिहासइ पवियंभेइ रणरणं । दुवई ।। पुणु पुणु सा पभणइ जणियताव रे रे मयरद्धय खलसहाव । छलु लहेवि तुहुँ वि महु तवहि देहु सउरिसहा होइ किं जुत्तु एहु । रुद्देण आसि तव दड ढु देहु भणु महिलहँ उप्परि को ण गोहु । पंच वि महु लाइवि हियट वाण अण्णाउ केण हणिहसि अयाण । सयवत्तवत्तलोयणविसाल जहि जहि अवलोयइ कहि वि बाल । तहि तहि आवंतउ सुहउ भाइ सुहदसणभरियउ जगु जि णा'। १० जा तहे सा तासु वि तहि अवत्य एक्कासिउ णेहु ण घडइ कत्थ । अह घडइ कह व सो थिरु ण थाइ सच्छिदए करयले सलिलु णाई। धत्ता-णियवि सुदंसणु विरहियउ रइ विरहियउ तो रिसहदासु मणे चिंतइ । ___ जइ परिणाविउ होइ सुओ गुणगणहिं जुओ तो वड्ढइ महु कुलसंतइ ।।१।। कुलसंतइए धम्म संपज्जइ धम्ने पाउ खिज्जए । पावक्खण्ण' बोहि ताप्न वि पुणु सासयपुरि गमिजए । दुवई ।। ते कज्जे गिहत्थ कुलु मण्णहि इय अवत्थ पुणु चउविहवण्यहि । तो वरकण्ण का वि जोइज्जइ . जेसा णंदणु परिणाविजइ। १. १ क मणोरमहि तहिं रई। २ क पदेसिः ख पवेसि । ३ ख परिरभेइ । ४ घणु। ५ ख लावहि । ६ क अण्णाए। ७ क पालोयइ। ८ क घ तहि; ख तह। ६ क कहवि। १० ख सुवेण गुणगणई। २. १ ख पाउखयेण। २ ख पावेविण । ३ प्रतिषु गिहत्थु' । ४ ग घ चउहु वि। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणदिविरइयउ [५. २. ५अहवा सारिजूउ खेल्लंते ६ भणिउ आसि सइँ सायरदत्ते । ५ जा कायवि महु पुत्ति हवेसइ सा तुह गंदणासु दिज्जेसइ। तो वरि एवहिं सो मग्गिजइ देइ ण देइ सच्चु जाणिजइ। . अन्भत्थणभंगभए इट् छु" वि अवहेरहि णर कन्जु सुजेट् ठु वि । जइ वि हु एरिसु तो वि ण किजइ . माणु जेण णियकज्जु हणिज्जइ । एत्थंतरि अस्थिय चिंतामणि तहि वि सकजे आयउ सो वणि । १० घत्ता-सायरदत्तु विसुद्धजसु णिरुवमु सवसु लहु वइसारियउ वरासणे । पुणु आउच्छिउ वणिवरेण अइआयरेण अणुरूवइ किय संभासणे ।।२।। पभणहु णियमणि / किं किजइ जे कजे समागया। पभणइ वणिवरिंदु तं किजइ वड्ढइ णेहु जे सया ।।दुवई।। आया कारणेण जेणम्हइँ जाणंत वि पुच्छहु' तं तुम्हइँ । जइ वि तो वि संबंधु कहिजइ किं बहुणा विवाहु विरइज्जइ । रिसहदासु तं णिसुणिवि जंपइ जिणकमकमलिंदिदिरसंपइ। बालही जं विवाहु फुड़ जाणही तंणेवउ तुम्हइँ जि पमाणही। वार वार किं किर बोलिजइ जं पडिवण्णउ तं पालिज्जइ। जहि पेरियउ चित्तु तुम्हारउ तत्थ वियक्कु णत्थि अम्हारउ । इय णिसुणेवि वयणु हरिसोल्लिउ सायरदत्तु झत्ति संचल्लिउ । वरतंबोलहत्थु गउ तेत्तही जोइसगंथकुसलबुहु जेत्तही। १० घत्ता–सिरिहरु णामे जोइसिउ गुरुयणवसिउ आउच्छिउ णवर वणीसे। सुहदसणहा मणोरमहं वरलग्गु कहु तेण वि वज्जरिउ विसेसे ॥३॥ २. ५ क जा साः ख में सो। ६ खत्तो । ७ क तुव । ८ क भोवरिख तो वर। ६ ख सा। १० क सव्वु । ११ क भंगभयट छ; ख भंगभइ इठ्ठ इ। १२ ख दुत्थिय। १३ ख सुकज्जें। १४ क ग घ खणे । ___ ३. १ प्रतिषु 'अच्छहुँ । २ ग घ जिणपय । ३ क तुम्हें जेम। ४ ख ग घ विथक्कु। ५ क कुसलु बहु घ बुह। ६ ग घ कहे । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ५.८] सुदंसणचरिउ ३६ फुडु वइसाहमार्स सियपक्खा पंचमि सुज्जवारए । जायण मूलरिक्खे सिवजोय कविला' करणे सारए ।दुवई। सूरुग्गमणही लग्गिवि तेरह घडियइँ अवरु वि पंचासहिं तो पलहहि चडियइँ । होसइ मिहुणलग्गु वहुवरमणदिहियरु तं णिसुणेवि वयणु गउ णियघर वणिवरु । लहु विवाहसामग्गि असेस पउंजिय बंधव सयण इट्ट के के णउ रंजिय। ५ दोहि विघरहि चारु मंडउ विरइज्जइ दोहि वि घरहि” असमु तोरणु उब्भिज्जइ। दोहि वि घरहि घुसिणच्छडउल्लउ दिजइ दोहि वि घरहि रयणरंगावलि किन्जइ । दोहि वि घरहिँ धवल मंगल गाइजइ दोहि वि घरहि गहिरु तूरउ वाइजइ । दोहि वि घरहि विविहु आहरणु लइज इ दोहि वि घरहि लडहतरुणिहिणञ्चिजइ। सच्चुवहाणु एहु णारिहि दिहिगारउ कलहु दुडु जामाइउ तूरु पियारउ। १० ॥चप्पइ छंदो।। घत्ता-वेढिवि तरुणि तरट्टियहि समरट्टियहिँ जणमणहरधवलवावारहि । तो मंगलकलसेहि णिरु पहावियउ वरु भूसिउ भूसाह सुसारहि ॥४॥ पर्त विवाहलगर्ग उण्णामयकंकणकरु समञ्चिउ । सिर सिय-कुसुममउडु सियपरिहणु चंदणलेवचच्चिउ ।।दुवई।। चडिण्णु तुरंगर्म उब्भियछत्त कमेण जमाइउ मंडवि पत्तु । अणंतरु माउहर:म्म पइट छु --- पियंतरवत्थसमीवे वइट् छु । पलोइउ आणणु फेडिवि वत्थु हुओ फलु णेत्तहँ तासु कयत्थु । करे करु दिद्विहिं दिट्ठि पहुत्त प्रचल्लइ कदम ढोरि वखुत्त । णिकेयही लेविणु कंत सलीलु विणिग्गउ णाइँ सराउ सुपीलु। तओ तहिँ वेइहे मझ णिवासु णियच्छिउ पिंगु जलंतु हुयासु । ४. १ ख तिउलइ। २ ख रु। ३ क विवाह। ४ क जेमाइउ ख जामाउय। ५ ख चउपही। ६ क वेढिउ तरुण। ७ क वारवारहि ख धवलुच्चारहिं । ५. १ ख सियछत्त। २ ख लेवण चारु चचिउ। ३ ख चडेवि । ४ ख लोयण। ५ ख ढोरु व। ६ ख कति । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणंदिविरइयउ [५. ५. ६पयक्खिण दोण्णि वि पासहिँ दिति गिरिंदही णं रविरण्ण सहति । विरायहिं णं पुणु रोहिणिचंद पुणो तसुणावइ विज्जुलकंद। १० पहिउ ता मणे सायरदत्तु पयंपइ एम पहुल्लियवत्तु । इमी तुह छोल्लिय चंपयवण्ण कुलीण महाणर दिण्णिय कण्ण । भणंतु इणं११ करे घल्लइ तोउ हरीही सिरि व्व सुवल्लह होउ । पईवउ खट्ट रईहरवण्णु समप्पइ दाइजयं १२सहिरण्णु वहूय-वराहँ वियंभइ कामु पयासिउ छंदउ मोत्तियदामु। १५ घत्ता - विरह विसंठुलमत्ताहं आसत्ताहं तहु हुउ विवाहु किर जावहिं। णं रवि जोयहुँ आइयउ पविराझ्यउ* पत्तुवरिपएसए" तावहि ॥५॥ ता मज्झण्णयाले णववहुवरु इंदियवग्गमोयणं । सुहिबंधवजणेहिँ परियरियउ आहुंजेइ भोयणं ।।दुवई।। बहुविंजण सोहहिँ थाले थाले णक्खत्त णाइँ गयणंतराले । हरिणीलहरियमुग्गेहि जुत्तु मोत्तियपुंजच्छवि कलमभत्तु । णवकणयरसारुणु घिण भाइ संझाराएण मयंकु णाइँ। खज्जा ढोइय" मुहगलिय जइ वि दुजणमित्ति व भजति तइ वि । भज्जंत वि जण ण वि परिहरंति सुसणेह कासु वल्लह ण होति । वर लावण मोया जग सहति मगमोया सुयणे गुण वसंति। पुणु मंडय उवणिय मंडलिल्ल अइसच्छ पत्थ जिगगुणहिँ" तुल्ल । पुणु दिण्णइँ णाणा तिम्मगाइँ अइतिक्खइँ णावइँ तिम्मणा। पिज्जइ दक्खारसु जगहिँ महुरु छेयल्लहिँ धुत्तहिँ णा अहरु । महुरु वि मेल्लेवि जग तित्त खाइँ अणुराएँ दोस वि गुण विहाइँ । १० ५. ७ ख पुरु। ८ क दसुः ख तस । ६ क रुह । १० ख छोलो। ११ ग घ इणि । १२ क दाइवयंसि। १३ ख छंदु वि। १४ ख अणुरायउ। १५ ख पइसइ । ६. १ क इंदियमग्ग। २ क पाउंजेइ। ३ प्रतिष 'कलवि'। ४ ख मियंकु । ५ क ढोया। ६ ख ग घ गुलिय। ७ ख भज्जत। ८ ख जणि ग घ जणु । ६ ख लहंति । १० क सजण गुण हसति ग घ सुयण व । ११ क णाइ जिणमणही ख इंछ जिण। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ७. १९] सुदंसणचरित दहिथट्ट वि मणहरु सहइ केम गेहसमउ पियहिँ मरट्ट जेम । उण्हुण्हु दुद्ध, पिजंतु सहइ रहसंकिउ कन्जु व हियउ डहइ । घत्ता-जं सरसउ आहुजियउ पुणु वजियउ तं भोज्जु विरायइ केहउ। १५ धुत्ते धुत्तिहिँ सुरउ१२ वरु गेण्हिवि णिरु अइतित्तिय३ वज्जिउ जेहउ ॥६॥ पुणु परकज्जु जेम अइसीयलु जलु गेण्हेवि सोहणा'। किउ गंडूसएहिँ सव्वेहि वि मुहकुहरहा विसोहणा । जेमियणराहँ- सयलहँ वि ताहूँ। कप्पूरभिण्णु सिरिखंडु दिण्णु । पूयहलु पण्णु तह पंचवण्णु। वरकुसुमदाम ढोइय पगाम। तो णवणवेण वरउच्छवेण। जणु मणहरस्स गउ णियघरस्स। एत्तहिँ दिणिंदु हुउ तेयमंदु । णं अथवंतु सोवयविचित्तु। णिड्डहणहेउ हुयवहहो तेउ । माणिणि वि ताउ तो वहहिँ राउ। णं दिण्णु झत्ति जाणिवि भवित्ति । णहतरुवरासु फलु णाई तासु । कालेण खुडिउ'' अइपक्कु पडिउ । जणजणियराउ कंद्रप्पराउ। णहसिरिसियाहे पहावंतियाहे"।" रविकणयकुंभु ल्हसियउ सुसुंभु । दुवई वि एह फुडु चंदलेह । ६. १२ ख पुरउ। १३ ख णिप्रइ तित्तिर। ___७. १ क गेएहेविण सोहणं। २ ख तेहिं । ३ क विसोहणं। ४ ख पूयषलु । ५ घ ते । ६ घ तेण मंदु। ७ क सोवयहि चितु। ८ ख माणिरिणहि राउणं रायाहिराउ ग घ माणिणिहि ताउ वो दहिहि राउ। ६ ख दिएण। १० ग घ कुडिउ । ११ क चंदुजलाहिं। १२ क तहसिउ व । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ?? दविर [ ५.७.२० १३ २० घत्ता - पहराहरू आरतउ संताजुओ रवि सायरे जाम णिमज्जइ । पेच्छा कम्मो तणिय गइ सो उद्धवइ" णिसिरक्खि " ताम गिलिज्जइ ||७|| ८ बहु पहरेहि" सूरु अत्थमियउ अहवा काइँ सीसए । जो वारुणिहिँ रत्तु सो े उग्गु वि कवणुण कवणु णांस || दुबई | हमरगयभाणे वरदणु सिमिगु कत्थूरीणिरु सामल विणु मंगलकरणपुराइय पेच्छिवि बहुवर लच्छिविराइय जाता सुदंसणु सोहंतउ पडिहासइ मणैइच्छिय करिणित पलकोवरि विणि वि थक्कइँअह णं सोहहि ँ गोरितियक्खइँ कर' वियर विवि अहिणववरु अह कामंधु पुरिसु जंण करइ - सुदंसणो यिड्ढ ए ेणियंसणं सुदंसणो सकामयं पयंपए सुदंसण सविभमं कडक्खए सुदंसणो थणेसु हत्थ घल्लए ७ ८. ७. घत्ता - चंदणतिलयहि ँ महंमहिउ विग्भमसहिउ णहलग्ग चारु वण दावइ । भुयवल्लीकर पल्लविङ थणफलणमिंउ जोव्वणु वणु घण्णउ सेवइ ॥ ८ ॥ ५ क सिरि । ६. ५ ख कहि । १३. ग घ भारत्तु हुउ | १ ख पहराहि । संभारा घुसिणु ससि चंदणु । वियसिय गह कुवलय उडु तंदुल । णिसितरट्ट तहि सम पराइय । ♡ संतो से कहिँ मिण माइय । बहुअरइहरे पसंतउ । विंझकुंजे' णं करि सहुँ करिणि । ६ घ हुयपच्चक्खई । १ ख ग घ करिवि । आसणं सरि चक्कहूँ । रमणइँ हुइँ पक्खइँ" । ७६ င် वहुया विलज्जए । तं पर णेव छज्जए || दुवई || १४ ख फुडु हवइ । १५ ख रक्खसि । २ ख श्रई । ३ ख रइ । ४ घ विहुँजि । मोरमा करे णीविबंधणं । मोरमा करे कण पए । मनोरमाण समुहं णिरिक्खए । मोरमा करेण तं पि पिल्लए । ७ ख ग घ लग्गु । २ क रियच्छए । ३ ख करेवि । ४ ख घणेहि । ५ १० ५ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. १०. १२] सुदंसगचरिउ सुदंसणो मुहं मुहेण चुंबए मणोरमा खणंतरं विलंबए। सुदंसणो दिएहि हो? चंपए मणोरमा वि हुं करंति कंपए। सुदंसणो णहेहि घाउ दावए मणोरमाहि अंगे सेउ धावए । पुणो रयं रमति वे वि सुंदरं इयं पि छंदयं वसंतचञ्चरं । घत्ता-हुँ करंति मेल्लंति सर ते वहुवर" डसियाहर केसविसंठुल"। णाणा करणबंध करहि पुणु संवरहिणं रणवुहि कुरुपंडवबल ॥६॥ १० छुडु छुडु रत्तचूलवासिय किर. - छुडु पचलिय' पवासिय । उट्ठिय कायसद्द भयवेविर छुडु णिल्लुक्क कोसिय ॥ दुवई ॥ ता जगसरवरम्मि णिसि कुमुइणि उडु' पप्फुल्लकुमुयउद्घासिणि । उम्मूलिय पच्चूसमयंगे गमु सजिउ ससिहंसविहंगे । बहलतमंधयारवारणअरि दीसइ उययसिहर रविकेसरि। पुव्वदिसावहूहि अरुणच्छवि लीलाकमलु व उब्भासइ रवि। सोहम्माइकप्पफलु जोयही कोसुमगुंछु व गयणासोयही। दिणसिरिविद्दुमवेल्लिहे कंदु व णहसिरि घुसिणललामय बिंदु व। अह चउत्थदिणे णववरइत्तही उण्णामउ कंकणु छोडिउ तहाँ।। वल्लहीण सह णिरु कीलंतही इच्छियकामभोय भुंजतह।। १० घत्ता-बहुदियहहिणयणाणंदियही सुउ जाउ तहाँ णामे सुकंतु सुपसिद्धउ । वरुणिणयणमणअवहरणु जगदिहिकरणु पञ्चक्षु णाई मयरद्धउ ॥१०॥ एत्य सुदंस गचरिए पंचणमोकारफलण्यासयरे माणिक्कणंदितइविजसीसणयणंदिणा रहए अलं विरहकायरा जिह मणोरमासुदरी विवाहु जिह जायउ जिह मणिच्छियं भोयणं दिणेसस्स अत्थो जह सुरयकील सूरुग्गमो इमाण कयवण्णणो भमिओं संधी फुड पंचमो संधि ॥३॥ मो. ९. ६ क चप्पए। ७ ख मणोरमा वि। ८ ग घ दावए। ६ क रई। १० ग घ बहुयवर । ११ क विसंछल । १२ क रण कुणइ । १०. १ ख पवसिय । २ ख छुड्डु। ३ ख ग घ उच्चासिणि। ४ ख ग घ .. वहूइ। ५ क ग घ फलु । ६ क ख कुसुम। ७ ख घुसिणु लुलामय । ८ घ विक्खायउ। .. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ६ सरसं विंजणसहियं मोययसारं पमाणसिद्धं खु । भोज कव्वविसेसं विरलं सहि एरिसं लोए । अह तहिँ अवसर परिमिउ संघेण असेसे । उववर्ण पत्तउ तवपुंजु णाइँ मुणिवेसें ॥ साहुसमाहिगुत्तओ छुडु पहनओं ताम रिसहदासो। बंदणहत्तिए गओ करिविलग्गओ जिणही णं सुरेसो ।। आरणालं ।। पुच्छंतही तही पणमियसिरासु हिधम्मु कहइ मुणि वणिवरासु । अत्तागमतञ्चहँ सहहाणु जं कीरइ तं सम्मत्तु जाणु। अत्ता अट्ठारहदोसचत्तु ते ईरिउ जं तं होइ सुत्तु। सुत्तु वि परवाइयणयदुलंघु पुव्यावरअविरुद्धउ सलग्घु। जीवाजीवासवबंध जेम संवर णिजर मोक्खो वि तेम । अक्खिय ए एतहिँ तत्त सव्व ते सद्दहति जे के वि भव्व। आजम्मु वि के वि ण सद्दहति मिच्छत्तही सिरे किं सिँग होति । गउ तेण णरश संघसिरि मंति पावे किं कत्थ वि होइ संति । सम्मत्ते विणु तउ घोरु वीरू चिजंतु वि णिरु सोसियसरीरु। किं बहुणा तं अकियत्थु"जाइ दुजणजणे किउ उवयारु णाई । तरुवरही मूलु सिरु धडही जेम सारउ सम्मत्तु वि वयहा तेम । घत्ता-इय जो मण्णइ सो दुक्खलक्ख णिण्णासइ । मूलगुणव्वय पुणु तहो मुणिंदु आहासइ ॥१॥ १. १ ख मोयणः ग घ मोया। २ ग घ पमाणु। ३ क णं जिणाण: ख जिणहं नं; घ जिणहो णं सुरेसरो। ४ क तचहिं । ५ क तत्त; ग घ सच्चु । ६ क तत्तु । ७ क सच्च। ८ घ किं सिरे। ६ ग घ कत्थइ। १० क सोसियरिणयसरीरु; ख झिजतउ णिरु सोसियसरीरु। ११ ख अकयस्थ । १२ ख दुजणि जणि। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ३.५] सुदंसणचरिउ पिप्पलदुविह उंबरा' सवड फिफरा सुहुमतससमिद्धा । इय पंच वि ण खजहिणेय दिजहि आगमे णिसिद्धा ॥ संधिजंत भज्जगुणंतत्र। सुहुमइँ सत्तइँ होंति बहुत्तइँ । तं जो घोट्टइ सो गरु लोह। गायइ णच्चइ सुयण शिंदई। कविलइँ वंदइ विहसइ कंपइ । अभणिउ जंपइ रंगइ वग्गइ । जुवइहि लग्गइ माउ जि संगइ । भउहउ वंकइ गजइ रिंकइ । पडइ विहत्थही रत्थहिँ कत्थह।।। छेरइ हेरइ दारइ मारइ। रुज्झइ बज्झइ जुज्झई मुज्झइ । मुच्छाजुत्तही मंडल मुहे तहो । मुत्तहिँ लंधवि पुणु पुणु सुंधवि । घत्ता-मजही पाणे जायवकुलु सयलु समत्तउ । दुक्खपरंपर तह चारुदत्तु संपत्तउ ॥२॥ मजहाँ दोस अक्खिया तुह ण रक्खिया संपइ वणीसा। इह सुपसिद्ध जारिसा कहमि तारिसा गिसुणि मंसदोसा ॥ आरणालं ॥ सुक्कसोणिएहिँ जाउ.... होइ मंसु पसुवहाउ। दिस्समाणमवि' विहत्थु जिणवरागमे दुगंछु। तम्मि जीव संभवंति दिट्ठिगोयरा ण होति । २. १ क उंबेरु। २ क दिजइ। -३ ग घ उढइ वच्चइ। ४ ख रट्टइ वंचइ गायइ णच्चद।-५ करकइ ( टि. रंको भवति)। ६ क डज्झइ। ७. ख बज्झइ जुझड मुज्झइ कुज्झइ। ८ क मुत्तिविः ख मुत्तिहिं । ६ ख सयलु वि। ३. १ क दिस्समाण सा, ख दीसमाणु म वि। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ [६. ३. ६ णयणदिविरइयउ जं जि एरिसं हवेइ तं बुहो कहं असेइ। णो अहिंस तासु ठाई जो पलं णिहीणु खाइ। एयचक्के जो पहाणु रक्खसो बगाहिहाणु। सो पलं असंतु संतु रउरवे मरेवि पत्तु । आसि विप्प वोमे जंत भूमिपडिय तं असंत। धम्मु मंसभक्खणेण के वि भणंति पसुवहेण । एस छंदु हे गुणाल तोमरेह पुप्फमाल। घत्ता-धम्मु जि एरिसु तो केरिसु पाउ भणिजइ। एण जि सग्गही तो णरष्ट केण जाइज्जइ ॥३॥ णिग्विण' तरुभयावणे णियवि काणणे महुयरीण छत्तं । णिप्पीलंति महुरसं णवर णं विसं तं ण पियवि जुत्तं ॥ आरणालं ॥ जइ एक वि मच्छिय पेच्छिज्जइ भोयर्ण सव्वेहि वि चिलिसिज्जइ। मुहु मलवलइ पउरु थुकिजइ असणु खडु जं तं बोकिजइ । हा हा जणु अयाणु मइमोहिउ इहपरलोयजम सुविरोहिउ । मच्छियाण छत्तंडयवसरसु पियइ लोउ णिरु जीहिंदियवसु अइपवित्तु जणु जणही पघोसइ संपूसइ" तं किं पि ण दूसइ । सुइ सुइ महु भणंतु रवउ गच्छइ लोयायारु एहु ण णियच्छइ । बारहगामडहणे जं कहियउ. पाउ होइ तं जे महु वहियउ । जो पुणु जीहलुधु तं पासई तसु पुणु पावसंख को भासइ । आसिकाले संदरसियदुहमलि जणपसिद्ध हुय महुबिंदुय कलि। ३. २ ग घ णो वहिंसु । ३ क होइ। ४ क मरेइ। ५ क तु। ६ ख कि वि। ७ ख तामरोह। ८ ख वि जे । ४. १ घ णिग्घिणि। २ ग घ महुयरीय। ३ क पियउं । - ४ क सव्वहें । ५ ग घ विलसेजइ । ६ ख मलमलइ। ७ ख मय। ८ ख जम्मलोय । ६ क छत्तंडयजो रसु। १० ख जणहि विघोसइ । ११ क तं पूसइ। १२ क उण जीउ .. लुद्ध तं पासइ (टि० जीवः लुब्धः); ख पायइ। १३ ख कलिः ग घ °सलि। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ५. २०] सुदंसणचरिउ घत्ता-पंचुंबर सुर पलु महु एए जइ मुच्चइ । सिरिअरुहागमे ते अट्ठमूलगुण वुच्चइ ॥४॥ .. एवहि पंच अणुवया तिण्णि गुणवया जणमणाहिणंद। ..... चउ सिक्खावया तह होंति ते जहा णिसुणि हे वणिंद ॥ आरणालं ।। संखेवे जिणागमे जीवरासि वुत्तो। सिद्धभवासिय भेयहिँ'दुविहु सो णिरुत्तो॥ अट्ठगुण अणोवमा सिद्ध एक भेया। तसथावर भवासिणो जीव दुविह णेया॥ तस वि दु तिणि चउ पुणो पंचकरण जुत्ता। जलथलणहयलसमुब्भवा ते वि. विबुह वुत्ता ॥ गब्भय तह समुच्छिमा सण्णि इयर णामा। पज्जत्तापजत्तया कम्मपयडिधम्मा ॥ थावर ते वि पंचहा होंति इह णिरुत्ता। महिजलयग्गिमारुअवणप्फई अणंता ॥ अच्छउ दूर हिंसणं चिंतिएण दुत्थो। णिवडिउ घोररउरवे मरेवि सालिसित्थो । जीववहं ण कीरए इय मुणेवि सम्म। परु अप्पं समाणयं दीसए णिछम्म ॥ .. . तसु पुणु काई सीसए जो करेइ हिंसा। हेला णाम दुवइया वुत्त णवर एसा ॥ घत्ता-अह थावरगणे जइ कीरइ हिंसा कत्थ वि। णउ पुणु इयरहँ मंतोसहिपिउदेवत्थु वि ॥५।। ४. १४ ख गमि भेय। ५. १ ख भवासिणो जीव; घ भवासिभेयहि । २ क पजत्तया अपजत्तया कम्मपडिधम्मा (टि. कर्मसहिताः)। ३ ख मारुव । ४ क दूरेहि मणं (टि० बधादिकं दूरे तिष्ठतु, मनो व्यापारेण कृत्त्वा)। ५ क समाणउ दीसउ णिच्छम्मः ख तह प्फरुप्प समाणए। . ६ क ग गणे इह ख गरिणजह घ गमणे इह । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयणदिविरहयउ [६. ६.१ बीयाणुव्वए गिरा सपरहिययरा चवसु सुहय णूणं । वसु णरणाहु होतओ णरए पत्तओ अलियभासणेणं । आरणालं ॥ णिसुणि' वणिणाह तह अणुवयतइज्जए। तिणसमाणं पि परदविणु ण हरिजए ।। हरिवि रयणाइँ वणिवरही दुहतत्तओ। मरिवि सिरिभूइ णरयम्मि संपत्तो ।। अणुवय चउत्थम्मि परतियविवजणं । कुणसु चडुलयरमणपसरपरिभंजणं ॥ रावणाइय जसपसरपरिसेसिणं । णरए गय सयल परतियहाँ अहिलासिणं । गंथपरिमाणु करि पंचमाणुव्वए। गयउ फुडहत्थु लोहेण चिरु सब्भए । पढमगुणवए फुडं सुहय पयडिज्जए। दिसि विदिसि गमणविरई सया किजए॥ पुणु दुइज्जम्मि गुणवए रइभंजणं । भोयउवभोयपरिमाणपरिउंजणं ॥ तइयगुणवए पयासेमि जं जुत्तउ । मंदयारु त्ति छंदो इमो वुत्तउ ।। घत्ता-संखलु रज्जु व विसु सिहि पहरणु णउ दिज्जइ। कूरइँ जीवहँ णियमणे" उप्पेक्खा किज्जइ ॥६॥ सल्लकसायगारवे जणियरउरवे वजिऊण सम्म । समया चित्ते किजए संभरिजए' दोसमुकधम्मं ।। आरणालं ॥ ६. १ ग घ णिसुरिणवि। २ ग घ अणुवया तजए। ३ ख सो परय । ४ क ख चउत्थए। ५ क प्रतिषु "सेसणं'। ६ ग घ लासणं। ७ ग घ फडहत्थु । ८ ग घ सुब्भए: ख सत्तए। ६ ग घ पडिवजए। १० ख पहरणो वि। ११ ख मणिण । ७. १ ख सुहु भरिजइ। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ८. १२] सुदंसणचरिउ पहिलउ सिक्खावउ होइ एम वीयउ आयण्णहि कहमि जेम । उववासु अहव णिव्वियडि जाणु लुक्खाहारंबिलु अद्धमाणु। सिंगारविवजणु भूमिसयणु चउपव्वहिँ कीरइ णिहयमयणु । तिजन सिक्खावण पत्तदाणु दिज्जइ णियसत्तिन सुहणिहाणु। सो पत्तु वि तिविहु जिणेहि सिङ उत्तमु तह मज्झिमु अह कणिहु । रयणत्तयपावियं परमलाहु वयवंतउ उत्तमु पत्तु साहु । जो सावउ सो मज्झिमुणिरुत्तु अविरयसम्मत्ते हीणु पत्तु। . दिढयरमिच्छत्तमएण मत्तु - अक्खिउ संखेवे सो अपत्तु। घत्ता-तिविहही पत्तही दाणेण तिविहु फलु लब्भइ। . जिह पुरिसंतरसंगेण सीलु पवियंभइ ॥७॥ अग्गिल णाम बंभणी दुहणिसुंभणी देवि पत्तदाणं । जक्खकडक्खलक्खिणी जाय जक्खिणी संस सुरणराणं ॥ पत्तदाणमाहप्पविसेसे रयणविट्टि लद्धी सेयंसे।.. इय मुणेवि परउत्तमपत्तही दिजइ दाणु सीलसंजुत्तही। जिणहर अहव पंथे अहपंगणे करवि तासु पडिगहु तोसियमणे । ५ सुइपएसे उच्चासणु दिज्जइ पायंबुरुहजुयलु धोविजइ। जलु वंदिवि विहिणा अंचिजइ पणविजइ तिसुद्धि भाविजइ । एम दाणु जं दिजइ अवियलु वडवीउ व हवेइ तं बहुफलु। विहलु जाइ कह दिण्णु अवत्त वविउ वीउ जह ऊसरछेत्तष्ट। कंचणमणिगणोहु सयणासणु घणु कणु भवणु असणु तह णिवसणु। १० दीणहँ दुत्थियाहँ जं दिजट तं कारुण्णदाणु पभणिजट। चयवि संगु सण्णासु करेवउ वुत्त चउत्थु एहु सिक्खावउ । ७. २ घायाणहि । ३ ख कहिमि । ४ ग घ जासु। जिणहरि जाइजइ अरुह तासु । ५ ख रुक्खा । ६ क वड्ढमाणुः ग घ वत्थुमाणु । ७ ख जुत्तय। ८ ग घ सावउ मज्झिमु मुणि।- १ ख विविहु वि । ८. १ घ तमणिसुं। २ क ग घ जणे। ३ ख ज ग घ किह। ४ ख प्रपत्तइ। ५ वाविउ वीउ जहोसरछेत्तए। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० दिविर घत्ता - इय सावयवय पालेवि णरु सग्गहो गच्छइ । चलहारमणिओ रमणिओ रमंतुं चिरु अच्छइ ||८|| ह तत्तो चइवि सुरवरो' हवइ णरवरो भुंजिऊण सोक्ख । पुणु तवजलतत्तओ कम्मचत्तओ लहइ परममोक्खं ॥ णिसिअसणे वयइँ ण सोह दितिं उवयरियइँ खलयणे किं करंति । णिसिभोयणवज्जणु तह वएसु । गडरियवा हे जण चलति । अच्छंति मूढ णउ शियमु लेवि । जइ उ मुअंति तुंगीहि असणु । अगम्म भोयणु गिलंति । अहिगरलु वि दरिसिय पलयकालु । दुप्पेच्छ रोय तो संभवति । ते असणम अवसिं पडंति । इय पयउ दोससय तहिँ हवंति । ६ सारउ जिह मंदरु पव्वएसु उ जुत्ताजुत्तर मणे कलंति रविविहुरे जान भुंजंति तो वि पसुवहँ पुमाएँ अंतरुवि कवणु सम भूअ रक्खस मिलंति दीसण किंपि मलु रेणु वालु घिरिहोलँपमुह जइ पइसयंति जे हुम जीव अवर वि अडंति हियण अंध दरमलेवि खंत धत्ता - एहउ बुज्झिवि वरि हालाहलु विसु खज्जइ । सीलु विवज्जेवि उरणिहि भोयणु किज्जइ ॥६॥ १० हा हा लोड मूढउ पावे छूढ मुणइ उ हियत्तं । तणु सहसत्ति खिज्जए किं मरिज्जए रयणि जइ' ण भुत्तं ॥ आरणालं ॥ सहउ सिंहितावणं २. लियाले जाउ कणख देह मलं मह सुहभावणं । पड भइरवतले । गंगाजले । धर सिरि गुग्गुलं । [ ६.८.१३ ε. १ क सुरवरहो । २ क णरसोक्खं । ५ ग घ पयसवंति । ६ क ग घ एविणु । १०. १ ख णिसिहि जं । २. क उडउ । ३ क ग घ खाणें । ४ क घिरिहोलि । १० ५ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ११. १४] सुदसणचरित हुणउ तिलजवघयं णवउ दियवरसयं। जणिय अरिविग्गहे मरउ तहिँ गोग्गहे। देउ दियसासणं लेउ गुरुपेसणं। कुणउ हरअञ्चणं पुरउ कयणचणं । तणु जि परिखिजए फलु ण संपन्जए। णिसिहिँ छुडु भोयणं करइ मणमोयणं । अमरपुरसुंदरं णाम छंदो वरं । घत्ता-दुद्धही भरियउ जिह घडु सुरबिंदु विणासइ । तिह णिसि असणे तवही महाफलु णासइ ॥१०॥ १५ जाणंत विण वजहिं णिसिहँ भुंजइँ के वि जे णिहीण। ते अण्णहि भवंतरे दुहणिरंतरे होंति धणविहीण ॥ आरणालं ॥ सुटुंखुद्द घोरसह। किण्हगत्त रत्तणेत्त। दीहदंत णं कयंत। वक्रतुंड ओढखंड। उद्धकेस थूलणास कण्णतुट्ट पायफुट्ट। काण कुंट पंगु मंट। हिंसठाण मंसखाण। पावयम्म हीणकम्म । ते हवंति णीससंति। धम्मु तो वि तेत्थु को वि। व लिंति णो लहंति । १०. ३. क ग घ कव्वच्चणं। ४ ख जो मोयणं । ५ क सुंदरी णाम छंदो इणं ग घ सुंदरी छंदु णामो सिरि। ६ ख णिसिहि असणेण । ११. १ ग घ जाणंतहि । २ क बहुलणिद्द सुखुद्द । ३ ख हीणजम्म । ४ ख ग घ नो करंति। ५ क एवि (टि० भागत्य)। ६ ख ग घ वेल । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणंदिविरइयउ [६. ११. १५सोक्ख जाम गपि ताम। खाणपाण मग्गमाण । चंडियाहि अग्गि ताहि । से पडति तो दडंति । देवि एइ किं व देइ।-- कजसिद्धि पुण्णलद्धि। णस्थि ताण माणवाण। कामबाण छंदु जाण। घत्ता-अप्पउ° अहणिसु उज्जमु" करेवि संतावइ । पुण्णविहीणउ अणु-मत्तु वि सुक्खु ण पावइ ॥११॥ १२ वर कोवीणधारया कलुणकारया लच्छिए विहीणा । लेविणु लट्ठि' करयले भमहिँ महियले भिक्ख मग्गमाणा ॥ आरणालं ॥ ते सुक्ख लुक्ख अलहंति भिक्ख। पेसणु करंति किं पि वि हरति । गंजणु सहति पाणिउ वहति । घर सारवंति पयजुय णवंति। कणतुस लहति चूरेवि पयति । घरकोण खंति डिंभउ णदंति। णउ अञ्चति रिद्वउ जियति। कंदलु कुणंति णियसिरु धुणंति । रूसेवि जंति देसहि भमंति। सिय अहिलसंति अट्टे मरंति। छंदु वि मुणेह फुडु चंदलेह । ११. ७ क घोरसद्द। ८ ख तोडयंति। ६ क प्राइ ग घ देइ जाइ: देवि जाइ केम। १० क ग घ अच्छउ। ११ ख उजउ । १२ १ क जाहि; ग घ लाहि। २ क रूखलक्ख। ३ ग घ णमंति। . ४ ख ग घ डिभहं ण दिति। ५ ख रंघिउ जिवंति। ६ क हणंति । ७ क जंपंति एह। . Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. १४.७] सुदंसणचरिउ घत्ता-इय जाणेविणु जे रयणिहि भोयणु सेसहि । दोसविवज्जिय ते दिणयरु व्व उन्भासहि ।।१२।। १३ संपुण्णंगमणहरा विमलजसहरा कमलबंधु तेया। विहुरसहासवज्जिया' तियसपुजिया इंदउठवमेया ॥ आरणालं ॥ सुंदरसरीर सुरगिरिसुधीर भीसणसमरंगणे एकवीर । अखलियपयाव गंभीरराव तइलोकपसिद्ध महाणुभाव। णियअरिकयंत रिद्धिए महंत - - मयरद्धयव्य सोहग्गवंत । साउहभडेहि दप्पुब्भडेहि सेविजहि जयसिरिलंपडेहि। मयघुम्मिरेहि गइमंथरेहि आरुहहि सलक्खणगयवरेहि। तोसियसुरेहिँ भाभासुरेहिँ विजिजहि विविहहिँ चामरेहिँ । जणमणहरेहिँ सुस्सरसरेहिँ गाइजहिँ वरगायणसएहि । तहिँ भामिणीहिँ मणभावणीहिँ माणिजहिँ गयवरगामिणीहिँ । .... घत्ता-अवरु वि जं जं इह किं पि वि दीसइ गयमलु । जाणसु सुंदर तं तं जि अणथमियही फलु ॥१३॥ १४ जा जुवइ वि बहुरसं' चयइ जह विसं जामिणीहिँ भत्तं । सा पावइ कुलं वरं णाइँ अंबरं णिम्मलं पवित्तं ।। आरणालं ॥ कुडिलालय ससिवयण मिगणयण । णिद्धदसण तंबिरअहर महुरसर। किसलयभुय घणथणकलस मझ किस। गुरुणियंब जणजणियरइ हंसगइ। अहिणववेल्लि व हलहलिय कोमलिय। १२. ८ क वहिं । ६ क दिणयरु क वउ भासहि । १३. १ ग घ विहुरुर क ग घ मयरद्धवंत। ३ घ वरनरवरेहि । ४ ख मणगामणीहि । ५ घ इह तं। ६ क जियहो (टि. जीवस्य)। १४. १ क ग घ विविह। २ ख भुत्तं । ३ क यंबर। ४ क णी। ५ क सिद्ध। ६ ख भुय लखणजुन्न । ७ क मझि किस । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ गयणदिविरइयड सव्वावयव सलक्खणिय बुहथुणिय। होइ गरिंदहा पाणपिय णाइँ सिय। लहइ जाण पाण धय मत्तगय । वरतुरंग संदणपवर भडणियर। विविहकुसुमफलदलघणय उववणय। करइ कील सहुँ सहयरिहिं मणहरिहिं। इय रयणमाल पद्धडिय पायडिय। घत्ता-सुहसय" अँजिवि वइरायवंत तउ पालइ। अच्छउ इयरही इंदहा इंदत्तणु ढालई ॥१४॥ कुगुरुकुदेवभत्तिओ मयपत्तिओ णिसि असंति जाओ। कंचाइणिसरिच्छओ दुण्णिरिक्खओ होति मरेवि ताओ ॥ आरणालं ।। रयभुरकुंडिउ रंडिउ मुंडिउ । चेडिउ दासिउ छिवरणासिउ। विसरिसभालउ बुडियकवोलउ। चुंधलणेत्त दीहरदंतउ। हड्डकरालउ इंगलकालउ। लंबिरथणियउ असुहावणियउ। कुंटिउ मंटिउ मोट्टिउ छोट्रिउ । बहिरिउ अंधिउ अइदुग्गंधिउ। पेसणसारित विप्पियगारिउ । हीणउ दीणउ कम्मे रीणउ । मइलकुचेलिउ कलहणसीलिउ। १४. ८ क ग घ ए। ९ क ग घ इय णामें। १० ख रयणावलिय। ११ ख सुहसिरि। १२ ख ग टालइ । १५. १ ख भत्तउ। २ क पत्तिमो ख पमत्तउ। ३ ख असंतु। ४ क चिब्बिर । ५ क चडिय; ख बुडिय वोलिउ घ चुडिय। ६ क णेत्तिउ। ७ क दंतिउ। ८ क कुंठिउ मंठिउ घ मंठिउ। ६ क हीणिउ दीणिउ कम्में रीणिउ । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदंसणचरित भिक्ख भमंतिउ दुक्ख सहति । इय चिरु अच्छहिँ सोक्ख समिच्छहिँ । दइयहुँ " रूसहिँ अप्पउ दूसहि। तिहुवणरम्महुँ तो वि ण धम्महुँ । लग्गहिँ मूढिउ पावपरूढिउ । घत्ता-पुणु बणिणाहे पुच्छिउ मुणिवरु रहसु ण रक्खइ । अवडयदिटुंते जीवहाँ दुहु सुहु तं अक्खइ ॥१५॥ २० चलियउ को वि तरुघणे गयउ काणणे भिल्लपंथि' पत्तो। धाविउ तासु गयवरो उद्धकियकरो गुलुगुलंतु मत्तो ॥ आरणालं ॥ गयभीयउ णासंतो संतो सरणं अलहंतो । जा घिप्पइ सो णरु किर करिणा णं हरिणो हरिणा । ता तहिँ रणे सो बप्पडउ पेच्छेविणु अडउ। तहिं अर्ड लंबइ तणु सपयासे लग्गेवि दिढकासे । जाम अहो जोयइ किर तट्ठो अजयरु ता दिट्ठो। अवर वि चउकोणेसु सदप्पा दिट्ठा चउ सप्पा। तो किण्हसिया मुसय संकास कुरुडहिँ सपयास। एत्तहिँ मायंगे पवहते ९ तहिँ त अलहंते । तही अडयही" तडि दिट्ठो विडवी दंतेणाहर्णवी। कंपाविउ तहाँ साहही गुलिउ'३ महुयरि महु गलिउ । सो झत्ति वि उड्ढंमुहु" जाओ णिसुणिवि तही राओ विसमपओ इय पायाउलओ सोलह दह कलओ। . १५. १० क इह । ११ क ग घ दिव्वहु । १२ ग घ कि पि। १३ क तिहु गरजम्महुः ख रमणहु। १४ ग घ मयणावयारो। --१५ क ग अवड्डयः ख अड। १६. १ ख भिल्लिपंथि। २ ग घ धायउ। ३ ग घ °कयकरो। ४ प्रतिबु 'अलहंतो इय संतो'। ५ ग घ किर सो णरु। ६ ग घ बप्पुडउ। ७ ख सयपासें । ८ खसें। ६ ख च वहति । १० ते तहि । ११ ग घ तडयहो। १२ ख ताए तहि रोसिण सो विडवी। १३ क गालिंऊ ख गुलियउ। १४ ख मुहयरि त गलिउ । १५ क झत्ति उड्ढ; ख झडत्ति उड्ढ । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणदिविरइयउ पत्ता-उड्ढ णियंतही तही खिल्लविल्ल संजोएँ । णिवडिउ जीहही महुबिंदु लिहइ अणुराएँ ॥१६॥ [ ६. १६. १५ १५ उ। कुद्धं महुयरीउलं लग्गए अलं तासु सव्वदेहे। अवजसमिव कुणंदणे फणि व चंदणे धूठ णं कुगेहे ॥ आरणालं ॥ तहिँ काणणु संसारु णिरुत्तउमणुउ जीउ जिणणाहे वुत्तर। भिल्लपहो अहम्मु उवलक्खिउ वणकरि मिच्चु वणीसर अक्खिउ । अडउ देहु बहुदुक्खहँ भायणु अजयरु णारयणिलउ भयावणु। ५ सप्प कसाय चारि अइदुद्धर सहि जगु वि कहिँ छुट्टइ सो किर। कासतंबु आउसु मइदक्खा किण्हसेय मूसय दो पक्खा। विडवी कम्मबंधु णिरु दुञ्चलु महुबिंदु वि इंदियसुहु चंचलु । महुयरीउ बाहिउ अपमाणउ दुस्सहाउ पीडहिँ उद्धाणउ । जीउ मुणंतु वि इय अवगण्णइ असुइकिमी असुइहि रइ मण्णइ ॥१०॥ १० घत्ता-इय णीसारए संसारए सारउ तउ पर। जे भवि भवि किउ कलिमलु णिण्णासइ वणिवर ॥१७॥ १८ जिणु वि गिहत्थु होतउ गयचरित्तउ ण हु लहइ झाणं । माणे विणु मणोहरं मोक्खपुरवरं दुल्हं णराणं ॥ आरणालं ।। तं णिसुणिवि णिव्वेय-पउत्तउ गउ वणिंदु णियघरु संपत्तउ । कहइ सुदंसणासु संखित्तउ जणपसिद्ध ववहारु णिरुत्तउ । णारीयणहो दोसु झंपिज्जइ चित्तहाँ अणुजायउ जंपिजई । अजलोट दक्खिण्णउ किन्जइ दुट्ठारिहिँ विक्कमु पयडिज्जइ। गुरुयणे विणउ भत्ति दाविजइ विणएँ लच्छि कित्ति पाविजइ । १६. १६ ग घ खेल्लिविल्ल । १७ ख ग घ महइ । १७ १ क भिल्लपंथ। २ क लक्खिउ। ३ क भयाणणु । ४ ख जि। ५ ख कम्मु । ६ क व। ७ घ महुयरियउ । १८. १ क °सुखवरं। २ ख णिव्वेइ। ३ ख परि। ४ क सुदंसणाउ। ५ ख चित्तहिं । ६ घ संपजइ। ७ ख गुरुणा । . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदंसणचरिड ६. १६. १५]. साहुलोउ रक्खिज्जइ सच्चे णिम्मच्छरभावेण सउच्चे। मम्मिल्लहँ छंदे वत्तिज्जइ णियकज्जे खरु गुरु व गणिजई। गव्वियाहँ पडुयउ गज्जिज्जइ पाविद्रुहँ संगु वि वज्जिज्जइ। अवरु समम्मु कसु ण अक्खिज्जइ सरणे पइव जीउ रक्खिज्जइ । राउलु अह देउलु सेविज्जइ कोहु माणु माया पसमिज्जइ । घत्ता-कोवपरव्वसु माणड सुट्ठ मायारउ । लोहक्कंतउ कासु वि णउ होइ पियारउ ॥१८॥ १० जो मम्महं ण भासए गुण पयासए चलइ छंदु णूणं । सो देवहु वि दुल्हो होइ वल्लहो किं ण माणवाणं ॥आरणालं ॥ अवरु वि सुंदर णयणाणंदिर । णरवइअग्गष्ट थिए ओलग्गए। परधिक्कारणु पायपसारणु। अद्धणिहालणु भउहांचालणु। करकममोडणु अंगुलिफोडणु। जणउवहासणु भासाभासणु। खासणु जिंभणु तह अवठंभणु। केसुम्मोहणु अंगपसाहणु। दप्पणदसणु अप्पपसंसणु। सेच्छप जपणु णासाकंपणु। दंतणिपीलणु । दुट्ठउ कीलणु । आसणपेलणु अंगुव्वेलणु । इट्ठदुर्गच्छणु सेवालंछणु । १८. ८ क सत्थे । ६ ख णिम्मलेण भावेण ग घ मणिमच्छरभावेण । १० ख धम्में लहु ग घ मम्मिलरु। ११ क गुरु मेल्लिज्जइ। १२ ख पडयउ। .. १३ क माणसु। १४ ख लोहुक्कंतउ। १९. १ ग घ थिउ। २ क परिधि । ३ क पहुँ। ४ ख केसहं छोडणु . . . अंगपसारणु। ५ ग घ णिकोलणु। ६ ख अंगविच्चलणु । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ [६. १६. १६ णयणदिविरइयत अवरु वि जं जं वजसु तं तं । एवहिँ काणर्ण बहुपंचाणणे । गंपिणु पइसमि सिरि परिसेसमि । बुहयणणयणो छंदो मयणो। घत्ता-तो जंपिज्जइ सुहदसणेण विहसते । .... तुम्ह परोक्खए किं मइँ घरवासे वसंते ॥१९॥ २० हउँ वि सुदुद्धरं तवं चरमि हयभवं जियमहाकसायं । ताजणणेण जंपियं भुवर्ण जं पियं भुजि णिवपसायं ॥ आरणालं ॥ जम्मणजरामरणबंधणहं खयकरणु । मइ सरिसु जइ पुत्त तुहुँ लेहि तवयरणु ॥ एयं कुलं कासु जोएइ तो वयणु। तुहुँ अम्ह कुलतिलउ तुहुँ पुरिसवररयणु ॥ इह तुहुँ जे पर एक्कु सुहिहिययदिहिकरणु । पइँ मुयवि को अवरु घरभारधुरधरणु ॥ करिऊण आलीउ गालीउ जो देइ । रडिऊण तह भोयणं माय मग्गेइ ॥ अंगरुहु सो केम परिहरिवि तुह जुत्तु । जिणभवणु जिणण्हवणु जिणपुज्ज जिणथुत्तु ॥ करि देहि मुणिदाणु अपमाणु सुपवित्तु । जिणसासणे जं जि जिणवरहि इह वुत्तु ॥ जे के वि कारवहिँ जिणणिलउ मणहरहि । ते अण्ण जम्मम्मि चिरु रमहिँ सुरहरहि ॥ १६. ७ क वहपंचानने (टि०बृहत्पंचानने)। २०. १ घ सुद्ध दु। २ ख तो। ३ ख विलस णियसियं भुंजि । ४ क तवइ । ५ क ग घ इय। ६ ग घ वरकरण । ७ क करि जणण। ८ ख इय । ६ ख मणिधरहि ग घ मणिहरहिं । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. २०. २६ ] सुदंसणचरिउ जिणण्हवणु जे करहिँ कारवहिँ सहहहिँ । सुरसेलसिहरम्मि सुरण्हवणु ते लहहिँ ॥ जे करहिँ भत्तीय समणोज जिणपुज्ज । सुरणरहँ विसहरहँ ते होंति इह पुज ॥ जे थुणहिँ जिणणाहु जगकमलसरमित्तु । दोसहसजीहाहिँ तही करइ फणि थोत्तु ॥ सत्ती भत्तीय मुणिदाणु जे दिति। ते भोयभूमीहिँ सुहु लहेवि" दिवि जंति ॥ [मयणावयारो छंदो] घत्ता-पुणु णयणंदिय पणवेवि समाहिगुत्तहा पय । जणणी जणणु वि तउ करिवि देवलोयही गय ॥२०॥ एत्थ सुदंसणचरिए पंचणमोक्कारफलपयासयरे माणिवणंदितइविज्जसीसणयणंदिणा रहए वर्णिदे गंदणवणे मुणिवरेण आहासिया अणुव्वयगुणव्वया तह य चारि सिक्खावया अणत्थमिउ तं जहा रिसहदाससग्गगमणं इमाण कयवण्णणो भणिओ संधी पुण छट्टओ। संधि ॥६॥ २०. १० ख सरमिहरु। ११ ग घ लहहिं । १२ क रिद णंदणवणे; ख वंदिऊरिंदावणे ग घ छंदोणरेंदेणवणे । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ७ सग्गही गट ताप्न सुरलीला सुईसणु। भोयइँ भुजंतु अच्छइ लद्धपसंसणु ॥ बसस्थ ॥ कया वि सत्तीन' सुपुण्णु लिंतओ मुणीण सत्थे सुहवाण दितओ। कया वि भत्तीस जिणं थुणतओ महंत पूर्य ण्हवणं कुणतओ। कया वि सव्वण्हुणिकेय जतओ जिणेदतुंगालय कारवंतओ । कया वि दिव्वाहरणेहिँ राइओ पढंतवेयालियविंदसेविओ। कया वि पढें सरसं णियंतओ सुहावहं गेयसरं सुणंतओ। कया वि कीलाहरे विन्भमंतओ मणोजचोजेण पिया दमंतओ। कया वि हासेण वि रोसवंतओ सुचाडुआलावहिँ तोसवंतओ। कया वि थोवं पि हियं चवंतओ सुकंतपुत्तं णिरु सिक्खवंतओ। कया वि णाणाविहकजगुत्तओ अणेयसंकप्पवियप्पजुत्तओ। समीहए छेलहए वणिंदओ इमो वि वंसत्थु हवेइ छंदओ। घत्ता-इय सुविणोएहिँ चरिमाणंगउ अच्छइ । णरवइई पसाय' पुण्णवंतु संगच्छइ ।।१।। वराण वाणी' तिलोयरंजया जसुत्तमा सीस भणति संजया। जणाणुराओ तहाँ काइँ सीसए सुहासुहं लोट पयक्खु दीसए ॥ वंसत्थ ॥ लइ केत्तिउ धम्मही फलु सीसष्ट कर कंकणु किं आरसि दीसत्र। अच्छउ दंसणेण फंसेण वि होइ णेहु केण वि णिसुएण वि। १. १ ग घ भत्तीए। २ क सुहयाणः ग घ सह दाणु। ३ क कयंतप्रो। ४ ख लीलाहरि । ५ ख हासेवि चरइ रमंतनो। ६ क मणोजभोएण सुहं जणंतनो। ७ ख समाहिहत्येहलहें। ८ क सुविणोयएहि ख सुविणोयं । ६ क पसाइय । २. १ ग घ विराय वाणीय। २ क पारिसे। ३ क वरएण वि ग घ परसेण वि। ४ क जि सुएण। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. ३. १०] सुदंसणचरित तही सोहग्गु कविल णिसुणंतिय उवरोहियही कविलभट्टहा पिय। मिगलोयण पाडलगइगामिय कुसुमाउहवाणहिँ आयामिय। वार वार अणिबद्धउ जंपइ विहिलंघलु हवेइ खणे कंपइ । खणे रोमंचु होवि सुपसिन्जइ विरहु वि सण्णिवायजरु णजई। तहे सरायमणु दिसिहँ पधावइ करिपयदलिउ तुच्छ जलु णावइ । अह ण कवणु णेहे संताविउ पवणे धयवडो व्व कंपाविउ । मालव देसि गउडि" हिंदोलउ महु ण सुहाइ भणहि भावालउ । पंचमु पंचमु सरु णं कामही हलि सहि विरहणेहु उवसामही । घत्ता-कविलहिँ वयणेण सहियष्ट" पंचमु वुत्तउ । सबिसेसे ताई पंचेसहो सरु खुत्तउ ॥२॥ सुदंसणे जायसुहस्स' लुद्धए परोक्खराएण रयान मुद्धए । मुएवि णीसास सहेल्लिअग्गए पयंपियं तोरणखंभलग्गए ॥ वंसत्थ ।। बहिणि मज्मुवेयण ण वियाणहि जइ जाणहि तो सो वि ण आणहि । जो सजणमणणयणार्णदणु सुहउ णाइँ गोविंदही गंदणु । पुरवरम्मि णीसेसउ गणियउ पुप्फसिलीमुहेहिँ जे वणियउ । इय वरगुणु ण जाइँ सो पाविउ ताहि जीउ फुड़ अइसयपाविउ । तही विरहाणलेण हलि महु तणु डझइ हुयवहेण णं जरतणु । चंदु वि मज्मु मणही णो भावइ इय मुणेवि करि जं तुह भावइ । घत्ता-तो सहयरिया मग्गे जंतउ लक्खिउ । ___ कविलहे विहसेवि ती सुदंसणु अक्खिउ ॥३॥ २. ५ ख मोहामिय। ६ क विहलंघणु। ७ ख होइ। ८ क णिज्जइ । ६ ख तहिं रायइ मणुः ग घ ताहे रायमणु। १० ख वडोउ। ११ क ग घ मा लवेसि गउडी। १२ क ख भणइ। १३ क पंच विसमसरु कामहो। १४ ग घ हल। १५ ख सहियहि ग घ सहिए। १६ ख तहो पंचेसरु।.. ३. १ ख ग घ सुदंसणुज्जाय सुहस्स। २ ग घ थंभलग्गए। ३ क जाणइ । ४ ख जो ग घ जं। ५ ख जसेण। ६ ग घ मणु । ७ ख ण वि। ८ ख तहो सहित यरियाई। ९ क यउ। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणदिविरइयउ [७.४.१ पलोइओ ताण सणिद्धदिट्ठिए पयंपियं चित्तणुरायहिट्ठिए। वयंसि जं सोक्खमणिट्ठदंसणे ण तं सुगाढेइ परस्स फंसणे ॥ वंसत्थ ॥ एवहिँ सहि गंपिणु जइ महु वेयण जाणहि । पिउ बोल्लिवि पिययमु तो महु णिलयही आणहि ।। गय जंपइ दूइ भो पंकयदललोयण । तुह मित्तही संपइ मत्था वट्टई वेयण ॥ अवियप्पु वणीसरु लहु सउहयले पइट्टउ । सुहि एत्तहिँ तेत्तहिँ जोयंतेण ण दिट्ठउ ।। पुच्छिय कहिँ कविलो अच्छइ वेयणजुत्तो। तो कविलए कामो कर धरेवि इय वुत्तो । तुह विरहपरव्वस हउँ झीणी अणुदिणु किह । इह किण्हत पक्खन मयलंछणलेहा जिह ॥ किं दिसउ णियच्छहि महु उप्परि दय किजउ । परिउंबिवि' सुहव गाढालिंगणु दिजउ॥ ण मुणइ वित्तंतरु कविला रइसुह वंछ। सञ्चउ आहाणउ अत्थी दोसु ण पेच्छइ ॥ तो चवइ सुदंसणु सुंदरि किं तुहुँ ण मुणहि । लइ कहमि हियत्थे गूढमम्मु" महु णिसुणहि ।। पर कसु वि म अक्खसुजाणहि संढउ मई इह । बाहिरं परसुंदरु इंदवारुणीफलु जिह ॥ __सहसत्ति विरत्ति कविलय मुक्कु वणिंदो। मागहणक्कुडिया णामे १७ एसो छंदो॥ घत्ता-दूरयरपियाहँ महिलहँ "मणसंतावणु। तहिँ अवसर पत्तु मासु वसंतु सुहावणु ॥४॥ ४. १ ख दिट्ठिए ग घ सिदिए। २ क गइ। ३ ख वट्टा ग घ वद्धए । ४ क पवियप्पवसें। ५ क वुत्तउ। ६ क तउ। ७ ख रेहा। ८ क ज्जइ। ६ क परिऊरवि। १० ख इय सच्चउ ऊहाणु। ११ क गूढमणु। १२ ख पर कासु वि मा मक्ख। १३ ख बाहिरि परिसुंदरु दीसइ। १४ ख णामो। १५ क पहयिह घ पहियरु । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदसणचरिउ सुयंधुमंदो मलयदिमारुओ वसंतरायस्स पुराणुसारओ'। जणंतु खोहं हियए वियंभए समाणिणीणं अणु माणु सुभए । जहिँ जहिँ मलयाणिलु परिधावइ तहि तहिँ मयणाणलु उद्दीवइ । अइमुत्तउ जहिँ वियसइ मुद्धउ छप्पउ किं ण होइ रसलुद्धउ । जो मंदारएण णिरु कुप्पइ सो किं अप्पउ कुडन समप्पई। सामल कोमल सरस सुणिम्मल कयली वजेवि केयइ णिप्फल । सेवइ फरसु वि छप्पउ भुल्लउ जं जसु रुच्चइ तं तसु भल्लउ । महमहंतु विरहिणिमणदमणउ कसु ण इट्ठ पप्फुल्लियदमणउ । जिणहरेसु आढविय सुचञ्चरि करहिँ तरुण सवियारी चच्चरि। कत्थई गिज्जई वरहिंदोलउ जो कामीयणमणहिंदोलउ । अहिसारिहि संकेयही गम्मइ गयवईहिँ गंडयलु" णिहम्मइ । पियविरहे पहियहिँ डोलिज्जइ अहवा महुमासे भुल्लिज्जइ । पत्ता-तो लेवि करंडु पुप्फफलावलिजुत्तउ । णरवइअत्थाणे लहु वणवालु पहुत्तउ ।।५।। णरिंदचूडामणिघट्टपायहो कहेइ अटुंगु णवेवि रायहो । मणोज उज्जाणवणं सुफुल्लियं सहेइ भिंगावलिए य मिल्लियं ॥ वंसत्थ ॥ धुमुधुमिय महलइँ कणकणिय कंसाइँ । दुमुदुमिय गंभीर दुंदुहिविसेसाइँ"। दुंदुमिय उंदाइँ ढंढंत तिउलाई। अणवरय सलसलिय कंसालजुयलाई। रणझणिय तालाई त्रं त ढुक्काइँ । ५. १ ख पुराणुसारो। २ ख अइमत्तउ। ३ ख कुरइ समप्पउ ग घ कुरा समप्पइ। ४ क णिज्जइ। ५ ख मंडयउ। ६ क पहियह ख पियहि । ६. १ ख घिट । २ ख णवेइ। २ क पेल्लिय; ख मेल्लियं । ४ क कोसाई: घ सोसाई। ५. ख दुंदुहि ण घोसाई। ६ क दुंदुमई उंदाइयई; ख दुंदुम मऊघूई ग घ दुईंमउंदाई। ७ क टिउलाई। ८ क ख ग त्रां त्रां सढुकाई। . . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणदिविरहवउ [७. ६.८डमडमिय डमरुयइँ डंडत डक्काइँ। थरथरि थरथरिर्र करडोह सदाइँ। झिझिझि झिभिंत झिक्विरि सुहद्दाइ। थगेयुगेगे थर्गदुगेर्ग तखतखिखे पडहाइँ। किरिकिरिरि किरिकिरिरि तटखुद लडहाइँ । करमिलण झिमिझिमिय झल्लरि वियंभाई। रंजंत रुंजाइँ भंभंत भंभाइँ। तुरुतुरिय काहलइँ हूहुइय संखाई। एयाइँ अवराइँ बहुविह असंखाइँ"। णिय अवसरं मुणेवि आणंदपूरियहि । सहसत्ति वाइयइँ तूराइँ तूरियहिँ । [मयणावयारो णाम छंदो] घत्ता-इय तूरणिणडु णिसुणिवि अरिबल मुज्झिय । दिक्किरि दिसपाल सयल वि हुय मयउज्झिय ॥६॥ रवेण एवं भुवणंतपूरयं वसंतउच्छाहयर सुतूरयं । सुणेवि राओ हरिसे विसट्टओ पुराओ उज्जाणवणं पयट्टओ॥वसत्थ॥ चल्लिओ राउ उजाणकीलामणो विबुहसंसेविओ णाई सक्कंदणो। चलिय अंतेउरालंकिया राणिया अभयणामि त्ति णं देवि इंदाणिया। चलिउ सुदंसणो कंतिवंतो तहा कुवलयाणंदणो छुद्धहीरो जहा। चलिय हिट्ठा मणोराम सा गेहिणी णियसुसोहग्गओहामिया रोहिणी। चलिउ तीए सुकंताहिहाणो सुओ सहयरालंकिओ कीलणे उच्छवो । चलिउ सेट्ठिस्स मित्तो जणे सूहओ कविलभट्टो सरिद्धीष्ट णं माहवो । चलिय तुच्छोयरी पोमवत्तच्छिया कविल णामप्पिया तासु णं लच्छिया। चलिउ णिस्सेसलोओ मणे तोसिओ सहइ छंदो इमो उठवसी भासिओ। १० ६. ९ख करडोहि । १० क ग घ हूहुयई । ११ ग घ असेसाई । १२ क पूरियई। १३ ख सहसा वि वाइयहिः ग घ सहसत्ति वायाई। १४ क परिवरः ग घ परिवल । ७. १ घरयं। २ क चल्लिमो दंसणो। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.६.२] सुदसणचरित घत्ता-पत्तेण णिवेण णाणाविहमहिरुहधर्ण । संजायउ णाई देवागमु णंदणवर्ण ॥॥ महासरं पत्तविसेसभूसियं सुहालयं सक्कइविंदसेवियं'। सुलक्खणालंकरियं सुणाययं णिउ व्व रामु व्व वणं विराइयं ॥वंसत्थ॥ रायहंसगइगमण रंभाजंघोरुयअइकोमल । पवरलयाहररमण कयपसूर्यणियसण णिरु णिम्मल ॥ अलिरोमावलिणिद्ध विततल्लणाहीसुमणोहर । पीणपवरउत्तुंगमाहुलिंगउब्भासियथणहर ॥ वेल्लीभुयसुकुमाल रत्तासोयपत्तकरसुंदर । बिंबीहलअहरदल दाडिमबीयसुदसणाणंदिर ॥ चंपयहुल्लसुणास वियसियइंदीवरदललोयण । पोमाणण सिहिपिच्छकेसबंधजणमयणुक्कोयण ॥ चंदणघुसिणरवण्णवण तिलयंजणसुपसाहण । कप्पूरायरसोह बहुभुयंगसेवियहरिवाहणं ॥ कंचणवंत सुमंड कोइलललियालावसुहासिणि । तरुराइय वर्ण तेत्थु दिट्ठिय राएँ णाइँ विलासिणि ॥ इयगुणेहि परउण्ण कासु ण हियवउ हरइणिरुत्तिय । कामलेह णामेणं पद्धडिया फुडु एस पउत्तिय ॥ घत्ता-रायागमणेण तणुरोमंचिय भासइ । णवकुसुमहलेहि अग्यंजलि व पयासइ ॥८॥ तओ वयंसीहिँ सुखेड्डदक्खहि अणेयभावंतरजुत्तिलक्खहिं। सुलीलए सायरसेणपुत्तिया सहेइ खोणि व्व दिसाहिँ जुत्तिया । वंसत्थ ॥ ८. १ क सक्कउविदसेवियंः ख तोसियं । २ ख सुणाइयं । ३ क पसूण। ४ ख चित्त । ५ ख धरण। ६ ख हरिवाणर। ७ क°वरण । ८ ख वि । ६ क णामः ख णामें। १० क तिण' ६. १ क ख मुखेंदु दक्खहिं । २ ख अखहिं । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयणदिविरहयउ [७. ६.३पेच्छिवि पुरउ जति सियसेविट सलहिय सा अभयामहएविष्ट । उपहावियबंधवसुहिलोयण पुण्णवंत ग्रह वरगुणभायण। एत्वंतरि कविलाट पवुत्त देवि तुम्ह इय भणिवि ण जुत्तउ। ५ लायण्णे सोहग्गे उत्तम तुह समाण णउ रंभ तिलोत्तम। मीणइ सइ पउलोमी अच्छर सव्व वि तुह विहुवे णिम्मच्छर । तुह बुद्धिन सरसइ वि ण पुज्जइ इय सुणेवि अभयाट भणिज्जई। हलि सहि मझु काइँ वणिजइ पुत्ते विणु किं णारिहिँ छज्जइ । पुत्तु एक्कुं कुलगयणदिवायरु जणणिमाणरयणहा रयणायरु । जइ वि हुँ विरयइ जोव्वणखंडणु तो व्रितियहि पुत्त जि परमंडणु। ते परवण्णणु जुत्तु जि आयह गंदणवंतिहे कयपइरायहे । घत्ता-तो कविलय वुत्तु पुत्तु केम एयह हुउ। एयह पइ संढ काहे वि पासइँ मइँ सुउ ॥६॥ हसेवि' तो झत्ति भणेइ राणिया ण याणए किं पि अलं अयाणिया। वणिंदआसत्तमणा वियंभिया विहस्स एसा फुड तेण डंभिया ॥ वंसत्थ ॥ इय वयणहिँ कविलए मुक्कु सासु किउ ईसि ईसि णियमुहवियासु । तो अभयादेविन वुत्त एम मझु वि तुहुँ गोवहि हियउ केम । मुहणयणवियारहि भासणेहि इंगियतणुचेट्रपयासणेहि। जाणिजइ जं किर परह। चित्तु हलि तं धुत्तत्तणु कवणु वुत्त । अइसन छेइल्ल वसति जेत्थु जाणिज्जइ ऊससियं पि तेत्थु । तो जंपइ कविला दर हसंति तुम्हग्गत लज्जमि हउँ कहति । जइ देवि देहि महु अभयदाणु । तो णिरवसेस भासमि कहाणु । लइ अभउ दिण्णु अभयाण वुत्तु लक्खियउ वि रक्खहि किं सचित्तु । १० ६. ३ क घ इह। ४ ग घ वुत्तउ। ५ क पोलोमी। ६ ग घ अभया पणिजइ। ७ क हलि हलि। ८ ख इत्थु। ६ क घ विहिं । १० कमियहि (टि० जाणीहि )। १०. १ ख ग घ हसेइ। २ ख हले। ३ ख धुतत्तु वि। ४ ख देहि देवि । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ ७. १२.६] सुदसणचरित घत्ता-इय वयणु सुणेवि अभयहिँ णउ रक्खिज्जइ । कविलाश सगुज्झ रहसंगष्ट अक्खिजइ ॥१०॥ इमाहे कंतस्स गुणा सुणंतिया परोक्खराएण रया अहं थियो । वयंसिए अग्गन जंतु जाणिओ मिसेण तो वाहरिऊण आणिओ॥ सत्थ ।। छुडु रइहरम्मि वणिवरु पइड मई करे धरेवि वुत्तउ मणिहु । पयलंतु मयणसिहि उवसमेहि लइ एक्कवार पहु मइँ रमेहि । हउँ संढु तेण महु कहिउ झत्ति मुक्कउ कराउ अइ हुय विरत्ति'। इय कहिउ गुज्झु कविलाश जाम विहसेवि वुत्तु अभयान ताम । अच्छउ तही देसही तणिय वत्त जहिँ तुहुँ वि छइल्लहिँ मज्में वुत्त । किं ते आलोयणभावसुद्धि ण मुण जे बोल्लिए परहो बुद्धि । हउँ तुज्झ बुद्धि पाएँ लुहेमि परहियण केम णियमइ छुहेमि । सहि पिययमु इह धुत्तीहि तेम वाहिज्जइ पय पाणहिय जेम । घत्ता-वयणेण वि तेण वंचिय तुहुँ हउँ इय मुणमि । गट सलिलसमूह पालिहि बंधणु किं कुणमि ॥११॥ हलि हलि सो जिणधम्मरत्तओ दयावरो दुव्वसणेहिँ' चत्तओ। सरस्सईमंडिउ लद्धसंसओ पराण णारीण सया णउसओ ॥ सत्थ ।। इय सुणेवि अभयहे गिर कविला कुविय बोल्लए । देवि एत्थु जम्मुब्भवपयइ किं को वि मेल्लए ॥ .. . हीण दीण हउँ बंभिणि सुगुणसुबुद्धिवज्जिया। . . अप्पसुओं आहाणउ णिसुणंती ण लज्जिया।। १०. ५ ख रहसेंगया ग घ रहसंगइ। ११. १ ख गुणं । २ ग घ थुणेतिया। ३ ग घ महंतिया। ४ ख ग घ अई। ५ ख हुवउ रत्ति। ६ ख मझ। ७ ख पालोवरिण। ८ ख मुहि जै बोल्लियः ग घ जो बोल्लिए। १२. १ घ दुव्वयणेहिं । २ ग घ बभरिण। ३ क सगुणि । ४ ख अयसउ। . Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७. १२.७ यणदिविरइयउ चायभोयसंजुत्तिय अंतेउरपहाणिया। ललिय जेम तुहुँ सूहव गरणाहस्स राणिया ॥ तुहुँ जि एक्क सुवियक्खण वण्णइ सयलु पुरयणो'। अइछइल्ल तो जाणमि जइ चालेहि तसु मणो ॥ तो मयंध उच्छल्लिय अभयादेवि गजए। - पुणु वि पुणु वि तुहु वयणहिँ हासउ मज्झु दिजए॥ बुद्धिवंत पारंभहिँ जंतं किं ण छज्जए। जंपिएण किं बहुणा एहउ कोड्डु किज्जए ॥ मयरकेउ सुहृदंसणु जइ ण रमेमि हउँ हले। तो मरेमि ओलंबेवि पासउ कंठंकंदले ।। जइ पइज्जणउ पालमि तो हउँ कविले लंजिया। छंदु एउ सुपसिद्धउ णामे सालहंजिया । घत्ता-इय करिवि पइज्ज अभया मर्णण चमकइ । संचारिमणाइँ वाउल्लिय परिसक्कइ ॥१२।। विलासहासुब्भवभाववत्तिया' चलंति उजाणवणं पहुत्तिया। जणंति संखोहु णराण भावइ धणुच्चया वम्महभल्लि णावइ ।। वंसत्थ ॥ जिह सा तिह अवराउ वि सारिउ कोलावणे संपत्तिउ णारि। मणहरफुरियाहरणविहूसिय केण वि णियभामिणि संभासिय । तुह रईश विणु सुण्णायारउ चित्तु ण रमइ कहिमि अम्हारउ । एम मुणेविणु म चिराविज वरउजाणजत्त सहलिजउ । केण वि सह ण णीय ते रुट्ठिय पिय तोसिज्जइ माणगरिट्ठिय । एकसि मं छलु लेहि महारउ एयहो जम्महा हउँ तुम्हारउ । १२. ५ ख परियणो। ६ ख मयंड उच्छालिय। ७ क रमेबि । ८ ख कठि। ६ घ पइण्ण । १० क माउल्लिय । १३. १ ग घ चत्तिया। २ घ संपत्ति सुणारिउ। ३. ख सुहिल्लि । ४. क इय मुणेवि मणु म चिराविजइ घ एम सुणेविणु। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. १५.५] सुदंसणचरिउ को वि सकामुउ पायहिँ लग्गइ रमणिहिँ रमणु पलोयहुँ मग्गइ । पुणु पुणरवि णियचित्तु समप्पइ अहवा रत्तु ण किं पि वियप्पइ । घत्ता-करपल्लवसार णयणकुसुम थणफलधरि। णं मोहणवेल्लि सोहइ का वि किसोयरि ॥१३॥ १४ जहिं जहिं मत्तगइंदगामिणी णियच्छए लीलय का वि कामिणी । तहिं तहिं आण समीहमाणओ वियंभए वम्महु बद्धठाणओ ॥ सत्थ ।। थणवट्टपीणपीवरसतुंग क वि जोयई अवर वि माहुलिंग । क वि चाहइ सारुणकोमलाहँ अंतर रत्तुप्पलकरयलाहँ। तहिँ एत्तहे तेत्तहे भमरु जाइ कत्थई छप्पउ वि दुचित्तु भाई। काहे वि तुच्छोयरे' रोमराइ हुय पायर्ड मयणभुअंगि णाई। णीलुप्पलमालय मुद्ध का वि अवलोयइ मरगयमेहला वि। क वि णियगईट हंसु वि हसेइ सा तेण जि पियमागसे वसेइ । काश वि अउव्वधाणुकिणीष्ट तिक्खुजलगयणसरेहिँ तीन । विद्धउ परिहरिवि अविद्धु बिद्धु सहसा संतोसिउ मयरचिंधु । घत्ता-जहिँ जहिँ पिय जाइ तहिँ तहिँ पियमणु धावइ । _ तहा ताट अउव्वु मोहणु दिण्णउ णावइ ॥१४॥ १० लयाहरे पिंगुलयाणिरंधए भमंतफुलंधयफुल्लगंधएं। सुणेवि पारेवयंसढु लीलए सकामिणीए सह को वि कीलए ॥ वंसत्थ ॥ णंदणवर्ण णरणारिउ भमंति छलपर्यण परोप्परु उल्लवंति । को वि' भणइ कतै वियसिउ असोउ सा भणइ अवस वियसइ असोउ। पिन मिट्टइँ एयइँ सिरिहलाइँ मिट्ठइँ जि होति पिय सिरिहलाई। १३. ५ क फलथणयरिः ख थणफलभरि। १४. ख जोवइ । २ ख अंबरु। ३ क ख लाई। ४ क ग घ होइ । ५ ख तुच्छोवरि। ६ ग घ पाडल। ७ ख तियमणु । १५. १ ग घ फुल्लंधुय । २ ख पारावय। ३ क णरणारिय । ४ क ग घ वयणुः ख छणवयण। ५ ख क वि। ६ ख एयहो। ७ ख जंति । . Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० णयणदिविरइयउ [७. १५.६पिट सरसहिँ उड्डइ वयहँ वंति कहिँ पिययम सरसहि वय हवंति । पिन हेलन विसहरु हउँ तरेमि जइ विसहरु तुहुँ तो हउँ डरेमि । को वि भासइ भासइ कति काउ' किं पिय सुउ कंकं कंठणाउ । पिष्ट महु भावहिँ" कतारयाइँ पिय कसु ण इ8 कतारयाइँ । पिन वंकालावहि तुहुँ वियदृढ जइ तो किं पिययम पइँ वियट्ट । १० घत्ता-पित्र पेच्छ मणोज सरस सुकोमल सल्लइ । पिय एरिस गुणेहिँ अवर वि अवसे सल्लइ ॥१५॥ १६ कहिं पि' वकं इय तत्थ जंपियं वियट्टलोएहि सुहावणं पियं । कहिं पि संगीयरसं पउंजियं रसिल्लदेवाण मणं पि रंजियं ॥ वंसत्थ ॥ तो णिवेण लोएण सरवरं लक्खियं असेसं पि मणहरं । णीलरयणपालीम पविउलं कमलपरिमलामिलियअलिउल। अमरललणकयकीलकलयलं चलियवलियउल्ललियझसउलं। कलमरालमुहदलियसयदलं लुलियकोलउलहलियकंदलं। पीलुलीलपयचलियतलमलं गलियणलिणरयपिंगहुयजलं'। अणिलविहुयकल्लोलहयथलं तच्छलेण णं छिवइ णहयलं । पत्थिउ व्व कुवलयविराइयं पुंडरीयणियरेण छाइयं । करिरहंगसारंगभासियं छंदयं विलासिणि पयासियं । घत्ता-सरु पेच्छेवि लोउ हरिसे कहिँ मि ण माइउ । माणससरे णाई अमरणियरु संपाइउ ॥१४।। रमेवि' उजाणवणम्मि णारिओ सरोवरे पत्तिउ चित्तचोरिओ । करति ताओ जलकीले जारिसा पवण्णिउं सक्कु ण को वितारिसा छ। १५. ८ ख वयह पंति। ६ क कते काउ। १० ख सउं। ११ क भावए । १२ ग घ णे?ई। १३ ख वियड्छ । १६. १ क कहं पि। २ ग घ विसट्ट लोएहिं । ३ प्रतिषु ‘हयजल' । ४ क माणसरे। ५ क अमरु णियरु । १७. १ क रमेण। २ ग घ वणं विराइयो। ३ क कीलि। ४ क धरेवि । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. १८.१३ ] सुदंसणचरिउ तहुँ पसरेवि जलु पय घरे हिजे हि जे लीणउ दडेइ चुंबे व बालधरे आहउ करेण दूरुच्छले पीडिमाणु व महतिसाइँ " परिसंतु" णिएविणु तरुणि देहु काहि वि जलवुड्डहे उर णिरंभ" काहि विरमणे पि दिट्ठि दिण्ण 13 घत्ता —-काहि विथगवट्टे वंकु महकरिकुंभे गाव रमण से विभम करेई । तिवलिउ पिहंतु थणहरे चडेई । कामुयणरासु जलु अणुहरेइ । आसत्ति पुणु णं वरि पडेई । पुणु पुणु भमेइ णं चउदिसाइँ " । सुरचितहि पयभरु घण्णु एहु । सोहंति णाइँ जलि कुंभकुंभ | ण चलइ णं कद्दमि ढोरि खुण्ण" । तिक्खु णहु लग्गड | अंकुसु भग्ग ||१७|| १८ सुङद्धपत्तं दियकंतिकेसरं सुगंधजीहामयरंदभासुरं । भमंतणेत्तालि सुमित्तबोहियं मुहारविंदं तहिँ ताहि सोहियं ॥ वंसत्थ ॥ कवि वरकमलमधुमिलियम हुयर उलं । तर कवि तरुणि अइतरल सहरि व जलं ॥ कहिँ विवि अरुणकरचरण किये पडए । भरण' मिलिवि तहिं णलिणमण णिवडए । घुसिणरसरसियथणकलस क वि दरिसए । पण परसह पिययमहो मणु हरिसए । कहिँ वि अणुरिविपि पियहिँ मुहपरिमलं । हरिसवसु खिवइ दसदिसिहि कर सयदलं ॥ णवर सिरचिहुरभरु दिढवि पुणु अविरलं । करहिं जलु करिवि स वि भरइ तहो उरयलं ।। कहिं विरहसेहि उच्छवि को वि अणिमिसं । ७१ ५ १० १७. ५ ख करेवि । ६ ख पुरा । ७ ख दडेवि । ८ ख तिवलिउ पिय तुह थणहरि चडेवि । ६ ख चडेइ । १० ग घ सहि । ११- क संतु । १२ क जल बुंदुहि उरु । १३ ख रमणइ पिय दिट्ठि रतः ग घ रमणए पिय दिट्ठिपत्त । १८. १ क किल । २ ग घ गुण । ३ जलिविस विकुवि । १४ ग घ खुत्त । घ विसु । ४ ख ग घ हिरसहि I ५ १० Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जयणदिविरइयउ [७. १८. १४पियइ पियअहरु महुयरु व कमलिणिरसं॥ कहिँ मि क वि रमणि तहिँ लहिवि पियफरिसणं । बहलहुयपुलय परिहरइ मणे रणरणं ॥ कहिँ मि मणिकडय तणुघडण णिवडिय जले। सहहिँ पडिफुरिय ससहररवि व णयले ॥ ॥ छंदु दिणमणि इमो॥ घत्ता-जलकील करेवि सरवराउ णिग्गउ जणु । तो तरुणिहिँ जुत्तु अभय पसाहइ णियतणु ॥ १८ ॥ १६. णिडालएसे लिहिओ विचित्तओ दुरेहु जाईकलियान सत्तओ। कवोलवटे मयणाहिवल्लिया विलेहिया चूयसुमंजरिल्लिया ॥ सत्थ ॥ तेयवंत किय कण्णहिँ कुंडल राहुभएण चंदरविमंडल । णं सरणy पइट्ठ मिगणयणहे णहमणिकिरणुज्जोइयगयणहे ॥ सिहिणहँ उवरि हारु परिघोलइ णहगंगापवाहु णं लोलइ। अह णं कामपासु भावालउ अह णं महुसिरीहिँ हिंदोलउ ॥ थड्ढहं पुरउ लुठंतु णवंतु वि मज्भासण लहइ गुणवंतु वि। मेहलान जं हुयवहु सेविउ तेणं तहिं णियंबु संपाविउ ॥ रणझणंतु हंसउलइँ तोसइ मंजीरयहँ जुयलु णं घोसइ । कुंकुमलित्तु चलणजुयलुल्लउ मइँ दुलहउ वि लधु णिरु भल्लउ॥ १० घत्ता-अहा सेणियराय किं बहुणा मोहियसुरे । सयलु वि संतुहु जणं गउ णयणंदिउ पुरे ॥ १९ ॥ एत्थ सुदंसणचरिए पंचणमोकारफलपयासयरे माणिकणंदितइविजसीसणयणंदिणा रइए सुदंसणविलासया कविलबभणीछम्मणं वसंतसमयागमे जिह पइण-संबंधयं वणम्मि जलकीलणं अभयादेवितणुभूसणं इमाण कयवण्णणो भणिो संधि फुड सत्तमो"। संधि ॥७॥ १८. ५ क रइगणं। १६ १ ग घ कलियापसत्तो । २ घ थट्टह। ३ ख मज्झाउं वि। ४ कलिल्लु; ख लीड। ५ ग घ दुलधु लद्धउ। ६ ख जगु । ७ क पुरवरे । ८ ख छम्म । ९ ख पयज। १० क समत्तो । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ८ कोमलपयं उदारं छंदाणुवरं गहीरमत्थड्ढं । हियइच्छियसोहग्गं कस्स कलत्तं व इह' कव्वं ॥ आसि सुदंसणचरियं सरसइश पगोवियं कइंदाणं । होसइ णयणाणंदो णयणंदि रइस्सए जम्हा ॥ *अभयादेवि सलक्खणिया जहिँ दीसइ तहिँ जि पियारी। सालंकारी कंतिजुय णावइ कह सुकइहि केरी ॥ध्रुवक। मरुद्धया धयावडीय धुव्विरं पवालइंदणीलजालकव्वुरं । सुतारहारकुंदचंदपंडुरं विचित्तथंभहेमभित्तिभासुरं। सुधूमगंधलुद्धवंतभामर अणेयकोउहल्लमोहियामरं । गवक्खमत्तवारणेहिँ राइयं रणंतकिंकिणीवियाणछाइवें। णिबद्धणिद्धमोत्तिऊहदामयं विसालहंसतूलतूलिकामयं । पढंतकीरसारियामणोहरं मणिप्पहाट भूरिभाणुभाहरं। अणेयभेयपुप्फयंधसुंदर सवढिमामहप्पजित्तमंदर"। पराइया कमेण तं णिकेयणं वसंतचञ्चरं हि छंदयं इणं । घत्ता-छुवन्जिय सिढिलंग हुय तह णचित्त विच्छाइय । जुण्णदेवकुलिया सरिस अभया पंडियन पलोइय ॥१॥ १० ...२-- अवलोइवि सुगुणविराइयए' किं पुत्तिय सयणे पडिवि थिय पुच्छिज्जइ पंडित धाइयए । किं दीसहि उम्मणि दुम्मणिय । १. १ क च इह घ हवइ । २ क में यह पद्य नहीं है। ३ ग घ सलोणिय । ४ ख जहिं जहिं । ५ क ख भासुरं। ६ ख मोहिभामरं । ७ ग घ विमाणछाइयं । ८ क मोत्तियाहं । १ ख हंसतूलिकाय रामयं ग घ हंसतूलिरूवकामयं । १० क भासुरं । ११ घमंदिरं। १२ क छुड्डु लज्जिय। १३ तहवण चितु। १४ क कलिया। २. १ ग घ सगुण। २ ग घ उम्मण । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणदिविरइयउ [८. २. ३मही वेयण एइ तहा घणिय तं णिसुणेवि भणइ णरिंदपिय। 'तुम्हइँ अमुणिउ णउ किं पि जहिं अक्खमि पंडिश हउँ काइँ तहि । तो भणइ विउसि किं रहहि महुँ ण मुणेमि किं पि लई कहहि तुहुँ। ५ अह भणइ अभय णउ तुह रहमि पंडित सुगुं अंतरंगु कहमि । जइ पावमि सुहदसणहा रइ सो मयणु ण पीडा महु करइ । अह जइ ण तासु सुहयही मिलिय तो मार ण जीवमिाणित्तुलिय । ता चविउ बुहिम मइवतियए करयलहिँ कण्ण झंपत्तियए। पुत्तिय जं पइं उग्गीरियर बलि किउ तं श्रुत्थुक्कारियउ। मरिसइ सो जो पइँ णड सहइ तुहुँ जीवहि-ताम जाम पुहइ । [पद्धडियामाम छंदो] घत्ता-सो पुणु पंणिवरु बुहत्तिलउ जिणवरकमकमलहँ भत्तउ । पंचाणुव्ययपमुह सुहँसावयवय धरइ णिरुन्तउ ॥२॥ जो सम्मत्तरयणपरिमंडिउ लच्छिश पणयणीय अवरुडिउ । अयसयम्मु जो दूरे वजइ सो किम परहा णारि पडिवजई। एक्के हत्थं तालुं किं वजइ किं मरेवि पंचमु गाइजइ। किजइ अणुरइ तहो जो मण्णइ जो पुणु अणुणियंतु अवगण्णइ । होउ सुवण्णेण वि ते पुज्जइ कण्णजुयलु जसु संगे छिज्ज । दोदिसेहिं रत्तउ सुमणोरम गणमि णेहु पिंचुर्यपिंछोवम् । एक्कदिसाय सुट्ठ अहिरामे सिहिपिंछोवमेण किं पेम्मे १० ॥ कहिँ तुहुँ कहिँ सो ' कहिँ अवरुंडहि दूरट्ठियहाँ णेहु लहु छंडहि । घत्ता- इय णिसुणेविणु तहे वयणु अभयामहएवि पवुच्चइ । एन्तहे तुहु सिक्खावयणु उत्तहे वि सुदंसणु रुच्चइ ॥३॥ १० २. ३ ख तहिं जि थिय। ४ ग घ 'अभयामहएवि सराउलिय' यह पाठ अधिक है। ५ ग घ तुम्हहं अमुणियउ ण किं । ६ ख लहु। ७ ख सुणि। ८ क ख पंचाणुव्वयमुद्धरहि । ३. १ ग घ अयसमग्गु । २ ख परिवज्जइ। ३ ख ताल। ४ ख किं णरेण । ५ ख अणुणवंतु। ६ क हिज्जइ ग घ दिज्जइ। ७ क बेहिसेहि ग दोहि सेहिं । ८ ख पिंडये । ६ ख सुह अहिरामो १ ख पेमो। ११ ख कहिं सो कहि तुहं । १२ खइ। १३ क लइ। १४ क एत्तउ ख एतहिं । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.५.२] सुदंसणचरित ७५ गाथाष्टकं अब्बो जेणोवाएँ' सूहयो एइ तेण आणेहि। धरि धरिणिण णिवडती विरहमारि किं णिहुरा होहि ॥१॥ ता धीरत्तं बुद्धी माणो लज्जा भओ सुमज्जाय । विहिलंघलतणुकरणो मयणो ण वियंभए जाम ॥२।। (पथ्या) विरयइ डाझे असणेण जसु दंसणेण पासेओ। तस्सोवरि' सुविरत्ती माए इह कस्स णिव्यहई ।।३।। (परपथ्या) कोमलबाहुलयालिंगणेण तं सोक्खं जइ वि णउ हवइ इह तो वि सुवल्लहदसणेण किं किं ण पजत्तं ॥४॥ (विपुला) सो को बिहोइ पिययमु जेण विणा रइ ण कहि वि पडिहाई। जिह जिहं संबोहिजइ तिह तिह" ण विरुञ्चए" हिययं ॥५॥ (पथ्या) जेणायण्णियमित्तेण मा हिययम्मि होइ संतोसो। तेण समासंबंध को जागइ केत्तियं सोक्खं ॥६। (परपथ्या) अमिलताण वि दीसइ णेहो दूरे वि संठियाणं पि। जइ वि हु रवि गयणयले इह तह वि हु लहइ सुहु णलिणी ॥७॥ (पथ्या) अभयावयणं णिसुणेवि पंडिया भणइ पुत्ति जं किं पि । कीरइ कन्न' परिभाविऊणतं सव्वं सुंदर हाई" ।।८॥ (विपुला) घत्ता-दीहु सुहावहु चिंतियः अञ्चग्गलु ण बोलिज्जइ। पच्छुत्तावःजं जगई तं किं पि कन्जु णऊ किजह ॥४॥ जाइकुलुब्भवाह मुफत्तिहः एक्कु जि कंतु होइ कुलत्तिहे। देवहिँ बंभणेहिँ जो दिण्णउ धणविहीणु बहुरोयकिलिण्णउ । ४. १ जेणोवएण; ग जेणेवारण । २ ख प्रारमेकिः। ३ क धरि धरणि वडंती। ४ क ख विहिलंत्रण ।। ५ ख वह सोवरि। ६ ख णिध्वडइ; ग घ वियडइ। ७ क इह णयणवल्लहदंससेश के कं। ८ क पडिहासे18 ख जहं जहं। १० ख तहं तहं । ११ क विरचए।-१२ क माइ; ख माय । १३ क मीलेता ण। १४ क लज्ज । १५ ख ग घ ते सुंदर होइ। १६ क दिष्ट ठु। १७ ख चित्तियइ। १८ ख बोलु ण । १९ क जं जइ। ५. १ ख कुलभवेहि। २ ख जं। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ - णयणदिविरइयउ [८. ५. ३पंगु कुंटु दुब्बलु दुग्गंधउ कूरचित्तु खासणु बहिरंधउ। सो मुएवि इयर्स वि सिरिरिद्धउ जइ वि सुरिंदु अह व मयरद्धउ । तो वि महासईट वज्जिव्वउ' भउ दक्खिण्णु लोहु ण करिव्वउँ । ... ५ सेच्छ गेहकम्मे सुयपोसणे णाहसयणे तह देहविहूसणे। इय मेलेविणु अवरु णिसिद्धउ । तियहि सइच्छायरणु विरुद्धउ । अमियमहाएवी पररत्ती कोढिं सढिय' णरण संपत्ती । इयरउ को गणेइ पुणु णारिउ बहु अणस्थ बहु अवजसगारिउ । तुहुँ वि ताहँ पंथे मा गच्छहि सग्गु मुएवि णरउ कि वंछहि । १० अंगोवंग सहोच्छिय दावइ तं खजइ जं परिणइ पावइ ।। अण्णु मज्मु तं हासउ दिजइ घररिद्ध भिक्ख भमिजइ । तुज्झु कंतु तिहुवर्ण सुपसिद्धउ सहइ पयक्खु णाइँ" मयरद्धउ । [पारंदिय णाम पद्धडिया] घत्ता-अभयामहाएविए णवर विहसेप्पिणु एम पउत्तउ । जं पइँ जंपिउ हियवयणु"तं हउँ जाणमि मात्र णिरुत्तउ ॥५॥ १५ दोहाष्टकं जाणमि वणि गुणगणसहिउ परजुवईहिँ विरत्तु । पर महु अंबुले हियवडउ णउ चिंतेइ परत्तु ॥१॥ जाणमि हउँ उवहाणई किं तुहुँ चवहि बहुत्तु । अंबिट को ण वि पंडियउ परउवएस कहंतु ॥२॥ जाणमि इह कुलउत्तियहिँ एक्कु जि णियपइ जुत्तु । ५. ३ ग घ खीसणु। ४ ख अवरु। ५ क वज्जेवउ । ६ क करेवउ । ७ क सुपयासणे। ८ क मयणे। ६ ग घ तव । १० ख वरणु; ग घ चरणु। ११ क णिसढिय। १२ ख प्रवत्थ । १३ क ख पंथें आगच्छहि। १४ क इच्छहि । १५ ख सहोच्छा। १६ ख मझु हासउ दिज्जिज्जइ । घरि रंधिज्जइ; ग घ घर रखए । १७ क एयरहु णं। १८ ख विहसेविणु। १६ क ग घ तं जाणमि । ६. १ ग घ वणिवरु गुणसहिउ । २ ख पर मुहि अंबलि । ३ क इय । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ७.१०] सुदंसणचरिउ पर हउँ माइ किं करमि तहा उप्परि मणु खुत्त ॥३॥ जाणमि परपुरिसही उवरि णउ किज्जइ आसत्ति । कित्तिउ वुच्चइ पुणु वि पुणु अइदुल्लंघ भवित्ति ॥४॥ जाणमि कंतु वि महु तणउ मयरद्धउ व विहाइ । पर महु अब्बो लग्ग मणे णिरु सुहृदंसणवाइ ॥५॥ जाणमि पइँ मोहाउलश हिय-मिय-सिक्खा दिण्ण । पर मइँ उववणु जंतियश अज्जु जि किय सुपइण्ण ॥६॥ कविलय सहुँ बोल्लंतियण मइँ तहिँ एम पवुत्तु । जइ सुहदसणु णउ रममि तो हउँ मरमि णिरुत्तु ।।७।। इय णिसुणेविणु पंडियट तो वुत्तउ विहसेवि । खीलयकारणि देवउलु णउ जुत्तउँ णासेवि ॥८॥ घत्ता-रहसें सीलु परिचणवि जणणिंदु कज्जु णउ किन्जइ । वरसुवण्णकलसही उवरि ढंकणु किं खप्परु दिजइ ॥६॥ इयरहँ दिव्याहरणहँ पासिउ सीलु वि जुबइहे मंडणु भासिउ । हरिवि णीय जाकिर दहवयणे सीले सीय दड्ढ णउ जलणे । तह अणंतमइ सीलगुरुक्किय खगकिरायउवसग्गहँ चुकिय । . रोहिणि खरजलेण संभाविय सीलगुणेण णइट ण वहाइये। हरि-हलि चक्कवट्टि-जिणमायउ। अज वि तिहुयणम्मि विक्खायउ। एयउ सीलकमलसरहंसिउ फणिणरखयरामरहिं पसंसिउ । जणणिए छारपुंजु वरि जायउँणउ कुसीलु मयणेणुम्मायउ । सीलवंतु बुहयणे सलहिज्जइ सीलविवजिएण किं किजइ । पत्ता-इय जाणेविणु सीलु परिपालिज प्र मात्र महासइँ। _ णं तो लाहु णियंतिहे हले मूलछेउ तुह होसइ ॥७॥ ६. ४ ख मायए। ५ ख रत्तु । ६ ख कीय पयण्ण। ७ क जुत्त वि । ७. १ ख जुवई। २ ख किर जा। ३ ख सीय ण दड्ढिय जलणें । ४ ख हो। ५ विहाइय। ६ परिजायउ। ७ क ज्जए महासइ। ८ क णियंतियहि । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणनिविधायक [ ...-. सीलविहीणहँ जणि हाहारऊ होसइ तुझ कम्णकडुयार। सीलविहीणहे सिय जाएसइ सीलविहीणहं मरणु हवेसइ । इय सुणेवि अभयामहएविष्ट जंपिज्जइ रोसेण पलीविए। परउवएसु दिंतु बहुजाणउ सब्बु को वि सासुइज सयाण। किं बहुजंपिएण गरुयारउ जइ वि मज्झु होसइ हाहारउ । जइ दुल्लह संपइ जाएसइ जइ वि विसि महु मरणु हवेसइ । तइ वि कासु वयणे णउ छडमिः रइयपइजट अप्पउ मंडमि। तासु असंगर्म महु मणु जूरइ दुद्धसद्ध कि कंजिउ पूरइ। आणिज्जउँ सो सुहउ वियड्ड पार्यं दद वरि हियउ म दड्दउ । 'जइ पियसंगमु कहव ण किमाई तो फुडु मइँ अइरेण मरिन्नइ । (पारद्धिया णाम पद्धडिया छंदो)" घत्ता-पंडिय चिंतइ तं सुवि इय- गोहगाहु किर सुम्मइ । इत्थीगाहु तमु वि गरु जे१सयरायरु जगु दुम्मइ ।।। ण फिट्टइ पेयवणे इह गिद्ध ण फिट्टइ तुंबरणारयगेउ ण फिट्टइ दुजणे दुट्ठसहाउ ण फिट्टइ लोहु महाधणवते ण फिट्टइ जोव्वणइत मरठ ण फिट्टइ विझि महाकरिजूह ण फिट्टइ पाविहे पावकलंकु ण फिट्टइ आयहे जो असगाहु ण फिट्टइ पंकण भिंगु पइट्ठ। ण फिट्ट पंडियलोयविवेउ । ण फिट्टइ णिद्धणचित्त विसाउ। ण फिट्टइ मारणचित्तु कयते। ण फिट्टइ वल्लहे चित्तु चहु९। ण फिट्टइ सास सिद्धसमूहु। ण फिट्टए कामुयचिर्त झसक। सुछंदु वि मोत्तियदामउ एहु । ८. १ क जण। २ ग घ पलेविए। ३ ख सामुइय। ४ ख जइ वि मज्झ । ५ क मंडिमि। ६ क सुद्धि । ७ ख माणिज्जइ। ८ क माय । ९ क ग घ में यह चरण नहीं है। १० ख तइ। ११ क ग घ पारंदिय पद्धडिय भणिज्जइ । १२ ख वि तसु गरउ। १३. ग घ तें। ६.१ख पयंडु। २ क कमाई चित्ते सुहुन्छ । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... १९.८]. सुणचरि घन्ता – अहवा अं ज़िह जेण किर जिह अवसमेव होएवउ । - सं सिंह तेण जि देहिणं तिह एकगेण सहेबउ ।।९।। केत्ति वार वार चिंतेम‍ सुहाविपत्तिर्हि कवणु दो करेमि अब्भस्थिर आय जसु अणुजाइ एहिं होइज्जइ पुणु जंपियल तान हे सुंदरि आणमि जाम पि वणिसारउ. इय भवि पंडिय गय तेतहि भणिः रगि सत्त महु भल्ला ७ १० 'केत्ति बार बार भूरिज्मइ ।' जहि तेलोक्कु विसवसु भवितिहि । तणु लायण्णवण्णसुच्छायहे । तसु छंदेण णवर चल्लिज्जइ । धीरी होहि ताम' परमेसरि । अच्छउ ' उरे घुलंतु जिह हारण । थियइँ पयावइगेहइँ नेत्तहि । करवि देहि मट्टियाउला । घत्ता - अभयारागी जामणिहि मयणहो वउ सहलु करेसइ । तसु मापे दुलहु विहियइच्छिउ फलु पावेसइ ॥१०॥ ७१ विणा घडिया ३ ता ते चक्की से णिम्मविया परिहासह सत्तविणं हरिसियंग रमहिं सत्तविण रंगहि णं तसहि सत्तविणं करु करेण हणहिं सत्तविणं हे विष्णु मुणहिं सत्तविवणिआगमु जण हिं सत्त विणं अभय वरिस हिं ( पारंदियाणाम पद्धडिया ) ११ पंड पुर आणिवि ठविया' । सत्तविणं सग्गो सुर पडिया । सत्तविणं चलहिं वलहिं भमहिं । सत्तविणं काणेक्खहिँ हसहिं । सत्तवि विष्णइँ गुणहि । सत्तविणं उत्तमं घुमहिं । सत्तविणं तो गुणगणथुणहिं । सत्तविता मर रणहिं । ६. ३ कः घ देहएण । १९. १ क एउ प्रकज्जु तो वि किरकिन्न । २ ग घ साह । ३ घ अच्छइ । इच्छि ३ क रंगहि तसहि वसह । ४. के पियई ( टि० प्रियारिंग ) | ५ क घ सहउ । ११. १ क च । २ क ख प्राणेवि ठिया । ४ क जाण । ५ क वरेण सह । ७६ १० ५ १० Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणंदिविरहयउ [.. ११.९घत्ता-सत्त वि आणिय णियघरही पंडियन संक परिसेसिवि।। पच्छाइय क्त्येहि किह जिहँ गुणहिँ दोस णीसेस वि ॥११॥ १० तुहिक्किय थक्किय णियघरए संपत्त पडिवावासरए। पुत्तलउ एक्कु णिरु पहसियए...सहसा संचालिउ विउसियए। तो मंदमंद चल्लंतियए पुणु थामे थामे मेलतियए। संझागम-एम करंतियए तहिँ पढमदार संपत्तियए। कट्ठीहरम्मि आउच्छियए किं एउ ताम अरुणच्छियए । जंपिजन रोसु फुरतियएकिं एयश तुम्हहुँ तत्तियए । इय वयणहि रक्खवाल कुविय पंडियन समुहुँ भिडिग लविय । एक्कु जि अणपुच्छिवि पइसरहि अण्णु वि पुच्छिय कोवउ करहि । किं पि वि सकज्जु विरयंतियहे तुह काइँ हुयउँ पइसतियहे। जइ कि पि दोसु इह संभवइ तो अम्हहँ राणउ णिग्गहइ। घत्ता-पइसतिहिँ उप्परियणउ कड्ढिउ पडिहारिहि केहउ । । सयरहँ सुएहि समच्छरेहिँ गंगापवाहु चिरु जेहउ ॥१२॥ १३ फोडेवि वाउल्लओ डंभजुत्तायता भासियं एम' आरत्तणेत्तान। पुज्जा करेऊण वाउल्लए सज्ज देवी सगेहम्मि जग्गेसए अज्ज । तुम्हेहिँ भग्गो इमो कल्लि सव्वाण सीसं हणामेमि उव्वूढगव्वाण । बुद्धेण सिद्धेण वाएँ खगिंदेण खंदेण इंदेण देवाण विदेण। जखेण रक्खेण चंदेण सूरेण राएण-णाएण कालेण कूरेण । हीरेण थेरेण लंबोयरेणावि अत्थीह तुम्हाण रक्खा ण केणावि । १ ११. ६ ख जहि । १२. १ घ थक्किइ। २ ग घ कट्ठियहरम्मि। ३ क एयउ । ४ ग घ ताए। ५ ख सम्मुहुँ वि भिउडि। ६ क ख वि। ७ क तुम्ह का ई हुआ। ८ क पडिहारहिं। १३. ख एव। २ क करे जेहिं । ३ क इंदेण देवाण विदेण जखेण; स ईदें परिदेण देवाण विदेण। ४ क रक्षेण चंदेण सूरेण गाहेण । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ ८. १५. ५] सुदसणचरिउ एवं सुणेऊण चित्तम्मि भीएहिँ णावंतसीसेहिता भासियं तेहिँ। अम्हाण णो एरिसं कारिउँ जुत्तु छंदो वि कामावयारो इमो वुत्तु । घत्ता-किं बहुणा वायावित्थरण वाउल्लउ तुहुँ आणेजसु । अण्णवार अंगुलिय जइ दरिसावमि तो रूसेज्जसु ॥१३॥ ५ इय णिसुणेवि वयणु उवसंतिय भणइ एम पंडिय मइवंतिय । रायणित्ति' किं हउँ ण वियाणमि जणविरुद्ध जं गिव्हिवि आणमि। तुम्हहिँ एवमेव हउँ गंजिय का वि णिहीण दीण जिह लंजिय । मण्णाविय पुणो वि कयङभहिँ लुणेवि सीसु किं अक्खय छुब्भहिँ कियउ जइ वि तुम्हेहिँ अजुत्तउ एकवार मइँ खमिउ णिरुत्तउ । णियपहुचरणकमलअणुरत्तही दीहाउसु हवेहु हो पुत्तह।। अमिएँ तुम्ह सीसु सिंचिजउँ अणुदिणु णिवपसाउ संपजउँ । इय कमेण सत्त वि मणिसारइँ वसि कियाइँ पंडियन दुवार। एत्तहे वि कलिमलणिण्णासणु अटुमिदियहिँ सेहि सुहदसणु । मुणि णवेवि उववासु लएविणू सव्वारंभभाउ वजेविगुँ । घत्ता-चलिउ मसाणहा सुद्धमणु उटुंतही वत्थु विलग्गउ । ___णाइँ णिवारइ पुणु वि "पुणु ण वि तुहुँ उवसग्गही जोग्गउँ ॥१४॥ १५ कहिँ चल्लिओसि' णीसरिय वाय तह छिक्क जाय । पक्खलिय अवरु णिजियतमाल' सिरे छुट्ट वाल । पच्छइ चेलंचलु रोसमाणु कद्वेइ साणु। हुउ दाहिणु खरु पुणु एंतु दिड कोढिउ णिकिड्छ । छिंदंतु पंथु अग्गए सदप्पु गउ किण्हसप्पु । १३. ५ ख काउउं। ६ क दरिसावहुं; ग घ दरिसावह । । १४. १ ग घ रायणिवित्ति। २ क जगे। ३ क णं ; ग घ हउं। ४ ख कडिहिं; ग घ गयडंभहि। ५ क ख तुम्हहिं । ६ ख जइ । ७ ग घ एत्ताहें । ८ क प्पिणु। ६ क सव्वारंभुपाउ। १० खणं उत्तं उवसरगहि जोगउ ; ग घ णं तुहुँ । १५. १ ख चल्लिऊण। २ क घ °लु। ३ क ख पेच्छइ । ११ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ णयणंदिविरहयउ [८.१५. ६ आयउ सवडम्मुहु चलसहाउ दुग्गंधवाउ। थोवंतरे कंटयदुम णिछि करयरिउ रिछ । थिय वामिय कक्कडसरु करति सिर्व फेकरति । घत्ता-एयइँ तह अवरइँ जाम पहे अवसउणइँ पुणु पुणु पेक्खइ। अइसयणियमासत्तमणु सव्वई वणिंदु उप्पेक्खइ ॥१५॥ जंतु जंतु पत्तो मसाणए घुरुहुरंतसंभडियंसाणए। सडियपडियबहुदेहिजंगले घुग्घुवंतघूवडअमंगले। सिवपमुक्कफेक्कारभीसणे . किलिकिलंतवेयालणीसणे। पज्जलंतजालाहुयासणे साइणीससंकेयभासणे। पिसियलाहपरिभमियगिद्धएं मडयकेसपुंजयसमिद्धए। हुंकरंत जोइयवियंभणे मंतसत्तिपरविजथंभणे। विविहरुंडबहुमुंडमालिए सिरपरिक्खहिंडियकवालिए। तहि भरंतु णियमणे जिणेसरो थियउ काउसग्गें वणीसरो। (विलासिणी णाम छंदो) घत्ता-एत्यंतरे दाणवदलणु सूरु वि पहरहिँ अकमिउ । पायपसारु करंतउ वि भवियव्वहीं वसु अत्थमिउ ॥१६॥ १० मित्तविओएँ णलिणि महासइ कण्णिय चूडल्लउ ण पयासइ । अइसोएँ ललियंगइँ सिढिलइ अलिणयणउ पंकयमुहु मइलइ। तदुहेण दुहियाइँ व चक्कइँ इत्थियसंगु विवजिवि थक्कइँ । अज वि सो तहेव कमु चालई इय पडिवण्णउ विरलउ पालई। कुमुअसंड दुजणसमदरिसिअ मित्तविणासणेण में वियसिय । १५. ४ ख सिय। ५ ख गघ अवसवणई। ६ क सद्धई (टि० श्रद्धया )। १६. १ ख उठ्ठियउ ; ग मोवडिय; घ भुवडिय। २ क धुवडहिं अमंगले । ३ ख चीया हुयासणे। ४ ग घ साइणिय; ख भीसणे। ५ क ससियालहैं। ६ ख हिंडहिं। ७ ख तव। ८ ख दाणवणि द्दलणु । १७. १ क घ अइसोएण। २ क दुत्थिय । ३ क ग हि। ४ क ख "विणासेण वि। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. १६. ४] versa लोया या सुइहर सूरहो देहिँ जलंजलि णावइ णिसिवेल्लिए ह मंड छाइउ सुदंसणचरिउ धत्ता - तो सोहइ उग्गमिउ हे ससिअर विमलपहालउ । णावइ लोयहँ दरिसियर णहसिरिन फलिहकञ्चोलर्ड ' ॥१७॥ विष्फुरियर तह णक्खत्तणिय रु तहि ँ काले पहिट्ठउ' कामिणीउ क वि भणइ सहित गुणरयणखाणि ससवित्तिहिँ कवि ईसा करे ई मंडीँ पिउरूसेवि जंतु पिउ हरिसिङ आलिंगणहँ जाइ परिरंभवि पुणु पुणु कवि घणेहि कासु विमाणिणिमुहे दिट्ठि जाइ संभावं दणकज्जें दियवर । पर अत्थमिउ णतं फुडु पावइ । जलहरमा णाइँ विराइउ । ( पारंदिया णाम पद्धडिया ) कहिँ विचारु सिंगारु करेपिणु' कहिँ वि वेस वल्लह अवमाणइ कवि सुरउरमेव संतुट्ठउ कहिं ́ वि दासि विडभडहो विलग्गइ १८ पायडि ताणं पुप्फपयरु । भूइँ लिंति थोरत्थणीउ । मण्णाविवि वल्लहु कत्ति आणि । पिउ कड्ढेवि केसग्ग ँ धरेई । हारेण निबंध का विकंतु । खेड्डे का विल्हिकेवि थाइ । पेल्लइ वच्छत्थले पिउ थणेहि । arise छप्पयति णाइँ । ( रयडा णाम पद्धडिया ) - घत्ता – पिउ अण्णहिँ आसत्तमणु पेच्छेवि क वि जूरई दूव । रे हि दुट्ठ हयास खल हउँ पइँ ण काइँ किय सुहव || १८ || १६ रति विड वेस णिएप्पिणु' पंगुलो वि धणवंत माणइ । कूड दम्मु देवि विडु उ । कच्छहिँ धरेवि भाडि पुणु मग्गइ । १७. ५ क सिरिहरः ख सुरहर । ६ क ख देइ । ७ घमंडलु । ८ ग घ कचोलउ । १८. १ खाई । २ ख पहिट्टिउ । ३ ख मण्णाववि । ४ ख करेवि । ५ ख पिउ प्रच्छिवि केसग्गहें करेवि । ६ ख छिद्देण । ७ ख वच्छत्थलु । ८ घ झरइ । १६ १। ८३ १० ५ १० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणदिविरइयउ [८. १६.५कहिँ वि वेस सुंदर सव्वंगही चड्यम्महिँ मणु हरइ भुयंगहो। ५ कमसँ अद्धरत्तु गउ जामहिं मंदपयाउ चंदु हुउ तामहि । हा वणिंदु उवसग्गु सहेसइ को तं सुयणविहुरु पेक्खेसइ। णं इय चिंतिऊण अत्थमियउ अलिउलगवलवण्णु तमु भमियउ । घत्ता-णं विहिणा जगअंबरही वोलेवए' किउ णीलरखें। अहवा णं अभयहिँ तणउ दोसइ पवियंभिउ अवजसु ॥१६॥ १० २० तिमिरं णियच्छेवि पंडिय गया तत्थ थिउ झाणजोएण सेट्ठीसरो जत्थ । पणवंति जपेइ लग्गी पयग्गम्मि जइ अस्थि जीवे दया तुम्ह धम्मम्मि। अणुरायवंतीहि विदाणगत्तीह' करि जीवरक्खा तुमं रायपत्तीहै । विरहाहिदट्ठीहे हे सामि किं तेण णहि होइ जीवास मेलावमतेण । म चिराहि ए एहि उम्मीलणेत्ताइँ लहु गंपि आलिंगि सोमालगत्ताइँ। भणु कस्स तुट्ठो जिणो देसि ठाणसं लइ अन्ज जायं फलं तुझ माणस्स । तुहुँ माणिणीचित्तअंभोरुहे मित्तु सारीयणामेण छंदो इमो वुत्तु । घत्ता-पणयसहिय कंटइयतणु सा रायहंसवरभामिणी । . रेहइ अभयदेवि सगुण सकमल सुवत्त णं पोमिणी ।।२०।। ५ णिब्भूसण वि सुहृ उन्भासइ भूसिय तिहुयणं पि सविसेसइ। अच्छराउ किर सुरणर मोहहिँ तहे' पयबद्धिओ वि णउ सोहहिँ । सत्तसराल वीण जइ वायइ तो मुणिहिँ वि मयणज्जर लायइ । रूविं दिणयरो वि जा थंभइ तेहिय पुण्णहिँ विणु किम लब्भइ । सा वि तुझ आगमणु णियच्छइ एहि एहि उम्माहिय अच्छइ। तो वि ण किं पि तासु मणु भिजइ किं गईश सायरु खोहिन्जइ। १६. २ क सुयणु विहुरु। ३ ख गउलवण्णु। ४ क विल एव। ५ ख घ. णीलि। २०. १ ख विदाणणंतीह। २ क विरहेहिं । ३ ख मित्तेण। ४ क गवि रवि। ५ ग घ 'ताए। ६ ख देउ सिद्धस्थ । ७ ख तुमं । ८ ख सरीयेण णामेण । २१. १ क तहि ख तहो। २ ख सराउल। ३ ख मुणीहि मयणहं जरु । ४ ख कहिं । ५ क तुम्ह। ६ ख तासु कि पि । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. २३. ३] सुदंसणचरित पंडिया तेत्थही आवेप्पिणु कहिउ जाम वित्तंतु णवेप्पिणु । ताम अभयं भयवजिय जंपइ अवरु उवाउ णत्थि इह संपइ । पुणु वि जाहि जइ कह व ण आवइ उच्चाएवि आणि महु भावइ । पुरुसायत्तु ताम परिकीरइ दइवायत्तु होतु को वारइ । अवसु वि वसि किजइ जं रुच्चइ विसभएण किं फणिमणि मुञ्चइ । पत्ता-किं तुहुँ आसंका करहि इह जो खाइहइ करंबउँ । माइश विणडेजंतु जणे सो सइँ सहसेइ विलंबउं ॥२१॥ २२ तो तान गपि झपियणयणु लहु लइयउ उच्चाइवि मयणु। आवंतिण केण वि पुच्छियए दिजइ पडिउत्तरु दच्छियएं। णिवबिंबही अइअणुरायजुया वाउल्लउ जग्गेसई अभया। सो भग्गउ एवहि अण्णु मइं आणिउ हे गंदण गंपि सई। अण्णेण वि पुच्छिय भत्तियए सो णिरसिउ किं इय तत्तियए। अण्णेण वुत्तु कहि मात्र महुँ कहिं एह वेला गइय तुहुँ । किं कहिएँ महु पहे छोत्ति हुआ हुं हुं ओसरु सरु दूर सुआ। इम दिति पडुतरु पत्त तहिं पउलीदुवारपडिहार जहिं । घत्ता-पुणु सत्तइँ दारंतर पइसरइ विउसि भयरहिया । णिञ्चलंग पडिहार थिय णं केण वि भित्तिहिँ लिहिया ॥२२॥ १० २३ लोयचित्तमोयणं तं विसेवि' केयणं । पंडियान पंडिओ तूलिपंके छंडिओ। रायसेट्टिणंदणो सज्जणाहिणंदणो। २१. ७ ख णिएप्पिणु । ८ ख ता प्रभया । ६ ख खाइ करंबउ । १० ख माइ विडिउ जं ति जणि । २२. १ ख झंपियउ णयणु। २ खयाई। ३ क णिवविदहो । ४ ख लग्गेस।। ५ ख कि माइ महो। ६ ख एयई। ७ ग घ पत्ति । ८ ग घ पउलीदुवारु पडिहारु। ६ ग घ सत्तहिं दारंतरहिं । १० ख सा भयरहिया ग घ विउसिन भयौं । २३. १ ख विसेइ। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणंदिविरहयउ [८. २३.४देवसाहुवंदणो बूढधम्मसंदणो। धीरिमाए मंदरो रिद्धिए पुरंदरो। दित्तिए दिणेसरो बुद्धिए जिणेसरो। भावणाए णिडिओ काउसग्गसंठिओ। सूहओ अरूसणो चिंतए सुदंसणो। किं करेमि तं पियं जं बुही जंपियं । हा बुहाण णिदिरं चिंतियं असुंदरं। जो ण कामखंडिओ सो सलग्घु पंडिओ। उहियाणिरुत्तओं एस छंदु वुत्तओ। घत्ता-सप्पुरिसही माणसु गहिरु विहुरे विण जायइ कायरु । किं सुरमहणारंभ हुए मजाय पमेल्लई सायरु ।।२३।। रे णिहीण दीण जीव पाउ आसवेइ एहिँ । अप्पमाणमजवाणमासखाणकारणेहिँ॥ णाणवंतसंतदंतदेवसाहुणिंदणेहि । संकिलिट्ठदुट्ठचिट्ठकूरदेववंदणेहिँ ॥ कालकूडमिस्सिएहि दिण्णअण्णभोयणेहि। वत्थुवत्थइत्थिअत्थइट्टणट्ठसोयणेहिँ ॥ कूडसाचिकूडमाणकूडदव्वदावणेहि । कामकोहलोहमोहमाणडभभावणेहिँ ॥ खीरणीरसप्पितेल्लसस्सधूलिमीसणेहिँ । एवमेव जत्थ तत्थं हासरोसखीसणेहि ॥ राजवेरचोरजारथीकहाणुचालणेहि। देसरटुगामसीमदुग्गसेलजालणेहिँ ॥ थूलसण्हपाणभूयजीवसत्तदारणेहिँ । २३. २ क भावणा मणिटिमो। ३ क णिदियं । ४ क तुरिहया । ५ ख विहुरेण। ६ क मेल्लए ख ण मेल्लइ। २४. १ ग घ कूडसिक्ख । २ ख भासणेहि । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. २५. १७] सुदंसणचरिउ लोलचक्खुसोयघाणजीहफासपेरणेहिँ ॥ एम चिंतिऊण लेइ सुप्पइण्ण सो वणिंदु। वुत्तु अद्धजाइया य एस चित्तु णाम छंदु ॥ घत्ता-जई कहमवि उव्वरिउ हउँ जमकरणही एहट अवसर। तो लेसमि जिणभासियउ तउ कल्ले संहुए वासरं ॥२४॥ २५ इय जाम वयपुण्ण थिउ लेई सुपइण्ण। पिच्छेवि सहसत्ति चिंतेइ णिवपत्ति। पच्चक्खु श्हु मारु परिचत्तसिंगारु। जइ तणु पसाहेइ तो जगु वि मोहेइ। विरहग्गिसंतत्तु केत्तडउ महु चित्तु । पुणु भणइ सच्छेहि णिम्मीलिअच्छेहिँ। झाएहि किं णाह उत्तत्तकणयाह। मुहजित्तमयवाह तियचित्तमयवाह भो सुहय इह जम्म णिपवित्ति' जिणधर्म। करिऊण आयासु पाविहसि सुरवासु किं तेण सोक्खेण जं होइ दुक्खेण । लइ ताम पच्चक्खु तुहुँ माणि रइसुक्खु। मा होहि अवियारु संसार तं सारु। भुंजियइ जं मिट्ठ म्राणियइ समणिहु। परजम्मु किं दिङ कउलागमे सिटु । जाणेहि फुडु मार लाएहि किं वार। लीलाट पय दिति गय चारु पयपंति। २४. ३ ख पट्ठि जाइ जाप्पएसुः ग घ अट्ठि जाइया पएस। ४ क कइ । ५ ख ग घ कल्लाणई हुय वासरे। २५. १ घ लेवि। २ क ग घ जि। ३ ख विरहम्मि। ४ ग घ इय । ५ ग घ णयचित्त। ६ क माणिरं सोक्खु । ७ खणं। ८ ख । । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणदिविरइयउ [८. २५. १८घत्ता-हे सुंदर अम्हहिँ दुहिँ वि जईहें कालु गमिज्जइ। तो सग्गेण मणोरहण लगुण वि भणु किं किज्जइ ॥२५॥ २६ सुहय जइ इच्छसे' संखकुंदेंदुणीहारहाराभहीरंगगंगातरंगावलीपंडुर। पढमबितिचारपंचछसत्तट्ठअण्णण्ण-माणिक्कभूमिहि भाभासियासेसदिग्गंतर ॥ विविहकुसुमोहकिंजक्कसंमिस्सकथूरिकप्पूरकस्सीरयामोयधावंतइंदिदिरं। चलियतियपायमंजीरझकारसदेण उम्मत्तणच्चतमोरेहिँ उम्भासियं मंदिरं ॥ (चंडवालुं त्ति णामेण दंडो इमो) जइ इच्छहि बालउ अलिणिहबालउ कुवलयसामलिउ । मयरद्धयलोलिउँ भुंभुरभोलिउ किसलयकोमलिउ ॥ थणभारक्कंतिउ जियससिकंतिउ कुलिसकिसोयरिउ। . ओलंबियहारउ जणमणहारउ रइहे सहोयरिउ ॥ (भ्रमरपदों णाम छंदो) वरराउलं उब्भियविविहछत्तसिरिग्गिरिधयवडेहिँ समाउल । जणपेसलं जइ इच्छहि वणिंद णिच्चुच्छवेहिँ रइयमंगल" ॥ (मुखंगलीलक्खखंडकं) जइ इच्छसि मणोजे चंचला हया णिज्झरवंत उत्तुंग सइलोवम गया। कंचणमणिमऊहचिंधइये रहवरा सेवागय असेस पणवंति किंकरा ॥ (आवली छंदो) घत्ता-ता मइँ अणुहुंजहि सुहय इह होहि महियले राणउ । मा सञ्चिलउ करेहि तुहुँ तं "संखिणिहिकहाणउ ॥२६॥ २५. ६ ख मि; ग घ दुहिं जइ । २६. १ ख इच्छसि। २ ग घ हारब्भगंगा। ३ ख पंडरं । ४ क भाभासुरं असेस दिग्गंतर ख तामासिरं देसदिग्गंतरं । ५ ख चंदयलो णामो। ६ क ख इच्छइ। ७ प्रतिषु 'भोलिउ'। ८ ख भ्रमरपट्टा। ९ क ख सिग्गिरि । १० ख रामाउलं; ग घ रमाउलं। ११ घ णिच्चुच्छविरइय। १२ ख मुखंगलीलवलाखंडकं । १३ घ समणोज्ज । १४ घ तुंग। १५ क मणिहि चिचइय। १६ ख कउंडी। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. २८. ११] सुदंसणचरिउ २७ हे सुहय किं ण सुउ पई कहिमि विक्खाउ परयारअहिगमणु देवहँ वि संजाउ । गोरीहि विवरोक्खें मयणग्गिसंतत्तु हरु गंग रमिउण केलासि संपत्तु । गोवीहिँ लोणियहिँ दणुआरि संरत्तु गउ णिसिहि संकेउ हरि सुरउ अणुहुत्तु । को कर तिलोत्तिमहे विरहम्मि रिछि वि ण परिहरिय अणुहविय रणम्मि । सूरेण अहिंगमिय कोंती, उप्पण्णु सुउ भुवर्ण सुपसिद्ध णामेण जो कण्णु। ५ पिय रमिय पिच्छेवि सिरिविस्समित्तेण सकलंकु किउ चंदु मयइण्हघाएण। आहल्लसरयम्मि गोयमिणे पञ्चक्खु हरिणियवि सहसभउ किउ पुणु वि सहसक्छ । मइँ माणि इय सयलु जाणेवि वित्तंतु मयणावयारो इमो छंदु णिभंतु । घत्त-इय अवर वि दिटुंतसय" देविणु मरालगइगामिणि । बहुविहभंगिहिँ पुणु वि पुणु खब्भालइ वणिवरु कामिणि ।।२७॥ १० २८ जणमणहरण वरआहरण। विविहइँ लेविणु णियडश एविणु। भउँहउँ वंकइ अहरु वि डंकइ। पीवर घणघण उग्घाडइ थण । तक्खणे गोवइ णाहि पलोवइ। णीवीबंधणु सिढिलइ पुणु पुणु। कोतल छोडई अंगई मोडइ। कक्खउ दावइ मुहु वियसावइ । पायहँ लागइ पुणु आलिंगइ। दरणहघट्टणु अहरसुचट्टणु। समणिउ मम्मणु करइ सुचुंबणु। २५. १ ख पई सुप्रो। २ ख देवहिं । ३ ख विवरोपि। ४ ग घ लोणस्सहे। ५ ख हुयरत्तु ग घ हुउ रत्तु । ६ ख कुतियहि । ७ क मयप्रद्धघाएणः ख मयइण्ण विघएण; ग घ अइमयणघाएण। ८ ख पाहिल्ल। ६ क गोयम्मिः ख गोमियण । १० ग घ वि छंदो इमो वुत्तु । ११ क सयइं; ग घ सई। १२ ख विक्खभालइ । २८. १ क झाडइ। २ क वट्टणु। ३ ख सहरसुवट्टणुः ग घ सरहसुवट्टणु । ४ख सयणिउ। १२ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to इ अवराह" वि जइ विखवालि दासी संगयान fog धट्ठ पिसुणावतार वड जं मज्भु आसु किं देवथाणु पुजि तंबु छंदु वित्तउ घन्ता - अभया तो वि ण ओसरइ बहुविह उवाय चिंतंती । कलासह सुरसिंधु जिह थिय पासे पासु भमंती ||२८|| २९ द किं भइरवम्मि भग घणघणे लंघेवि गहणु कुरुखे पावहि हयास दुइसयदलम्मि यदिविरइयउ ६ क विय चालिउ । व सुरसंघु । ६ २८. ५ ख श्रवरेहि । ८को खट्ठइ हुउ । २६. १ ख दुप्पटू । ५ कतहुँ । ६ ख घरेवि ग घ घरेहि । ८ क ग घ णिवडेइ । ६ क लग्गइ । बहुभंगीहि वि। तइ विण चालिउँ । णं कट्टीहुओं । म निरुत्तर । २ क ग घ ता । - दोच्छिउ तान । सिढिलाहरोह । रे रे किराड कहिँ 3 उपणु । बहि सतो | भाणु भाणु । अहरबिंबु । हिरइ जि रहि । विडिय तम्मि । रसुवा । लग्गहिं हि । वरविण्डुधम् । किं किउ समहणु" । १० [ ८.२८.१२ सह । रे वणियदास । कणखलम्मि | ७ क ग घ पचलिउ । ३ क किरिराड । ४. क ख एवडउ । ७ ख हि पक्खरेवि; ग घ गहिरए मरेहि । १० ख ग घ सगहणु । १५ ५ १० १५ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदंसणचरित ८. ३१.२] किं पियरपिंडु पाडिउ अखंडु । णिवचित्तदमणि पिहु लडहरमणि । जं आरुहेहि कहिँ तुहुँ लहेहि। कि पइँ रवण्णु तउ घोरु चिण्णु। जें लुलियहारु उरु हणहि चारु। एयहाँ वि उवरि किं भणमि णवरि। मुहु अप्पणो वि मुत्तेवि जोवि। छंदु वि मुणेह फुडु चंदलेह। घत्ता-सामें भेएँ तुहुँ" भणिउ दोच्छिउ वि णकिं पि वि बोल्लहि। णियमणि णिरु असगाहु किउ जो सल्लई" अज वि मेलहि ।।२६॥ २५ अज्ज वि हउँ अच्छमि साणुराय जम्मे वि ण मेल्लमि तुज्झ पाय । अज वि अणुहुंजहि विसयसुक्खु भणु केण णिहालिओ गंपि मोक्खु । अहवा अवहेरहि कहव अज्जु लइ कल्लन सिज्झउ तुझ' कज्जु । जइ एत्तिय ताया तुह ण देमि. जइ पइँ सगोत्तु ण खयहु णेमि । तो अभयणामु ण वहमि वराय हउँ पग्गि व पइवयसेवि जाय । अह तुझु जइ वि दावमि ण णासु तो पेच्छेतही सवलही जणासु। ओलंबिवि अप्पाणउँ मरेमि किं बहुणा तियढदृसु करेमि । (रयडा णाम पद्धडिया) घत्ता-पुणु पुणु एम भणेवि णिरु णिवडिय णियसयणि सुहाविणि । णं णाइणि णिप्फंद थिय रेहइ णरणाहही भामिणी ॥३०॥ तो सुहदसणु चिंतइ सकज्जु सुहदसणु चिंतइ जलउ णारि अभया चिंतइ ण रमिउ' मणोज्जु । अभया चिंतइ महु हुउ सुहारि। २९. ११ क भो जं मारहहि । १२ क जि लहहि। १३ ख कं । १४ ख सामि भेई मई तुहुँ । १५ ख सो पिरु । ३०-१-ख तुज् । २ क तापं। ३ क णहु । ४ ख वहउं । ५ ख पइवय सरिवि ग घ पइवइ सरिवि । ६ क जइ वि विमलु सुजसु (टि० शीलयशः)। ७ क मरेवि। ८ ग घ मणे । १ ख सयणयने । ३१. १ ख रमिय। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ सुहृदंसणु चिंतइ उव्वरेमि सुहृदंसणु चिंतइ कम्मणासु सुहदंसणु चिंतणाणला हु सुहृदंसणु चिंतइ मोक्खमग्गु सुहृदंसणु चिंतइ खवमि कम्मु सुहृदंसणु चिंतइ जगु अणिच्चु दिविरइय अभया चिंतइ सुंदरु धरेमि । अभया चिंतइ सुरयाहिलासु । अभया चिंतइ हुउ अंगे डाहु । अभया चितइ भुंजिउ ण भोग्गु । अभया चितइ मइँ किउ अहम्मु । अभया चिंतइ महु पत्तुमिच्चु । सुलह पायाल णायणाहु सुलह उ णवजलहरे जलपवाहु सुलह करी' घुसिणपिंडु सुलहउ दीवंतरे विविहभंडु सुलहउ मलयायले सुरहिवाउ सुलह पहुपेसणे कर्णौ पसाउ सुलहउ रविकंतमणिहिँ हुयासु सुलह आग धम्मो सुलह मणुयन्तर्ण पिउ कत्तु जिणसासणे जंण कया विपत्त घत्ता - सुहृदंसणु चिंतइ हियई अवहेरहि' अडयणसाहसु । अइसयकलाणहिँ सहिय- रे जीव अरुह आराहसु ||३१|| ( रयडा णाम पद्धडिया ) ३२ सुलहउ कामाउरे विरहडाहु। सुलह वराय वज्जलाहु । सुलहउ माणससरे कमलसंडु । सुलहउ पाहाणे' हिरण्णखंडु । ८. ३१. ३ सुलहउ गयणंगणे उडुणिहाउ । सुलह ईसा से जर्ण कसाउ । सुलहउ वरलक्खर्ण पयसमासु । सुलहउ सुकईयणे मइविसेसु । पर एक्कु जि दुलहु अइपवित्त । किह णासमि' तं चारित्तवित्तु । ( रयडा णा में पद्धडिया ) घत्ता -एम वियपिवि जाम थिउ अविओलचित्तु सुहृदंसणु" । अभयादेवि विलक्ख हुयता नियमणे चिंतइ पुणु पुणु ॥३२॥ १२ ३१. २ ख रमेमि । ३ प्रतिषु 'अवहेरमि' | ३२. १ क ख कासीरए । २ ख पाखरिण । ३.वासु । ४. ख बहु । ५. क सुलह सावरणे ( टि० सावज्ञे मूर्खे दुर्जने मिध्यादृष्टि पुंसि ) । ६ क सुलहउ णवकंत महि वासु । ७. ग घ 'लक्खणए । ८ ग घ दुलहउ । ६ क पामसि । १० क अवियलः ख अविचल । ११ ख सुदंसणु । वि पुणु । १२ ख हुय नियम चितइ पुणु ५ १० ५ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ३४.८] सुदंसणचरिउ ३३ कहिँ वसंतु कहिं उववणु अच्छइ कहिँ गरिंदु कीलेवउँ' गच्छइ । कहिँ हउँ तहिँ पहिट्ठ संचल्लिय कहिँ सा डोड्डि चवइ हरिसोल्लिय । कहिँ पंडियन एहु वढु आणिउ हा मइँ होंतु कज्जु ण वियाणिउ । हाँ मइँ सा भावण भाविजई ___जाट मरणु बंधणु पाविजइ। हउँ कविलाश लेवि संपेरिय पंडियान तइयहुँ विणिवारिय। हउँ जाणंति संति आयो गुण काइँ लग्ग असगाहें णिग्गुण । सगुणसरासणु व्व जइ रुचइ जंण माइ मुट्ठिहिँ त मुच्चइ। एस पासे णउ खज्जइ पिज्जइ एम वि गलडाहियश मरिज्जइ। परयारं पि होइ विरुयारं दुस्सहणरयदुक्खहकारं । जा ण किं पि केण वि जाणिज्जइ ता वर एहु तहिं वि घल्लिज्जइ। १० (रयडा णाम पद्धडिया) घत्ता -इय चिंतिवि सविलक्खियण अभयामहएविश वणिवरु । चाउद्दिसु वेढिवि लइयउ विसवेल्लिष्ट णं चंदणतरु ॥३३।। ३४ लहु उक्खिवेवि' संचलिय जाम गय रयणि मिहुरु उग्गमिउ ताम । पेच्छिवि विहाणु बाहुडिय झत्ति चरिमंगु सयर्ण घल्लिउ दडत्ति । चंदणहि जेम लक्खणही रुढ दत्तही जि चिरु वीरवई धिट्ट। पज्जुण्णही जिह पुणु कणयमाल तिह सा वि वणिंदही हुय कराल । बीइंदुयारसूईमुहेहिँ फाडिउ सरीरु णियकररुहेहि। घणथण सहंति लोहियविलित्त ..ण कणयकुंभ घुसिणेण सित्त । वच्छयलएसु हत्यहिँ हणति उट्ठिय हयास लहु इय भणंति । झसमुसलु परंगणरत्तचित्तु . महमाइहिँ दिण्णउ कहिँ पहुत्तु । (रयडा णाम पद्धडिया) ३३ १ ग घ कीलेवइ । २ क तई। ३ ख ग घ सा। ४ क वासिजइ । ५ क जि णिवारिय।. ६ क प्रसग्गहि । ७ ख एवहिं। ८ ग घ णरयहं दुक्ख हं कारं । ६ ख तहिं जि । १० क ग घ अंजणतरु । ३४. १ क प्रक्खिविः घ उक्खेविवि। २ क चंदणमवि जिह। ३ ख वीरमहि । ४ ग घ वीयंदयार। ५ क महंत । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणंदिविरइयउ [८. ३४. ६घत्ता-महु लडहंग वणिवरिण एयइँ गंजियइँ पलोयहो। .. जाम ण मारइ ता मिलिवि अहो धावहु घावहुँ लोयही ॥३४॥ १० कियउ तीन कूवारउ जामहँ' वणिवरिंदु मणि चिंतइ तामहि । पुरिसु चित्त उम्माहिउ अच्छइ महिल अवरु पुरिसंतरु वंछइ । पुरिसु रत्त किर णियडउ गच्छइ महिल वंकदिट्ठोट णियच्छ।। पुरिसु वि गाढु गाढु अवरंडइ महिलचित्तु अवरत्तहिँ हिंडइ । पुरिसु णेहसब्भाउ पउंजइ महिल कवडकूडहिँ मणु रंजइ । पुरिसु दविणु आणेवि घरै घल्लइ महिल तं पि चोरेप्पिणु मेल्लइ। पुरिसु अणेयपयारहिँ पिच्छइ महिल अलियवयणाइँ पयच्छइ । पुरिसु चित्तु जुंजई घरदारही महिल होइ आसत्ती" जारही। . घत्ता-कत्थई कज्जवसेण पुणु छुड़ पुरिसु जाइ घरु छंडिवि । तो एत्तहिँ आवइ महिल गाइ व हरहाई हिंडिवि ॥३५॥ १० वोमि विहयहँ' सलिले जलयरहँ गमणागमणायरहँ पायमग्गु जइ कह व दीसइ।.. आदसणे पडिबिंबु हत्थगेज्मु जई कह व सीसइ । पारयरसु जइ सूइमुहे इह थिरु होइ णिरुत्तु । तियही चित्तु पुरिसही उवरि तो ण चलइ अणुरत्तु ॥१॥वस्तु।। ५ महिल रत्तिय करइ कारवइ उवयारविरत्त पुणु सइँ मरेइ मारइ मरावइ । अच्छउ ता किर मरणु मिससएहिँ सुहियई धरावई । ३४. ६ क धावहो धावहो। ३५. १ ग घ वहिं। २ ख पुरिसचित्तु। ३ ग घ पुरिसचित्तु । ४ ख प्रवरि तहिं । ५ ख पुरिसणेहु । ६ ग घ घरि प्राणिवि । ७ ख तहि जि । ८ क पयारं। ६ वयणई जि। १० क जुंजुइ। ११ ग घ प्रासत्तिय । १२ क अच्छइ। १३ खता। १४ क घरिहाई जि । ___३६. १ ख विहंगयहं । २ ख पयडु। ३ ख भादंसे। ४ क हले अज्झइ ख हाथि मिझु जइ पयडु। ५ ख जइ। ६ ख जा। ७ ख ग घ मुहियई (टि० मोहितान् )। ८ ख मुहिप्रय धरावहिः ग घ मुहियएहिं मुहियए धहावइ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ३६. ३० ] सुदंसणचरिउ गंजइ गंजावेइ णिरु बहु अणत्थ पयडेइ । सिहिजालोलि व पन्जलिय परपाणहँ णिवडेइ ।।२।। विसम वंकिय णीयरय गहिर बहुविब्भम बहुभमण उहयपक्खदूसणपयासिय । तीरिणि जिह तिह" जुवइ मंदगइ सलोणहु' समासिय ।। सिहिधूमोलि व वरघरही मइलिणि साहंकार । विससत्ति व मरणुव्वहण तिक्खिय जिह असिधार ॥३॥ १५ हरिणसिंगहँ वंसमूलाहँ मंजिट्ठलयाजडहँ अंकुसाहँ अहिमयरदाढहँ"। णइवलणहँ १४ खलयणहँ तह य तुरयगीवहँ सराढहँ ॥ आयहँ पासिउ अब्भहिय" बंकिम ण चलइ जेण । हम्मई तीयहिँ तिणु व हिउ कामिहि" सुरयछलेण ।।४।। २० कवडु चल्लइ कवडु वोल्लेइ वंकद्धभउहउँ करइ कवडभाव थणगाहि" पयडइ। कवडें" पुणु पुणु दर हसइ पुणु वि कवडजुय अंग मोडइ ॥ कवडे चाडुयसय दिसई कवडें सउह करेइ। कवडें तुहुँ वल्लहु भणइ कबडें चित्तु हरेइ ।।५।। दिट्ठिदंसणु" णेहु सब्भाउ उवयारु चाडुयवयणु दाणु संगु वीसासकरणु वि । कुलकज वड्डिम विणउ दव्वहरणु धिक्कारमरणु“ वि ।। इय सयल वि मज्जायचुय णारि ण मण्णइ केम । तुच्छ सकलुसिय भीसणिय पाउसगिरिणइ जेम ॥६॥ ३० ३६. ६ ग णियर गहिर घ णिय गहिर। १० ख तिह खलु । ११ क सलोणिहिं । १२ क मरणु जणहि ख मारण वहण । १३ ख अइमइर'; ग घ अइमयर । १४ ख णइ चलणहं । १५ ख अभयहिय । १६ घ हरणइ। १७ क तिण विहियउ (टि० तृणं कृतः ); हम्महि तिय तेण जि विहिउ ग घ तियहे तेण हियउ । १६ ख कामेहि ग घ काहिमि। १६ क कवलु। २० ख कवडभाइ थणहाइ। २१ क कवलें । २२ ग घ जुइ अंगु। २३ ख सयई दिस। २४ क सव्वहं (टि० सर्वेषामपि )। २५ क हिट्ठियदंसणु, घ हिट्ठिदंसगु । २६ ख प्रवयार चाडय वयण । २७ ख कुललज्ज । २८ क घिकारणु । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जयणदिविरइयउ [८. ३६. ३१' कव्व लक्षण तक्क सुणिघंट" सछंदालंकार वरचरणकरण सिद्धंतभेयइँ। जीवाण सुहासुहइँ" कम्मपयडिबंध अणेय ।। मंतइँ तंतइँ सउणइं एत्थु ण कीरइ भंति । एक्कु मुएप्पिणु तियचरिउ सम्वइँ जाणिज्जा ३५ अस्सरासहँ सीहवग्याह आसीविसविसहरहँ कह वि चित्तु विप्पट अलीढहे । अणुमित्तु वि तियहे पुणु को समत्थु इह वसुहवीढए॥ __ गहचक्कु वि अंबुसिलिलु वालुयणियरु विचित्तु । कह व पमावएँ जाणियए णउ पुणु तियहिँ चरित्तु ॥८॥ ४० खलहुँ जलणहुँ णहिहुँ सिंगियहुँ दाढियहुँ णरवइकुलहुँ अरिहुँ सरिहुँ मित्तहुँ सकवडहुँ । बहुदोसहुँ मुक्खहुँ वि वसणियाहुँ तह ठगहुँ दूवडहुँ । किं बहुणा वरि एयहुँ वि जाइज्जइ वीसासु । णउ पुणु अणुमित्तु वि तियह जइ वि हु गुणहँ सहासु ॥६॥ ४५ चोरि णिग्घिणि लुद्ध चलचित्त मायाविणि साहसिणि अलियरासि परयारमोहिय । अवहत्थियसीलगुण होइ णारि सब्भावदोहिय ॥ ___ जाणंतु वि एरिस वि गुण जो तहि पत्तिज्जेइ । सो दुक्खावलिरं पियश तिलु तिलु कप्पिज्जेइ ॥१०॥ मुयउ जसहरु तियविसासेण साकेयपुराहिवइ देवरइ वि रज्जाउ भट्ठउ । णवणायसहस्सबलु तियविसत्थु कीयउ पणट्ठउ ॥ ३६. २६ खणु। ३० क सुघंट। ३१ ख मरण सुहा । ३२ ख बंधण । ३३ क मइसरोसह ग घ अस्सरोसह । ३४ क अवलोढइ (टि• अवली); ग घ अलीढए। ३५ ख वीढहं । ३६ क पयार इं; ख कह व पमावइ जो णियइ। ३७ ख मुक्खहहे विसोणियहे। ३८ क दगडहुं धगडहुं, ग घ ठवहु धवडहु। ३६ ख एहु वि । ४० ख धिट्ठ। ४१ ख एरिसु गुणहिं । ४२ क वहो। ४३ ख विसंगु । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ३७. १२] सुदंसणचरिउ अवर वि जे जे तियमइहिँ जाएसहि " वीसासु । ताह ताहँ गलकंदला लग्गेसइ जमपासु ॥११॥ जेम भउहहिँ जेम दिट्ठीप तह जिह जंपति" गिर होइ वंक तिय तेम हियवए। सेच्छाप्न संचरिवि पुणु वारवार गज्जेइ जणवए ॥ अलियउ पुक्कारिवि रडेवि परु मारावइ धिट्ठ। हो हो किं कि णउ करइ तिय रुट्ठिय" मा दिट्ठ ॥१२॥ (वस्तुबंधकडवयं") घत्ता-तं कूवार सुणेवि जणु लहु ससरु सचाउ पधावई । सूरपहाहरु' तडितरलु पाउसि णवजलहरु णावइ ॥३६॥ ३७ तओ णिवइ पुच्छए जणु णिएवि' धावंतओ। कहिं पि गिरितुंगओ गउ विछुडे किं मत्तओ॥ महंतु दविणीसरो लयउ किं पि बंदिग्गहे । सदप्पु अरि को वि किं महु पउत्तओं विग्गहे ॥१॥ किमेत्थ णडवेक्खणं अह व किं पि चोजं वरं । तओ णरु णमंतओ कहइ को वि वित्तंत्तरं ॥ सुदंसर्णण देवहो अभयदेवि वम्मासिया । सरम्मि जिह पोमिणी गयवरेण विद्धंसिया ॥२॥ इयं सुणेवि पत्थिओ अरुणणेत्तदट्ठाहो। फुरंतणासाउडो तिवलिभाल भंगुरो॥ पकंपियसरीरओ बहलसेयअल्लल्लओ। करेण हयभूयलो भणई एम रोसिल्लओ ॥३॥ ३६. ४४ क जाएसइ। ४५ क घ जिह जि पंति। ४६ क संवरेवि (टि. कडछीवि ); ख सेच्छइ संचल्लइ वि। ४७ ख पुकारइ रडइ। ४८ ख रुट्ठी। ४६ ख बंधा कडवया । ५० ग घ पधाइउ । ५१ क पहारु; ख पहाहउ । ३७. १ क णुएवि। २ ख छुट्टयो। ३ ख पत्तउ ग पहुत्तउ ; घ किं महुत्तउ । ४ ग घ हणइ। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१५ णयणंदिविरहाउ [८. ३७. १३पियेइ मयतण्डिया कुलिससूइ को घासए। गसेइ विसमंजरी जलहिवेल को सोसए ॥ लुणेइ जमदाढियाँ गरुडपक्ख को भंजए । छलेण बलि मंडएँ महु पिया वि को भुंजए ॥४॥ हुयास अहि वेरिणो चउर जार उपेक्खए। . ण सो सुइरु णंदए गरुवआवयं पेक्खए । सुदुट्ठणरणिग्गहं सुयणपालणं जुत्तयं । णिवस्स जइ भूसय पुहइछंदयं वुत्तय" ॥५॥ - घत्ता-अहो अहो भडही तुरिज तुरिउ जा जाहु अभय साहारहु। __इयरु वि लेहु लेहु हणहु खर्ण तिलु तिलु कप्पेवि मारहु ॥३७॥ ५ तं णिसुणेवि वयणु महिवालही केण वि दिट्टि दिण्ण करवालही। केण वि चाउ सगुणु अवलोइउ वरकलत्तु जिह मुद्विह माइउ । केण वि असिघेणुय विष्फारिय' णं कालेण जीह णीसारिय । केण वि वुत्तु णाहु जसु रुढउतसु लुणेमि हउँ णासु सउट्ठउ । केण वि वुत्तु अजदिणु धण्णउ देवदेव जं पेसणु दिण्णउ । हत्थपहत्थवंतु वियरेसमि इंद इव्व ह हणउँ धरेसमि । केण वि वुत्तु हउँ वि जाएसमि अजुणु व्व कण्णही लग्गेसमि । केण वि वुत्तु राम हउँ होसमि विडसुग्गीवहीं माणु दलेसमि। केण वि वुत्त मइँ वि ण पुज्जइ सुहङसमूहु कीस पेसिज्जई। केण वि वुत्तु गजि किं किजइ विरलें पहुई कज्जु साहिज्जइ । (पारंदिया णाम पद्धडिया) घत्ता-इय गजिवि जसलंपडेहि सुहडहिँ धावंतहि वणिवरु। वेढिउ चाउद्दिसु सहइ साणहिँ णं कत्थई करिवरु ॥३८॥ ३७, ५ क विसइ मयतंउणा। ६ क डाढिया। ७ ख वंडए । ८ ग घ आवई। ९ क पालयं । १० ख घ भूसणं। ११ क छंद वुत्तयं । १२ क अहो भडहो भडहो तुरिउ। १३ क हणउं। १४ ख खणि खणि कप्पिवि मारहो । ३८. १ घ अप्फारिय। २ क में यह पूरी पक्ति नहीं है। ३ ख णिउ ; घणिव । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ४०.१०] सुदंसणचरित ३६ जा मारणहुँ' णियउ वणिसारउ ता जणेण पुरि किउ हाहारउ । पप्फुल्लियराईवसुवत्तिहे जहिय वत्त केण वि तस पनि तुज्झ कंतु णिवरमणिहिँ चुक्कउ दूसहमरणावत्यहिँ ढुक्कउ । तं णिसुणेवि उटुंति पडंतिय उरयलु करयलेहिँ ताङतिय । णयणंसुनहिँ सिहिण सिप्पंतिय तणु पासेयविंदुहिँ थिप्पंतिय । मणिपालंबदोर गुप्पंतिय मुहमरुमिलिय भमर वारंतिय । अइदीहुण्हसास मेलतिय प उणाहयलय व्व कंपंतिय । हा किं कियउ णाह जंपतिय गंपिणु तं पएसु संपत्तिय । (पारंदिया णाम पद्धडिया) घत्ता-सहइ मणोरम पुणु वि पुणु भडयण असेस जिंदंती। केसग्गहे आरुट्ठमण पंचालि णाई कंदंती ॥३६।। हा हा णाह णाह पुक्कारइ पइँ मुएवि मइँ को साहारइ। हा हा णाह णाह जगसुंदर संपयाट पञ्चक्खपुरंदर।। हा हा णाह णाह जणवल्लह अमरंगगगणाह्म णदुल्लह । हा हा णाह णाह आणंदण जिगवरिंदमहरिसिकयवंदण। हा हा णाह णाह मयरद्धय हिंसाइयदोसेहिँ अलुद्धय। हा हा णाह णाह किं भाविउ में परयारु गपि पइँ सेविउ। हा हा णाह णाह वउ भग्गउकिं घुणु वज्जखंभि आलग्ग। हा हा णाह णाह महुँ एहउ णउ सहहइ चित्ते सविरोहउँ। . (पारंभिया णाम छंदो) जत्ता-जाणमि संढ सुरासुर वि छुडु कंतु ण केण वि रक्खिउ । __ हा हा कासु कहेमि हउँ परदुक्खें को वि ण दुक्खिउ ॥४०॥ १० ३६. १ ख मारणहिं ; ग घ - मारणहं। २ क लियउ। ३ क सुवत्तहें । ४ क रमणेहि । ५ ख सुणेवि । ६ ख पालंतु हारु । ७ क में 'अइदीहुएण..... जंपतिय' इतना पाठ नहीं हैं। ------ ४०. १ ख जग। २ ख गणवराह । ३ क वजखंडे । ४ घ में यह पूरी पंक्ति नहीं है। ५ क सविरोहिउ, ख चित्त । ६ केवल क प्रति में। ७ क संद; ख चंद । ८ क कोण वि ण ; ख को ण वि । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० णयणदिविरइयउ [८.४१.१ हा हा णाह सुदंसण सुंदर सोमसुह । सुअण सलोण सुलक्खण जिणमइअंगरुह ॥ सुमरमि पढमसमागर्म विरहु असड्ढलउ । तह' विवाह करजोडणु तारामेलणउ ।। सुमरमि अणुदिणु रइहरे गाढालिंगणउ । हावभावसविलाससुविन्भमजंपण ॥ सुमरमि उववर्ण सरवरि कयजलकीलणउ । मम्मणमणियमणोहरु अहरावीलणउ ।। सुमरमि णवकोमलदलकुवलयताडणउ । मुत्साहलहारावलिबंधणछोडणउ ॥ सुमरमि सुरहिविलेवणु अंगहि भूसणउँ । वार वार मण्णावणु सपणयरूसणउँ॥ सुमरमि छुड़ छुडु चल्लिय बहुमाणे भरिय। चाडुएहिँ संबोहिय करपल्लवे धरिय ॥ सुमरमि सुरहियकेसरणियरे पिंजरिय । सुइपूरण किय सभसलसुरतरुमंजरिय ।। सुमरमि चारुकवोलहिँ पत्तावलिलिहणु। ईसि ईसि थणपेल्लणु वरकुंतलगहणु॥ तो वि ण फुट्टु महारउ हियडउ वज्जमउ । वुत्तु छंदु सुपसिद्धउ इय रासाउलउ ॥ घत्ता-हा हा हा विहि दुठ्ठ खल खउ किं ण जाहिँ रे तोडिय। __णिहि दक्खालेवि मज्मु पइँ लोयण पुणु कि उप्पाडियं ॥४१॥ ४२ जइ वारिवाह णहि णोत्थरति' जइ तरु ससुक्क फल वित्थरंति । जइ मयहिँ सीह मारिय मरंति जइ मयणबाण जिणमणु हरति । ४१. १ ख तहि ; घ तहे। २ क ग घ दिएणु रईहरे। ३ ख चुंबणउ। ४ ख ग घ भूसणभूसणउ । ५ ख तासणउ। ६ ग घ सररुह केसरें। ७ क ग घ जासि । ८ ख दिक्खालहि। ९ क पुणु उप्पाडिय । ४२. १ ख णोयरंति। २ ख ससुक्ख । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ४३. १०] सदसणचरिउ जइ देव णरण णारइय सर्ग जइ जंति मिच्छमइ तिहुवणगे। सम्मत्तणाणदसणसमिद्ध जइ संभवंति संसारि सिद्ध। परयारगमणु तो तुहुँ करेहि चरिमंगि एहिँ मारिउ मरेहि। इय भणइ मणारम जेम जेम सुहदसणु चिंतइ तेम तेम। कसु तणउ तणउ कसु घरु कलत्तु परमत्थे को वि ण सत्तु मित्तु । संसारु भमते मई वि णवर अण्णहि भवे एयहँ दिण्ण पहर । ते महु वि तिक्खपहरणकरग्ग पार्ववि णिमित्तु पहरंति लग्ग । भुवणत्तए वि पवियंभियासु -आवज्जियकम्मही त्थि णासु । (रयडा णामे पद्धडिया ) घत्ता-हउँ द्धप्पा उड्ढगइ रयणत्तय संजुत्तउ। बहुविहबज्झन्भंतरहिँ गंथहिँ जिणा व्व परिचत्तउ ॥४२॥ ४३ पुणु पुणु णियमर्ण चिंतेइ जाम' दप्पुब्भड भड उत्थरिय ताम । लइ इट्टदेउ संभरि भणंति गलकंदले करवालहिँ हणंति । तहिँ अवसरे वितरु एक्कु पत्तु भणु कासु ण दीसइ सत्तु मित्तु । सो सयल वि भड थंर्भवि धरेइ असिपहर कुसुममालउ करेइ। तो तियसहि णहे संजाय तुहि जयजयरवेण किय कुसुमविहि । सुरताडिज्जंतउ गयणे भाइ दुंदुहि णं अक्खइ एम लोई। परिसेसिवि णियमणे राउ दोसु पालिजइ किर छुड़ वयहँ लेसु । सुरणरहँ पुज्ज तं कवणु चोज्जु लब्भइ मोक्खु वि अणवज्जु पुज्जु । घत्ता-वरसम्मत्तविहूसणहँ भव्वयणहँ जिणसुमरणे । णासइ पाउ असेसु लहु तमु जि दिवायरवियरणे" ॥४३॥ १० ४२. ३ घ संसारि। ४ प्रतिषु 'हंसुद्धप्पा' । ५ ख सुद्धगइ । ४३. १ ख मणि चितइ एम ; ग घ मणे इय चितेइ। २ ख सुमरिवि । ३ ख गलि । ४ ख हिट्ठि। ५ घ लेइ। ६ ग घ रायदोसु । ७ ख छुड्डु किर । ८ क ज्ज। ६ क विहसणं जिणवर सुमरणे । १० क जेम। ११ क वियरणे तिम णासइ उवसग्ग बहु । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28०२ णयणदिविरहयउ [८. ४४. १ ४४ १० सुदुद्धरु' अंजणपव्ययकाउ दिसाकरितासणु मेहणिणाउ । सदप्पु वि वेज्मु ण देइ करिंदु मणम्मि भरंतह देउ जिणिंदु ॥१॥ पसुत्तु समुट्ठिउ दंतिसमीहु महाबलु लोललुलावियजीहु । सरोसु वि देइ कम ण मइंदु" मणम्मि भरंतह देउ जिणिंदु ॥२॥ तमालमहीरुहभपडसीसु दिणेसरसण्णिहलोयणभीसु । हवेइ पसण्णु पिसाउ रउद्दु मणम्मि भरंतह देउ जिणिंदु ॥३॥ "वियंभियवेलणहंगणवोलु जलोब्भवजीवपयासियरोलु । अथाहु वि गोप्पयमेत्तु समुदु - मणम्मि भरंतह देउ जिणिदु ॥४॥ फुरंत फणामणिरुद्धदियंतु तिलोयखयंकरु णाइँ कयंतु। वलेवि ण डंकइ कूरु फणिंदु मणम्मि भरंतह देउ जिणिंदु ॥५॥ दुसंचरतीरिणिपव्वयदुग्गि असंखमहीरुहभीसणमग्गि । कहिँ पि ण लग्गइ तक्करविंदु मणम्मि भरंतह देउ जिणिंदु ॥६॥ घिएण व सित्तउ तिव्वु जलंतु जगत्तउ जालहिँ णाइँ गिलंतु । स सोम्मु हवेइ सिही जह" चंदु मणम्मि भरंतह देउ जिणिंदु ॥७॥ णिमीलियबंधवसज्जण चक्खु अणेयपयारपयासियदुक्खु । विहट्टइ संखलबंधु" सुरिंदु मणम्मि भरंतह देउ जिणिंदु ।।८।। मणोहर इंदियसोहणिवारु भयंदरसूलसिलेसमसारु। पणासइ रोउ जहा जरु मंदु मणम्मि भरंतह देउ जिणिंदु ॥९॥ दुलंघु रएविणु पासयवूहु ण मारिवि सक्कइ सत्तुसमूहु। किवाणु वि होइ अलं अरविंदु मणम्मि भरंतह देउ जिणिंदु ॥१०॥ ___(मोत्तियदाम ) २० ४४. १ घ सुद्धरु। २ क वेब्भु : ख विझु। ३ ख भणंतहं । ४ घ समुट्ठिय दंतिसमू हु। ५ क घ मयंदु। ६ क में वियंभिय..... देउ जिणिदु -यह पूरा चौथा पद नहीं हैं। ७ क °फडाहि णिरुद्ध। ८ ग घ तिलोक । ६ घ दुसंचरि । १० घ जिम । ११ ख ग घ विदु। १२ क ख तहा जरविंदु। १३ ग रएप्पिणु पासहि; घ रएप्पिण पासहि कूहु । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ४४. २२ ] सुदंसणचरिउ घत्ता - वरखगिंदु ज्भायं तहँ गारुडियाँ फिट्टइ विसु जिह । भव्वयणहँ णयणादि जिणु सुमरंत उवसग्गु तिह ॥ ४४ ॥ १५ एस्थ सुदंसणचरिए पंचणमाकार फलपयासयरे माणिक्कणंदित इविज्जसीसणयनंदिणा रइए बुहीअभयाजंपणं करेवि कूडवाउल्लया सुदंसणखंभालणं ४ पुणु पहाए धाद्दावणं नरिंदभडथंभणं" अमरसाहक्कार हूँ" इमाण कथवण्णणो भणिओ संधी फुटु अट्टमो । ४४. घ साहुकारकररणरणहे । १४ ग घ खलावणं । संधि ॥८॥ १०३ १५ क भिडथंभणं । १६ ग णहे; Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि : उन्भडभिउडी भीममुहु भडथड थभिवि वणिवरकारणे। वितरदेउ गरेसरहा सीहहाँ सीहु व भिडिउ' महारणे ॥ चंपापुरवरंबुरुहसूरही दुट्ठसत्तुकुसुमोहचूरहो। णियपयावभेसियसुरिंदहो झत्ति धाइवाहणणरिंदहो। जं मसाणमज्झम्मि लक्खियं / चरणरेहि तं एवि अक्खियं । देवदेव वणिएण रंभिया तुम्ह भिच्च पहरंत थंभिया। तो णिवेण अवरे वि पेसिया वितरेण पुणु ते वि भेसिया। अण्ण अण्ण जे जे वियंभिया तेण भत्ति ते ते णिसुभिया। ता णिवस्स' सहसा णमंतओ कहइ को वि अइबुद्धिवंतओ। वणिवरिंदपक्खिई ससाहसो तहिँ वियंभए देव रक्खसो। तसु वि सेणु दीसइ गरुक्कओ णं समुदु मज्जायमुक्कओ। तं सुणेवि णरवइ पलित्तओ णं हुआसणो घिyण सित्तओ। जो करेइ तही पक्खु तिहुवणे अज्जु णेमि हउँ सो जमाणणे । गहिरु रायवयणेण वजए समरतूरु खयघणु व गजए। तं सुणेवि पुलओ विसट्टओ कहाँ वि णिविड़ सण्णाहु तुट्टओ। सगुणु धम्मु गेण्हंतु दीसए मुणिवरो व्व भडु को वि सीसएँ। को वि तोणजुयलेण भासुरो उक्कमेइ णहे णं खगेसरो। महइ को वि जयसिरिविलासिणी वुत्त छंदु एसो विलासिणी । घत्ता-रणरहसेण को वि सुहडु पवरु थंभु उम्मूलिवि धावइ । दाणवंतु थिरथोरकर दुण्णिवारु सुरवारणु णावइ ॥१॥ १५ २० १. १ ख सिंहउ। २ ख भडिउ। ३ ख ग घ कूरहो। ४ ख तेण । ५ क ग घ ताम णिवहो। ६ ख वणिवरिंदु, ग घ पक्खिउ । ७ ख बहु । क ख ग घ भासए। ६ क ग घ थिरु थोरु करु । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १. ३. १२] सुदंसणचरित १०५ भणइ का वि लग्गेवि गलकंदले भिडेवि तेत्थु उब्भडभडगोंदले । आणसु धयवडाओ सुविसालअ करमि जेम घरि वंदणमालउ'। भणइ का वि सिंदूर पंकिय विप्फुरतमोत्तियहि अलंकिय । आणि गंपि अरिकरिसिरसंघड करमि जेम णियघर मंगलघड । भणइ का वि कामिणि कामाउर जइ पइँ हरवि णेइ पवरच्छर। तिलु तिलु लुणिवि देहु सइँ घायमि ता णिरुत्तु तियवहु तुह लायमि । भणइ का वि पहुकज्जु करेजसुदुरयतुरंगणियरु घाएजसु । अरिबलु पबलु सयलु बलि दिज्जसु महु घरे विजयरेह आणिज्जसु । घत्ता-णीसेसु वि बलु सण्णहेवि सहुँ धरणीसरेहि संचल्लिउ । सोहइ पच्छायंतु महि जुयखण णं समुदु उच्छल्लिउ ॥२॥ १० । चलइ णिवबलं दलइ महियलं। सहइ णहभरं' वहइ अइडरं ॥ दलइ फणिउलं चलइ आउलं। मुयइ विससिहिं हरइ जणदिहिं ।। चलई जलथलं खलइ अरिबलं । करइ भयरसं सरइ दसदिसं॥ मिलइ हयथडो घुलइ धयवडो। मुसइ अंबरं पुसईं दिणयरं ।। रसइ पडहओ उसई करहओ। कमइ संदणो भमइ भडयणो । रुलइ रयभरों चलई णिभरो। चडइ णहयले पडइ महियले ।। २. १ ख भिडइ। २ ग घ बंदुरमालउ। ३ ख विप्फुरेहि । ४ ख णियवउ । ५ ग घ तुरय। ६ क ग घ सरेण । ३. १ क ग घ णहुभरं। २ ख विसहरं। ३ घ जलइ। ४ ख भडथडो। ५ क लुडइ। ६ ख सुसइ। ७ ख कसइ। ८ क रुलइ रइभमो (टि० रजोभ्रमः); ख चलई । ६ ख रलइ। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जयणदिविरइयउ [९. ३. १३दडइ कायरो रडइ गयवरो । वहई मयजल रहइ धरयलं॥ कुणइ परिमलं रुणई" अलिउलं। . .. १५ दुवइ भासिया कुसुमक्लिासिया। घत्ता-चाउरंग बलपरियरिउ णरवइ छुड़ छुडु णियडए ढुक्कउ। ___एत्तहि मायाबलसहिउ रयणीयरु सवडम्मुहु थक्कउ ॥३॥ तो गजइँ रणरहसुन्भिण्ण आभिट्टइँ णिवणिसियरसेण्ण। मिहुणइँ जिह रोमंचियगत्तइँ मिहुणइँ जिह तरलावियणेत्तइँ ।। मिहुणइँ जिह उद्दीवियरोसइँ मिहुणइँ जिह धावियमुहसोसइँ'। मिहुणइँ जिह विरइयसंबंध मिहुणइ जिह वरकरणमयंधइँ ॥ मिहुणइँ जिह विक्खित्ताहरण. मिहुणइँ जिह उच्चाइयचरणइँ। मिहुणइँ जिह आमेल्लियसुसरइँ मिहुणइँ जिह पुणु पुणु दरहसिरइँ ॥ मिहुणइँ जिह सेउल्लणिजलइँ मिहुणई जिह कड्ढियकरवाल । मिहुणइँ जिह आयवच्छयलइँ मिहुणइँ जिह मुच्छन तणुवियलइँ ॥ घत्ता-तो उल्ललइ चलइ खलइ तसइ ल्हसइ णीससइ पणासइ। णिसियरबलु णिवसाहणही णववहु जेम ससज्झय दीसइ ।।४।। १० वितरेण तं धीरिउ णियबलु पुणरवि भिडिउ गहिरकयकलयलु। जाम ताम सहसा धूलोरउ उदिउ बलहँ णाई विणिवारउँ ।। लग्गेवि पयहँ णाई मण्णावइ विहुणिउ तइ वि कडित्थिई पावइ । तह अवगणिओ वि णउ रूसइ वच्छत्थले पेल्लंतु व दीसइ ।। दुण्णिवारघायहँ णं संकइ दिट्ठिपसरु णं मंडएँ ढंकइ। ३. १० ग घ महइ । ११ क भणइ । १२ ख इ। ४ १ क सासई; ख पाहाविय सोसई। २ घ सोउ। ३ क ससंभमु। ५. १ ख गहिरु । २ क उहय । ३ ख वारिउ । ४ ख लग्गउ। ५ के कडच्छहें ; ख ग घ कडच्छहि । ६ ख मंडवि । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ७. ४ ] सुच महिरामर मणि जो रहर ॥ पिहुलवच्छु वाहहिँ अब इंडिउ । महु अब्भत्थणा वि मणिज्जर || गड गई णं अमरहूँ' धाहावइ । ses ाइँ लग्गवि कण्णंतरे अहरबिंबु दंतग्गिीिँ खंडित सो विकामिणीहि मा दिज्जउ सहँ लग्गिविरोसु व दावइ धत्ता- - पहरं तहिं सुहडहिँ समरे तक्खणे लोहियसरि णीसारिय । दावंती भउ सुरणरहँ" णावइ कालेँ जीह पसारिय ||५|| ६ सिग्गिरि बहुविहतरुवरणविय े धयचमरचिंधकल्लोलजुय । सियवरतुरंगफेणुज्ज लिय संदणसहासगाहावलिय ॥ जिगिजिगियखग्गमीणुल्ललिय करिवरखडक्कणिरुडुल्ललिय । रसरसियतूरखगपरियरिय चलवलियअंत डिंडहूँ" भरिय | कुंभयलसिप्पिउड परिदलिय बहुरयणमोल्ल मोत्तियगलिय ॥ विडिय भडवियसिय मुहकमल गिद्धावलिअलिहिंडियमुहल । तरवारिवारिपूरे विसम सरजाल णिविड कोट्टिमसुगम || विसिलोय छंद पद्धडि भणिय । परिसोहइ रुहिरतरंगिणिय ७ १० धत्ता-हउँ कुलीणु अवगण्णियउ उच्छलंतु अकुलीणउ वुत्तउ । धूलीरण णं इय चितेवि अप्पर खित्तउ ॥६॥ रुहिरण विडिय बलइँ णिवि अवरुप्परु कुविय णरिंदणिसियरा । तो सण्णद्ध वे वि उद्घाइये मत्तगइंदवंदिरा ॥ असी कुसुमवण्ण अइदुद्धर पडिभयगलहं दारुणा । धवलविसाण पिंगलोयणजय सुंडमुहम्मि सारुणा ॥ ५. ७ ख लग्गइ ! ८ क र्ण श्रमरहं + ६ घ भुउ । १० ख सुरयहं । ६. १ ख सिक्किरि । २ ग घ तरवर ३ ग घ सियपवर तुंग । ४ ग घ गाह्रोछलिया । ५ ख कस्वर घड णिरु श्रइदुल्लिलिया । ६ घ रसमखिम । ७ ख घडि १ क उद्धोइय । २क मंदरा । ३ ख विसाल । ४ ख श्रारुणा । ૨૭ १० ܘܐ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ णयणदिविरहयउ [६.७. ५-- पिहुलत्तेण तिकर सत्त जि कर तुंगत्तेण मणहरा। वेवत्तेण दह जि कर भासिय दीहत्तेण णवकरा ॥ पच्छश णविय उण्णया अग्गष्ट पुच्छकरेहिं दीहरा। वंसविरायमाण दिढ णावइ संचारिममहीहरा ।। पयपब्भारणमियवसुहायल चूरियसयलविसहरा। खरकण्णाणिलेण णीसेस वि आकंपवियसायरा ॥ अइगंभीरबहलगलगज्जियबहिरियसयलकाणणा। कुंभत्थलसुतेयसिंदूरे अरुणियदसदिसाणणा ।। धंति वलंति ठंति सवडम्मुह दिति उरे उरत्थलं । दंतग्गेहिँ दंत णिभिदिवि लिंति करेण करयलं ।। पुणु सुतिरिच्छ होति जुझंति ण ठंति खणं पि णिश्चला। अट्ठावीसमत्तसंजुत्तिय दुवई एस विज्जुला ।। पत्ता-तो णिवदंतिष्ठणिसियरहो गयवर रयणहँ कोडिउ दिण्णउ । __पुणु मग्गियउ पडेवि थिउ णावइ रिणिउ लेइ उच्छिण्णउ ।।७।। ८ एत्थंतर माणसजायसल्लु अण्णहिँ गट आरूढउ पिसल्लु। रे रे भूगोयर पावरासि समरंगणु मेल्लिवि णासि णासि ।। णाणाविहवरपहरणकराहँ जा हुइ अवत्तथ तुह किंकराहँ। सा तुह म होउ इय भणइ जाम दोच्छिउ णिवेण रयणियरु ताम । णउ लजिओ सि तुहुँ इय भणंतु अप्पाणउ किं विणडिउ खणं तु ।। भूगोयरेण सुवियक्खणेण किं ह्यउ ण दहमुहु लक्खणेण । महु करिणा तुह करि णिहउ जेत्थु तुह महु समसीसी कवण तेत्थु ।। अह अस्थि सत्ति तो भिडु णिरुत्तु रक्खसही वि भेक्खसु हउँ पहुत्तु । (रयडा णाम पद्धडिया ) ७. ५ क विकर। ६ ख विद्वत्तेण। ७ ख दंति। ८ ग घ णिभंदिवि । ६ ख ल । १० ख ते। ११ क णिवडतीए, गणिवडती ; ख घ णिवदंती। १२ ख रयणिउ ; ग घ रयणहो। १३ क मग्गए। ८. १ क पाख्दु मल्लु। २ क णाणाविहधणु पहरण । ३ ख वहुवइ हणंतु; ग घ णिवडिउ खणंतु । ४ क तुहुं मुहु समसीसइ। ५ घ भक्खुसु । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदसणचरित १०६ ६. १०.५] घत्ता-वरमायंगहिँ आरुहिय गलगजेवि गिरिवरहँ थिय विणि वि दुद्धररोसही चडिय । णाइँ पवरपंचाणण भिडिय॥ १० वे वि तक्खडा दप्पउन्भडा। देहभासुरा णं सुरासुरा।। बद्धमच्छरा णं सणिच्छरा। जुझकोच्छरा तोसियच्छरा ।। अंबुहीगिरा कजजंपिरा। लच्छिरामिया सेण्णसामिया ॥ णं भयावणा रामरावणा। दुक्कसम्मुहा मुक्कआउहा ।। घायघुम्मिरा रत्ततिम्मिरा। दो वि सुंदरा णाइँ मंदरा ॥ कंपवजिया देवपुजिया। छंदु सिद्धओ सुपडिबद्धओं ॥ घत्ता-तो राएँ रयणीयरहो णिज्झरवंतु तुंगु करिपञ्चलु। दीहरबाणहिँ छाइयउ णावइ विसहरेहि मलयाचलु ॥६॥ समर?' थोटटु आहर्व पयट्टु महिणा, पुणरवि णिसियरस अइउज्जु मोक्खहिँ धावमाणे तहि अवसर पडइ ण हत्थि जाम अंगाहिवसिंधुरै चडिउँ केम सरजालें पूरिउ सो दुघोटु । संपेखिय वाणसयाइँ तस्स ।। गुणपेरिय मुणि व सहति बाण । सो जावहाणु सहस त्ति ताम ।। कमु देइ धराहरे सीटु जेम। ५ ९. १ घ सुप्पसिद्धनो सुपडिबद्धमो। २ ख कयपच्चलु । १०. १ क समरट्ट। २ क ग घ पूरिवि। ३ ख ठाणु रयेई ; ग ठाणु रएवि; घ बाणु रएवि। ४ क अइउजय ; ग घ प्रइदुबय। ५ ख मोक्खु ण धाइमाणु; ग घ मोक्खुण धावमाणु । ६ क जा ण हणइ ग घ जा हणेइ। ७ ख अण्णई वरसिंधुरे। ८ ख चडिवि । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० पालाविह पहरण परिहरेवि अण्णोष्णुप्प्रे लिय कुटपरेहि. केसरिकमे हि उरपेलणेहि णिसियरणिव तहिँ जुम्भंति बे वि ॥ करगाह छोडदुकरेहि" । अहियासहि" मच्छुच्छल्लणेहि ॥ अतुलपरकम सोहियविग्गह । करिवराज" दोणि विल्हसिय णं मयणंगणार कूरग्गह ||१०|| ११ यदिविरइय घत्ता - इय जुज्ता सामरिस ११ कंचणणिबद्धए घगधगियमपियरे मण जवपयट्टए धूवधूमाउल्ले खणखणियसंखले हिलिहिलियहवरें णिउ चडि जावहिं लहु अवर संद खणुविण है थक दुवइया वज्जरी धत्ता - सोहइ प्रिसियररहवरेण भूरिकणयभाभासुर तो अंगणा जहिययरामेण अप्फालिओ चाउ' सुरअसुर माणे डरिय १२ १०. ६ क ढक्करेहि । १० क महिपासहि । ११. १ ख उभियौं । २ मघुमिय। ४ इयूले । ५ क ब वि.पा हु ख खलु विप १२. १ ख प्रप्फालिय बचाउ । सुचि । मंदकिंकिणीसरे ॥ टटणियघंटए । मुगुमियअलिउ || [. १०. ६ बहुवलचंचलें । एरिसे रहवरे ॥ रमियरु तावहिं । आरुहिउ तक्खणे || समरि परिसक्कए । अमरपुर सुंदरी । परिअंचित चंपाहिवरहरु । णाइँ दिवायरेण सुरमहिहरु ||११|| रहवरसणाहेण । अइपवरथामेण ॥ उच्छलिउ गुरुणाउ | णिरु धरणि थरहरिय || १० १० ११ ख करिकराउ | ३ क बहुबहल चंचले : ख बहुचलण' । ६ ग घ णिसियरराहवेण । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. १३. १४] .. पुसणचरित विसिगय समोसरिय हुय मणुय भयजरिय। खयरउल खलखलिय गिरिसिहर टलटलिय ।। विसहर वि सलसलिय जलणिहि वि झलझलिय । पर मुवि रयणियरु.. कापण्ड गुणणिबरु धणु लेवि सो थक्कु . सएण तो मुक्कु । बाणोहु किर जाम णिसियरेण तहाँ ताम ॥ खंडियउ घणु छत्तु महिवीढे संपत्तु । पर दुवइ णउ भंति इय चारु पयपंति ॥ घत्ता-तहि अवसरि चंपाहिविण मुक्क सत्ति तिमियरहो तुरंती । हिया लग्ग णिरु पाणपिय गाइँ विलासिणि मुच्छ करती ॥१२॥ तो गयणंगणे चवियसुरासुरे महिलपराहवे सुरहँ ण लजिय णिसियरुराएँ राहुं जिंह रवि हुउ मुहकायरु सत्तिपहारें वेविरगत्तउ किहँ जीवेसइ कुविण गरेसरि लंबियबाहही. को वि ण सरणउ, हा कि किजइ मिलियसुरंगणे । तणुभामासु ॥ जायमहाहवे। । घणु जिह गजिय॥ मणि संकसाएँ। णिजिउ पुणरवि ॥ णवर णिसायरु। अइ अणिवारें। मुच्छई पत्ताउ । संसउ दीसई॥ एहट अवसरि । वणिवरणाहहीं। दुक्कड़ मरण। कासु कहिजइ ॥ ....१२.२ ख जरजरिय। ३. क पर सूर्यवि भणराव रणियह धराव। १३. : १ के एहए पाहवे। २ ख महिकायरी ३ के कह में घ किर। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणदिविरइयउ [९.१३. १५- इय कह जक्खणे ढहरु तक्खणे। .. पसमियवेयणु : जाउ सचेयणु ॥ . (मयणो णाम छंदो )। . घत्ता-तमियरु रायही धावियउ सिहरिहि विजदंडु णं ढुक्कउ । णाणाविहहिँ विउठवणहिँ वियरइ संगर गाइँ घुडुक्कउ ।।१३॥ ण थाइ भमंतु मयंगु दमंतु। तुरंग हणंतु भडोह वणंतु ॥ रहंग दलंतु णरेंद मलंतु। पयंगु पवंगु खणेण रहंगु॥ कवोउ कुरंगु खणेण तुरंगु। बलाउ चऊरू खणेण मऊरु॥ णऊलहि मच्छु खणेण तरच्छु । अगाहु वराहु खणेण दुरेहु । सिवालु विरालु खणेण मरालु ॥ अणिंदु गइंदु खणेण मइंदु। महीसु सथोड हवेइ खरो१॥ अणेयविहाइँ करेइ मुहाइँ। अणेय ससत्थ विउव्वई हत्थ ॥ णियच्छिवि सो वि ण कंपइ तो वि। मणम्मि णरिंदु पयासिउ छंदु ॥ सुमेत्तियदामु --जणे अहिरामु। घत्ता-जं जं किं पि पुरउ णियइ तं तं णिवइ हणंतु ण थक्कइ। णाइँ रामु रामणसमरं कुरुबलि भीमु अह व परिसकइ ॥१४॥ १३. ४ क सिहरे। १४. १ ख मयंगु दलंतु। २ ख पयंग पयंगु । ३ मयंगु, ४ ख ग घ उलूवहि । ५ ग घ खरोट्छ । ६ ग घ अणेण विहाई। ७ क समत्व। ८ ख विउव्वण। . Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ε. १५. २४ ] सुदंसणचरिउ १५ रक्खसे मुक्कु अक्खु दुण्णिरिक्खु कालओ । धाइवाहणेण भूरिरोसिरो विरालओ ॥ रक्खसेण मुक्कु चारु चंचलो तुरंगओ । धावाण दूसुसी तिक्खगओ ॥१॥ रक्खसे मुक्कु मत्तु तुंगगत्तु वारणो । वह सी लंबीहु दारुणो ॥ क्खसे मुक्कु मे वोमि उत्थरंतओ । धावाहणेण घोरु मारुओ तुरंतओ ॥२॥ रक्खसे चित्तभाणु पज्जलंतु घित्तओ । धाइवाहणेण मेहु णीरविट्ठिजुत्तओ ॥ रक्खसेण मुक्कु रुक्खु सुक्खु अक्खलंतओ । धावाहणेण तिव्वु पावओ जलतओ ||३|| रक्खसे पत्थरालु मुक्कु सेलु जक्खणे । धाइवाहणेण चंडु वज्जदंडु तक्खणे || रक्खसे मुक्कुरुंदु चंदु विष्फुरंतओ । धावाहणे राहु तप्पा हरंतओ ||४|| रक्खसे मुक्कुत्ति अंध्यारु भीसणो । धावाहणेण भाणु भूरिभापहासणो || रक्खसे मुक्कु जाम सायरो झसायरो । धावाहणेण ताम मंदरों सकंद ||५|| रक्खसेण णायवासु पेसिओ पईहरो । धाइवाहणेण बाणु भासुरो खगेसरो ॥ तोणिसायरो विस्स संगरे पलाणओ । तक्खणेण झत्ति पत्त चुत्तु छंदु तोणओ ॥६॥ १५. ३ क णायबाणु । १५ १ क धाइवाहणेण भूरिरोसिरो विरालो । २ क मुक्कु तत्थ मेहु उत्थरं तल्लो । ११३ ५ ܘܐ १५ २० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ यदिविरइय [ ६. १५. २५ २५ घत्ता - तो णिवेण णिसियरु भणिउ रे णिल्लज्ज रणंगणे भग्गओ । जइ तो किं पुणु आइयउ णासि णासि पइँ मारिवि लग्गओ ||१५|| १६ णरवरिंदु णिडारेवि णयणइँ भल्लिएँ हणिविता मुच्छाविउ लहिवि चेट्ठ पिसयहो' णिवपुं जिगिजिगंत असिविज्जुल मणहर तक्खणेण चंपापुरपा दोहाइउ तिमियर दो धाइय हय चयारि मरु मरु पभणंता अणि सोलह सुविराइय बत्तीस विदोहंडिय जामहि ते ह तखणेण वित्थरियउ पुणविवेढि विइ केम सुठु वि बलवंत गुणगुरुक्कु तहिँ अवसरे सो सहसत्ति णट्ठ संवरि विठवण णिसियरेण अग्गन णिव पच्छन दिव्वु जाइ रयणीयरेण कड्ढविकिवाणु जज्जा हि सरणु सुहृदंसणासु तं सुणेवि सरणि गड गलियमाणु भइ ण भणई' जाम इय वयणइँ । अह सदप्पु को णावइ पाविउ ॥ धाइउ हरिहे णाइँ तंबेरमु । भिडिय बेवि णिसियरणिवजलहर ॥ जाउहाणु आउ करवालेँ । दो तो चयारि संपाइय ॥ तिसरो अट्ठ संपत्ता । सोलह हय बत्तीसुद्धाय ॥ चट्ठि जि उप्पण्णा तामहि । ( पारद्धिया नाम पद्धडिया छंदो ) घत्ता - मज्झे परिट्टिङ चंपवइ सोहइ णिसियहिँ सुरउद्दहिँ । विरणहिँ विउणहिँ" वेढियउ जंबूदीउ व दीवसमुद्दहि ||१६|| १७ अट्ठावीसा सउ उत्थरियउ ।। १ ख वेढिउ । कम्महिं संसारिउ जीउ जेम । किं बहुयहि लइयउ' करइ एक्कु ॥ णं सीहसमूह हत्थि तट्टु । गिभागर्म णिसि विदिणेसरेण ॥ जीव पुव्यंकि कम्मु णाइँ । तो बुइ णिवइ पलायमाणु ॥ रक्खेवर अण्णहो सत्ति कासु । जंपइ सुदीणु भयकंपमाणु ॥ ५ २ ख जा जाहि । १० १६. १ क पुणइ वि भणइ । २ क णिसियरहो ; ख णिसियरु ; ग घ णियरहो । ३ ग घ तमियर | ४ क सहेवि । ५ ख विहय । ६ ग घ अट्ठावीसउ सउ । ७ ग घ भत्ति । ८ कविउलहिं विउलहि । १७. ५ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. १६. ५ ] सुदंसणचरिउ घत्ता - चयवि जोउ णिउ रक्खियउ मेलाविउ भडयणु असिभीसणु । अवयाहि उवयारु जइ को करेइ मेलेवि सुदंसणु ॥ १५॥ सो दूरें अच्छउ' ताम राउ एत्यंतरे तेण णिसायरेण अक्खिज्जइ रायहो कवडजुत्तु थिय' कामएवउच्छंगे जइ वि तु अग्गमहिसि वें वरासु अंध आणावि वणंदु सूरुग्गर्म णवर विलक्खियान सहसा पइँ पेसिय किंकरेहि ता आसणक मुणिवि एत्थु मिंग विमारिणउ मरंति साहिवि जइ वि संपत्तु जाम अवरु अनंतरुहविवक्खु तो पच्छुत्ता करंतु राउ म हु किं दोसवियारणेण १८. ५ ख ग खम । १६. तो इणिवा' उत्तउ सुद्धसहाउ सुमणु उवहसणहिँ छारें दप्पणु व्व उब्भासइ अवरु करेणु धिट्ठउ पइँ रक्खि हउँ लद्धअकित्तणु १८ देव वि णमंति जसु धर्म्म भाउ । तं बलु जीवविउ सायरेण ॥ देव विदुक्ख तियचरित्तु । पुरिसंतरुतिय अहिलसइ तइ वि ॥ अहिलासहो गय सुहृदंसणासु । थिउ णिच्चलंगु णं महिहरिंदु ॥ फाडिवि धाहाविउ तान । जा हम्म तिक्खहिँ असिवरेहिँ ॥ आदेवि महूँ खिल्लिउ भिच्चसत्थु । अम्हारिस उवसग्गइँ हरंति ७ घत्ता - सप्पुरिसह किं बहुगुगहिँ पज्जत्तं दोहि " णराहिव । तडिविष्फुरणु व रोसु मर्ण मित्ती पहाणरेहा इव ॥ १८ ॥ १६ इँ मायालु णिम्मविउ ताम । तं सलु विइ तुज्भु जिं पक्खु । पुणरवि मण्णावइ साणुराउ । तं णिणिव जंपि वणिवरेण । १ ख अच्छइ । ६ क जंपिजइ । सरिस उवस पर जुत्तउ । णिच्च वि णिदिज्जंत पिसुनहि । णिम्मलु अहिययरं पडिहासई । विणु तुह पसरणु इट्ठउ । पहूँ महु दिष्णु रज्जु मणुयत्तणु । २ क थिउ । ७ क दोह १ ख पाले । २ ग घ परि° । ३ क त्रियारिय | पहाणे हा । ३ ख मि पयासइ | ४ ख ब । ४ क प्रक्खित्तणु । ११५ १० १० १५ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ णयणदिविरइयउ [६. १६.६. तुहुँ महु बंधु इटु सुहि सज्जणु तुहुँ गुणरासि सेयआवजणु । तुह उवयारही भो भो सुंदर पडिउवयारु णत्थि जर्गे वणिवर । जइ वि तो वि करि वयणु महारउ अद्ध रज्जु भुंजहि दिहिगारउ । घत्ता-एत्यंतरे जंपइ वणियवरु वियलियदिवसि व सोक्खसयज्जे । सुरधणुछायपयासिरण हो किं पुज्जइ महु णिव रज्जें ॥१६॥ १० संपयाणिहालणेण रजणीइपालणेण । सत्तुवग्गविग्गहेण दुट्ठजीवणिग्गहेण। एयजीवियस्स हेउ पाउ अजिओ अमेउ । का णरिंद कजसिद्धि भुंजि तं पिरजरिद्धि। दूसहं तवं चरेमि हं भवण्णवं तरेमि। तो भणेइ राउ एम तं तवं करेसि केम। अजए जुवाणभाउ णंदणो वि अप्पकाउ। बप्प लालि पालि ताम सो समत्थु होइ जाम । तं पि चारु भोय भुंजि इट्ट मित्त बंधु रंजि । पच्छए तवं करेसु तो पयंपए वणीसु ।.. __ (समाणिया) घत्ता-णरवइ सव्वया वि जमही बालु जुवाणु विद्धु णउ छुट्टइ । अवसप्पिणि विसेसेण जलबुब्वोवमु जीविउ वट्टइ ॥२०॥ २१ जे जोव्वणत्त वरतउ करंति ते लीला भवसायरु तरंति । जोव्वणु पुणु गिरिणइवेयतुल्लु विद्वत्त होइ सव्वंगु ढिल्लु । जरसिहिअउव्वजालग्गितत्तु जाएइ सब्बु संकुइयगत्तु । धणुहु व्व' णवइ पुट्ठीहिँ मज्भु णिण्णुण्णय॑महि गोमय अमेझु। १९. ५ ख इट्ट बंधु। ६ ख घ अत्यि जगि। ७ क तव। ८ ख मयणु ; ग घ वणिवरु। ६ ग वियलियं दिवमिव । १० ख पयासिएण हो हो पुजइ णिव महु रजई। २०. १ ख करेहि । २ ग घ जुवाणु भाउ। ३ ग घणिहिं । २१. १ ख धणु जुब्व। २ प्रतिषु दिण्णुणय। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. २३. २] सुदंसणचरिउ जलु मुत्तु रज्जु अहि चंपियं पि ण मुणइ विसेसु दिट्ठी के पि। जोवणु व पडिउ महियलि णिएइ णं कुकइकव्वु पट पट खलेइ । पवणाहउ तरु जिह थरहरेइ दुप्पुत्त व सुइ वयणु ण सुणंति जुज्झति जा ण डिंभयं भणंति । ता तउ चरेवि सिवहरे चडेमि संसारकूर्व जें णउ पडेमि । तं पेम्मु जंण पयडेइ देसु तं भोयणु जं मुणिभुत्तसेसु। सा पण्णा जा ण करेइ पाउ सो धम्मु जत्थं णउ डंभभाउ । सो सक्कई जो जिणवरु थुणेइ ... सो सूरउ जो इंदिय जिणेइ। घत्ता-दिव्वाहरणविलेवणइँ तावज्जिय" पडिहासहिँ चंग। अइदुग्गंधइँ विट्टलइँ जाम ण लग्गहिँ मणुवहँ अंगइँ ॥२१॥ २२ लहिओं णीलंजस मरणहेउ तवचरणही गउ चिरु रिसहदेउ । दिक्खंकिय तह तणुरुह वि तासु णेच्छंति सेव भरेहसरासु । मुअ गंदण णिसुणिवि सयरराउ सिय सेसिवि सहसा सवणु जाउ। सुरजुअलें वण्णिउ सणकुमार जायउ विविण्णु तउ चरइ चारु । पव्वज्जा पालिय राहवेण लक्खणु छम्मासुव्वहवि तेण। पसुणासें होसइ किर विवाहु वउ लेइ कुमारु वि णेमिणाहु । जोइवि विलीण अलिमेह उक्क अवर वि जिण दुद्धरतवहा ढुक्क । हउँ पुणु हवेमि एवहिँ णिगंथु गउ जेण महायणु सो जि पंथु। घत्ता–किय पइण्ण मइँ तइयहुँ जे इय उवसग्गही जइ छुट्टेसमि । दिक्ख लेमि दइयंबरिय पाणिपत ता हउँ भुंजेसमि ।।२२॥ २३ तो हुउ णटुत्तरु णं मोग्गहुँ' पुणु वण्णइ णरेसु सपरिग्गहु । भो वणिंद भावियपरमप्पय वंदारयपविंदवंदियपय । २१. ३ ख जलमुत्ति; क 'मुत्त अहि वि संचंपियं पि ।४ ख कि वि । ५ क ग घ मयिनु । - ६ ख जणा डिभइ। ७ क चरेमि। ८ ख ग घ दोसु । ६ ख जेण। १० क सोहइ। ११ प्रतिषु तं वजेवि । १२ क लग्गई अह मणुअंगई। . २२. १ क लहिवि। २ ख णेच्छंत। ३ ग घ विवण्णु। ४ क णील। २३. १ क तो हु सुदंसणासु सग्गागहु ; ख णं गोज्झहु । १० Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ पइँ जेहउ जिगिंदु पर वुच्चइ जणु वामोहगहिउ पालइ घरु किसि कब्बाडु सेव मण्णइ वरु संपत्त विवि णिवसंपय पुणु पुरम्मिणि संपत्त ओलंबिवि तरुग्र्गे' अभया मुय पंडिया विनियम संतट्ठिय यदिविरइय [ ६.२३. ३ णिहिल वि तुह गुणो को सुबइ । पाउण गणइ किं पिवंचइ परु । तवणामेण देई देहे जरु । धणु सो व जो लेइ महव्वय । तावेत्तह करेवि अवरत । पालि उत्तरे वितरि हुय । तह पाडलिहे " संमुह लहु पट्टिय । घत्ता - हि जाएविणु विउसि थिय देवदत्तगणियाई णिकेय" । इय अक्खइ णयणंदिगणि समवसरणे जिणणाहविलोयणे ॥२३॥ 93 सरपंच मोक्कारफलपयासयरे माणिक्कणंदितइ विज सीसणयनंदिणा र महासंगर वित्त सिय णिवेण वणिणाहहो समप्पिया ण गिहिया अभयाविंतरी जाइया पणासेवि बुद्दी गया यरे पाडलिउत्तर इमाण कयवण्णणो णवमो संधि समत्तओ । ॥ संधि ९ ॥ २३. २ ग घ घरु । ३ ग घ एइ । ४ ख चएइ । ५ ग घ सो जि । ६ क णिव । ७ ख जं । ८ क करेवि वरतउ; ख करइ श्रवरुत्तउ । ६ ख तरुवरि । १० क पारिउत्ते । ११ क पाडलहे ख तहु पाडलिहु समुहु । १२ क मणियाणिकेयणे । १३ कालो | ५ १० Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि १० भीसावर्ण तहि पवर्ण' पावियपरमपसंसें । यतामणियमाणसे चिंतिज्जेइ वणीसें ॥ ध्रुवकं ॥ मरणजम्मण सलिल अत्थाई बहुकवडावत्तधरे विविश्चित्तदुव्वायणीसणे । राइदोस जलयर पउरे को हलोहवडवग्गिभीसणें ॥ दुग्गइवेलासंवलि इह संसारसमुद्दे । धरणु पुणे" विणु ण लहइ जीउ र उद्दे ॥ वस्तु ॥ चिंतिऊण एरिसं सुदंसणो । लोयजुत्तु पत्तओ जिणालयं । धाविरस केलिमंदिरं देव माणवेहि लद्ध संसणो दणस्स देवितं नियं पयं असोयक्ख क्खि सुंदरं जं हो व्व रोहिणीमणोहरं जं सरुव्व चक्किणीपसाहियं जं करिव्व घंटरावघग्घर जं वणुव्व यंत जंत सावयं तं नियच्छिऊण सो पहिओ रुंद चंदताराहि भासुरं । चारुहंस जोइचक्क सोहियं । दिव्यकुंभ संखतूरचामरं । जं धणुव्व मोक्खमग्गदावयं । छंदओ णिसेणि णाम सिट्ठओ १० घत्ता - तहिँ सुंदरे जिणमंदिरे णियकुलणहयलचंदें । मोह जिणणाहो थुइ आढत्त" वणिदें ॥ १ ॥ जय सिय' तियससुरम उड मणिकिरण चुंबिय चलण जयहि सयलतिल्लोकखोहण | जय जय केवल णा णिहि जयहि भव्वअंबुरुहबोहण || १. ख उववणें । २ क कवडवत । २ ख पवरे । ५ व पुणे | ६काइ चक्क । ७ ख ग घ घंटराय । कवणुव्व पत्तत्तु सावयं खसाहयं । १० ख दियो । २. १ ग घ णमंसिर । ४ घ लोहकवडग्गिभीसणे । ८ ग घ संखवूढचामरं । ११ ग घ पारद्ध । १० १५ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जयणदिविरइयउ [१०. २. ४जय इंदियपडिभडदलण जय जाणियपरमत्थ । जय जरमरणविणासयर जय जय जय णिग्गंथ ॥ वस्तु । जय अमोहरविमोहतणुपहा धाउरहियसवरहियेचउमुहा। जयहि पगुणगुणगणविहूसियाँ जयहि असुरसुरणस्पसंसिया। जय अमाण जय माणलक्खया जय अकाम कामत्तणक्खया। जय हि कुणयमयगलमयाहिवा जय तिलोयलोयाण कयकिवा । जय सुपास आसाविणासया जयं अकरण जमकरणतासया। जय सकमल मुक्कमल इह थुआँ जयहो सरण समसरणसंजुआ। सुमुणिराय गयरायदोसया सुरहिगंध सुरहिय अलेसया। जयहि अणह णहविद्धिवजिया वासुपुज्ज पुजाणुपुजिया। (विलासिणी णाम छंदो) घत्ता-जइ सयलहो गयणयलही पारु को वि चकम्मई। तो आरिसु अम्हारिसु तुह गुण वण्णिवि सक्कई" ॥२॥ १५ ५ खुहइ खलयणु मुअइ करि दप्पु सप्पो वि णिव्विसु हवइ विसु वि अमियरूवें पवत्तइ । सिहि सीयलु संभवइ कमु वि दिंतु केसरि णियत्तइ॥ कुलिसकठोर दिढुब्भडइँ पयणियलइँ तुति । धीरुवसग्गइँ अवर वि' तुह णामें फिटुंति ॥ वस्तु ॥ थुणेइ देउ मोक्खहेउ चित्ति जाम हिट्ठओ। सुरिंदवंदु तें मुणिंदु ता णिसण्णु दिट्ठओ॥ तवग्गितत्तु मोहचत्त सिद्धिकंतरत्तओ। मयाण भट्ठणेत्तइहुँ जल्ललित्तगत्तओ ॥१॥ २. २ क प्रमाहरविमोह दिणयरतणुपहा ; ख प्रविमऊह । ३ ख सउरहिय । ४ क पगुणगणहिं ; ख सयलगुणगण। ५ प्रतिषु 'कामतणु अक्खया' । ६ क जयहि । ७ क सकमलकमलाणाहसंथुप्रा ; ग घ सकमलमुकल इह थुमा। ८ क समवसरण । ६ क रायदेसया। १० घ चमकइ। ११ क विरिण वि सक्कइ ; ख विरिणवि ण सकइ ; ग घ तुह पुणु वरिणवि सकइ । ३. १ ख अवयरिवि। २ ख मयाण णट्ठ । ३ ख णित्तइछु। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.४.१०] चरि पणट्ठदेसु सुक्कलेसु संजमोह वित्तओ । तिलोय बंधु णाणसिंधु भव्वकंजमित्तओ ॥ अलंघसत्ति बंभगुन्ति सुप्पयत्त रक्खणो । जिनिंदउत्त- सत्ततत्त-ओहिणाण-अक्खणो ॥२॥ गिरिंधीरु दोसभीरु पावपंकउद्धरो । तिसवेलि दुक्खहुद्धि-तोडणेकसिंधुरो | पसण्णमुत्ति सुज्जदित्ति सीलतोयसायरो । पमायणासु कंदभासु संजओ दयावरो ॥३॥ महाकाय णोकसाय भीमसत्तु तोडणो । अहिंसमग्गु धीसुणग्गु कम्मबंधसाडणो ॥ कुतित्थपंगु मुक्कसंगु तोसियाणरामरो' । लगुत्ति सोलअक्खरेहिँ छंदु पंचचामरो ||४|| घत्ता - समचित्तउ जिणभत्तर परिपालियरयणत्तउ । तवतत्तउ मयचत्तउ 'चायारहिँ जुत्तउ ॥ ३ ॥ ४ विमलवाणु णाम भयवंतु अहिणंदेवि वणिवरेण णयसिरेण पुच्छय भवंतर । सोहण तो रह कहइ सयल वंदेवि जिणवर || जंबुदी सुरमहिहरहो दाहिणदिसणं' पसिद्धु । गंगासिंधु हँ मज्झि ठिओ भरहखेत्तु धरिद्धु ॥ अस्थि बिंदेसे' लंजि कोसलम्मि भूमिपालु णाम राउ तासु भामिणी वसुंधरी तीन लोयवालु पुत्त जाउ एक्क वासरम्मि ताम रायसीहवारे लोउ सव्वु पत्त देव देव रक्खि रक्खि कंपमाणु माणवाण विंदु पत्त बिंभिए पत्थवेण पुच्छिओ अनंतबुद्धि मंति जाम ४ ख तेयसत्ति सुद्धवत्त । ५ ख भव्वतोसियामरो । १ क 'दिस ख दिसिय ; ग घ दाहिणि दिसथ । ३. ४. ३ ख लोयवाल पुत्त जाय दिव्वकाय । ४ ख विब्भरण । १६ वस्तु ॥ मेहणाउ । दिव्वकाॐ । पुक्करं तु । तं सुणि ॥ तेण ताम । ६ क ख लघुत्ति । २ ग घ विसयदेसि । १२१ १० १५ २० १० ५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ णवर्णदिविरहयउ [१०.४. ११वुत्तु दाहिणेण पट्टणस्स विझभूहरम्मि अस्थि भिल्लु विक्कमिल्लु । वग्घणामु केसरि व्व कुंभिकुंभदारणे पसत्तु रत्तणेत्तु ॥ चंडचावदंडकंडहत्थु दीहदाढियालु किण्हदेहु णा मेहु। .. उद्धकेसु भीमवेसु आहवे अजेउ कूरचित्तु ---- णं कयंतु ॥ पीणपीवरत्थणीकुरंगिणीप जुत्तु दुण्णिवारु .... मोट्टियारु। १५ (विषमवृत्तं) घत्ता-सो रूसइ जणु तासइ पुणु पइसइ तहिँ महिहरे । खणे दीसइ खर्ण णासइ विजदंडु णं जलहरे ॥४॥ ५ तेण कब्जे कलुणु कंदंति संपत्तिय सयल पर्य' इय सुणेवि भूवालराएँ। वुच्चइ दर कुपिएण काइँ तेण कीरण वराएँ । णाम अणंतु अणतबलु दंडाहिउ आणत्त । सो भडथडयगयसहिउ गउ गंजोल्लियगत्तु ।। वस्तु ॥ पहुत्तो अणंतो पुलिंदेण जित्तो । भएणं पणठो णिओ ताम रुट्टो ।। सदप्पं चवंतो बलं धीरवंतो। सचिंधो सछत्तो सयं भत्ति पत्तो ।। करुग्गिण्णखग्गो ण जा तस्स लग्गो। तओ लोयवालो पर्यपेइ बालो । तुमं सुरसूरो पयावेण सूरो। महारायराओ ण तुल्लो किराओ ॥ किमालोलजीहो सिआलस्स सीहो । वलग्गेई कुद्धो तुम देव मुद्धो॥ इमं जंपिऊणं अरिं हक्किऊणं । सुराणं असझं कयं तेण जुझं। २ क भडकरिसहिउ ; ग घ थडहयकरिसहिउ । ५. १ ख संपत्ती एह पय। ३ ख जुत्तो। ४ क वलग्गेभि । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ७. २] सुदसणचरित किवाणेण भीसं हयं तस्स सीसं । णरिंदो पहिठ्ठो पुरे सो पइट्ठो। (सोमराई णाम छंदो) घत्ता-हयहयथर्ड गयगयघर्ड उब्भडभडकयरंगणे। . __ २० असिअसियउ विहिविहियउँ मरवि समरु समरंगणे ॥५॥ ५ वच्छदेसष्ट गोटिन हुउ साणु पंचाणणसमसरिसु एक दियहिँ गोवीहिँ सहियो। कोसंविहिँ आइयउ परिभमंतु जिणभवर्ण रहियओ॥ जा कुरंगि होंती समरि सा कालेण विवण्ण । महिसि जाय कासीविस वाणारसिहि रवण्ण ॥वस्तु॥ भवंतरे होतउ आसि किराउ पुणो हुउ जो भल्लहुल्लु बराउ । मरेप्पिणु अंगयदेसि दुगेज्म __ अकंपहे चंपहे सो तहि मझ॥ समिद्धयलुद्धयसीहपियाहिँ हुओ किर णंदणु सीहिणियाहिँ ॥ कुलक्खयकम्म खलो हु करंतु सुयस मिसेण य पत्तु कयंतु। तओ सुहओ कयगोहणरक्खु णियच्छइ काणणे साहु जियक्खु ॥ णमो अरहंतपयं मुणिऊण सुदंसणु तं सि हुओं मरिऊण । तवेण जि घोरुवसग्गु सहेवि अगोवमु केवलणाणु लहेवि ॥ अफासु अगंधु असदु अचक्खु अणंतचउक्कु लहीसहि मोक्खु । घत्ता-जा होतिय भिल्लहा पिय पुणु हुय महिसि भवंतरे । सा कालें असराले णिवडिय जमदंतंतर ॥६॥ १० १५ चंपपट्टणे रजयसामलहो जसवइहिँ वच्छिणि दुहिय होवि विहव अणथमिउ लेप्पिणु । ५. ५ करंजणे। ६ ख विहिवसियउ। ७ क सबरु । ६. क एकहिं । २ ख मरेविणु। ३ क दुसज्झे। ४ ख कुलक्खउ जाम खणुजकरंतु ग घ कुलक्ख कम्म। ५ क खलोव्व ; ग घ खलोज । ६ ख सुवस्स। ७ क सुणिऊण । ८ ख तं जि हुमोः ग घ तं सुहो। ९ क ग घ प्रभक्खु । ७. १ ख रऊयसामलहो; ग घ रज्जव सामलहें । २ क वछि। ३ ख लेविणु । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ णयणदिविरहयउ [१०. ७. ३जिणधम्मपुण्णोदगण तुज्म कंत सा हुय मरेप्पिणु॥ जाएसइ सुरणरसुइइँ भुंजिवि मोक्खु णिरुत्तु । एउ मई तुम्हहँ अक्खियउ जं होसई जे वित्तु । वस्तु॥ -- ५ पमत्तु समांसलगत्तु मयंगु करंतु पसंगु। घणम्मि णिबद्ध वणम्मि असम... झसो जलमज्झे। खलंतु वलंतु चलंतु णिहित्तु पलम्मि पसत्तुं । दुरेहु मणोहरदेहु रुणंतु संगधु मुणतु । विलीणु कुसेसयलीणु पयंगु सुसण्हणवंगु। चलंतु णहम्मि मिलंतु पहिहु हुयासे पइटु । वरंगु वर्णते कुरंगु भमंतु कुरंगि रमंतु । ' समत्तु सुगेयही रत्तु ।। घत्ता-इय मणवस सुहलालस विसयासत्त हवेप्पिणु । दुहसारण संसारण पुणु हिंडंति भरेप्पिणु ॥जा १० मरणु पत्तउ चंगु फरिसर्तण - रसणेण सुभउमु णिउ गंधलुद्ध तह गंधमित्तु वि। दिट्ठीष्ट सहस्सभडु सुइरसेण गंधव्वदत्तु वि ॥ जो पुणु पंच वि इंदियइँ पसरंत. ण धरेइ । .. सो अंगारायकड्ढणउँ सइँ हत्थेण करेइ ।।वस्तु।। गया खउ देव वि चित्तवसिल्ल पसिद्ध वि जे किर मागमहल्ल । णियच्छिवि थेरु तिलोत्तिमकाउ मणस्स वसेण चउम्मुहु जाउ । अणंतु वि सो वि मणं ण धरेइ सदप्पिउ गोवहँ गोविउ लेइ। सई तणुअर्द्ध सिरे सुरसिंधु हवेइ हरो मणलोलु मयंधु । असेससुरासुरमत्थयसूलु चलावियतुंगधराहरमूलु। ७. ४ घ एमई। ५ क तुम्हई। ६ ख होहइ। ७ ख समालसगत्तु । ८ ख थलम्मि पसत्तु। ६ ख °वंजु । १० क अणंतेः ख वर्णतु । ११ क सम्भत्तु । १२ ख विणु। ८. १ ख सवणेण २ क पंचई इंदियई। ३ ख कड्ढणइ। ४ क "विसल्ल । ५ क सहत्तणु। ६ ख चलाविउ तुंगु धराधरमूलु । १० Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ १०. १. १५] सुदसणचरित सया जसु छज्जइ लीलु विहाणु विहीसणु भायरु लंकपहाणु। जगत्तयपायडु रावणु णाम णिएविणु रामह। चंदहाँ राम। अखंडसइत्तणे मंडिय सीय सकाममणेण हरेविणु णीय । रणंगणे लक्खगचक्कहएण दुहं सहियं णरयम्मि गएण। पत्ता-भरहेसही गंदणु तहा णवर सुलोयणलुदउ । धणणाएँ सकसाएँ सो समरंगणे बद्धउ ॥ ८॥ उत्तरंतउ पवरसुरसरिहिँ पारासरु चलियमणु मुयवि लज्ज केवट्टिणंदिणि । अलिंगई उअरि तह वासु होइ तावसु महामुणि ॥ भारहु पुणु हुउ दोवइहे केसग्गहपव्वेण । जिणु मेल्लेवि के के ण जर्ग विणडिय सयले मणेण वस्तु॥ ५ मणं सवसं इह जस्स हवेइ । तिलो जसं णिरु तस्स भमेइ । परामरखेयर सेव कुणंति . फणिंद गरिंद गुणोहु थुणंति। ससल्ल महल्ल विवक्ख तसंति' दुलंघ कुविग्घ कया वि ण होति । बलुद्धर सिंधुर अग्गए थंति चलंग तुरंग ण कत्थर मंति। सुमंत सुजंत सुतंत फुरंति सपेसणु सासणदेव करंति पहाण णिहाण धणाहिव दिति अभेय अणेय सुपाहुडपंति । मणि? गरिह सुहाई रमेवि वरामरु सो णरु होइ मरेवि। विमाणे विमाणे पणट्ठदुहाइँ सपुज मणोज लहेइ सुहाइँ । घत्ता-हुउ जो पुणु चंचलमणु सो दुहसलिले णिम्मजइ। परलच्छिउ धवलच्छिउ" पेच्छिवि तिलु तिलु झिजइ ॥९॥ ८. ७ क णामुः ख ग घ राम। ८ ख राहवचंदहोः ग घ सहसा चंदहो । ६ ख भरहेसरहो। ६. १ क प्रालिंगिय । २ ख दोमइहे। ३ ख णिवडिय चवलमणेण । ४ क मणं पि वसं सई: ख मणं च वसं इह । ५ क महल्ल तिलोवम ति। ६ क दुविग्ध । ७ ग घ कत्थ समंति। ८ ख कुणंति। ६ क दंति । १० ख सुपाहुड इति । ११ ख खरलच्छिउ लवलच्छिउ । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ णपणदिविरयउ [१०.१.१ १० पताव। हवइ सारउ मेरु पव्वयहँ अइरावउ कुंजरहँ फणिहिँ सेसु सुरगेहु हम्महँ। खोरोवहि सायरहँ' सुरहँ इंदु णरजम्मु जम्महँ॥ ..... तं पावेप्पिणु मूढमइ जो णवि धम्मु करेइ । सो सासयसुहलच्छियहिँ ऐतिहि कुप्परु देइ ।।वस्तु॥ ५ छणम्मि छणम्मि पहिड चलेइ ण किं पि वि आउ गलंतु कलेइ । तुमं चिरुजीउ पहिड हवेइ मरेहि सुणेप्पिणु रोसु करेइ । ण जाणइ मझु पडेसइ कालु अचिंतिउ णावइ मच्छहो जाल । सिहंडिहि पिच्छु गइंदहा दंतु मयाइणु गंडयअस्थि फुरंतु । किमीरुह लोहिय कंबल जे वि जणेण पवित्त पसंसिय ते वि। मुओ णरु कासु वि होइ ण इटु सबंधव ते वि वहति अणि?।। छिवंति ण णावइ कालउ सप्पु पिया सुय तक्खणे चिंतहिँ अप्पु । विणासि सरीरही जाणिवि थत्ति हियत्थे पयत्तणु कीरइ झत्ति । अहो जणे धम्मु पईउ जि लेहु वलेवि में जम्मणकूर्व पडेहु । सुणेविणु एम मुणिंदही वाणि सुदंसणे 'सीसि चडाविय पाणि। १५ पडिच्छइ धम्सु महागुणखाणि अणंतरु सेणियराय वियाणि । घत्ता-इय गणहरु अक्खइ णिरु जो णयणंदियसासणु। सुकलाहरु णं ससहरु कुवलयपिउ तमणासणु ॥१०॥ एत्थ सुदंसणचरिए पंचणमोक्कारफलयपयासयरे माणिक्कणदितइविजसीसणयणंदिणा रइए किराउ पुणु मंडलो सुहयगोउ सुर्वसणो कुरंगि महिसी तहा रजयपुत्ति सा" वच्छिणी पुणो हुय मनोरमा कहिय चारि जम्मतरा इमाण कयवण्णणो दहमो संधि समत्तओ। संधि ॥१०॥ १०. क सायरजलह। २ ग घ जीय। ३ ख सुणेविणु। ४ क ख सिहंडहिं । ५ ग घ जिणधम्मु। ६ क ण। ७ ख जम्महु कूवि । ८ घ एस। ६ घ सुदंसणु। १० क स कलाहरु। ११ ख या। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ११ जम्मतरु सुणेवि तहाँ मुणिहि पासि वणिवसहे। लइयउ तवचरणु णिव्वेइएण जह' रिसहे" ॥ ध्रुवकं ।। तही तवचरणु णवर णिसुणेप्पिणु णरवइ धाइवाहणो । अणिमिसणयणु पुणु वि पुणु चिंतन भवभयतसियणियमणों ॥ रचिता ।। विचित्तु ण देव वि जाणहिँ णारिचरित्तु । अयाणु अहं किह जाणमि ताहे पमाणु। झडित्ति पयासिवि डंभु मया महु पत्ति। णिमित्तु लहेवि सुदंसणु सो जि विरत्तु । मणोज विवन्जिवि रज्जु व रज्जु सपुज"। सुसिक्ख पगेण्हिय तेण दियंबरदिक्ख । अहं पि ण जाणमि इंदियलंपडु किं पि । महंतु ण संकमि पाउ करंतु अणंतु । भविस्स ण जाणमि कत्थ मरेवि हविस्स। णिवेण इयं णियचित्ते वियप्पिवि तेण असेसु सपुत्तही ढोइउ रज्जु सदेसु । अणिंदु दियंबरु जाउ णवेवि मुणिंदु। पियाउ हुओ उव्विव्विउ' तासु पियाउ। अगव्व तओ मउडाहिय दिक्खिय सव्व । घत्ता-अवरहि केहि वि तं पेच्छिवि वा पडिवजिउ । गाइँ महासल्लु वि" केहि वि मिच्छत्तु विवजिउ ॥१॥, २० १. १ क हिं। २ ख जिह । ३ क धरावइ णिसुणेप्पिणु : ख णवर णिसुएविणु ४ क तसियमणो।-५ क ण देव ण। ६ क कह। ७ ख पवाणु । ८ ग घ डेंभु। ६ ख मई। १० ख वि। ११ क रज्जु सपुत्त कलत्त । १२ क स्सु । १३ क खंधिबउ । १४ घ पडिवजियउ। १५ ख महासरि वि। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ णयणंदिविरइयउ [११. २. १ णरवइपमुहएहिँ सव्वेहिँ वि तवलच्छी विहूसिया। कियउ चउत्थु अण्णदिणे' चंपहिँ गोचरिया पयासिया ॥ [ रचिता] जत्थ सिरी अणुहुत्त तहिं पि कयं पुण भिक्खपवित्थरणं । लोहु ण लज्ज भयं ण वि गारउ पेम्मसमं तवचरणं ॥ उच्चउ णीचउ गेहु ण भावइ जाइवि पंगणए घलए। रिक्खन रिक्खे भमंतु कमेण जि चंदु व तुंगणहंगणए ।। साहुसुदंसणरूवणियच्छणे अंग अंगु दलंतियउ । धाइ जोवणइत्तिउणारिउ मेहलवाम खलंतियउ॥ का वि भणेइ सही पुरु खोहिउ आसि अहं विवरीय थिय । एण जि पंडु पड़त्तरु देविणु छम्मिय सा काविलस्स पिय ॥ का वि भणेइ णरिंदही गेहिणि वल्लह णेच्छिय जा अभया। सा वि पहाट करेविणु ढड्ढसु लंबिवि रुक्खि विलक्ख मुया ॥ का वि भणेइ सकत मणोरम वर्जवि दिक्खवहू वरिया। किं तुहुँ मुद्ध कडक्खणिरिक्खणु जुंजहि एण ण संभरियां ॥ ओसरु ओसरु चंदगहिल्ला' आलि म आलि करेहि मणे । लग्गि म धावि विलज्जपयासणु हासु हवेसइ तुझ जणे ॥ दिट्ठि जुयंतरे दितु पगच्छइ अच्छइ मोणवएण भिसं । एहु कहेइ ण इथिकहतरु जेणुववजई” कामरसं ॥ सेसि हासु सुखेडपलोयणु संगु सपुठवरईभरणं । होरु सुडोरु सुकंकणु कुंडलु सेहरु लेइ ण आहरणं ।। इथितिरक्खणउसयउज्झिन ठाणे वसेई करेइ दमं । एहु वि जो मइराकिर छंदउ के वि भणंति लयाकुसुमं ॥ २० २. १ क चउत्थु ताम अरणहिं दिणे। २ ख प्रणहत्त। ३ ख समं पि । ४ ख धारिउ। ५ क जोवणु इत्तिउ। ६ क ग घ सहे। ७ ग घ विवरेवि । ८ ख वल्लहो णिच्छेइ। ६ ग घ जुंजए एण स संभरिया। १० ख गहिल्लिय; ग घ गहेल्लिए। ११ ख जेण उवजइ। १२ ख सेसउ ; ग घ सेसइ। १३ ग सखेडु ; घ सखेड । १४ क परणे चलेइ। १५ ख मयराकिर ; गध किर महरा । १६ क को वि। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ ११. ४.७] सुदंसणचरिउ घत्ता-पुरे चरिय करेवि गउ जिणमंदिरहो सइकारणु । लीलामंदगई मुणि लंबियकरु णं वारणु ॥२॥ णियगुरु णविवि तेण तहिँ तक्खणे पच्चक्खाणु गहियं। असणु सुखाणु पाणु तह सादिं चउविह चवि तण्हियं ॥ [रचिता] गुरुणा णीसेसु वि कहिउ जेम किदियम्म सुदंसणे पढिउ तेम । पंचुत्तमवय समिदीउ पंच पंचेंदियजउ छावासयं च । लोच्चाचेलक्कु अण्हाणजुत्तु खिदिसयणु अदंतवणु वि णिहत्त। ठिदिभोयणेक्कभत्तेण जुत्त इय अट्ठवीस मूलगुण वुत्त । चउदह मल बत्तीसंतराय परिपालइ दूरुझियपमाय । सोलह उग्गम मणजणियतोस सोलह उप्पायण होंति दोस। दस एसण पुणु इंगालधूम संजोयण तह य पमाण जाम । इय छयालीस विवजमाणु अच्छइ भायंतउ धम्ममाणु । घत्ता–ण करइ रइ अरई गउ हसइ ण को वि दुगुंछई। होइ ण णिहावसु पुजासकार ण वंछइ ॥३॥ गिरिवरसिलहँ उवरि अत्तावणु देविणु गिंभयालए। पुणु घणसमश रुक्खतले णिवसइ बाहिरि सिसिरयालए ॥ [रचिता] एक्कु जि परमतच्चु मणे झायइ वेण्णि वि रायरोस विणिवायइ । सल्लत्तयतणुसल्लुप्पाडई चउ कसाय दुजण णिद्धाडइ । पंचासवदारइँ परिरंभइ छजीवहँ णिकाय ण णिसुंभइ । सत्त भयाइँ चित्ति णउ जुंजइ अट्ठ दुट्ठ मय दूर वजइ । णवविहु बंभचेरु णिव्वाहइ दहलक्खणु वि धम्मु आराहइ । २. १० क ो 'बियकरु ; घ लंबियकरण । ३. १ क गहियं । २ ख सुपाणु खाणु। ३ ख चयदि। ४ क किरिजम्मु । ५ ख लोच्चाचेयलु। ६ क जुत्त । ७-ग घ गंगालधूम । ८ ख णाम । ६ क णउ दुग्गछ। ; ख णउ को वि दुगुंछइ । ४. १ ख रायदोस। २ क सल्लई तिरिण सल्लु व पाडइ ग सल्लत्तय तिणु सल्लय पाडइ। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयणदिविरइयउ [११. ४. ८एयारह सावयगुण भासइ बारहविहतवेण तणु सोसइ। तेरहविहु चरित्तु परिपालइ चउदह भूयगाम सुणिहालइ। पण्णारहहँ पमायहँ बीहइ सोलह सग्गठाण ण समीहई। १० सत्तारह वि असंयम छंडइ संपराय अट्ठारह मंडइ। एउणवीस णाहसन्माण मुणइ वीस असमाहीठाण। एक्कवीस सवल वि संखोहई तह वावीस परीसह विसहइ। सुद्दयडज्झयण' तेवीस वि अक्खइँ जिणतित्थई चउवीस वि । पंचवीस भावण उग्गोवई छन्वीस वि पुहविउँ परिभावइ। सत्तवीस मुणिगुण उक्करिसई अटुवीस आयारइँ दरिसइ । एउणतीस पावसुर्य" दूरई तीस मोहठाणइँ मुसुमुरइ। एक्कतीस मलवाय दुगंछइ जिणबत्तीसुवएसइँ वंछइ । घत्ता-एत्तहिँ कुसुमउरे जा पंडिय आसि पणट्ठी । देवदत्तपुरओ सा कहइ कहतरु तुट्ठी ॥४॥ १५ इह वरभरहे अंगदेसंतरे चपर्ह धाइवाहणो । णरवई अभयदेविसंजुत्ता अस्थि तिलोयमोहणो ॥ [रचिता] अह तहिँ रिसहदासु णामें वणि अरुहदासि तह। सगुण णियबिणि । तीन पुत्त सुहदसणु जायउ हुउ जुवाणु तिहुवणविक्खायउ । सायरसेणु अस्थि अवरु वि वणि सायरसेण णाम तही पणयिणि । ताहे धूय णामेण मणोरम परिणिय सुहृदंसणिण मणोरम । तो सुकंतु णंदणु तहो जायउँ एत्तहे उववणम्मि मुणि आयउ । धम्मसवणु तही पासे सुणेप्पिणु रिसहदासु थिउ दिक्ख लएप्पिणु ।' अह वहिँ अस्थि तासु रायही हिउ कविलभट्टु णाम उवरोहिउ । ४. ३ क सग्गठाण सम्मोहइ। ४ ख ग घ परिरखोहइ । ५ क मह ; ख मुणि । ६ ख सुद्दवडई उमाणई। ७ क अक्खय। ८ ख भावणउ ण गोवइ। ९ क पुहइउ । १० क मुणिगणउं करेसइ। ११ ख पावसुइ। १२ क दूरहिं । १३ ख बत्तीसमुवएसई। ५. १ ख अच्छइ। २ ग घ अस्थि । ३ ख सूव । ४ क तहो विवाहु जायउ सुप्रणोवम । ५ ख तें; ग घ तं । ६ ख णंदणु संजायउ । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ६. १६] सुदंसणचरित कविला बंभिणि तहाँ हिययट्ठिय सावि सुदंसणरमणुकंठिय ।। मित्तमिसेण सहिए सो आणिउ संढउ भणिवि छुट्ठ णउ माणिउ । ता वसंते णंदणवणु फुल्लिउ तहिँ णिउ पुरयणेण सहु चल्लिउ । एत्थप अभयम वणु जतिण कविलय सहुँ सखेड पंतिट। किय पइण्ण जइ रममि ण वणिवरु तो मरेमि' किं णेहही दुक्करु । घत्ता-आइवि महु कहियउ म. सा पुणु पुणु वि णियारिय । उट्ठिय पक्खजुया कीडिय णं फुरइ असारिय ।।५।। तह गिर सुर्णवि मइँ वि वाउल्लय' काराविवि ण पवडिया । पडिवापमुहणिसिहँ पडिहारहिँ सह कलहेवि फोडिया ॥ [रचिता] ता कवडु पयासिवि भड संतासिवि वणिवरु आणियउ । मइँ ताहे समप्पिउ ती मणप्पिउ जाम ण माणियउ॥ थण णहहिँ वियारेवि जण कूवारेवि सगुणविराइयउ। मारावइ जामहि णिसियरु तामहि इक्कु पराइयउ॥ तें भडथड वि समर वियंभेवि णरवइ वुत्त किह । ओलंबियवाहही वणिवरणाहही सरणे पहा जिह ॥ राएँ सिरि दिण्णिय णउ पडिवण्णिय वणिणा तउ लइउँ । अभया मुय तट्ठिय हउँ वि पणट्ठिय जा विउसिट कहिउ ।। तो विहसेवि गणिया थोवडथणियाँ सहसा उल्लवइ। कविला मइँ जाणिय अभया राणिय ण वियक्खण हवइ ।। मइँ कुलविण्णाणइँ करणविहाणइँ गेहपवट्टणई। रइमम्मण मणिय बंधइँ मुणियइँ दरणहघट्टणई॥ जो हुँतउ वणिवरु सो हुउ मुणिवरु किं वण्णियउ पई। जे जे गलगन्जिय ते ते रंजियं कवण ण कवण मई। ५. ७ क हिययं ठिय। ८ ख मित्तवसेण । ६ ख ग घ पच्छए । १० क मरेवि। ६. १ ख वाउल्लउ। २ क कारावेवि णिवडिया। ३ क संतोसिवि । ४ क मणु जंपिउ। ५ ख सगुणु विराइयउ। ६ ख कियउ। ७ क मय । ८ क तो घणथणिया। ६ ख गजिय । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ गयणदिविरइयउ [११. ६. १७तवचरणें विणडिउ दिट्ठिहिँ णिवडिउ जइ णउ वसि करमि । तिहुवणपरमेसरि तो कुंडेसरि पायग्गें हणमि ॥ घत्ता-हुय पसिद्धि णयरे तहा दंसणम्मि तरुणीयणु। थिउ उम्माहियओ दिवसयरही णं भिसिणीवणु ॥६॥ २० ता एत्तहे वि सगुरु परिपुच्छेवि सुरणरकयपसंसणो । जिणकमकमलजुयल वंदतउ विहरइ मुणि सुदंसणो॥ [रचिता] रिसह अजिउ अहिणंदणु सुमइ वि जिणु अणंतु साकेयह पणविवि । सावस्थिहिँ बंदिय संभवजिणु क्रोसर्बिहिँ पउमप्पहु तो पुणु । वाणारसियहिँ पासु सुपासु वि चंदउरिहिँ चंदप्पहु' संसेवि। पुप्फयंतु कार्यदिहिँ सारउ भदिलपुरि सीयलु जि भडारउ। सीहउरण सेयंसु जिणेसरु चंपहे वासुपुज्जु परमेसरु। विमलएउ कंपिल्लहिँ जगगुरु धम्मु रयणउरि पयपणवियसुर। संति कुंथु अरु गयउरे जिणवर मिहिलहिँ मल्लि णमिवि तित्थंकर । रायगेहे मुणि सुव्वउ णंदिउ रिट्ठणेमि सउरीउरि वंदिउ। 'चरमु देउ तइलोयणमंसिउ वड्ढमाणु कुंडलपुरि संसिउ । इय विहरंतु संतु तवतत्तउ पाडलिउत्ति णयरि संपत्तउ । घत्ता-तहिँ कुसुमउरे मुणि छुड़ छुडु चरियान पइट्ठउ । ता पंडियए लहु धवलहरारूढिए दि©उ ॥७॥ मुणिवरु णिशवि विउसि दर विहसेवि सिसुसारगणेत्तहे। सकरंगुलिसण्णा' दरिसेप्पिणु अक्खइ देवयत्तहे ॥ [रचिता] इहु सो जो चंपाणयरि वुत्तु इहु सो जो जिणदासियह पुत्तु । इहु सो जो पुरसंखोहवंतु इहु सो जो सुमणोरमहिँ कंतु । ७. १ क गुरुः ख सुगुरु । २ क ग घ चंदप्पह चंदउरिहें। ३ ख ग घ काकिदिहि । ४ क घ रयणपुरे। ५ क गयपुरे ; ग घ गयबरे । ६ क में ११-१२ पंक्तियों के स्थान में यह एक मात्र पंक्ति है-पाडलिउत्तणयरे संपत्तउ । साहु सुदंसणु गुणगणजुत्तउ। ८. १ क वियसेवि ; ख विहसइ। २ क सकरंगुलिए सरणए । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ६.१२] इहु सो जो कविला परममित्तु इहु सो जें अभयहि गाहु बद्धु इहु सो जो ताहेण सवसु जाउ सो जो मरण दुक्कु इहु इहु इहु इहु इहु 'जसु राएँ दिष्णु रज्जु सो सुदंसणचरिउ इहु सो जो कविलहे छम्मजुत्तु । इहु सो जो मइँ घरि णेवि छुद्धु । किं मित्ते कवडपयासिरेण किं राएँ जणसंताविरेण इहु सो जो थक्क मुक्ककाउ । इहु इहु सो जरूर सो जो हु म' आसि कारणहउँ पलाण सो जसु उपरि गुणमहप्पु घत्ता -- इय वयणाइँ सुर्णेवि गणिया सहसा सउहले मुणि ठाउ सो जो पुणहिँ कह व चुक्कु । सो जो चिंतिर्यपरमकज्जु । सो जो अभय मरणउ । इहु सो जो गुणगणरयणरासि । इहु कारण तुहुँ मलाण । हुँ वार वार रिहि दप्पु । सुदासिहि पासिउ । भणेविणु पेसिउ ||८|| सो जसु င် मरिणख इयदि कढिणकवाडपुडं' नियंतियं । ता मुणिवरेण णवर जिणपडिमा जोयठिएण चिंतियं ॥ [रचिता] किं सुअणे परउवहा सिरेण । किं हे विपियदाविरेण । " किं ऊसरछेत्ते वाविरेण । किं मणुएँ लग्गकलंकण । किं सूरे समरपरज्जिएण । किं द्वे धम्मे पाविरेण किं लच्छिविहीणे पंकएण किं कुसुमे गंधविवज्जिएण किं भिच्चे पेसणसंकिएण २४ किं व्वे किविणकरासिएण किं णीरसेण णचि णडेण घत्ता - तिकट्ठेहिं सिहि तीरिणिसय सहसहि सायरु । किं तुएँ ऊरं ढंकिएण । किं वे लक्खणदूसिएण । किं साहुण' इंदियलंपडेण। f लहइ तित्ती जिह तिह जीउ वि भोयतिसायरु ॥९॥ ८. ३ ख चितइ । ४ क उ ह । ५ ख संवणु । ७ ख वयण । ८क भासि; ख पेसिउ । हख घोसिउ । ६. १ क फुडं । २ ग घ में यह चरण नहीं है । घर ऊ ४ ख णचि । ५ क साहुं ७ क भोयहि सायरु ; ग भोएं तिसायरु ; घ भोयह । ६ ख वरणमि । ३ ख उरुइइ ; ख ग घ साहुहु । ६ क र्ण सायरुं । १३३ ५ १० १५ १० Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जयणदिविरइयउ [११.१०.१ तडिचवलयरविसयसुहपरवसु हउँ बहु विहुर पत्तओ'। इय पुणु पुणु वि जाम किर णियमणि चिंतइ मुणि विरत्तओ॥ [रचिता] ताम उमाकमकमलिंदिदिरि सविलास अवलोइवि सुंदरि । पासु पढुक्किय मुणिवरणाहही खमवासही तवलच्छिसणाहह।। पभणइ किं अप्पड दुहि जुंजहि । सोक्खधवक्कउ सुंदर भुंजहि । तउ करेवि सुहु परभबि लब्भइ गोथणु चयिवि सिंगु किं दुज्झइ । तुहुं सोलहआभरणहिँ जोग्गड मलविलित्तु किं अच्छहि जग्गउ । एवमेव किं तणु संतावहि मज्म हियस्थवयणु परिभावहि । अह वा तबहु गाहु जइ लग्गउ तो माणिवि सुहु होजसु णग्गउ । रमहि किं ण महिलउ कोमलियउ हा हा किं तुहुँ दइवे छलियउ। घत्ता-छणससहरवयणउ अइथोररमणु चक्कलथणु । विन्भमचलणयणउ माणिजउ वररमणीयणु ॥१०॥ तं परभवे सवेण किं लब्भहि परभउ केण दिट्ठओ। । कइँ वि दिणाई जाम जीविजइ माणिज्जइ मणि?ओ ॥ [रचिता] जे मण्णिउ णियतणु णं जरतणु इय वयणहिँ किं भिजइ तहाँ मणु । पुणु करेइ कयजणमणविन्ममु हाउ भाउ सविलासु सविन्भमु। दरसिक्कार फार आवेलणु ईसि ईसि मम्मणु थणपेल्लणु। करपहारु दिव्वाहरपीलणु जीहाविलिहणु णयणुम्मीलणु। कामठाणु दरणहसंघट्टणु णाणाकरणबंधपरियट्टणु। इय लहेवि जसु हियउ ण भिजइ तसु समाणु को मुवणे भणिज्जइ । धण्णउ सो जि बप्प स कइस्थउ भवसमुद्दउत्तरणसमत्थः । रयणिउ तिणि दियह गय जामहि तीन विलक्खिया मुणि तामहि । १० १०. १ ग घ बहु वेर पत्तो । २ ख सविलासहो प्रक्लोयइ। ३ ख हियत्त । ४ ग घ होजहि । ५ क ख रमणीययणु ; माणिजइ वर रमणिउरमणु । ११. १ ग घ जिरतणु। २ ख लब्भइ तसु। ३ ख घ जोहविलेहणु । ४ क कामण। ५ क दरणहरसंघट्टणु। ६ ख °समुद्दत्तारणह। ७ क दियस । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. १३. ५] सुदसणचरित घत्ता-खित्तु मसाणे किर तिविहे णिव्वेएँ जुत्तउ । तणुउवसग्गेण थिो तिरयणु णग्गु विचित्तः ॥११॥ १२ तहिँ चउविहु वि असणु परिसेसिवि अच्छइ जाम मुणिवरो। अवरु वि हवइ ताम सेणिय णिव विभयजणणु वइयरो ॥ [ रचिता] णिरुविचित्तवित्तियसथूहए' घवघवंतघग्घरसमूहए। रणझणंतकिंकिणिसरालए रणरणतघंटावमालए। जिगिजिगंतरयणंसुजालएं फरहरतधयवडविसालए। मणिगवक्खमणिमयकवाडए सालभंजियाजणियणाडए। मत्तवारणंकियदुवारए पत्तभंगिबहुरूवसारए। पंचवण्णचंदोवडंबरे विविहरयणझुम्मुक्क बिरे। धूवगंधवासियदियंतरे गुमुगुमंतमहुअरणिरंतरे। फारसूरकरणियरदूसणे सुरविमाणपावियविसेसणे। [विलासिणी जाम छंदो] घत्ता-इय सुरहरे चडिय अमरंगण हरिसे णचई। .. कत्थइ रमणमणा छुड़े छुडु जा णहयले क्वइ ॥१२॥ १३ तही मुणिवरही उवरि ता सुरहरु थिउ थरहरेवि केरिसं। चिरु केलाससिहरे मुणिबालिहिँ पुप्फविमाणु जेरिसं ॥ [रचिता] जिय भेडचित्त भडभीमसमरे जिह णरयवडणु सग्गाउ अमरे । जिह माणभंगु जिणवर सउण्णे जिह मलकलंकु उत्तमसुवणे । जिह मुक्खलोयझुणि पयसमासे जिह कालवासु लोयग्गवार्स । ११, ८ ख ग घ णग्गउ चित्तउ। १२. १ ख विचित्तचितियसुपूहए ; ग घ विचित्तचित्तियसमूहए। २ ख रयणंसुमालए ; ग घ सुतालए। ३ क पाडए। ४ ख अमरगण। ५ ख घचई। ६ ग घ रमण छुड़। १३. १ क थरहरइ ग घ रहवरे वि। २ ख केलाससिहरि काहिउ। ..... ३ क भायचित्तु। ४ ख सुवण्णि। ५ क पासु । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ णयणदिविरइयउ [११. १३. ६जिह अंधयारु भरपसरमित जिह कुकइवयणु सुंदरकविर्त । जिह ण्हाणकरणु मणसुद्धिसुद्धे जिह पावलेउँ सण्णाणबुद्ध । जिह संकिलेसु उवसममहंते" जिह रइविलासु णिण्णेहवंते । मणु सोत्तरम्मि जिह मणुयगमणु जिह सुद्धसिद्ध " संसारभमणु। जिह केवलणाणण खाणपाणु" ण पयट्टइ मुणिसिरे तह विमाणु। १० . घत्ता-सुरहरु थरहरेवि णहे जंतु जंतु किर थक्.उ । ण पडिउ धरणियले तं महु मणे चोजु गुरुक्कउ ॥१३॥ १४ । मुणितवचरणपवरमाहप्पे इंदु वि पडइ सग्गहो । इयरु वि गणइ कवणु इय जाणेवि जिणवरधर्म लग्गहो ॥ [रचिता] पेच्छिऊणं विमाणं णहे डोल्लियं वितरीए सरोसं तओ बोल्लियं । केण सिंघो पसुत्तो समारोडिओ केण लच्छीसणाहीरुहो तोडिओ'। केण खग्गेण वोमंगणो तांडिओ केण गव्वेण कालाणलो फाडिओ। केण मुट्ठी ताराहिओ पाडिओ केण केलासि विस्सेसरो फाडिओ। केण रासीगओ भाणवी रोसिओ केण घुट्रेण अंबोणिही सोसिओ। केण सेसप्फणामंडलो महिओ केण थामेण जित्तो रणे भदिओ। केण णिव्वाणसेलो समुच्चालिओ केण मूढेण कालाणलो जालिओ। को णिरुंभेइ चंडंसुणो संदणं' को विमाणं पि एयं मणाणंदणं । १० [सग्गिणी णाम छंदो] धत्ता-गेहमि सिरकमलउ जो मझु विमाणु गिरोहइ। काले चोइयओ को अच्छइ जो मइँ खोहइ ॥१४।। १३. ६ ख अंधयारतरपसर। ७ ग घ मणसिद्धिसिद्धे । ८ ख पावलेसु । ६ ग घ सरणासबुद्धे । १० क संकितेषु। ११ क महंतु । १२ ग घ सुद्धे सिद्धे । १३ गघ खाणु पाणु। १४. १ क तोलियो। २ क में यहाँ से अगली तीन पंक्तियाँ नहीं हैं। ३ ग घ पृट्ठोए। ४ क फणामेडो मोडियो। ५ क चंडंसुणे सट्टरं। ६ ख पि थंभे । ७ कणंदिरं ; खणंदिणं। ८ क संसिणी। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. १६. ] सुदंसणधरित १५ दसदिसिमुहइँ जाम अवलोयइ ता मुणि दिठ्ठ, पिउवणे । सुमरेवि पुव्वजम्मु सिहिसिह विव' झत्ति पलित्त सक्खणे ॥ [रचिता] जम्मतरु सुमरिवि वितरीष्ट पारद्धउ घोरुवसग्गु तीण। धरि धावि धावि हणु हणु भणंति चाउद्दिसु णिसियर किलिकिलंति । चाउदिसु रुंड िदडदडंति चाउद्दिसु मुंडइँ हडहडंति । चाउदिसु पायव कडकडंति चाउदिसु अजयर तडतडंति । चाउदिसु मसयाँ गुणगुणंति . -चाउद्दिसु महुलिह रुणुरुणंति। चाउद्दिसु घूवर्ड घुग्घुवंति चाउद्दिसु सेरिह सूसुवंति। चाउद्दिसु वायस करयरंति चाउद्दिसु मंडल घुरहुरंति । चाउदिसु वाणर कुलकुलंति चाउद्दिसु मयगल गुलुगुलंति। चाउद्दिसु फणिउल सलसलंति चाउद्दिसु करह सु फिक्करंति । चाउद्दिसु हुयवह जलजलंति चाउद्दिसु लोहिय मलमलंति । घत्ता-पुणु पुणरवि मुणिहि चाउदिसु भमंति णिसायर"। असिकल्लोलधरा णं खण उच्छल्लिय सायर ॥१५॥ पुणरवि अवर अवर बहुवेसहिँ दसदिसहि वि ण माइया । खणे हरि सरह वग्ध वियडाणण रंरंजंत' धाइया ॥ [रचिता] अण्ण वेयालइँ गहियकवालई एताई। णासियवयकज्जही पूरिवि सज्जही दिताई। अण्णइँ भेरंडइँ आमिसखंडइँ खंताई। अण्णइँ णरसीसई विलुलियकेसइँ लिंताई। अण्ग णासोहि पाणिपउट्ठहि सुसिया। अण्णइँ कयकालही' णरकीलालहाँ तसियाई॥ १५. १ क सिहिसिहि व। २ ग घ गंपि। ३ क पलित्त रक्खभक्खणे। ४ ख परि। ५ ख चाउद्दिसि । ६ क सुगया। ७ क ख गुलुगुलंति। ८ क घूघुय । ६ ख कडयउंति । १० क भवंति। ११ ग घ णिसियर । १६. १ ग घ उररुंजंत । २ ख अंताई। ३ क पूरवि। ४ ग घ पउवहिं । ५ क कयलाहहो ; ग घ कयलालहो। ६ ख णरकंकालहो। ७ ग घ तवियाई । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ दिविर अण्णइँ वि अभद्दहि ँ रासह सद्दहि रसियाई । torइँ मसिवण्णइँ लंबर कण्णइँ हसियाई || इँ विकिलिइँ मडयचडिण्णइँ रडियाई । अण्णइँ गयवत्थइँ पसरियहत्थ हूँ' डियाई ॥ अण्णइँ सयवयणइँ पिंगलणयणइँ बहुभुअईं । अण्णइँ किमियड्ढइँ बहुदुग्गंधइँ लहु मयई ॥ इँ अपमाणइँ उड्डाणइँ रुंडाई ! torइँ लल्लकइँ मेल्लियहक्कइँ मुंडाई || to दाढाइँ भिडिराइँ मत्ताइं । मरु मारि भइँ अंगु धुणंतइँ पत्ताई ॥ [ ११.१६.९ [कुवलयमालणी णाम छंदो ] ७११ घत्ता - एम. विउव्वणहिं जलु थलु णहु रुद्धउ भूवहि अप्पा जमेण णं दरिसिउ णाणावहि ॥ १६॥ १७ तइ विण चलइ समणु' णियजोयह। णिक्कंपो अगव्वओ । जिह खरचडुलपवणपडिपेल्लिउ भासुरु अमरपव्वओ || [ रचिता ] किउसजलु घणु चडुलु हे पिहियदिवसयरु । अणवरयजल पवह परिधविय समय' ॥ तडयडइ तडिचवलु भउ दिसइ सुरणरहँ । खयउलहँ मयउलहँ वणयरहँ विसहर हँ । जणु तसइ तणु सुसइ वर्ण विसइ भयसहिउ । जलथलहँ महिय लहँ जलु वह परअहिउ || पुणु चव जणु सलु खयदि । किमवसरु । हुउ गरुय महिपयरु चउदिसहि जलपसरु ॥ खरसियहत्थ हूँ; क ग घ परसिया । ६ ख मरि पभणंतई । १६. १० क ग घ एस । ११ क ख भूर्याह । १७. १ ख घ सवण । २ क जलपंकिजसमय दुहणियरु : ख जलपवहवियरंतभसमयरु । ३ घ हवइ । ४ क परयहिउ ५ ग घ किमिवसरु । ( टि० जलदस्वर: ) : ख हुआ गरुय चउदिसिहि अइबहलु जलपवरु । ६ क जलय सरु १० ६५ २० ५ १० Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ११. १८. १२] सुदसणचरित कहिँ चलहु कहिँ वलहु कहिँ जियहु कसु कहहु । णियसुयहिँ सहु पियहिँ कहिँ विसवि दिहि लहहु ।। असरिसहि जललवहिँ झलझलइ महिवलउ । पुणु वहइ घरु णयाँ गिरिसिहरु टलटलउ । पुणु कलइँ गिलिगिलइँ णहि मिलइँ णिरु रसइँ । अइपबल हलमुसल पुणु पुणु वि खल दिसइँ ॥ णउ तइ वि णियखणही मुणि चलइ गुणणिलउ । इय भणिउ दहदहहिँ लहुकलहिँ ससितिलउ ।। घत्ता-तणु मणु वयणु णिरुभियउ जेण मुणिणाहें। तही किर को गहणु पउरेण" वि णीरपवाहें ॥१४॥ १८ विडवीविडवघडणउप्फडियतिडिक्कावलिश पिंगलो । रयभरभरियभुवणभवणोयरु पुणु णिम्मिउ महाणलों ॥रचिता।। जाम साहू ण जोयाउँ संचल्लिओ धीरओ। जाम णीसेसगंथो गुणावासु गंभीरओ ॥ ताम तिव्वेण कोवेण सा विंतरी कंपिया। चंड आला तुंडेण मेल्लंतिया जंपिया। आसिकाले मसाणाउ आणेवि मण्णाविओ। तो पहाए कुवारेवि डंभेण गंजाविओ ॥ रक्खसेणावि तं रक्खिओ एहि को रक्खए । एम जंपेवि गंतूण पायाले दुक्खक्खए । बाहुदंडेहि तीए धरावीढु उच्चावियं । तेण उच्चं महासेल्लचकं पि कंपावियं ॥ १७. ७ ग घ पुणु हवइ घर णियरु। ८ क कहा। १ ख करि गिलइ । १० ख दहदिहहिं लहु कलउ। ११ ख पवरेण । १८. १ क उप्पडिय। २ ख महाणिलो। ३ ख जोयेण; ग घ जोयाण । ४ क ख मालाउ। ५ ख आणावि। ६ क रक्खसेणेवि । ७ क उच्चाइयं ; ख मुच्चाइयं । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० यदिविरइय १० ते दाणोगंडा वि दोयंड संतासिया । ताण चिक्कारस देण पंचाणणा रोसिया ॥ तेहि रुजतएहिं दिसा चक्क माऊरियं " । तेण आसागरेहिं पडतेहि चिकारियं ॥ ओवडते हि तेहिं पि भूमंडली डोल्लिया " । तान झलसायरा सायरा सत्त उच्छल्लिया | ताण कल्लोलमाला वो मंगणं" वोलियं । तान चंदक्कतारावली झत्ति कोलियं ॥ म संघारकालो" अकाले विणं पत्तओ । एम मंदारदामो त्ति छंदो फुडं वृत्तओ ॥ घत्ता - अभयाविंतरिए" तेलोक्कचक्कु संताविउ | मुणिहिं एक्कु विण रोमु कंपाविउ || १८ || १६ चिंतइ सवणु तरणि गयणयलहो हो पणयरूसणं' । म करिवरहो कसु धवलहरहो उवसमु तवहो भूसणं ॥ [रचिता ] नियकुलणहयलससि पुणु चितइ रिसि सुयहरहो । उत्तमखममद्दव अज्जउ लाहउ मुणिवरहो || सविमाणारूढें विज्जलदाढें उक्खविओ । पंचे संगमे संजर दुग्गमे खविओ ॥ पुणु वालिभडारणिज्जियमार गिरि हसवि । रुट्ठेण दसासें भिउडिविमी से" तर्फे विसवि ॥ अट्ठावर तुलिय तो वि ण चलियउ मुणिपवरु | तह खिल्लाहि किल्लिउ णउ उव्वेल्लिउ गयकुमरु || [ ११.१८. १३ १८. ८ख संतावियं । ९ ख किक्कार । १० चकमाजारियं । ११ ख उद्धदंडे ह तेहि पि भूमंडलं डोलियं । १२ ख वोमंडलं । १३ घ एय संसारकालो । १४ क वितरियए; वितरण । १६. १ ख पणउ भूसणं । २ क पंचेई ; ग घ पंचणए । ४ ख होसवि । ५ क विमासें । ६ ख तुलि । ७ क विसेवि । ८ तुल्लिउ । ३ क णो ग घ ण । १५ २० १० Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११.२०.८] सुदसणचरित महिहरे कुलभूसणदेसविहूसणमुणिवरहिं । उवसग्गहँ सहियइँ असुर विहियइँ खमधरहि ॥ चिरु दंडयराएँ अइसकसाएँ हूलियई । पंचसयमुणिंद" कुवलयचंदई" पोलियई। कयमायावेसे सीयसुरेसें राहवहो । उवसग्गु पउंजिउ तो वि ण भंजिउ जोउ तहो । कउरवकुलजोहहिँ तावियलोहहिं जं विहिओ। इय पंडुहि पुत्तहिँ णियमणउत्तहितं सहिओ। किउ पारसणाहहा हुयसिवलाहही कुसढेणं । उवसग्गु अभग्गें" अहणिसु लग्गें कमढेणं ।। इय अण्णहिँ वण्णहिँ णीसावण्णहिँ जइवरहिं । उवसग्गइँ सहियइँ णरसुरविहियइँ गुणहरहिं ।। [कुवलयमालिणी णाम छंदो] घत्ता-मुणिहिं सकज्जु चिरु साहिउ* सहेवि उवसग्ग। हउँ वि पउ ओसरमि लइ दरिसिउ" एहु समग्गइँ ॥१९॥ २० अह तहि सम भिउडिभीसावणु विसरिससरिसणेत्तओ। सिसुससिसरिसदाढु पहरणकरु णिसियरु सो जि पत्तओ ॥ [रचिता] तेण हक्किया सपाव दुट्ठभाव । हे णिहीण थाहि थाहि कत्थ जाहि। अज भज जीवमाण. लेमि पाण। तो सदप्पु वितरीट वुत्तु तीष्ट। रे पिसल्ल एहि एहि पाण लेहि। केण साहसेण बप्प णिव्वियप्प । १६. ६ ख उच्छल्लिउ । १० ग घ खमवरहि । ११ क ह ग घ हो। १२ क णियमयम उत्तहि ख णियमइवंतहिं । १३ ख अहंगें। १४ क महिउ । १५ ख दरिमाउं । २०. १ क समरथिरुः ख समइ। २ क °डादु। ३ क बुद्धिभाव । ४ क मझु जीवमाण ; ख जीवमाणु लेवि पाणुः ग घ लेवि पाण। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ णयणदिविरइयउ [११.२०.६एस णग्गयस्स कजि मा पमजि। पाण लेवि णासि णासि । रे हयासि। मझ पासि पावरासि कत्थ जासि। एस तुझ सीसे सज्जु कालवज्ज। मं पडेउ दुण्णिवारु पाणहार। एम पिऊण ताट----- पाणिभाश। विज्जुपुंजु तेयउग्गु लेवि खग्गु। आहओं उरम्मि तुच्छ पत्तु मुच्छ। चेयणा लहेवि तेण -रक्खसेण। वुत्तु हे णिहीणे मज्मु जं असमु। णिहएण' घाउ दिण्णु वच्छु भिण्णु। तं कलंतरिल्लु लेहि एहि एहि । तो पहुत्त लग्ग तस्स पावणिस्स। णं असालिया समत्थ दिव्व सत्थ । एस माणिणी णिरुत्तु छंदु वुत्तु । घत्ता-णिसियरु रोसवसु सरु सिसिरु सचावि णिवेसइ । दोहग्गचित्तु" जिह दीहरु सहसा संपेसइ ॥२०॥ २१ हिमकणमिसेण णवर परिपंडुरु सउरिसजसु व धावए । अहिणवपणउ जेम वियरंतउ तणुरोमंचु दावए ॥ [रचिता] सिसिरवागप्पहारेण ओणल्लिया' वितरी बोल्लिया। दिट्ठ तउ सत्ति सहसत्ति दोसायरा सव्वदोसायरा । पुरिसयारेण लइ चत्तु अवलत्तओ जइ वि भयचत्तओ। ५ हरिणु कहिँ जाइ वग्धीहि कर्म पत्तओ णवर जीवंतओ। २०. ५ ख णासि णासि पावरासिः ग घ णासि णासि कुत्य जासि । ६ क जा हो। ७ ख उच्छ । ८ क होणे होणे । ६ क सिद्धएण। १० क मालिणी। ११ क दोग्गचित्त । १२ क पीहरु। ___२१. १ क सरु सजसु । २ ग घ तणुगे मंतु। ३ ख णउ डुल्लिया। ४ ग घ पुरिसायरेण। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. २२. १६] सुदंसणचरित पियहि सीयलउ जलु जाहि अज्जु वि घरं जा ण तोडमि सिरं । इय पयंपेइ तो गिंभ णाम सरो मुक्कु भाभासुरो । तप्पहावेण धगधगइ धूलीसरं भमइ रइडंबरं । लुलइ किडि कहमे सुसइ पल्ललजलं जलइ दावाणलं । दुसहजलतिस फुटेइ जीहादल सरइ जणु तरुतलं । भणिउ इय छंदु णामेण मणिसेहरो विसमपयमणहरो। घत्ता-फलसुपत्तसहिओ उज्जउ भणु कासु ण भावइ । धम्मगुणुझियओं सरु ण णरु भुवणु संतावइ ॥२१॥ २२ जले थले गयणे पलयसिहिसण्णिहु गिंभसरो वियंभियं । तो दर हसेवि णवर णिसियरंण वि पाउससरे णिसुंभियं ॥ [रचिता] सो बाणु अपमाणु । छुडु चलिउँ णहे मिलिउ। अइचडुलु घणवडलु । गडयडइ णं पडइ। महिवलम जणणिलए। तं सुणेवि सिरु धुणेवि। सिहि रडइ पुणु णडइ। तडि पडइ। गिरि फुडइ जणु दडइ। गिरिसिहरे बहुकुहरे। तो वि पउरु जलणियरु। पसरंतु वरिसंतु। कहिँ जाइ। जण सयल - भयवियल । तडयडइ णउ थाइ २१. ५ ग घ पल्लवजलं । ६ गुणवजियउ। ७ क णरु वि । २२. १ क वियंभए । २ क सरो ; ख पावसि सरि। २२, ३ क चडिउ। ४ ख प्रभवउलु। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणदिविरहवउ [११. २२. १७तो डरिय - थरहरिय। भासुरही . णेसरही णिसि जेमतही तेम। सा णट्ठ दप्पिटु । [आणंदो णाम छंदो] घत्ता-मुणिवरों विहियए संभरइ पाय जिणएवहो। णयणंदियजयहो सुरणरफणिपविहियसेवहीं ॥२२॥ एस्थ सुदंसणवरिए पंचणमोकारफलपयासयरे माणिक्कणंदितइविजसीसणयणदिणा रहए सुदंसणमुणियरहो कह सुणेवि सुरदत्तए घरम्मि खडभालओ पुणु मसाणे जम्मंतरं संभरेवि उवसग्गय अभयावितरीए कय इमाण कयवण्णणो भणिो एयावहो संधी समत्तो। संधि ॥११॥ २२. ५ क मुणिवर। ६ क णपणाणंदिय। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि १२ अह तहिँ तेहए अवसरे सत्तमवासरे घाइचउक्कु विवण्णउ । सुहृदंसणही मुणिंदही णरसुरवंदहो केवलणाणुप्पणउ ॥ [ ध्रुवकं] हुउ अवियलु केवलु मुणिहिँ णाणु जाता वर सुरहरं सुरपहाणु । दीहरकरु गयवरु आणवेइ . -सो वित्थरु मणहरु तणु करेइ । बत्तीसइँ आसइँ णिम्मियाइँ मयरत्तइँ णेत्तइँ दूणिया । सोहारुहे मुहे मुह अ४ दंत पुणु दंते दंते जलयर सहत । एक्केक्क थक्क सरवर महंत तहिँ सरवरि सरवरि विप्फुरंत। एक्केक्के थक्की भिसिणि अमल बत्तीसेक्केक्कही जाय कमल। . हुये कमले कमले बत्तीस पत्त तहिँ पर्त पर्त परमेट्ठिभत्त । बत्तीस दुतीस ठवंति णट्ट रसकोच्छर अच्छर तणुविसट्ट। घत्ता-जंबूदीवही जेत्तिउ वित्थरु तेत्तिउ किउ संवरिउ करि दें। तत्थुवलग्गिवि आएँ मणि अणुराएँ थुव्वई एम सुरिंदे ॥१॥ १० 2 जय जणमणहर जय महजसहर जय दढहयसर जय वरपयकय जय कयदयवह जय तमवणदह जय भवभयहरं । गणणहससहरें। जय जलहरसर। जय वरपयणय । जय तवरहवहँ । जय जयवणदहे। ५ १. १ क ख मुहे अट्ठ। २ क में अगले तीन चरणों के स्थान में केवल ये दो चरण हैं- सरवरे कमालनि बत्तीस अमल । भिसिणिहे भिसिणिहे बत्तीस कमल। ३ क तहु । ४ ख हवंति। ५ क ग घ बुच्चइ । २. १ क भयमयहर। २ क गुणणहससहर। ३ ख जय जय दयवह। ४ ग घ तंवरवह। ६ क वह । १६ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणदिविरहयउ [१२. २. ७ जय भवसयमह जय णयसयमह । जय समदमरय जय ववगयरय । [अणुसारतुलं कडुयत्तवज्जिओं सव्वलहु छंदो] पत्ता-तुहुँ करुणाणिसि ससहरु कलिमलतमहरु सुरणरणियरणमंसिउ । भव्वंभोरुहदिणयरु गुणरयणायरु तुहुँ जन केण ण मंसिउँ ।।२।। १० तं णीराओ माणे मुक्को तं मोहंधारेहिं अको। तं बुद्धो सिद्धो णिग्गंथो मित्तारीणं तं ममत्थो। तं सूराणं सूरो वीरो गंभीरो त पारावारो। तं णीसंगो तं णित्तदो भत्तीए देवाणं वंदो। तेलोके पुजाणं पुजो णूणं कम्मदीणं वज्जों। तं बंधं मोक्खं चिंतंतो अव्यावाहं णाणं पत्तो। सव्वेसि साहूणं सामी दुल्लंभे लोयग्गे गामी। तं सव्वण्हू भव्वाणंदो विज्जूमालों एसो छंदो। घत्ता-इय संथुउ सहसक्खे तो लहु जक्खे बारहगणसंजुत्तउ। सहमंडउ चउदिसु किउ मज्झट मुणि थिउ भद्दवीढे मलचत्तउ ॥३॥ १० सियचमरजुयलु। ससिदुद्धधवलु अलिजणियतुट्टि जणजणियतोसु भावलउ दिव्यु यतिजयसोउ सुरकुसुमवुट्टि। दुंदुहिणियो। णं रवि अउव्वु । तरुवरु असोउ। २. ६ क समदयरह। ७ क कुडुमत्तपवजिउ ख कूडवत्तावञ्जिउ । ८ ग घ करुणाययससहरु। १ क केण ण णमंसिउ । ३. १ ग घ णोराई। ग घ धारे छेइको। ३. खणं। ४. ख तं णिस्संको तं णिहतो। ५ क करणादीणं दुजो। ६ ग घ दुल्लंघे। ७ क विजामालो; ख घ विज्जूमाला। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. ६. ५ ] अरुहदेउ दोसहिँ परिचत्तउ अहिंसा लक्ख गुणहरु उ मण्णइ मिच्छत्तपरव्वसु अाणि सुदंसणचरिउ ४. ५. ६. पावाणि सहि भाइ थिउ जिणु समक्खु अवर व असे रेहति के छंद विह घत्ता - तर्हि पुच्छंत संतहँ अइउवसंतहँ भूरिभत्तिभरणमियहँ । णिरु संसारविरत्तहँ तग्गयचित्तहँ कहइ महामुणि भवियहँ || ४ || ५ सुमणोज्जे वाणि । समसराइँ । वरके लक्खु । अइसविसेस | जिणवरहो जेम । णिरु चंदलेह | रिसिगुरु णिज्झायइ रयणत्तउ । "ग्गिंथु मोक्खमग्गु विवरु । करइ पाउ मोहंधु सतामसु । भमइ मीणु णं पारावारण । अच्छइ उप्पज्जंतु मरंतर । सुइण धम्मु जंजि अविरुद्धउ । अह थक्कइ तवचरण।' संकइ । विण मोक्खु पाविज्जइ । संसारन चाईहिँ दुखाइँ सहंत उ लहइ णं मणुयजम्मु अह लद्धउ अह सु हियए उ थक्कइ विणु तवेण णउ झाणुप्पज्जइ धत्ता - तो वितरि उवसंतिय भणइ णमंतिय मुणिवर एत्तिउ किज्जइ । ता महरवाणी मुणिवरण इय वृत्त । सुरतिरयणारयहँ तर हवइ उ जुत्तु ॥ तुह हवइ पर एक्कु सम्मत्तु मलणासु । णिस्संक प मुहट्ठगुणरयणआवासु ॥ ता ता वितरि लहु लयउ सम्मन्तु । १ ख ग घ समणोज । २ ख ग घ भत्तिवर' । १ क गणहरु । २ ख लहविणु । ३ खणिसुवि । १ क एहु । १४७ महु रउरवे णिवडंतिर्ह दुण्णयवंति दय करेवि त दिज्जइ ॥ ५ ॥ १० ४ ग घ चरणें । १० ५ ५. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयणदिविरइयउ [१२. ६.६दुहहरणु सुहकरणु परिचइउ मिच्छत्तु ॥ तं सुणिवि अच्छरिउ पुरलोउ संखुहिउ । संपत्तु मुणिदंसणुच्छाहरससहिउँ ॥ तही णाणलोयणही लोएण गिर सुर्णवि। मिच्छत्तु परिहरिउ वउ धरिउ संथुर्णवि॥ तो ताश पंडिया दुग्णयविरत्तान। लहु लयउ तवयरणु सहुँ देवयत्तान॥ एत्तहिँ वि सा सुणेवि केवलसमुप्पत्ति । तही घरिणि हुय अर्ज प्ररु चयवि सहसत्ति ॥ बहुदियहि सा ताउ पियपमुहसुहलेसँ। गय तियसलोयम्मि करिऊण सण्णासु॥ अवसेस कम्मत्थिया दड्ढरज्जु व्व। तही थोक्यालेण गय खयही ते सव्व ।। पुणु पूसपंचमिहिँ वरसोम्मवारम्मि । सुधगिट्ठणक्खत्ते पहरावसेसम्मि । मुणि सहियउवसग्गुं मलपडलपरिचत्तु । एकेण समएण लोयग्गे संपत्तु ॥ [मयणावयारो णाम छंदो] पत्ता-दोसट्ठारहचत्तउ गुणसंजुत्तउ तणुकिंचूणायारे। थिउ णिव्वार्ण मुणीसरु महु परमेसरु देउ बोहि अवियारे ॥६॥ अही सेणिय महरायाहिराय वरपंचणमोकारहँ रएण तहिँ णरु जइ को वि सहावजुत्तुं पुज्जाविहाणु सयलु वि करेइ खाइयसम्मत्तणिबद्धराय । जहिँ सिवसुहु पत्तउ गोवएण। पंच वि पय झायई एयचित्तु । तो किं ण सिद्धिवहु मणु धरेइ । ६. २ घ भरि। ३ ख ता। ४ ख अजि। ५ ख दिहिं । ६ प्रतिषु "णियपमुह"। ७ क सुदद्दणक्खत्तें। ८ ख मुणि सहिउ उवसग्गु। ९ क यारो। ७. १ ग घ विबद्धराय। २ क ख सहायजुत्त। ३ क ठाइय। ४ क मप । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. ६.२] सुदसणचरिउ अच्छउ तं दुल्लहु मोक्खठाउ इहरत वि लहइ जणाणुराउ। जंभारिसो वि संकरइ पूय गहें रक्खस वसि जायंति भूय । गलांडरोयसय खयही जति विसउवविसाइँ दिट्टिई ण एंति । विछिय अहि मूसय णउ डसंति विग्घइँ ण होति दुजण तसंति । घत्ता-इय णिसुणिवि मगहेसरु थुणिवि जिणेसरु गिरि ओयरिवि णिकेयहो। गउ मंदरगिरिवरथिरु सोहइ णं चिरु भरहेसरु साकेयही ॥७॥ १० आयहा गंथही बुहजणियतुहि विरइय अरहतहिँ अत्थसिट्ठि। पुणु गंथसिद्धि जयमणहरेण गोत्तमअहिहाणे" गणहरेण। सोहम्में जंबूसामिएण पुणु विहुदत्ते दिविगामिएण। पुणु णदिमित्त अवरज्जिएण गोवद्धणेण सुरपुजिएण। पुणु भद्दबाहुपरमेसरेण पयडेवि विसाहमुणीसरेण । पोढिल्लएण पुणु खत्तिएण जयणामें धम्मपवत्तएण। णागें सिद्धत्थें संजएण दिहिसेणें तवसिरिरंजिएण। पुणु विजयसेणे बुद्धिल्लएण पुणु गंगदेवणामिल्लएण। पुणु धम्मसेणे णक्खत्तएण जयपाले मुणिजयपत्तएण। पुंडुडुवसेणें जियमयेण पुणु कंसायरिएँ गयभएण। सुभद्दे जयभपुंगमेण लोहज्जे सिक्कोडिग कमेण। पत्ता-गणहरएवमुणिंदहिँ कुवलयचंदहिँ एयहिँ अवरहिँ अवियलु । आहासिउ पवयणे जिह मइँ भवियर्ष तिह पंचणमोकारहँ फलु ॥८॥ जिणिंदस्स वीरस्स तित्थे महंते । महाकुंदकुंदण्णए एंतसंते॥ ७. ५ क गय। ६ क दिविहे एंति । ७ क गिरिउ परिवि ; ख गिरि उवयरि । ८. १ ख गोयम अहिणाणें। २ क संपुबिएण । ३ ग घ पयडेविणु साहुमुणीसरेण । ४ ख पवित्तिएण। ५ ग घ दिविसेणें। ६ ग घ पुढिल्लएण। ७ क जियमणेण। ८ क जसभड़ें। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जयणदिविरइयउ [१२. ६. ३सुणक्खाहिहाणो तहा पोमणंदी। पुणो विण्हुणंदी तओ णंदिणंदी॥ जिणुट्ठिधम्म सुरासीविसुद्धों। कयाणेयगंथो जयंते पसिद्धो ।। भवंबोहिपोओ महाविस्सणंदी। खमाजुत्तु सिद्धतिओ विसहणंदी। जिणिंदागमाहासणे एयचित्तो। तवायारणिट्ठाश लद्धा जुत्तो॥ णरिंदामरिंदेहिँ सो प्रवर्दी। हुओ तस्स सीसो गणी रामणंदी॥ असेसाण गंथाण पारम्मि पत्तो। तवे अंगवी भव्वराईवमित्तो ।। गुणावासभूओ सुतिल्लोक्कणंदी। महापंडिओ तस्स माणिक्कणंदी॥ [भुजंगप्पयाओ इमो णाम छंदो] घत्ता-पढमसीसु तहो जायउ जर्ग विक्खायउ मुणि णयणंदि अणिंदिउ । चरिउ सुदंसणणाहहा तेण अवाहही विरइउ बुहअहिणंदिउ ।।९।। आरामगामवरपुरणिवेसे सुरवइपुरि व्व विबुहयणइट्ठ रणदुद्धरअरिवरसेल्लवज्जु तिहुवणणारायणसिरिणिकेउ मणिगणपहसियरविगभस्थि णिवविक्कमकालही ववगएसु सुपसिद्धअवंतीणामदेर्स। तहिँ अस्थि घारणयरी गरिह। रिद्धिष्ट देवासुरजणियचोज्जु। तहिँ गरवइपुंगमु भोयदेउ। तहि जिणहरु वड्डविहारं अत्थि। एयारह संवच्छरसएसु। ५ ९. १ ख सिसिक्खाहिहाणें ; ग सुसरणाहि ; घ सुसएहाहि । २ ग घ धम्मधुराणं विसुद्धो। ३ ग घ महीविसहण दो। ४ क तवारणद्धीए लखीए। ५ ख ग घ मरिंदाहिवाणंदवंदी। १०. १ क जिणहरु पडुविविहारु ; ख जिणवरबद्ध विहारु । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ १५१ १२. १०.१०] सुदंसणचरिउ तहिँ केवलिचरिउ अमच्छरेणं णयणंदि विरइउ कोच्छरेण । जो पढइ सुणइ भावइ लिहेइ सो सासयसुहु अरे लहेइ। घत्ता-णयणंदियही मुणिंदही कुवलयचंदही णरदेवासुरवंदही । देउ देउ मइ णिम्मल भवियहँ मंगल वाया जिणवरइंदही ॥१०॥ १० एत्थ सुदंसणचरिए पंचणमोक्कारफलयपयासयरे माणिक्कणंदितइविजसीसणयणंदिणा विरइए मइंदपरिवित्थरो सुरवरिंदथोत्तं तहा मुर्णिदसहमंडवं तसु वि मोक्खवासे गमणं णमोपयफलं पुणो सयलसाहुणामावली इमाण कयवण्णणो संधी दोदहमो समत्तो। संधि ॥ १२॥ इय सुदंसणचरिउ समत्तो। १०. २ क सुमच्छरेण । ३ ग घ वच्छरेण । Page #201 --------------------------------------------------------------------------  Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनन्दि विरचित सुदर्शन-चरित [अपभ्रंश काव्य सुदंसणचरिउ का हिन्दी अनुवाद ] संधि १ १. पंच नमोकार मंत्र लोक में सर्व अरहंतों को नमस्कार । सिद्धों को नमस्कार । आचार्यों को नमस्कार । उपाध्यायों को नमस्कार । साधुओं को नमस्कार । इस पंचनमोकार मंत्र को पाकर एक ग्वाल भी सुदर्शन हो गया और मोक्ष को गया । उसी सुदर्शन के उत्तम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप चतुर्वर्ग को प्रकाशित करनेवाले चरित्र का व्याख्यान करता हूँ । जिनके रूप को देखते हुए इन्द्र विस्मित मन हो गया और तृप्ति को प्राप्त न हुआ; जिनके जन्माभिषेक के समय चरणांगुष्ठ से शैलराज सुमेरु भी चलायमान हो उठा, पृथ्वी कांप उठी, समुद्र उछल उठे, पर्वत डोलने लगे, गजेन्द्र चीत्कार करने लगे, सिंह दूर हट गये, फणीन्द्र जाग उठे, आकाश में चन्द्र और सूर्य तत्काल हँस उठे, महान् दिग्गज उत्त्रस्त और लज्जित हो गये, विद्याधर और सुरेन्द्र आशंकित हुए; जिनपर अनुरक्त होकर सिद्धि रूपी सुन्दरी ने मानो तपश्री रूपी दूत को भेजा, तथा जिनके केवलज्ञान में यह समस्त महान् जगत् हस्तामलकवत् दिखाई देता है; ऐसे सन्मति जिनेन्द्र के चरणारविन्दों तथा शेष जिनेन्दों की भी वन्दना करके एक दिन प्रफुल्लित मुख होकर नयनानन्दि ( नयनन्दि ) अपने मन में विचार करने लगे कि सुकवित्व, त्याग और पौरुष, इन तीन के द्वारा ही भुवन में यश कमाया जाता है । २. कवि विनय व जम्बूद्वीप-भरत क्षेत्र कारण मैं त्याग भी कवित्व में तो मैं अप्रवीण हूँ और धनहीन होने के क्या कर सकता हूँ ? तथा सुभटत्व तो दूर से ही निषिद्ध है । इस प्रकार साधनहीन होते हुए भी मुझे यश का लोभ है । तो मैं अपनी शक्ति अनुसार पद्धडियाबंध में एक अपूर्व काव्य की रचना करूँ । यदि चित्त में जिनेन्द्र भगवान् का संस्मरण किया जाय, तो कविता में स्वयं ही मति प्रवृत्त होने लगती है । क्या कमलपत्र पर पड़ा हुआ जलबिन्दु भी मुक्ताफल के समान पवित्र शोभायमान नहीं होता ? ऋषभादि तीर्थंकरों के तीर्थ में क्रमशः अन्तिम तीर्थंकर पर्यन्त सुप्रसिद्ध २० Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ नयनन्दि विरचित और गुणवान् दश-दश अन्तकृत् केवली हुए हैं। इनमें से अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में जो कर्मों का क्षय करने वाले पांचवे अन्तकृत् केवली सुदर्शन हुए उन्हीं का पवित्र चरित्र मैंने प्रारम्भ किया है, उसे सुनिये। ___ इस उत्तम तिर्यग्लोक में सूर्य और चन्द्ररूपी प्रदीपों से शोभायमान विशाल जम्बूद्वीप के दक्षिण दिशाभाग में देवपर्वतों से युक्त, जयश्री की निवासभूमि भरतक्षेत्र है। इसी भरतक्षेत्र में देवकुरु और उत्तरकुरु से भी अधिक विशेषता को प्राप्त सुप्रसिद्ध मगधदेश है, जहाँ जल से पूर्ण मनोहर नदियाँ मन्थरगति से लवण समुद्र की ओर बहती हुई ऐसी शोभायमान होती हैं, जैसे मानों मनोहारिणी युवती रमणियां मन्दगति से अपने सलोने पति के पास जा रही हों। ३. मगध देश का वर्णन इस मगध देश में जैसे पांडु इक्षु वन अति सरस दिखाई देते थे, वैसे ही हर्ष से युक्त कामिनियों के मुख भी। इक्षु दंड उसी प्रकार दले, पीडे व पैरों से मले जाने पर रस प्रदान करते थे, जैसे धूतों के कुल दलन, पीडन और मर्दन से दंडित होकर मुख से लार बहाते हैं। जहां वेश्या मुख से राग आलापती हुई अनुराग पूर्वक नृत्य करती थी, धन्या ( गृहिणी ) भी गान करती हुई सुन्दर नृत्य करती थी व मधुरगीत गाती हुई (धान्य को कूट-कूट कर ) चावल से तुष अलग करती थी ; तथा शुकपंक्ति कलरव करती हुई ( खेतों में या आंगन में सूखते हुए ) धान को निस्तुष करते थे (धान को फुकल कर चावल खा जाते थे )। जहाँ खेत सघन शस्य से युक्त होते हुए अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, जिस प्रकार कि पथिकों की वियोगिनी स्त्रियां घनी सांसे लेती हुई भी अपनी कुल-मर्यादा का त्याग नहीं करतीं। वहां के उपवन रमग करनेवालों को हर्ष उत्पन्न करते हुए उस भद्रशाल युक्त नन्दनवन का अनुकरण करते थे, जो देवों के मन को आनन्ददायी है। कमलों के कोशों पर बैठकर भ्रमर मधु पोते थे: मधुकरों को यही शोभा देता है। जहां सुन्दर सरोवरों में अपने शोभायमान शरीरों सहित हंसिनी से क्रीडा करते हुए श्रेष्ठ कमलों के लिये उत्कंठित और नाना प्रकार के पत्रों पर स्थित राजहंस उसी प्रकार विलास कर रहे थे, जिस प्रकार कि उत्तम धनुष से सुसज्जित शरीर, समरपंक्ति की क्रीड़ा का संकल्प किये हुए, श्रेष्ठ राज्यश्री के लिये उत्कंठित व नाना भांति के सुभट पात्रों सहित उत्तम राजा शोभायमान होते हैं। ऐसे उस मगध देश में राजगृह नाम का नगर है, जैसे मानों देवों का निलय हो, व जो मानो पृथ्वी रूपी महिला ने अपने मुख पर कपोलपत्र व तिलक रूप निर्माण किया हो। ४. राजगृह नगर वर्णन वह नगर ऊँचे शालवृक्षों तथा उल्लसित लाल सुन्दर कोपलों वाले उद्यानवन के सदृश ऊँचे कोट सहित, रक्तमणि व सुन्दर प्रवालों से चमकता था। वह Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित १५५ बुद्धिमानों के लिये उसी प्रकार प्यारा था, कदली वृक्षों से भरा था, व गरिष्ट था, जैसा कि देवेन्द्र देवों को प्यारा है, रम्भा अप्सरा से आलिंगित है, तथा स्वयं गरिमा को प्राप्त है। वहां रति और प्रीति की खूब समृद्धि थी; तथा आकाश में वहां की मकराकृत्ति ध्वजाएं फहरा रही थीं; अतएव जो कामदेव के समान दिखाई देता था, जो रति और प्रीति नामक देवियों से युक्त है, और जिस की ध्वजा मकराकार है। वह नगर निर्मल धर्म से सुसज्जित तथा प्रफुल्लित पुष्पों वाले मनोज्ञ सरोवरों के द्वारा उस मन्मथ के समान था, जो निर्मल धनुष से सन्जित तथा पुष्पवाणों से मनोज्ञ है। वह रत्नों का स्थान, मनोहर देवालय युक्त व सम्पत्ति का निधान होने से उस अमथित उदधि के समान था जो रत्नों का अगार, मनोहर सुरा का आलय तथा श्री का निधान था। वहां की प्रजा में कभी क्षोभ नहीं होता था और वह दिव्य तरङ्गों तथा श्रेष्ठ हाथियों से शोभायमान था, जिससे वह नगर मन्थन से पूर्वकालीन उदधि के समान था, जिसके जल में मंथन का क्षोभ नहीं हुआ था; और जो दिव्य अश्व और उत्तम हाथी रूपी रत्नों से शोभायमान था। अमृतयुक्त व मेरूपर्वत द्वारा उत्पन्न कंप से रहित मन्थन से पूर्व उदधि के समान वह नगर मद मान से रहित तथा सों व वानरों के विशेष उपद्रव से सुरक्षित था ! सुरा के निवास तथा असाधारण अप्सरा जनों के विलास से युक्त अमथित उदधि के समान वह नगर सुगन्धित द्रव्यों से युक्त एवं ईष्यों से मुक्त लोगों का क्रीड़ास्थल था। ऐसे उस राजगृह नगर में अपनी कीर्ति से भुवनमात्र को धवलित करनेवाला एवं ऋद्धि से सुरेन्द्र का भी उपहास करने वाला राजा श्रेणिक अपनी चेलना नामक महादेवी सहित राज्य करता था। ५. राजा श्रेणिक का वर्णन वह श्रेणिक राजा अपने नख रूपी मणियों की किरणों से नभस्तल को लाल करता था; और अपने बाहुबल से सबल दिग्गजों के समूह को तोलता था। वह सब बातों में असाधारण था, कमलनेत्र और लक्ष्मीरूपी वधू का वर था; तथा जिस प्रकार वृक्ष पक्ष्यिों को फलदायी होता है, उसी प्रकार वह याचकों की इच्छाओं को सफल करता था। उसका मुख पूर्णचन्द्र के समान था। उसके शरीर के गुण कामदेव के मानों धनुष की प्रत्यंचा ही थे जिसके कारण वह नागों, मनुष्यों व देवों की स्त्रियों के मन को भी मोहित करता था। वह अपनी उत्तम कलाओं के समूह से कलानिधि चन्द्र का भी उपहास करता था। वह सुवर्ण के समान गौरवर्ण था; और नये मेघ के सदृश उसका स्वर गंभीर था। वह अपनी प्रभा से दुस्सह तापयुक्त सूर्य की किरणों को भी जीतनेवाला था। वह राजा प्रतिदिन परमप्रभु जिनेश्वर देव की वन्दना करता था। उसके बाल भ्रमर समूह के सदृश काले थे; और बाहु ऐरावत हाथी की सूंड के समान प्रचण्ड थे। वह अपने स्थिरता रूपी गुणों से सुमेरू पर्वत को भी जीतता था। वह जिनेन्द्र भगवान् के Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ नयनन्दि विरचित कहे हुये उत्तम रत्नत्रय रूपी धर्म को धारण करनेवाला था। वह अपने परिजनों के हृदय को हरण करनेवाला तथा गुणों के समूह का निधान था। वह षोडश कलाओं से संयुक्त तथा सहज ही अविचल धैर्य धारण करता था। ऐसा वह श्रेणिक राजा मरकतमणि संयुक्त, रत्नों के समूह से जटित सिंहासन पर विराजमान था, मानों निर्मल तारों से संयुक्त आकाशरूपी प्रांगण में पूर्णचन्द्र स्थित हो। ६. विपुलाचल पर महावीर का समोसरण इस प्रकार जब राजा श्रेणिक सिंहासन पर विराजमान था, तब कोई एक मनुष्य उसके मन को आनंद देनेवाला वहाँ आकर उपस्थित हुआ। उसने आकर राजा को नमस्कार किया और उचित सम्मान पाकर कहा-हे राजन् जिनेश्वर वर्धमान स्वामी का यहाँ आगमन हुआ है। वे विपुलाचल पर्वत पर समवसरण के बीच इस प्रकार शोभायमान हैं, जैसे आकाश में नक्षत्रों के मध्य चन्द्रमा विराजमान हो। इस समाचार को सुनकर राजा श्रेणिक अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ। उस समय समस्त राजसभा में तत्काल क्षोभ उत्पन्न हुआ। हारों की शोभा से संयुक्त उर से उर और मुकुट से मुकुट टकराने लगा। जिस प्रकार मेघों के आगमन होने पर मयूर प्रसन्न होता है, उसी प्रकार हर्षित होकर राजा ने आनन्दभेरी बजवाई और वह सात पद आगे बढ़ा। वह वीर भगवान् को नमस्कार करके एक गजेन्द्र पर आरूढ़ हुआ, मानों नवीन मेघ पर पूर्णचन्द्र चमक रहा हो । उस समय रथ, यान, झंपान, भृत्य और तुरंग इस प्रकार चल पड़े, जैसे समुद्र में तरंगें चल रही हों। कपूर से अलंकृत महादेहधारी गज ऐसे शोभायमान हो रहे थे, जैसे विजली की चमक से उज्ज्वल मेघ ही हों। राजा श्रेणिक सुरेन्द्र के समान लीला सहित चला। ( यह वर्णन भुजंग प्रयात छंद में किया गया है।) हाथीरूपी मकरों सहित, छत्ररूपी फेन से आच्छादित, तुरगरूपी तुरंगयुक्त और रथरूपी वोचि सहित, एवं ध्वजमालारूपी चलायमान कल्लोलों से संयुक्त होने के कारण बह राजा संक्षुब्ध समुद्र के सदृश शोभायमान हुआ। ७. राजा की वंदन-यात्रा कहीं सूर्य के अश्वों के समान चंचल, खुरों के अग्रभाग से भूतल को खोदता हुआ चाबुक से आहत होकर घोड़ा वेग से निकल रहा था। कहीं सुरेन्द्र के हाथी अर्थात् ऐरावत के समान सजा हुआ, गण्डस्थल से मद भराता हुआ, हथिनी के साथ-साथ गज दौड़ रहा था। कहीं सुरांगनाओं को दुर्लभ, चंचल नेत्रों की शोभा द्वारा प्रेम उत्पन करनेवाले, नग्न खगों सहित भयंकर भट चल रहे थे। कहीं हंस के समान लोलागमन करती हुई कामिनी जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से प्रेरित होकर हँसती हुई चल रही थी। कहीं पर पर्वत की वीहड़ता युक्त महावृक्षों से भरे हुए वन में ध्वज से ध्वज लग गया और रथ से रथ टकराकर भग्न हो गया। कहीं Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित १५७ एक हाथी दूसरे हाथी को धक्का दे रहा था, एक भट दूसरे का व्युत्क्रमण कर रहा था। अहो, यह खच्चर झड़प लगाकर दौड़ रहा है। राजा की अनुरागिणी विलासिनी स्त्री ( राजा के ऐसे धर्मानुराग को देखकर ) खिन्न हो रही थी। ( यह वर्णन प्रमाणिका नामक सुन्दर छन्द में किया गया है।) जिनेन्द्र भगवान के दर्शन में अनुरक्त जन हर्ष से कहीं भी न माते हुए शोभायमान हो रहे थे, जैसे चन्द्रोदय होने पर समुद्र अपनी कल्लोलों से बढ़ता हुआ शोभित होता है। ८. विपुलाचल-दर्शन चलते-चलते राजा ने लोगों के मन को हरण करनेवाले ऊँचे शिखर से युक्त विपुलगिरि नामक पर्वत को देखा। वह पर्वत हाथियों के गर्जन से ऐसा प्रतीत होता था जैसे दुंदुभी बजा रहा हो, कोकिलों के कलरव द्वारा जैसे गान कर रहा हो, नाचते हुए मयूरों द्वारा मानों नृत्य कर रहा हो, मृगों की उड़ानों द्वारा मानों दौड़ रहा हो, तृणरूपी रोमों द्वारा मानों पुलकित हो रहा हो, निझरों द्वारा मानों खूब पसीज रहा हो। इस प्रकार वह पर्वतराज जगवंद्य जिनेन्द्र भगवान के प्रति चाटुता करता व मानों भक्ति प्रकट कर रहा था; और उच्चस्वर से कह रहा था कि त्रिभुवन की लक्ष्मी के नाथ कब आते हैं, आकर भी क्षणमात्र कहाँ विलम्ब कर रहे हैं। मैं जिनेन्द्र भगवान् की विशेष ऋद्धि से कृतार्थ हो गया। ऐसा कौन है जो सम्पत् पाकर गर्जने नहीं लगता ? विरला ही कोई अपने गुणों से लज्जित होता है। इन्द्र की आज्ञा से कुवेर-विनिर्मित और आकाश में स्थित उस भगवान् के समवसरण को श्रेणिक राजा ने इस प्रकार देखा जैसे हंस मानस-सरोवर को देखे । ९. समोसरण वर्णन वह समवसरण पृथ्वी से पांचसहस्र धनुष ऊपर आकाश में एक योजन विस्तार सहित स्थित था। उसकी चारों दिशाओं में मन्दर छाया दे रहे थे, और सुवर्ण की सोपान-पंक्ति शोभायमान हो रही थी। पृथ्वी इन्द्रनील मणियों से पटी हुई थी, और एक योजन प्रमाण आकाशतल विशुद्ध था। चार मानस्तंभ, जिनकेतन, परिखावलय, वन, उपबन, ध्वजा, कल्पवृक्ष, महान् देवगृह, कोठे, मणिस्तूप, ये सब चमक रहे थे। पवित्र अष्ट मंगलद्रव्य शोभायमान थे, और धर्मचक्र धारण किये हुए चार यक्ष भी। तीन मेखलायें, विशाल सिंहासन, सुवर्णमय सहस्त्रपत्र कमल और उसके ऊपर भगवान् वर्धमान चार अंगुल ऊपर सिंहासन का स्पर्श न करते हुए विराजमान थे। उनका मुख पूर्व दिशा की ओर था, और वे तन्द्रारहित, केवलज्ञान युक्त, इन्द्रादिक द्वारा वन्द्य, निमेष रहित, रोषहीन, नीरागनेत्र, नख और केशों की वृद्धि तथा शरीर की छाया से रहित थे। श्वेत चमर, छत्र और दुंदुभि सहित पुष्पों की सुगंध से युक्त जिनेन्द्र भगवान ऐसे Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ नयनन्दि विरचित शोभायमान थे जैसे मानों सिद्धिरूपी वधू की डोली को विवाह कर लाने के लिये चले हों। १०. राजा श्रेणिक का सद् विचार..... जिनेन्द्र देव के दर्शन करके राजा श्रेणिक अपने मन में भत्ति.पूर्वक विचारने लगे-मनुष्यत्व का फल धर्म की विशेषता ही है। मित्रता का फल हित-मित उपदेश है। वैभव का फल दीन-दुखियों को आश्वासन देना है। तर्क का फल सुन्दर सुसंस्कृत भाषण करना है। शूरवीरता का फल भीषण रण मांडना है। तपस्या का फल इन्द्रियों का दमन करना है। सम्यक्त्व का फल कुगति का विध्वंस करना है। सज्जनता का फल दूसरों के गुणों की प्रशंसा करना है। बुद्धिमत्ता का फल पाप की निवृत्ति तथा मोक्ष का फल संसार से निवृत्ति है। जीभ का फल असत्य की निन्दा करना, सुकवित्व का फल जिनेन्द्र भगवान् का गुणगान करना है। प्रेम का फल सद्भाव प्रकट करना व अच्छी प्रभुता का फल आज्ञा पालन है। ज्ञान का फल गुरुजनों के प्रति विनय प्रकाशित करना तथा नेत्रों का फल जिनेन्द्र भगवान् के चरणों का दर्शन करना है। इस प्रकार चितवन करके श्रेणिक नरेन्द्र ने सन्तुष्ट होकर स्तुति करना प्रारम्भ किया, जिस प्रकार कि कैलाश पर्वत पर स्थित आदिनाथ भगवान की स्तुति सुरेन्द्र ने की थी। ११. जिनेन्द्र-स्तुति जय हो जगतिलक जिनेश्वर भगवन, जिनका अभिषेक सुमेरु पर्वत पर इन्द्र द्वारा किया गया था। जय हो, हे भव्यरूपी सरोवर के कमलों के दिनकर और सुखनिलय । हे भगवन् , आप निष्पाप हैं; और समवसरण के बीच चारों दिशाओं में आपके चार मुख दिखाई देते हैं। आपके कमरूपी मल का पटल विनष्ट हो गया है। आपके नेत्र कमलपत्र के सदृश सुन्दर हैं। हे अरहंत भगवन् , आप कामदेव के बाणों के प्रहार का अपहरण हैं; जन्म, जरा और मृत्यु का परिहरण तथा शुद्ध चरित्र को धारण करनेवाले हैं। आपका समवसरण कुबेर द्वारा निर्मित है ; तथा उसमें आये हुए सब जनों के आप शरण हैं। आप अपने निर्मल यश के प्रसार से भुवनतल को श्वेत करनेवाले हैं, भयरहित हैं, और विषयों के राग की अग्नि को नये मेघ के समान वमन करनेवाले हैं। आपका प्रभामंडल सूर्य के सदृश स्फुरायमान है। देव आपकी दुंदुभि बजाते हैं तथा आप बुद्धिमानों के मन में हर्ष उत्पन्न करते हैं। हे अन्तिम तीर्थकर, आपके ऊपर देव पुष्पों की सघन वृष्टि करते हैं। आपकी अमृत ध्वनि द्वारा स्वमत का मंडन और परमतों का खंडन होता है। आपके ऊपर चंचल चमर दुलते हैं, और आप शिवनगर को गमन करते हैं। देव, मनुष्य, विद्याधर और नाग आपकी प्रतिमहिमा Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चेरित १५६ पूर्वक पूजा करते हैं। जय हो तुम्हारी, हे परमात्मन् , आप समस्त अतिशयों से निरन्तर युक्त हैं। [इस कडवक की रचना शशितिलक नामक छंद में हुई है।] ____ इस प्रकार समवसरण के बीच राजा श्रेणिक अपने मस्तक पर हाथ जोड़ कर हर्षित हुए; और प्राचीन काल में भरत के समान अरहंत जिनेश्वर का स्तवन करके नरकोठे में बैठ गये। १२. वेसठ शलाका पुरुष तत्पश्चात् देवों, मनुष्यों और नागों द्वारा सेवित गौतम गणधर से राजा श्रेणिक ने पूछा-हे देव, इस अवसर्पिणी में कितने तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण हुए, यह बतलाने की कृपा करें। तब वीरप्रभु की आज्ञा से लोगों को आनंद देने वाले गौतम गणधर वर्णन करने और श्रेणिक राजा सुनने लगे। गणधर बोले ऋषभ, अजित, संभवनाथ, अभिनन्दन, सुमति, पद्म, सुपार्थ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, भवरूप वृक्ष के लिये हस्ती के समान विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुंथु, अरह, मल्लि, मदनाशक मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और अन्तिम वर्धमान, ये चौबीस तीर्थकर हुए। भरत, सगर, मधवानरेन्द्र, सनत्कुमार, शान्ति, कुंथु, अरह, सुभौम, पद्म, जयसेन, हरिषेण, और ब्रह्मदत्त, ये बारह चक्रवर्ती हुए। विजय, अचल, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नंदी, नन्दिमित्र, राम और पद्म, ये नव बलराम हुए जानो। त्रिविष्ट, दुविष्ट, स्वयंभू , पुरुषोत्तम, नरसिंह, पुंडरीक, दत्त, नारायण और कृष्ण, ये नव नारायण हुए। अश्वग्रीव, तार, मेर, मधुकीट, निसुंभ, प्रहलाद, बलि, रावण और अन्तिम जरासंघ, ये नव प्रतिनारायण हुए। इन त्रेसठ शलाका पुरुषों के पवित्र चरित्र को अनुक्रम से सुनकर इस मध्यलोक के बीच नितरां वंदनीय संघनायक गौतम गणधर को अपनी राजनीति से सम त भुवनतल को प्रसन्न करनेवाले श्रेणिक राजा ने अपने हाथों को मस्तक पर रखकर नमस्कार किया। इस कडवक की रचना पादाकुलक छंद में हुई है। इति माणिक्यमन्दि वैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करनेवाले सुदर्शन चरित्र में समस्त देवों द्वारा संस्तुत श्री वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार करके विषय, पट्टन, नगर, राजा, पर्वत व समवसरण में आना और महापुराण संबंधी प्रश्न, इन विषयों का वर्णन करने वाली प्रथम संधि समाप्त । संधि ॥१॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि २ १. राजा श्रेणिक का गौतम गणधर से प्रश्न गुणों से भरे हुए नाना चरित्रों को सुनकर राजा ने कहा हे भगवन्, पंचनमस्कार रूप पदों का जिसने जैसा फल प्राप्त किया हो, उसे भव्यों को शीघ्र कहिये । इस जनमनोहर वचन को सुनकर श्री गौतम गणधर कहते हैं - हे जगसुन्दर, जिन- भगवान के चरणारविन्दों के भ्रमर, सम्पत्ति में पुरन्दर का भी उपहास करनेवाले, तथा अपने यश से गिरिकन्दराओं को भी पूरित करने वाले है श्रेणिक नरेन्द्र, जिस प्रकार सागर का जल अत्यन्त प्रमाण है, उसी प्रकार पंचणमोकार मंत्र का फल है । यद्यपि बात ऐसी है, तो भी मैं तुमसे कुछ रख नहीं छोडूंगा । मैं तुम्हें संक्षेप में उसका व्याख्यान करता हूँ । दया के घर अरहंत भगवान् ने कहा है कि यह जगत् ऊँचाई में चौदह रज्जू है; अनन्तानन्त आकाश के बीच स्थित है; और तीन वातवलयों से नीचे वेत्रासन, मध्य में झालर और ऊपर मृदंग के नीचे के भाग में वह नरकबिलों से व्याप्त है; मध्य में द्वीपों और समुद्रों से मंडित ; ऊपर कल्पों ( कल्पदेवों की भूमियों) की विभूति से विभूषित है; तथा लोक के अग्र भाग में सिद्धों से उद्भासित है । मध्य लोक में पहला जम्बूद्वीप है, जो लवण समुद्र से वलयाकार घिरा हुआ है । विस्तार में वह एक लाख योजन है; एवं आकार में पूर्ण चन्द्रमा के समान शोभायमान है । उसके मध्य भाग में मन्दर पर्वत कैसा स्थित है, जैसे मानों विधि ने उसे जगत् रूपी घर का स्तंभ बनाकर खड़ा किया हो । जहाँ देवों का मेला हुआ करता है उस मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशा में अति मनोहर प्रत्यंचा से मण्डित, धनुषाकार भरतक्षेत्र स्थित है; मानों शाली कोटीश्वर-कुबेर ही स्थित हो । वेष्टित होकर मुक्त है । वह आकार से शोभायमान है । २. अंगदेश का वर्णन ऐसे उस भरत क्षेत्र में मनोज्ञ, ऋद्धि से समृद्ध व सुप्रसिद्ध अंगदेश है । वहाँ के वनों में बड़े-बड़े विशाल अर्जुन वृक्ष परस्पर ऐसी सघनता से भिड़े हुए हैं, जैसे मानों गुरु द्रोणाचार्य और अर्जुन परस्पर युद्ध में भिड़े हों । दुर्योधन और बड़े भीमकाय गज रण में ऐसे गुथे हुए दिखाई देते हैं, जैसे दुर्योधन और भीम गदायुद्ध कर रहे हों । शरभ और भीषण वाणों के झुण्ड ऐसे छाये हुए हैं, जैसे रथों पर चढ़े हुए योद्धाओं की भीषण वाणावलि से आच्छादित हो। इस प्रकार अंगदेश की वनराजि महाभारत सदृश दिखाई देती थी। वहां गोकुलों के Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. ३] सुदर्शन-चरित १६१ समूह सुविशाल और शीतल दधिशालाओं से युक्त, निरन्तर गउओं द्वारा प्रसृत बच्छड़ों की शोभा सहित तथा तरुणी गोपिकाओं का आलिंगन करते हुए ग्राम युवकों सहित वहां के उपवनों के सदृश ही दिखाई देते थे, जहां सुविशाल, शीतल शाखालय थे, निरन्तर सुगन्धी पुष्पों को शोभा थी, तथा वृक्षों के समूहों पर पुष्पों की रज लगी हुई थी। वहां गावों के खेत उत्तम खाद से खूब उर्वर बनाए गये थे। बहुत से कृषकों से बसे हुए थे, उनपर कर भी स्वल्प लगाया जाता था। अपने अपने भूमिपति द्वारा रक्षित सुदृढ़ कछारों सहित थे। अतएव वे ग्राम उन सामन्तों के समान थे जिन्होंने श्रेष्ठ क्षत्रियत्व द्वारा अपने क्षेत्र को वशीभूत कर लिया था, जो खूब खींचकर बाग चलाते थे, जो ललित करों से युक्त थे, अपने-अपने भूपतियों द्वारा सुरक्षित थे और दृढ़ता से बद्ध-कक्ष रहते थे। वहां के नगरस्थान खूब रत्नों से युक्त एवं सब प्रकार कल्याणपूर्ण थे। अतएव वे उन जिनवरों के समान थे, जिनके गर्भादि कल्याणक देवों द्वारा किये गये थे। ऐसे उस अंगदेश में चम्पापुर नाम का नगर रत्नों का निधान होने से रत्नाकर ( सागर ) के समान शोभायमान था। वहां अनेक देवालय थे और वह पण्डितों से मनोहर होता हुआ ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह बहुत से विमानों से युक्त तथा देवों से मनोहर देवेन्द्रपुरी ही हो । ३. चंपा नगरी का वर्णन वह चम्पापुर जल से भरी हुई परिखा, कोट तथा गोपुरों से ऐसा महान् एवं ध्वजाओं से ऐसा संकीण था, जैसे मानों भगवान् का समोसरण ही हो। वह कविजनों से पूर्ण एवं लक्षणों से युक्त रमणियों से ऐसा रमणीक था, जैसे कि रामायण कपियों से युक्त एवं लक्ष्मण सहित राम के चरित्र से रमणीक है। वहां के निवासी गुरुजनों की कान ( विनय ) मानते थे ; वहां के पथ लोगों के गमनागमन से व्याप्त थे; और वहां अन्न से भरे द्रोण दिखाई देते थे ; इस प्रकार वह महाभारत के समान था, जिसमें गुरु (भीष्म पितामह ) और कर्ण का सम्मान, पार्थ का व्यापार एवं कणभरिय ? द्रोणाचार्य पाये जाते हैं। वह जातियों और उनकी प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में ऐसा विशाल तथा साधुजनों से ऐसा शोभायमान था जैसे जाति वृत्त द्वारा विस्तृत रचना, एवं यति और गणों से अलंकृत छन्द हो । वह अर्थी ब्राह्मणों के द्वारा एवं चारों दिशाओं में अनन्त प्रजा द्वारा उत्पन्न कोलाहल से उस मन्दर पर्वत के समान शोभा को धारण करता था, जो समुद्र-मंथन के लिए स्थापित किया गया था, और जिसके द्वारा चारों दिशाओं में अनन्त जलराशि में क्षोभ उत्पन्न हुआ था। वहां मित्रजन भ्रमण करते थे; और वह अज्ञान को दूर करनेवाले कल्याणकारी विद्वान् गुरूजनों से पवित्र था; जिससे वह उस गगनतल के समान था जहां सूर्य का परिभ्रमण होता है, एवं जहां अन्धकार का अपहरण करनेवाले मंगल, बुध व गुरु नामक ग्रहों का संचार होता है। अथवा उस नगरी में न्याय वर्ता जाता था, और मनोहर लक्ष्मी की शोभा दिखाई देती थी; अतएव वह उस पाताल के समान था, जहां नागों का निवास है, और जहां मनोहर २१ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ नयनन्दि विरचित [ २. ४पद्मावती की शोभा पाई जाती है। अथवा उस नगरी का क्या वर्णन किया जाय, जहां मणियों और रत्नों आदि की संख्या ही नहीं थी। उस पुरी में धाईवाहन नाम का ज्ञानी राजा था जो ऐसा मनोहर और लोगों को वश में करनेवाला था जैसे मानों कामदेव ने उसे अपना बाणरूप ही सजाया हो। ४. राजा धाईवाहन की प्रशंसा वह राजा नई मेधा से युक्त होता हुआ भी, नये मेघ के समान जलमय ( जड़मति ) नही था। वह सोम अर्थात सौम्य प्रकृति होता हुआ भी, अदोष अर्थात् निर्दोष एवं मदरहित (निरभिमानी ) था; सोम (चन्द्र ) के समान सदोष नहीं था; और न सोमरस के समान मदयुक्त। वह शूर होता हुआ भी कुवलय (पृथ्वीमंडल) को संताप नहीं पहुंचाता था; जिस प्रकार कि सूर्य कुवलय (कुमुदनी) को सन्ताप पहुंचाता है। वह रज (पाप) समूह से वर्जित था; तो भी विभीषण नहीं था, जिसने रजनीचर (निशाचर ) रावण का साथ छोड़ दिया था। वह विबुधपति ( विद्वानों में श्रेष्ठ) होता हुआ भी, बृहस्पति व इन्द्र के समान अनिमिष दृष्टिवाला सुर नहीं था; तथा सुरा (वारुणी) की ओर देखता भी नहीं था, जैसे बृहस्पति व इन्द्र सुरों (देवों) के दृष्टिगोचर होते हैं। वह आर्जव गुण का धारी होता हुआ भी, अपने गुरु द्रोण के प्रतिकूल लड़नेवाले अर्जुन के समान नहीं था। नरश्रेष्ठ ( अर्थात् मनुष्यों में श्रेष्ठ ) होता हुआ भी, वह राष्ट्र की रक्षा की ही इच्छा करता था; और इस प्रकार नरज्येष्ठ ( अर्जुन का बड़ा भाई युधिष्ठिर ) होता हुआ भी, धृतराष्ट्र से स्नेह करता था। वह बाहुबलि ( भुजशाली ) होता हुआ भी, भारतदेश भर में श्रेष्ठ था, और इस प्रकार बाहुबलि होकर भी, भरत से जेठा था। वह राम ( रमणशील ) अथवा दूसरों को आराम देने वाला होता हुआ भी, हलधर ( बलराम ) नहीं कहलाता था। वह शत्रुकुल को नाश करने के लिए अग्नि के समान होता हुआ भी, अविनीत नहीं था। वह स्वामी होता हुआ भी, स्वामी ( अथात् कात्तिकेय ) के समान महेश्वर का साथी नहीं था। वह सारंग ( सुन्दर अंगवान् ) होता हुआ भी, पुंडरीक ( कमलों ) को धारण करता था जैसे मानो एक सारंग ( मृग) पुण्डरीक ( व्याघ्र ) का साथी बन गया हो। वह न्याय-विचारक था तथापि अति अभिमानी नहीं था। इसी प्रकार नागों (हाथियों) का विदारक होते हुए भी मृगाधिप (सिंह ) नहीं था। वह आदर सहित होते भी, सागर नहीं था जिसमें मछलियां संक्षोभ उत्पन्न करती हैं। वह चतुरों की आशा पूरी करनेवाला होने से चतुरास्य ( चतुरानन ब्रह्मा ) होता हुआ भी, हाथ में रुद्राक्ष माला नहीं रखता था। वह बिना पंखों के रथ का वाहन रखता हुआ भी, गरुड़ वाहन श्रीधर ( अर्थात् नारायण) नहीं था। वह नीस (नृ+ईश-नरेश्वर ) था, एवं क्रम ( चरणों) की शोभा से आलिंगित था; और इस प्रकार नीश (न+ ईश-दरिद्री) होता हुआ भी, कमलाक्षी लक्ष्मी से आलिंगित था। वह गुणवान् और धनवान् था, अतएव परमुखापेक्षी नहीं था, और इस प्रकार वह उस Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. ६ ] सुदर्शन-चरित द्धा के समान था, जो प्रत्यंचायुक्त धनुष रखता हुआ, ( समर में ) कभी पराङ्मुख होना नहीं चाहता । सगुण धनुष रखता हुआ भी, वाणों को ( निरपराध ) दूसरों की ओर नहीं चलाता था । उस जगविख्यात राजा की अभया नाम की रानी थी, जो कामदेव की रति, राम की सीता व इन्द्र की इन्द्राणी के समान थी । ५. ऋषभदास सेठ की गुण-गाथा १६३ उसी नगर में ऋषभदास नाम का सुप्रसिद्ध और धन-संपन्न राजश्रेष्ठी रहता था । वह समस्त कलाओं से सम्पन्न था, और पृथ्वीमंडल भर का प्रिय था; अतएव वह समस्त कलाओं से पूर्ण कुमुद पुष्पों को प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्र के समान था । वह नीतिवान् होने से नयों का प्रतिपादन करनेवाले जैनशासन के समान शोभायमान था । अथवा, वह विशेष ज्ञानी होने से गरुड़वाहन माधव के समान था ; तथा दानशील होने से वह इन्द्र के हाथी के समान था जिसके सदा मद मरा करता है । वह निर्दोष होने से उस सूर्योदय के समान था जो रात्रि व्यतीत होने पर होता है । वह सबको सन्तोष उत्पन्न करनेवाला होने से उस शीतकाल के समान था, जिसमें पौष मास उत्पन्न होता है । वह सबका बड़ा स्नेही था, अतएव उस भैंस के दूध के समान था, जिसमें खूब घी निकलता है । वह उन्नत मेधावी ( अर्थात् ऊंची बुद्धिवाला ) होने से उस वर्षाऋतु के समान था, जिसमें मेघ ऊपर उठे दिखाई देते हैं । वह सत्य और त्याग गुणों से युक्त होते हुए उस नगर की ऊंची दुकान के समान था, जिसमें अच्छा चावल मिलता है । वह भोगों से युक्त था; अतएव भोग ( फल ) युक्त नागेन्द्र के समान सुहावना था । वह बहुत सुलक्षणों से युक्त होता हुआ उस व्याकरण के समान शोभायमान था, जिसमें शब्दों के नाना रूप बनाने के नियम रहते हैं । उसके विशाल नेत्र कानों के अन्त तक पहुंच रहे थे; अतएव वह उस अर्जुन के समान था, जिसकी दृष्टि कर्ण की मृत्यु पर थी । वह सद्गुणों से खूब सम्पन्न होता हुआ उस चढ़े हुए धनुष के समान था जिस पर प्रत्यंचा लगी हुई है। तथा धन से सुसम्पन्न होने के कारण वह महाकवि के ऐसे कथाबंध के समान था, जो अर्थ से समृद्ध है । उस सेठ की बहुत लक्षणों से पूर्ण एवं बड़ी विचक्षणा अर्हद्दासी नाम की प्रिय पत्नी थी, जैसी इन्द्र की शची, चन्द्र की रोहिणी एवं मुरारी श्री (सत्यभामा ) । ६. अर्हदासी सेठानी तथा सुभगगोप का गुण वर्णन वह सेठानी दीर्घाक्षी व शुभ्र दन्तपंक्ति से उद्भासित ऐसी प्रतीत होती थी, मानों दीर्घकालीन रक्षा रूपी विशाल पथों युक्त व रत्नत्रय रूप रत्नों की पंक्ति से शोभायमान धर्म की नगरी ही बसाई गई हो। वह अतिप्रसन्न, कान्तियुक्त और सुखदायी होने से कुमुदनी वल्लभा चन्द्रलेखा ( चन्द्रकला ) के समान पृथ्वीमंडल भर को प्यारी थी । वह सुलक्षणों से युक्त व अलंकार धारण किये हुए, लोगों के मन को उसी प्रकार आकृष्ट करती थी, जैसे काव्य के लक्षणों से युक्त अलंकार- प्रचुर Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ नयनन्दि विरचित [२. ७सुकविकृत कथा। कुंकुम (केशर) और कपूर से भूषित एवं तिलक और अंजन लगा कर, वह उस वन राजि के समान शोभायमान थी, जो कुंकुम, कपूर, तिलक और अंजन वृक्षों से व्याप्त हो। उदित दिनेश और सन्ध्या के समान परस्पर अनुरक्त उन दोनों सेठ-सेठानी का एक सुभग नाम का ग्वाला था, जो नई बहू के समान अत्यन्त भोला था। वह खूब ही अपने स्वामी की इच्छानुसार चलनेवाला था; अतएव उस कविकृत काव्य के समान था, जो छन्दानुसार चलता है। वह अपने वर्ग के हल्के लोगों को बहुत प्रिय था, जिस प्रकार कि किंपुरुषों को सुमेरु पर्वत का पृष्ठभाग प्रिय है। वह गउओं और भैंसों का पालन किया करता था; अतएव उस राजा के समान था, जो पृथ्वी एवं रानियों का पालन करता है। वह क्रीड़ा करता हुआ वन में रमण और भ्रमण किया करता था। वह बन्दरों के समान झाड़ों की डालियों से भूला करता व हरिण के समान उछाल भरा करता था। वह भ्रमर के समान गुनगुनाती हुई तानें छोड़ा करता था, तथा हर्षोत्फुल्ल होकर मयूर के समान नाचा करता था। गाय भैसों को वन में चरा कर, वह अन्य ग्वालों के साथ हंसमुख होता हुआ, अपने प्रिय घर को लौटता हुआ, ऐसा प्रतीत होता था, जैसे मानों वासुदेव कृष्ण अपने ग्वालबालों सहित प्रसन्नमुख गोठाण को लौट रहे हों। ७. गोपका मुनिराज-दर्शन एक बार वह ग्वाला उस घर में रहते, देखते, मल्हाते, जूझते, रूझते, सोते, जागते, करते, उठते, नाचते, चलते, बोलते, भागते, प्रसन्न होते या क्रोध करते, नमोकार मन्त्र को बराबर उच्चारण करता रहता था। इसे देख वह सम्यग्दृष्टि सेठ रुष्ट हुआ। उसने गोप को उसके गोत्र व बाप का नाम ले लेकर बुलाया, हांका मारा और कहा-रे संत्यक्त, अपात्र, निकृष्ट, धीठ, जो मंत्र के शब्द संसार का तारण करनेवाले व मनोज्ञ हैं, उन्हें तू किस कारण जहां तहां घोषित करता और दूषित करता है ? इसे सुन कर उस गोप ने सेठ को नमस्कार करते हुए भक्तिभाव से कहा-हे आराध्य नाथ, माघ के महीने में, भीम अरण्य के बीच, सन्ध्या के समय एक निम्रन्थ मुनि योग्य मार्ग से ऐसे आ पहुंचे जैसे मानो योग के मार्ग से सुख व मोक्ष के पथ ही हों। उन्हें देखकर मुझे बहुत हर्ष हुआ। उन आराध्य साधु की वन्दना व स्तुति करके वहां से मैं घर आया। (इस छन्द का नाम मध्यमवीर विलास है )। उस रात्रि को मेरे मन में एक महान् चिन्ता के कारण मुझे नींद नहीं आई। जैसे मानों निद्रा असती, दुष्चित्ता स्त्री, अपने संकेत से चूककर भटकती फिरी हो। ८. पंचनमोकार मंत्र की प्राप्ति मैं उन विशुद्ध ज्ञानी साधु का स्मरण करते हुये रात्रि समाप्त होने के समय उठा और अग्नि लेकर लड़खड़ाता हुआ तुरन्त उसी स्थान पर गया Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. १० ] सुदर्शन-चरित १६५ जहाँ वे मुनि थे। जब मैं अपने हाथों को उष्ण करके बारबार उनके शरीर पर लगा रहा था, तभी झट सूर्य का उदय हुआ । तब वे मुनीन्द्र पैंतीस अक्षर बोलकर आकाशमार्ग से बिहार कर गये। मैंने वहाँ उन अक्षरों को सुन लिया । इसीलिए उन अक्षरों का मैं यहाँ वहाँ उच्चारण करता हूँ । मैं किञ्चित् भी उपहास नहीं करता । गोप की यह बात सुनकर सेठ ने कहाइस जग में यह मंत्र दुर्लभ है । इसका तूं आलस्य छोड़ अपने चित्त में ध्यान कर । ( इस छंद को रसारिणी के नाम से जानो ) । इस मंत्र को तूं उत्तम पैंतीस अक्षरों के रूप में, या सोलह, या पाँच, या दो, या एक अक्षर के रूप में क्रमश: अपने सिर, मुख, गला, वक्षस्थल, और नाभिकमल में ध्यान कर ! ९. णमोकार मंत्र का प्रभाव इस मंत्र के फल से गुणरूपी मणियों के निधानभूत समचतुरस्र संस्थान, श्रेष्ठ वज्रवृषभनाराचसंहनन के धाम, एक सौ आठ लक्षणों के निवास, कर्मरूपी पाश का छेदन करनेवाले, चौंतीस अतिशयों से विशेष शोभावान् केवलज्ञानी, देवेन्द्र के मुकुट मणियों से घर्षित होनेवाले चरणों से युक्त, राग-द्वेष रहित, अपने सौम्य 'गुण से पूर्णचन्द्र की कान्ति को भी जीतनेवाले जिनवर होते हैं, चौदह रत्नों को सिद्ध करनेवाले नवनिधियों से समृद्ध चक्रवर्ती होते हैं, अपने प्रतिपक्षियों को जीतनेवाले महापराक्रमी मल्ल बलदेव और वासुदेव होते हैं; महान् गुणों और ऋद्धियों को धारण करनेवाले सोलह स्वर्गों के देव होते हैं; तथा नौ अनुदिश विमानों में एवं पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होनेवाले त्रिभुवन में महान जीव होते हैं । इस मंत्र से उत्पन्न सुख का वर्णन करने में कौन समर्थ है ? इन्द्र भी असमर्थ है ? ( कडवक का छंद चित्रलेखा नामक पद्धडिया है, जिसके दोनों पद विषम होते हैं) । यदि मनुष्य अतिशय भक्ति से युक्त होकर पंचपरमेष्ठि का स्मरण करे, तो उसे फिर देर नहीं लगती; वह मोक्ष को भी पा जाता है, आकाश में गमन तो कौन सी बड़ी बात है । १०. व्यसनों के दुष्परिणाम हे पुत्र, जिस प्रकार आगम में सातों व्यसनों का वर्णन किया गया है, वह सुन ! सर्पादिक विषैले प्राणी असा दुःख देते हैं, किन्तु इसी एक जन्म में । परन्तु विषय तो करोड़ों जन्मजन्मान्तरों में दुःख उत्पन्न करते हैं, इसमें सन्देह नहीं । विषयासक्त होकर रुद्रदत्त चिरकाल के लिये नरकरूपी वन में जा पड़ा । जो मूर्ख बड़े आदर से बड़ी आकुलता से जुआ खेलता है, वह क्षोभ में आकर अपनी जननी, बहिन, गृहिणी तथा पुत्र का भी हनन कर डालता है। जूआ खेलते हुए तथा युधिष्ठिर विपत्ति में पड़े। मांस खाने से दर्प बढ़ता है, और उस दर्प से मद्य का भी अभिलाषी बनता है, एवं जूआ भी खेलता है और अन्य बहुत से Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनन्दि विरचित [२. ११दोषों में आसक्त होता है। इस प्रकार उसकी अकीत्ति फैलती है। इसीलिए इसका त्याग करना चाहिए। मांस का भोजन करनेवाला वन राक्षस मारा गया और नरक को प्राप्त हुआ। मदिरा द्वारा प्रमत्त हुआ मनुष्य कलह करके अपने इष्ट मित्रों की भी हिंसा कर बैठता है, रास्ते में भी गिर पड़ता है, तथा हाथ ऊँचे कर विह्वलता से नाचने लगता है। मद्यपान से मदोन्मत्त होकर समस्त यादव नाश को प्राप्त हुए। वेश्या राक्षसी के समान रक्त चूसनेवाली है; केवल वह अपना वेष सुन्दर दिखलाती है। उसका जो सेवन करता है, वह कायर उच्छिष्ट भोजन खाता है। वेश्या में प्रमत्त होकर यहाँ चारुदत्त सेठ भी निर्धन हो गया और दीन वेश बनाकर बिखरे बालों सहित पराङ्मुख होकर भागता फिरा। जो शूरवीर होते हैं, वे शबर होकर भी उन वनमृगों के समूहों को नहीं मारते जो वन में तृण चरते हैं, और खड़-खड़ आवाज़ सुनकर भी अत्यन्त डर जाते हैं। इन्हें मूर्ख शिकारी न जाने क्यों मारता है ? इन बेचारों ने क्या किया है ? आखेट में आसक्त होकर चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त भी नरक को गया। चंचल और ढीठ चोर अपने गुरु तथा मां बाप को भी इष्ट नहीं मानता। वह अपने भुजबल से व छल से उन्हें भी ठगता है, और दूसरों को भी। वह मूर्ख भय के कूप में पड़कर न नींद पाता है और न भूख । ( यह विद्युल्लेखा नाम से सुप्रसिद्ध पद्धडिया छन्द है)। चोर पकड़ा जाता है, बाँधकर ले जाया जाता है, एवं मागों और चौराहों पर घुमाकर दंडित किया जाता है, तथा नगर के बाहर खंड खंड किया और मारा जाता है। ११. चोरी के कुफल पराये धन में आसक्त होने से अंगार नामक चोर शूली पर चढ़ाया गया और मरण को प्राप्त हुआ। यह देखकर भी मनुष्य मन में मूर्खता धारण कर चोरी करता है, छोड़ता नहीं। जो इस जन्म में परस्त्री की अभिलाषा करता है वह निःश्वासें लेता है, गाता है, हँसता है, विरह से दुःखी और पतित अवस्था में रहता है। जब उसे प्रेम करने नहीं मिलता तब वह अपने भित्र से कहता हैहे मित्र, तू जा, और प्रार्थना करके शीघ्र उसे मेरे घर लाकर मेरे उर से लगा। वह स्वयं भी सैकड़ों उपाय रचता है। यदि कोई युवती सती हुई और उससे राजी नहीं हुई, तो उसे सुख लाभ नहीं होता। वह लोगों को अपना अतिदीन मुख दिखाता है, और मन में झूरता है। अथवा, यदि कोई चंचला अबला उससे राजी हो गई, तो उसे लेकर किसी देवालय के शिखर पर या किसी सूने घर में जाकर स्वयं उससे रमण करता है। वह थोड़ा भी स्वर सुनकर डर जाता है। मन में थर्राकर शरीर से कंपते हुए, चुपचाप दरकता है, भागता है, और गिरता है। जब उसे कोई हाथ से पकड़ लेता है, तो वह गधे पर चढ़ाया जाता है, निकाला जाता है, तथा मारा जाता है। जगत् में यह सब सहकर, वह ( मरने पर) नरक में पड़ता है। रावण आदि अज्ञानी बनकर परस्त्री-रत हुए और चिरकाल के Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. १३ ] सुदर्शन-चरित १६७ लिए नाश को प्राप्त हुए । इस प्रकार ये सातों ही व्यसन कष्टदायी हैं । अतः तूं संयम ग्रहण कर इनको त्याग दे । सेठ के इन वचनों को उस गोप ने अपने मन में स्थिर कर लिया। फिर बहुत दिनों पश्चात् प्रसन्नचित्त होकर एक दिन वह गोप घर से निकलकर गंगानदी को गया । ( यह करिमकरभुजा नाम का दुवई छन्द है) । सुन्दर जल और सारस पक्षियों से युक्त, निर्मल, प्रसन्न व सुखदायी नदी सदैव उसी प्रकार शोभायमान होती है जैसे सुन्दर चरणों व सुलक्षणों से युक्त स्वच्छहृदय, हँसमुख, सुखकारी पतिव्रता स्त्री, अथवा सुन्दर शब्दों से युक्त, व्याकरण के नियमों से शुद्ध, निर्दोष, प्रसाद गुणयुक्त आनन्ददायिनी सुकवि कृत कथा । १२. गंगानदी का वर्णन वह गंगा नदी प्रफुल्ल कमलरूप अपने मुख से हँस रही थी । घूमती हुई भ्रमरावलीरूपी अलकों सहित ( उनके गुँजार के रूप में ) बोल रही थी । दीर्घ मछली रूपी नेत्रों से मन को हरण करती थी । सीप के पुट रूपी ओष्ठ-पुटों से धृति ( हर्ष ) उत्पन्न करती थी। मोती रूपी दंतावलि दिखला रही थी । प्रतिबिम्बित जल के रूप में वह शशिदर्पण देख रही थी । तटवर्ती वृक्षों की शाखाओं द्वारा नाट्य कर रही थी । जल के प्रस्खलन रूप त्रिभंगी प्रकट कर रही थी । सुन्दर चकवारूपी चक्राकार स्तनों के भार से नमन कर रही थी। गम्भीर नीर की भंवर रूप नाभि को धारण करती थी । फेन- पुञ्ज रूप बृहत् हार पहने हुए थी । कल्लोल रूपी विशेष त्रिवली से शोभायमान थी । शतदल नीलकमल रूपी नीलाम्बर की शोभा दे रही थी। जल की खलमलाती कल्लोलों रूपी कटिसूत्र धारण किये हुए थी। मंथर गति से लीला पूर्वक संचार करती हुई वह सागर की ओर बह रही थी, जिस प्रकार कि वेश्या अपने प्रेमी का अनुसरण करती है । सुरसरि ( गंगा ) को ऐसी शोभायुक्त देखकर वह सुभग गोप मन में हर्षित और शरीर में रोमांचित होकर, कलकल ध्वनि करते हुए ग्वालों के साथ कृष्ण के समान बहुत देर तक क्रीड़ा करता रहा । १३. गोप-क्रीड़ा एक क्षण में वह लोटता व किसी को त्रास देता व समान पीड़ा देता । एक सुभग एक क्षण लुकता व झड़प देता था । ग्वाल दल को पीटता था । क्षण में वह छिप जाता, नीचे को चला जाता । क्षग में क्रीड़ा करता व ग्रह के क्षण में शंकित होता और अपना मुख ढंक लेता था । क्षण में वन-वृक्षों की डालों को मोड़ता व लूटता था । एक क्षण में दौड़ता और फिर वापस आता, जैसे कि मन । एक क्षण में दिखाई देता और फिर विलुप्त हो जाता, जैसे धन । उसी समय एक चमक ( घबराहट ) मन में धारण करके खेत का रखवाला उसके सम्मुख आ पहुंचा। वह बहुत कांपता हुआ सहसा बोला- अरे चल, हे महायशस्वी, खेले मत । मैंने तेरी गउओं को जाते देखा है । वे नदी के दूसरे तट की ओर गम्भीर जल में पहुंच गई हैं। इसे सुन कर अपना सिर धुन कर वह गोप वहां से Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ नयनन्दि विरचित [ २. १५चल पड़ा। (यह तोडनक छन्द कहा गया है)। वह गोप, जिसकी आयु थोड़ी रह गई थी, परमेष्ठी पदों का ( पंचणमोकारमन्त्र का ) स्मरण करके नदी में कूद पड़ा, जैसे मानों वह विष से भरी नागिनी के मुख में या यम की दृष्टि में जापड़ा हो। १४. नदी में एक खूट से फंसकर सुभगगोप की मृत्यु वहाँ जल के बीच एक ठूठ था, जो ऊपर को उठा और सूखा होने से उस गगन के समान था, जिसके ऊपर शुक्र (ग्रह) का उदय हुआ हो। वहां मछलियाँ भी थीं, और इसलिए वह मीन राशि युक्त गगन के समान था। वह कर्कश और विचित्र (फटकर नुकीला ) था, अतएव कर्कराशि और चित्रा नक्षत्र से युक्त गगन के समान था। जल में डूबा हुआ वह खूटा कैसा दिखाई देता था जैसे मानो उस गोप का प्राण हरण करनेवाला काल ही खड़ा हो। गोप के गोता लगाते ही ठूठ उसके हृदय में चुभ गया और मर्म स्थलों को ऐसा चीरने लगा जैसे खल के वचन । उस ठूठ ने उस के हृदय को चीर डाला और उसकी पीठ के मांस का भी भक्षण कर लिया। इस प्रकार उसके कर्म से वह ठूठ भी मांस-भक्षी राक्षस बन गया। गोप विह्वल होकर अपने अंग को ऐसे छटपटाने लगा, जैसे जल के मध्य जाल में फंसकर मछलियों का समूह छटपटाता है। उसके हाथ-पैर चलने बन्द हो गये, जैसे किसी दुष्ट राजा का ग्राम ऊजड़ होकर वहां प्रजा का आवागमन व करदान की क्रिया बन्द हो जाती है। उस समय गोप ने अपनी देह का शोक छोड़ सहज ही यह निदान बांधा-"यदि इन पंच पदों ( अर्थात् पंच परमेष्ठी णमोकार मंत्र ) का कोई फल हो तो मेरा अगला जन्म उसी वणिक्कुल में हो, जिससे मैं अपने पापों के मैल को नष्ट करके बहु-सुख रूप मोक्ष को जा सकू"। १५. पंच णमोकार मंत्र की महिमा जिस प्रकार पंचेन्द्रियों से मन शोभायमान होता है, पंचवर्ण पुष्पों से उपवन, पंच वाणों से मन्मथ, पंच पांडवों से भारत, पंच अणुव्रतों से भव्य-जन ( श्रावक ), पंच महाव्रतों से मुनिगण, पांच-पांच भावनाओं से व्रत-क्रम, पंच आचारों से श्रेष्ठ ऋषि, पंच महाकल्याण से जिन, पांच अस्तिकायों से त्रिभुवन, पांच मन्दरों से महीतल, पांच आश्चर्यों से दान का फल, पंचाङ्ग मंत्र से महीपति, पंचविध ज्योतिषी देवों से नभ, तथा पांचसौ योजनों से प्रमाण योजन, उसी प्रकार पंचनमोकार मंत्र सहित मरण करना बड़ा शुभ है। मन को खेंचकर जो आनन्द सहित णमोकार मंत्र के पांच पदों का ध्यान करते हैं, वे नीति का आनन्द लेते हुए अष्टगुणालय-सिद्धालय को प्राप्त करते हैं, ऐसा नयनन्दि कहते हैं। ___ इति माणिक्यनन्दि विद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करनेवाले सुदर्शनचरित में त्रिलोक, विषय, पुर, नृपति, सेठ, उसकी गृहिणी, फिर सुभग गोप के मुनि के समीप पुण्यार्जन, नदी के महाजाल में ठूठ से हृदय विदारित होने से मरण, इनका वर्णन करनेवाली दूसरी सन्धि समाप्त । सन्धि ॥२॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ३ न तो प्रवाल की लालिमा से शोभित तरुणी के अधर में, न भौंरों को नचानेवाले आम में, और न मधुर इक्षु-दंड में, न अमृत में, न कस्तूरी में, न चन्दन में और न चन्द्र में वह रस मिलता है, जो सुकवि रचित अलंकार युक्त काव्य में प्राप्त होता है। रामायण में राम सीता के वियोग के शोक से दुःख को प्राप्त हुए, महाभारत में पांडव और धृतराष्ट्र-पुत्र ( कौरव ) निरंतर गोत्र-कलह में प्रवृत्त हुए। सुद्धय कथा ढेड, चुगलखोर, चोर व राजा, इनकी घटनाओं से भरी पड़ी है। किन्तु ऐसा एक भी दोष इस सुदर्शनचरित्र में उत्पन्न नहीं हो पाया। १. सेठानी का स्वप्न तरंगों युक्त गंगा नदी से जब तक सुभग गोप का जीव जन्मान्तर में नहीं पहुंचा, तभी शुभमति जिनमति सेठानी ने अपनी शैय्या पर सोते हुए निम्न स्वप्न देखे :-देवों के चित्त को हरण करनेवाला एक विशाल पर्वत, नया कल्पतरु, अमरेन्द्र का घर, विशाल समुद्र, शोभायुक्त तथा जाज्वल्यमान अग्नि। प्रातःकाल वह उत्तम शुद्धमति सती शीघ्र ही वहां गई, जहां उसका पति विराजमान था। उससे रात्रि में देखा हुआ अपना स्वप्न कहा। पति ने बतलाया-हे हंसगामिनि प्रिये, लो, शीघ्र उत्तम जिन मन्दिर को चलें। वहां निरंतर उपदेश करनेवाले भगवान मुनिराज तुम्हारे स्वप्न का पूर्ण फल प्रकट कर सकेंगे। तब वह रमणी अपने हार के मणियों को चलायमान करती हुई चल पड़ी। (इस छन्द को रमणी नामक जान कर कहा है)। वे दोनों पति-पत्नी जिनमन्दिर को गये और वहां मुनि को प्रणाम करके जिनदासी ने अपने रात्रि में देखे हुए गिरिवर, कल्पतरु, सुरगृह, जलधि और अग्नि-शिखा, इन स्वप्नों को कहा। २. स्वप्न-फल सेठानी ने पूछा-इस स्वप्न के दर्शन का क्या फल होगा? हे परमेश्वर, जल्दी कहिये। यह सुनकर मुनिवर ने नये मेघ के समान स्वर से कहा-हे सुन्दरि, सुनो। तुम्हारे इस स्वप्न में देखे गये उत्तङ्ग और महाविशाल गिरिवर के फल से तुम्हारा पुत्र सुधीर होगा। पुष्परज की सुगंध से भौरों को आकृष्ट करनेवाले कल्पतरु के फल से तुम्हारा वह पुत्र त्यागी ( दानशील ) लक्ष्मीवान होगा। देवांगनाओं की क्रीड़ा से मनोहर उत्तम सुरगृह के फल से वह सुरों द्वारा वंदनीय होगा। जल की लहरों से आकाश का चुंबन करनेवाले रत्नाकर के फल से वह गुणसमूहों से युक्त व गम्भीर होगा। अतिसघन जड़त्व का विनाश करनेवाले हुताशन के स्वप्न से वह पापरूपी मल को निर्दहन करेगा। तुम्हारा वह पुत्र सुन्दर मनोहर, गुणमणिनिकेत, युवतीजनवल्लभ, मकरकेतु, अपने कुल रूपी मानसरोवर २२ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० नयनन्दि विरचित [ ३. ३ का राजहंस, निर्मत्सर व बुद्धिमान लोगों की प्रशंसा को प्राप्त करनेवाला होगा । फिर वह साधु होकर एवं उपसर्ग सहन कर ध्यान के द्वारा मोक्ष प्राप्त करेगा । यह सुनकर वे दोनों पति-पत्नी मन में हर्षित हुए, और जिनेन्द्र तथा मुनिराज को नमस्कार करके अपने घर लौट आए। वहां वह गोप उस प्रकार निदान करके मरने पर उस सेठ की प्रियपत्नी के उदर में अवतार लेकर रहा। वहां गर्भ में स्थित वह ऐसा शोभायमान हुआ जैसे आकाश में स्थित रवि, कमलिनी पत्र पर जल अथवा सघन सीप की पुट में अनुपम मुक्ताफल । ३. सुदर्शन का जन्म जैसे दूसरों की ऋद्धि को देखकर दुर्जनों का मुख काला पड़ जाता है, वैसे ही उस गर्भिणी सेठानी के दोनों स्तन कृष्णवर्ण हो गये । उसका मुख चन्द्र को जीतता हुआ ऐसा शोभायमान था, जैसे मानों अपने गर्भस्थित पुत्र के यश से उज्ज्वल हो उठा हो । चलने में उसकी गति मन्द हो गई, और बोलने में उसकी वाणी सूक्ष्म । उसके आठों अंग ऐसे शिथिल हो गये कि क्षण-क्षण उसके शरीर में स्खलन प्रकट दिखाई देता था । उसे जिनाभिषेक अच्छे दान आदि विवेकपूर्ण दोहले उत्पन्न होने लगे । फिर पौष मास आने पर व शुक्लपक्ष होने पर चतुर्थी तिथि से संयुक्त बुधवार के दिन शतभिषा नक्षत्र, वरियाण योग, ववा नामक प्रधान प्रथम करण के होने पर व पांच अंश छोड़ नौ मास पूरे होने पर, विशेष पुण्य के प्रभाव से उसे पुत्र उत्पन्न हुआ, मानों जीवगणों को विशाल पाताल ( अधोगति ) में गिरते हुए देखकर दुःख और पाप का नाश करनेवाला स्वयं धर्म मनुष्य होकर अवतीर्ण हुआ हो । ४. सेठ के घर पुत्र जन्मोत्सव वहां उस सुन्दर लक्ष्मी से सुशोभित सेठ के घर अत्यन्त प्रसन्नमुख, पूर्ण पात्र से युक्त, आनन्दध्वनि करते हुए मनोहर प्रजाजनों की कतार बंध गई । नाना प्रवृत्तियों वाले चट्ट, भट्ट और पुरोहित मिल कर आये। वहां ऐसे बाजे बजने लगे जिनमें जोरदार नगाड़ों की ध्वनि भी थी एवं मृदंगों और कंसालों की ताल भी । करड और टिविल की ध्वनि भी थी, एवं बांसुरी और वीणा का नाद भी था । इस वाद्यध्वनि से नगर भर के मयूर नाच उठे, समस्त दिशाओं के मुख भर गये और विरहिणी स्त्रियों का मन झूरने लगा । स रि ग म प ध नी इन सप्त स्वरों से संयुक्त, किन्नरों द्वारा प्रशंसनीय अमृत के समान गायकों का गान भी प्रारंभ हो गया । गज के समान सुमन्दगामी, सुन्दर और विशाल नितंबों से युक्त, उन्नत स्तन, चन्द्रमुखी नारिवृन्द नृत्य करने लगा । दुर्जनों के शिर का शूल और सज्जनों के आनन्द का मूल, मंगनों ( भिखारियों ) का अविरल कोलाहल फैलने लगा । सेठ जिनेन्द्र भगवान को सिर नवा कर नमस्कार करता हुआ दान देने लगा । ( यह आठ यतियों से युक्त मालिनी छन्द कहा गया है ।) उस श्रेष्ठ वणिक् ने सन्तुष्ट Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ७ ] सुदर्शन-चरित १७१ होकर अपने पुत्र का ऐसा जन्मोत्सव किया, जैसा कि सानन्द इन्द्र द्वारा जिनवर का जन्मोत्सव किया जाता है । ५. प्रकृति ने भी जन्मोत्सव मनाया उस पुत्र के उत्पन्न होने से लोगों को सन्तोष हुआ । आकाश में बड़े-बड़े मेघों ने जल-वृष्टि की। नगर का दुष्ट और पापी वर्ग त्रस्त हुआ । नभ में देवों ने हर्ष और आनन्द की घोषणा की । तुष्टिदायक दिव्य दुंदुभी-घोष हुआ । समस्त वन प्रफुल्लित हो फूलों की वर्षा करने लगा । आनन्दकारी मन्द पवन चलने लगा। बावड़ी और कूपों में अत्यधिक जल भर आया । गउओं के समूहों ने अपने स्तनों से दूध गिराया । आने जाने वाले पथिकों से मार्ग अवरुद्ध हो गया । फिर जन्म से छठे दिन उस वैश्य ने उत्कृष्ट रूप से झटपट छठी का उत्सव मनाया। जब आठ और दो अर्थात् दस दिन व्यतीत हुए तब उस पुत्र की जिनदासी नाम की माता अनुराग सहित उस सुकुमार एवं देवेन्द्र के समान देहधारी बालक को लेकर भक्तिपूर्वक जिनमन्दिर को गई । उसने मुनिराज के दर्शन किये और उनसे पूछा । ( यह छन्द मत्तमातंग नामक है ) । जैसा मन्दर पर्वत स्थित है, वैसे ही बुधजनों ने कुंभ राशि को कहा है मेरे पुत्र की इसी राशि का विचार कर, हे मुनिराज, उसका नाम रखा जाय । ६. पुत्र का नामकरण सेठानी की यह बात सुनकर कामदेव को नाश करनेवाले वे यतीश मेघ के समान ध्वनि करते हुए बोले- हे पुत्री, तूने स्वप्न में सुन्दर और उच्च सुदर्शनमेरु को देखा था, अतएव इस पुत्र का नाम भी सज्जनों और कामिनियों को कर्णमधुर 'सुदर्शन' रखा जाय। इसे सुनकर जिनदासी यतिराज को नमस्कार करके अपने चित्त में खूब हर्षित होती हुई अपने निवास को लौट आई। फिर शुभ मास और शुभ दिन में एक उज्ज्वल और सुविचित्र पालना बांधा गया । उसमें स्थित वह बालक ऐसा बढ़ने लगा जैसे देवपर्वत सुमेरु पर सुरबालक, व्रतपालन में धर्म, प्रिय के अवलोकन में प्रेम तथा नयी वर्षाऋतु में कंद बढ़ता है । ( यह दोधक छंद प्रकाशित किया) । जिस प्रकार जगत का अन्धकार दूर करनेवाला चन्द्र, जगत में मदरूपी अन्धकार फैलानेवाला मकरध्वज ( कामदेव ) अथवा जग के अप्रसन्नतारूप अंधकार को दूर करनेवाला मकरगृह (समुद्र) बढ़ता हुआ सुहावना लगता है; उसी प्रकार सज्जनों का मनवल्लभ वह दुर्लभ पुत्र रत्न बढ़ता हुआ पुरदेव (ऋषभनाथ ) के पुत्र (भरत) के समान सुहावना लगने लगा । ७. बालक्रीड़ा तरूणी स्त्रियां उस बालक को 'हुर्रे', 'हुल्ल' आदि उच्चारण करके खिलाने लगीं । वे उसे अपने सघन स्तनों के शिखर ( वक्षस्थल ) पर रख लेतीं या हाथों में लेकर Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ नयनन्दि विरचित [३.८. चूमने लगतीं। बालक इसके हाथ से उसके हाथ में जाने लगा। जब बालक उसके मुखकमल पर हाथ घालता, तब कोई उसे लेकर झट छोड़ देती। सात मास व्यतीत हो जाने पर उसका अन्न-प्राशन कराया गया, तथा दो वर्ष व्यतीत हो जाने पर मुंडन कराया गया। अब वह बालक घर के आंगन में खेलने लगा, अपरिस्फुट (तोतले ) बचन बोलने लगा, धीरे-धीरे पृथ्वी पर पैर रखने लगा, पैजनों की झन-झन ध्वनि करने लगा। घग्घर घवघव ध्वनियां करता हुआ शोभायमान होने लगा। मम्-मम् ध्वनियों से अन्य बालकों को मोहित करने लगा। सोने की करधनी को खींच-तानकर तोड़ने, एवं उसकी घंटियों की ध्वनि को सुनकर हँसने लगा। वह चलता, मुड़ता व लड़खड़ाता हुआ ऐसा सुहावना प्रतीत होता था, जैसे जिनभगवान के जन्माभिषेक के अवसर पर शतमुख ( इन्द्र )। वह इस प्रकार उठता, गिरता, रटता व नाचता था, जैसे वर्षा ऋतु आने पर मयूर-वृन्द । इस प्रकार लीला और क्रीड़ा करते हुए जब उस पुत्र के आठ वर्षं व्यतीत हुए, तब वह सेठ अपनी मनोहर गृहिणी से हर्षपूर्वक बोला। ८. बालक का विद्यारंभ हे प्रिये, मैं तुझे विस्तार से क्या कहूँ ? मुझे अब यह मंत्र ( विचार ) सूझता है। पढ़ाने के निमित्त से ग्रन्थ, शास्त्र, एवं पेरिधान वस्त्र भेंट करके इस पुत्र को में मुनिवर को तबतक के लिए सौंप दूँ जबतक वह शब्द और अर्थ के ज्ञान (लिखने पढ़ने ) में विचक्षण न हो जाय। शिशुकाल में जो गुरु द्वारा शिक्षात्मक उपदेश दिये जाते हैं, वे उसी प्रकार स्थिर हो जाते हैं जैसे कच्चे घड़े में कण । उचित सामग्री से रचित व दोषवर्जित कहो कौन-सा कार्य पुण्य के प्रभाव से सिद्ध नहीं होता ? मनस्विनी महिलाओं से घिरा हुआ वह बालक ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे हंसिनियों के बीच राजहंस। इस प्रकार माता-पिता उस बालक को लेकर चैत्यालय में गये और वहाँ मुनिवर की ऐसी पूजा की, जैसी इन्द्र द्वारा जिनेन्द्र की की जाती है। मनोज्ञ छत्र और चंदोवा भेंट किये एवं जिनागम की अष्ट प्रकार से पूजा की। फिर मुनिराज ने 'सिद्धं' आदि क्रम से लिख-लिखकर बालक से उच्चारण कराया। मुनिराज के पास लीलापूर्वक पढ़ता हुआ बालक ऐसा सुन्दर प्रतीत हुआ, जैसे एक घड़े से दूसरा घड़ा भरा जा रहा हो। प्रतिदिन मुनिप्रवर प्रसन्न मन से उस सेठ के पुत्र को उत्तम शास्त्र पढ़कर सुनाने लगे, जिस प्रकार ऋषभनाथ ने भरत को पढ़ाया था। ९. नाना विद्याएँ और कलाएँ सुन्दर सन्धि, धातु, लिंग, अनेक लक्षण ( व्याकरण ), काव्य, तर्क, छंद, देशी नाम-राशि, दृष्टिज्ञान, लुप्त-मुष्टि ज्ञान, नाग-क्रीड़ा, दावपेंच का चातुर्य, गंध-युक्ति ( अर्थात् नाना द्रव्यों को मिलाकर भिन्न-भिन्न सुगंधी वस्तुओं का निर्माण करना) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित १७३ एवं राजनीति । इनको वह पढ़ता था और फिर गुनता था। उसी प्रकार पत्रछेद, नृत्य, गेय ( संगीत ), पटवाद्य, वीणावाद्य, खड्ग, कुन्त, व्यूहयन्त्र, चन्द्रवेध्य, मल्लयुद्ध, अतिरमणीक काष्ठकर्म, चित्रकर्म, लेप्यकर्म, धातुवाद, चूर्णयोग, अग्निस्तंभन, जलस्तंभन, इन्द्रजाल, पुष्पमाला, नारीलक्षण वा हस्ति-शिक्षा, इनका ज्ञान प्राप्त करता हुआ वह पुत्र रहने लगा । ( इस. छंद को कामबाण जानो)। इस प्रकार हर्षपूर्वक सोलह वर्ष व्यतीत होने पर वह नवयौवन में आरूढ़ हुआ। वह ऐसा मधुर प्रतीत होता था, जैसे मानों मनोहर सुरेन्द्र स्वर्ग से आ पड़ा हो । १०. शरीर के सुलक्षण युवक सुदर्शन के बाल काले और चिकने थे। सिर छत्र के समान गोल था। भाल दिव्य, उन्नत, विशाल और अर्द्धचन्द्र के समान था। उसकी भ्रूलताएँ ऐसी सुन्दर थीं, मानों कामदेव के धनुष के दो खंड हों। आंखों का जोड़ा ऐसा चंचल और रमणीक था, जैसे मानों दो मच्छ क्रीड़ा कर रहे हों। उसके कुंडलों से युक्त कान कोई अन्य ही शोभा दे रहे थे। उसका चंपा के फूल के समान नासिकावंश मृत्युलोक भर में प्रशंसनीय था। शुद्ध और स्निग्ध दंतपंक्ति मोतियों की भ्रान्ति उत्पन्न करती थी। पके बिंबाफल के वर्ण के ( लाल ) होठ क्यों न लक्ष्मी को इष्ट होंगे ? उसका विशाल मुख ऐसा शोभायमान था, जैसे मानों निरभ्र पूर्णचन्द्र ही हो। कंठ का मध्य भाग ऐसा भला दिखाई देता था, जैसे मानों सुरेन्द्र के हाथी की दो सूडें हों। अशोकपत्र को जीतनेवाले हाथ वज्र को चूर-चूर करने में समर्थ थे। गोलाकार वक्षस्थल ऐसा प्रतीत होता था जैसे मानों वह लक्ष्मी का क्रीड़ागृह हो। बीच में उसका कटिभाग स्वमुष्टि-ग्राह्य था, जैसे मानों वह वज्रदंड का मध्यभाग हो। नाभि का छिद्र ऐसा सुगम्भीर था, जैसे मानों अनंगरूपी सप का गृह हो। उसका नितंबभाग ऐसा शोभनीय था, जैसे मानों कामराज की पीठ हो। उसकी दोनों स्थूल जंघाएँ तो उपमा-रहित थीं। उसके गूढ़ गुल्फ ऐसे सुन्दर लगते थे, जैसे कामराजा के मंत्री। पैर कूर्माकार सुवर्ण-वर्ण और दीर्घ अंगुलियों से युक्त थे। उसके नखों की पंक्ति खूब चमकीली थी। ( यह समानिक छंद है)। नाना प्रकार के ये लक्षण तथा अन्य जो इस संसार में निर्दोष दिखाई देते हैं व कवियों द्वारा वर्णन किये जाते हैं, वे सब धर्म के फल हैं। ११. युवक सुदर्शन के प्रति नगर-नारियों का मोह सुदर्शन अपने मित्रों सहित नगर में घूमता हुआ ऐसा शोभायमान होता था, जैसे आकाश में तारापुंज सहित चन्द्रमा। उस समय तरुणियों का मुंड उसके सम्मुख ऐसा लगता था, जैसे ऐरावत के सम्मुख करिणियों का समूह। कोई अपने स्तनों को अधउघड़े करके अपने मन के भाव को कहती थी, केवल हाथ नहीं पकड़ती थी। कोई कहती-हे सुभग, कुछ देर स्थिर तो खड़े रहो, जबतक मेरे Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ नयनन्दि विरचित [ ३. १२ ये रंक नयन अपने प्रभु के दर्शन का पूरा सुख न लूट लें। किसी को दर्शनमात्र से ही रति-सुख मिल गया, फिर पुनरुक्तार्थ स्पर्शन की क्या आवश्यकता रही ? कोई कहती - हे मनोहर, मेरे आभरण ले ले, और मुझ बुलाती हुई को उत्तर दे । कोई बचन रहित इतना ही करती थी कि पवन से आहत कदली के समान थर्राती थी । कोई कहती हे निर्विकार, विरह से मारी जानेवाली मेरी एक बार तो रक्षा करे । मैं असे तपाई हुई शिला के समान तप्त हूँ, और तू हे मित्र, परोपकार के समान शीतल है। कोई अपने आभरणों को उल्टे पहनने लगीं व दर्पण में अपने प्रतिबिंब को तिलक देने लगी । मैं उसी का वर्णन करता हूँ और उसी को बड़ा मानता हूँ जिसे देखकर विरक्ति न हो, और जो रति के लोभी मुग्ध नेत्रों को मछली की उछाल प्रदान करे । १२. नारियों का अनुराग । सुदर्शन को अपने सम्मुख देखकर किसी ने अपने पति का साथ छोड़ दिया । कोई अपने नेत्रों की चंचल झलकें छोड़ती हुई लज्जा से भीत के पीछे छिपकर खड़ी हो गई । कोई बहुमूल्य पयोधर व नाभिदेश प्रकट करती व अपने समस्त - शरीर को मोड़ती थी कोई बालिका मदन के परवश होकर कहती- मैं विरह की ज्वाला को सहन नहीं कर सकती। अनजाने में, हे माता, मुझ विरहातुरा ने अपना हृदय एक हृदयहीन को दे डाला। क्या मैंने अन्य भव में श्रेष्ठ तप संचय नहीं किया जिससे दैव ने मुझे यह पति प्रदान न किया ? कोई अपने खिसके हुए वस्त्र का तो ध्यान न रख पाई, किन्तु दूसरी विरहिणी त्रियों को धैर्य बँधाने लगी । सच ही है कि उन्मार्ग से चलता हुआ मनुष्य अपने पैर के तलवे की जलन को नहीं देखता । जिस प्रकार जहाँ प्रिय का मुख है वहाँ मन जा रहा है, उसी प्रकार यदि किसी उपाय से वहाँ हाथ भी पहुँच जाते तो वह जल्दी से आलिंगन कर लेती । जब सभी लोग निरंकुश हों तो निग्रह कौन करे ? हे शुभमति राजन् ( श्रेणिक ), सेन्दित जनसमूह युक्त चंपापुर में भ्रमण करनेवाले उस वणिकपुत्र से अनुरक्त न हुई हो, ऐसी कोई स्त्री नहीं थी । इति माणिक्यनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा रचित पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करनेवाले सुदर्शनचरित में सुदर्शन का जन्म, सरस बालक्रीड़ा, पुनः कलासमूह-शिक्षण, मनोभिराम यौवन, समस्त पुर सुन्दरियों में उत्पन्न क्षोभ, काम के लक्षण, इनका वर्णन करनेवाली तृतीय संधि समाप्त | संधि ॥ ३ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ४ १. सुदर्शन का मित्र कपिल ब्राह्मण कुल, बल, प्रगुण पाण्डित्य, रूप, लक्ष्मी, निर्मलयश, आरोग्य और सौभाग्य ये सब महान् धर्म के ही फल हैं। __जिनमति के पुत्र सुदर्शन ने नगर में भ्रमण करते हुये ब्राह्मणपुत्र कपिल को देखा। कपिल गुणसमूह से निर्दोष, अतिशय रम्य, षट्कर्मशील, वेद विज्ञाता, नित्यस्नायी, श्रुत ( वेद ) की वन्दना करनेवाला, द्विजों और गुरुओं का भक्त, अग्नि का पुजारी, तिल और यव का हवन करनेवाला, चन्दन से लिप्त, गौरवर्ण, कन्धे पर त्रिसूत्र ( जनेऊ ) तथा सिर पर छत्र धारण किये, निमित्त का ज्ञाता, चित्त में दया और दमन सहित, पितृभक्त, धर्मासक्त, प्रसन्नमुख तथा स्नेहल नेत्रोंवाला था। इन सब गुणों से युक्त देखकर सुदर्शन ने उसे अपना मित्र बना लिया। वह भूषितगात्र वणिकपुत्र बड़े स्नेह से उसे अपने कंठ से लगाकर हर्ष से प्रफुल्लित होता हुआ चला। वे दोनों आगे बाजार के मार्ग पर चले जहाँ उन्होंने एक सुकुमार-शरीर बाला ( युवती ) को देखा। ( यह छंद मदनविलास नामक द्विपदी है)। जो स्वयं लक्ष्मी के समान थी, उसकी क्या उपमा दी जाय ? उसकी गति से मानों पराजित और लज्जित होकर हंस अपनी कलत्र (हंसिनियों) सहित मानस सरोवर को चले गये। २. मनोरमा-दर्शन उस सुन्दर बालिका के अरुण व अतिकोमल चरणों को देखकर ही तो लालकमल जल में प्रविष्ट हो गये हैं। उसी के पैरों के नखरूपी मणियों से विषण्ण-चित्त और नीरस ( हतोत्साह ) होकर नक्षत्र आकाश में जाकर ठहरे हैं। उसके गुल्फों की गूढ़ता से विशेष मति-विशाल बृहस्पति भी उपहासित हुआ है। उसकी सुन्दर जंघाओं से तिरस्कृत होकर कदली वृक्ष निःसार होकर रह गया। उसके नितम्ब-बिम्ब को न पाकर ही तो रतिकान्त कामदेव ने अपने अंग को समाप्त कर डाला। उसकी सुन्दर त्रिवली की शोभा को न पहुँचकर जल की तरंगें अपने को सौ टुकड़े करके चली जाती हैं। उसकी नाभि की गंभीरता से पराजित होकर गंगा का प्रावतें, भ्रमण करता हुआ स्थिर नहीं हो पाता। उसके मध्य अर्थात् कटिभाग को इतना कृश देखकर सिंह मानों तपस्या करने का भाव चित्त में लेकर पर्वत की गुफा में चला गया। उसकी सुन्दर रोमावली से पराजित होकर मानों लज्जित हुई नागिनी बिल में प्रवेश करती है। उसकी लोहमयी काली रोमावलि की यदि ब्रह्मा रचना न करता, तो उसके मनोहर विशाल स्तनों के भार से उसका मध्यभाग ( कटि) अवश्य ही भग्न हो जाता। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ नयनन्दि विरचित ३. मनोरमा का सौन्दर्य उसकी कोमल बाहुओं को देखकर मृणालतन्तु भी उनके गुणों का उमाह करते थे। उसके सुललित पाणिपल्लवों की कंकेलीपत्र भी अभिलाषा करते थे । उसके शब्द को सुनकर अभिभूत हुई कोकिला ने मानों कृष्णत्व धारण किया है। उसके कंठ की तीन रेखाओं से निर्जित होकर ही मानों शंख लज्जा से समुद्र में जाडूबे हैं । उसके अधर की लालिमा से विद्रुमों की लालिमा पराजित हो गई, इसी से तो उन्होंने कठिनता धारण कर ली है। उसके दांतों की कांति द्वारा जीते जाने के कारण निर्मल मुक्ताफल सीपों के भीतर जा बैठे हैं। उसके श्वास की सुगंध को न पाने से ही पवन अति विह्वल हुआ भागता फिरता है । उसके निर्मल मुखचन्द्र के समीप चन्द्रमा ऐसा प्रतिभासित होता है, जैसे वह गिरकर फूटा हुआ खप्पर हो । उसके नासिका-वंश से उपहासित होकर सूआ अपनी नासिका को टेढ़ी बनाकर प्रकट करता है । उसके नयनों का अवलोकन करके हरिणियों ने विस्मित होकर गहन वन में अपनी प्रीति लगाई है। उसकी भौंहों की गोलाई से पराजित होकर ही तो इन्द्रधनुष निर्गुण ( प्रत्यंचाहीन ) हो गया है। उसके भाल से जीता जाकर कृष्णाष्टमी का चन्द्रमा खेद-वश आज भी क्षीण हुआ दिखाई देता है । उसके केशों द्वारा जीते जाकर भौरों के झुण्ड रूनझुन करते हुए कहीं भी सुख नहीं पाते। उस सुकुमार बालिका के सुन्दर रूप को देख मन में विस्मित होकर सुदर्शन ने अपने मित्र से पूछा । [ ४. ३ ४. मनोरमा का परिचय यह तारा है, या तिलोत्तमा या इन्द्राणी ? या कोई नागकन्या यहां आकर खड़ी हो गई है ? अथवा यह कोई उत्तम देवांगना है ? अथवा यह स्वयं धृति है, या कृति, या सौभाग्य की निधि ? क्या यह कांति है, या कवीन्द्रों द्वारा स्तुत सुबुद्धि (सरस्वती) ? अथवा उत्तम कान्ति से युक्त रोहिणी है या रण्या ? यह मन्दोदरी है, या जनकसुता, अथवा सुन्दर भुजाओं वाली दमयन्ती ? क्या यह प्रीति है, या रति, अथवा खेचरी ? क्या यह गंगा, उमा अथवा कोई किन्नरी है ? अपने मित्र की यह बात सुनकर कपिल बोला- हे मित्र, तुम नशे में हो, या किसी ग्रह के वशीभूत ? जो सागरदत्त धनिकों में श्रेष्ठ है, जिसके हाथियों का भी धन है, जो लोगों के दुःखों को हरण करनेवाला है, जो पांच अणुव्रतों और अन्य भी तीन गुणव्रतों एवं चार शिक्षाव्रतों तथा अनस्तमित व्रत का पालन करता है, जो जीव- हितकारी सुमित वचन बोलता है, और जो कर्म रूपी वृक्षों को काटनेवाला है; (यह तोड़नक छन्द कहा जाता है) उस सागरदत्त सेठ की सागरसेना नाम की उन्नतस्तनी और अनुपम पत्नी है । उसी से उत्पन्न यह सुरगणिका के समान मनोरमा नाम की कन्या है । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ ४.६] सुदर्शन-चरित ____५. कामशास्त्रानुसार स्त्रियों के लक्षण सुदर्शन के हृदय को मन्मथ के वाण से घायल हुआ जानकर उसका मित्र कपिल बोला युवती का अभिप्राय दुर्लक्ष्य होता है; उसे जानकर ही अनुराग करना चाहिए। यह बात कामी जनों के मन के हितार्थ रचे गये विटगुरूशास्त्र (वात्स्यायन मुनि विरचित कामशास्त्र) द्वारा जानी जा सकती है। जाति, अंश, सत्व, देश, प्रकृतिभाव और इंगित, इनसे विशेषित स्त्रियों के लक्षणों को जो जान लेता है, वही रमणी-रति के सुख को भोग सकता है। युवतियों की जाति चार प्रकार की कही गई है-भद्रा, मंदा, लता और हँसी। भद्रा सर्वांग सुरूपवती होती है। मंदा स्थूलांगी जानना चाहिये। लता लम्बी और लता के समान दुबली-पतली होती है; तथा हँसी देह से हृष्ट-पुष्ट और ठिगनी होती हैं। अंश की अपेक्षा स्त्रियां ऋषि, विद्याधर, यक्ष अथवा राक्षस, इन चार के कुल के अंश को निश्चयतः लिये हुए होती हैं। इनको अनुक्रम से अवश्य जान लीजिये। तापसी अर्थात् ऋषि-कन्याएँ अपने भाव में सीधी सादी होती हैं। खेचरी अर्थात् विद्याधर अंश वाली स्त्रियों को मदिरा-पान और कमलों की सुगंध भाती है। यक्षिणी स्त्रियों को धन इष्ट होता है, और निशाचरी स्त्रियों का लक्षण दुश्चरित्र है। ये निश्चय से चारों प्रकार के अंश कहे गये। अव आठ प्रकार के सत्वों को सुनिये। सारसी, मृगी, ऋष्टि, शशि, हंसी, महिषी, खरी और गुणभृष्ट मकरी। इनमें सारसी आलिंगन-प्रिय होती है। वह अपने प्रिय का संग नहीं छोड़ती। वह सरल स्वभावी और स्नेह से क्रीड़ा करनेवाली होती है। अपने प्रिय के विरह में वह बहुत दुःखी होती है, और खीम-खीझ कर मरती है। मृगी प्रियतम का संयोग, बान्धवों का सम्मान तथा संगीत चाहती है। ऋष्टि अपना स्थान नहीं छोड़ती। दीन और दुःख-बिहीन होती है, किन्तु बोलती कठोरता से है। शशि निर्लज्ज और दूसरों के दोषों को देखने वाली होती है, आँखें मींचकर रखती है व भ्रमणशील होती है। हंसी कमल-सरोवरों की क्रीड़ा-प्रिय होती है। महिषी अत्यन्त क्रोधशील कही गई है। खरी जब हँसती है तो जोर के कहकहे लगाती है, तथा चपत व हाथ पैर की मार सह लेती है। मकरी दृढ़ता से आलिंगन करती है, मांसलोलुपी व साहसी होती है; वह रोकी नहीं जा सकती। उनमें और भी दोष होते हैं जिन्हें कौन जान व कह सकता है ? ( यह पादाकुलक छन्द है)। हे मित्र, अब देश के अनुसार स्त्रियों के लक्षणों को सुनिये। मालवा की स्त्री सब गुणों से सम्पन्न होती है । बनारसी स्त्री क्रीड़ागृहों में, पर्वत, नदी व सरोवरों में क्रीड़ा करना पसन्द करती है। ६. देश-देश की स्त्रियाँ कैसी होती हैं आबू की निवासिनी स्त्री धन लेकर व दिन निश्चित करके प्रेम करती है। सैन्धवी अर्थात् सिन्धु देश की स्त्री आसक्त और गीत-प्रिय होती है, तथा प्रेमी को Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ . नयनन्दि विरचित [४.७. द्रव्य व अपने प्राण भी दे सकती है। कोसल की स्त्री कुटिलता पूर्वक मन अर्पण करती है। सिंहलदेश की स्त्री गुणों में विशेषता रखती है; किन्तु पर-पुरुष से भी रमण करती है। द्रविड़ देश की स्त्री दंत-रस देती नहीं लजाती (दंतक्षत भी सहन करती है)। अंग देश की स्त्री अतिसुरत से विरक्त नहीं होती। लाट देश की स्त्री ललित वार्तालाप से अनुरक्त होती है। गौड़ी विज्ञान द्वारा रतिरस को भंग करती है। कलिंगदेशी स्त्री उपचारों द्वारा राक्षस को भी अनुरक्त बना लेती है। प्रत्यक्ष मनुष्य की तो बात ही क्या ? सोरठ देश की स्री को चुंबनरस प्रिय लगता है। गुर्जरी अपना कार्य साधना नहीं भूलती। मरहठी विलासिनी व धूत होती है। कोंकणवासिनी उपचारों से वश में आ जाती है। गोल्ली अपने आचरण में निर्मत्सर होती है। कर्नाटी रतिविलास में कुत्सित पाई जाती है। पाटलिपुत्र की स्त्री अपने गुणों का विस्तार करती है। पारियात्र देश की स्त्री पुरुषायत का अनुसरण करती है। हिमवंत देश की स्त्री वशीकरण की विधियां जानती हैं; और मध्य देश की स्त्री अपने प्रेमाचरणों में कोमल होती है। अब मैं इन सब स्त्रियों के अनुक्रम से प्रकृति प्रधान लक्षणों का वर्णन करता हूँ। मनुष्य भव धारण करनेवाली स्त्री तीन प्रकार की होती है-वातप्रकृति, पित्तप्रकृति और श्लेष्म प्रकृति । ७. नारी प्रकृति वात प्रकृति की स्त्री चंचल, बहुभोजी, बहुप्रलापिनी, कर्कशा, कठोर एवं भुजंगी के समान अति कृष्णांगी, भ्रमणशीला, तथा बहुत जीभ चलानेवाली होती है। ऐसी स्त्री गम्भीर शब्दों युक्त कठिन प्रहारों से सेवन करना चाहिये; शंका न करना चाहिये। जो पित्त प्रकृति स्त्री होती है, उसके नख पिंगलवर्ण, शरीर गोरा व पसीना कडुआ होता है। उसके अंग में मृगी के समान अति उष्णता होती है। वह क्षण क्षण में रुष्ट होती और दिन-दिन धूर्तता करती है। उसे सन्तुष्ट करना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, तथा शीतल आलिंगन और शीतल गंधविलेपन देना चाहिये। उसके साथ जितना भावे उतना घना रमण करना चाहिये। अब श्लेष्म-प्रकृति की युवती का वर्णन सुनिये। वह कदली के समान कोमल, वर्ण में श्यामल व अतिस्नेहल होती है। उसका श्रोणीतल मृदुल होता है। उसका साधारणरीति से की गई रति द्वारा सन्तोष हो जाता है। दोष दिखाई देने पर वह रोष से कांप उठती है, झट विरक्त हो जाती है, और अंग अर्पित नहीं करती। तब सत्य से, विनय से, दान से, प्रणय से कुछ न कहिये, किसी प्रकार उसका मन आकर्षित किया जाता है। (यहां निश्चय से मदन नामक छंद प्रयोग किया गया है)। स्त्रियों की भिन्न-भिन्न प्रकृतियां जैसे लक्षणों की होती हैं उस प्रकार कहा। जब ये गुण गुंथ कर एक ही में स्थित होते हैं, तव वे संकीर्ण कहलाते हैं। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित ८. नारी के संकीर्णभाव जो जाति, अंश, सत्त्व और देशी, ये चार प्रकृतियां कही गई हैं, उनके मेल से ही स्त्री के भावों में प्रधान संकीर्ण भाव उत्पन्न होता है, जैसे चतुरंग सैन्य के बीच राजा । यह स्त्री भाव भी संक्षेप से तीन प्रकार का कहा गया है - शुद्ध, अशुद्ध व मिश्र गुण युक्त | वह विशुद्ध भाव भी तीन प्रकार का जानो-मंद, तीक्ष्ण और तीक्ष्णतर । कुछ-कुछ लज्जा-क्रम से सम्पन्न दृष्टि द्वारा उसका मन्द भाव जानना चाहिये । दृष्टि भी तीन प्रकार की कही गई है। मृदुल, ललित और कटाक्षवलित । जो दृष्टि हृदय के उत्तम गुणोत्कर्षयुक्त हर्ष से अपने प्रिय मनुष्य की ओर प्रेरित होती है, एवं मुकुलित होती हुई विस्तार को प्राप्त नहीं होती, उसे मृदुल दृष्टि कहा जाता है । मन में उत्पन्न हुए अनुराग से जो विकास को पाती, प्रियतम की ओर जाती और उसी प्रकार चंचल होती है, जैसे जल में मछली, वह दृष्टि ललित कहलाती है । ४. १० ] १७६ ९. स्त्री की भाव दृष्टियां जब कोई स्त्री गुरुजनों के बीच में लज्जा रूपी अंकुश से नियंत्रित करिणी के समान प्रेमभार के वश होकर अपने प्रिय का अनुसरण करती है, तथा सुन्दर कटाक्ष का विक्षेप करती हुई मुड़ती है, तब उसकी उस दृष्टि को विद्वान लोग कटाक्षवलित कहते हैं । जब प्रिय के दर्शन होने पर स्त्री का मलिन मुख निस्सन्देह रूप से उसी प्रकार विकसित हो जाय, जिस प्रकार सूर्य के उदय से कमल सरोवर में नलिन विकसित होता है, ओष्ठपुट फरक उठें व मन ऐसा थर्राने लगे जैसे तीव्र, चटुल पवन के बेग से देवालय की ध्वजा, तथा गण्डस्थल में पसीना दौड़ने लगे, जैसे हस्ती के गण्डस्थल में 'मद भरने लगता है, तब, हे मित्र, इसे तीक्ष्ण भाव से हुआ जानिये । जब नारियां मुनियों के समान भय, लोभ, मान व लज्जा को त्याग करती हैं, तथा कृष्णपक्ष में चन्द्रमा के समान प्रतिदिन क्षीण होती हैं, पुनः पुनः लम्बी उग श्वासें छोड़ती हैं, तथा कुलमार्ग छोड़ कर उन्मार्ग से चलती हैं और कंपायमान होती हैं, तब यह उनके तीक्ष्णतर भाव के कारण समझना चाहिये । ( इस सुन्दर छन्द को मदनावतार कहते हैं ) । इस प्रकार यह बुद्धिमानों द्वारा कथित तीनों भेदों सहित शुद्ध भाव कहा गया। अब मैं दूसरे अशुद्ध भाव का स्वरूप कहता हूँ; तुझसे कुछ छिपाऊंगा नहीं । १०. स्त्री का अशुद्ध भाव अन्य के प्रति महान् द्वेष को प्राप्त होने से, धन के लोभ से, तर्क-वितर्क से, दुस्सह सौत का पद प्राप्त होने से ( अथवा सौत के से), बार बार समीप जाने से, अतिप्रसंग वा अति ईर्ष्या करने से दुष्टमति पूर्वक पैरों में नमन तथा किये गये Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० नयनन्दि विरचित [ ४. ११प्रच्छन्न दोषों के संस्मरण से, इन कारणों से चंचल मन वाली युवती स्त्रियां अशुद्धभाव को धारण करती हैं। इसके फलस्वरूप स्त्री अपने मुखकमल को विकसित करती है, हाथ देती है, नाभि व स्तन दिखलाती है, ढाकती है और फिर मधुरभाव से उघाड़ती है, केश बन्ध छोड़ती है, तनको मोड़ती है, 'आसक्त हो गया' कह कर पुरुष को लक्ष्य करती है, तथा हटकर अपने को छुपाती है ! इस भाव को विचक्षण लोग ही समझ सकते हैं।- बुद्धि से ही यह भाव संकीर्णता को प्राप्त होता है। इस भाव से युक्त स्त्री को उत्तम वस्त्रों, अच्छे विभूषणों, चाटु वचनों, भोगों, शरीर-सौन्दर्य तथा चतुर दूत इत्यादि उपायों से अपनी ओर आकर्षित करना चाहिये। ११. इङ्गित वर्णन हे जिनेन्द्र के चरणरूप कमलों के भृङ्ग (सुदर्शन ), सुनो। गमन, निद्रा, भय, रोष, स्नेह, अनमन, दुःख, भूख, काम और निष्काम, ये इंगितों के नाम हैं। गमनेंगित से शून्यालाप होता है, तथा मुख मोड़कर स्नेह से देखती है। निद्रा इंगित से जम्हाई आती है; वह स्त्री आंखों को मीचती और गर्दन झुकाती है। भय इंगित से स्त्री बहुत दीनमुख व कम्पितशरीर होती तथा उसके नेत्र-चंचल हो उठते हैं। रोष इंगित से स्त्री अपना ओंठ चबाती व खेद प्रदर्शित करती है; तथा उसकी आंखें लाल हो जाती, नासिका फरकने लगती और खूब पसीना आने लगता है। स्नेह-इंगित से स्त्री अपने हृदय की गुप्त बात को प्रकट कर देती और मुख को प्रफुल्लित करती है ; हे सुभग ( या सुहृद् ) यह समझ लो। अनमन-इंगित से मुख लाल हो जाता, वाणी शून्य हो जाती तथा नेत्रों में किंचित् अन आ जाते हैं। दुख-इंगित से पहले की कान्ति नष्ट हो जाती है और मुख से स्पष्ट वाणी नहीं निकलती। बुभुक्षा इंगित से कपोल क्षीण हो जाते, गति विचलित होती ( लड़खड़ाने लगती ) और पैर आगे को नहीं चलते । काम इंगित से स्त्री अपना केश-कलाप छोड़ने लगती और शरीर के समस्त विकार दिखाने लगती है। निष्काम इंगित से स्त्री दोषों को लेती, गुणों को ढांकती वा स्वेच्छा से संचलन करती है। जिस प्रकार धूम के द्वारा अग्नि, तथा फूल से फल की सम्भावना की जाती है, उसी प्रकार बुद्धिमानों द्वारा बतलाये गये इंगितों से (स्त्री) जन के भाव को समझना चाहिये। १२. त्याज्य स्त्रियों के लक्षण हे गुणवान मित्र, उक्त प्रकृतियों, सत्वों, भावों, दैशिकों, अंशों तथा इंगितों के द्वारा सुन्दर देह व स्नेह करनेवाली स्त्री को जानिये और मानिये। जो बहुभ्रमण हो, अनमनी हो, कोलाहल करनेवाली हो, धनलोलुपी, खल का संग करनेवाली, रूग्णांगी, विकराल, निद्रालु, अविदग्ध, शोक-सम्पन्न, निलज्ज, कार्यनाशिनी हो, Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. १४ ] सुदर्शन-चरित १८१ उस युवती से रमण मत कीजिये ; उसे त्यागिये । ( यह आनन्द छन्द है ) । हस्ती के समान प्रचंडभुजशाली वणिक्पुत्र सुदर्शन के स्नेह से युक्त वह द्विजवर कपिल ( उससे ) कुछ छुपाकर नहीं रखना चाहता था; अतः वह संक्षेप में और भी स्त्री-लक्षण कहने लगा । १३. सौभाग्यशाली स्त्रियों के लक्षण जिसकी जंघा, ऊरु व स्तनाग्र प्रशस्त और वृत्ताकार हों, हाथ, अंगुली, नख ओर नेत्र दीर्घ हों, नासिका सुन्दर सुवर्ण-वर्ण हो और भाल ऊँचा हो, वह बाला सब स्त्रियों में श्रेष्ठ होती है । जिसकी जंघा और ऊरु-युगल काक के समान कुरूप हों, व जिसकी काक जैसी दृष्टि, काक जैसा शब्द, तथा काक जैसी पैरों की अंगुलियां हों, उसकी आयु दीर्घ नहीं होगी, ऐसा जानिये। जिसकी वाणी सुन्दर बांसुरी, वीणा व कलहंस के समान मधुर हो, नाभि और स्तन सुन्दर गोलाकार हों, हाथ सुन्दर हों, गति मातंग के समान लीलायुक्त हो, जो भोली हो व श्यामवर्ण हो, वह बालिका पुत्रादि व लक्ष्मी का निधान होती है । जिसके मुख, नख, होंठ, अधर, हाथ व पैर सभी लाल कमल की कान्तिवाले हों, नाक ऊँची हो और दृष्टि हथिनी जैसी हो, उस बालिका के निश्चय ही सोभाग्य होता है। जो स्त्री अपने बायें हाथ में मृणाल, मत्स्य, पुष्पमाला, शैल, ध्वजा, पद्म, गिरि, व गोपुर के चिन्हों को धारण करती है, वह सुख पाती है, और अपने घर में चिरकाल तक आनन्द करती है । १४. स्त्रियों के शुभ और अशुभ लक्षण जो स्त्री ऊर्ध्वरेखा तथा चक्र, अंकुश व कुंडल की रेखाओं से विभूषित है, अर्द्धचन्द्र के समान जिसका भाल है व जिसके नख सुन्दर कान्तिवान हैं, तथा जिसके दाँत चिकने मोतियों के समान हैं. वह गुणमंजरी चक्रवर्ती की प्रिया होती है । जो तीतरी के समान शब्दालाप करती है, परेवा के समान नर-भोगिनी है, जिसकी भौंहें मिली हुई हों, वह स्त्री कुल को कलंक लगानेवाली और छूछी होती हैं, ऐसा विद्वानों ने कहा है । जिसकी नासिका मोटी और चिबड़ी हो वा जो पैर से लंजी हो, वह स्त्री अल्पधनवती होती है । तथा जिसकी गति, शब्द और दृष्टि कौवे के समान हो वह कन्या दुःख का भाजन होती है । ( यह त्रिभंगी नामक छंद है ) । जिस स्त्री के चरण कछुवे के समान ऊँचे हों, अंगुलियां विषम हों, ओंठ गधी के समान लम्बे हों, जो खोसला ( बौनी) हो, जिसके सिर के केश रूखे और ऊपर को उठे रहनेवाले हों, आंखें चंचल हों, हाथ, जंघा और ऊरु मांसल हों, जो गमन में उतावली हो, व जिसके सर्वांग में रोमराशि उठ रही हो, वह स्त्री स्पष्टरूप से अपने पुत्र और पति के वियोग के दुःख से आच्छादित होती है। जिसके मुख पर मूँछे हों, कटि, उर और नाभि में बाल हों, जिसका स्पर्श कठोर हो, और अंग Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ नयनन्दि विरचित [ ४. १५कठोर हों, वह प्रत्यक्ष राक्षसी है। हे मित्र, उसे छोड़िये। बहुत कहने से क्या ? इस प्रकार वचन सुनकर और अपने उस मित्र के गुणों की स्तुति करके वह वणिकपुत्र सुदर्शन कामानल से संतप्त, शून्यमन और क्षीणतन अपने घर वापिस आया। १५. मनोरमा की काम-दशा वहाँ जब वह सुकुमार बालिका अनुरक्त-चित्त होकर अपने सुन्दर भवन में पहुँची, तो वह हाथ मोड़ती, केश-कलाप छोड़ती, गले में चमकीला हार घालती और निकालती। एक क्षण में खूब भौहें मरोड़ती, कोमल शैया का परित्याग करती तथा स्वयं अलीक व ललित किंचित् हँसती। वह ( उसी का ) ध्यान करती, गाती, व श्वासें लेती। फिर एक क्षण में गाढ़ व दृढ़ आलाप करती, अथवा अपने चमकीले दांतों से अधर को जोर से दबा लेती। वह कुछ-कुछ यहाँ-वहाँ देखती और सोचती, तथा इधर-उधर कुछ हँसती और बोलती। बड़े-बड़े स्तनों के भार से अवनत-देह वह सुन्दरी नये स्नेह से युक्त स्वयं को धैर्य देती, किन्तु क्षण भर में फिर वही सुहावना संबोधन (हे नाथ, हे स्वामी, आदि ) पढ़ती और 'मुझ तृषातुर का परित्राण कीजिये' ऐसी मन में रट लगाती थी। श्रेणिक सुनता है और गौतम कहते हैं कि नयनन्दि जगत्स्वामी बुध ( भव्य ) रूपी कमलों के रवि जिनेन्द्र को छोड़कर अन्य ऐसा कौन है, जिसे मदन ने क्लेश न पहुँचाया हो ? ___इति माणिक्यनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करनेवाले सुदर्शनचरित में मनोहर जाति, पुनः अंश तथा सत्त्व व समस्त देशी, प्रकृति, भाव, देह, इंगित, युवती-लक्षण तथा राजश्रेष्ठि-पुत्र का विरह, इनका वर्णन करनेवाली चौथी संधि समाप्त । संधि ॥४॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ५ १. मनोरमा की कामपीड़ा गौतम गणधर कहते हैं-हे श्रेणिक राजन् , मनोरमा को यहां वहां किसी भी प्रदेश में अच्छा नहीं लगता था। केवल एक अति दुर्लभ वल्लभ के विना लोगों से भरा हुआ घर भी वन के समान प्रतीत होता है। कमल, जल से भीगा हुआ पंखा, गान, भूषणविधि, कपरचन्दन, भोजन, शयन या भवन, ये कुछ भी नहीं भाते ; चित्त में एक व्याकुलता ही बढ़ती है। मनोरमा संतप्त होकर पुनः पुनः कहती-रे रे खलस्वभावी मकरध्वज, तू भी छल ग्रहण करके मेरी देह को तपा रहा है, क्या यह बात सत्पुरुष के लिये योग्य है ? रुद्र ने तो तेरी देह को दग्ध किया था। कहो, महिला के ऊपर कौन वीर नहीं बन जाता ? रे अज्ञानी, तू अपने पाँचों बाणों को मेरे हृदय में छेद कर अब दूसरों का कौन बाण से हनन करेगा? वह कमलपत्र के समान विशाललोचन बालिका जहाँ कहीं को भी अवलोकन करती, वहाँ वहाँ उसे उसका प्रेमी ही आता हुआ प्रतीत होता । मानों समस्त जगत् सुदर्शन से ही भर गया हो। यहाँ जैसी अवस्था मनोरमा की थी, उसी प्रकार वहाँ सुदर्शन की भी थी। स्नेह कभी एकाश्रित घटित नहीं होता। यदि कभी घटित भी हो जाय तो वह स्थिर नहीं होता, जैसे छिद्र युक्त करतल में पानी नहीं ठहरता । सुदर्शन को विरह-पीड़ित एवं रति-विरहित देख ऋषभदास मन में सोचने लगा-यदि मेरा गुणगणों से युक्त पुत्र विवाहित हो जाय तो मेरी कुलसंतति बढ़ने लगे। २. सुदर्शन के पिता की पुत्र-विवाह संबंधी चिन्ता कुल-संतति से धर्म का संपादन होता है, और धर्म से पाप क्षीण होता है। पापक्षय से ज्ञान, और ज्ञान से फिर मोक्षरूपी शाश्वतपुरी को गमन किया जा सकता है। इसी से गृहस्थ कुल को बड़ी वस्तु मानते हैं, और यह अवस्था चारों वर्गों के लिये है। तो अब कोई उत्तम कन्या देखना चाहिये, जिससे उसके साथ पुत्र का विवाह किया जा सके। अथवा सारी-बूत (चौपड़ ) खेलते हुए स्वयं सागरदत्त ने एक बार कहा था-“यदि मेरे कोई पुत्री उत्पन्न हुई, तो वह तुम्हारे पुत्र को दी जायगी।" तो अच्छा होगा कि उससे अब उसकी मांग की जाय; देता है या नहीं देता, इस सत्य का पता भी लग जायगा। प्रार्थना-भंग के भय से लोग अपने इष्ट व महान कार्य की भी अवहेलना ( लापरवाही) कर देते हैं। यद्यपि ऐसा है, तो भी ऐसा मान नहीं करना चाहिये जिससे अपने कार्य का नाश हो। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनन्दि विरचित [ ५.३ ( ऋषभदास जब इस प्रकार विचार कर रहा था तब ) उसी बीच प्रार्थी के लिए चिंतामणि के समान वह सागरदत्त सेठ अपने किसी काम से वहां आ पहुँचा । वणिग्वर (ऋषभदास ) ने उस विशुद्ध यशस्वी निरुपम धनी सागरदत्त को शीघ्र ही उत्तम आसन पर बैठाया और फिर यथोचित संभाषण करने के पश्चात् अत्यन्त आदर से पूछा । १६४ ३. वर-कन्या के पिताओं की बातचीत कहिये अपने मन की इष्ट बात; जिस कार्य से आप आए हैं, उस सम्बन्ध में क्या किया जाय ? तब उस वणिग्वर ने कहा- ऐसा किया जाय जिससे सदैव अपना स्नेह बढ़ता रहे। जिस कारण से हम आए हैं उसे आप जानते हुए भी पूछते हैं । यद्यपि ऐसी बात है, तो भी मैं संबंध ( प्रसंग ) कहता हूँ । बहुत कहने से क्या ? विवाह रचाया जाय। यह सुनकर जिन भगवान के चरण कमलों की भ्रमरसम्पत्तिस्वरूप ऋषभदास बोला- तुम तो स्पष्ट जानते ही हो कि बालक का विवाह करना है, उसी को आप प्रमाणित ( कार्यान्वित ) कीजिये । बार-बार तो क्या बोला जाय, जो बात आप पहले ही स्वीकार कर चुके हैं उसी का पालन किया जाय। जिस बात पर तुम्हारा चित्त प्रेरित हुआ है, उसमें हमारा कोई वितर्क नहीं है । ( ऋषभदास का ) यह वचन सुनकर हर्षोल्लसित हुआ सागरदत्त भट वहाँ से चल पड़ा, और हाथ में उत्तम तांबूल लेकर वहाँ पहुँचा जहाँ ज्योतिष ग्रन्थ का कुशल विद्वान, गुरूजनों का भक्त श्रीधर नाम का ज्योतिषी रहता था । उससे सेठ ने पूछा- सुदर्शन और मनोरमा के विवाह के लिए उत्तम लग्न कहिए । तब ज्योतिषी ने विशेष रूप से बतलाया । ४. ज्योतिषी द्वारा लग्न - शोध और विवाह की तैयारी स्पष्टतः वैशाख मास में, शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को रविवार के दिन, मूल नक्षत्र, शिवयोग, कपिल करण में, सूर्य के उदय होने से तेरह घड़ी और पचास पल चढ़ जाने पर मिथुन लग्न होगा, जो वधु-वर के मनों को सुख उपजानेवाला है । ज्योतिषी की यह बात सुनकर सेठ अपने घर चला गया । उसने शीघ्र ही विवाह की समस्त सामग्री एकत्रित की। बांधव - स्वजन व इष्ट - मित्र, कौन ऐसे थे जो प्रसन्न नहीं हुए ? दोनों घरों में सुन्दर घरों में अनुपम तोरण लगाये गये। दोनों घरों में दोनों ही घरों में रत्नों की रंगावली की गई। दोनों ही घरों में धवल मंगल गान होने लगे। दोनों घरों में गम्भीर तूर्य बजने लगा। दोनों ही घरों में विविध आभरण लिए जाने लगे। दोनों ही घरों में सुन्दर तरुणियों के नृत्य होने लगे । यह उपाख्यान ( कहावत ) सत्य ही है कि नारियों को कलह, दूध, जामाता और तूर्य मण्डप रचे गये। दोनों केशर की छटाएँ दी गई। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित १८५ प्रसन्नकारी और प्यारा होता है। जन-मनोहारी, धवल व्यापार करनेवाली मानिनी तरूणी स्त्रियों ने घेरकर वर को मंगल कलशों से खूब स्नान कराया और बहुमूल्य भूषणों से अलंकृत किया। __५. विवाहोत्सव विवाह की लग्न आने पर वर के हाथ में सूत का कंकण बाँधा गया। सिर पर श्वेत पुष्पों का मुकुट लगाया गया, श्वेत वस्त्र पहनाए गए और चन्दन का लेप किया गया। फिर तुरंग पर चढ़ कर ऊपर छत्र लगाए हुए धीरे-धीरे जामाता मंडप में पहुँचा। तत्पश्चात् वह मातृगृह में प्रविष्ट हुआ, और अपनी प्रिया के अन्तरवस्त्र (परदे) के समीप बैठा। फिर वस्त्र (परदे) को हटाकर मुख का अवलोकन किया गया जिससे उसे अपने नेत्रों के कृतार्थ होने का फल मिला। कर में कर और दृष्टि में दृष्टि पहुँचकर चलायमान ही न होती थी, जैसे कीचड़ में फंसा हुआ ढोर ( पशु )। वर कान्ता को लेकर घर से लीला पूर्वक निकला, जैसे सरोवर से सुन्दर हाथी निकले। फिर वहाँ वेदी के मध्य में रखे जलते हुए लाल हुताश ( अग्नि ) को देखा ( साक्षी किया)। वधूवर दोनों उस वेदी के आसपास प्रदक्षिणा देने लगे, जैसे मानों गिरीन्द्र (सुमेरु) के आसपास रवि और रन्न शोभा दे रहे हों, अथवा जैसे रोहिणी और चन्द्र विराज रहे हों, अथवा जैसे बिजली और कंद ( मेघ)। उस समय सागरदत्त मन में बहुत प्रसन्न हुआ, और प्रफुल्लमुख होकर इस प्रकार बोला-यह चंपकवर्णी छोकरी (छोटी-सी ) कन्या हे कुलीन महानर, मैंने तुम्हें दी। पुनः यह कहते हुए उसने कन्या वर के हाथ में दे दी कि यह नारायण की लक्ष्मी के समान तुम्हारी सुवल्लभा होवे। दायजे में उसने प्रदीप, रतिगृह के समान रमणीक खाट ( पलंग) सुवर्ण सहित दिये। वधू-वर में काम जागृत हुआ। ( इस कडवक में मौक्तिकदाम छंद का प्रयोग किया गया है)। उन विरह से विह्वल, मत्त और आसक्त वधूवर का ज्योंही विवाह हुआ त्योंही मानों सूर्य उन्हें देखने के लिए आया और सबसे उच्च प्रदेश प्राप्त करके उस पर विराजमान हुआ। (अर्थात् मध्याह्न हुआ )। ६. मध्याह्न भोजन ( जेवनार ) तब मध्याह्न काल में नये बधूवर सुहृद् ( मित्र) और बांधवजनों सहित इन्द्रियवर्ग को आमोद देने वाला भोजन करने लगे। थाल-थाल में बहुत से व्यंजन ऐसे शोभायमान हुए जैसे आकाश के बीच नक्षत्र । मोतियों के पुंज की छवि-सहित कलम ( चावलों का) भात बनाया गया जो हरित और नीलमणियों के समान हरी मूंग की दाल से युक्त और नये कांचन के समान रस सहित घृत डालने पर ऐसा भाता था जैसे सन्ध्या की लालिमा से युक्त मृगांक ( चन्द्र )। ऐसे खाजा परोसे गये कि ज्योंही उन्हें मुख में डाला त्योंही वे दुर्जन-मैत्री के समान भग्न हुए। २४ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनन्दि विरचित [ ५. ७किन्तु भग्न होने पर भी लोग उन्हें छोड़ते नहीं, क्योंकि जिनमें स्नेह (घृत व प्रेम ) होता है वे किसे प्यारे नहीं होते ? अच्छे-अच्छे लावण ( नमकीन ) और मोदक (मिठाइयाँ ) लोगों ने खूब पसन्द किये। सजन, स्वजन व सुअन्न में मनमोदक ( मन को प्रसन्न करनेवाले ) गुण होते ही हैं। फिर गोलाकार मांडे लाये गये। वे अति स्वच्छ और पथ्य होने से जिनेन्द्र के निर्दोष व सुमार्गदर्शी गुणों के तुल्य थे। फिर नाना प्रकार के तिम्मण ( अचार चटनी ) दिये गये जो ऐसे अत्यन्त तीखे थे, जैसे स्त्रियों के मन । लोग मधुर द्राक्षारस को ऐसे पी रहे थे, जैसे छैले धूर्त अधर का पान करते हैं। मधुर को छोड़कर लोग तीखा खा रहे थे; अनुराग के कारण दोष भी गुण दिखाई देने लगते हैं। थक्का दही ऐसा मनोहर स्वाद दे रहा था जैसे स्नेह युक्त प्रिया का मान । गरम-गरम दूध पीते बड़ा अच्छा लग रहा था और हृदय को भी जला रहा था, जैसे छुपकर किया हुआ काम। जब सरस भोजन हो चुका, तब बचे हुए भोजन से लोगों को ऐसी विरक्ति हुई जैसे धूर्त द्वारा धृत्तिनी के साथ काम क्रीड़ा कर लेने के पश्चात् अति तृप्ति से उसका परित्याग किया जाता है। ७. सूर्यास्त-वर्णन फिर परकार्य के समान अतिशीतल शुद्ध जल लेकर सभी ने गण्डूषों ( कुल्लों ) द्वारा मुखविवर की शुद्धि की। भोजन करने वाले उन सभी लोगों को कपूर मिश्रित श्रीखंड दिया गया ( चन्दन लगाया गया)। फिर सुपारी पान एवं सुन्दर बड़ी बड़ी पचरंगी पुष्पमालाएँ दी गई। फिर नये नये बड़े उत्सव से जन (बाराती) अपने मनोहर घर लौट आये। इतने में ही दिनेन्द्र (सूर्य) मंद-तेज हो गया, व अस्त होते हुए ऐसा विचित्र दिखाई दिया जैसे अर्थवान् ( धनी ) शोकचिन्ताओं से विचित्त ( उदास ) हो जाता है। (उस समय मानो डूबते सूर्य से) निर्दहन हेतुक ( जलानेवाली ) अग्नि में तेज आ गया ; तथा मानिनी स्त्रियों ने भी राग धारण किया। मानों ( डूबते सूर्य ने ) भवितव्यता को जान कर नभरूपी तरुवर का फल झटपट दे डाला हो, जो यथाकाल अतिपक्व होकर टूट गया और गिर पड़ा, एवं कामराग के रूप लोगों में अनुराग उत्पन्न करने लगा। अथवा मानों नभश्री रूपी स्त्री के स्नान करते समय उसका रवि रूपी सुन्दर कनक-कुंभ खिसक पड़ा हो। ( यह चन्द्रलेखा नाम का दुबई छंद है)। फिर प्रहररूपी प्रहारों से आहत और आरक्त (लाल वा लोहूलुहान ) हुआ वह संतापयुक्त रवि सागर में निमग्न हो गया। (देखिये तो इस कम की गति को ? ) उस उर्ध्वलोक के पति को भी निशा राक्षसी ने निगल लिया। ८. रात्रि-वर्णन बहु-प्रहरों के पश्चात् सूर्य अस्तमित हुआ, ( मानों ) बहुत प्रहारों से शूरवीर नाश को प्राप्त हुआ। अथवा, क्या कहा जाय-जो वारुणि (पश्चिम दिशा ) से Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.६] सुदर्शन-चरित १८७ रक्त हुआ, वह वारुणि ( मदिरा ) में रक्त पुरुष के समान उग्र होकर भी कौन कौन नष्ट नहीं होता ? नभरूपी मरकत के पात्र में उत्तम वन्दना हेतु संध्याराग रूपी केशर, शशि रूपी चंदन, चन्द्रमृग रूपी अत्यन्त श्यामल कस्तूरी, विकसित ग्रह रूपी प्रफुल्ल कमल तथा तारारूपी तंदुल, इन मंगलकरणों ( साधन-सामग्री) को लेकर अनुराग युक्त निशा रूपी रमणी उस समय आ पहुंची। वह शोभासम्पन्न वधू-वर को देख कर संतोष से मानों कहीं भी समाती नहीं थी। ऐसे समय में सुदर्शन अपनी मनोवांछाओं को पूरी करनेवाली वधू से युक्त शोभायमान होता हुआ, व रतिगृह में प्रवेश करता हुआ ऐसा प्रतिभासित हुआ जैसे विन्ध्याचल के कुंज में करिणी के साथ हाथी। पलंग के ऊपर स्थित होकर वे दोनों ऐसे रति-आसक्त हुए, जैसे लक्ष्मी और नारायण, अथवा मानों गौरी और त्रिनेत्र महेश ) शोभायमान हों। अथवा मानों रति और मदन प्रत्यक्ष हुए हों। चंदन और तिलक से महकते हुए, विभ्रम-सहित नखों से लगे हुए सुन्दर व्रणदर्शी, भुजाओं और हाथों से युक्त तथा स्तनों के भार से नमित यौवन का, एवं चंदन और तिलक वृक्षों से महामहिमशाली, भ्रान्तिजनक, नभलग्न सुन्दर वृक्षदर्शी, लताओं व पल्लवों से युक्त तथा फलों के भार से झुके हुए वन का सेवन कोई धन्य पुरुष ही करता है। ९. वर-वधू की कामक्रीड़ा नया वर विविध विकार करता था और नई वधू लज्जित होती थी। कामांध पुरुष जो न करे वह शोभता नहीं ( जो करे सो थोड़ा है)। सुदर्शन उसके वस्त्र को खींचता, किन्तु मनोरमा नीविबंधन करती। सुदर्शन कामपूर्ण बातें करता, परन्तु मनोरमा हाथों से अपने कान झांपती। सुदर्शन विलासपूर्ण भाव से कटाक्ष फेंकता, किन्तु मनोरमा सम्मुख निरीक्षण ही न करती ( आँख से आँख न मिलाती)। सुदर्शन स्तनों पर हाथ घालता, किन्तु मनोरमा अपने हाथ से उसे झटक देती। सुदर्शन अपने मुख से उसका मुख चूंबता, मनोरमा एक क्षण भर उसमें भी विलम्ब डालती। सुदर्शन दाँतों से उसके होंठ चबाता, मनोरमा हुंकार करती और कांप उठती। सुदर्शन नखों से घाव करता; मनोरमा के अंग में पसीना दौड़ पड़ता। फिर वे दोनों सुन्दर रति का रमण करने लगे। (यह छंद वसंतचत्वर है ।। वे वधू-वर हुंकार करते, स्वर छोड़ते, ओंठ काटते, केश विखराते, तथा नाना प्रकार के करण-बन्ध ( भोगासन ) करते और फिर संभलते, जैसे कौरवों और पांडवों के सैन्य रणव्युह में हुंकारें भरते, बाण छोड़ते ( क्रोध से ) ओंठ चाबते, केश विखराते तथा नाना प्रकार का शस्त्र-बंध करते और फिर संभलते थे। १०. सूर्योदय-वर्णन ___ रक्तचूड़ ( मुरगे) द्वारा संकेत पाकर प्रवासी चल पड़े। कौवों के शब्द उठे और शीघ्र ही भय से कांपते हुए कौशिक ( उल्लू ) छिप गये। तभी जगरूपी सरोवर से तारा रूपी प्रफुल्ल कुमदों से उद्भासित रात्रि रूपी कुमुदिनी को प्रत्यूष Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ नयनन्दि विरचित [ ५.१०. रूपी मातंग ने उन्मूलित कर डाला। शशी रूपी हंस पक्षी ने गमन की तैयारी की। सघनतम अंधकार रूपी गज का वैरी रवि रूपी सिंह उदयाचल के शिखर पर दिखाई दिया। पूर्व दिशा रूपी वधू के लीलाकमल के सदृश अरुणवर्ण रवि उद्भासित ( उदित) हुआ। जैसे मानो वह योग का सौधर्मादि स्वर्गरूप फल हो, गगन रूपी अशोक का पुष्पगुच्छ हो, दिनश्री रूपी प्रवाल की बेल का कंद हो तथा नभश्री के भाल का केशरमय ललाम विन्दु हो। तत्पश्चात् चौथे दिन नये वर को बांधा हुआ सूत का कंकन छोड़ा गया। अपनी वल्लभा के साथ खूब क्रीड़ा करते हुए व इच्छित कामभोग भोगते हुप बहुत दिनों के पश्चात् नयनों को आनन्ददायी सुदर्शन के पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सुकान्त नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह तरुणियों के नयनों व मन का अपहरण करनेवाला, लोगों को प्रसन्न करनेवाला मानों प्रत्यक्ष मकरध्वज ही था। इति माणिक्यनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित, पंचनमस्कार के फल को प्रकाशित करने वाले सुदर्शनचरित में जिस प्रकार मनोरमा अत्यन्त विरहकातर हुई, जैसा विवाह, जैसा मनवांछित भोजन हुआ, दिनेश का अस्त तथा जैसी सुरतक्रीडा व सूर्योदय हुआ, इनका वर्णन करनेवाली पांचवी संधि समाप्त । संधि ॥ ५ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ६ १. ऋषभदास का मुनिदर्शन हे सखे, सरस, व्यंजन सहित, मोदकसार (माधुर्य-पूर्ण ) तथा प्रमाणसिद्ध ( उचित मात्रा में पका हुआ), ऐसा भोजन एवं काव्य-विशेष इस लोक में विरल ( दुर्लभ ) है। फिर उसी अवसर पर समस्त संघ से परिवारित, मानों मुनि के वेष में तप के पुंज साधु समाधिगुप्त उपवन में आए। तब ऋषभदास उनकी वन्दना-भक्ति के लिए गया, जैसे हाथी पर बैठकर सुरेन्द्र जिन भगवान की वन्दना के लिये गया था। ऋषभदास के पूछने पर मुनिवर ने उस सिर से प्रणाम करनेवाले वणिग्वर को गृहस्थ धर्म का उपदेश दिया। आप्त, आगम और तत्वों में जो श्रद्धान किया जाय, उसी को सम्यक्त्व जानो। आप्त वह है जो अठारह दोषों से रहित हो। उन्हीं आप्त के द्वारा जो कहा जाय, वही सूत्र अर्थात् आगम होता है। सूत्र भी ऐसा होता है जो परवादियों के नयों से दुलध्य ( अकाट्य ) हो, पूर्वापर अविरुद्ध हो, एवं श्लाध्य हो। जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये सात तत्त्व कहे गये हैं। इनमें जो कोई भव्य हैं, वे ही श्रद्धान करते हैं। कोई इनमें आजन्म भी श्रद्धान नहीं करते ( वे मिथ्यात्वी हैं )। और क्या मिथ्यात्व के शिरपर सींग होते हैं ? इसी मिथ्यात्व के कारण संघश्री मंत्री नरक में गया। क्या पाप से कहीं भी शान्ति मिल सकती है ? सम्यक्त्व के विना घोर और प्रबल तप संचय करने से शरीर का शोषण मात्र होता है। बहुत कहने से क्या, वह तप वैसा ही अकृतार्थे जाता है, जैसे दुर्जन जन के प्रति किया गया उपकार । जिस प्रकार वृक्ष का मूल व धड़ का सिर सारभूत अंग है, उसी प्रकार व्रतों का सार सम्यक्त्व है। इस प्रकार जो समझ लेता है, वह लाखों दुःख विनष्ट कर देता है। इसके पश्चात् मुनीन्द्र ने ऋषभदास को मूल गुणव्रतों का भाषण किया (व्याख्यान करके समझाया)। २. मद्यपान के दोष द्विविध पीपल ( पीपल और पाकर) ऊमर, वट और फिंफर (कठूमर), ये पांचो उदुंबर सूक्ष्म त्रस जीवों से युक्त होते हैं। इसलिए ये पांचों ही न खाने योग्य हैं और न देने योग्य; क्योंकि इनका आगम में निषेध किया गया है। मदिरा जब सड़ा कर बनाई जाती है, तब उसमें बहुत से सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इसे जो पीता है, वह मनुष्य ( उन्मत्त होकर ) लोटता है, गाता है, नाचता है ; सब जनों की निन्दा करता है, कपिलों ( कुत्तों) की वंदना करता है, हँसता है, विना बुलाए बोलता है; रेंगता है, कूदता है, युवतियों से लगता है, Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० नयनन्दि विरचित [६.३माता से भी संग करता है, भौंहे मरोड़ता है, गर्जता व रेंकता है, विह्वल होकर मार्ग में जहाँ कहीं भी गिर पड़ता है, चिल्लाता है, पुकारता है, खोजता है, फाड़ता है, मारता है, रुंधता है, बाधता है, जूझता है, तथा मूर्छित होता है। मूर्छा युक्त होने पर कुत्ते उसे पुनः पुनः सं घते हैं और लाँधकर- उसके मुख में मूतते हैं। मद्यपान के कारण समस्त यादव कुल समाप्त हो गया, तथा चारुदत्त दुख-परंपरा को प्राप्त हुआ। ३. मांस-भक्षण के दोष मद्य के दोष कह सुनाये, तुझ से छिपाये नहीं। अब, हे वणीश, मांस के दोष जैसे सुप्रसिद्ध हैं, वैसे मैं कहता हूँ, तू सुन। मांस, शुक्र और शोणित से ही उत्पन्न होता और पशुओं के वध से ही प्राप्त होता है। वह देखने में भी बीभत्स दिखाई देता है, तथा जिनेन्द्र के आगम में घृणित कहा गया है। उसमें जीव उत्पन्न होते हैं, जो दृष्टिगोचर नहीं होते। जो माँस इस प्रकार का होता है, उसे बुद्धिमान कैसे खावे ? जो हीन मनुष्य मांस खाता है, उसके अहिंसा भाव नहीं हो सकता। एकचक्र नगर में जो बक नाम का प्रधान राक्षस था, वह मांस खाया करता था, जिसके कारण वह मरकर रौरव नरक में गया। पूर्वकाल में विष आकाश में गमन करते थे, किन्तु मांस खाने के कारण भूमि पर आ पड़े। कोई पशु के बध से व मांस भक्षण से धर्म होता है, ऐसा कहते हैं। (हे गुणालय, यह तोमरेख पुष्पमाल नामक छन्द है।) यदि धर्म ही इस प्रकार का हो, तो पाप कैसा कहा जाय ? यदि इसके द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति हो तो जीव नरक किसके द्वारा जायेगा? ४. मधु-पान के दोष वृक्षों से भयानक वन में मधुमक्खियों का छत्र देखकर, निर्दयी लोग उससे मधुरस निचोड़ते हैं, जो विष के समान है। उसे पीना योग्य नहीं। यदि भोजन में एक भी मक्खी दिखाई दे जाय, तो उससे सभी को घृणा हो जाती है। वे मुँह बनाते हैं, खूब थूकते हैं, तथा खाये हुए भोजन का भी वमन कर देते है। किन्तु, हाय, हाय, लोग कितने अज्ञान और मूढ़-बुद्धि हैं, तथा इस लोक और परलोक दोनों जन्मों के विरोधी हैं, कि वे जिह्वेन्द्रिय के वशीभूत होकर मक्खियों के छत्र के अंडे व वसा के रस को पी जाते हैं। कुछ लोग लोगों में घोषणा करते हैं कि मधु अति पवित्र है, वह अच्छा पोषण करती है और कुछ भी दूषण नहीं करती। मधु को शुचि शुचि कहते हुए लोग क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। वे इस लोकाचार की ओर दृष्टि नहीं देते कि बारह गांव जलाने में जो पाप होता है वही पाप मधु निचोड़नेवाले को होता है। फिर जो जिह्वा का लोभी उसका भक्षण करता है, उसके पापों की संख्या कौन कह सकता है ? प्राचीन काल में दुःख और Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ सुदर्शन-चरित पाप को प्रकट करनेवाले कलिकाल में मधुविंदु दृष्टान्त जन-प्रसिद्ध हुआ है। पांच उदुंबर एवं मद्य, मांस और मधु, इनका यदि त्याग किया जाय, तो ये ही श्री अरहन्त के आगम में अष्ट मूलगुण कहे जाते हैं। ५. जीवों के भेद व हिंसा से पाप अब पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत, जैसे जनमनानन्ददायी होते हैं, उन्हें, हे वणीन्द्र, सुनो। संक्षेप से जिनागम में जीवराशि सिद्ध और भवाश्रित ( संसारी ) के भेद से दो प्रकार कही गई है। सिद्ध अष्टगुणयुक्त और अनुपम एक प्रकार ही होते हैं। किन्तु भववासी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के जानना चाहिये। त्रस जीव क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के भेद से चार प्रकार के हैं। और ये भी जल, थल और नभस्तल में उत्पन्न होने के कारण नाना प्रकार के हैं। त्रस जीव कर्म-प्रकृतियों के अनुसार नानाधर्मी होते हैं, जैसे गर्भज तथा सम्मृच्छिम, संज्ञी, व असंज्ञी, तथा पर्याप्त और अपर्याप्त । स्थावर जीव अनन्त हैं ; तथा वे पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय व वनस्पतिकाय के भेद से पाँच प्रकार के कहे गये हैं। इनकी हिंसा करना तो दूर, हिंसा के चिंतन मात्र से पापी शालिसिक्थ (मत्स्य ) मरकर घोर रौरव नरक में जा पड़ा। ऐसा भले प्रकार समझ कर जीवों का वध नहीं करना चाहिये, तथा दूसरे जीव को निश्छल रूप से अपने ही समान देखना चाहिये। इस पर भी उस मनुष्य को क्या कहा जाय, जो हिंसा करता है ? ( यह छंद हेला नाम द्विपदिका है)। यदि कहीं स्थावर जीव की हिंसा करना अनिवार्य ही हो, तो भी दूसरे अर्थात् त्रस-जीवों की हिंसा तो मन्त्र, औषधि तथा पित व देवकार्य के लिए भी नहीं करना चाहिये। ६. अमृषा आदि अणुव्रत व गुणवत द्वितीय अणुव्रत के अनुसार, हे सुभग, ऐसी वाणी बोलना चाहिये जो निश्चय से अपने लिए तथा दूसरों के लिए हितकारी हो। मिथ्या भाषण से वसु राजा होकर भी नरक को प्राप्त हुआ। उसी प्रकार तृतीय अणुव्रत में, हे वणिग्वर, सुन, दूसरे का तृण समान भी धन हरण नहीं करना चाहिये। वणिग्वर के रत्नों का हरण करके श्रीभूति दुःख से संतप्त हुआ, मर कर नरक में गया। चौथे अणुव्रत में परस्त्री का परित्याग तथा अतिचंचल मन के प्रसार का रोक करना चाहिये। रावणादिक सभी यश के प्रसार को समाप्त करनेवाले पर-स्त्री की अभिलाष के कारण नरक में गए। पंचम अणुव्रत में परिग्रह का परिमाण करना चाहिये । 'स्फुटहस्त' लोभ के कारण चिरकाल के लिए नरक में गया। प्रथम गुणव्रत में, हे सुभग, यह स्पष्ट रूप से बतलाया गया है कि दिशाओं और विदिशाओं में गमन का सदा त्याग करना चाहिये। दूसरे गुणव्रत में रति त्याग तथा भोगोपभोग के परिमाण में संकोच करना चाहिये। तीसरे गुणव्रत में जो योग्य है, उसे मैं प्रकाशित Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ नयनन्दि विरचित [६.७करता हूं। ( यह मन्दचार छंद कहा गया है )। साकल, रस्सी, विष, अग्नि व अस्त्र-शस्त्र, इन्हें किसी को देना नहीं चाहिये तथा कर जीवों की ओर मन में उपेक्षा करना चाहिये। ७. सामायिक आदि शिक्षाव्रत रौरव नरक को उत्पन्न करनेवाले शल्यों, कषायों और मदों का भले प्रकार से त्याग करके चित्त में समता भाव धारण करना चाहिये, तथा दोषमुक्त धर्म का स्मरण करना चाहिये। इस प्रकार से पहला शिक्षाव्रत ( सामायिक ) होता है। दूसरा शिक्षाव्रत जैसा है, उसे मैं कहता हूं, सुनो। या तो निर्विकार उपवास करे, अथवा रूक्ष आहार, आम्ल आहार वा अर्द्धप्रमाण आहार करे। साथ ही शृङ्गार का त्याग व भूमिशयन करे। ऐसा चारों पों में कामविकार को दमन करके करना चाहिये, ऐसा जानो। तीसरे शिक्षाव्रत में अपनी शक्ति के अनुसार सुखनिधान पात्र-दान देना चाहिये । जिन भगवान ने पात्र तीन प्रकार का कहा है-उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ । जिसने रत्नत्रयरूप परमलाभ प्राप्त कर लिया है और जो व्रतधारी है, ऐसा साधु उत्तम पात्र है। जो श्रावक है, वह मध्यम पात्र कहा गया है। तथा अविरत सम्यक्त्व का धारी हीन पात्र होता है। जो दृढ़तर मिथ्यात्व और मद से उन्मत्त है, वह संक्षेप से अपात्र कहा गया है। तीन प्रकार के पात्र को दान देने से तीन प्रकार का ( उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ ) फल प्राप्त होता है; जिस प्रकार कि भिन्न-भिन्न पुरुषों के संसर्ग से शील भिन्न प्रकार प्रगट होता है। ८. पात्र-दान का स्वरूप और फल अग्गिला नाम की ब्राह्मणी पात्रदान देकर दुःखविनाशिनी, यक्षों के कटाक्षों की लक्ष्य तथा देवों और मनुष्यों द्वारा प्रशंसनीय यक्षिणी हुई। पात्रदान के विशेष माहात्म्य से श्रेयांस ने रत्नों की वर्षा प्राप्त की। ऐसा जान कर शीलसंयुक्त परमोत्तमपात्र को दान देना चाहिये। जिनमन्दिर में, अथवा मार्ग में, अथवा प्रांगण में, सन्तुष्ट मन से उसकी पड़गाहना करके शुचि प्रदेश में उच्चासन देना चाहिये, और उसके दोनों चरणकमल धोने चाहिये। फिर उस जल की वन्दना करके साधु की विधिवत् अर्चना करना चाहिये। उन्हें प्रगाम करना चाहिये और मन-वचन-काय की शुद्धि सहित भावना करनी चाहिये । इस प्रकार जो दान दिया जाता है, वह अविचल तथा वट-बीज के समान बहु फलवान होता है। अपात्र को दिया दान कैसा विफल जाता है, जैसे ऊसर क्षेत्र में बोया हुआ बीज। सुवर्ण, रत्नसमूह शयन, आसन, धन, धान्य, भवन, भोजन तथा वस्त्र, यह जो कुछ दीन-दुखियों को दिया जाता है, वह कारुण्य-दान कहलाता है। परिग्रह का परित्याग कर, सन्यास ग्रहण करना चाहिये। यह चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है। इन श्रावक व्रतों का पालन करके मनुष्य स्वर्ग जाता है, और वहां चंचल हारों और मणियों से भूषित रमणियों का रमण करता हुआ चिरकाल तक रहता है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ सुदर्शन-चरित ९. रात्रि-भोजन के दोष स्वर्ग से च्युत होकर वह देव उत्तम मनुष्य होता है और सुख भोग कर, फिर तप रूपी अग्नि से तप्त हुआ, कर्मरहित होकर, परम मोक्ष का लाभ पाता है। रात्रि-भोजन के कारण व्रत शोभा नहीं देते। खलजन के प्रति किये गये उपकार क्या हित करेंगे? जिस प्रकार पर्वतों में मंदर पर्वत श्रेष्ठ है, उसी प्रकार व्रतों में रात्रि-भोजन-त्याग सारभूत है। किन्तु लोग अपने मन में योग्यायोग्य का विचार नहीं करते और गाडर-प्रवाह से ( भेढ़िया-धसान, लकीर के फकीर बन कर ) चलते हैं। वे मूर्ख सूर्यास्त हो जाने पर भी भोजन करते हैं; नियम लेकर नहीं रहते । यदि मनुष्य रात्रि का भोजन नहीं छोड़ते, तो पशुओं और मनुष्यों में अन्तर ही क्या रहा ? रात्रि के समय में भूत-राक्षस मिलते हैं, और दृष्टि के अगोचर रहते हुए ही भोजन निगल जाते हैं। रात्रि के समय भोजन में मल, धूल व बाल तथा प्रलयकाल दिखाने वाला सर्पविष, कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। यदि भोजन में घिरिहोल ( मक्खी ) आदि कीट-पतंग प्रविष्ट हो जाय, तो अदृश्य रोग उत्पन्न होना संभव है। और भी जो दूसरे जीव भ्रमण करते रहते हैं, वे भोजन में अवश्य ही आ गिरते हैं। हृदय के अन्धे इन्हें भी मोड़-माड़ कर खा जाते हैं । इस प्रकार के सैकड़ों दोष स्पष्ट ही रात्रि-भोजन में होते हैं। इसे बूझ कर ( समझ कर ) हलाहल विष खाना अच्छा, किन्तु शील छोड़ कर रात्रि को भोजन करना अच्छा नहीं। १०. रात्रि-भोजन से अन्य सब साधनाओं की निष्फलता हाय, हाय, लोग कैसे मूढ़ और पापग्रस्त हैं कि वे अपना हित भी नहीं जानते। यदि रात्रि को भोजन न किया जाय, तो क्या यह शरीर सहसा ही क्षीण हो जायेगा, या मर जायगा ? चाहे पंचाग्नि तप करो, सुहावना पूजा-पाठ करो, जलती हुई अग्नि में चढ़ो या भयंकर पर्वत से नीचे गिरो (भृगुपात करो)। चाहे गजकनखल (तीर्थ ) को जाओ, चाहे गंगाजल में स्नान करो, शरीर का मल दूर करो और सिर में गुग्गुल लगाओ; तिल जौ, व घृत का होमे दो, तथा सैकड़ों द्विजवरों को प्रणाम करो। चाहे शत्रुओं से कलह करके गोग्रहण में मरो, चाहे ब्राह्मण धर्म का उपदेश दो, चाहे गुरु से दीक्षा लो। चाहे हर ( महादेव ) की अर्चना करो, और उनके आगे नाचो। इस प्रकार शरीर को चाहे जितना क्षीण करो, किन्तु यदि रात्रि-भोजन किया गया, तो फल कुछ न होगा। (यह अमरपुरसुन्दर नामक उत्तम छंद है।) जिस प्रकार दूध से भरे हुए घट को सुरा का एक बिन्दुमात्र विनष्ट कर डालता है, उसी प्रकार रात्रि-भोजन से तप का महाफल नष्ट हो जाता है। ११. रात्रि भोजन के कुपरिणाम जो मूखे जानकर भी त्याग नहीं करते और रात्रि को भोजन करते हैं, वे अगले भव में निरंतर दुःख पाते हैं और धनहीन होते हैं। वे मनुष्य अति २५ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनन्दि विरचित [६. १२क्षुद्रकाय, कर्कश-स्वर, कृष्णशरीर, रक्तनेत्र, यमराज जैसे दीर्घदंत, वक्रमुख, छिन्न-ओष्ठ, उर्ध्वकेश, स्थूल-नास, कनफटे, फटेपांव, काने, ठूठे ( हथकटे ) लँगड़े, मंट (बौने ), हिंसा के स्थान, मांसभक्षी, पापकर्म और हीनकर्म होते हैं; और हा हा श्वासें भरते हैं ( दुःख से संतप्त होते हैं। तो भी वे जीवन भर न धर्म लेते और न पाते। जहां कुछ सुख देखते हैं, वहां जाते हैं, और खान-पान मांगते हैं। वे चंडिका देवी के आगे जाकर पड़ते हैं, और गिड़गिड़ाते हैं:हे देवि, आ, और कुछ कार्यसिद्धि दे। किन्तु उन मानवों को कोई पुण्यलब्धि तो है नहीं ( अतएव वे पावें कैसे ?) ( इसे कामबाण छंद जानो)। पुण्यहीन मनुष्य अहर्निश उद्यम करके अपने को संतापित करता है, तो भी अणुमात्र भी सुख नहीं पाता। १२. रात्रि भोजन का फल दरिद्रता वे लक्ष्मी से विहीन मनुष्य जीर्ण कोपीन धारण किए हुए, करुणा के पात्र, हाथ में लाठी लेकर भीख माँगते हुए महीतल पर भ्रमण करते हैं। वे सूखी-रूखी भिक्षा भी नहीं पाते। वे प्रेषण ( चाकरी) करते हैं, कुछ भी ले जाते हैं; ( बोझा ढोते हैं ), गर्जना सहते हैं, पानी भरते हैं, घर झाड़ते-बुहारते हैं, दोनों पैरों को नमस्कार करते हैं; तब कहीं कुछ धान्य का भुसा पाते हैं, उसे चूर्ण करके पकाते हैं, और घर के कोने में बैठकर खाते हैं। बालक उनकी हँसी उड़ाते हैं। वे अघाते नहीं, क्लिष्ट जीवन व्यतीत करते हैं, क्रन्दन करते हैं, और अपना सिर धुनते हैं। रुष्ट होकर चल देते हैं, और देशभर में घूमते हैं। धन की अभिलाषा करते हैं, किन्तु आर्तध्यान से ही मरते हैं। ( इसे स्पष्ट चन्द्रलेखा छंद मानो )। ऐसा जानकर जो रात्रि-भोजन का त्याग कर देते हैं, वे दोष-मुक्त होकर सूर्य के समान उद्भासित होते हैं। १३. रात्रि-भोजन-त्याग से उत्पन्न सुख रात्रि-भोजन-त्याग का व्रत पालने वाले संपूर्णाग-मनोहर, विमल यशधारी, सूर्य के समान तेजस्वी, सहस्रों आपत्तियों से रहित, देवों द्वारा पूज्य इन्द्रोपम होते हैं। वे शरीर से सुन्दर, मेरु के समान सुधीर, भीषण समरांगण में अद्वितीय वीर, अस्खलित प्रताप, गम्भीरध्वनि, त्रैलोक्यप्रसिद्ध महानुभाव होते हैं । वे अपने शत्रओं के कृतान्त ( काल ), महाऋद्धिवान, मकरध्वज के समान सौभाग्यशाली होते हुए दर्पोद्भट व जयश्री-लंपट, सशस्त्रभटों द्वारा सेवित होते हैं। वे मद से धूमते हुए मन्थरगति, सुलक्षण गजवरों पर आरूढ़ होते हैं। उन पर देवों को भी सन्तोष देनेवाले दैदीप्यमान नाना चँवर ढोले जाते हैं। जनमनोहारी, मधुर-स्वर, सैकड़ों श्रेष्ठ गायक उनका गान करते हैं, तथा मनमोहक गजगामिनी भामिनियां उनका सम्मान करती हैं। और भी जो कुछ इस संसार में निर्दोष ( सुख ) दिखाई देता है, उस सबको, हे सुन्दर, अनस्तमित व्रत का ही फल जानो। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन चरित १९५ १४. स्त्रियों को रात्रि-भोजन-त्याग के सुफल जो युवती भी बहुरसात्मक रात्रि-भोजन को विष के समान त्याग देती है, वह आकाश के समान निर्मल व पवित्र उत्तम कुल पाती है। उसके केश घुघराले, चन्द्र के समान मुख, मृग जैसे नेत्र, स्निग्ध ( चमकीले ) दांत, लाल ओष्ठ, मधुर स्वर, किसलय सदृश भुजाएँ, कलश जैसे सघन स्तन, क्षीण कटि एवं गुरु नितम्ब होते हैं। वह लोगों में अनुराग उत्पन्न करती है। उसकी गति हंस के समान होती है। वह नई बेल के समान लहलहाती व कोमल होती है। वह समस्त अवयवों में सुलक्षण व विद्वानों द्वारा स्तुत्य होती है। वह श्री ( लक्ष्मी ) के समान नरेन्द्र की प्रागप्रिया बनती है। उसे थान, पालकी, ध्वजा व मत्तगज तथा उत्तम तुरंग, बड़े बड़े रथ, भटसमूह एवं विविध पुष्पों, फलों तथा पत्रों से सघन उपवन प्राप्त होते हैं, जहां वह मनोहर सहचरियों के साथ क्रीड़ा करती है। ( यह रत्नमाला पद्धडिया नामक छन्द प्रकट किया गया है)। इस प्रकार सैकड़ों सुखों को भोगकर, वह वैराग्य धारण कर तप पालती है, और दूसरे की बात क्या, स्वयं इन्द्र के इन्द्रत्व को ढा देती है ( जीत लेती है )। १५. स्त्रियों के रात्रि-भोजन से दुष्परिणाम किन्तु जो स्त्रियां कुगुरु और कुदेव की भक्त हैं, तथा मद से प्रमत्त होकर रात्रि भोजन करती हैं, वे मर कर कात्यायनी के समान दुर्निरीक्ष्य ( कुरूप ) होती हैं। वे रति-लंपट, रंडी, मुंडी, चेटी, दासी, चिपटीनाक, विकृतभाल, पिचके गाल, चौंधे नेत्र, लंबे दांत, हड्डियों से विकराल, कोयले जैसी काली, लंबे स्तनों वाली एवं असुहावनी होती हैं। वे ठूठी, लंगड़ी, मोटी, छोटी, बहरी, अंधी, अतिदुर्गन्धी, कामकाज मात्र करने वाली, पराई चाकरी मात्र करने वाली, बुरी लगने वाली, हीन, दीन, कर्म-शिथिल, मैली, कुचैली, कलहशील, भिखमंगी होकर दुःख सहती हैं। इसी अवस्था में चिरकाल तक रहती हैं। सुख की इच्छा करती हैं। देव पर ( या अपने पति पर ) रुष्ट होती हैं और अपने को कोसती हैं। इतने पर भी वे मूढ़ पाप में फँसी हुई त्रिभुवनरम्य धर्म में नहीं लगती। तत्पश्चात् वणिग्वर ऋषभदास के पूछने पर मुनिवर ने कोई बात छिपाई नहीं और उन्होंने अन्धकूप के दृष्टान्त द्वारा जीव के सुख-दुःख का व्याख्यान किया। १६. मधु-बिन्दु दृष्टान्त ___कोई एक मनुष्य वृक्षों से सघन वन में गया था। वहाँ वह भटक गया और भीलों के मार्ग में पहुँचा। वहाँ उस पर एक सूंड उठाए, गुड़गुड़ाते हुए मदोन्मत्त हाथी ने दौड़कर आक्रमण किया। गज से भयभीत होकर वह मनुष्य भागा, किन्तु उसे कहीं शरण नहीं मिला। जब वह हाथी उस मनुष्य को Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ नयनन्दि विरचित [ ६. १७पकड़नेवाला ही था, जैसे सिंह हरिण पर झपटे, तब वह बेचारा अरण्य में एक अन्धकूप को देखकर प्रयासपूर्वक दृढ़ काशतृण को पकड़कर उस कूप में लटक गया। त्रस्त होकर जब उसने नीचे को देखा, तो उसे वहां एक अजगर दिखाई दिया और उसने चारों कोनों में चार प्रचंड सर्प भी देखे। वह जिस काश से लटका हुआ था, उसे एक काला और दूसरा श्वेत, ऐसे दो मूषक प्रयासपूर्वक काट रहे थे। इसी बीच वह हाथी दौड़ता हुआ वहां आ पहुँचा और उस मनुष्य को न पाकर, तथा उस अन्धकूप के तटपर एक वृक्ष को देखकर, उसने उस पर दांत से आघात किया। इससे वह वृक्ष कांप गया और उसकी शाखा से मधुमक्खियों द्वारा संचित मीठा मधु झरकर नीचे गिरा। मधुमक्खियों की भिनभिनाहट का शब्द सुनकर अन्धकूप में लटके हुए उस मनुष्य ने झट अपना मुख ऊपर किया। (यह सोलह और दस कलाओं से युक्त विषमपद पादाकुलक छन्द है।) जब वह मनुष्य ऊपर को देख रहा था, तभी खल्वाट-बिल्व संयोगवश ( काक-तालीय न्याय से ) उसकी जीभ पर एक मधुबिन्दु आ पड़ा। इसे वह अनुराग से चाटने लगा। १७. दृष्टान्त संसार का रूपक अब वह मधुमक्खियों का झुंड क्रुद्ध होकर उसकी समस्त देह पर आ लगा, जिस प्रकार कि, कूपूत को अपयश, चन्दन-वृक्ष पर सर्प तथा नीच घर में धूर्त आ लगता है। इस दृष्टान्त में काननरूप यह संसार है और वह मनुष्य रूप ही जिननाथ द्वारा जीव कहा गया है। भिल्ल-पथ अधर्म का उपलक्षण है, तथा, हे वणीश्वर, वनहस्ती ही मृत्यु कहा गया है। अन्धकूप यह बहुत से दुखों का भाजन देह है। अजगर ही भयावना नरकवास है। चार सर्प अति दुर्धर कषाय हैं, जो जगत को डस रहे हैं। उनसे जीव कैसे छूट सकता है ? काश का पुंज आयु है, तथा हे मतिदक्ष, काले और श्वेत मूषक, कृष्ण और शुक्ल दो पक्ष हैं। वृक्ष अति दुश्चल कर्मबंध है, तथा मधुबिन्दु चञ्चल इन्द्रिय-सुख हैं। मधुकरियां अप्रमाण व दुस्सह व्याधियां हैं, जो उस मुख उठाए मनुष्य को पीड़ा देती हैं। यह सब जानते हुए भी जीव इसकी अवहेलना करता है, जिस प्रकार कि अशुचि कृमि अशुचि में ही रति मानता है। इस प्रकार इस निस्सार संसार में तप ही परमसार है, जिसके द्वारा हे वणिग्वर, भव भव में किया हुआ कर्ममल नाश को प्राप्त होता है। १८. सेठ का स्वपुत्र को लोक व्यवहार का शिक्षण जिनेन्द्र भी गृहस्थ होते हुए चरित्रहीन अवस्था में ध्यान को प्राप्त नहीं होता, और ध्यान के विना मनुष्यों को मोक्षरूपी मनोहर नगर पाना दुर्लभ है। मुनि का यह उपदेश सुनकर, वणीन्द्र निर्वेद को प्राप्त हो, वहाँ से लौटा और अपने Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. २०] सुदर्शन चरित १९७ घर आया। उसने अपने पुत्र सुदर्शन को संक्षेप में समस्त जनप्रसिद्ध लोक-व्यवहार समझाया । नारियों के दोष ढांकना चाहिये। जो चित्त में हो वही बात बोलना चाहिये। आये लोगों के प्रति दाक्षिण्य (सौजन्य ) रखना चाहिये, तथा दुष्ट वैरियों के प्रति पराक्रम प्रकट करना चाहिये। गुरुजनों के प्रति विनय और भक्ति दिखलाना चाहिये। विनय से ही लक्ष्मी और कीर्ति की प्राप्ति होती है। साधु पुरुषों की सत्य, शौच व निर्मत्सर भाव से रक्षा करनी चाहिये । मर्मी जनों में उनके अभिप्रायानुसार बताव करना चाहिये। अपना काम निकालने के लिए गधे को भी गुरु के समान मानना चाहिये। गर्वीले मनुष्यों के प्रति उनसे भी अधिक गर्जना चाहिये। पापिष्ठ जनों का संग भी त्यागना चाहिये। अपना मर्म किसी को कहना नहीं चाहिये। शरण में आये हुए जीव की रक्षा करना चाहिये। राजकुल और देवकुल की सेवा करना चाहिये। क्रोध, मान और माया का शमन करना चाहिये। कोपाधीन मनुष्य तथा मानी, बहुत मायाचारी एवं लोभाकान्त मनुष्य किसी को भी प्यारा नहीं होता। १९. राजसभा योग्य आचरण जो अपने मर्म को प्रकट नहीं करता, गुणों का प्रकाशन करता है, एवं ठीक प्रयोजनानुसार चलता है, वह दुर्लभ मनुष्य, देवों को भी प्यारा है, तब मानवों को क्यों न हो ? और भी, हे सुन्दर, नयनानन्ददायी ( वत्स ), नरपति के आगे उसकी सेवा में स्थित होते हुए निम्न बातें नहीं करना चाहिये। दूसरों को धिक्कारना, पांव पसारना, अधमिची आखों से देखना, भौहें चलाना, हाथ-पांव मोड़ना, अंगुलिया चटकाना, लोगों का उपहास करना, वक्तृता बघारना, खांसना, जम्हाई लेना, आसरा लेकर खड़े होना, केश सँवारना, अंग सजाना, दर्पण देखना, आत्मप्रशंसा करना, स्वेच्छापूर्वक बोलना, नाक फुलाना, दांत पीसना, दुष्ट क्रीडा ( कुचेष्टा ) करना, आसन खिसकाना या ठोकना, अंग मरोड़ना तथा दुष्टों की निन्दा करना। इनके अतिरिक्त और भी जो जो बातें सेवाभाव को कलंकित करनेवाली हैं, उन सब को त्यागना चाहिये। अब मैं तो बहुत से सिद्धों से व्याप्त वन में जाकर प्रवेश करता हूँ, तथा अपनी समस्त सम्पत्ति का परित्याग करता हूँ। (यह बुधजनों का नयनरूप मदन छन्द है)। इस पर सुदर्शन ने हंसकर कहा-आपके परोक्ष में मेरे इस घर में निवास करने से क्या लाभ ? २०. ऋषभदास की सुदर्शन को गृहभार सौंपकर मुनि-दीक्षा और स्वर्ग-गमन मैं भी महाकषायों को जीतनेवाला व संसार का अन्त करनेवाला सुदुर्द्धर तप करूँगा। इस पर उसके पिता ने कहा-हे पुत्र, तू तो अभी राजप्रासाद का उपभोग कर, जो इस भवन में प्रिय है। हे पुत्र, यदि मेरे समान तू भी Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ नयनन्दि विरचित [६.२० जन्म, जरा व मरण रूपी बंधनों का क्षय करनेवाला तपश्चरण ग्रहण कर लेगा, तो फिर यह कुल किसका मुख देखकर रहेगा ? तू ही हमारे कुल का तिलक है। तू ही श्रेष्ठ पुरुष रूप रत्न है। तू ही एक मात्र सुहृद्जनों के हृदय को ढाढ़स बंधानेवाला है। तुझे छोड़कर और कौन है जो इस घर के भार रूपी धुरे को धारण कर सके। जो अज्ञानवश खोटी बातें करके गालियां देता है, तथा रो-रो कर माता से भोजन मांगता है, ऐसे अपने छोटे से पुत्र को छोड़कर जाना क्या तेरे लिए योग्य है ? तू अभी जिनभवन निर्माण करा, तथा जिनाभिषेक, जिनपूजा व जिनस्तुति कर। अप्रमाण और सुपवित्र मुनिदान दे; एवं जिनवरों ने जिनशासन में जो कुछ उपदेश दिया है, उसके अनुसार कर। जो कोई मनोहर जिन-मन्दिर निर्माण कराते हैं, वे अन्य जन्म में चिरकाल तक देवगृहों में रमण करते हैं। जो कोई श्रद्धापूर्वक जिनाभिषेक करते हैं या कराते हैं, वे स्वयं भी मेरुपर्वत के शिखर पर अभिषेक पाते हैं। जो भक्ति पूर्वक मनोज्ञ जिनपूजा करते हैं, वे इस संसार में देवों, मनुष्यों एवं नागों के पूज्य बनते हैं। जो जगतरूपी कमलसरोवर के सूर्य, जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करते हैं, उनकी दो सहस्त्र जिह्वाओं द्वारा नागेन्द्र स्तुति करता है। जो शक्तिअनुसार, भक्तिपूर्वक मुनियों को दान देते हैं, वे भोग-भूमियों में सुख भोगकर स्वर्ग जाते हैं। (यह मदनावतार छन्द है)। इस प्रकार अपने पुत्र को उपदेश देकर पश्चात् सुदर्शन के माता-पिता धर्म में आनन्द मानते हुए, समाधिगुप्त मुनि के चरणों को नमस्कार करके तथा तपस्या करके देवलोक को गए। ___ इति माणिक्यनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करने वाले सुदर्शनचरित में, वणोन्द्र को नंदनवन में मुनिवर द्वारा उपदिष्ट अणुव्रत, गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत एवं अनस्तमितव्रत तथा ऋषभदास का स्वर्गगमन, इन का वर्णन करनेवाली छठी संधि समाप्त । संधि ॥६॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ७ १. सुदर्शन का सुखी जीवन पिता के स्वर्ग चले जाने पर सुदर्शन देव के समान भोग भोगता हुआ तथा शंसा पाता हुआ रहने लगा । कभी वह शक्ति अनुसार मुनियों के समूह को शुभदान देकर सत्पुण्य लेता कभी भक्ति से जिनेन्द्र का स्तवन, महापूजन व अभिषेक करता । कभी सर्वज्ञ के मन्दिर को जाता व स्वयं जिनेन्द्र के उच्च मन्दिर बनवाता । कभी दिव्य आभरणों से शोभायमान हुआ स्तुति करते हुए वैतालिकवृन्द द्वारा सेवित होता । कभी सरस नाटक देखता व सुखदायी गीत-गान सुनता । कभी क्रीड़ाघर में विचरण करता हुआ मनोज्ञ चौज (विनोद) द्वारा अपनी प्रियपत्नी को वशीभूत करता । कभी हास्य में रोष दिखलाता, अथवा रिझानेवाले आलापों द्वारा सन्तोष उत्पन्न करता । कभी थोड़ा हितकारी वचन बोलता और अपने सुकान्त पुत्र को शिक्षा देता। कभी नाना प्रकार के कार्य में गुंथ जाता और अनेक संकल्प-विकल्प करता। इस प्रकार वह वणीन्द्र चतुरों के बीच मनोवांछित क्रीड़ा करता । ( यह वंशस्थ छंद है ) । इस प्रकार अन्तिम कामदेव सुदर्शन उत्तम विनोद करता हुआ रहने लगा, और वह पुण्यवान् राजा का प्रसाद पाने लगा । २. सुदर्शन पर कपिला का मोह अपनी सुन्दर वाणी द्वारा त्रैलोक्य का रंजन करनेवाले उत्तम यशस्वी संयमी शिक्षा देते हैं । किन्तु जो लोकप्रिय है, उसको क्या शिक्षा दी जाय ? लोक में शुभ और अशुभ प्रत्यक्ष ही दिखाई देता है । धर्म का कितना फल वर्णन किया जाय ? क्या हाथ के कंकण को आरसी में देखा जाता है ? दर्शन व स्पर्शन की बात छोड़ो, किसी के विषय में सुनने मात्र से ही उसमें स्नेह हो जाता है । कपिल भट्ट पुरोहित की प्रिय पत्नी कपिला ने सुदर्शन के सौन्दर्य की बात सुनी, तब वह मृगलोचना, हंसगामिनी कामदेव के वाणों से आहत हो गई । वह बार-बार अटपटी वाणी बोलती, विह्वल होती व क्षण भर में कांप उठती । फिर एक क्षण में रोमांचित होकर पसीने से व्याप्त हो जाती । ( ठीक है ) विरह भी एक सन्निपात ज्वर समझा जाता है । उसका सराग मन सब दिशाओं में ऐसा दौड़ता, जैसे हाथी के पांव से मर्दित हुआ तुच्छ जल । कौन ऐसा है, जो स्नेह से तापित और पवन द्वारा ध्वजापट के समान कंपायमान नहीं हुआ ? ( कपिला ) अपनी सखी से कहती- “हे सखि, मुझे मालव, देशी, गौडी व हिन्दोला राग नहीं सुहाता । विरही के नेह का उपशम करनेवाले कामदेव के पंचमवाण सदृश भावपूर्ण पंचमराग गा ।' कपिला के वचनानुसार सखी ने पंचम राग गाया । किन्तु उससे और भी विशेषरूप से उसके हृदय में कामदेव का बाण प्रविष्ट हो गया । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० नयनन्दि विरचित [७.३३. कपिला की बिरह-वेदना सुदर्शन से उत्पन्न होनेवाले सुख की लोभी व परोक्ष राग में अनुरक्त उस मुग्धा ने श्वासें छोड़ते हुए तोरण खंभ का सहारा लेकर, अपनी सहेली के आगे कहा-“हे बहिन, तू मेरी वेदना को नहीं जानती, और यदि जानती है, तो भी उसे नहीं ले आती जो सज्जनों के मन और नयनों को आनन्ददायी है; जो ऐसा सुन्दर है, जैसे मानो गोविन्द का पुत्र ( प्रद्युम्न ) ही हो; जिसने इस नगर की समस्त गणिकाओं को पुष्पबाणों से घायल कर रखा है। ऐसे उत्तम गुणवान उस सुदर्शन को जिसने नहीं पाया, उस स्त्री का जीव स्पष्टतः अतिशय पापी है। उसके विरहानल से, हे सखि, मेरा शरीर ऐसा जल रहा है, जैसे अग्नि द्वारा जीर्ण तृण जले। चन्द्र भी मेरे मन को भाता नहीं है। यह जानकर अब जो तुझे भावे सो कर।" तब उस सहचरी ने मार्ग से जाते हुए सुदर्शन को देखा, तथा हँस कर कपिला को कहा ( दिखलाया)। ४. सुदर्शन से कपिला की भेंट और निराशा उस ( कपिला ) ने भी उसे स्निग्ध दृष्टि से देखा, और चित्त में अनुराग से हर्षित हो कर कहा- "हे सखि, अपने मनीष्ट के दर्शन से जो सुख होता है, वह किसी दूसरे के स्पर्शन से गाढ़ा नहीं होता। इसलिए, हे सखि, यदि तू मेरी वेदना को जानती है, तो जाकर और प्रिय वचन बोलकर, उस प्रियतम को घर में ले आ।" सखी गई और बोली-“हे पंकज-दल-लोचन, तुम्हारे मित्र के मस्तक में आज वेदना बढ़ रही है।" यह सुन कर वणिग्वर विना किसी विकल्प ( शंका ) के शीघ्र ही उसके घर के भीतर प्रविष्ट हुआ। किन्तु जब उसे इधर-उधर देखने पर भी अपना मित्र दिखाई नहीं दिया, तब उसने पूछा कि पीड़ित कपिल कहां है ? तब कपिला ने उस कामदेव को हाथ से पकड़ कर कहा-तेरे विरह में परवश होकर मैं प्रति दिन ऐसी क्षीण हो रही हूं जैसे यहां कृष्णपक्ष में चन्द्रकला। तुम दिशाओं में ( इधर उधर ) क्या देखते हो ? मेरे ऊपर दया करो। हे सुभग, मेरा चुंबन करके मुझे गाढ़ालिंगन दीजिये। कपिला और कोई बात समझती ही नहीं थी। वह तो केवल रति-सुख की वांछा करती थी। यह अहाना ( कहावत ) सच है कि 'अर्थी दोष नहीं देखता' (अर्थी दोषं न पश्यति)। तब सुदर्शन बोला-“हे सुंदरि, क्या तू नहीं जानती, तो ले, अपने हितार्थ मेरे मर्म की बात सुन ; किन्तु यह किसी दूसरे को कहना मत | मैं षंढ (नपुंसक ) हूं, सो जान ले। केवल बाहर से मैं इन्द्रवारुणि ( इन्द्रायन-इंदोरन ) के फल जैसा सुन्दर दिखाई देता हूं।" इस पर कपिला ने तुरन्त विरक्त हो कर, उस वणीन्द्र को छोड़ दिया। ( यह 'मागधनकुडिया' नाम का छन्द है)। उसी अवसर पर जिनके पति दूर हैं, ऐसी महिलाओं के मन को संतप्त करने वाला सुहावना वसन्त मास आया। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. ७ ] २०१ सुदर्शन चरित ५. वसन्त का आगमन वसंतराज का अग्रगामी मंदसुगंध मलयाद्रि का पवन हृदय में क्षोभ उत्पन्न करता हुआ प्रसारित होने लगा, और मानिनी महिलाओं के मान का मर्दन करने लगा । जहाँ जहाँ मलयानिल चलता था, वहां वहां मदनानल उद्दीप्त होने लगता । जहां सुन्दर अतिमुक्तलता का पुष्प विकसित हो, वहां भ्रमर क्यों न रस का लोभी हो उठे ? जो मंदार पुष्प से अत्यन्त कुपित होता है, वह अपने को कुटज पुष्प पर कैसे समर्पित कर सकता है ? भ्रमर भूल कर, श्यामल, कोमल, सरस और सुनिर्मल कदली को छोड़ कर, निष्फल केतकी के स्पर्श का सेवन करता है । ठीक है, जो जिसे रुचे, वही उसे भला है । महकता हुआ तथा विरहिणियों के मन को दमन करता हुआ प्रफुल्लित दमनक किसे इष्ट नहीं है ? जिनालयों में सुन्दर पूजानृत्य प्रारम्भ हो गये और तरुण विकारयुक्त ( शृंगारात्मक ) चञ्चरी नृत्य करने लगे । कहीं उत्तम हिंडोला गाया जाने लगा, जो कामी जनों के मन को डावाडोल करता है । अभिसारिकायें संकेत को जाने लगीं। जिनके पति बाहर गए हैं, वे अपने कपोलों को पीटने लगीं । पथिक अपनी प्रियाओं के विरह में डोलने लगे, जैसे मानों मधुमास ने उनको भुलावे में डाल दिया हो। ऐसे समय में पुष्पों और फलों के समूह से युक्त करंड लेकर वनपाल तत्क्षण राजा की सभा में आ पहुंचा । ६. नाना वादित्रों की ध्वनि नरेन्द्रों के चूडामणियों से जिसके पांव घिसते थे, ऐसे राजा को अष्टांग नमस्कार करके उस वनपाल ने कहा कि मनोज्ञ उद्यानवन खूब फूल उठा है, और भृङ्गाली वहां एकत्र हो गई है, जिससे वह उपवन शोभायमान है । इसी समय राजा को मादलों की धुमधुम ध्वनि सुनाई दी । कांस कनकनाने लगे । विशेष दुंदुभियों की गंभीर दुमदुम ध्वनि हो उठी । उद दुमदुमाने और तिउल ढमढमाने लगे । कंसाल-युगल निरन्तर सलसलाने लगे । ताल रणझणाए और दुक्कों की त्रं त्रं ध्वनि होने लगी । डमरू डमडमाए और डक्का डनडनाए । करड-समूह के थरथरिरे थरथरि शब्द तथा भक्किरि ( भांझ ) का भिभिभिंभिं शब्द सुनाई पड़ने लगे । पटों के थगेदुगेगे थगेदुगेगे, तखेतखिखे शब्द सुनाई दिये । सुन्दर तटखु 'दों की किरकिरिरि-किरकिरिरि ध्वनि तथा हाथों में लिये झल्लरियों की झिमझिम ध्वनि फैलने लगी । रुंज रंजन, भंभं भंभा, काहल तुरतुर और शंख हूहू ध्वनि करने लगे । और अन्य बहुविध असंख्य तूर्य, आनन्द से पूरित हुए वादक गण अपना अवसर देख सहसा बजाने लगे । ( यह मदनावतार नाम का छंद है ) । यह सूर्य का निनाद सुनकर शत्रुओं की सेनाएँ मूर्च्छित हो गयीं, तथा समस्त दिग्गज और दिक्पाल मदहीन हो गये । ७. राजा और प्रजा की उपवन-यात्रा इस प्रकार के रव से भुवनव्यापी वसन्तोत्साहकारी सुन्दर वाद्य ध्वनि को सुनकर राजा हर्ष से प्रफुल्लित हो उठा और नगर से निकल कर उद्यानवन की ओर २६ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ नयनन्दि विरचित [७. ८ चल पड़ा। उद्यान-क्रीड़ा में मन लगा कर राजा बुद्धिमानों सहित चलता हुआ ऐसा सुशोभित हुआ जैसे देवों से संसेवित इन्द्र। अन्तःपुर से अलंकृत अभया नाम की रानी भी चली, जैसे इन्द्राणी देवी चल पड़ी हो। कांतिवान, पृथ्वी-मंडल को आनन्ददायी सुदर्शन भी चलते हुए ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे जड़ा हुआ हीरामणि । अपने सौभाग्य से रोहिणी को भी तिरस्कृत करने वाली गृहिणी मनोरमा हर्षित हुई चली। उसका सुकान्त नामक पुत्र भी क्रीडा में उत्साह रखता हुआ, अपने सहचरों से अलंकृत होकर चल पड़ा। सेठ का मित्र, जनप्रिय तथा अपनी ऋद्धि में माधव के सदृश कपिलभट्ट भी चला, और उसकी लक्ष्मी के सदृश, अल्पोदरी ( क्षीणकटि ), कमलपत्राक्षी कपिला नाम की प्रिया भी चली। तथा समस्त लोक मन में सन्तुष्ट हुए चल पड़े ( यह उर्वशी नामक छन्द शोभायमान है)। उस नानाप्रकार के वृक्षों से सघन वन में राजा के पहुंचने से ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे मानों नन्दन वन में देवों का आगमन हुआ हो। ८. वनकी वृक्षावली का विलासिनी सदृश सौन्दर्य __ जिस प्रकार महान् स्वरयुक्त, विशेषपात्रों से भूषित, चूने से पुते हुए महल (सुधालय ) निवासी, उत्तम कविगगों से सेवित, शुभ लक्षणों से अलंकृत और सुन्यायशील राजा शोभायमान होता है; तथा जिस प्रकार महावाणधारी, विशेष वाणपत्रों से भूषित, शुभ लक्षणों का निधान, सुकपिवृन्दों से सेवित, सद्भ्राता लक्ष्मण से अलंकृत सुनायक राम शोभायमान हुए; उसी प्रकार महासरोवर से युक्त, नवीन प्रचुर पत्रों से भूषित, सुख का निधान, सुन्दर वानरों से युक्त, अच्छे लक्ष्मण वृक्षों से अलंकृत, वन्य पशुओं से भरा हुआ वह उपवन शोभायमान हो रहा था। उस वन में राजा ने वृक्षावलि देखी, जहाँ राजहंसों का गमनागमन हो रहा था। जहाँ कदली के अतिकोमल वृक्ष दिखाई दे रहे थे। जो बड़े बड़े लतागृहों से रमणीक थी। जहाँ फूल फूल रहे थे। जो अति निर्मल थी। जहाँ भौरों की गुंजार हो रही थी। जो बेंतों और बर्र की झाड़ी से अतिमनोहर थी। जहाँ बड़े बड़े ऊँचे माहुलिंग ( बिजौरे के वृक्ष ) उद्भासित हो रहे थे। जहाँ सुकुमार लताएँ व सुन्दर अशोक के लाल पत्ते, बिंबाफल, दाडिम के बीजे, चंपक के फूल, विकसित कुमुदिनी, कमल, मयूरपिच्छ, चंदन, केशर, तिलक व अंजन, कपूर, बहुभुजंग, सिंह, कांचनवृक्ष, सुन्दर मंड दिखाई देते थे; और जो कोकिलाओं के ललित आलाप से सुशोभित हो रही थी। इस प्रकार वह वृक्षावली एक विलासिनी के समान दिखाई दी, जो राजहंस के समान गमन करती है, जिसकी जंघाएँ और पिंडलियाँ कदली वृक्ष के समान अतिकोमल हैं। जो बड़े लतागृह में रमण करती है; तथा पुष्पों के आभूषण धारण किये हैं। जो अत्यन्त गोरी है। जिसकी रोमावली भ्रमर के समान काली और स्निग्ध है। जिसकी नाभि गोलाकार और गहरी है। जो अति मनोहर है। जिसके स्तन, माहुलिंग के समान पीन, प्रवर और उत्तङ्ग हैं। जिसकी भुजाएँ लता के समान अति सुकुमार हैं। जिसकी Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. १० ] सुदर्शन-चरित २०३ हथेली रक्ताशोक के पत्तों के समान सुन्दर है । जिसके अधर बिंबाफल सदृश व दांत अनार के दानों के समान सुन्दर और आनन्ददायी हैं। जिसकी सुन्दर नासिका चम्पकपुष्प के समान, आंखें फूली हुई कुमुदनी के पत्र समान, मुख कमल सदृश व केशबन्ध मयूरपिच्छ के समान लोगों के मन को उद्दीपित करनेवाला है । जो चन्दन और केशर से सुन्दरवर्ण दिखाई देती है । जो तिलक और अंजन से भूषित है। जो कर्पूररस से ओतप्रोत है । जिसकी बहुत से प्रेमीजन सेवा करते हैं । जो हरिवाहन है, कंचनवर्ण है, सुमंडित है, और कोकिला के ललित आलाप सदृश सुभाषिणी है । ऐसे गुणों से परिपूर्ण वह वनपंक्ति वा विलासिनी किसके हृदय को यथार्थतः हरण नहीं करती ? ( यह स्पष्टतः कामलेखा नामक पद्धडिया छंद का प्रयोग है ) । राजा के आगमन से वह वनपंक्ति अपने तृणों द्वारा तन से रोमांचित प्रतीत होती थी, और अपने नये पुष्पों और फलों से मानों पूजांजलि प्रस्तुत कर रही थी । ९. रानी द्वारा मनोरमा की प्रशंसा तब सुख-क्रीडा में दक्ष व नानाप्रकार के भावों व युक्तियों को लक्ष्य करनेवाली सखियों सहित, सागरसेन की पुत्री सुन्दर लीला द्वारा ऐसी शोभायमान हुई, जैसे पृथ्वी विकासमान उत्तम क्रीडाओं के योग्य एवं विविध प्रकार के दृश्यों व लाखों संयोगों से पूरित दिशाओं से युक्त होकर शोभा धारण करती है । उसे आगे जाते हुए देखकर लक्ष्मी द्वारा सेवित अभया महादेवी ने उसकी प्रशंसा की“अपने बान्धवों व सुहृद्जनों की आंखों को सेंकने वाली, श्रेष्ठ गुणों की भाजन यह युवती बड़ी पुण्यवती है" । इस बीच कपिला ने कहा - "हे देवि, तुम्हें ऐसा कहना योग्य नहीं । लावण्य और सौभाग्य में तुम्हारे समान उत्तम रंभा और तिलोत्तमा भी नहीं है । मेनका, शची व पौलोमी, ये सब अप्सराएँ भी तुम्हारे वैभव के सामने निरभिमान हो जाती हैं । तुम्हारी बुद्धि की तुलना में सरस्वती भी पूरी नहीं उतरती" । यह सुनकर अभया बोलो - " हे सखि, मेरी क्या प्रशंसा करती है; पुत्र के विना नारी की क्या शोभा है ? पुत्र ही तो एक कुलरूपी गगन का सूर्य तथा माता के मानरूपी रत्न का रत्नाकर होता है । यदि वह ( अपनी उत्पत्ति द्वारा ) यौवन का खंडन करता है, तो भी स्त्री के लिए पुत्र परम मंडन है । इसलिए इसकी ही श्रेष्ठ प्रशंसा करना योग्य है, क्योंकि वह पुत्रवती है, व अपने पति की अनुरागिणी है" । तब कपिला ने कहा - " इसके पुत्र कहां से हुआ ? इसका पति तो नपुंसक है, ऐसा मैंने किसी के पास से सुना है ।" १०. रानी द्वारा कपिला का मर्म- ज्ञान इस पर हँसकर फट रानी ने कहा कि वह कुछ नहीं जानती, बड़ी अज्ञान है । वह वणीन्द्र में आसक्तमन होकर उत्तेजित हुई होगी, इसीलिए उसने हास्य से ऐसा Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ नयनन्दि विरचित [७. ११. दंभ (छल ) किया। इन वचनों से कपिला ने निःश्वास छोड़ा और कुछ कुछ अपने मुँह को खोला। तब अभया देवी ने कहा--"तू मुझ से भी अपना हृदय क्यों छिपाती है ? मुख और नयनों के विकारों से, भाषणों से तथा इंगितों और शरीर की चेष्टाओं के प्रकाश से दूसरे का चित्त जान लिया जाता है। तब, हे सखि, छल करने से क्या लाभ ? जहां विशेष चतुर लोग रहते हैं, वहां किसी के श्वास लेने का भी पता चल जाता है।" तब कपिला कुछ हँसते हुए बोली"तुम्हारे आगे कहते मुझे लज्जा आती है। हे देवि, तू मुझे अभयदान दे, तो मैं अपनी सारी कहानी कह सुनाऊँ ?" तब अभया ने कहा- "ले, मैंने तुझे अभय दिया। देख लिये जाने पर भी अपना चित्त क्यों छिपाती है ?' यह वचन सुनकर कपिला ने उत्सुकता से अपनी गुप्त बात छिपाई नहीं, और अभया को उत्कंठा पूर्वक कही। ११. कपिला का मर्म-प्रकाशन व रानी का उपहास इस मनोरमा के कान्त के गुणों को सुनकर मैं उस पर परोक्ष राग से अनुरक्त हो गई। तब मेरी सखी उसे आगे जाते हुए जानकर एक बहाने से उसे मेरे पास लिवा लाई। जब वह वणिग्वर रतिगृह में प्रविष्ट हुआ, तब मैंने उसे हाथ पकड़कर प्रेमपूर्वक कहा-“हे प्रभु, एक बार मुझसे रमण कीजिये व प्रज्वलित होती हुई मेरी मदनाग्नि को शान्त कीजिये ।" तब उसने झट मुझसे कहा-“मैं तो नपुंसक हूँ।" मैंने तुरन्त उसका हाथ छोड़ दिया और मुझे बड़ी विरक्ति हुई। इस प्रकार जब कपिला ने अपनी गुप्त बात कही, तब अभया हंसकर बोली-"उस देश की बात रहे, जहां तू भी छैलों के बीच ऐसी बातों में पड़ गई। उस अवलोकन की भावशुद्धि ही क्या जिसके द्वारा बोली से ही दूसरे की बुद्धि का पता न चल सके । मैं तेरी बुद्धि को पांव से कुचलती हूं। मैं अपनी बुद्धि को दूसरे के हृदय में कैसे ठूस दूं? हे सखि, चतुर स्त्रियां अपने प्रियतम को उसी प्रकार वश में कर लेती हैं, जिसप्रकार पैर पनही को पहन लेते हैं। तू उसके बचन से भी धोखा खा गई, ऐसा मैं समझती हूँ। किन्तु जब जलपुज वह गया, तो अब मेरे पालि बांधने से क्या लाभ ? १२. रानी की कुत्सित प्रतिज्ञा हेसखि, वह सुदर्शन जिनधर्मानुरागी, दयापरायण, दुर्व्यसनों से मुक्त, सरस्वती-भूषित व प्रशंसाप्राप्त होते हुए पराई नारियों के प्रति सदा नपुंसक है"। अभया की यह बात सुनकर कपिला कुपित हुई और बोली-“हे देवि, इस संसार में अपनी जन्मजात प्रकृति क्या कोई छोड़ सकता है ? मैं एक हीन, दीन सद्गुणों और सद्बुद्धि से वर्जित ब्राह्मणी हूं। इसी से अपनी कान सुनी बात सुनते मुझे लज्जा (शंका ) नहीं आई। किन्तु तू त्याग और भोगों से युक्त, अन्तःपुर में प्रधान व ललित और सुन्दर राजरानी है। तू अद्वितीय तीक्ष्णबुद्धि Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. १४ ] सुदर्शन चरित २०५ है, ऐसी समस्त पुरजन प्रशंसा करते हैं । किन्तु तुझे बड़ी चतुर तो मैं जानूं, यदि तू उसके मन को चलायमान कर दे ।" इस पर अभयादेवी मदान्ध होकर उछली और गरज कर बोली - "तेरी बातों से मुझे बार-बार हँसी आती है । बुद्धिमान जो कुछ प्रारम्भ करते हैं, वह क्या सम्पन्न नहीं होता ? बहुत कहने से क्या ? मैं इस कौतुक को करके ही रहूँगी। यदि मैं कामदेव सुदर्शन से रमण न करूँ, तो, हे सखि, मैं अपने गले में फांसी लटका कर मर जाऊँगी । यदि मैं इस प्रतिज्ञा का पालन न करूँ, तो, हे कपिले, मैं लज्जित हूँ ।" ( यह शालभंजिका नामक सुप्रसिद्ध छन्द है ।) इस प्रकार प्रतिज्ञा करके अभया अपने मन में चमक उठी, व चलायमान मन से बाबली हुई वहां से आगे बढ़ी । १३. उद्यान की रंगरेलियां विलास और हास्य से उत्पन्न भावों का अनुवर्तन करते हुए, रानी चलती चलती उद्यानवन में पहुँची । वह लोगों के मन में संक्षोभ उत्पन्न करती हुई ऐसी प्रतीत होती थी, जैसे मानों धनुष से छोड़ी हुई कामदेव की भल्ली (फाल ) ही हो । जैसी वह, तैसी और भी सारी नारियाँ क्रीडावन में पहुँचीं। किसी ने मनोहर चमकते हुए आभूषणों से विभूषित अपनी भामिनी से कहा- “तेरे प्रेम के विना मेरा शून्याकार चित्त कहीं भी नहीं रमता । यह समझकर देरी मत कर । इस उद्यानयात्रा को सफल बना ।" कोई अपनी प्रिया को अपने साथ-साथ नहीं ले गया, इससे वह रूठ गई और वह उस महामानिनी को मनाने लगा - " एक बार मेरे अपराध को मत ले ( क्षमा कर ) । इस जन्मभर मैं तेरा ही हूँ ।" कोई कामुक रमणी के पैरों लगता व रमग ( जघनस्थल ) देखने का प्रयत्न करता, तथा पुनः पुनः अपना चित्त समर्पित करता। ठीक ही है, कामासक्त पुरुष क्या-क्या विकल्प नहीं करता ? कोई कृशोदरी अपने कर रूपी सुन्दर पल्लवों, नयनरूपी कुसुमों एवं स्तन रूपी फलों को धारण करती हुई ऐसी शोभायमान हो रही थी, जैसे वह मोहिनी लता ही हो । १४. कानन और कामिनी विलास जहां-जहां एक मत्तगजेन्द्रगामिनी लीलापूर्वक दृष्टि डालती थी, वहां-वहां उसकी आज्ञा जानने की इच्छा से मन्मथ स्थानबद्ध प्रगट हो जाता था । कोई वर्तुलाकार, स्थूल, पीवर और उत्तुंग स्तनों वाली कामिनी दूसरे माहुलिंगों की ओर देखने लगी । कोई अरुण और कोमल रक्तोत्पलों और अपने करतलों में भेद जानना चाहती थी । वहाँ भ्रमर कभी इस ओर, कभी उस ओर जा रहा था, और इस प्रकार कहीं षट्पद भी दुविधा में पड़ा प्रतीत होता था । किसी कामिनी की क्षीणकटि से रोमराजि मदनभुजंगिनी जैसी प्रगट हो रही थी । कोई मुग्धा कभी नील कमलों की माला की ओर देखती थी, और कभी अपनी मरकत मणियों की मेखला को । कोई अपनी गति Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनन्दि विरचित [७. १५. से हंस की भी हंसी उड़ा रही थी ; इसी से तो वह अपने प्रियतम के मन में बस रही थी। किसी अपूर्व धानुष्किनी (धनुर्धारिणी) ने अपने तीक्ष्ण और उज्ज्वल नयनरूपी वाणों से बिंधे हुए (अपने पति) को छोड़कर अबिद्ध को बेध डाला, और इस प्रकार उसने सहसा ही कामदेव को सन्तुष्ट कर लिया। जहां प्रिया जाती, वहीं-वहीं प्रियतम का मन दौड़ता, मानों उसने उसपर कोई अपूर्व मोहन ( जादू ) कर दिया हो। १५. प्रेमियों की वक्रोक्तियां कोई प्रियंगु लताओं से सघन तथा भ्रमण करते हुए भौंरों सहित फूलों की सुगंध से युक्त लतागृह में, परेवा का शब्द सुनकर, लीलापूर्वक अपनी कामिनी से क्रीडा करने लगा। नन्दन वन में नर और नारियां भ्रमण करने तथा परस्पर छलवचनों (वक्रोक्तियों) का आलाप करने लगे। कोई कहता-हे कान्ते, यह अशोक कैसा विकसित (प्रफुल्लित ) हो रहा है? वह कहती-'जो अशोक ( शोकरहित ) हैं, वह अवश्य ही विकसित (प्रसन्न ) होगा।" हे प्रिये, ये श्रीफल (नारियल) कितने मीठे हैं ? हे प्रिय, श्रीफल ( लक्ष्मी के फल ) मीठे होते ही हैं। हे प्रिये, तालाबों पर ( अथवा अपने रसों से ) यह बकों ( पक्षियों ) की पंक्ति उड़ रही है ; प्रियतम, कहीं रसों के साथ व्रत होते हैं ? हे प्रिये, मैं इस विषधर ( तालाब ) को जल्दी से पार कर सकता हूँ; यदि तुम विषधर ( सर्प) हो, तो मैं तुमसे डरती हूँ।' कोई कहता-'देखो, कौवा कांव-कांव कर रहा है; क्या प्रिय तुमने कं के कंठ-नाद सुन लिया हैं ? हे प्रिये, मुझे कतार ( वन ) प्रदेश भाते हैं; हे प्रिय, कता-रत ( प्रियाप्रेम ) किसे इष्ट नहीं होता ? हे प्रिये, तू वकालाप में बड़ी दक्ष है ; तो क्या प्रियतम, तुम से भी अधिक ? हे प्रिये, इस मनोज्ञ, सरस और सुकोमल शल्यकी को तो देखो ? हे प्रिय, ऐसे गुणों से और भी तो विवश होकर सालते हैं ( पीड़ा अनुभव करते हैं )। १६. सरोवर की शोभा कहीं विदग्ध लोगों द्वारा इस प्रकार सुहावनी प प्रिय वक्रोक्तियां बोली जा रही थीं; और कहीं संगीतरस का प्रयोग तथा रसिक देवों का मनोरंजन किया जा रहा था। तभी राजा व अन्य लोगों ने सरोवर की ओर लक्ष्य किया, जो समस्तरूप से मनोहर था। वह अपने नील रत्नों की पालि ( पंक्ति) से अतिविपुल दिखाई दे रहा था। वहां कमलों की सुगंध से भ्रमरपुंज आ मिले थे। देवललनाओं की क्रीडा का कलकल शब्द हो रहा था। मछलियों के पुंज चल रहे थे, मुड़ रहे थे, और उछल रहे थे। कलहंसों के मुखों द्वारा शतदल कमल तोड़े जा रहे थे; तथा डोलते हुए वराहों के झुण्डों द्वारा जड़ें खोदी जा रही थीं। हाथियों की क्रीड़ा से उनके पैरों द्वारा तले ( नीचे ) का मल ( कीचड़ ) चलायमान Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.१८] सुदर्शन-चरित २०७ हो कर ऊपर आ रहा था। कमलों से झड़ी हुई रज से जल पिंगवर्ण हो रहा था। पवन से झकोरी हुई तरंगों द्वारा थलभाग पर आघात हो रहा था, मानों वह उसी बहाने नभस्तल को छू रहा हो। वह सरोवर कुवलयों ( नील कमलों) से शोभायमान, पुंडरीकों ( श्वेत कमलों ) के समूहों से आच्छादित, हाथियों, रथांगों ( चक्रवाक पक्षियों ) तथा सारंगों ( चातकों) से उद्भासित था, अतएव वह एक राजा के समान था, जो कुवलय (पृथ्वी-मंडल ) पर विराजमान प्रधानों के समूह से शोभायमान तथा हाथियों, रथों और घोड़ों से प्रभावशाली हो। (यह विलासिनी छन्द प्रकाशित किया।) उस सरोवर को देख कर लोग हर्ष से कहीं समाए नहीं, मानों देवों का समूह मानस सरोवर पर आ पहुंचा हो। १७. रमणियों की जलक्रीड़ा उद्यानवन में रमण करके चित्त चुरानेवाली नारियाँ सरोवर पर आ पहुँची ; और वहां वे जैसी जल-क्रीडा करने लगी, तैसी वर्णन करने में कोई समर्थ नहीं। वहां सरोवर में प्रवेश करने पर, जल कामिनी के पैर पकड़ता। फिर उसके रमण प्रदेश में विभ्रम करता, जहां तहां लीन होकर दलन करता, तथा त्रिवली को ढककर वक्षस्थल पर चढ़ता, मुख को चूमकर बाल पकड़ता; और इस प्रकार वह जल कामी पुरुष का अनुसरण करने लगा। हाथ से आहत होने पर दूर उछलता, किन्तु आसक्ति से पुनः ऊपर आ पड़ता। काम की तृष्णा से पीड़ित हुआ मानों पुनः पुनः चारों दिशाओं में घूमता। उसे तरुणियों के शरीर का स्पर्श करते हुए देखकर देव सोचने लगे—'यह जल-पुंज धन्य है। किसी के जल में डूबने पर उसके आच्छादित उर ऐसे शोभायमान हुए मानों जल में हाथियों के कुंभ हों। किसी के रमण (जघनस्थल) पर उसके प्रेमी ने दृष्टि डाली, जो वहाँ से चलायमान ही नहीं हुई, जैसे मानों कोई ढोरी ( गाय आदि पशु ) कर्दम में फंस गई हो। किसी के स्तनप्रदेश में वक्र व तीखा नख लगा था, मानों मन्मथरूपी हाथी के कुंभस्थल पर अंकुश का घाव हुआ हो। ___ १८.: जलक्रीड़ा में आसक्त नारियों की शोभा वहां सुन्दर ओठों रूप ऊर्ध्वपत्रवाला, दाँतों की कांतिरूप केशरयुक्त, सुगंधी जिह्वारूपी मकरंद से भास्वर, चंचल नेत्रों रूप भ्रमणशील भौरों सहित तथा सुन्दर मित्रों रूप मित्र (सूर्य) से विकसित कामिनी का मुखरूपी कमल शोभायमान हुआ। कहीं कोई तरुणी अत्यन्त तरलता से मछली के समान सुन्दर कमलों के मधु के लोभ से भ्रमर-पुंज द्वारा आश्रित जल में तैरने लगी। कहीं कोई अपने लात हाथ और पैर प्रगट करने लगी, और वहाँ भ्रमरगण उन्हें कमल समझकर एकत्र हो पड़ने लगे। कोई केशर के रस से लिप्त अपने स्तनकलश दर्शाने लगी, और इस प्रकार प्रेम से पराधीन प्रियतम के मन को हर्षित करने लगी। कहीं प्रिय अपनी प्रिया के मुख Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ नयनन्दि विरचित [७. १६की सुगंध का अनुसरण करता हुआ हर्ष से दशों दिशाओं में अपने हस्तकमल फेंकने लगा। और कहीं वह प्रिया भी अपने सिर के सघन केशभार को दृढ़ करके अपने हाथों में जल ले उसके उरस्थल को भरने लगी। कहीं कोई आवेग से उछलकर निर्मिमेष अपनी प्रिया के अधर का पान करने लगा, जैसे मधुकर कमलिनी का रस पीता है। कहीं कोई रमणी वहाँ अपने प्रियतम का स्पर्श पाकर रोमांचित हुई अपने मन की उत्कंठा का परिहरण करती। कहीं उसके शरीर के संघर्ष से जल में गिरे हुए मणिकटक ऐसे शोभायमान हुए, जैसे मानों चन्द्र और सूर्य आकाश में चमक उठे हों। (यह दिणमणि छन्द है)। जलक्रीड़ा करके लोग सरोवर से बाहर निकले। तब तरुणियों से युक्त अभया रानी अपने शरीर को आभूषित करने लगी। १९. अभया रानी का साज-शृंगार अभया रानी के भाल प्रदेश में चमेली की कली पर आसक्त विचित्र भ्रमर लिखा गया। उसके कपोलपट पर आम्रमंजरी से युक्त कस्तूरी की बेल लिखी गई। उसके कानों में चमकीले कुंडल पहनाए गए, मानों राहु के भय से चन्द्र और सूर्य मंडल उस नखरूपी मणियों की किरणों से गगन को उद्योतित करनेवाली मृगनयनी की शरण में आकर प्रविष्ट हुए हों। उसके स्तनों के ऊपर हार लटकने लगा, मानों आकाश गंगा का प्रवाह कल्लोले ले रहा हो; अथवा मानों वह भावों का निधान कामदेव का पाश हो ; अथवा मानों वसन्त लक्ष्मी का हिंडोला हो। स्तब्ध स्तनों के आगे लोटता और नमता हुआ भी वह हार गुणवान होने पर भी मध्य आशय ( कटि प्रदेश) को प्राप्त नहीं कर पाता था। मेखला ने, जो हुताशन का सेवन किया. इसीसे उसके नितम्ब को पा लिया। पैजनों की जोड़ी झुनझुन शब्द करती हुई हंसकुलों को सन्तुष्ट करने लगी; मानों घोषणा कर रही हो कि मैंने कुंकुम से लिप्त, दुर्लभ और अत्यन्त भला चरणयुगल पा लिया। हे श्रेणिक राजन्, बहुत कहने से क्या, सब लोग सन्तुष्ट व नयनंदित होकर, देवों को मोहित करनेवाले नगर में लौट आये। इति माणिक्यनन्दि विद्यके शिष्य नयनन्दि द्वारा रचित, पंचणमोकार फल को प्रकाशित करनेवाले सुदर्शनचरित में सुदर्शन का विलास, कपिला ब्राह्मणी का छल, वसन्त समयागम पर जिस प्रकार प्रतिज्ञा का संबंध प्राया, वन में जलक्रीडा व अभयादेवी का शरीर-शृङ्गार, इनका वर्णन करनेवाली सप्तम संधि समाप्त । ॥ संधि ७॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ८ १. राजमन्दिर की शोभा ___कोमल-पद, उदार, छंदानुवर्ती, गंभीर, अर्थसमृद्ध तथा मनोवांछित सौन्दर्य युक्त कलत्र व काव्य इस संसार में किसी ( सौभाग्यशाली ) को ही प्राप्त होता है। पूर्व में सरस्वती ने सुदर्शन-चरित्र को कवीन्द्रों से गुप्त करके रखा था, इसीलिये कि नयनों का आनन्द प्राप्त करनेवाले नयनन्दि कवि होंगे, जो सुदर्शन चरित्र की रचना करेंगे। सुलक्षणों से युक्त, अलंकारों से आभूषित और कांतियुक्त अभयादेवी जहाँ देखो वहाँ ही ऐसी प्यारी दिखाई देती थी, जैसी सुकवि द्वारा रचित कथा। वह अभयादेवी क्रमशः लौटकर राजमंदिर में आई, जो वायु से कंपित ध्वजपताकाओं से लहलहा रहा था; जो प्रवालों और इन्द्रनील मणियों के जाल से विचित्र दिखाई देता था; जो सुन्दर तारों, हारों, कुन्द-पुष्पों व चन्द्र के समान शुभ्र था; जो विचित्र स्तम्भों व सुवर्ण-भित्तियों से जगमगा रहा था; जहाँ मधुर धूम की गंध के लोभी भ्रमर भ्रमण कर रहे थे, जो अपनी अनेक कौतूहलपूर्ण रचनाओं से देवों को भी मोहित कर रहा था; जो गवाक्षों और मत्तवारणों ( दालानों) से सुशोभित था; जो रुनझुन करती हुई घंटियों के गुच्छों से आच्छादित था; जहाँ चिकने मोतियों की मालाएँ लटक रहीं थीं; जहाँ हँस के पंखों के विशाल गद्दे बिछे हुए थे; जो पढ़ते हुए शुक-सारिकाओं से मनोहर था; जो अपने मणियों की प्रभा से सूर्य की प्रचुर किरणों की प्रभा को भी जीत रहा था; जो अनेक प्रकार के पुष्पों की गंध से सुन्दर था; तथा जो अपनी उत्तुगता के माहात्म्य से मंदर (पर्वत) को भी जीत रहा था। (यह वसंतचत्वर छंद है)। वहाँ क्षुधारहित, शिथिलांगी तथा नष्टचित्त ( अनमनी) एवं कांतिहीन अभयादेवी को पंडिता ने ऐसी देखा, जैसे पुताई से रहित, जर्जरभित्ति, जीर्णचित्र, व शोभाहीन पुरानी देवकुटी। २. अभया की विरह-वेदना उसे देखकर सद्गुणों से सम्पन्न पंडिता ने दौड़कर पूछा--"हे पुत्रि, तू बिस्तर पर क्यों पड़ी हुई है, और ऐसी उन्मनी-दुर्मनी क्यों दिखाई देती है ? इससे मुझे घनी वेदना होती है ।" यह सुनकर उस नरेन्द्र-पत्नी ने कहा-“हे पंडिते, जहां तुमसे छुपी कोई बात नहीं, वहां मैं तुमसे क्या कहूँ ?" तब पंडिता ने कहा-- "मुझसे क्यों छिपाती है ? मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है, तू कह तो सही ?" तब अभया बोली--"मैं तुझसे छिपाती नहीं हूं। पंडित सुन। मैं अपने अन्तरंग की बात कहती हूं। यदि मैं सुदर्शन का प्रेम पा सकी तो मदन मुझे पीड़ा नहीं २७ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० नयनन्दि विरचित [८. ३पहुँचायेगा। और यदि उस सौभाग्यशाली का समागम नहीं हुआ, तो, हे माता, मैं जी न सकूँगी, यह निश्चित है।" तब उस बुद्धिमती पंडिता ने दोनों हाथों से अपने कान ढाँकते हुए कहा--"हे पुत्रि, जो कुछ तूने कहा, उसपर में थुथकारती हूँ। मरे वह जिसे तू सुहाती न हो। तू तो तबतक जीये, जबतक यह पृथ्वी है। किन्तु वह वणिग्वर तो बुद्धिमानों में श्रेष्ठ है, जिनेन्द्र के चरणकमलों का भक्त है, तथा पंच अणुव्रत आदि शुभ श्रावकव्रतों को दृढ़ता से धारण करता है। ३. पंडिता का रानी को सम्बोधन जो सम्यक्त्वरूपी रत्न से अलंकृत व लक्ष्मीरूपी प्रणयिनी से आलिङ्गित है, तथा जो अपयश के काम को दूर से ही त्यागता है, वह पराई स्त्री को कैसे स्वीकार करेगा ? अनुराग उसी से करना चाहिए जो उसे माने। किन्तु जो अनुनय करनेवाले की अवहेलना करे, तो जिस सोने को पहनने से कान टूटें, उसकी दूर से ही पूजा भली। मैं उसी को स्नेह मानती हूँ, जो पिंचुक के पंखे के समान दोनों ओर रंगा हुआ और मनोरम हो। उस प्रेम से क्या लाभ जो मोरपंख के समान केवल एक ही बाजू सुन्दर व अभिरमणीक है। कहाँ तू , और कहाँ वह ? आलिंगन कैसे बने ? तू दूरवर्ती का स्नेह शीघ्र छोड़ दे ॥" पंडिता का यह वचन सुनकर अभया महादेवी बोली “यहाँ तेरा यह सिखापन और वहाँ सुदर्शन में मेरी रुचि ? ४. रानी का उन्माद ___ हे पंडिते, जिस उपाय से बने, उस उपाय से सौभाग्यशाली को मेरे पास ले आ, और भूमिपर गिरती हुई मुझे बचाले। विरह से मरती हुई के प्रति निष्ठुर क्यों होती है ॥१॥धीरता, बुद्धि, मान, लज्जा, भय और सुमर्यादा तभी तक टिकते हैं, जब तक शरीर को विह्वल बनानेवाला मदन प्रकट नहीं होता ॥२॥ जिसके अदर्शन से दाह और दर्शन से पसीना आता है, उसके ऊपर विरक्त होना, हे माता, यह किससे बन सकता है ? ॥३॥ यदि कोमल बाहु-लताओं के अलिंगन का सुख नहीं भी हो, तो भी यहां अपने सुन्दर वल्लभ के दर्शन मात्र से ही क्या-क्या नहीं मिल जाता ? ॥४॥ प्रियतम ऐसा कोई व्यक्ति होता है कि जिसके बिना कहीं भी चित्त नहीं रमता। जैसा-जैसा सम्बोधन कराया जाता है, वैसे-वैसे हृदय और भी अधिक अनुरक्त होता जाता है ॥५॥ जिसके श्रवण मात्र से, हे माता, हृदय में संतोष होता है, उसके साथ संबंध से न जाने कितना सुख प्राप्त होगा ॥३॥ परस्पर न मिलनेवाले तथा एक दूसरे से दूर स्थित व्यक्तियों में भी स्नेह देखा जाता है। यद्यपि सूर्य आकाशतल में है, तो भी इस पृथ्वी पर नलिनी को उसका सुख मिलता है ॥७॥ अभया का बचन सुनकर, पंडिता बोली-हे पुत्रि, जो कार्य खूब सोच-बिचार पूर्वक किया जाता हैं, वह सब प्रकार सुन्दर होता है। जो Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.६] सुदर्शन चरित २११ बात दीर्घकाल तक सुखदायी हो, भले प्रकार बिचार ली गई हो, व अति श्रेष्ठ हो, उसका व्यतिक्रम ( उल्लंघन ) नहीं करना चाहिए। ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये जो पश्चात्ताप उत्पन्न करे। ५. पंडिता का रानी को पुनः हितोपदेश उत्तम जाति और कुल में उत्पन्न एवं गुणयुक्त कुलपुत्री का एक ही पति होता है, जो देवों और ब्राह्मणों द्वारा दिया गया है; भले ही वह धनविहीन हो, बहुत रोगों से ग्रसित हो, पङ्गु व ठूठा हो, दुर्बल व दुर्गन्धी हो, चाहे क्रूरचित्त, चिड़चिड़ा, बहरा व अन्धा हो। उसे छोड़कर दूसरा चाहे बड़ा लक्ष्मीवान हो, चाहे सुरेन्द्र हो अथवा स्वयं मकरध्वज हो, तो भी वह महासती द्वारा वर्जनीय है। सती स्त्री को भय, दाक्षिण्य व लोभ नहीं करना चाहिये। गृहकमे में, सन्तान के पालन-पोषण में, पति-प्रेम में, तथा देह को सजाने में स्त्री अपनी इच्छानुसार चल सकती है। किन्तु इन बातों को छोड़कर और स्वेच्छाचरण स्त्री के लिए निषिद्ध और विरुद्ध है। देखो, अमृता नाम की महादेवी, परपुरुष में अनुरक्त होने के कारण कोढ़ से सड़ी और नरक को गई। और भी स्त्रियां बहुत अनर्थकारी और बहुत अपयश की भाजन हुई हैं, जिनको कौन गिन सकता है ? तू उनके मार्ग से मत चल । स्वर्ग को छोड़कर, नरक की वांछा क्यों करती है ? वही खाना चाहिये जो पच जाय व अंगों व उपांगों को स्वास्थ्यप्रद हो। इसके अतिरिक्त मुझे इस बात पर हँसी आती है कि घर में ऋद्धि होते हुए भी भीख मांगते फिरा जाय । तेरा पति त्रिभुवन में सुप्रसिद्ध है, और ऐसा सुन्दर है जैसे मानों प्रत्यक्ष मकरध्वज ही हो। ( पंडिता के इतना कहने पर भी ) अभया महादेवी केवल हँसकर बोली-जो तूने हितकारी बचन कहा, उस सबको, हे माता, मैं भले प्रकार जानती हूं। ६. रानी का प्रत्युत्तर मैं जानती हूं कि वह वणिग्वर बड़ा गुणवान है व पराई युवतियों से विरक्त है। किन्तु, हे माता, मेरा हृदय और कहीं लगता ही नहीं है।॥१॥ मैं भी उपाख्यान ( उपदेशात्मक दृष्टान्त ) जानती हूं। तू क्या बहुत बतलाती है ? हे अम्बे, दूसरे को उपदेश देने में कौन पंडित नहीं है ? ॥२।। मैं जानती हूं कि कुलपुत्रियों के लिए संसार में एक अपना पति ही सेवन करना योग्य है। परन्तु, हे माता, मैं क्या करूँ, उसके ऊपर मेरा मन गड़ गया है ॥३॥ में जानती हूं कि परपुरुष के ऊपर आसक्ति नहीं करना चाहिए, किन्तु कितना ही पुनः-पुनः कहो, भावी अति दुर्लध्य है ॥४॥ जानती हूं कि मेरा कान्त मकरध्वज के समान सुन्दर है, किन्तु, हे माता, मेरे मन में तो सुदर्शन की बाय लग गई है ।।५।। जानती हूं कि तूने मुझ मोहाकुल को हित और मित शिक्षा दी है। किन्तु मैंने आज उपवन को Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ नयनन्दि विरचित [८.७जाते हुए एक बड़ी प्रतिज्ञा की है ॥३॥ कपिला के साथ बातचीत करते हुए वहां मैंने ऐसा कह डाला है कि यदि मैं सुदर्शन का रमण न करूं तो निश्चय ही मर जाऊँगी। यह सुनकर पंडिता ने हँसकर कहा-एक खीले के लिए देवालय का नाश कर डालना उचित नहीं। आवेग में आकर शील को छोड़, जननिन्द्य-कार्य नहीं करना चाहिये । उत्तम सुवर्ण के कलश पर क्या खप्पर ( ठीकरा ) का ढक्कन दिया जाता है ? ॥६॥ ___७. पंडिता द्वारा शील की प्रशंसा __ अन्य दिव्य आभरणों के पास में शील भी युवतियों का मंडन कहा गया है। दशानन जिसे हरकर ले गया, पुराणों के अनुसार, वही सीता अग्नि द्वारा जलाई नहीं जा सकी। उसी प्रकार शील में सुदृढ़ अनन्तमती, खग व किरात के उपसर्ग से बच गई। रोहिणी तीव्र जल की धारा में पड़कर भी शील के प्रभाव से नदी द्वारा बहाई नहीं गई। नारायण, बलदेव, चक्रवर्ती तथा तीर्थकरों की माताएँ आज भी त्रिभुवन में विख्यात हैं। वे सब शीलरूपी कमलसरोवरों की हंसिनी थीं। अतएव नागों, मनुष्यों, विधाधरों और देवों द्वारा प्रशंसित हुई। हे माता, जलकर राख का ढेर हो जाना अच्छा, किन्तु मदन के उन्माद से उत्पन्न कुशील ( दुराचार ) अच्छा नहीं। शीलवान की बुधजन सराहना करते हैं। शील से विवर्जित मनुष्य किस काम का? ऐसा जानकर, हे महासती माता, शील का परिपालन करना चाहिये। नहीं तो, हे देवि, लाभ की अभिलाषा करते हुए तेरे मूलधन का छेद ( विनाश ) हो जायगा ।।। ८. स्त्री-हठ दुर्निवार है शील से रहित होने पर तेरा लोगों में कर्ण-कटु 'हाय, हाय' का कोलाहल ही उठेगा। शीलविहीन की राज्यश्री चली जायगी। शीलविहीन का मरण होगा। यह सुनकर अभया महादेवी ने रोष से प्रज्वलित होकर कहा-"परोपदेश देने में सब कोई बड़ा ज्ञानी और सयाना बन जाता है। बहुत कहने से क्या ? यद्यपि मेरा बड़ा हाहाकार ( धिक्कार ) होगा, यदि दुर्लभ सम्पत्ति चली जाय, और मेरा मरण भी हो जाय, तो भी, हे पंडिते, किसी के कहने से मैं अपनी बात नहीं छोडूंगी। मैंने जो प्रतीज्ञा की है, उस पर मैं अपने को दृढ़ रक्खूगी। सुदर्शन के वियोग में मेरा मन झूर रहा है। क्या दूध की अभिलाषा को कांजी पूर्ण कर सकती है ? अतएव वह सुन्दर व विदग्ध सुदर्शन अवश्य ही यहाँ लाया जाय । पैर भले ही जल जाँय, किन्तु हृदय तो न जले। यदि किसी प्रकार प्रिय का समागम नहीं किया जा सका, तो निस्सन्देह शीघ्र ही मेरा मरण हो जायगा।" यह सुनकर पंडिता विचारने लगी कि संसार में 'गोह की पकड़' सुनी जाती है; किन्तु स्त्री का ग्राह (हठ ) उससे भी बड़ा है, जिसके कारण समस्त सचराचर जगत दुःखी है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.११] सुदर्शन-चरित २१३ ९. भवितव्यता टल नहीं सकती इस संसार में गीध श्मशान से पृथक् नहीं हो सकता। भौंरा पङ्कज पर बैठे बिना नहीं रह सकता। तुम्बर और नारद का गीत छूट नहीं सकता। पण्डित लोगों का विवेक भ्रष्ट नहीं हो सकता। दुर्जन का दुष्ट स्वभाव छूटता नहीं, और निर्धन के चित्त का विषाद दूर होता नहीं। महाधनवान का लोभ नहीं छूटता। यम की मारने की बुद्धि नष्ट नहीं हो सकती। यौवन में अभिमान आये बिना नहीं रहता, और वल्लभ में चिपटा हुआ चित्त हट नहीं सकता। महान हाथियों का अँड विन्ध्य पर्वत को नहीं छोड़ता। सिद्धों का समूह मोक्ष से हटता नहीं। पापी के पाप का कलंक मिटता नहीं। कामी के चित्त से काम छूटता नहीं। इसी प्रकार इस रानी का दुराग्रह छूटनेवाला नहीं। ( यह मौक्तिकदाम छंद है ) अथवा जो कुछ, जिस प्रकार, जिसके द्वारा, जहाँ अवश्य होनेवाला है, वह उसी प्रकार, उसी देहधारी के द्वारा, वहीं पर एकांग रूप से घटित होकर ही रहेगा। १०. दुर्भावना की जीत वार वार कितनी चिंता की जाय और कितना वार वार झुरा जाय ? इस वसुधाधिप पत्नी ( राजरानी ) का दोष भी क्या है, जबकि त्रैलोक्य ही भवितव्यता के अधीन है ? तो लो, मैं भी इस शरीर-लावण्य के वर्ण से शोभायमान इस सुन्दरी की अभ्यर्थनानुसार करती हूँ। जिसकी अनुचरी होकर रहना, उसी की इच्छानुसार चलना भी चाहिये । ऐसा सोचकर फिर पण्डिता ने कहा-हे सुन्दरि, धैर्य धारण कर, जबतक मैं जाकर उस उत्तम वणिक् को लेकर आती हूँ। वह तेरे उर पर लटकता हुआ हार बनकर रहे। ऐसा कहकर पण्डिता वहाँ गई, जहाँ प्रजापतियों ( कुम्हारों) के घर थे। वहाँ जाकर उसने एक चक्का चलाने वाले कुम्हार से कहा कि मुझे मिट्टी के अच्छे सात पुतले बना दे। आज रात को अभयारानी अपने कामदेव व्रत को सफल करेगी, और उसके माहात्म्य से वह अपने दुर्लभ मनोवांछित फल को प्राप्त करेगी। ११. पंडिता द्वारा पुतलों की कल्पना __ तब उस चक्र चलानेवाले कुम्हार ने पुतले बनाये और उन्हें पण्डिता के आगे लाकर रखा। वे ऐसे प्रतीत होते थे, जैसे मानों ब्रह्मा ने स्वयं उन्हें घड़ा हो। मानों स्वर्ग से सात सुर आ गिरे हों। वे सातों मानों हर्षितांग होकर खेल रहे हों। मानों सातों चल रहे हों, डोल रहे हों, व भ्रमण कर रहे हों। सातों मानों रंगरेलियाँ कर रहे हों, मानों थिरक रहे हों। सातो मानों कनखियाँ ले रहे हों, हँस रहे हों। सातों मानों हाथ से हाथ पीट रहे हों। सातों मानों ज्ञान का विचार कर रहे हों; गुन रहे हों। सातों मानों अभया के विकल्प को जान रहे हों, और सातों मानों अपना सिर धुन रहे हों। सातों मानों वणिक् के Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ नयन्दि विरचित [८. १२ आगमन को जान रहे हों, और सातों ही मानो उसके गुणों की स्तुति कर रहे हों। सातो मानों अभया पर हाहाकार ध्वनि कर रहे हों, और सातो मानों उसके मरण की रट लगा रहे हों। उन सातों पुतलों को अपने घर लाकर पण्डिता ने शंका छोड़ वस्त्र से किस प्रकार ढंककर रख दिया, जिस प्रकार समस्त दोषगुणों के द्वारा ढंक दिये जाते हैं। १२. द्वारपालों से संघर्ष फिर पण्डिता चुपचाप अपने घर में रही। प्रतिपदा का दिन आने पर उस विदुषी ने प्रसन्न मुख होकर सहसा एक पुतले को संचालित किया। मंद मंद चलते हुये, स्थान स्थान पर उसे रखते हुए, और इस प्रकार सन्ध्या का समय करते हुये वह राजप्रसाद के प्रथम द्वार पर पहुँची। वहाँ यष्टिधारी पहरेदार ने उससे पूछा-'यह क्या है ?' तब पण्डिता ने लाल आँखें करके रोष प्रकट करते हुए कहा-'इस चिंता से तुम्हें क्या ?' इन वचनों से रक्षपाल कुपित हुई और पण्डिता की ओर भृकुटी तान कर बोली-'एक तो तूं बिना पूछे प्रवेश कर रही है, और दूसरे पूछने पर कोप करती है। अपना कोई गुप्त कार्य रचने के हेतु प्रवेश करते हुए तुझे क्या हो गया है ? यदि इस रचना ( कार्य ) से कोई दोष ( अनिष्ट ) उत्पन्न हुआ, तो राजा हमें दण्ड देगा।" यह कहकर प्रतिहारियों ने प्रवेश करती हुई पण्डिता का उपरना ( ओढ़नी) इस प्रकार खींच लिया, जैसे पूर्वकाल में सगर के पुत्रों ने क्रोधित होकर गंगा के प्रवाह को खींचा था। १३. द्वारपालों को पंडिता की धमकी इस पर पंडिता ने उस पुतले को फोड़ डाला, और दंभ से लाल आँखें करके कहा-"आज देवी अपने गृह में पुतले को सजाकर उसको जगानेवाली थी। तुमने इस पुतले को फोड़ डाला। अब कल तुम सब गर्वीले द्वारपालों के सिर कटवा डालूँगी। अब तुम्हारी रक्षा कोई नहीं कर सकता, चाहे वह बुद्ध या सिद्ध खगेन्द्र (गरुड़ ) हो, या स्कन्द ( कार्तिकेय ), इन्द्र या देववृन्द, वह यक्ष हो चाहे राक्षस, चन्द्र, सूर्य, राजा, नाग अथवा क्रूर काल। भले ही वह नारायण हो, या ब्रह्मा ( स्थविर ), अथवा लम्बोदर ; अब किसी के द्वारा भी तुम्हारी रक्षा नहीं हो सकती।" यह सुनकर चित्त में भयभीत होकर उन्होंने सिर नवाते हुए कहा"हमारी ऐसी दुर्दशा कराना उचित नहीं। (यह कामावतार छंद कहा गया है) बहुत वचन-विस्तार से क्या, अब तू जब अगली बार अपना पुतला लाएगी, तब यदि मैं अंगुली भी उठाऊँ, तो तू रोष करना।" १४. द्वारपालों का वशीकरण द्वारपालों का यह वचन सुनकर बुद्धिमती पंडिता शान्त हुई और बोली"क्या राजनीति मैं नहीं जानती, जो मैं कोई लोकविरुद्ध वस्तु लेकर आऊँगी ? Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. १६] सुदर्शन चरित तुमने मुझ पर यों ही गर्जना की, तथा एक अनाथ व दीन के समान मुझे लज्जित किया। और फिर दंभ करके मुझे मना रहे हो। सिर काटकर उस पर अक्षत फेंकने से क्या लाभ ? यद्यपि तुमने बहुत अयुक्त कार्य किया है, तथापि एकबार मैं तुम्हें सर्वथा क्षमा करती हूँ। अपने स्वामी के चरणकमलों के अनुरक्त, हे पुत्रो, तुम दीर्घायु हो। तुम्हारा सिर अमृत से सींचा जाय और तुम्हें दिनोंदिन राजा का प्रसाद प्राप्त हो।" इसी क्रम से पंडिता ने सातों मणिसार द्वार अपने वश में कर लिए। इसी बीच यहाँ पाप-मल का नाश करनेवाला सुदर्शन सेठ अष्टमी के दिन मुनि को नमस्कार करके, उपवास ले, एवं समस्त प्रारम्भ का परित्याग करके, शुद्धमन होकर श्मशान की ओर चला। किन्तु उठते समय उसका वस्त्र फँस गया, मानों पुनः पुनः उसका निवारण कर रहा हो कि तू उपसर्ग के योग्य नहीं है। १५. सुदर्शन को अपशकुन हुए किसी के मुख से वचन निकल पड़ा—'कहाँ जा रहे हो। एक तरफ किसी ने छींक दिया। एक तमाल को भी जीतनेवाली ( अत्यन्त काली ) स्त्री जिसके सिर के बाल छूटे हुए थे, टकरा गई। पीछे से कुत्ता रुष्ट होकर उसके वस्त्र का अश्चल खींचने लगा। फिर उसके दाहिनी ओर गधा आ खड़ा हुआ। फिर उसने एक निकृष्ट कोढ़ी को आते देखा। आगे एक उद्धत काला सांप मार्ग काट कर निकल गया। सम्मुख चलस्वभावी दुर्गन्ध वायु आई। कुछ दूर पर एक कांटों के झाड़ पर रिष्ट ( कौवा) किटकिटाता हुआ बैठा दिखाई दिया। बाँई ओर एक शृगाली कर्कश स्वर से फेकार करती हुई बैठी थी। ऐसे तथा और भी अनेक अपशकुन उसे मार्ग में पुनः पुनः दिखाई दिये। तथापि व्रत में अत्यन्त आसक्त-मन होते हुए वणीन्द्र ने उन सबकी उपेक्षा की। १६. श्मशान का दृश्य चलते-चलते सुदर्शन श्मशान में पहुँचा, जहाँ कुत्ते घुर्राते हुए भिड़ रहे थे। जहाँ नाना शरीरों का मांस पड़ा हुआ सड़ रहा था। जो घू घू करते हुए घुग्घुओं से अमङ्गल रूप था। जो शृगालियों द्वारा छोड़ी हुई फेक्कारों से भीषण था। जहाँ किलकिलाते हुए बैतालों का कोलाहल हो रहा था। जहाँ प्रज्वलित अग्नि की ज्वालाएँ उठ रही थीं। जहाँ शाकिनियों का संकेतयुक्त भाषण हो रहा था। जहाँ पिशित ( मांस ) के लाभ के लिए गीध चक्कर लगा रहे थे। जहाँ मृतकों के केशों के ढेर लग रहे थे। जहाँ योगियों की हुङ्कार ध्वनि सुनाई दे रही थी, व मंत्रशक्ति से पर-विद्या का स्तम्भन किया जा रहा था। जहाँ विविध रुण्डों की बहुत से मुण्डों की माला धारण किये हुये कापालिक, मस्तकों की परीक्षा करते हुए घूम रहा था। ऐसे उस श्मशान में पहुँच कर वणीश्वर अपने मन में जिनेश्वर Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ नयनन्दि विरचित [८.१७का स्मरण करते हुये कार्योत्सर्ग मुद्रा में खड़ा हो गया। इतने में ही निशाचरों का दलन करनेवाला सूर्य प्रहरों के व्यतीत होने से, अपनी किरणों का प्रसार करता हुआ भी भवितव्यतावश अस्त हो गया ; जिस प्रकार कि दानवों का दलन करने वाला शूरवीर (अथवा सुर-देव ) भी प्रहारों से आहत होकर, पाँव पसार कर भवितव्यतावश मृत्यु को प्राप्त होता है। १७. सायंकाल का दृश्य __ मित्र ( सूर्य ) के वियोग में मुरझाई हुई नलिनी के पुष्प-कोष का विकास उसी प्रकार नहीं हुआ, जिस प्रकार अपने मित्र (प्रियतम) के वियोग में एक महासती लजित होकर अपना चूड़ाबंध प्रकट नहीं करती। वह अत्यन्त शोक से अपने ललित अंगों को शिथिल और भ्रमररूपी नयनों से युक्त पंकजरूपी मुख को मलिन कर रही थी। उसी के दुःख से दुखित होकर मानों चकवे अपनी चकवियों का संग छोड़कर रह रहे थे। आज भी चकवा उसी क्रम को चला रहा है। इस प्रकार अपनी स्वीकृत बात को कोई विरला ही पालन करता है। कुमुदों के समूह दुर्जनों के समान दिखाई दिये, चूँ कि वे मित्र ( सूर्य या सुहृद ) का विनाश होने पर भी विकसित हुए। स्नान करके श्रुतिधर, लोकाचार से, तथा द्विजवर ( श्रेष्ठ ब्राह्मण ) सन्ध्यावन्दन हेतु सूर्य को मानों जलाञ्जली देने लगे। किन्तु अस्त हो जाने के कारण स्पष्टतः वह उसे पा तो नहीं रहा था। रात्रि का समय हो जाने से नभोमंडल (अन्धकार से ) आच्छादित हो गया, मानों वह मेघमालाओं से विराजित हो गया हो। उस समय आकाश में अपनी विमल प्रभा से युक्त अर्द्धचन्द्र उदित होकर ऐसा शोभायमान हुआ, मानों नभश्री ने लोगों को अपना स्फटिक का कटोरा दिखलाया हो। १८. कामिनियों की काम-लीलाएँ उसी समय नक्षत्रों का समूह भी चमक उठा, मानों आकाश-लक्ष्मी ने पुष्पों का पुंज बिखेर दिया हो। ऐसे समय में स्थूल स्तनोंवाली कामिनियाँ प्रहृष्ट होकर अपने आभूषण धारण करने लगीं। कोई कहती-हे सखी, गुणरूपी रत्नों के खान वल्लभ को मनाकर झट ले आ। कोई अपनी सौत की ईर्षा करती और अपने प्रियतम को खींचकर उसे केशों से पकड़ती। किसी का प्रिय कांत रुष्ट होकर बाहर जाने लगा, तो वह उसे बलपूर्वक अपने हार से बांधकर रोकने लगीं। कोई, जब उसका पति हर्षित होकर आलिंगन के लिये आया, तो वह खेल करती हुई छिपकर खड़ी हो गई। कोई अपने प्रिय का पुनः पुनः आलिंगन कर उसे अपने सघन स्तनों से वक्षस्थल पर चपेटने लगी। किसी की मानिनी के मुख पर दृष्टि पड़ गई, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. २१] सुदर्शन-चरित २१७ मानों सुन्दर कमल पर भ्रमरपंक्ति आ बैठी। कोई सौन्दर्यहीन दुर्भागिनी अपने प्रिय को किसी अन्य पर आसक्त-मन देखकर भूरने लगी कि रे दुष्ट हताश खल विधि, तूने मुझे सुन्दर सौभाग्यशालिनी क्यों न बनाया ? । १९. वेश्याएँ और उनके प्रेमी कहीं सुन्दर शृङ्गार करके गुण्डे वेश्या को देखकर टरटराने लगे। कहीं वेश्या अपने प्रेमियों का अपमान करती, और लंगड़े धनवान का भी सम्मान करती। कहीं एक गुण्डा रतिरमण करके, सन्तुष्ट हो, खोटा दाम देकर लापता हो गया। कहीं दासी प्रेमी के सेवक से संलग्न हो गई, और फिर उसकी कांछ पकड़ कर भाड़ा मांगने लगी। कहीं एक साग-सुन्दर वेश्या अपने हावभावों से प्रेमी का मन हरण करने लगी। इस प्रकार क्रमशः जब अर्द्धरात्रि व्यतीत हो गई, तब चन्द्र मन्द-प्रकाश हो गया- "हाय, यह वणीन्द्र उपसर्ग सहेगा। उस सज्जन की विपत्ति को कौन देखे ?" यही सोचकर मानों चन्द्र अस्त हो गया, और भ्रमर-समूह तथा जंगली भैसे के समान कृष्णवर्ण अन्धकार फैल गया। मानों विधि ने जगरूपी वस्त्र को नीली के रस में डुबा दिया हो; अथवा मानों अभया का अपयश प्रकट होकर दिखाई देने लगा हो । २०. पंडिता का सुदर्शन को प्रलोभन अन्धकार फैला देखकर पंडिता वहां गई जहां सेठों का अग्रणी सुदर्शन ध्यान-योग में स्थित था। वह प्रणाम करते हुए उसके पैरों से लग गई और बोली-यदि तुम्हारे धर्म में जीवदया है, तो तुम उस अनुरागवती, खिन्नगात्री राजपत्नी के जीव की रक्षा करो। हे स्वामी, जिसके द्वारा विरहाग्नि से जलती हुई स्त्री के जीवन की आशा न हो सके, उस मेलापक मंत्र से क्या लाभ ? अतएव देर मत करो। आओ, आओ, शीघ्र चलकर उस उन्मीलित-नेत्र, सुकुमार गात्री का आलिंगन करो। भला कहो तो, जिनेन्द्र सन्तुष्ट होकर भी तुम्हें कौन-सी बात प्रदान करेगा ? लो, आज ही तुम्हारे ध्यान का फल तुम्हें मिल रहा है। तुम मानिनी स्त्री के चित्तरूपी कमल के मित्र (सूर्य-सुहृद् ) हो। ( यह सारीय नाम का छंद कहा गया)। प्रणयसहित, रोमांचित-शरीर, सगुण, सुन्दर चरणों व सुन्दर मुखवाली राजपत्नी अभयादेवी ऐसी शोभायमान है, जैसी जलसहित, कंटीली, राजहंसों को खुब अपने आसपास भ्रमण करानेवाली व पत्रों से युक्त पद्मिनी। २१. अभया के प्रेम का संदेश अभया बिना भूषण के भी बहुत सुन्दर दिखाई देती है। भूषित होने पर तो वह त्रिभुवन में सर्वश्रेष्ठ हो जाती है। कहा जाता है कि अप्सराएँ देवों और २८ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ नयनन्दि विरचित ८.२२ मनुष्यों को मोह लेती हैं । किन्तु वे उसके पैरों में बांधने लायक भी शोभा नहीं पातीं । यदि वह सप्तस्वरयुक्त वीणा बजा दे, तो मुनियों के भी कामज्वर ला देती है । जो अपने रूप से सूर्य को भी स्तब्ध कर देती है, वैसी क्या बिना पुण्य के मिल सकती है ? ऐसी अभया तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रही है। आओ-आओ, वह तुम्हारे उमाह में बैठी है। पंडिता के इतना कहने पर भी सुदर्शन का मन जरा भी नहीं भीगा । क्या नदी के वेग से सागर में क्षोभ उत्पन्न किया जा सकता है ? वहां से लौटकर पंडिता ने नमस्कार करते हुए, जब वह वृत्तान्त सुनाया, तब अभया भय छोड़ बोली- “अब यहां कोई दूसरा उपाय नहीं है । तू पुनः उसके पास जा । यदि वह किसी प्रकार भी आने के लिए तैयार न हो, तो उसे जबरदस्ती उठाकर ले आ; यही मुझे भाता है । मैं उसके साथ पुरुषायित करूंगी। जो बात दैवाधीन है, उसको कौन निवारण कर सकता है ? जो रुचे, उसे अवश ( पराधीन ) होने पर भी अपने वश में करना ही चाहिये । क्या विष के भय से नागमणि छोड़ देना उचित है ? तू क्यों आशंका करती है ? यहां जो कोई करंब ( कड़वी तूंबी) खाएगा, वह, हे माता, लोक में फजीहत होता हुआ स्वयं विडम्बना भोगेगा । २२. पंडिता का सुदर्शन को जबर्दस्ती राजप्रासाद में ले जाना तब पंडिता ने जाकर कामदेव स्वरूप सुदर्शन की आखें झप दीं, और उसे शीघ्र उठा लिया। आती हुई उसे जब किसी ने पूछा, तब उस विदुषी ने उत्तर दिया - राजा की प्रतिमा में अति अनुराग-युक्त हुई अभयादेवी पुतले को जगाएगी । किन्तु वह पुतला भग्न हो गया, अतएव हे पुत्र, मैं स्वयं जा कर यह दूसरा पुतला लेकर आई हूं। जब किसी और दूसरे ने भक्तिभाव से पूछा, तब उसने उसका निरसन कर दिया - तुम्हें इस चिन्ता से क्या ? किसी अन्य ने कहा - हे माता, मुझे कहो तो, तुम इस समय कहां गई थीं ? वह बोली- अरे, कहने से क्या लाभ? मेरे मार्ग में छूत हो गई, हूं-हूं, हे पुत्रो, हटो, दूर हटो। इस प्रकार उत्तर देते हुए, वह वहां पहुंची, जहां पौरद्वार के द्वारपाल थे। फिर उस विदुषी भयरहित होकर प्रासाद के सातों द्वारों में प्रवेश किया । द्वारपाल निश्चल खड़े रहे, मानों उन्हें किसी ने भींत पर लिखा हो । २३. रानी के शयनागार में सुदर्शन का धर्म-संकट लोगों के चित्त को प्रसन्न करने वाले उस राजप्रासाद में प्रविष्ट हो, पंडिता पंडित सुदर्शन को गद्दे पर ला छोड़ा । ऐसे समय में वह राजश्रेष्ठीपुत्र, सज्जनों का आनन्ददायी, देवों और साधुओं की वंदना करने वाला, धर्मरूपी रथ पर आरूढ, धैर्य में मंदर पर्वत के समान स्थिर, ऋद्धि में पुरंदर, तेज में दिनेश्वर तथा बुद्धि से जिनेश्वर, भावना में निष्ठित, कामोत्सर्ग में संस्थित, सुभग व अक्रोधी-सुदर्शन चिन्तन करने लगा - क्या मैं वह प्रेमकांड करूं, जो पंडिता ने बतलाया है ? हाय, हाय, Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. २५ ] सुदर्शन चरित २१६ वह तो बुद्धिमानों के लिए बड़ा निन्दनीय है। उसका तो विचार करना भी बुरा है। जो कोई काम से खंडित नहीं हुआ, वही सराहनीय पंडित है। (यह उहिया नाम का छंद है ) सत्पुरुष का मन गम्भीर होता है। वह विपत्ति में भी कायर नहीं बनता। क्या सुरों द्वारा मंथन के आरम्भ होने पर सागर अपनी मर्यादा छोड़ देता है ? २४. सुदर्शन की धर्म-भावना व भीष्म-प्रतिज्ञा रे निहीन-दीन जीव, तू इन कारणों से पाप का आस्रव करता है :-परिग्रह के अप्रमाण से, मद्यपान व मांस भोजन द्वारा; ज्ञानी, संतों, संयमियों, देवों और साधुओं की निन्दा से; संक्लिष्ट, दुष्ट, ढीठ और क्रूर देवों की वन्दना करने से; कालकूट मिश्रित अन्न का भोजन देने से; वस्तुओं, स्त्री, धन, इष्ट व नष्ट का शोक करने से ; झूठी गवाही, झूठे नापतोल व नकली द्रव्य देने से; काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान और दम्भ की भावनाओं से; दूध में पानी, घृत में तेल व अनाज में धूल के मिश्रण से। इसी प्रकार जहाँ-तहाँ हास्य, रोष व खीज करने से, राजा वैरी, चोर, जार तथा स्त्री की कथा चलाने से; देश, राष्ट्र, ग्राम, सीमा दुर्ग व शैल ( पहाड़ी वन ) जलाने से; स्थूल व सूक्ष्म प्राणियों व जीवों के विदारण से; तथा लोलुप चक्षु, श्रोत्र, घाण, जिह्वा, व स्पर्शेन्द्रियों की प्रेरणा से। इस प्रकार चिंतन करके उस वणीन्द्र ने उत्तम प्रतिज्ञा ले ली। (यह अर्द्धजातिक चित्र नाम का छंद है )। यदि मैं इस अवसर पर यम के आघात से किसी प्रकार उबर (निकल) गया, तो कल दिन होते ही जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट तप ले लूँगा। २५. अभया का प्रेम-प्रस्ताव इस प्रकार, जब सुदर्शन व्रतपूर्ण सुप्रतिज्ञा ले रहा था, तभी राजपत्नी सहसा उसकी ओर देखकर सोचने लगी-'यह शृङ्गारहीन होते हुए भी साक्षात् कामदेव है। यदि यह अपने शरीर को आभूषित कर ले, तब तो समस्त जगत को मोहित कर लेगा; विरहाग्नि से संतप्त मेरा चित्त तो है ही कितना ? फिर वह अपनी स्वच्छ निमीलित आँखों सहित बोली-'तपाये हुए सुवर्ण के सदृश, अपने मुख से चन्द्र को जीतनेवाले, तथा स्त्रियों के चित्त में मद उत्पन्न करनेवाले, हे नाथ, आप क्या सोच रहे हैं ? हे सुन्दर, इस जन्म में तुम अतिपवित्र जिनधर्म में प्रयास करके स्वर्गवास ही तो पाओगे। किन्तु उस सुख से क्या लाभ, जो दुःखपूर्वक प्राप्त हो ? इसलिये लो, तुम इस प्रत्यक्ष रतिसुख का आदर करो। तुम अविचारी मत बनो ।- संसार में वही सार है, जो भोगने में मीठा और सोचने में स्वमनीष्ट ( अपना मनचाहा ) है। दूसरा जन्म किसने देखा है ? जो कुछ कौलागम में कहा गया है, उसको ध्यान में लाओ। हे प्रत्यक्ष कामदेव, तुम देर क्यों लगाते हो। (यह सुन्दर पदपंक्ति युक्त लीलाछन्द है)। हे सुन्दर, Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० नयनन्दि विरचित [८. २६यदि हम दोनों प्रेम से काल व्यतीत करें, तो कहो, उस मनोहर स्वर्ग को प्राप्त करके भी क्या करेंगे? २६. उसके प्रेम को स्वीकार करने के सुख हे सुभग, यदि तू ऐसे मन्दिर की इच्छा करता है, जो शंख, कुंद, चन्द्र, तुषार, हीरा, गौरी व गंगा की तरंगावली के सदृश शुभ्र हो; जो प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठम, सप्तम, अष्ठम आदि अन्यान्य माणिक्य भूमियों की जगमगाहट से समस्त दिशाओं को उज्ज्वल कर रहा हो; जहाँ विविध पुष्प-पुओं की किंजल्क से सम्मिश्रित कस्तूरी, कर्पूर व केशर की आमोद से भ्रमर दौड़ रहे हों, तथा जो चलती हुई स्त्रियों के पैरों के पैजनों के झनकार की ध्वनि से उन्मत्त होकर नाचनेवाले मोरों से उद्भासित हो। यदि तू ऐसी बालिकाओं की इच्छा करता है जिनके बाल भौरों के समान काले हों, जो कुवलय सदृश श्यामल हों; जो मकरध्वज से आलोड़ित, अत्यन्त भोली, किसलय सदृश कोमल, स्तनों के भार से आक्रान्त, चन्द्र की कान्ति को जीतनेवाली तथा वज्र के समान कृशोदरी हों; जो हार लटकाये हुए, लोगों के मन को हरण करनेवाली रति की सहोदरी हों। हे वणीन्द्र, यदि तू ऐसा उत्तम राजकुल चाहता है जहाँ सिर पर विविध छत्र विराजमान हों, जो ध्वजाओं से समाकुल हो, लोगों को सुन्दर दिखाई दे; और जहाँ नित्य उत्सवों द्वारा मंगल कार्य रचा जाता हो। यदि तू मनोज्ञ और चंचल घोड़ों, मद भरते हुए उत्तंग शैल सदृश हाथियों, सुवर्ण और मणियों की किरणों से लावित श्रेष्ठ रथों एवं सेवा में आये हुए, व प्रणाम करते हुए समस्त किंकरों की इच्छा करता है, तो हे सुभग, मेरा उपभोग कर और इस महीतल पर राजा बन। तू उस शंखनिधि के कथानक को सच्चा सिद्ध मत कर । २७. देवों में कामविकार के पौराणिक दृष्टान्त हे सुभग, क्या तूने कहीं यह विख्यात बात नहीं सुनी ? परस्त्रीगमन तो देवों में भी हुआ है। गौरी के परोक्ष में मदनाग्नि से संतप्त होकर हर ( महादेव ) गंगा से रमण करने के लिए कैलाश पर पहुँचे। गोपियों के सौन्दर्य से सँरक्त होकर दनुजारि-नारायण ( कृष्ण ) रति का उपभोग करने के लिए रात्रि में संकेतस्थल पर गये। ब्रह्मा ने तिलोत्तमा अप्सरा के विरह में रीछनी को भी नहीं छोड़ा; उसका भी वन में उपभोग किया। सूर्य ने कुन्ती का अभिगमन किया, जिससे उसे पुत्र उत्पन्न हुआ जो भुवन में कर्ण नाम से सुप्रसिद्ध है। श्री विश्वामित्र ने प्रिया का रमण किया, जिसे देख लेने के कारण उन्होंने चन्द्र को मृगचिह्न के आघात से सकलंक कर दिया। अहल्या के साथ रति में आसक्त इन्द्र को प्रत्यक्ष देखकर गौतम ने उसे सहस्त्र-भग और फिर सहस्त्राक्ष बना दिया। इस समस्त वृत्तान्त को जानकर तू बात मान ले। (यह निस्संदेह मदनावतार छंद है)। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. २६] सुदर्शन-चरित २२१ ऐसे और भी सैकड़ों दृष्टान्त देकर उस हंसगामिनी कामिनी ने नानाप्रकार के उपायों से पुनः पुनः वणिग्वर को क्षोभित करने का प्रयत्न किया। २८. अभया की लुभाऊ काम-चेष्टाएँ वह जनमनोहारी विविध उत्तम आभूषगों को धारण करके उसके निकट आती, भौंहें मरोड़ती, अधर काटती, विशाल सघन स्तन उघाड़ती, और तत्क्षण उन्हें छुपा लेती; नाभि की ओर देखती, पुनः पुनः नीवि-बंधन को शिथिल करती; केश छोड़ती, अंग मरोड़ती, कटाक्ष देती, मुख विकसाती, पांव लगती और फिर आलिंगन करती; धीरे-धीरे नख घट्टन करती, व अधर चाटती; मनमाने अव्यक्त वचन बोलती तथा भले प्रकार चुंबन करती। ऐसी व अन्य नाना प्रकार की काम चेष्टाओं से यद्यपि उसने क्षोभ उत्पन्न करने का प्रयत्न किया, तो भी वह जिनदासी का पुत्र सुदर्शन चलायमान नहीं हुआ और ऐसा स्थिर रहा, जैसे मानो वह काष्ठ का हो गया हो। (यह निश्चय से मदन छंद कहा गया है)। तो भी अभया हटी नहीं। वह नाना प्रकार के उपाय सोचती ही रही, जिस प्रकार स्वगंगा कैलाश के आसपास घूमती रही। २९. अभया की सुदर्शन को भर्त्सना फिर वह रुष्ट हो उठी, और डाँटने लगी-रे दर्पिष्ठ, ढीठ, शिथिल अधरोष्ठ वाले, पिशुन ( शैतान ) के अवतार, रे रे किरात, तूने इतना पुण्य कहां कमाया है, जो तू सन्तोष भर मेरे मुख का चुंबन कर सके ? क्या तूने देवस्थान का, ब्रह्मा या भानु का पूजन किया है, जो तू अपने दांतों से मेरे ताम्रवर्ण अधरबिंब को काटे व नाभि में रति करे ? क्या तूने ऐसा भृगुपात किया है, जो तू नखों से भग्न रति सुखदायी मेरे सघन स्तनों से लग सके ? क्या तूने अन्य जन्म में उत्तम वैष्णव धर्म धारण करके गहन वन का लंघन कर, अपना मथन किया है, व कुरुक्षेत्र का ग्रहण किया है, जो तू , रे हताश, वणिग्दास, मेरे केशों का ग्रहण पा सके ? क्या तूने सैकड़ों दुखों का दलन करने वाले गजकनखल में अखंड पितृपिंड पाड़ा ( दिया ) है, जो तू नृप के चित्त का दमन करने वाले विशाल और रमणीक मेरे रमणस्थान का आरोहण करे ? उसे तू पा ही कहां सकता है ? क्या तू ने रमणीक व घोर तप संचय किया है, जो तू मेरे लटकते हुए हार वाले सुन्दर उरस्थल पर आघात करे ? इसके भी ऊपर अब मैं तुझ से क्या कहूं ? तूं मुक्तभाव से ( धर्म ध्यान का बंधन छोड़ कर ) अपना मुख भी तो देख। ( इसे स्पष्ट चन्द्रलेखा छंद जानो)। मैंने तुझसे साम व भेद नीति से बात की ; तुझे फटकारा भी; तो भी तू कुछ नहीं बोलता। तू ने अपने मन में यह कैसा दृढ़ असा आग्रह किया है, जो तू अभी भी मुझ पर ( काम के ) बाण छोड़ रहा है ? Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ नयनन्दि विरचित [८. ३०. ३०. अभया का अन्तिम प्रलोभन और धमकी अभी भी मैं तुझ पर अनुराग रखती हूं। मैं जन्म भर तेरे पैरों को नहीं छोडूगी। अभी भी तू विषय सुख का उपभोग कर। भला, कह तो, मोक्ष को किसने जाकर देखा है ? अथवा, यदि तू किसी कारणवश आज मेरी अवहेलना करता है, तो ले, कल तेरा कार्य सिद्ध ( समाप्त ) हो। यदि इतना ही ताप मैं तुझे न दं; यदि तुझे सगोत्र क्षय को न पहुंचा दूं, तो में बेचारी अभया नाम ही न रखू ( अर्थात् छोड़ दू)। मैं अब पूर्ववत् पातिव्रत सेवी ( या पति के पदों की सेविका) हो गई । अतः यदि मैं तेरा नाश न कर डालू , तो सब लोगों के देखते हुए मैं अपने आप फांसी पर लटक कर मर जाउंगी। बहुत क्या ? अब मैं स्त्री-ढाढ़स ( साहस ) करके दिखाती हूं। मरकर भी मैं तुझे छोडूगी नहीं। फिर भी मैं तेरा घोर उपसर्ग करूंगी। इस प्रकार पुनः पुनः खूब कहकर वह सुन्दरी अपने शयन पर जा पड़ी। वह राजरानी ऐसी प्रतीत हुई जैसे मानों नागिनी निष्पंद पड़ी हो । ३१. सुदर्शन और अभया को विरोधी मानसिक दशाएं तब यहां सुदर्शन अपने कर्तव्य का विचार करने लगा; उधर अभया सोचने लगी मैं इस मनोज्ञ का रमण न कर पाई। सुदर्शन सोचता, जल जाय यह नारी; अभया सोचती, यह मेरे सुख का शत्रु हुआ। सुदर्शन सोचता, मैं उबर जाऊं अभया सोचती, इस सुन्दर को पकड़ रखू। सुदर्शन कमों के नाश करने की बात सोचता: अभया रति अभिलाषा की बात सोचती। सुदर्शन ज्ञान लाभ की बात सोचता ; अभया सोचती, मेरे अंग में दाह हो रहा है। सुदर्शन मोक्ष मार्ग की चिन्ता करता ; अभया चिन्ता करती मैं भोग न भोग सकी। सुदर्शन विचारता कि मैं कर्म का क्षय करू'; अभया सोचती, मैंने अधर्म किया। सुदर्शन सोचता कि जग अनित्य है; अभया चिन्ता करती कि मेरी मृत्यु आ पहुची। सुदर्शन हृदय में विचारता, रे जीव, तु दुराचारिणी के साहस की अवहेलना कर; तथा अतिशयों और कल्याणकों से युक्त अर्हन्तों की आराधना कर । ३२. सम्यक्चारित्र की दुर्लभता ___ पाताल में शेषनाग का पाना सुलभ है। कामातुर के विरह की दाह सुलभ है। नया मेघ आने पर जल का प्रवाह सुलभ है। हीरों की खान में हीरे की प्राप्ति सुलभ है। काश्मीर में केशरपिंड सुलभ है। मानसरोवर में कमलपंड सुलभ है। नाना द्वीपों में विविध भांड सुलभ हैं। पाषाण से हिरण्य खंड पाना सुलभ है। मलयाचल में सुगंधयुक्त वायु सुलभ है। गगनांगन में तारापुंज सुलभ है। स्वामी का कार्य कर देने पर उसका प्रसाद सुलभ है। इर्ष्यालु व्यक्ति में कपाय सुलभ है। रविकांत मणिद्वारा अग्नि सुलभ है। उत्तम लक्षण शास्त्र Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.३४ ] सुदर्शन-चरित २२३ ( व्याकरण ) में पदों का समास सुलभ है । आगम में धर्मोपदेश सुलभ है । सुकविजनों में विशेष बुद्धि सुलभ है । मनुष्य भव में प्रिय कलत्र सुलभ है । किन्तु बड़ी दुर्लभ है, जिन शासन के अनुसार एक अति पवित्र वस्तु, जिसे मैं पहले कभी न प्राप्त कर सका । उस सम्यक्चारित्र को मैं कैसे नष्ट कर दूँ ? इस प्रकार विकल्प करता हुआ, जब सुदर्शन अव्याकुलचित्त से स्थित था, तब अभया देवी व्याकुल होकर अपने मन में पुनः पुनः सोचने लगी । ३३. अभया का पश्चात्ताप कहाँ वसन्त और कहाँ वह उपवन रहा ? कहाँ नरेन्द्र क्रीड़ा को गया ? कहाँ मैं हर्ष सहित वहाँ को चली ? और कहाँ उस दुष्टा ने हर्ष से उल्लसित होकर वह बात कही ? कहाँ से पंडिता इस मूर्ख को ले आई ? हाय, मैंने इस होते हुए कार्य को नहीं समझा। हाय, मैंने ऐसी भावना भाई जिससे मरण और कर्मबंधन की प्राप्ति होती है । मुझे कपिला ने जब इस ओर प्रेरित किया, तभी पंडिता ने मुझे रोका। मैं इस ( सुदर्शन ) के गुणों को जानती हुई भी निर्गुण होकर इस दुराग्रह में क्यों लग पड़ी ? भले ही कोई अपने गुणों के कारण काम का विषय होने से रुचिकर हो, किन्तु यदि वह अपने वश का नहीं, तो उसे छोड़ देना उचित है; जिस प्रकार कि प्रत्यंचायुक्त धनुष के सदृश बाण भी रुचिकर होता है, तो भी चूँकि वह मुट्ठी में नहीं समाता, इसलिए छोड़ दिया जाता है । इसके पास न खाना सुहाता है और न पीना योंही गले की दाह से मर जाना पड़ेगा । परदारगमन बड़ा विरूद्ध आचरण है, तथा दुस्सह नरक के दुःख का हरकारा है । अतएव जब तक कोई कुछ भी जान नहीं पाया, तब तक इसे ( सुदर्शन को ) वहीं छुड़वा देना उचित है । ऐसा विचार कर घबराहट के साथ अभया महादेवी ने वणिग्वर को चारों ओर से लपेट लिया, जैसे मानों चंदन वृक्ष विष की लता ने वेष्टित कर लिया हो । ३४. अभय का कपट-जाल उसे शीघ्र उठाकर ज्योंही वह चली, त्योंही रात्रि व्यतीत हो गई और सूर्य उदित हो गया । प्रातःकाल हुआ देख वह तुरन्त घबरा उठी और उसने तत्काल उस चरमशरीरी सुदर्शन को अपने शयन पर जा डाला। जिस प्रकार चन्द्रनखा लक्ष्मण से रुष्ट हुई थी, तथा जिस प्रकार पहले धृष्टा वीरवती दत्त ; व जिसप्रकार कनकमाला प्रद्युम्न से क्रुद्ध हुई थी, उसी प्रकार अभया वणीन्द्र के प्रति विकल हो उठी । उसने द्वितीया के चन्द्र के आकार सूचिमुखरूप अपने हाथों के नखों से अपने शरीर को फाड़ डाला । उसके रुधिर से विलिप्त सघन स्तन ऐसे दीखने लगे, जैसे मानों सुवर के कलश केशर से सींचे गये हों। अपने हाथों से छाती पीटती हुई वह हताश यह कहती हुई झटपट उठी - "यह संड Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ नयनन्दि विरचित [८. ३५मुसंडा, परांगना में अनुरक्त-चित्त, महामाया का दिया ( भेजा ) हुआ कहाँ से आ पहुँचा ? अरे देखो, इस बनिये ने मेरे सुन्दर अंगों को नोंच डाला। जब तक यह मुझे मार न डाले, तबतक, हे लोगो, मिलकर दौड़ो, दौड़ो।" ३५. पुरुष और स्त्री का चित्त-भेद ___ज्यों ही अभया ने पुकार मचाई, त्यों ही वणिग्वर सुदर्शन अपने मन में चिन्तन करने लगा-पुरुष अपने चित्त में उमाहा रहता है; और महिला अन्य पुरुष की वांछा करती है। पुरुष अनुरक्त होकर उसके निकट जाता है; तो महिला उसकी ओर वक्रदृष्टि से देखती है। पुरुष खूब गाढ़ आलिङ्गन करता है ; तब महिला का चित्त कहीं अन्यत्र भ्रमण करता है। पुरुष स्नेहपूर्ण सद्भाव प्रगट करता है; तब महिला कपट मिथ्याचारों द्वारा उसका मनोरञ्जन करती है। पुरुष धन लाकर घर में रखता है ; महिला उसे भी चुरा कर रखती है। पुरुष अनेक प्रकार से पूछता है; तो महिला झूठी बातें बनाकर उत्तर देती है। पुरुष अपनी गृहिणी में चित्त लगाता है ; और महिला अपने यार में आसक्त होती है। यदि पुरुष कार्यवश घर छोड़कर कहीं जाता है, तो उतने ही में महिला दुसरे घर में घूम आती है; जैसे गाय हारों ( खलिहानों ) में चरकर आ जाती है। ३६. स्त्री क्या नहीं कर सकती ? यदि गमनागमन करनेवाले पक्षियों का आकाश में, व जलचरों का पानी में चरणमार्ग दिखाई दे जाय; यदि दर्पण में प्रतिबिम्ब किसी प्रकार हाथ से ग्रहण करने में आ जावे; यदि पारे का रस सुई के मुख पर बिल्कुल स्थिर हो जावे; तो ही स्त्री का चित्त अनुरक्त होकर किसी अन्य पुरुष के ऊपर चलायमान न होवे ॥१॥ महिला काम के वश होकर न जाने क्या क्या उपाय करती और कराती है। और जब उपायों में असफल होकर विरक्त हो जाती है, तो स्वयं मर जाती है, मार डालती है या मरवा डालती है। यदि मरण की बात छोड़ दो, तो वह सैकड़ों बहानों से अपने सुहृदों को भी पकड़वा देती है, वह स्वयं को कलङ्कित करती है और दूसरों को कलङ्कित कराती है, एवं बहुत अनर्थ प्रकट करती है। वह अग्नि की ज्वालाओं के पुञ्ज समान प्रज्वलित होकर दूसरों के प्राणों का घात करा डालती है ।।२।। युवती एक नदी के सदृश विषम, वक्र, नीचरत, गहरी, बहुविभ्रम, उभयपक्षों में दूषण लगानेवाली, मन्दगति एवं सलौने (सुन्दर पुरुष व लवण समुद्र) का आश्रय लेनेवाली होती है। वह अग्नि की धूमावलि के सदृश उत्तम घर को मैला करनेवाली तथा साहंकार ( अहंकारयुक्त तथा अंधकारपूर्ण काली) होती है, एवं विषशक्ति के समान मरणकारिणी तथा तलवार की धार के समान तीखी होती है ॥३॥ जिस प्रकार हरिण के सींगों, बांस के मूलों, मंजिष्ठ लता की जड़ों, अंकुशों, सपों और मकरों व डाढ़ों, नदी के बलनों, खलजनों, अश्वग्रीवाओं तथा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ३६ ] सुदर्शन-चरित २२५ शरडों ( करकैटों) की वक्रता छूटती नहीं, उसी प्रकार उनके पास से अधिक जिनकी वक्रता कभी छूटती नहीं, उन स्त्रियों के द्वारा सुरत के बहाने कामी पुरुषों के हृदय (प्राणों ) का तृण के समान विनाश किया जाता है ॥४॥ स्त्री कपटपूर्वक ही चलती, कपट से बोलती वा टेढ़ी भौंहें करती; कपटभाव से अपने स्तन व नाभि दिखलाती, कपट से पुनः पुनः मुस्कराती एवं कपटयुक्त होकर अपने अंग मटकाती है। वह कपट से सैकड़ों चापलूसियाँ दिखाती, कपट से सौगंध खाती, कपट से कहती 'तुम्हीं मेरे वल्लभ हो, और कपट से चित्तका हरण करती है ॥५॥ दृष्टिदर्शन, स्नेह, सद्भाव, उपकार, चाटुवचन, दान, संग, विश्वासकरण, कुलकायें, बड़ाई, विनय, धनक्षय, धिक्कार, मरण इन सभी बातों की मर्यादा से च्युत हुई, तुच्छ, कलुषित व भीषण नारी किस प्रकार नहीं मानती, जिस प्रकार एक छुद्र, मलिन व भयंकर वर्षाकालीन गिरिनदी ॥६॥ काव्य, लक्षण ( व्याकरण , तर्क, निघण्टु, छंद, अलंकार, सिद्धान्त के चरण और करणादि भेद, जीवों के अनेक शुभ व अशुभ रूप कर्मप्रकृति के बन्धन, मन्त्र-तन्त्र व शकुन, ये सभी शास्त्र जाने जा सकते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं; केवल एक स्त्री चरित्र को छोड़कर ॥७॥ घोड़े, गधे, सिंह, व्याघ्र, आशीविष ( अजगर ) व सांप, इनका भी चित्त किसी प्रकार जाना जा सकता है, किन्तु इस पृथ्वी की पीठ पर कौन ऐसा है, जो मिथ्याचार में प्रवृत्त स्त्री के चित्त को अणुमात्र भी समझने में समर्थ हो ? विचित्र ग्रहचक्र, समुद्र का जल, व बालू का पुञ्ज, इनका प्रमाण किसी प्रकार जान भी लिया जाय, तो भी स्त्री का चरित्र जाना नहीं जा सकता ॥८॥ खल, अग्नि, नखीले, सींगोंवाले, व डाढ़ोंवाले पशु, राजकुल, शत्रु, सरिता, मित्र, कपटी, रात्रि, मूर्ख, व्यसनी, ठग व दूत, बहुत क्या, सम्भव है इनका भी विश्वास उत्पन्न हो जाय, तो भी स्त्री का अणुमात्र भी विश्वास नहीं किया जा सकता, भले ही उसमें सहस्रों गुण हों ।।६।। नारी चोर होती है, निर्लज्ज, लोभी और चलचित्त होती है। मायाविनी, साहसी, झूठ की खान, परपुरुष-मोहित व शीलगुण-हीन तथा सद्भाव-द्रोहिणी होती है। उसके ऐसे गुण जानते हुए भी जो कोई उसमें प्रतीति करता है, वह नाना दुःखों को प्राप्त होता है व तिल-तिल काटा जाता है॥१०॥ स्त्री के विश्वास से ही यशोधर मरा, साकेतपुर का अधिपति देवरति राज्य से भ्रष्ट हुआ, तथा नौ सहस्र नागों का बलधारी कीचक भी स्त्री का विश्वास करके प्रनष्ट हुआ। और भी जो कोई स्त्री की बुद्धि पर विश्वास करेंगे, उन सभी के गलकन्दल में यम का पाश पड़ेगा ॥११॥ जिसप्रकार भौहों से, जैसी दृष्टि से तथा जैसे वचन बोलने में स्त्री वक्र होती है, उसी प्रकार वह हृदय से भी वक्र होती है। वह स्वेच्छाचार करके पश्चात् लोगों के बीच बार बार गर्जती है। ढीठ स्त्री झूठ पुकार मचाकर और रोदन करके दूसरे को मरवा डालती है। हाय-हाय, स्त्री रूठकर क्या क्या नहीं करती ? कुछ मत कहो ॥१२॥ (अभया की ) उस पुकार को सुनकर, शूरवीर लोग शीघ्र ही धनुष और बाणों से सज्जित होकर विद्युत् की तेजी से दौड़ पड़े; जिस प्रकार कि गर्जना २९ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ नयनन्दि विरचित [८. ३७करता हुआ, इन्द्रधनुषयुक्त सूर्यप्रभाधारी व विद्यत की चमक को लिये हुये, वर्षाकाल में नया मेघ प्रकट होता है । ३७. राजा को खबर और उसका रोष तब लोगों को दौड़ते हुए देख कर राजा ने पूछा-"क्या कहीं गिरि के समान तुंग मदोन्मत्त हाथी छूट पड़ा है, या कोई महाधनी पुरुष वंदीगृह में डाला गया है, अथवा कोई अभिमानी शत्रु मेरे साथ युद्ध करने के लिए प्रवृत्त हो गया है॥ १॥ अथवा यहाँ कोई नटों का तमाशा हो रहा है अथवा कोई बड़ा कौतुक उत्पन्न हुआ है ?" तब किसी एक मनुष्य ने, नमन करते हुए, राजा को वृत्तान्त सुनाया कि जिस प्रकार सरोवर में घुस कर एक गजपति पद्मिनी का विध्वंस कर डालता है, उसी प्रकार सुदर्शन ने महाराज की अभया देवी को कलुषित किया है ।। २॥ यह सुन कर राजा लाल आखें करके, ओंठ काटता हुआ, नकुए फुलाता हुआ, भाल पर त्रिबली खेंच कर, भौहें मरोड़ कर, शरीर से कांपते हुए, खूब पसीने से भींग कर, भूतल पर हाथ पटक कर, रोषपूर्ण हो, इस प्रकार बोला ।। ३॥ कौन ऐसा है, जो मृगतृष्णिका को पीये, वज्र की सूई को खावे, विष के फूल चबाये, समुद्र की लहरों को सुखा दे, यम की दाढ़ों को तोड़ ले ( अथवा यम की दाढ़ी को नोच ले ) गरुड़ के पंखों को उखाड़ ले; एवं कौन ऐसा बली है, जो छल से व बलात्कार से मेरी प्रिया का उपभोग कर ले ॥४॥ जो कोई अग्नि, सर्प, वैरी, तथा चतुर जार की उपेक्षा करता है, वह दीर्घकाल तक सुख नहीं पा सकता। वह शीघ्र ही बड़ी आपत्ति देखता है। दुष्ट लोगों का निग्रह करना और सज्जनों का पालन करना योग्य है, और यही राजा का भूषण है। ( यह पृथ्वी छंद कहा गया है ) ॥ ५॥ रे रे भटो, जल्दी करो, जल्दी करो; जाओ, जाओ; और अभया को सहारा दो। तथा उस परपुरुष को पकड़ो, पकड़ो, पीटो, और तिल तिल काट कर क्षणभर में मार डालो। ३८. भटों की अपनी-अपनी डींग राजा का यह बचन सुन कर किसी ने अपनी तलवार पर दृष्टि डाली; किसी ने उदार व गुणवती व मुष्ठिप्राह्य कटिवाली उत्तम कलत्र के समान प्रत्यंचा चढ़े हुए धनुष की ओर देखा और उसे अपनी मुट्ठी में लिया। किसी ने अपनी असिधेनुका ( तेग ) को चमचमाया, मानों काल ने अपनी जिह्वा निकाल कर दिखलाई हो । किसी ने कहा-'जिस पर मेरा स्वामी रूठा है, उसकी मैं ओंठ सहित नाक काट डालूगा। कोई बोल उठा-'आज का दिन धन्य है, जो हमारे देव-देव ने हमें प्रेषण ( काम कर दिखलाने का आदेश ) दिया। मैं हाथोंहाथ ( जल्दी-जल्दी ) जाता हूं और इन्द्रजीत के समान उसको मार कर धर देता हूं। किसी ने कहा'मैं भी जाता हूं और जैसा अर्जुन कर्ण से भिड़ा था, वैसा शत्रु से जा लगता हूं।' Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ४१] सुदर्शन-चरित २२७ किसी ने कहा-'मैं अब राम बनता हूं और विट (नकली) सुग्रीव का मान दलन करता हूं। किसी ने कहा-'मेरे लिये ही तो शत्रु पर्याप्त नहीं, योद्धाओं का समूह क्यों भेजा जा रहा है ?' किसी ने कहा-'गर्जना क्यों कर रहे हो, विरला ही कोई ऐसा होता है, जो अपने स्वामी का कार्य सिद्ध कर दिखावे।' इस प्रकार गरज कर, यशलंपटी सुभटों ने दौड़ कर वणिग्वर सुदर्शन को चारों ओर से ऐसा घेर लिया, जैसे कहीं किसी बड़े हाथी को कुत्ते घेर लें। ३९. खबर पाने पर मनोरमा की दशा जब वणिग्वर मार डालने के लिये ले जाया गया, तब नगर में लोगों ने हाहाकार मचाया। किसी ने यह बात उसकी प्रफुल्लकमल सदृश मुखवाली पत्नी को जा कही-“तेरा कान्त राजा की पत्नी के प्रति चूक गया है। इसलिए वह दुःसह मरणावस्था को प्राप्त हुआ है।" यह सुन कर मनोरमा उठती, गिरती, उरस्थल को हाथों से पीटती, आंखों के आंसुओं से स्तनों को सींचती व तन को पसीने के विन्दुओं से आच्छादित करती, मणिमय हारों के डोरों को तोड़ती, मुख की सुगन्धि वायु के कारण एकत्र होते हुए भौरों का निवारण करती, अति दीर्घ और उष्ण श्वास छोड़ती, पवन से आहत लता सदृश कांपती तथा 'हाय-हाय नाथ, यह आपने क्या किया ?' ऐसा कहती हुई, चलते चलते उस स्थान पर पहुंची। उन समस्त भटों की पुनः पुनः निंदा करती हुई मनोरमा ऐसी प्रतीत हुई, जैसी केशग्रहण के समय मन में रुष्ट हुई, रुदन करती हुई पांचाली (द्रौपदी)। ४०. मनोरमा-विलाप ___मनोरमा पुकार मचाने लगी-हाय-हाय नाथ, आपको छोड़ कर मुझे कौन सहारा देगा? हाय-हाय, नाथ-नाथ, जगत् सुन्दर, संपदा में प्रत्यक्ष पुरंदर । हाय-हाय नाथ, जन-वल्लभ, अमरांगनाओं के मन-दुर्लभ । हाय-हाय नाथ, आनन्ददायी, जिनेन्द्रों और महर्षियों का वन्दन करने वाले, हाय-हाय मकरध्वज, हिंसादिक दोषों के निर्लोभी ( त्यागी)। हाय-हाय नाथ, यह क्या सोचा जो आपने जाकर पर स्त्री का सेवन किया ? हाय-हाय नाथ, आपका व्रत भंग हुआ। वज्र के स्तंभ में यह घुन कैसे आ लगा? हाय-हाय नाथ, इस परस्पर विरोधी बात पर मेरे चित्त में भरोसा नहीं होता। मैं जान गई कि समस्त सुर और असुर नपुंसक हैं, जब कि किसी ने भी मेरे कान्त की रक्षा नहीं की। हाय-हाय, मैं किससे कहूं ? . पराये दुःख से कोई भी दुखी नहीं होता। ४१. वह सुख-संस्मरण हाय-हाय नाथ, सुदर्शन, सुन्दर, चन्द्रमुख, सुजन, सलोने, सलक्षण, जिनमति के सुपुत्र, मुझे स्मरण आता है, तुम्हारे प्रथम समागम (दर्शन) के पश्चात् भारी Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ नयनन्दि विरचित [ ८.४२. विरहवेदना ; फिर वह विवाह के समय का पाणिग्रहण और तारामेलन । मुझे स्मरण आता है वह प्रतिदिन का रतिगृह में गाढ़ आलिंगन तथा हाव, भाव, विलास और विभ्रम सहित बोलचाल । स्मरण आता है वह उपवन के बीच सरोवर में की गई जलक्रीड़ा, अनजाने मनोहर अव्यक्त वचन व अधरपीड़न । स्मरण आता है वह नये कोमल पत्रों से युक्त नील कमल द्वारा ताड़न, तथा मुक्ताफलों की छटावलि का बांधना और तोड़ना । स्मरण करती हूं वह सुगन्धि द्रव्यों का विलेपन, अंगों का भूषण, बार-बार का मनाना तथा प्रेम का रूसना । स्मरण करती हूं वह अपना बहुमान से पूरित होकर जल्दी जल्दी चल पड़ना, तथा आपके द्वारा प्रेमवचनों से संबोधित करना और करपल्लव पकड़ना । स्मरण करती हूं सुगन्धि केशरपिंड से अपना पिंगलवर्ण किया जाना तथा भौंरों से युक्त कल्पवृक्ष की मंजरी के कर्णपूर बना कर पहनाये जाना । स्मरण करती हूं अपने सुन्दर कपोलों पर पत्रावलि का लिखा जाना, धीरे-धीरे स्तनों का पीड़न व उत्तम केशों का ग्रहण । इतने पर भी मेरा वज्रमय हृदय फूट नहीं जाता । ( यह सुप्रसिद्ध रासाकुलक छंद कहा गया ) । हाय हाय-हाय रे विधि, दुष्ट, खल, रे तोड़ी (त्रुटित भन ), तेरा नाश क्यों न हो ? तूने मुझे एक निधि दिखलाकर फिर मेरी आँखों को क्यों उपाड़ डाला ? ४२. इधर मनोरमा और उधर सुदर्शन का चिंतन यदि मेघ आकाश में न चढ़ें, यदि सुखे वृक्ष फल देने लगें, यदि मृगों के मारे सिंह मरने लगें, यदि मदन के बाण जिनेन्द्र के मन को हरण कर लें, यदि देव नरक में और नारकी स्वर्ग में, तथा मिथ्यामति त्रिभुवन के अग्रभाग ( मोक्ष ) में जाने लगे; यदि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से समृद्ध सिद्ध भी संसार में उत्पन्न होने लगें, तो ही तू परदारगमन कर सकता है; और हे चरमशरीरी, तू इनका मारा मर सकता है । जैसे जैसे मनोरमा यह कह रही थी, तैसे तैसे सुदर्शन चिन्तन कर रहा था - किसका पुत्र, व किसका घर और कलत्र ? परमार्थ से न कोई शत्रु है और न मित्र । केवल मैंने भी संसार में भ्रमण करते हुए अन्यभव में इन पर प्रहार किया होगा, जिसके कारण ये अपने हाथों में तीक्ष्ण शस्त्र ले, निमित्त पाकर, मुझपर प्रहार करने में लग गये हैं। तीन लोक में कहीं भी अर्जित कर्म का फल दिये विना नाश नहीं हो सकता । ( स्वभाव से तो ) मैं रत्नत्रय से संयुक्त, ऊर्ध्वगति, नानाप्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थों ( परिग्रहों ) से जिनेन्द्र के समान परित्यक्त शुद्ध आत्मा हूँ । ४३. व्यन्तर देव द्वारा सुदर्शन की रक्षा जब सुदर्शन इस प्रकार पुनः पुनः अपने मन में चिन्तन कर रहा था, तभी दर्पोट योद्धा उसपर टूट पड़े। वे कहने लगे- 'ले, अपने इष्टदेव का स्मरण कर ले ।' यह कहकर वे उसके गले पर तलवारों के प्रहार करने लगे। उसी Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ४४] २२६ सुदर्शन-चरित अवसर पर वहाँ एक व्यन्तर आ पहुँचा। शत्रु और मित्र, कहो किसका दिखाई नहीं देता ? उस व्यन्तर ने उन समस्त भटों का स्तम्भन कर दिया और उनके तलवारों के प्रहारों को पुष्पमालाओं जैसा कर दिया। तब आकाश में देवों को आनन्द हुआ और उन्होंने जय-जय ध्वनि के साथ पुष्प-वृष्टि की। देवों द्वारा आकाश में ताड़ित दुंदुभी बजने लगी, मानों जीवलोक में इस प्रकार घोषणा कर रही हो कि यदि अपने मन में राग और द्वेष का त्याग करके लेशमात्र भी व्रतों का पालन किया जाय, तो देवों और मनुष्यों की पूजा प्राप्त करना तो आश्चर्य ही क्या, निर्दोष और पूज्य मोक्ष भी प्राप्त किया जा सकता है। उत्तम सम्यग्दर्शन रूपी आभूषण को धारण करनेवाले भव्यजनों द्वारा जिनेन्द्र का स्मरण करने पर, उनका समस्त पाप शीघ्र ही उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार सूर्य के उदित होने पर अन्धकार । ४४. धर्मध्यान का प्रभाव अति दुर्द्धर, अंजनपर्वत के समान कृष्णकाय, दिग्गजों को भी त्रासदायी, मेघ के समान गर्जना करनेवाला उन्मत्त हाथी, उस पर कोई आघात नहीं कर सकता जो अपने मन में जिनेन्द्र का स्मरण कर रहा हो ॥१॥ सोकर उठा हुआ, गज का अभिलाषी, महाबलशाली, लोलुपता से जीभ को लपलपाता हुआ, सक्रोध मृगेन्द्र भी उस पर अपने पंजे का आघात नहीं कर सकता, जो अपने मन में जिनेन्द्र देव का स्मरण कर रहा हो ॥२॥ तमाल वृक्ष के सदृश झपड ( विकराल ) शिरवाला, सूर्य के समान भीषण नेत्रों से युक्त, रौद्र पिशाच भी उसपर प्रसन्न हो जाता है, जो अपने मन में जिनेन्द्र देव का स्मरण कर रहा हो ॥३॥ अपनी बढ़ती हुई तरंगों से आकाश का भी व्यतिक्रमण करनेवाला, जलचर जीवों द्वारा प्रकाशित कोलाहल से युक्त अथाह समुद्र भी उसके लिए गोपद मात्र हो जाता है, जिसके मन में जिनेन्द्र देव का स्मरण हो ॥॥ अपने चमचमाते फणमणि के द्वारा दिगन्तों को निरुद्ध करनेवाला, यम के समान त्रैलोक्य के लिए क्षयंकर, क्रूर फणीन्द्र भी उलटकर उसको नहीं डसता, जिसके मन में जिनेन्द्र देव का स्मरण हो ॥५॥ दुःसंचार नदी में, दुर्गम पर्वत पर, असंख्य वृक्षों से युक्त भीषण मार्ग में कहीं भी चोर-डाकुओं का गिरोह उसपर लग नहीं सकता, जिसके मन में जिनेन्द्र देव का स्मरण हो ॥६॥ घृत से सिक्त के समान तीव्रता से जलता हुआ, जगत्त्रय को अपनी ज्वालाओं से निगलता हुआ अग्नि भी उसके लिए चन्द्र के समान शीतल हो जाता है, जिसके मन में जिनेन्द्र देव का स्मरण हो ॥७॥ जिसकी ओर से बांधवों और सज्जनों ने अपनी आंखें मींच ली हों, जो अनेक प्रकार से दुःखदायी हो, ऐसा सांकलों का बंधन भी उसका विघटित हो जाता है, जिसके मन में देवों के इन्द्र जिनेन्द्र देव का स्मरण हो ॥८॥ मनोहर इन्द्रियों के सुखों को नष्ट करनेवाला भगंदर, शूल, श्लेष्म, आदि व्याधियों से युक्त रोग भी उसका मंद Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० नयनन्दि विरचित [.४४० ( साधारण ) ज्वर के समान नष्ट हो जाता है, जिसके मन में जिनेन्द्र देव का स्मरण हो ॥६॥ दुर्लभ पाशव्यूह रचकर भी शत्रुदल उसे मार नहीं सकता व कृपाण भी उसके लिए कमल जैसा कोमल हो जाता है, जिसके मन में जिनेन्द्र देव का स्मरण हो ॥१०॥ जिस प्रकार गारुड़िकों (मंत्रवादियों) द्वारा श्रेष्ठ खगेन्द्र (गरुड) का स्मरण करने पर विष नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार नयनों को आनन्ददायी जिनेन्द्र का स्मरण करनेवाले भव्यजनों का उपसर्ग निवारण हो जाता है। इस प्रकार माणिक्यनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित पंचणमोकार फल को प्रकाशित करने वाले सुदर्शनचरित में पंडिता व अभया का वार्तालाप, कूट पुतलों को बनवा कर सुदर्शन को क्षोभ उत्पन्न करना, पुन: प्रभात होने पर हाहाकार मचना, नरेन्द्र के भटों का स्तंभन व देवों को जयजयकार, इन सबका वर्णन करने वाली पाठवीं संधि समाप्त । ॥ संधि ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ९ १. व्यंतरदेव की युद्धलीला उस वणिग्वर के कारण वह उद्भट-भ्रकुटी युक्त, भयंकर-मुख व्यंतर देव, भटों के समूह का स्तम्भन करके महायुद्ध में राजा से ऐसा भिड़ा, जैसे एक सिंह दूसरे सिंह से भिड़े। चंपापुर रूपी उत्तम कमल के सूर्य, दुष्ट शत्रु रूपी पुष्पसमूह को चूर करने वाले तथा अपने प्रताप से सुरेन्द्र को भी भयभीत करने वाले धाईवाहण नरेन्द्र को झट से उसके गुप्तचर पुरुषों ने जाकर वह सब वृत्तान्त कह सुनाया जो उन्होंने मसान के बीच देखा था। वे बोले-“हे देव-देव, उस बनिये ने आपके भृत्यों को अवरुद्ध कर दिया। वे प्रहार करते समय स्तम्भित हो गये हैं।" तब राजा ने दूसरे भट भेजे, किन्तु उस व्यंतर ने उन्हें भी भयभीत कर डाला। अन्य अन्य जो जो भट प्रकट हुए, वे सभी झट से ही उसने निष्प्राण बना दिये। उसी समय किसी एक बुद्धिमान ने सहसा राजा को नमन करके कहा-“हे देव, वहां उस वणिग्वर का पक्षपाती कोई एक बड़ा साहसी देव या राक्षस प्रगट हुआ है। उसका भी सैन्य बड़ा भारी दिखाई देता है, जैसे मानो समुद्र ने अपनी मर्यादा छोड़ दी हो।" यह सुन कर राजा क्रोध से जल उठा, जैसे मानों अग्नि पर घृत सींच दिया गया हो। वह बोला-"त्रिभुवन में जो कोई उस वणिक् का पक्ष करेगा, उसे मैं आज ही यम के मुख में भेज दूंगा।" राजा के वचन से गम्भीर समरतूर्य बजने लगा, जैसे मानो प्रलयकाल का मेघ गरज रहा हो। उस रणभेरी को सुन कर कोई योद्धा ऐसा पुलकित हुआ और फूल उठा कि उसका तंग कवच ही टूट गया। कोई भट अपना प्रत्यंचा चढ़ा हुआ धनुष ग्रहण करते, उस मुनिवर के समान दिखाई दिया, जो सगुणधर्म का उपदेश देता है। कोई भट अपने दोनों तरकसों से ऐसा चमक उठा, जैसे मानों खगेश्वर (गरुड) आकाश में उड़ रहा हो। कोई विजयलक्ष्मी रूपी विलासिनी की वांछा करने लगा। (यह विलासिनी छंद कहा गया )। कोई सुभट रण के आवेग से एक बड़ा खम्भा उखाड़ कर दौड़ पड़ा, जैसे मानों मद भराता हुआ, स्थिर और स्थूल सूड वाला, दुर्निवार ऐरावत हाथी प्रगट हुआ हो। २. भट-भार्याओं की वीरतापूर्ण कामनाएं कोई स्त्री अपने पति के गले से लग कर कहने लगी कि वहां उद्भट भटों के साथ तुमुल संग्राम करके सुविशाल ध्वजपताकाएं लेते आइये, जिससे मैं घर की वन्दनमालाएं बनाऊंगी। कोई कहती कि आप जा कर मेरे लिए सिन्दूर से लिप्त व चमकीले मोतियों से अलंकृत, शत्रु के गजों के सिरों का पुंज लेते आइये, जिससे मैं अपने घर में मंगल घट स्थापित करूंगी। कोई कामिनी कामातुर हुई कहने Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ नयनन्दि विरचित [६.३लगी कि यदि तुम्हें कोई बड़ी अप्सरा हर कर ले गई (युद्ध में तुम्हारी मृत्यु हो गई ), तो मैं अपनी देह को तिल तिल टुकड़े करके स्वयं घात कर लूंगी, और इस प्रकार निश्चय से तुम्हें स्त्री-वध का दोष लगाऊगी। कोई कहती-'अपने प्रभु का कार्य सम्पन्न कीजिये, हाथियों और घोड़ों के समूह का घात कीजिये, समस्त प्रबल शत्र-बल की बलि चढ़ाइये और इस प्रकार मेरे घर में विजयलक्ष्मी को ले आइये ।' इस प्रकार राजा अपने समस्त सैन्य को सजा कर अपने मंडलीक राजाओं के साथ चलता हुआ इस प्रकार शोभायमान हुआ, जैसे मानों युग के अन्त में पृथ्वी को आच्छादित करता हुआ समुद्र उछल रहा हो। ३. राजा के सैन्य का भीषण-संचार राजा का सैन्य चल पड़ा और पृथ्वीतल को रौंदने लगा। वह आकाश को भरते हुए सोहने व अत्यन्त डर उत्पन्न करने लगा। वह नागों के समूह का दलन करता, भीड़भाड़ के साथ चलता, विष के बाण छोड़ता और लोगों के धैर्य का अपहरण करता। जल और स्थल को चलायमान, शत्रुओं के सैन्य में खलभलाहट तथा भय-रस को उत्पन्न करता हुआ वह सैन्य दशों दिशाओं में फैल गया। घोड़ों की कतार मिल कर चली। ध्वजापट लहलहाने लगा और आकाश को छूता हुआ, सूर्य का स्पर्श करने लगा। भेरियों की ध्वनि होने लगी, करभ श्वासें लेने लगा, रथ ढलकने लगा और भट-जन चारों ओर घूमने लगे। धूलिकापुंज घूमने और बहुलता से चलने लगा। वह नभस्तल में चढ़ता और महीतल पर आ पड़ता। कायर धड़का और गजवर गरजा। बह मदजल बहाने व पृथ्वी को कंपायमान करने लगा। उसने मद की सुगन्ध फैलाई, जिससे भ्रमर-समूह गुंजार करने लगा। ( यह कुसुम-विलासिका नाम द्विपदी कही गई)। इस प्रकार अपने चतुरंग सैन्य से सुसज्जित नरपति, जैसे जैसे निकट पहुंचा, तैसे ही वहां रजनीचर अपने माया निर्मित सैन्य सहित उसके सम्मुख आ डटा। ४. राजा और निशाचर की सेनाओं का संघर्ष तब उस राजा और निशाचर की सेनाएं युद्ध के आवेग से प्लावित होकर गरजने और परस्पर भिड़ने लगीं। वे सेनाए मिथुनों ( स्त्री-पुरुषों के जोड़ों) के समान रोमांचित-गात्र थीं व मिथुनों जैसी नेत्रों को चंचल कर रही थीं। वे मिथुनों जैसी रोष से उद्दीपित थीं, और मिथुनों के समान ही उनके मुख से उच्छवास दौड़ रहे थे। मिथुनों जैसे उनका परस्पर संबंध हो रहा था, व मिथुनों जैसे ही वे नानाप्रकार के मुद्रा-बंधों में मदान्ध हो रहे थे। मिथुनों के समान वे अपने आहरण ( शस्त्र व आभरण ) बखेर रहे थे, और मिथुनों के समान पैर उठा रहे थे। मिथुनों जैसे खूब स्वर छोड़ रहे थे, और मिथुनों जैसे ही पुनः पुनः कुछ हंस रहे थे। मिथुनों जैसे उनके भालों पर पसीना आ रहा था, और मिथुनों के समान वे करवाल ( कृपाण व हाथों से केश) खैच रहे थे। मिथुनों जैसे वे Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ ६. ६ ] सुदर्शन चरित वक्षस्थलों पर आघात कर रहे थे, और मिथुनों जैसे मूर्छा से विकल-शरीर हो रहे थे। तब राजा के सैन्य के समक्ष वह निशाचर की सेना कांपने, चलने, स्खलित होने, त्रस्त होने, खिसकने, श्वासें छोड़ने व भागने लगी, जिस प्रकार कि नई वधू भयभीत दिखाई देती है। ५. संग्राम से उठी धूलिरज का आलंकारिक वर्णन तब उस व्यंतर ने अपने सैन्य को धीरज बँधाया, जिससे वह गंभीर कलकल ध्वनि करता हुआ फिर से युद्ध में भिड़ गया। इसी समय सहसा धूलिरज उठकर मानों दोनों सैन्यों को युद्ध से रोकने लगा। वह उनके मानों पैरों लगकर मनाने लगा। फटकार दिये जाने पर भी वह कटाक्षों से उनकी कटि पर स्थिति प्राप्त करता। वहां से अपमानित होने पर भी रुष्ट नहीं होता, और वक्षस्थल में प्रेरणा करता हुआ दिखाई देता। वह योद्धाओं के दुर्निवार घातों से मानों शंकित होता, और दृष्टि-प्रसार को मानों बलपूर्वक ढक देता। वह कानों में लगकर मानों कहने लगा कि तेरे जिस अधरबिंब को रतिगृह में तेरी मनोहर रमणी ने अपने दातों से खंडित किया है, व जिस विशाल-वक्षस्थल को उसने अपनी बाहुओं से आलिंगित किया है, उसे अब शिवकामिनी को नहीं देना चाहिए, मेरी यह अभ्यर्थना भी मानिये। वह केशों में लगकर मानों रोष प्रकट करता और आकाश में जाकर मानों देवों में हाहाकार मचाता। उस क्षण समर में प्रहार करते हुए सुभटों ने रुधिर की नदी बहा दी; मानों काल ने देवों और मनुष्यों को भय देनेवाली अपनी जीभ पसार दी हो। ६. रुधिर-वाहिनी का आलंकारिक वर्णन सिगिरि के रूप में नानाप्रकार के वृक्षों से नमित, ध्वजाओं, चमरों व चिह्नों (ध्वजों) रूपी कल्लोलों से युक्त, उत्तम श्वेत अश्वारूपी फेन से उज्ज्वल, सहस्त्रों रथों रूपी ग्राहों की पंक्ति से युक्त, जगमगाते हुए खड्ग रूपी मछलियों से क्षुब्ध, बड़े बड़े हाथी रूपी खडवों ( गेंडों) से अत्यन्त क्षोभित, शब्दायमान तूर्यरूपी पक्षियों से व्याप्त, चलबलाती हुई आंतों रूपी डिंड से भरी, कुंभस्थलोंरूपी शुक्तिपुटों से चूरित, बहुत से दांतों रूपी रत्नों व बहुमूल्य मोतियों से बिखरी, गिरे हुए भटों के विकसित मुखों रूपी प्रफुल्ल कमलों से व्याप्त, गृद्धावलि रूपी भ्रमरावली से भ्रमित और मुखरित, तलवारों की धारों रूपी जल के पूर से विषम तथा वाणों के जाल रूपी सुदृढ़ पटी हुई भूमि के कारण सुगम वह रुधिर का प्रवाह एक नदी के समान शोभायमान हुआ। ( यह विसिलोय पद्धडिया छंद कहा गया )। 'मैं कुलीन (पृथ्वी में लीन ) होने पर अपमानित होता हूँ, और ऊपर उछलते हुए अकुलीन ( पृथ्वी से असंलग्न ) कहलाता हूँ' ऐसा सोचकर, मानों धूलिरज ने अपने को उस रुधिर की नदी में फेंक दिया। ३० Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ नयनन्दि विरचित [६.७ ७. हस्ति-युद्ध अपने सैन्यों को परस्पर भिड़े हुए देखकर नरेन्द्र और निशिचर कुपित हुए और सन्नद्ध होकर, मत्त गजेन्द्रों पर आरूढ़ हो दौड़ पड़े। वे हाथी अलसी के फूलों के वर्ण के, अति दुर्द्धर, प्रतिपक्षी हस्तियों के लिए दारुण, श्वेत दांतोंवाले, पिंगल नेत्रों से युक्त तथा सूंड के मुख में रक्तवर्ण थे। वे मनोहर हाथी मोटाई में तीन हाथ, ऊँचाई में सात हाथ, गोलाई में दस हाथ तथा लम्बाई में नौ हाथ थे। वे पिछले भाग में नीचे को झुके हुए, अगले भाग में ऊपर को उठे हुए, पूँछ और सूंड से लम्बे तथा पीठ की रीढ़ ( मेरुदंड ) से विराजमान और दृढ़ होते हुए, चलायमान पर्वतों के समान शोभायमान थे। वे अपने पदों के भार से वसुधातल को झुका रहे थे; पाताल के समस्त नागों को चूरित कर रहे थे; तथा अपने कानों के तीव्र वायुवेग से समस्त समुद्रों को कंपायमान कर रहे थे। वे अत्यन्त गम्भीर थे; अपनी घोर गर्जना से समस्त वन को बहरा कर रहे थे; तथा कुम्भस्थल पर लिप्त चटकदार सिन्दूर से दशों दिशामुखों को अरुण-वर्ण बना रहे थे। वे हाथी दौड़ते, मुड़ते, सम्मुख खड़े होते, उर से उरस्थल को भिड़ाते, दंतायों से दांतों को तोड़कर सूंड से सूंड लपेट लेते थे। फिर वे तिरछे हो जाते, जूझते और क्षणमात्र भी निश्चल नहीं होते थे। ( यह अट्ठाईस मात्राओं से युक्त विज्जुला द्विपदी है)। फिर राजा के हाथी ने निशाचर के गज पर अपने दांतों के अग्रभाग से प्रहार किया और फिर उसको गिराकर उसके मार्ग में खड़ा हो गया, जैसे मानों किसी साहुकार ने अपने आसामी ( ऋणी) को करोड़ रत्न ऋण रूप दिये हों, जिन्हें वापिस मांगने पर ऋणी उसके चरणों में गिरकर रह जाये, और साहूकार अपना ऋण वसूल करने पर अड़ा रहे। ८. राक्षस और नरेश की परस्पर गर्वोक्तियाँ ऐसे अवसर पर अपने मन में व्यथित होकर वह पिशाच एक दूसरे गज पर आरूढ़ हुआ और बोला-"रे-रे भूगोचर, पापराशि, समरांगण को छोड़कर भाग, भाग, नानाप्रकार के उत्तम शस्त्र हाथों में लिए हुए तेरे किंकरों की जो अवस्था हुई, वही दशा कहीं तेरी न हो जाय ?" निशाचर के ऐसा कहने पर राजा ने उसे फटकारा-"तुझे ऐसा कहते हुए लाज नहीं आती? तू अपने को क्षण भर के लिए क्यों धोखा दे रहा है ? क्या चतुर भूगोचर लक्ष्मण ने दशानन का बध नहीं किया था ? जहाँ मेरे हाथी ने तेरे हाथी को मार डाला, वहाँ तू क्या प्रतिस्पर्धा करता है ? अथवा यदि तुझमें शक्ति है, तो आकर मुझसे भिड़। राक्षस को भी भयभीत करनेवाला मैं यहां आ पहुँचा हूँ।" इसप्रकार वे दोनों उत्तम हाथियों पर सवार हुए दुर्द्धर रोष को प्राप्त हो गये और गर्जना करते हुए परस्पर भिड़ गए, जैसे मानों पर्वत पर स्थित प्रबल सिंह परस्पर भिड़ गये हों। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ११] सुदर्शन-चरित ___९. दोनों मल्लों का युद्ध दोनों ही बड़े अक्खड, गर्व से उभट और देह से तेजस्वी ऐसे प्रतीत होते थे, जैसे सुर और असुर हों। वे ऐसे मात्सर्ययुक्त थे, जैसे मानों शनिश्चर हों। वे युद्ध में कुशल, व अप्सराओं को सन्तुष्ट करनेवाले थे। वे समुद्र के समान गंभीर ध्वनि युक्त होते हुए अपने कार्य की घोषणा कर रहे थे। वे लक्ष्मी से अभिराम व सैन्य के स्वामी होते हुए ऐसे भयावने हो उठे, जैसे राम और रावण । वे एक दूसरे के सम्मुख आए, परस्पर शस्त्र प्रहार करने लगे, आघात होने पर घूमने लगे और रक्त से लथपथ हो गए। वे दोनों ऐसे सुन्दर थे, जैसे मंदराचल । वे भयवर्जित और देवों के भी पूज्य थे। ( यह सिद्धक छंद की सुन्दर रचना है)। तब राजा ने निशाचर के मद भरते हुए विशाल हस्ति-प्रवर को अपने दीर्घ वाणों से ऐसा आच्छादित कर दिया, जैसे मलयाचल विषधरों से आच्छादित हो । १०. निशाचर राजा के हाथी पर आ कूदा वह दीला हाथी ठुठा होकर भी समर में प्रवृत्त हुआ। तब राजा ने उसे अपने बाणों के जाल से पूर दिया, और फिर उस निशाचर पर सैकड़ों बाण चलाए । वे वाण प्रत्यंचा से प्रेरित होकर सीधे दौड़ते हुए ऐसे शोभायमान हुए, जैसे मुनि अपने गुगों से प्रेरित होकर ऋजु गति से मोक्ष की ओर गमन करते हैं। उस अवसर पर जब तक अपना हाथी पाहत होकर गिर नहीं पाया, तभी सहसा ही वह यातुधान ( राक्षस ) अंग के राजा के हाथी पर ऐसा जा चढ़ा, जैसे सिंह पर्वत पर जा कूदता है। वहां निशाचर और राजा, दोनों नानाप्रकार के शस्त्रों को त्याग कर युद्ध करने लगे। वे दोनों कोहनियों से, हाथ पकड़ने छोड़ने व धक्कों से, सिंह के समान झपटों से, उरस्थलों की ढकेलों से, तथा एक दूसरे के पार्श्व में मछली जैसी उछालों द्वारा परस्पर पेलापेली करने लगे। इस प्रकार क्रोधयुक्त व अतुल पराक्रम से शोभायमान शरीरधारी वे दोनों युद्ध करते हुए हाथी पर से नीचे गिर पड़े, जैसे मानों गगनांगन से दो क्रूरग्रह आ गिरे हों। ११. फिर दोनों रथारूढ हुए फिर राजा एक ऐसे उत्तम रथ पर सवार हुआ जो स्वर्ण-जटित था, जिस पर सुन्दर चिन्हध्वज उठा हुआ था, जो मणियों की किरणों से जगमगा रहा था, जिसमें मंद मंद घंटियों का स्वर उत्पन्न हो रहा था, जो मनोवेग से चल रहा था, जिसमें घंटे टनटना रहे थे, जो धूप के धूम्र से व्याप्त था, जहां भ्रमर गुंजार कर रहे थे, जिसकी सांकलें खनखना रही थीं, जो नाना प्रकार की हलचलों से चंचल था तथा जिसके घोड़े हिनहिना रहे थे। ज्यों ही राजा ऐसे रथ पर चढ़ा, त्योंही वह निशाचर भी शीघ्र ही, तत्क्षण एक दूसरे रथ पर आरूढ़ हो गया। वह एक क्षण Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ नयनन्दि विरचित [६. १२. भी कहीं रुकता नहीं था, और समर में आगे बढ़ रहा था। (यह अमरपुरसुन्दरी द्विपदी कही गई )। वह चंपनरेश का उत्तम रथ, निशाचर के रथ से आक्रान्त होकर ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे प्रचुर सुवर्ण की कान्ति से चमकता हुआ देवपर्वत ( सुमेरु ) दिवाकर से आक्रान्त हुआ (शोभता ) है। १२. दोनों का रथ-युद्ध तब अपने रथ पर आरूढ़, लोगों के हृदय को सुखदायी, प्रवर पराक्रमी अंगनाथ ने अपने धनुष को खींचा, जिससे बड़ी टंकार-ध्वनि हुई। सुर और असुर मन में डर उठे। धरणि खूब थर्रा गई। दिग्गज पीछे हट गये। मनुष्यों को भय का ज्वर आ गया। खेचरसमूह खलखला उठे। पर्वतों के शिखर टलटलाने लगे। विषधर सलसला उठे और समुद्र भी झलझला उठे। तब वह निशाचर दूसरों को छोड़, प्रगटरूप से प्रत्यंचा चढ़ाकर, धनुष को लेकर आ डटा । तब राजा ने उस पर अपनी वाणावली छोड़ी। उसी समय निशाचर ने उसके धनुष और छत्र को खंडित कर दिया, जिससे वे पृथ्वी पर जा पड़े। ( यह चारुपदपंक्ति नामक सुन्दर द्विपदी है, इसमें सन्देह नहीं)। उस अवसर पर चंपाधीश ने तुरन्त निशाचर पर अपनी शक्ति छोड़ी, जो उसके हृदय में जा लगी और प्राणप्रिय विलासिनी के समान उसे मूर्छा उत्पन्न करने लगी। १३. निशाचर की पराजय व मूछो तब, जब आकाश-प्रांगण में सुरांगनाए एकत्र थीं, सुर और असुर परस्पर बातचीत कर रहे थे व अपने शरीर की कान्ति से प्रकाश फैला रहे थे, तभी महिला के पराभव से उत्पन्न हुए उस महायुद्ध में देवों से शंकित न होकर, तथा घन के समान गरज कर मन में क्रोधयुक्त राजा ने, निशाचर को फिर भी पराजित कर दिया, जिस प्रकार राहु सूर्य को जीत लेता है। तब वह निशाचर अपने मुख से कातर हो गया व अत्यन्त दुर्निवार शक्ति के प्रहार से, शरीर से कांपते हुए, मूछों को प्राप्त हो गया। वह जीयेगा या नहीं, इसमें संशय दिखाई देने लगा। इस अवसर पर जब राजा कोप-युक्त था, तब उस लंबबाहु वणिग्वर का कोई शरण नहीं रहा ; उसकी मृत्यु आ पहुंची। हाय, क्या किया जाय ? किससे कहा जाय ? ऐसी बात जिस क्षण चल रही थी, उसी क्षण वह पिशाच अपनी वेदना को शांत कर, सचेत हो उठा। वह निशाचर राजा के ऊपर ऐसा दौड़ पड़ा, जैसे मानों पर्वत पर वज्रदंड आ पड़ा हो। वह अपनी नानाविध विक्रियाओं सहित संग्राम में घटोत्कच के समान विचरण करने लगा। १४. निशाचर की विक्रियाएं निशाचर भ्रमण करते रुकता ही नहीं था। वह मातंगों का दलन करता, तुरंगों का हनन करता, भटसमूहों को घायल करता, रथों के अंग अंग का दलन Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. १६] सुदर्शनन-चरित २३७ करता, नरेन्द्रों का मर्दन करता। वह पक्षी का रूप धारण करता, फिर बन्दर का, व क्षण मात्र में चकवे का। फिर एक क्षण में ही वह कपोत, कुरंग या तुरंग बन जाता। फिर एक क्षण में बलाक, चकोर व मयूर का रूप धारण करता। फिर क्षण में ही नकुल, सर्प, मत्स्य या तरक्ष ( तेंदुश्रा) बन जाता। फिर वह विशाल वाराह का रूप धारण करता, और फिर एक क्षण में ही भौरा ( बरं ) बन जाता। फिर विकराल स्यार और फिर एक क्षण में मराल बन जाता। फिर सुन्दर गजेन्द्र और फिर एक क्षण में मृगेन्द्र बन जाता। व फिर वह मोटा भैंसा, गधा या ऊंट बन जाता। वह अनेक प्रकार के मुह वनाता, व अनेक समर्थ हाथों की विक्रिया करता। तो भी उसे देखकर, नरेन्द्र अपने मन में कंपायमान नहीं हुआ। (यह लोगों को अभिराम मौक्तिकदाम छंद प्रकाशित किया गया)। राजा जिस किसी भी रूप में उसे अपने सम्मुख देखता, उस उस पर प्रहार करते रुकता नहीं था, जैसे मानों रावण के युद्ध में राम व कौरवों के सैन्य में भीम विचरण कर रहा हो। १५. निशाचर और राजा का विक्रियायुद्ध राक्षस ने एक दुर्निरीक्ष्य काला मूषक छोड़ा; उस पर धाईवाहन ने अत्यन्त रुष्ट विडाल छोड़ा। राक्षस ने सुन्दर चंचल तुरंग छोड़ा; धाईवाहन ने उस पर तीक्ष्ण सींगों वाला भैंसा छोड़ा। राक्षस ने विशालकाय मत्तहाथी छोड़ा; धाईवाहन ने लंबी जीभवाला दारुग सिंह छोड़ा। राक्षस ने आकाश में उठता हुआ मेघ प्रकट किया; तब धाईवाहन ने तुरन्त ही घोर पवन चला दिया। राक्षस ने प्रज्वलित अग्नि प्रकट की; धाईवाहन ने जलवृष्टि युक्त मेघ प्रकट किया। राक्षस ने सूखा अस्खलित वृक्ष प्रकट किया; धाईवाहन ने जलता हुआ पावक छोड़ा। जिस क्षण राक्षस ने पत्थरों से पूर्ण शैल प्रकट किया; उसी क्षण धाईवाहन ने प्रचंड वज्रदंड छोड़ा। राक्षस ने विशाल स्फुरायमान चन्द्र छोड़ा; धाईवाहन ने उसकी प्रभा को हरण करनेवाले राहु को छोड़ा। राक्षस ने झट से भीषण अन्धकार छोड़ा; तो धाईवाहन ने अनेक किरणों से प्रकाशमान भानु छोड़ा। जब राक्षस ने मत्स्यपूर्ण सागर प्रकट किया, तभी धाईवाहन ने कन्दराओं से युक्त मंदर पर्वत प्रकट किया। राक्षस ने प्रदीर्घ नागपाश प्रेषित कियाः धाईवाहन ने अपना चमचमाता हुआ गरुड़ रूप बाण छोड़ा। तब वह निशाचर राजा के साथ युद्ध करते करते संग्राम से भाग गया, और तत्क्षण फिर लौट आया। ( यह तोणक छंद कहा गया)। तब राजा ने निशाचर से कहा- "रे निर्लज, यदि तू रणांगण से भागा, तो फिर लौटकर क्यों आया ? भाग जा, भाग जा, नहीं तो मैं तुझे मार डालूँगा।" १६. निशाचर के दुगने दुगने मायारूप जब राजा ने आँखें फाड़कर ये वचन कहे न कहे, तभी निशाचर ने भल्ली का प्रहार करके उसे मूच्छित कर दिया। अथवा कौन अभिमानी है, जो आपत्ति में Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ नयनन्दि विरचित [६.१७ नहीं पड़ता ? फिर चेतना प्राप्त करके वह नृपश्रेष्ठ उस पिशाच पर ऐसा टूट पड़ा, जैसा हाथी सिंह के प्रति दौड़े। अपनी बिजली के समान चमचमाती हुई तलवारों से मनोहर निशाचर और नृप दोनों मेघों के समान भिड़ गये। एकक्षण में चंपापुरी के राजा ने उस यातुधान पर तलवार से आघात किया, जिससे उसके दो टुकड़े हो गये। किन्तु अब राजा पर दो निशाचर आक्रमण करने लगे। राजा ने उन दोनों को भी काट डाला, तो चार निशाचर बन गये। जब राजा ने उन चारों को मारा, तब मारो मारो कहते हुए झट क्रोधपूर्ण आठ निशाचर बन गये। राजा ने आठ को मारा, तो सोलह चमक उठे । सोलह के मारे जाने पर बत्तीस दौड़ पड़े। ज्योंही उन बत्तीसों को दो टुकड़े किये, त्योंही चौंसठ उत्पन्न हो गये। जब वे चौंसठ मारे गये, तो तत्क्षण एक सौ अट्ठाईस विशालकाय निशाचर उठ खड़े हुए। उन अतिरौद्ररूप निशाचरों से घिरा चंपापति ऐसा शोभायमान हुआ, जैसा दुगने दुगने द्वीप-समुद्रों से आवेष्टित जंबूद्वीप । १७. सुदर्शन द्वारा राजा की रक्षा उन निशाचरों ने पुनः पुनः राजा को कैसा वेष्टित किया, जैसा कर्मों के द्वारा संसारी जीव। कोई कितना ही बलवान व गुणों से गौरवशाली क्यों न हो, यह बहुतों से आक्रान्त होने पर अकेला क्या कर सकता है ? अतएव उस अवसर पर वह राजा वहाँ से भाग गया, जैसे सिंहों के समूह से त्रस्त हुआ हाथी। तब निशाचर ने अपनी विक्रिया को समेट लिया, जिस प्रकार कि ग्रीष्म ऋतु का आगमन होने पर दिनेश रात्रि को संकुचित कर लेता है। आगे आगे राजा दौड़ता और उसके पीछे पीछे वह व्यंतर देव, जिसप्रकार कि पूर्वोपार्जित कर्म जीव का पीछा करता है। तब उस रजनीचर ने अपना कृपाण खींचकर, भागते हुए राजा से कहा-"तू उस सुदर्शन की ही शरण में जा। अन्य किसकी शक्ति है जो तेरी रक्षा कर सके ?" यह सुनकर राजा गलितमान होकर सुदर्शन की शरण में गया और अतिदीन भाव सहित भय से कांपते हुए बोला ( अपने प्राणदान की प्रार्थना की)। तब सुदर्शन ने अपना योग छोड़कर राजा की रक्षा की, व तलवारों से भीषण योद्धाजनों से उसे छुड़ाया। अपकार करनेवाले के प्रति भी उपकार करे ऐसा सुदर्शन को छोड़ दूसरा कौन है ? १८. राजा द्वारा सुदर्शन से क्षमा याचना वह राजा तो दूर रहे, जिसका धर्म में भाव हो उसे देव भी नमन करते हैं। इसी बीच उस निशाचर ने आदरपूर्वक समस्त सैन्य को जीवित कर दिया। फिर उसने राजा से वह कपटयुक्त स्त्रीचरित्र की बात कही, जो देवों को भी दुर्लक्ष्य है। यद्यपि कामदेव की गोदी में भी बैठ जाय तो भी स्त्री अन्य पुरुष की अभिलाषा करती ही है। तेरी अग्रमहिषी इस अतिसुन्दर सुदर्शन पर मोहित हो गई। उसने Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. २० सुदर्शन-चरित २३६ अन्धेरे में इस वणीन्द्र को उठवा मंगाया, किन्तु वणीन्द्र सुमेरु के समान निश्चल शरीर रहा। तब सूर्योदय होने पर घबराई हुई रानी ने अपना शरीर फाड़ लिया और हाहाकार मचा दिया। सहसा तेरे द्वारा प्रेषित किंकरों से जब सुदर्शन तीक्ष्ण तलवारों से मारा जाने लगा, तब मैंने अपने आसन को कंपायमान होने से सब वृत्तान्त जान लिया। फिर मैंने यहाँ आकर तेरे भृत्य-समूह को कीलित किया। जो चरमशरीरी होते हैं, वे मारने से मरते नहीं, और हमारे जैसे देव उनके उपसगों का हरण करते हैं। जब तू सुसज्जित होकर यहां आया, तब मैंने अपना मायारूपी सैन्य निर्माण किया। अनन्तर विपक्षियों को मारने का जो वृत्तान्त है, वह, हे नृपति, तेरे भी प्रत्यक्ष है। तब राजा पश्चात्ताप करता हुआ पुनः भत्ति.पूर्वक सुदर्शन को मनाने लगा-मुझे क्षमा करो। मेरे दोषों का विचार करने से क्या लाभ ? यह सुनकर वणिग्वर ने कहा-हे राजन् सत्पुरुष के बहुत गुणों से क्या, उसके दो ही गुण पर्याप्त हैं-अर्थात् उसके मन में रोष बिजली की चमक के समान क्षणस्थायी और मैत्री पत्थर की रेखा के समान चिरस्थायी होते हैं। १९. राजा का अर्द्धराज्य समर्पण व सुदर्शन द्वारा अस्वीकार तब राजा ने कहा-सत्पुरुष के उपशम ही परम योग्य है। वह ऐसा शुद्ध स्वभाव और स्वच्छमन होता है कि दूसरों के उपहास से व दुर्जनों की निंदा से, क्षार द्वारा दर्पण के समान उद्भासित होता है; तथा निर्मल होकर और भी अधिक चमक उठता है। मैं तुम्हारा अपकार करके ढीठता से आकर तुम्हारे चरणों की शरण में प्रविष्ट हुआ हूँ। मुझ अपकीर्ति कमानेवाले की तुमने रक्षा की है। तुम्हीं ने मुझे यह राज्य और मनुष्य जीवन प्रदान किया है। तुम्हीं मेरे बन्धु, इष्ट, सुहृद् व सजन हो। तुम गुणों की राशि व श्रेय का अर्जन करनेवाले हो । हे, हे, सुन्दर वणिग्वर, तुम्हारे उपकार का इस जगत् में कोई प्रत्युपकार नहीं। यद्यपि बात ऐसी है, तो भी मेरी एक बात मानिए। आप मेरे सुखकारी आधे राज्य का उपभोग कीजिये। इस पर उस वणिग्वर ने उत्तर दिया-"ढलते हुए दिन की सुख-सामग्री के समान इन्द्र-धनुष की कान्ति को प्रकाशित करनेवाले राज्य से, हे राजन, मेरे मन की क्या अभिलाषा पूर्ण होगी ? २०. राजा द्वारा प्रलोभन तथा सुदर्शन का वैराग्य संपत्ति की सम्हाल से, राजनीति के पालन से, शत्रुवंश के साथ युद्ध से व दुष्ट जीवों के निग्रह से एक जीवनमात्र के लिए अमित पाप का उपार्जन किया। इससे, हे नरेन्द्र, कौन सी कार्यसिद्धि हुई ? अतएव तू ही इस राज्य ऋद्धि का उपभोग कर। मैं तो दुस्सह तपश्चरण करूंगा और भवसमुद्र को पार करूंगा।" तब राजा इस प्रकार बोला-"तू तप कैसे करेगा ? अभी भी तेरी युवावस्था है और तेरा पुत्र भी बहुत छोटा सा है। इसलिए, हे तात, उसका लालन-पालन Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० नयनन्दि विरचित [६. २१. कर, जब तक वह समर्थ न हो जाय। और तू भी सुन्दर भोगों का उपभोग कर, एवं अपने इष्ट, मित्र व बंधुओं को सुखी बना। तत्पश्चात् तपस्या करना ।" तब उस वणिग्वर ने कहा-हे राजन् , सर्वदा ही यम से कोई नहीं छूटता, चाहे वह बाल हो या युवा या वृद्ध । विशेषतः इस अवसर्पिणी काल में जीवन पानी के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर होता है। २१. सुदर्शन द्वारा जीवन की क्षणभंगुरता का निरूपण जो कोई यौवन में उत्तम तप धारण करते हैं, वे सहज ही भवसागर से तर जाते हैं। यौवन पहाड़ी नदी के वेग के तुल्य है जो शीघ्र समाप्त हो जाता है। वृद्धत्व से सारा शरीर ढीला हो जाता है। जमरूपी अग्नि की अपूर्व ज्वालाओं से संतप्त होकर समस्त गात्र सिकुड़ जाता है। पीठ का मध्य भाग धनुष के समान टेढ़ा हो जाता है। नीची-ऊची भूमि, गोबर आदि अपवित्र वस्तु, जल व मूत्र, व पैर के नीचे रस्सी या साँप, इनका दृष्टि के द्वारा कोई अन्तर ही दिखाई नहीं पड़ता। वृद्ध पुरुष ( कमर झुका कर ) मानों महीतल पर अपने गिरे हुए यौवन को ढूढ़ता है, और कुकविकृत काव्य के समान पद पद पर स्खलित होता है। वह पवन से आहत वृक्ष के समान थर्राता है, और उसके कान दुष्पुत्र के समान कोई बात सुनते ही नहीं हैं। इसलिए जब तक बालबच्चे परस्पर लड़ते-भिड़ते व कहते-सुनते नहीं हैं, तभी तक मैं तपश्चरण करके मोतरूपी गृह में जा चढू'गा, जिससे पुनः संसाररूपी कूप में न पडू। प्रेम वही है जो द्वेष प्रकट न करे। वही भोजन है जो मुनियों के आहार से शेष रहे। वही प्रजा है जो पाप न कराये, और वही धर्म है जिसमें कोई दंभभाव न हो। वही सत्कवि है, जो जिनवर का स्तवन करे। वही शूर है जो इन्द्रियों को जीते। दिव्य आभरण और विलेपन तभी तक सुन्दर दिखाई देते हैं, जबतक वे मनुष्य के शरीर में लगकर अत्यन्त दुर्गन्धी और विट्टाल ( दूषित ) नहीं हो जाते । २२. संसार की क्षणभंगुरता से पूर्व महापुरुषों में विरक्ति के उदाहरण पूर्वकाल में ऋषभदेव ने नीलांजना के मरण का हेतु पाकर तपश्चरण ग्रहण किया। उनके अन्य पुत्र भी भरत चक्रवर्ती की सेवा करना पसन्द न करके दीक्षित हो गये। सगर राजा अपने पुत्रों के मरण की बात सुन कर, राज्यश्री को छोड़ सहसा श्रमण हो गया । देवयुगल द्वारा वर्णन सुनकर सनत्कुमार विरक्त हो गया, और तपस्या करने लगा। राघव(राम) ने भी छह मास तक लक्ष्मण (के मृतक शरीर ) को लिए फिरने के पश्चात् प्रव्रज्या का पालन किया। पशुओं का वध करके उनका विवाह होगा, ऐसा सुनकर ही कुमार नेमिनाथ ने मुनिव्रत धारण कर लिया। और भी दूसरे जिनेन्द्र भ्रमर के समान काले मेघों को विलीन, व उल्कापात हुआ देख दुद्धर तप में प्रवृत्त हो गये। मैं भी इसी प्रकार निर्ग्रन्थ होता है। जिससे महापुरुष Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. २३] . सुदर्शन-चरित २४१ जांय वही पंथ है ( महाजनो येन गतः स पन्थाः )। मैंने उसी समय प्रतिज्ञा कर ली थी कि यदि इस उपसर्ग से छूट गया, तो मैं दिगम्बरी दीक्षा ले लूँगा और पाणिपात्र में ( हाथों में ) भोजन करूँगा। २३. राजा द्वारा सुदर्शन की स्तुति सुदर्शन के इस प्रकार वचन सुनकर गूंगे के समान निरुत्तर हुआ वह सपरिग्रह नरेश इस प्रकार वर्णन करने लगा। परमात्म की भावना करनेवाले, वंदारक-वृन्द द्वारा वंदितपद, हे वणीन्द्र, तुम्हारे सदृश पुरुष ही तो जिनेन्द्र कहलाता है। तुम्हारे समस्त गुणों का वर्णन कौन कर सकता है ? लोग मोहग्रस्त होकर घरगृहस्थी का पालन करते हैं। वे कुछ भी पाप का विचार नहीं करते। दूसरों को धोखा देते हैं; कृषि, कबाड़ व सेवा को ही अच्छा मानते हैं; तप के नाम से उनके शरीर में ज्वर चढ़ आता है। (ऐसा लोक स्वभाव होते हुए भी ) जो कोई प्राप्त हुई अपनी सम्पदा का त्याग कर महाव्रत लेता है, वह धन्य है। (इस प्रकार सुदर्शन का गुणगान करके ) जब राजा नगर में वापिस आया, तब इसी बीच, रस्सी की फांसी बनाकर और वृक्ष से लटककर अभया ने आत्मघात कर लिया। इस प्रकार मरकर वह पाटलिपुत्र नगर में व्यंतरी उत्पन्न हुई। पंडिता भी अपने मन में संत्रस्त होकर, शीघ्र ही उसी पाटलिपुत्र की ओर भाग गई। वहाँ पहुँचकर पंडिता देवदत्ता गणिका के घर रहने लगी। इस प्रकार समवसरण में जिनेन्द्र के प्रत्यक्ष, नयों का आनन्द लेनेवाले गौतम गणि ने व्याख्यान किया। इति माणिक्यनंदि विद्यके शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित, पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करनेवाले, सुदर्शनचरित में, महासंग्राम समाप्त हो जाने पर, राजा का वणिग्वर को राज्यश्री समर्पित करना, सुदर्शन द्वारा उसका ग्रहण नहीं किया जाना, अभया का मरकर व्यंतरी उत्पन्न होना, व पंडिता का पाटलिपुत्र नगर में जाना, इनका वर्णन करनेवाली नौंवी संधि समाप्त । ॥ संधि ९॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि १० १. जिन-मन्दिर का आलंकारिक वर्णन उस भयानक श्मशान में परम प्रशंसा को प्राप्त करके वह वणीश्वर सुदर्शन अपने तामस रहित मन से चिन्तन करने लगा-जहां मरण और जन्म रूपी अथाह जल भरा है, जिसमें बहुत सी कपटरूपी भंवरें विद्यमान हैं, जहां नानाप्रकार के चित्तरूपी घोर वातों की ध्वनि हो रही है, जो राग और द्वेष रूपी जलचरों से भरा हुआ है, जो क्रोध व लोभ रूपी बड़वानल से भीषण है, एवं दुर्गति रूपी लहरों से युक्त है, ऐसे इस संसाररूपी रौद्र समुद्र में जीव पुण्यों के बिना धर्मरूपी रत्न की प्राप्ति नहीं कर पाता। देवों और मानवों की प्रशंसा प्राप्त करनेवाला सुदर्शन इस प्रकार चिन्तन कर व पुत्र को अपना गृहस्थ पद देकर लोगों सहित जिनालय में पहुंचा। वह जिनालय अशोक वृक्ष तथा यक्ष और यक्षिणियों से सुन्दर था ; जैसे मानों कुवेर का कीड़ा-मन्दिर हो, जो शोक रहित यक्ष यक्षिणियों से सुन्दर दिखाई देता है। वह रोहिणि ( सोपान पंक्ति ) से मनोहर तथा बड़े-बड़े चंदोवों व उनके सितारों से देदीप्यमान होता हुआ आकाश के समान दिखाई देत। था, जो रोहिणी नक्षत्र से मनोहर तथा पूर्णचन्द्र एवं ताराओं से प्रकाशमान हो। जो चक्रेश्वरी देवी से अलंकृत तथा पवित्र योगियों के समूह से शोभायमान होता हुआ उस सरोवर के समान था, जो चकवा-चकवियों से सुन्दर व उत्तम हंसयूगलों के समूहों से शोभायमान हो। वहां घंटों की घर्घर ध्वनि एवं दिव्य कुंभ, शंख, तूर्य और चामरों की शोभा हो रही थी, जिससे वह एक हस्ती के समान प्रतीत होता था। वहां श्रावकों का गमनागमन हो रहा था; अतएव वह एक वन के समान प्रतीत होता था, जहां श्वापद ( वन्यपशु ) आते-जाते दिखाई देते हैं। वह मोक्ष-मार्ग दिखाने वाला था, अतएव वह एक धनुष के समान था, जो वाण छोड़ने के मार्ग को लक्ष्य करता है। उस जिनालय के दर्शन कर सुदर्शन बहुत हषित हुआ। (यह निःश्रेणी नामक छंद कहा गया )। उस सुन्दर जिनमन्दिर में, अपने कुलरूपी नभस्तल के चन्द्र वणीन्द्र ने, मोह को जीतनेवाले जिनेन्द्र की स्तुति प्रारम्भ की। २. जिनेन्द्र-स्तुति नमस्कार करते हुए देवों के मस्तक पर के मुकुटों के मणियों की किरणों से चुम्बितचरण, भगवन् , तुम्हारी जय हो। हे समस्त त्रैलोक्य में धर्म की हलचल मचाने वाले, जय हो आप की। जय-जय, हे केवलज्ञाननिधि । जय हो, हे भव्यरूपी कमलों को प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य । हे इन्द्रियरूपी शत्रु-योधाओं का दलन करनेवाले, जय हो। हे परमार्थ को जाननेवाले जय हो । जय हो, जरा और मरण का विनाश करनेवाले। जय-जय-जय, हे निर्ग्रन्थ देव। जय हो आपकी, जो निर्दोष सूर्य की किरणों के समूह के सदृश शरीर की प्रभा को धारण करते हैं, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.३] सुदर्शन-चरित २४३ धातुओं से रहित हैं, स्व-पर हितकारी हैं, एवं चतुर्मुखी हैं। जय हो आपकी, जो प्रकृष्ट गुणसमूहों से विभूषित हैं, व असुरों, सुरों व मनुष्यों से प्रशंसित हैं। जय हो, हे अमेय केवलज्ञान के धारी; जय हो, हे मान के क्षयकारी; जय हो, हे निष्काम मदनविनाशी। जय हो, हे कुनयरूपी हस्तियों के सिंह । जय हो, हे त्रैलोक्य के लोगों पर कृपा करनेवाले। जय हो, हे लोभ के विनाशक सुपार्श्व । जय हो, हे निष्कर्म व यम के दूतों के त्रासक। जय हो, हे मोक्षलक्ष्मी से संयुक्त, मलरहित, संसार में स्तुत्य । जय हो, हे संसार के आश्रयदाता व समवसरण से संयुक्त। हे सुमुनिराज, रोगद्वेष रहित, सुगन्ध प्रसारक, सुरों के हितकारी व लेश्याओं से हीन । जय हो, हे निष्पाप भगवन् , नखों की वृद्धि से रहित, हे पूज्यों के पूज्य वासुपूज्य भगवन् । यदि कोई समस्त आकाशतल के पार जा सके, तो ही हमारे जैसा आपरंपरानुयायी, आपके गुणों का वर्णन कर सकता है। ३. विमलवाहन मुनि का वर्णन हे भगवन् , आपके नाम ग्रहण मात्र से खलजन क्षुब्ध ( भयभीत ) हो जाता है, हस्ति अपना दर्प छोड़ देता है, सर्प भी निर्विष हो जाता है, व विष भी अमृतरूप से प्रवृत्त होने लगता है। अग्निशीतल हो जाता है व केशरी आक्रमण करता हुआ भी रुक जाता है। वज्र के समान कठोर दृढ़ व उद्भट पैरों की बेड़ियां टूट जाती हैं, तथा अन्य घोर उपसर्ग भी मिट जाते हैं। इस प्रकार जब सुदर्शन चित्त में हर्षित होकर, मोक्ष के हेतुभूत जिनेन्द्र देव की स्तुति कर रहा था, तभी उसने वहां सुरेन्द्र द्वारा बंदनीय एक मुनिराज को बैठे देखा। वे मुनिराज तप रूपी अग्नि से तपाये हुए, मोह से त्यक्त, व सिद्धिरूपी कान्ता में अनुरक्त, मदों से रहित, नेत्रों को इष्ट एवं शरीर के मैल से लिप्त थे ॥१॥ उनका द्वेष नष्ट हो गया था, शुक्ल लेश्या प्रकट हो गई थी और वे संयमों के समूह रूप धन के धारी थे (अर्थात् बड़े तपोधन थे)। वे त्रैलोक्य-बन्धु थे, ज्ञान-सिन्धु व भव्यरूपी कमलों के मित्र ( सूर्य समान हितैषी ) थे। वे अलंध्य शक्ति के धारी थे, ब्रह्मयोगी थे, प्रयत्नपूर्वक जीवों की रक्षा करनेवाले थे, एवं जिनेन्द्र द्वारा कहे गए सात तत्त्वों का अवधिज्ञानपूर्वक भाषण करनेवाले थे ॥२॥ वे गिरीन्द्र के समान धीर, दोषों से भीरु, तथा पापरूपी पंक से उद्धार करनेवाले थे। वे दुःखरूपी फूलों को धारण करनेवाली त्रिशल्य रूपी बेल को तोड़ने में एक अद्वितीय हस्ती थे। वे प्रसन्नमूर्ति, सूर्य के समान देदीप्यमान, शीलरूपी जल के सागर, प्रमादों के विनाशक, मेघ के समान गंभीर-ध्वनि, संयमी व दयापरायण थे ॥३॥ वे महाकषाय व नोकषाय रूप भीषण शत्रुओं के विनाशक, अहिंसा मार्ग के अवलंबी, ज्ञानी, नग्न, व कर्मबन्ध को छोड़नेवाले थे; एवं कुतीर्थ ( अधर्म ) में पैर नहीं रखते थे, परिग्रहों से मुक्त थे तथा मनुष्यों और देवों को सन्तोष देनेवाले थे। ( यह लघु-गुरु क्रम से तीन वार सोलह अर्थात् अड़तालीस अक्षरों से युक्त पंचचामर छंद है)॥४॥ वे मुनि Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ नयनन्दि विरचित [ १०.४ शान्त-चित्त, जिन-भक्त, रत्नत्रय-परिपालक, तप से तप्त, मदरहित और पंचाचार से युक्त थे। ४. व्याघ्र भील का वर्णन उन विमलवाहन नामक मुनिराज का अभिनन्दन करके नमस्कार करते हुए, वणिग्वर सुदर्शन ने उनसे अपने भवांतर पूछे। मुनिराज ने उससे कोई बात छिपा कर नहीं रखी। वे जिनवरों की वंदना करके सब वृत्तान्त बतलाने लगे। इसी जंवूद्वीपमें सुमेरुपर्वत की दक्षिण दिशा में, अपने मध्य में गंगा और सिन्धु नदियों से युक्त, प्रसिद्ध व धन-समृद्ध भरतक्षेत्र है। उसके विन्ध्य देश के कोसल प्रदेश में मेघनाद भूमिपाल नामका राजा था। उसकी भार्या वसुन्धरी से लोकपाल नामका दिव्यशरीर पुत्र उत्पन्न हुआ। एक दिन राजमहल के सिंहद्वार पर सब लोग इस प्रकार पुकार करते हुए आए-" हे देव, हे देव, रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। इस प्रकार कांपते हुए मनुष्यों के समूह को देखकर व उनके वचन सुनकर, विस्मित हो राजा ने अपने अनंतबुद्धि नामक मंत्री से पूछा। उसने कहा कि राजधानी से दक्षिण दिशा की ओर विन्ध्यपर्वत में एक पराक्रमी भील रहता है, जिसका नाम व्याघ्र है। वह सिंह के समान मदोन्मत्त हाथियों के कुंभों के विदारण में प्रसक्त रहता है, रक्त-नेत्र है, हाथ में प्रचंड चापदंड और बाण लिए रहता है, लंबी दाढ़ी रखता है, व मेघ के समान काले शरीरवाला है। उसके बाल ऊपर को उठे व बिखरे हुये हैं। वह भयंकर वेष रखता है, युद्ध में अजेय है और यमराज के समान क्रूरचित्त है। वह बड़े-बड़े स्थूलस्तनोंवाली कुरंगिणी नामक भार्या से युक्त है। वह दुनिवार व मोटे आकार का है। वह रोष करता है, लोगों को त्रास देता है और पुनः उसी पर्वत में प्रवेश कर जाता है। वह मेघ में बिजली की छटा के समान क्षण में दिखाई देता व क्षण में ही लुप्त हो जाता है। ५. व्याघ्र भील से संग्राम इसी कारण यह समस्त प्रजा करुण क्रन्दन करती हुई यहां आई है। यह सुनकर भूमिपाल राजा ने कुपित होकर कहा-“वह क्षुद्र क्या कर सकता है ?" फिर उन्होंने अपने अनंत नामक अनंतबलशाली सेनापति को आज्ञा दी। वह पुलकितगात्र होकर अपने भटसमूह व घोड़ों और हाथियों सहित चल पड़ा। अनंत सेनापति वहां पहुंचा। किन्तु पुलिन्द ने उसे जीत डाला। अनंत भयभीत होकर भाग आया। तब राजा रुष्ट हुआ। वह गर्व से बोला और उसने सेना को धीर धाया। फिर वह अपने ध्वज-चिह्नों व छत्र सहित झट से स्वयं वहां गया। किन्तु उसका हाथ अपने नग्न खङ्ग पर न पड़ा, तभी उसके पुत्र लोकपाल ने कहा-"आप शूरों के शूर हैं, प्रताप से सूर्य समान हैं, व महाराजों के भी राजा हैं, यह किरात आपके तुल्य नहीं। क्या कोई सिंह कुद्ध होकर जीभ लपलपाता हुआ, एक स्यार पर आक्रमण करता है ? हे देव, आप (व्यर्थ) मोह में पड़ गये Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.७] सुदर्शन-चरित २४५ हैं।" इतना कह कर उस बालक ने शत्रु को हांका मारा और ऐसा युद्ध किया जो देवों को भी असाध्य हो। उसने अपने कृपाण से उस किरात का सिर काट लिया। राजा प्रसन्न होकर अपने नगर में लौट आया। उस समरांगण में घोड़ों के समूह के मारे जाने पर, गजपंक्ति के नष्ट हो जाने पर, तथा उद्भट भटों का मर्दन हो जाने पर, विधिवशात् तलवार से कटकर, मरकर वह शबर ६. सुदर्शन के पूर्व जन्मों का वृत्तान्त वत्सदेश में एक ग्वाले का कुत्ता हुआ। वह सिंह के समान भयंकर था। एक दिन वह गौओं के साथ कोशाम्बी में आया व परिभ्रमण करता हुआ जिनमन्दिर में आकर रह गया। और जो कुरंगी नाम की शबरी थी वह यथाकाल मरकर काशीदेश की वाराणसी नगरी में एक सुन्दर महिषी हुई। भवांतर में जो किरात था, और फिर जो बेचारा श्वान हुआ था, वह मरकर, दुर्ग्राह्य अंगदेश में, अकंप चंपापुरी के बीच, क्रोधशील व लोभी सिंहनी नामक सिंह की प्रिया का पुत्र हुआ। वह खल कुलक्षयकारी कर्म करने लगा, मानों पुत्र के बहाने यमराज ही आ गया हो। तत्पश्चात् वह गौओं की रक्षा करनेवाला सुभग ( गोपाल) हुआ। उसने वन में इन्द्रियों को जीतनेवाले साधु के दर्शन किये और नमो अरहतादि पद का ज्ञान प्राप्त किया, जिसके फलस्वरूप वहां से मरकर तू सुदर्शन हुआ है। अब तू घोर उपसर्ग सहकर, तप के द्वारा अनुपम केवल ज्ञान प्राप्त कर, स्पर्श, गंध, शब्द, व चक्षुरहित अनन्त-चतुष्टय व मोक्ष प्राप्त करेगा। और जो वह भील की प्रिया थी, तथा दूसरे भव में महिषी हुई थी, वह कराल काल के वश, यम के दांतों के बीच पड़ी। ७. इन्द्रियों की लोलुपता के दुष्परिणाम वह चंपानगर के श्यामल नामक रजक की यशोवती नामक भायां की वत्सिनी नामक पुत्री हुई। वह विधवा हो गई, तब उसने अनस्तमित-व्रत धारण कर लिया, जिसके फलस्वरूप, जैनधर्म के पुण्योदय से, मरकर, तेरी प्रिय भार्या मनोरमा हुई। वह भी देव और मनुष्य गति के सुखों को भोगकर निश्चय से मोक्ष जावेगी। इस प्रकार मैंने तुझे जो होनेवाला है, और जो हो चुका, वह वृत्तान्त कह सुनाया। मदोन्मत, मांसल-गात्र मातंग, स्पर्श इन्द्रिय के वशीभूत होकर, सघन वन में पकड़ा जाता है। मीन, अगाध जल के बीच उछलते-कूदते व चलते हुए मांस में प्रसक्त होकर ( रसना इन्द्रिय की लोलुपता से ) फँस जाती है। सुन्दर शरीर भौंरा रुनझुन करता हुआ, सुगंध के लोभ से, कमल पर बैठकर नाश को प्राप्त होता है। चिकना, नवीन अंगधारी पतंग आकाश में उड़ता हुआ, हर्ष से, चमकीले पदार्थ से आकृष्ट हो, अग्नि में प्रवेश करता है। तथा सुन्दर कुरंग वन के बीच भ्रमण करता व मृगी से रमण करता हुआ, मधुर गीत से आकृष्ट हो, जीवन को समाप्त कर बैठता Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ नयनन्दि विरचित [ १०.८. है। इस प्रकार मन में वशीभूत हो, सुख की लालसा से, विषयासक्त हो, मरकर जीव पुनः इस दुःखपूर्ण संसार में भ्रमण करते हैं। ८. इन्द्रियों के वशीभूत हुए देवों व महापुरुषों की विडम्बना __स्पर्श इन्द्रिय के वश से चंग मरण को प्राप्त हुआ, तथा रसना इन्द्रिय के कारण सुभौम नृप। उसी प्रकार गंध का लोभी गंधमित्र, दृष्टि ( चक्षु इन्द्रिय) के कारण सहस्त्रभट व श्रवणेन्द्रिय के रस से गंधर्वदत्त, मरण को प्राप्त हुये। जो कोई अपनी पांचों इन्द्रियों को प्रसार करने से नहीं रोकता, वह स्वयं अपने हाथ से अंगार खींचने का काम करता है। जो प्रसिद्ध व महामानी देव कहे जाते हैं; वे भी चित्त के वशीभूत होकर क्षय को प्राप्त हुये। ब्रह्मा तिलोत्तमा की काय को देखकर, मन के वशीभूत हो, चतुर्मुख हो गया। जो अनन्त कहा जाता है, वह भी अपने मन को न रोक सका ; उसने भी उन्मत्त होकर गोपों की गोपयों को ग्रहण किया। महादेव सती (पार्वती ) को अपने आधे शरीर में तथा सिर पर सुरसिंधु (गंगा) को बैठाए हुए है। इस प्रकार वह भी मन का लोभी व मदान्ध हुआ है। जो समस्त सुरों और असुरों के मस्तक का शूल था, जिसने ऊँचे पर्वत ( कैलाश) को जड़ से हिला दिया था, जिसकी लीलाएँ व काम-काज, सदैव शोभायमान थे, जिसका भ्राता विभीषण था, वह लंका का प्रधान, जगत्त्रय में प्रसिद्ध रावण, रामचन्द्र की अखंडसतीत्व से मंडित पत्नी को देखकर मोहित हो गया, और कामवासना-युक्त मन से उसको हर ले गया; जिसके फलस्वरूप वह रणांगण में लक्ष्मण के चक्र से मारा गया और नरक में पड़कर दुःख सहने लगा। उस भरतेश्वर ( अर्ककीर्ति ) का पुत्र भी सुलोचना के लोभ में पड़ गया, जिसके कारण वह कषायवश, मेघनाद द्वारा समरांगण में बन्धन को प्राप्त हुआ। ९. इन्द्रिय-विजय के महा सुफल महान् गंगा को पार करते हुए, पाराशर ने चलित मन हो, लज्जा छोड़, केवट की कन्या का आलिंगन किया, जिससे उसके गर्भ में तपस्वी महामुनि व्यास उत्पन्न हुए। द्रौपदी के केशग्रह के प्रसंग से महाभारत हुआ। इस प्रकार इस जग में, इस मन (कामासक्तमन ) के द्वारा कौन-कौन विडम्बित नहीं हुए, केवल एक जिनेन्द्र को छोड़कर। इस संसार में जिसका मन अपने वशीभूत हो गया, उसका त्रैलोक्य में यश भ्रमण करने लगता है ; मनुष्य, देव और विद्याधर उसकी सेवा करते हैं, तथा नागेन्द्र और नरेन्द्र उसके गुणसमूह की स्तुति करते हैं। विद्वेषी महान शत्रु उससे त्रस्त हो जाते हैं, तथा कुत्सित विघ्न उसके कदापि दुर्लध्य नहीं होते। बलवान्, उद्धत हाथी उसके आगे खड़े रहते हैं, और चंचल घोड़े कहीं समाते नहीं हैं। उसके अच्छे-अच्छे मंत्र, यंत्र और तंत्र स्फुरायमान हो जाते हैं, व शासनदेवता उसके सब काम करते हैं। धनी लोग उसे अपने Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित २४७ उसे अनेकों अभेद (अक्षय ) उपहार प्राप्त मनोवांछित महान् सुखों का उपभोग कर मरने के पश्चात् और वहां विशाल विमान में दुःखरहित, पूज्य व मनोज्ञ किन्तु जो कोई चंचलमन होता है, वह दुःखरूपी जल में पराई लक्ष्मी व पराई सुन्दर स्त्रियों को देखकर तिल - १०. १०] श्रेष्ठ धन-भंडार अर्पित करते हैं । होते है वह मनुष्य उत्तम देव होता है, सुख प्राप्त करता है । डूब जाता है; वह तिल खीझता है । १०. नरजन्म और धर्म की दुर्लभता पर्वतों में श्रेष्ठ मेरु पर्वत है। कुंजरों में ऐरावत, नागों में शेषनाग, प्रासादों में देवगृह, सागरों में क्षीरोदधि, देवों में इन्द्र और जन्मों में नरजन्म श्रेष्ठ है । ऐसे नरजन्म को पाकर जो मूर्ख धर्म नहीं करता, वह शाश्वत सुख रूपी लक्ष्मी (मोक्ष) को आते हुए कुहनी देता है ( धक्का देकर निकालता है ) । इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर भी जीव सुखदायी धर्म का चिन्तन नहीं करता । क्षण-क्षण हर्ष मानता हुआ चलता है, व अपनी गलती हुई आयु को कुछ नहीं समझता । 'तुम चिरजीवी हो' सुनकर बड़ा हर्षित होता है । 'मर जावो' सुनकर रोष करता है। जानता नहीं कि काल मुझ पर उसी प्रकार अकस्मात् आ पड़ेगा, जिस प्रकार मत्स्य के ऊपर जाल । चमचमाते हुए मयूर के पंखों को, गजेन्द्र के दांत को, मृग के चर्म को, गैंडे की अस्थि को, कृमिरुह ( रेशम ) से बनी लोइयां व कंबल, इन सब को लोगों ने पवित्र मानकर प्रशंसा की है । मृतक मनुष्य किसी को इष्ट नहीं होता । उसके निजी बांधव भी उसे अनिष्ट समझ बाहर निकाल देते हैं । उसे छूते भी नहीं हैं, जैसे मानों वह काला सांप हो । उस क्षण प्रिय पत्नी व पुत्र, अपनी मात्र चिन्ता करते हैं । अतएव शरीर की स्थिति को विनश्वर जानकर झटपट, आत्महित में प्रयत्न करना चाहिये । रे मनुष्यो, धर्मरूपी प्रदीप को लो, जिससे लौटकर पुनः जन्मरूपी कूप में न गिरो । इस प्रकार मुनीन्द्र की वाणी सुनकर सुदर्शन ने अपने हाथों को सिर पर चढ़ाया और तत्काल महागुणों की खान धर्म को स्वीकार किया । हे श्रेणिक राजन्, ऐसा जानो । इस प्रकार गौतम गणधर ने उस नयों से प्रसादयुक्त शासन का व्याख्यान किया, जो निश्चय ही सुन्दर कला ( सम्यक्ज्ञान ) से युक्त है, समस्त भूमंडल को प्रिय तथा अज्ञान का नाश करनेवाला है, जिस प्रकार कि चन्द्र सुन्दर कलाओं का धारी, कुमुदिनी को प्रिय तथा अन्धकार का विनाशक होता है । इति मणिकनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा रचित, पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करने वाले सुदर्शनचरित में, किरात, फिर श्वान, फिर सुभगगोप और फिर सुदर्शन, एवं कुरंगी, फिर महिषी, फिर वत्सिनी नामकी धोवीकी पुत्री, और फिर उत्पन्न हुई मनोरमा, इसप्रकार कथित चार जन्मान्तर, इनका वर्णन करनेवाली दसवीं संधि समाप्त ॥ संधि ॥१०॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ११ १. राजा घाईवाहन का वैराग्य वणिग्वर सुदर्शन ने उन मुनिराज के पास से अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुन कर, संसार से विरक्त हो, तपश्चरण धारण कर लिया, जिस प्रकार कि प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने किया था। उनके तपश्चरण का समाचार सुन कर अपने मन में संसार के भय से त्रस्त हो घाईवाहन राजा एकटक दृष्टि लगा कर पुनः पुनः चिन्तन करने लगा। "नारी का चरित्र बड़ा विचित्र है, जिसे देव भी नहीं जान, सकते। मैं अज्ञानी उसके प्रमाण को कैसे जान सकता हूं? मेरी पत्नी झटपट दंभ प्रकाशित करके मर गई। इस निमित्त को लेकर वह सुदर्शन विरक्त हो गया, तथा उसने मनोज्ञ राज्य को रज्जु के समान छोड़कर, सुपूज्य व सुशिक्ष्य (संयमात्मक) दिगंबरी दीक्षा ग्रहण की। और मैं इन्द्रिय-लंपट होता हुआ कुल भी नहीं समझ रहा हूं। मैं महान् और अनन्त पाप करता हुआ शंकित नहीं होता। ज्ञात नहीं, मैं मर कर भविष्य में कहां उत्पन्न होऊगा।" इस प्रकार अपने चित्त में विचार करके उस राजा ने अपने समस्त देश का राज्य अपने पुत्र को दे दिया और मुनीन्द्र को नमस्कार करके स्वयं निर्दोष दिगंबर मुनि हो गया। उसकी समस्त प्रिय पत्नियां भी उद्विग्न हो उठी और फिर वे सभी, हे मुकुटधारी नरेश ( श्रेणिक ), गर्व छोड़ दीक्षित हो गई। यह सब देखकर दूसरे कितने ही लोगों ने व्रत धारण किया और कितनों ने महाशल्य के सदृश मिथ्यात्व का परित्याग किया। २. गोचरी के समय नगर में सुदर्शन मुनि की चर्चा उन नरपति प्रमुख समस्त मुनियों ने चतुर्थ व्रत ( चतुर्थभक्त रूप उपवास ) धारण किया, और फिर अन्य दिन चम्पानगरी में तपलक्ष्मी से विभूषित (मुनि धर्मानुसार ) गोचरी प्रगट की। जहां पर उन्होंने राज्यश्री का उपभोग किया था, वहीं पर अब भिक्षाचरण किया। उनके न लोभ था, न लज्जा, न भय और न अभिमान । उनको यदि प्रेम था तो तपश्चर्या से। प्रत्येक साधु उच्च व नीच गृह का विचार न कर, घर के प्रांगण में पहुंचता व क्रमशः एक मार्ग से दूसरे मार्ग में भ्रमण करता, जिस प्रकार कि चन्द्र विशाल नभांगन में ऊच-नीच ग्रहों का विचार न कर क्रमशः प्रत्येक नक्षत्र में भ्रमण करता है। सुदर्शन मुनि का सौन्दर्य देखने के लिए, यौवनवती नारियां एक दूसरे के अंग से अंग का घर्षण करती हुई, व मेखला को स्खलित करती हुई दौड़ पड़ी। कोई बोली-“हे सखि, पहले भी इस ( सुदर्शन ने ) नगर को क्षोभित किया था व कपिलभट्ट की प्रिया विपरीत भाव में प्रवृत्त हुई थी, किन्तु इसने–'मैं तो नपुंसक हूं' ऐसा प्रत्युत्तर दे कर उसको भुलावे में डाल दिया।" कोई बोली-“इसने नरेन्द्र की वल्लभा अभया की भी इच्छा Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ४] सुदर्शन-चरित २४९ नहीं की, जिससे उसने प्रभातकाल में ढोंग रचा, और अंत में लज्जित हो, वृक्ष से लटक कर आत्मघात कर लिया।" कोई बोली- "इसने अपनी कान्ता मनोरमा को छोड़ कर, दीक्षा रूपी वधू का वरण किया है। हे मुग्धे, तू क्यों इसकी ओर कटाक्ष से निरीक्षण करती है ? वह तेरी ओर ध्यान नहीं देता। री चन्द्रगृहीत ( बावली ), दूर हट, दूर हट। हे सखि, हे सखि, इसको अपने मन में मत बसा; उसके पीछे लग कर मत दौड़। इससे केवल लोगों में तेरी निर्लज्जता का प्रकाशन और उपहास होगा।" सुदर्शन मुनि अपनी दृष्टि चार हाथ आगे पृथ्वी पर देते हुए चलते व अत्यन्त मौनव्रत से रहते। वे ऐसी स्त्री-कथा नहीं करते, जिससे कामरस की उत्पत्ति हो। उन्होंने हास्य, रतिपूर्वक अवलोकन, परिग्रह, अपनी पूर्व रति के स्मरण का परित्याग कर दिया है। वे अब सुन्दर लड़ियों युक्त हार, सुन्दर कंकन, कुंडल व शेखर आदि आभरण धारण नहीं करते। वे स्त्री, तिथंच व नपुंसकों से रहित स्थान में वास करते व इन्द्रियों का दमन करते हैं। (यह मकराकृति छंद है। इसे कोई लताकुसुम भी कहते हैं।) नगर में चर्या करके वे मुनि लीलापूर्वक मंद गति से हस्ती की सूड के समान हाथों को नीचे लटकाए हुए स्मृतिकरणवश ( सामायिक के काल का ध्यान रखते हुए ) जिनमंदिर को गए। ... ३. मुनिधर्म का पालन वहां जिन मन्दिर में उसने अपने गुरु को नमस्कार करके, तथा अशन, खान, पान एवं स्वाद, इन चारों प्रकार की तृष्णा को छोड़, तत्क्षण प्रत्याख्यान ग्रहण किया। गुरु ने जिस प्रकार कहा, उसी प्रकार सुदर्शन ने समस्त कृति-कर्म का पठन किया। पांच उत्तम व्रत, पंच समिति, पचेन्द्रिय जय, षडावश्यक, केशलौच, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतवण, स्थिति-भोजन और एक भक्त, ये अट्ठाईस मूल गुण कहे गए हैं। चौदह मल और बत्तीस अंतराय, इनका वह (सुदर्शन ) प्रमादरहित पालन करने लगा। सोलह उद्गम के, सोलह उत्पादन के दश एषणा के, एवं इंगाल, धूम, संयोजन एवं प्रमाण, इन छयालीस दोषों को छोड़ता हुआ वह धर्मध्यान करता हुआ रहने लगा। वह न रति करता और न अरति, न हास्य और न जुगुप्सा, वह न निद्रा के वश होता, और न पूजा-सत्कार की वांछा करता॥३॥ ४. सुदर्शन मुनि की साधनाएं सुदर्शन ग्रीष्म काल में पर्वत की शिला के ऊपर आतापन योग करता, वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे, एवं शीतकाल में बाहर खुले में निवास करता। वह अपने मन में एक परमतत्त्व का ध्यान करता; तथा राग और द्वेष, इन दो का निवारण करता। शरीर के कांटों रूप तीन शल्यों को दूर करता। चार कषाय रूप दुर्जनों का निर्दलन करता। पांच आस्रव-द्वारों का निरोध करता। छह जीव-निकायों की हिंसा न करता। सप्तभयों को अपने चित्त से योजित नहीं ३२ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० नयनन्दि विरचित [११. ५. करता। आठ मदरूपी दुष्टों को दूर से त्यागता। नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य का निर्वाह करता। दशलक्षण धर्म की आराधना करता। ग्यारह श्रावकगुणों का भाषण करता। बारह प्रकार के तप से अपने शरीर को सुखाता। तेरह प्रकार के चरित्र का परिपालन करता। चौदह प्रकार की जीवराशियों पर दयादृष्टि रखता। पन्द्रह प्रकार के प्रमादों से भय खाता। सोलह स्वर्म स्थानों की इच्छा न करता। सत्रह प्रकार के असंयमों को छोड़ता। अठारह संपरायों का मर्दन करता। उन्नीस नाह (घम्मकहा) के अध्ययनों तथा असमाधि-स्थानों की जानकारी प्राप्त करता। इक्कीस शबल दोषों का मंथन करता, तथा बाईस परीषहों को सहन करता। सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों व चौबीस जैन तीर्थंकरों की वाणी का व्याख्यान करता। पच्चीस भावनाओं का उद्गोपन करता। छब्बीस पृथ्वियों की परिभावना करता। मुनियों के सत्ताइस गुणों का उत्कर्ष करता। अट्ठाइस प्रकार के आचार प्रकट करता। उनतीस पापश्रुतों को दूर रखता। तीस मोह के स्थानों को चकनाचूर करता। इकतीस मल वादों ( दूषितवादों ) से घृणा करता, तथा बत्तीस जिनोपदेशों की वांछा करता था। इधर कुसुमपुर में जो पंडिता भाग कर आई थी, उसने देवदत्ता के समक्ष प्रसन्नता से यह कथा कही । ५. पंडिता ने देवदत्ता को सुदर्शन का पूर्ववृत्त सुनाया। इसी उत्तम भरतक्षेत्र के अंगदेश में चम्पा का राजा धाईवाहन है, जो अभयादेवी से संयुक्त तथा त्रैलोक्य का मोहक है। उसी चंपा नगरी में ऋषभदास नामका वणिक् रहता था। उसकी अहंदासी नाम की गुणवती भार्या थी। उसके सुदर्शन नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जो युवा होने पर त्रिभुवन में विख्यात हुआ। वहीं पर सागरसेन नाम का एक दूसरा वणिक रहता था, जिसकी सागरसेना नाम की भार्या थी। उसकी मनोरमा नाम की सुन्दर पुत्री का विवाह सुदर्शन के साथ हुआ। उनके सुकान्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। इसी बीच उपवन में एक मुनि आये। उस मुनि के पास धर्मश्रवण करके, ऋषभदास ने जिनदीक्षा ले ली। उसी नगर में कपिल भट्ट नाम के राजा का प्रिय पुरोहित रहता था। उसकी कपिला नाम की मनीष्ट भार्या थी, जो सुदर्शन से रमण करने के लिये उत्कंठित हुई। उसने अपनी सखी के द्वारा, मित्र के बहाने, सुदर्शन को अपने पास बुला लिया। सुदर्शन ने अपने को नपुंसक कहकर उससे छुटकारा पाया, और उसने भी उसकी इच्छा छोड़ दी। फिर वसन्त ऋतु में नंदनवन फूल उठा, और राजा पुरजनों के साथ वहाँ को चला। यहाँ अभयमती रानी ने वन को जाते हुए व कपिला के साथ क्रीडापूर्वक बातचीत करते हुए, यह प्रतिज्ञा ले ली कि यदि मैं उस वणिग्वर के साथ रमण न करूँ तो आत्मघात कर लूंगी। प्रेम में क्या दुष्कर है ? रानी ने घर आकर यह बात मुझसे कही। मैंने उसे पुनः पुनः रोका। किन्तु वह पंख लगी चींटी के सदृश क्षुद्रतावश उत्तेजित हो चमक उठी। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११.७] सुदर्शन-चरित २५१ ६. देवदत्ता की भीषण प्रतिज्ञा उसकी बात सुनकर, मैंने भी पुतले बनवाए, और उन्हें प्रगट नहीं किया। फिर प्रतिपदा आदि तिथियों में रात्रि के समय द्वारपालों के साथ कलह करके, मैंने उन्हें ( पुतलों को ) फोड़ डाला। फिर कपट प्रकाशित करके व भटों ( द्वारपालों ) को डराकर, मैं उस वणिग्वर को ले आई और उसे रानी को समर्पित कर दिया। उसने उसे बहुत मनाया। किन्तु जब वह नहीं माना, तब रानी ने अपने नखों से अपने स्तनों को नोंच, व लोगों को पुकार कर, उस गुणवान को मरवा डालने का प्रयत्न किया। किन्तु उसी समय वहाँ एक निशाचर प्रकट हो गया। उसने राजा के भटसमूह को स्तम्भित कर दिया और फिर युद्ध करके राजा से कहा कि तू उस लम्बितबाहु वणिग्वर के शरण में प्रविष्ट हो। राजा ने उस वणिक् को अपनी राज्यश्री देना चाहा। किन्तु उसने उसे स्वीकार नहीं किया, व तप धारण कर लिया। अभया ने त्रस्त होकर आत्मघात कर लिया, और मैं भागकर यहाँ आ गई। जब पंडिता ने इस प्रकार वृत्तान्त सुनाया, तब उस स्थूलस्तना गणिका ने हँसकर सहसा कहा-"मैं समझती हूँ कि वह कपिला (ब्राह्मणी ) व अभयारानी ( इस कार्य में ) दक्ष नहीं थीं। करणबंध, प्रेम-प्रवर्तन, रतिकर्म, एवं कोमलता से नख-घट्टन आदि मेरे कुल के विज्ञान हैं, और मैं इन सब कलाओं को जानती हूँ। जो वह वणिग्वर था, सो मुनिवर हो गया, ऐसा तू ने क्यों वर्णन किया ? जो-जो गले से गरजते थे, ऐसे किन-किन को मैंने अपने में अनुरक्त नहीं बनाया ? यदि मैं उसे दृष्टि में पड़ते ही तपश्चरण से भ्रष्ट कर, अपने वश में न करूँ, तो, हे त्रिभुवन-परमेश्वरि, कुण्डेश्वरि, मैं तेरे चरणों के आगे अपना बलिदान कर दूंगी।" नगर में प्रसिद्धि हुई और सुदर्शन के दर्शन के लिए युवती स्त्रियाँ ऐसी मोहित हो उठीं, जैसे सूर्य के उदित होने पर कमलिनी-वन । ७. सुदर्शन मुनि विहार करते हुए पाटलिपुत्र पहुँचे ___ इसी बीच यहाँ अपने गुरु से पूछकर, देवों और मनुष्यों द्वारा प्रशंसित सुदर्शन मुनि जिनेन्द्र के चरणकमल-युगलों की वन्दना करते हुए, विहार करने लगे। उन्होंने साकेत में जाकर ऋषभ, अजित, अभिनन्दन, सुमति और अनन्त, इन तीर्थकरों को प्रणाम किया। श्रावस्ती में संभव जिनेन्द्र की वन्दना की, और फिर कौशाम्बी में पद्मप्रभ की। फिर बनारस में पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ की, तथा चन्द्रपुरी में चन्द्रप्रभ भगवान की स्तुति की। काकन्दी में भगवान पुष्पदंत, भहिलपुर में भट्टारक शीतलनाथ, सिंहपुर में श्रेयांस जिनेश्वर, चंपा में परमेश्वर वासुपूज्य, काम्पिल्य में जगद्गुरु विमलदेव, रत्नपुरी में देवों द्वारा नमितचरण धर्मनाथ, गजपुर में शान्ति, कुन्थु और अरहनाथ जिनवर, मिथिला में मल्लि और नमि तीर्थकर, तथा राजगृह में मुनिसुव्रत, एवं शौरीपुर में उन्होंने अरिष्टनेमि की वन्दना की, व कुण्डलपुर में त्रैलोक्य नमित अन्तिम तीर्थकर वर्द्धमान का अभिनन्दन Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ नयनन्दि विरचित [ ११. 5. किया। इस प्रकार विहार करते हुए, तप से तपाए हुए सुदर्शन मुनि पाटलिपुत्र नगर में आकर पहुँचे। वहाँ वे मुनिराज कुसुमपुर में चर्या ( भिक्षाचर्या ) के लिए प्रविष्ट हुए । तब धवलगृह के ऊपर चढ़ी हुई पंडिता ने उन्हें अकस्मात् देखा । ८. पंडिता ने देवदत्ता को सुदर्शन का परिचय कराया उस विदुषी ने मुनिराज को देखकर, मुस्कुराते हुए अपने हाथ की अंगुली से बालमृगनयना देवदत्ता को संकेत दिखाकर कहा - " यही वह है जो चंपानगरी में प्रसिद्ध हुआ । यही है वह जिनदासी का पुत्र । यही है वह, जिसने उस नगर में क्षोभ उत्पन्न कर दिया था । यही उस सुन्दरी मनोरमा का पति है । यही वह कपिल भट्ट का परम मित्र है । और यही है वह, जिसने कपिला से छल किया था । इसी में अभया ने अपना मन आसक्त किया था । और इसी को मैंने घर में लाकर डाल दिया था । यही है वह, जो उसके वश में नहीं आया और यही है जो अपने शरीर की आसक्ति छोड़ ( ध्यान में ) स्थित रहा । इसी मरवा डालने के लिए भेजा गया, और वह अपने पुण्य के कारण किसी प्रकार बच गया । इसी को राजा ने राज्य दिया, किन्तु यह परमकार्य ( मोक्ष -साधन ) केही चिन्तन में लीन रहा । यही है वह जो अपने सौन्दर्य से कामदेव है, और यही वह है, जो अभया के मरण का कारण हुआ । यही है वह, जो उसी समय श्रमण हो गया । यही है वह, जो गुणरूपी रत्नों की राशि है । यही है वह, जिसके कारण मैं वहां से भागी । और यही है वह जिसके लिए तू म्लान हुई है । यही वह महागुणशाली है, जिसके ऊपर तू बार-बार अपना गर्व करती है ।" इन वचनों को सुनकर गणिका ने अपनी दासी को अपने पास से - " शीघ्र ही प्रासाद के नीचे मुनि को ठहरायो,” ऐसा कह कर भेजा । ९. रत्नखचित कपाटों को देख सुदर्शन मुनि का वैराग्यभाव फिर मणिरत्नों से खचित दृढ़ व कठिन कपाटों के पल्लों को देखकर, मुनिवर जिन - प्रतिमा योग में स्थित हुए चिन्तन करने लगे - " जो मित्र कपट करे, उससे क्या लाभ? वह कैसा सज्जन, जो दूसरों का उपहास करे ? वह कैस राजा, जो लोगों को संताप दे ? वह कैसा स्नेह, जो अप्रिय प्रगट करे ? पापकारी धर्म की प्राप्ति से क्या लाभ? ऊसर क्षेत्र में बीज बोने से क्या ? सौन्दर्य-विहीन कमल कैसा ; व कलंक लगा मनुष्य कैसा ? वह फूल कैसा जो गंधरहित हो, और वह शूर कैसा जो समर में पराजित हो ? जो सौंपे कार्य में शंका करे, वह सेवक कैसा ? और वह तुरंग कैसा, जिसका उरस्थल ढका हुआ हो ? कृपरण के हाथ में पड़े हुए द्रव्य से क्या लाभ ? वह कैसा काव्य, जो लक्षणों ( व्याकरण शुद्धि व अलंकार आदि साहित्य के गुणों) से दूषित हो ? नीरस ट के नृत्य से क्या लाभ? वह कैसा साधु जो इन्द्रिय- लंपट हो ? जिस प्रकार अनि तृण व काष्ट से, तथा सागर लाखों नदियों से तृप्ति नहीं नहीं पाता, उसी प्रकार तृष्णातुर जीव भी भोगों से संतुष्ट नहीं होता । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. १२] सुदर्शन-चरित २५३ १०. विलासिनी द्वारा मुनि का प्रलोभन मैं भी बिजली से भी अधिक चपल विषयसुखों के परवश होकर, बहुत विपत्तियों में पड़ा। इस प्रकार जब सुदर्शन मुनि विरक्त भाव से अपने मन में पुनः पुनः विचार कर रहे थे, तभी उमा के चरण-कमलों की भ्रमरी, वह सुन्दरी उनकी ओर विलासपूर्ण दृष्टि से अवलोकन करती हुई उन मुनिवरनाथ के पास आई, जो क्षमा के निवासस्थान व तपरूपी लक्ष्मी से संयुक्त थे। वह कहने लगी-“तू अपने को दुख में क्यों डाल रहा है ? हे सुन्दर, सुखसमूह का भोग कर। तप करके तो सुख दुसरे भव में प्राप्त किया जाता है। गौ के थन को छोड़कर सींग को दुहने से क्या लाभ ? तू सोलह आभरणों के योग्य है ; फिर तू मल से लिप्त और नंगा क्यों रहता है ? क्यों तू व्यर्थ ही अपने शरीर को संतापित कर रहा है ? मेरे हितार्थ वचन पर विचार कर। अथवा, यदि तुझे तप का आग्रह ही लग गया है, तो भी तू सुख भोगकर, पीछे नग्न हो जाना। तू कोमल महिलाओं का रमण क्यों नहीं करता ? हाय-हाय, तू कैसा देव से छला गया है ? अरे, पूर्णचन्द्रवदना, अतिस्थूल नितम्बोंवाली, चक्रस्तनी, विलास-चंचलनयना, सुन्दर रमणीजनों का उपभोग कर।" ११. विलासिनी की कामलीला व मुनि की निश्चलता "तू तप से परभव में क्या पाएगा ? परभव किसने देखा है ? क्योंकि जीवन थोड़े से दिनों का है, अतएव मनोवांछित भोगों को भोगना योग्य है ?" किन्तु जिसने अपने शरीर को जीर्ण तृण के समान मान लिया था, उसका मन इन वचनों से कैसे भिद सकता था ? तब फिर वह सुन्दरी लोगों के मन को मोहित करनेवाले हाव, भाव, विलास और विभ्रम प्रकट करने लगी। कुछ सीत्कार, बहुत कुछ शरीर की मटकन, धीरे-धीरे काम-चेष्टा, स्तन-पीडन, हाथों से प्रहार ( अंगस्पर्श ) सुन्दर अधरों का पीड़न ( काटना ), जीभ से चाटना, आंखें मींचना, काममुद्रा ग्रहण करना, धीरे-धीरे नखों का संघटन, एवं नाना भोगमुद्राओं का विपरिवर्तन, ये सब पाकर भी जिसका हृदय नहीं भिदा, उसके समान इस भुवन में कौन कहा जा सकता ? वही पुरूष धन्य है, कृतार्थ है और भवसमुद्र के पार करने में समर्थ है। इस प्रकार जब तीन रात्रि-दिन निकल गए, तब उस सुन्दरी ने निराश होकर मुनि को श्मशान में जाकर डाल दिया। वहां मुनि शरीर के उपसर्ग के कारण त्रिविध निर्वेद से युक्त, रत्नत्रय धारण किये हुए व नग्न तथा उदासीन-चित्त हुए स्थित रहे। ---- १२. देवांगना के विमान का वर्णन वहां जब वे मुणिवर चतुर्विध आहार का त्याग किये हुए स्थित थे, तभी, हे श्रेणिक राजन्, एक दूसरी विस्मयजनक घटना उत्पन्न हुई। वह अत्यन्त विविध Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ नयनन्दि विरचित [११. १३. प्रकार के चित्रों तथा गोल स्तूपाकार शिखर से युक्त, घग्घरसमूह (घाघरा परिकर ?) से घव-घव शब्द करता हुआ, घंटियों के स्वर का रूनझुन् शब्द करते हुए, टनटनाते हुए घंटों से युक्त, जगमगाते हुए रत्नों की प्रभा से प्रभासमान, फहराते हुए ध्वजपटों से विशाल, मणिमय गवाक्षों व मणिमय कपाटों से युक्त, नृत्य करती हुई शालभंजिकाओं से सुसज्जित, द्वारपर मत्तवारणों ( ओटों) से अंकित, पत्रावलि के नानारूप आकारों से सुन्दर, पचरंगे चंदोवे से संयुक्त, नाना रत्नों के झूमकों से झूलते हुए, धूप की गंध से दिशाओं को सुवासित करते हुए, गुमगुमाते हुए भौंरों से घिरे, तीव्र सूर्यकिरणों को पराजित करते हुए, देव-विमान से भी अधिक विशिष्ट, ऐसे विमान में चढ़कर एक देवांगना हर्ष से नाचती घूमने की इच्छा से नभस्तल में जाती हुई प्रगट हुई। १३. मुनिराज के ऊपर आकर विमान कैसा स्थिर हुआ जब वह विमान मुनिवर सुदर्शन के ऊपर पहुंचा, तब वह थर्रा कर ऐसा स्थिर हो गया, जैसे पूर्वकाल में कैलाश पर्वत पर बालि मुनि के ऊपर पुष्पक विमान स्थिर हुआ था। जैसे कायरचित्त मनुष्य भटों के भीषण संग्राम में प्रवृत्त नहीं होता। जैसे देव का स्वर्ग से नरक में पतन नहीं होता। जैसे सुपुण्यवान जिनवर के सम्मुख मानविकार की प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे उत्तम सुवर्ण में मलकलंक नहीं रहता। जैसे मूर्ख लोगों की वाणी पदों के समास में प्रवृत्त नहीं होती। जैसे यम का पाश लोकाग्र में वास करनेवाले सिद्धों पर नहीं चलता। जैसे सूर्य के प्रकाश में अंधकार नहीं आ पाता। जैसे कुकवियों की रचना सुन्दर कवित्व में प्रवृत्त नहीं होती। जैसे मन की शुद्धि से शुद्ध मुनि की स्नान करने में प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे पाप का लेप सम्यज्ञानी पुरुष में उत्पन्न नहीं होता। जैसे उपशमधारी में संक्लेश भाव उत्पन्न नहीं होता। जैसे स्नेह-हीन व्यक्ति में रतिविलास नहीं चलता। जैसे मानुषोत्तर के ऊपर मनुष्य-गमन नहीं होता। जैसे शुद्ध सिद्ध में संसारोत्पत्ति नहीं होती। तथा जिस प्रकार केवलज्ञानी में खानपान रूप प्रवृत्ति नहीं होती। उसी प्रकार वह विमान मुनीश्वर के सिर पर से आगे नहीं बढ़ सका। वह देवविमान नभ में चलते चलते थर्रा कर स्थिर हो गया। किन्तु फिर भी वह भूमि-तल पर नहीं गिरा, यही मेरे मन में बड़ा आश्चर्य है। १४. देवांगना का रोष मुनि के तपश्चरण के प्रवर माहात्म्य से चन्द्र भी आकाश से आ गिरता है; फिर दूसरे किसी की तो गणना ही क्या है ? ऐसा जान कर जिनवर-धर्म में लगना चाहिये। अपने विमान को आकाश में डोलते हुए देखकर, वह व्यंतरी रोषपूर्वक बोली-"किसने सोते हुए सिंह को रौंदा है ? किसने नारायण की Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. १६] सुदर्शन-चरित २५५ नाभि से उत्पन्न कमल को तोड़ा है ? किसने खड्ग से व्योमांगन को ताडित किया है ? किसने गर्व से कालाग्नि को फाड़ा है ? किसने मुष्टि से चन्द्र को गिराया है ? किसने कैलाश में विश्वेश्वर (महादेव ) पर धाड़ा मारा है ? किसने राशिगत शनिश्चर को रुष्ट किया है ? किसने चूट से समुद्र को सुखाया है ? किसने शेष नाग के फणामंडप का मर्दन किया है ? किसने अपनी शक्ति से रण में भद्र हाथी को जीता है ? किसने सुमेरु पर्वत को चलायमान किया है ? किस मूर्ख ने कालानल को प्रज्वलित किया है ? कौन ऐसा है, जो सूर्य के रथ को रोके ? और कौन है वह, जो इस मनानन्ददायी विमान को रोके ? जो कोई विमान का निरोध करता है उसका मैं सिर रूपी कमल तोड़ लूगी। कौन ऐसा कालप्रेरित है, जो मुझे क्षुब्ध करना चाहता है ? १५. व्यंतरी का पूर्वजन्म स्मरण व मुनि का उपसर्ग फिर जब उस व्यंतरी ने दशों दिशाओं में अवलोकन किया, तब उसे श्मशान में मुनिराज दिखाई दिये। उन्हें देख उसे अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त स्मरण हो आया, और वह झट से अग्नि की ज्वाला के समान प्रज्वलित हो उठी। पूर्व जन्म का स्मरण कर उस व्यंतरी ने मुनि का घोर उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया-“पकड़ो, दौड़ो-दौड़ो, मारो-मारो” कहते हुए निशाचर चारों दिशाओं में किलकिलाने लगे। चारों दिशाओं में रंड दडदड़ाने लगे, मुंड हड़हड़ाने लगे, और अजगर तड़तड़ाने लगे। चारों दिशाओं में मशक (मच्छर ) गुनगुनाए, भौरे रुणरुणाए, उल्लू घू घृ करने लगे और भैंसे सू सू करने लगे। कौवे करकराए और कुत्ते गुरगुराने लगे। वानर कुलकुलाने और हाथी गुड़गुड़ाने लगे। सर्प सलसलाने, और ऊंट फिक्कार करने लगे। चारों दिशाओं में अग्नि की ज्वालाए उठने लगीं। चारों दिशाओं में रुधिर झलझलाने लगा। मुनि के चारों ओर पुनः पुनः खड्ग धारण किये हुए निशाचर घूमने लगे, मानों प्रलय के समय कल्लोलधारी सागर उछल रहे हों। १६. भूतों और वेतालों की उद्वगकारिणी माया फिर वे निशाचर नाना वेश धारण करके, दशों दिशाओं में ऐसे फैले कि माते ( समाते ) नहीं थे। वे एक क्षण में सिंह, शरभ, व व्याघ्र रूप विकराल मुख बना कर, रू-रू करते हुए दौड़े। अन्य वेताल कपाल लेकर आए, और उन्हें मुनि के व्रत को नष्ट करने के लिए उनके आगे डालने लगे। अन्य भैरुंड मांस के टुकड़े खाने लगे, और अन्य केश लहराते हुए नरशीर्ष ( मनुष्यों की खोपड़ियां ) लेने लगे। अन्य अपने नाशापुटों से, ओठों से हाथ के प्रकोष्ठों द्वारा सुसकने लगे। दूसरे मरे हुए नरकंकाल के लिए तृषित हो उठे। कोई अभद्र गधों के स्वरों से रेंकने लगे। दूसरे स्याही के समान कृष्णवर्ण व लम्बकर्ण हंसने लगे। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ नयनन्दि विरचित [११. १७. दूसरे लोहू से लथपथ मृतशरीरों पर चढ़कर चिल्लाने लगे। अन्य गलित-वस्त्र ( नग्न ) होकर व हाथ पसार कर नाचने लगे। अन्य सौ मुख, लाल आंखें और बहुत सी भुजाओं को बनाकर आए। अन्य कीड़ों से पूर्ण अति दुर्गन्धि बनकर शीघ्र मर गए। अन्य रंड बनकर अप्रमाण उड़ाने मारने लगे। तथा अन्य मुड बनकर ललकारें और हांके छोड़ने लगे। अन्य बड़ी-बड़ी डाढ़ों व विकराल भृकुटियों से युक्त मदोन्मत्त हुए, मारो-मारो कहते हुए, व अंग पर ताल ठोंकते हुए आ पहुंचे। इस प्रकार की विक्रियाओं द्वारा भूतों ने जल, थल, व आकाश को भर दिया, मानों यमने अपने को नानारूपों द्वारा दिखलाया हो। १७. महान् उपसर्गों के बीच सुदर्शन मुनि की स्थिरता इतना होने पर भी श्रमण सुदर्शन अपने योग से विचलित नहीं हुए। वे उसी प्रकार निष्कंप व अगर्व ( निर्विकार ) बने रहे, जिस प्रकार कि प्रकाशमान सुमेरु पर्वत तीक्ष्ण व चपल पवन के आघात होने पर भी अडोल बना रहता है। तब उन निशाचरों ने आकाश में ऐसा चपल मेघ उत्पन्न किया, जिससे जल बरसने लगा, सूर्य ढक गया; तथा निरन्तर जलप्रवाह से मत्स्य और मगर सब ओर दौड़ने लगे। वह मेघ चपल बिजली युक्त तड़तड़ाने तथा देवों, मृगों, वनचरों तथा विषधरों को भयभीत करने लगा। लोग त्रस्त होने लगे, शरीर सूखने लगा, और वे भयरहित वन में प्रविष्ट होने लगे। जल में, थल में, महीतल पर अत्यधिक जल बहने लगा। फिर सब लोग कहने लगे-"क्या प्रलय के दिन का अवसर आ गया ? चारों दिशाओं में पृथ्वी को भरता हुआ महान् जल प्रसार हो गया। कहां चलो, कहां भागो, कहां जिओ, और किससे कहो ? अपने पुत्रों तथा प्रियाओं सहित कहां प्रवेश करके सुख पाओ? असाधारण जलवृष्टि से महीमंडल झलझला उठा। घर और नगर बहने लगे। पर्वत शिखर टलटलाने लगे। फिर वे दुष्ट कलकलाने, गिलगिलाने, आकाश में मिलने एवं घोर ध्वनि करने लगे, तथा बार-बार अतिप्रबल हल व मुसल दिखलाने लगे। किन्तु इतने पर भी वह गुणनिधान मुनि अपने क्षण ( ध्यान ) से विचलित नहीं हुआ। (यह दश-दश लघु मात्राओं द्वारा शशितिलक नामक छंद कहा गया )। जिस मुनिनाथ ने अपने तन, मन व वचन का निरोध कर लिया, उसको भला महान् जलप्रवाह से ही कैसे वशीभूत किया जा सकता है ? १८. व्यंतरी द्वारा घोरतर उपसर्ग और मुनि की वही निश्चलता फिर उस व्यंतरी ने ऐसा महान् अनल निर्माण किया जो वृक्षों की शाखाओं के परस्पर संघर्षण से उत्पादित स्फुलिंगों से लालवर्ण हो रहा था तथा जिसने धूलि के भार से समस्त भुवनतल को भर दिया। किन्तु जब इससे भी वह धीर साधु अपने योग से विचलित नहीं हुआ, और वह अपने समस्त परिग्रह को छोड़, गुणों का आवास व गंभीर बना रहा, तब वह व्यंतरी तीव्र कोप से कांप उठी, Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. १६] सुदर्शन-चरित २५७ और अपने मुख से प्रचंड अलाप छोड़ती हुई बोली-“पूर्व काल में भी मैंने तुझे श्मशान से मंगवाकर मनाया। फिर प्रभात होने पर पुकार मचाकर दंभ से तेरा अपमान कराया। उस समय एक राक्षस ने आकर तेरी रक्षा की। किन्तु अब कौन तेरी रक्षा करता है ?" ऐसा कहकर वह अक्षय दुःखपूणे पाताल में गई और अपने बाहुदंडों से उसने धरापीठ को ऊँचा उठा लिया, जिससे ऊँचा महापर्वतचक्र भी कंपित हो गया। इससे अपने गंडों में मद बहाते हुए हाथी भी संत्रस्त हो उठे, और उनके चीत्कार शब्द से सिंह रुष्ट हो उठे। सिंहों की दहाड़ से दिशा-चक्र आपूरित हो गया। इससे सागर पर्यन्त गिरते हुए दिग्गजों ने चीत्कार छोड़ी। उनके गिर पड़ने से भूमंडल डोलने लगा। उससे झल (तरंगों) युक्त सातों सागर उछलने लगे। उनकी कल्लोल-माला द्वारा व्योंमांगन का उल्लंघन हो गया। इससे चन्द्र, सूर्य व तारामंडल झटपट झकझोर गये। इस प्रकार मानों अकाल ( असमय ) में ही प्रलयकाल उपस्थित हो गया। (इस प्रकार यह मंदारदाम छंद स्पष्ट कहा गया)। अभया व्यंतरी ने त्रैलोक्यमंउल को संतापित कर डाला। तथापि वह उस ध्यानस्थ मुनि के एक रोम को भी कंपित न कर पाई। १९. सुदर्शन का पूर्व उदाहरणों का स्मरण और स्वयं दृढ़ रहने का निश्चय वह श्रमण चिन्तन करने लगा-"सूर्य गगनतल का भूषण है। प्रणय-रोष स्नेह का, मद करिवर का, कलश धवलगृह का, और उपशम तप का भूषण है।" वह अपने कुलरूपी नभस्तल का चन्द्र ऋषि पुनः सोचने लगा, कि श्रुतधर मुनिवर को किस प्रकार उत्तम क्षमा, मार्दव व आर्जवभाव से लाभ हुआ। अपने विमान पर आरूढ़ विद्युदृढ़ व्यंतर ने संयमी को दुर्गम पंचनदी संगम पर क्षोभ पहुँचाया, किन्तु वह संयमी क्षुब्ध नहीं हुआ। फिर कामदेव को जीतनेवाले बालि भट्टारक को दशानन ( रावण ) ने रुष्ट होकर, व भृकुटि खेंचकर, पर्वत से उतरकर व उसके तल में प्रवेश कर, अष्टापद पर्वत को उठाया। किन्तु फिर भी वह मुनिश्रेष्ठ चलायमान न हुआ। उसी प्रकार गजकुमार खीलों से कीले जाने पर भी उद्वेलित नहीं हुआ। पर्वत पर कुलभूषण मुनिवरों ने एक असुर द्वारा किए गए उपसर्ग सहे और क्षमा धारण की। प्राचीन काल में दंडक राजा ने अत्यन्त कषाय के वशीभूत होकर पृथ्वीमंडल के चन्द्र पांच सौ मुनीन्द्रों को शस्त्रों से हला और यंत्रों से पेला। सीतांगदेव ने माया वेश बनाकर राघव (रामचन्द्र ) का उपसर्ग किया, तो भी वह उनका योग भंग नहीं कर सका। कौरव-कुल के योद्धाओं ने तप्तलोह से जो उपसर्ग किया, उसे आत्मसंयम में प्रवृत्त पांडुपुत्रों ने सहन किया। दुष्ट शठ कमठ ने अभंगरूप से लगातार दिन-रात पार्श्वनाथ का उपसर्ग किया; किन्तु उन्हें उससे मोक्ष का ही लाभ हुआ। इसी प्रकार अन्यान्य गुणधारी यतिवरों ने ईर्षारहित भाव से मनुष्यों और देवों द्वारा किये गये उपसर्गों ३३ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ नयनन्दि विरचित [ ११. २०० को सहन कर स्वकार्य सिद्ध किया था। उन समस्त मुनियों ने जो आदर्श दिखलाया है, उससे मैं भी विचलित नहीं होऊँगा। २०. रक्षक निशाचर व्यंतरी को ललकारता है ऐसे समय में वहां भृकुटि से भीषण, असाधारण रोषपूर्ण नेत्रयुक्त, द्वितीया के चन्द्र सदृश डाढ़ों वाला, हाथों में शस्त्र लिए वही निशाचर आ पहुँचा। उसने हांक लगाई-"री पापिनि, दुष्ट बुद्धि, निहीन, ठहर-ठहर; अब तू कहां जायगी ? अथवा तू अभी जीती हुई भाग जा, नहीं तो तेरे प्राण ले लूँगा।" तब उस व्यंतरी ने दर्प के साथ कहा-“रे पिशाच, आ-आ। ले मेरे प्राण । अरे मूर्ख, तू किस साहस से ऐसा विचारहीन हो रहा है ? इस नगोड़े के लिए प्रमाद मत कर। मैं तेरे प्राण ले लूँगी। रे हताश, भाग जा, भाग जा! किन्तु रे पापराशि, अब तू मेरे पास से कहां जायगा? तेरे सिर के ऊपर यह सजा हुआ दुर्निवार, प्राणहारी कालवज्र क्या न पड़े?" ऐसा कहकर उस व्यंतरी ने अपने हाथ में विद्युतपुंज रूपी तेज व उग्र खङ्ग लेकर उसके उरस्थल पर प्रहार किया, जिससे वह निशाचर अल्प मूर्छा को प्राप्त हो गया। किन्तु पुनः चेतना प्राप्त करके उस राक्षस ने कहा "री निहीन व्यंतरी, मुझ पर तूने जो निर्दयता के साथ असाध्य आघात किया, उससे मेरा वक्षस्थल भिद गया। अब उसका कुछ बदला ले। आ आ।" फिर उसने उस पापिनी पर प्रबल दिव्य शस्त्र छोडे। किन्तु वे सब उसे असार ( निष्तेज ) होकर लगे। तब उस निशाचर ने रोष के वशीभूत होकर अपने धनुष पर दीर्घ शिशिर बाण रक्खा, और उसे सहसा छोड़ दिया ; जिस प्रकार कोई दुःखी-चित्त होकर अपने सिर को हाथ पर रक्खे और दीर्घ ठंडा स्वर छोड़े। २१. शिशिर और ग्रीष्म वाणों का प्रयोग वह अति श्वेत वाण ऐसा दौड़ा, जैसे मानों हिमकणों के मिष से किसी सत्पुरुष का अति उज्ज्वल यश प्रसार कर रहा हो। तथा उसने ऐसा रोमांच प्रगट किया, जैसे मानों वह अभिनव प्रणय कर रहा हो। उस शिशिर वाण के प्रहार से भिदकर वह व्यंतरी बोली-“यह सहसा शीत की वाधा उत्पन्न करनेवाली, सर्व दोषों की खान तेरी शक्ति मैंने देख ली। तू पुरुषकार ( पौरूष ) से वर्जित है। यद्यपि तू भयत्यक्त होकर अपलाप (प्रलाप ) कर रहा है, किन्तु व्याघ्री के पंजे में पड़कर हरिण जीता हुआ कहाँ जायगा ? अभी भी तू , जबतक मैं तेरा सिर नहीं तोड़ती तबतक, अपने घर भाग जा, और शीतल जल पी।" ऐसा कहते ही उस व्यंतरी ने अपनी प्रभा से चमकता हुआ ग्रीष्म नामक बाण छोड़ा। उसके प्रभाव से धूलि-प्रवाह धगधगाने लगा। रज का बवंडर घूमने लगा। कीचड़ में शूकर लोटने लगा। कुंडी का जल सूखने लगा, और दावानल जलने लगा। दुस्सह जलतृष्णा से जिह्वादल फूटने लगा, और लोग तरुतल की शरण लेने लगे। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. २२] सुदर्शन-चरित २५६ ( यह अपने विषम पदों से मनोहर, मणिशेखर नामक छंद कहा गया)। फल ( तीर का अग्रभाग) और सुन्दर पंख सहित सीधा वाण तथा दान व सुपात्रों सहित नर, कहाँ, किसे नहीं सुहाता ? परन्तु धनुष की प्रत्यंचा से छूटा हुआ शर, और धर्मगुण से हीन नर, भुवन को संताप देता है ॥२१॥ २२. निशाचर द्वारा वर्षा-वाण का प्रयोग व व्यंतरी का पराजय वह ग्रीष्म शर, जल में, स्थल में, व गगन में प्रलय की अग्नि के समान प्रगट हुआ। तब उस निशाचर ने भी कुछ हँसकर उसे वर्षावाण से विनष्ट कर डाला। वह अप्रमाण वाण जब चला, तो आकाश में जा मिला। उसके कारण घनपटल अत्यन्त चंचल होकर गड़गड़ाने लगा, मानों वह पृथ्वीमंडल पर, व लोगों के घरों पर गिर रहा हो। उसे सुनकर, अपना सिर धुनते हुए, अग्नि रोनेचिल्लाने व नाचने लगा, तड़तड़ाने लगा और तट पर गिरने लगा। पर्वतों को फोड़ने व लोगों को डराने लगा। तो भी पर्वतों के शिखर पर, बहुत से कन्दराओं में वह प्रचुर जलसमूह प्रसार करता हुआ व बरसता हुआ रुकता नहीं था। समस्त जन भयविकल हुए कहाँ जायँ ? तब वह व्यंतरी उस निशाचर से डरी और थर्राई ; एवं वह दपिष्ट भागी, जिस प्रकार कि प्रकाशमान सूर्य के सम्मुख निशा नष्ट होती है। तब वह मुनिवर अपने हृदय में विधिवत् नयों के व्याख्यान से जगत् को आनन्दित करनेवाले, देवों, मनुष्यों तथा नागों से सेवित जिनदेव के चरणों का स्मरण करने लगा। इस प्रकार माणिक्यनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित पंचणमोकार फल को प्रकाशित करने वाले सुदर्शनचरित में, सुदर्शन मुनि की कथा सुन कर देवदत्ता का अपने घर में उनको क्षोभ पहुंचाना, फिर श्मशान में अपने जन्मान्तर का स्मरण कर अभया व्यंतरी द्वारा उपसर्ग किया जाना, इनका वर्णन करने वाली ग्यारहवीं संधि समाप्त । ॥ संधि ११ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि १२ १. माया-गज का निर्माण और उसपर आरूढ हो सुरेन्द्र का आगमन तत्पश्चात् वहां उस अवसर पर सातवें दिन मनुष्यों और देवों के वंदनीय, सुदर्शन मुनीन्द्र के घातिचतुष्क (चार घातिया कर्म ) का विनाश हो गया, और उन्हे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। जब उन मुनिराज को अविकल केवलज्ञान हुआ, तब देवलोक में सुरेन्द्र ने एक दीर्घशुंड गजवर को आज्ञा दी। उसने सुविस्तीर्ण, मनोहर शरीर धारण किया। उसने बत्तीस मुख बनाये और उनके दूने अर्थात् चौंसठ मदरक्त नेत्र । प्रत्येक शोभा-सम्पन्न मुख में आठ-आठ दांत थे, और फिर प्रत्येक दांत में एक-एक जलचरों से शोभायमान महान् सरोवर था। प्रत्येक सरोवर में एक-एक निर्मल कमलिनी थी, और प्रत्येक कमलिनी में बत्तीस कमल थे। प्रत्येक कमल में बत्तीस पत्र थे, और प्रत्येक पत्र पर परमेष्ठी भक्त, रसभाव में कुशल, शरीर से विकसित बत्तीस बत्तीस अप्सराएँ नृत्य कर रहीं थीं। करीन्द्र ने जितना जम्बूद्वीप का विस्तार है, उतना अपने शरीर का विस्तार किया। उस गजेन्द्र पर आरूढ़ होकर सुरेन्द्र आया और अपने मन में अनुराग सहित इस प्रकार स्तुति करने लगा। २. इन्द्र द्वारा सुदर्शन केवली की स्तुति जय हो, हे जनमनहारी; जय हो, हे भवभयहारी। जय हो, हे महायशधारी; मुनिगणरूपी नभ के चन्द्र । जय हो, हे कामदेव के सुदृढ़ विनाशक । जय हो, हे मेघध्वनिकारक ; जय हो, हे उत्तमपद को प्राप्त व श्रेष्ठों द्वारा चरणों में नमस्कृत। जय हो, हे दया के पथ को निर्माण करने वाले ( अहिंसोपदेशक) जय हो, हे तपरूपी रथ के वाहक । जय हो, हे अन्धकाररूपी वन के दाहक । जय हो, हे नयरूपी जल के हृद (कुण्ड )। जय हो, हे सैकड़ों भवों का मथन करनेवाले। जय हो, हे इन्द्र नमित। जय हो, हे शम और दम में रत। जय हो, हे रज ( कर्ममल ) से रहित । हे भगवन, आप करूणारूपी रात्रि के चन्द्र हैं, कलिकाल के मल रूपी अन्धकार को हरण करनेवाले हैं, देवों और मनुष्यों के समूहों द्वारा वंदित हैं; भव्यरूपी कमलों के दिवाकर हैं, और गुणों के रत्नाकर हैं। हे भगवन्, जगत् में कौन ऐसा है, जो आपका मन में स्मरण न करता हो ? ३. इन्द्र की स्तुति हो जाने पर कुवेर द्वारा समोसरण की रचना आप नीराग हैं, और मान से युक्त हैं। आप मोहरूपी अंधकार के लिए सूर्य हैं। आप बुद्ध है, सिद्ध हैं, निग्रन्थ हैं। आप मित्रों और शत्रुओं के लिए मध्यस्थ हैं। आप शूरों में शूरवीर हैं। आप ( ज्ञान के ) गंभीर पारावार हैं। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२.५] सुदर्शनन-चरित २६१ आप निःसंग हैं, आप निष्तन्द्र हैं, देवों द्वारा भक्ति से वंदनीय हैं। आप त्रैलोक्य के पूज्यों के भी पूज्य हैं; तथा निश्चय ही कर्मरूपी पर्वतों के वज्र हैं। आपने बंध और मोक्ष का चिन्तन किया है, और अव्याबाध ज्ञान को प्राप्त किया है। आप समस्त साधुओं के स्वामी हैं व दुर्लभ लोकाग्र (मोक्ष ) के गामी हैं। आप सर्वज्ञ हैं, और भव्यों के लिए आनन्दभूत हैं। (यह विद्युत्माला छंद है)। इस प्रकार केवली सुदर्शन मुनि की इन्द्र ने स्तुति की। तत्पश्चात् शीघ्र ही कुवेर यक्ष ने बारह गणों ( भागों ) से युक्त चतुर्दिक सभामंडप निर्माण किया, और उसके मध्य में भद्रपीठ पर कर्ममलरहित मुनि विराजमान हुए। ४. केवली भगवान् के विशेष अतिशय चन्द्र व दुग्ध के समान धवल दो चमर, देवों द्वारा भौंरों को तुष्टि उत्पन्न करनेवाली पुष्प-वृष्टि, लोगों को प्रसन्न करनेवाला दुंदुभि-घोष, अपूर्व रवि के समान दिव्य भामंडल, तीनों जगत् का शोक दूर करनेवाला अशोक वृक्ष, तथा पाप का नाश करनेवाली सुमनोज्ञवाणी, इनसे युक्त वह उत्तम केवलज्ञानी मुनि ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे मानों साक्षात् जिनेन्द्र समोसरण में विराजमान हों। और भी समस्त विशेष अतिशय उसी प्रकार प्रगट हुए, जैसे जिनवर के होते हैं। ( इसे निश्वयत: चन्द्रलेखा छंद जानो)। वहाँ अति उपशान्त व बहुत भक्ति के भार से निमित, एवं संसार से विरक्त, उन्हीं में चित्त लगानेवाले भव्यजनों के पूछने पर वे महामुनि उन्हें इस प्रकार उपदेश देने लगे। ५. सुदर्शन केवली का उपदेश व व्यन्तरी का वैराग्यभाव दोषों से रहित अरहंतदेव, ऋषि गुरु, तथा रत्नत्रय का ध्यान करना चाहिये । अहिंसा-लक्षणात्मक धर्म ही गुणकारी होता है। उसमें भी उत्तम मोक्षमार्ग निर्ग्रन्थ धर्म ही है। यह बात मिथ्यात्व के परवश हुआ जीव नहीं मानता, और वह मोहान्ध व अज्ञानी हुआ पाप करता है। यह जीव अनादि-निधन है, और वह संसार में उसी प्रकार भ्रमण करता है, जैसे समुद्र में मछली। चारों गतियों में दुःख सहता हुआ वह उत्पन्न होता, और मरता रहता है। वह मनुष्य-जन्म नहीं पाता। यदि पा ही जाय, तो उस धमे को नहीं सुनता जो विरोध रहित है। यदि सुनता भी है, तो उसे हृदय में नहीं रखता। और यदि रखता है, तो तपश्चरण से डरता है। तप के विना ध्यान उत्पन्न नहीं होता और ध्यान के विना मोक्ष नहीं प्राप्त होता। (मुनि का यह उपदेश सुनकर ) वह व्यंतरी भी उपशान्त हो गई और नमन करती हुई बोली “हे मुनिवर, इतना कीजिये कि रौरव नरक में गिरती हुई दुर्नयवती मुझे दया करके तप की दीक्षा दीजिये।" Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ नयनन्दि विरचित [ १२.७ ६. व्यंतरी व नगरजनों का सम्यक्त्वधारण व मुनिराज का मोक्षगमन तब मधुर वाणी द्वारा मुनिवर ने इस प्रकार कहा-“देव, तिथंच व नरक के जीवों को तप योग्य नहीं होता। किन्तु तेरे लिये निःशंकादि आठ गुणरूपी रत्नों का निधान एक सम्यक्त्व ही पापनाशक हो सकता है।" तब उस व्यंतरी ने दुःखहारी और सुखकारी सम्यक्त्व तुरन्त धारण कर लिया, और मिथ्यात्व को छोड़ दिया। इस आश्चर्य को सुनकर नगर के लोगों में खलभली मच गई, और वे मुनिदर्शनोत्साह के रस सहित वहाँ आ पहुँचे। उन लोगों ने ज्ञानदर्शी मुनि की वाणी सुनकर, मिथ्यात्व का परित्याग कर दिया, और उनकी स्तुति करके व्रत धारण कर लिया। तब उस पंडिता ने भी दुर्नीति से विरक्त होकर, देवदत्ता सहित उसी समय तपश्चरण धारण कर लिया। यहाँ उनकी गृहिणी ( मनोरमा ) भी, केवल ज्ञान उत्पन्न होने की बात सुनकर, तुरन्त घर छोड़ आर्यिका हो गई। फिर वह बहुत दिनों तक पीतादि शुभ लेश्या युक्त सन्यास पालन करके देवलोक को गई। सुदर्शन केवली की जो कर्मस्थितियां ( चार अघातियां कर्म ) अवशेष रही थीं, वे सब भी जली हुई रस्सी के समान थोड़े काल में ही क्षय को प्राप्त हो गई। फिर पौष मास की पंचमी तिथि को उत्तम सोमवार के दिन, धनिष्ठा नक्षत्र में एक प्रहर शेष रहने पर वे मुनि उपसर्ग सहन कर, व कर्ममल पटल को त्याग कर एक समय मात्र में लोक के अग्रभाग ( मोक्ष ) पर जा पहुंचे। वहां वे मुनीश्वर, अठारह दोषों से रहित, गुग-संयुक्त, अपने पूर्व शरीर से किंचित् न्यून आकार से निर्वाण में स्थित हो गए। वे परमेश्वर मुझे अविकाररूप से बोधि प्रदान करें। ७. पंचनमोकार का माहात्म्य क्षायिक सम्यक्त्व में अपना अनुराग बांधनेवाले, हे महाराजाधिराज श्रेणिक, जहां उत्तम पंचनमोकार में रत होकर, एक ग्वाले ने शिवसुख प्राप्त कर लिया, वहां यदि अन्य कोई भी मनुष्य शुद्धभाव से युक्त होकर, एकचित्त से पाचों पदों का ध्यान करे, और समस्त पूजाविधान भी करे, तो वह क्यों न सिद्धि रूपी वध के मन को आकर्षित करेगा ? अथवा, यदि उस दुर्लभ मोक्ष स्थान को रहने दिया जाय, तो भी इस संसार में ही वह लोगों का अनुराग प्राप्त कर लेता है। यदि कोई मंदक्रिय आलसी भी विधिवत् पूजा करे, तो ग्रह, राक्षस व भूत उसके वश में हो जाते हैं। पूजा के प्रभाव से गलगंडादिक सैंकड़ों रोग क्षय हो जाते हैं, तथा विष व उपविष दृष्टि में भी नहीं आते ; बिच्छू, सांप व मूषक नहीं डसते, विधन नहीं होते, और दुर्जन भय खाने लगते हैं। यह उपदेश सुनकर, मगधेश्वर जिनेश्वर की स्तुति करके, विपुलाचल पर्वत से उतर कर अपने राजभवन को लौट गये, और वहां ऐसे शोभायमान हुए जैसे पूर्वकाल में मंदरगिरि के सामने स्थिर भरतेश्वर साकेत में शोभायमान हुए थे। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित ८. इस कथा की श्रुत- परम्परा इस ग्रन्थ की बुधजनों को तुष्टि देनेवाले अर्थ ( कथावस्तु ) की सृष्ट अरहन्तों ने की थी । फिर उस कथा की ग्रन्थसिद्धि, जनमनोहारी गौतम नामक गणधर ने और अनुक्रम से सुधर्म व जम्बूस्वामी, ( इन तीन केवलियों) ने, फिर स्वर्गगामी विष्णुदत्त ने, फिर नन्दिमित्र, अपराजित, सुरपूजित गोवर्द्धन और फिर भद्रबाहु परमेश्वर ( इन पांच श्रुत- केवलियों) ने, फिर विशाख मुनीश्वर, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, धर्मप्रवर्त्तक जय, नाग, सिद्धार्थ मुनि, तपश्री - रंजित धृतिसेन, विजयसेन, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ( इन ग्यारह दशपूर्वियों) ने, फिर नक्षत्र, जय को प्राप्त जयपाल मुनि, पांडु, मनोविजयी ध्रुवसेन और भयरहित कंसाचार्य ( इन पांच एकादशांग धारकों) ने, और फिर नरश्रेष्ठ सुभद्र, यशोभद्र, लोहार्य और शिवकोटि ( इन चार एकांगधारियों) ने, इस क्रम से इन सब पृथ्वीमंडल के चन्द्र गणधरदेव मुनीन्द्रों ने, तथा अन्य मुनियों ने अविकल रूप 'जैसा प्रवचन में भाषित किया है, तैसा ही मैंने यह पंचनमस्कार मंत्र के फल का कथन किया । १२. १० ] २६३ ९. कवि नयनन्दि की गुरू- परम्परा महावीर जिनेन्द्र के महान् तीर्थ में, महान् कुन्दकुन्दान्वय की क्रमागत परंपरा में सुनक्ष (नक्षत्र) नाम के आचार्य हुए । तथा तत्पश्चात् पद्मनन्दि, फिर विष्णुनन्दि, फिर नन्दिनन्दि हुए । तत्पश्चात् जिनोपदिष्ट धर्म की शुभरश्मियों से विशुद्ध अनेक ग्रन्थों के कर्ता, समस्त जगत् में प्रसिद्ध, भवसमुद्र की नौकारूप महा विश्वनन्दि हुए । तत्पश्चात् क्षमाशील सैद्धान्तिक विशाखनन्दि हुए । उनके शिष्य हुए गणी रामनन्दि, जो जिनेन्द्रागम का उपदेश देने में एकचित्त थे, तपश्चरण निष्ठ रूप लब्धि से युक्त थे, एवं नरेन्द्रों और देवेन्द्रों द्वारा आनन्दपूर्वक वंदनीय थे । उनके शिष्य महापण्डित माणिक्यनन्दि हुए जो अशेष ग्रंथों के पारगामी, तपस्वी थे, अंगों के ज्ञाता, भव्यरूपी कमलों के सूर्य, गुणों के निवासभूत एवं त्रैलोक्य को आनन्ददायी थे । उनके प्रथम शिष्य हुए जगविख्यात व अनिंद्य मुनि नयनन्दि । उन्होंने इस बुधजनों द्वारा अभिनन्दित अबाध सुदर्शननाथ के चरित्र की रचना की । १०. काव्यरचना का स्थान, राज्य व काल वनों, ग्रामों और पुरवरों के निवेश, सुप्रसिद्ध अवन्ती नामक देश में सुरपतिपुरी ( इन्द्रपुरी) के समान विबुध ( देवों या विद्वानों ) जनों की इष्ट गौरवशाली धारा नगरी है। वहां, रण में दुद्धेर शत्रु रूपी महान् पर्वतों के वज्र, ऋद्धि में देव और असुरों को आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला, त्रिभुवन -नारायण- श्रीनिकेत उपाधिधारी नरेन्द्र- पुंगव भोजदेव हैं । उसी नगर में अपने मणियों के समूह की प्रभा से सूर्य Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ नयनन्दि विरचित [ १२. १०. के प्रकाश को फीका कर देनेवाला एक बड़ा विहार जिनमन्दिर है। वहीं नृपविक्रमकाल के (वि० सं०) ग्यारह सौ संवत्सर व्यतीत होने पर, कुशल नयनन्दि ने अमात्सर्यभाव से, यह केवलि चरित्र रचा। जो कोई इसे पढ़े, सुने, भावना करे या लिखे, वह शीघ्र ही शाश्वत सुख का लाभ पावे। पृथ्वीमंडल के चन्द्र, नरदेवासुर-वंद्य नयनन्दि मुनि को, देव निर्मलमति देवें एवं भव्यजनों को जिनेन्द्र की मंगलवाणी प्रदान करें। इति माणिक्यनन्दि विद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित पंचणमोकारके फल को प्रकाशित करनेवाले सुदर्शनचरित में गजेन्द्र का विस्तार, सुरवरेन्द्र को स्तुति तथा मुनीन्द्र का सभामंडप, उनका मोक्षवासगमन, नमोकार पदों का फल और समस्त साधुओं की नामावली, इनका वर्णन करनेवाली बारहवीं संधि समाप्त । संधि ॥ १२॥ इति सुदर्शनचरित समाप्त Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदंसणचरिउ टिप्पण सुदंसण चरिउ की चार उपलब्ध प्रतियों में से क प्रति में प्रचुरता से सरल संस्कृत व कहीं कहीं हिन्दी, गुजराती एवं संस्कृत मिश्रित गुजराती अथवा गुजराती, मिश्रित संस्कृत भाषाओं में टिप्पण प्रति के पत्रों में ऊपर-नीचे, दाहिने-बाँयें चारों ओर लिखे हुए मिलते हैं। ख प्रति में बहुत थोड़े तथा घ में यत्र-तत्र टिप्पण हैं, जिन्हें इसी में सम्मिलित कर लिया गया है। इनके संपादन में प्रत्येक कडवक के आदि में संधि व कडवक संख्या दे दी गयी है। . संधि-१ १-१. ३. इह-जगति । ५. जसु-वीरस्वामिनः। ५. ण तित्ति पत्तु-तृप्ति न प्राप्तः। ६. सेलराई-शैलराजमेरुः टलटलियउ-चलितः। जम्माहिसेइजन्माभिषेके। ८. उत्तसिय-उत्त्रस्तः। १०. रत्तियाइ-रक्तया नाइं-उत्प्रेक्षते । १३. वयणु-मुखम् । वियप्पइ-विकल्पते । १४. चाएं-त्यागेन । विढप्पइ-गच्छति, व्याप्नोति । १-२. १. अप्पवीणु-अप्रवीण। चाउ-त्यागः। दविण-द्रव्यम् । ३. विरएमिरचयामि । अउठवु-अपूर्व । ४. कीरइ क्रियते । संभरण-संस्मरणं। सइं-स्वयं । मइ-मति । ८. तहो-चरम तीर्थकृतः। ६. आयन्नहो-आकर्णयत् । १०. पिहु-पृथु । ११. महिहरासु-मेरोः । १३. नई उ-नद्यः। १-३. १. पुंडुच्छवणइं-पुंडेक्षुवनानि । २. धुत्त-धूर्त । ३. वेस व-वेश्येव । णित्तुसु-निस्तुषं। सुयपंतिय-शुकपंक्तिः। ४. मेरएं-मर्यादया। ६. कमलकोसेकमलगर्भे, कमलमध्ये । ८. विलसइ-विलसति । ६. सुरहं वि णहि णिलउ-सुराणामपि न निलयः एवंभूतः। १-४. १. साल-प्राकारः वृक्षाश्च । सोण-रक्त पेसल-मनोज्ञ । पवाल-विद्रुमः किसलयश्च । २. तियसिंदु व-त्रिदशेन्द्र इव । विबुहयणमणिठु-विबुधजनानां मनोऽभीष्टं । रंभा-केलि, कदली, देवांगना च। ४. धम्म-धर्मः धनुश्च । अमयअमृतं, पक्षे मोक्षः। कुसुमसर-पुष्पबाण, पक्षे कुसुमैरुपलक्षितानि सरांसि । ८. उअहि व-उदधिरिव । परमहिहरिंद उक्कंपचत्तु-मेरुरिव परराजानां भयत्यक्तः । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ टिप्पण १-५. ९. णह - नख । अरुणकय-रक्तकृत । णहयलु-नभः । गयउलु - गजकुलः । २. सिखिवहुवरु-लक्ष्मीवधूवरः । इहण - सउण - अणुणिय-फलु - याचकपक्षिदत्तफलः । अहण - अघन । ३. विसहरु - धरणेन्द्र । तिय- स्त्री । ४. वरकलनिवह - वरकलानिवह, द्विसप्ततिकलाः । सरु - शब्दः । ५. णियपह - निजप्रभा । तव - ताप । रवियरु - रविकरः । ६. थिरयरु-स्थिरतरः । ७. तिरयणहरु - रत्नत्रयधारकः । १०. संवलिए- आवेष्टिते । १-६. ३. सहा-सभा; सेलसीमे - पर्वत सीनि । ५. सेहरो - भुजशिखरं । ६. हिट्ठहृष्टः । ७. वलग्गो - चटितः । नवेमेहि-नवमेधे । पुण्णिमिंदो - पूर्णचन्द्रः । ८. पयट्टामार्गे प्रवृत्ताः । तरंगा - कल्लोलाः । ६. गया- गजाः । १०. णिओ - नृपः । छत्त-छत्र । तरंगरहिल्लिउ - लहरीयुक्तः । १·७. १. दिणेस अस्स- चंचलो - दिनेशाश्ववत् चंचलः । २. आहओ - चलितः । हओ - इयः । ३. भेसओ-भीषकः । एसओ-देशकः । ४. फास - स्पर्शः, मैथुनं । ५. सुरंगणाण दुल्लहा - सुरांगनानां दुर्लभाः । ६. सेलसंकडे - शैलसंकटे । १०. धओ धए विलग्गओध्वजो ध्वजे विलग्नः । फरो - फरकः । णसेइ - नश्यति । १३. गराहिवाणुराइणीनराधिपानुरागिणी । णमंतओ - नमन । १६. जंतओ - गच्छन् । १-८. १. पत्थवेण - राज्ञा । २. पयडु णं वाहइ प्रकटं व्याह्वयति । ३. बरहिणीहि - मयूरैः । वश्चइ - व्रजति । ४. तिणरोमेहि- तृणरोमभिः । पसिज्जइ - प्रस्विद्यति । ६. तिहुवणसिरिहि नाहु त्रिभुवनश्रियो नाथः । आवइ - आगच्छति । C. महिवाले - श्रेणिकेन । सक्काणए - इन्द्राज्ञया । १-९. १. हि नभसि । २. छाय- शोभा । ४. जिणकेयणाइँ - जिनगृहाणि । परिहा-परिखा । ५. धय ध्वजा । हर-गृह । ६. मंगलदव्वट्ट - 'गार कलशादि । ७. मेहलउ - मेखला । हरिवीदु-सिंहासनं । सहसवत्तु सहस्रपत्रं । ८ अच्छिज्जमाणुअस्पृश्यमानः । ६. तंदु - आलस्यं । १०. ह - नख । छाहिचत्तु छायात्यक्तः । ११. बहु-वधु | पंक्ति ६ में पाठांतर : (क) चउ जक्ख धम्मचक्केण जुत्त = (ख) चउसट्ठि· जक्ख-चक्केण जुत्त १-१०. २. हियमियवस - हितमितोपदेश । ३. सक्कइभासणु - सत्कविभिः सह भाषणं । ५. विहंसणु - विध्वंसनं । ६. अणियत्तणु-- अनिवर्त्तनं । सुपहुत्त हो-- राज्ञः फलं । ६. पय-पद । ११. पुरएउ वृषभः । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित १-११. १, सयमहिण--इंद्रेण । ५. इसु-बाण। ६. सरण-स्मरणं, चिंता। ६. जलयजलद । १०. सहसयर-सूर्य । जुइवलय-द्युतिवलय, भामंडल। ११. सुरमुरयदेवदुंदुभिः । १७. ससिरे स्वशिरसि । पहिट्ठउ-प्रहृष्टः । १-१२. १. गणहर-गौतम । २. सिरी-बलभद्र। ५. संसो-प्रशस्यः। ८. चरिमिल्लु जिणिंदो-चतुर्विंशतितमः जिनः। ६. णिवइ-नृपतिः। १०. विक्खाओद्वादशचक्रिणः १२. पउमो-पद्मः । १४. णारायण-लक्ष्मण। १६. आसग्गीओ आदि-अश्वग्रीव-तारक-मेरक-मधुसूदन-मधुक्रीड-निसुंभ-बलि-रावण-जरासंधाः -इति नव। १८. वंदो-स्तुत्यः। संधि-२ २-१. इंदिदिर-भ्रमर । ८. जगु-जगत् । ६. थक्कउ-स्थितः । तिपवण-वातत्रय । १०. हेट्टए मज्झुप्परि-अधः, मध्ये, ऊर्ध्व । १२. कप्प-स्वर्ग। १३. जंबूदीबुहिवलइल्लउ-जंबूद्वीपः समुद्रवेष्टितः । १४. पुण्ण-वत्तलः । १६. सेलहो-शैलस्य । दाहिण-दक्षिण । गुणभासुरु-ज्यायुक्तं । धणु-धनुः । २-२ गुरु-अज्जुण-गांगेयः तृतीयपांडवः कुकुभवृक्षश्च । गय-गजकुमारः गजश्च । ३. सरहभीस-रथेन सह भीष्मः, सरथः गांगेयः। भारहसरिस महाभारतसद्दशा। वाणावलि-वरणे वृक्षः। ४. सुविसालाई सिसिरसाहालईउपवनसदृशानि गोकुलानि, शेभनविविधसुकुमारपत्रादियुक्ताः शालवृक्षाः। ५. तरुनिकायलग्गिर पोमारई-तरूणां समूहे लग्नानि पद्मरजांसि । १०. णज्जइ-ज्ञायते । २-३ २. कइयण-कपिः कविश्च । ३. भारह व्व-भारतमिव । वावरिय-व्यापृत । पंथ-पार्थ, अर्जुन। ५. पय-प्रजा । अणंत-नारायण। ७. णायवंतु-नागसहितं, पक्षे न्याययुक्तं । १०. सरु-शरः। सज्जिउ-मृष्टः । २-४ १. जडमउ-जलमयः, जडमय। सोमु वि-चंद्रोऽपि। २. रयणियरुरजनीचर। ३. ण णिहालउ-अनिमिषो न। ४. णरजेट ठु वि-युधिष्ठिरोऽपि । पस्थिवधयरदुउ-राजहंसः । ८. चउरासु-चतुरास्य ब्रह्मा । अक्खरहियकरु-अक्षमाला, राज्ञः पक्षे पाशरहितकरः । ६. णीसु-नरेश्वरः, दरिद्री च । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ टिप्पण २-५. १. तहिं-चंपापुर्यो। २. गणिसमउ व्व-गणधर इव । जयवंतउ-नयवान् । ३. सवियाणउ-सविज्ञानः, पक्षे सगरुडयानः । ४ उग्गवणु-उद्गम । पओसउपुष्टिः पौषमासश्च । ६. आवणु-रक्षणं । ९. अरुहदासि-जिनमती। १०. सइ-सची। सिय-श्री। २-६. ५. उअयदिणेस संझ जिह रत्तउ-उदित सूर्ये यथा संध्या रक्ता। ६. तहोश्रेष्ठिनः । ९. कवि जिह-कपिर्यथा । पालंबहि-प्ररोहैः । तंबागणु-गो। २. चेवंतु-जग्राहान । ३. सो मंतु-स मंत्रः नमस्कारः, अच्चंदु-अत्यंतं । ४. गोत्तेण-नाम्ना । संचत्त-रहित। ६. णम्मंतु-नमन् । भो णाह आराह-हे आराध्यनाथ शृणु। ७ माहम्मि मासम्मि-माघमासे। पंथु-मार्गाः। ८. जोएणयोगेन । हिट्छ-हृष्टः । ६. मज्झिम्म-वीरविलास अंत लघुः । २-८. १. रायच्छेयए जामए विबुद्ध-रात्रिछेदे यामे विबुद्धः। २. वण्हु-वहिन । ६. सेण-कारणेन । ६. सोलह [अक्खर]-अरहंत सिद्ध आइरिय उवज्झाय साहु । पंच [अक्खर]-अ सि आ उ सा। दु[सद]- अरहंत सिद्ध। एक्क (सहअरहंत, अह, ओं, ह्रीं, अ। २-९. ५. घट-घृष्ट । ६. सोमत्त-सौम्य च। २. वज्जरिसहसंहणणधामवज्रवृषभनाराचसंहननधाम १४. ण चिरावइ-संसारे चिरं न तिष्ठति । १५. णहे गमु केत्तियमेत्तउ-आकाशगमनं कियन्मानं । २-१०. १. आयण्ण-आकर्णय । २. सप्पाइ दुक्ख-सर्पादिदुःखं। ५. जूउप्रथमव्यसनं । ६. च्छोहजुत्त-क्षुधादोषेण युक्तः। ७. विहुरु पत्तु-कष्टं प्राप्तः । ६. जूउ वि-द्यूतमपि । सज्जु-सहितः । १३. रच्छहे-रथ्यायां, मार्गे। १५. वेसवेश्या। रत्ताघरिसण-रक्ताकर्षणा । १६. तहो जो वसेइ-तस्याः गृहे यो वसति । उच्छिद्राउ असेइ-उच्छिष्टं अश्नाति । २०. तिण-तृण। खडक्कउ-खडखडाट । २१. मउ-मृगः । २५. छूदु- क्षिप्तः । २६. रहे-रथ्यायां । २-११ १. परवसुरयहो-परद्रव्यरतस्य । अंगारयहो-अंगारचौरस्य। इय णियविइति दृष्ट्वाऽपि । ५. आणि-आनय । महु-मम । ६. सुणवि-श्रुत्वा । रयं-रतं । सरं-स्वरं। १४. तुम-त्वं गोपः। समणि-श्रवणे कर्णे। १५. सुरसरिहे-गंगायां । १६. पय-पयः पदं च। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित २६६ २-१२ २. मीणहि-मत्स्यैः । दीहरक्खमीणहि मणु हरंति-स्त्री अपि दीर्घलोचनैर्मनो हरति । सिप्पियउडेहि-शूक्तिभिः । ४. साहबाहडे-शाखाबाहुं । ५. णाहि-नाभि । ६. उम्मी-लहर। ८. वेसा इव-वेश्या इव नदी। सायरु-सादरं सागरं च । ९. गंजोलिय-उल्लसित । सुहउ-सुभगः गोपः । सुरसरि-गंगा। २-१३ १. झडा-भडागडती । ३. आणणयं-मुखं । ४. घणो-मेघ । ५. लइ रक्खसमक्ख-पृथिव्यां राक्षसः प्रत्यक्षः । पहुत्तु-प्राप्तः । ५. इलरक्ख-गोपालः । ६. सोपादपूरणे । १०. विस-पानीयं । ( क ) विसभरियहिं गंगाणइयहिं वा पाठः। २-१४ २. कक्कड-कर्कटराशि, कठोरता च । ४. जाइ-जातः । ५. पलासु-राक्षसः । ६. उदिवविरु-हल्लितः सन् । ७. पए-जले । ६. आयहँ-एतेषाम् । २-१५ २. पंचसिलीमुहेहि-पञ्चबाणैः । वम्महु-कन्दर्पः। ७. पंचंगें मंते-पञ्चाङ्गमन्त्रेणः (१) प्रधानबुद्धि (२) द्रव्यभण्डार (३) स्वकीयबुद्धि (४) विषमस्थानक (५) चतुरङ्गसेना। ८. पंचसयहिं पमाणु जोयणु जिह-पञ्चशतलघुयोजनैर्महायोजन यथा शोभते । संधि ३ ३-१. शार्दूल विक्रीडित [छंद । गोमूकला-राज्यभ्रष्टाः । ७. डेडा-टंटा । डेडाकोडिय [चोररज्जणिरदा]-ढेढवाडानी कोडि हवी भारते । आहासिदा सुद्धा-किं भूते भारते (?) सुद्धए-वच्छसुदये शास्त्रे । ९. जाव ज्जमि णउ गच्छइ-यावज्जीवः मुक्तो न भवति । १०. सयणयले-शय्यातले । सविणय-स्वप्नान् । ११. कप्पयरुकल्पतरुः । १३. पसरम्मि-प्रभाते । कंतु-अहहासः । १५. जाहु-आवां यावः । १८. जिणदासिए-जिनमत्या। १६. सुरहरु-देवगृहं। ३.२. १. परमेसरु कहि-कथय हे स्वामिन् । ३. भर-भार । ४. चाइउ-त्यागी। हरु-घर । १२. गोवो-गोपः । वणिपिउउयरे-वणिप्रियाउदरे । १३. तहिं गब्भएतस्याः गर्भे । अब्भए णाई रवि-अभ्रे रविरिव । १४. सिप्पिउडए-शूक्तिपुटे निविडे । णितुल्लु-अनुपमं । ३-३. २. जियससहरु-जितचन्द्रः। ३. तिहे-तस्याः । ४. तणुभंगई-त्रिवलीभंगे। ६. पोसे-पौष मासे । बुहवारए-बुधवारे । ७. सयभिस-सतभिषा नक्षत्र । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० टिप्पण ३-४. १. तहिं-तत्र। अइपहसियवत्ता-अतिप्रहसितवक्त्रा। २. मणहरपयराई घोसमाणा-मनोहरपदराजी जल्पमाना। मिलेवि-मिलित्वा। आनया-आनता । चट्टभट्टा-भट्टकाः । ४. दिम्मुहासेसपूर-दिङ्मुखाशेषपूरं । ६. दुरगदयसमुद्द सण्णियंद्विरदगतिगामिनी सामुद्रिकरूपस्वी।। वम्मर-मनोजरुद्रं । ८. चाय-त्यागं । वसुहय जइ-अष्ट यति । ६. वणिजेठे-वणिकमध्ये ज्येष्ठ । णियसुयहो किउ जम्मुच्छउवृषभदासेन स्वकीयपुत्रस्य जन्ममहोत्सवः कृतः। १०. जइ-जगति । ३-५. १. तेण पुत्तेण जाएण-तेन पुत्रेन जातेन एवंभूतं जातं । २०. पोरस्थगणत/नगरलोकगणः त्रस्तः । ३. फुल्ल-पप्फुल्ल मेल्लेइ वणु सव्वु-ऋतुपुष्प सर्वत्र । ४. आणंदयारी-सुगन्धशीतल। ५. पहिएहिं पहु रुद्ध-पथिकैः पंथः रुद्धः । ६. उक्किट्ठकमसेण-उत्कृष्टमहोत्सवः कृतः। वइसेण-वृषभदासेन । ७. साणुराय-सानुरागः । १०. बुहयणहि-ज्योतिषशास्त्रज्ञैः । ३-६. . १. पइट्ठरईसो-प्रकृष्टरतीश:कन्दर्परहितः । ५. सोहणमादिणे-शोभमानमासे पक्षे दिने वारे नक्षत्रचन्द्रबले । पालणयं सुरचित्त-सुवर्णशृखलानूं रत्नजटितं रूपानी दोरी, मोमाना झुंबक (गुज.)। ६. महीहर-मेरु। सुरवच्छो-कल्पवृक्षः । तत्थ-पालन । ६. ससहरु जिह-चन्द्रमावत् । १०. सिहिगणु-मयूरसमूहः । गृहिण्या। १२. मणहरिणिए घरिणिए-मनोहO ३.८ १. पडिहासइ...मज्झु-मम प्रतिभासते मंत्रविचारः। २. परिहाणु क्थु देविणु-परिधानवस्त्रं दत्वा। ३ सदत्थ-शब्दार्थ । ४. गुरुसिक्खालण-लग्गहिगुरूणां शिक्षा बालत्वे दत्ता लगति । ५. सामग्गिरइय-सामग्रीने सालग्रहणार्थ मेलिता (गुज० सं०)। ६. सोहइ परिमिउ माणसणीहिं-सुदर्शनकुमारः स्त्रीभिः वेष्टितः शोभते । ८. उवणियछत्तहचोल्लह-उपनीतानि छत्राणि चेलानि च बद्धा । वसुभेय-अष्टभेद । सुयहो-श्रुतस्य । ६. सो-सुदर्शनः। ३-९. " संधि ...लिग-पंचसंधिधातुपाठलिंगानुशासन। लक्खणेक्क-इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्न:-पिशली-शाकटायन:-जैनेन्द्रः-कालापक-सारस्वत-रूपमालादि । ३. छंददेसिदेशभाषा। णामरासि-ज्योतिष्क। ४. लुक्कमुट्ठि-मुट्ठिष्टि] ग्राह्यवस्तुज्ञानं । ६. रायणित्ति-राजनीतिः । ६. वीणावज्ज-वीणवाद्य । १०. वूहदंत-चक्रव्यूहादिरचना। ११. चंदवेज्झ-चन्द्रवेधविद्या। १४ लेययम्म-लेपकर्म । धाउवायधातुवादः। १५. वारिरंभ-जलस्तम्भन-रणविद्या। १७. गारिलक्ख-स्त्रीणां Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ सुदर्शन-चरित लक्षणसामुद्रिक। हथिसिक्ख-गजपरीक्षा। १८. जाणमाणु-यानशिविकादिनां मानं । २०. सुक्खए-सौख्येन शुष्क इव । १. जस्स-यस्य......निरय लक्षणानि। आयवत्तवित्तसीसु-छत्राकारवृत्तमस्तकं। ३. दुहंडु-दुष्करं। ४ चंचलच्छिदंदु-चंचलाक्षीद्वन्द्वं। दंदु-(घ) युगलं। ६. मच्चुलोय-मनुष्यलोक । मोत्तियाण दिण्ण भंति-मुक्ताफलानां भ्रान्ति ददति । ६. णिरभ-ाताभ्र । भाइ-भाति । १२. वत्त-पत्र । १३. वच्छु-वक्षस्थल । चक्कलं-विशालं। हम्मु-गृह । १८. गूढगुप्फ-ढींचणा गूढ [ छिपे हुए गुल्फ] ! १६. कुम्मायार-कूमोकार पादनौ पाटली (गुज.)! २०. णहाण पंति-नखानां श्रेणि । ३-११. १. सुहिसहिउ-सुहृत्सहितः। भाइ-भाति । २. सरइ समुहु-आगच्छति सन्मुखं अवलोकनार्थ । ३. मणइंगिउ कहइ ण करे धरेइ-कामवाञ्छा न कथयति कुमारस्य हस्ते धरति। ४. धवलिंति-ध्रुवं तृप्तिं प्राप्नुवन्ति । ५. रुत्तत्थेऋतुउत्सवे[रतोत्सवे भोगसमये । ७. गिरिविमुक्क एत्तिउ करेइ-गिरिवाए पामुक्ता बुबारवं कुर्वन्ति । पवणहय-वायुहता। १०. दप्पणि णियबिंबए तिलउ देइ-दर्पणं गृहीत्वा ललाटे तिलकं ददाति । १२. लोयणहँ-लोचनानाम् । ३-१२ ३. क वि पयडइ-कापि प्रकटी करोति । ५. अणहियए-अनंगे। ११. हे णरवइ-हे श्रेणिक । सा ण वितिय रत्तिय जा ण तहो-यस्य सुदर्शनस्य सर्वाः स्त्रियः रक्ताः जाताः । पुष्पिकाः-इमाण कयवण्णनो-एतेषां कृतवर्णनम् । संधि-४ ४-१ १. कुलु बलु......-यस्य सुदर्शनस्य महाधर्मस्य फलं उत्तमकुलं पराक्रमादि वर्ण्यते । ३. कविलं-राज्ञः पुरोहितं । ४. कय छह कम्म-देव पूजा, ब्राह्मणानां भक्ति, गायत्रीमंत्रजाप, पर ... ... आदिकसंयमव्रतविधानं । विणयपविनाणं-विनयविज्ञानं, विनयवान् । णिञ्चसुण्हाणं-सदासुस्नानं। ७. दयदमचित्तं-दया, पञ्चेद्रियदमनेषु चित्तम् । पियरासत्त-पितृ, पितुः आज्ञाधीनं । ९. णेहलुलग्गो-स्नेहेन अनुलग्नः । कंठविलग्गो-कपिलमित्रस्य कंठे विलग्नः । १०. हरिसविसट्टो-हर्षेण पुलकितः । छुडु जि पयट्टो-यदाऽग्रे चलितः, प्रवृत्तः । आवणमग्गे-हट्टमार्गे। ११. दिठ्ठा बालाएवंभूता मनोरमा नाम्नी रतिः सुदर्शनेन दृष्टा इति सम्बन्धः । १२. जा लच्छिसमया मनोरमा लक्ष्मीसमाना। तहि का उवम-तस्याः का उपमा । गइए-गमनेन । १२-१३. सकलत्तई णिरुणिज्जियई......... 'माणसि पत्तइं-स्त्रीसहिताः हंसाः गत्या निजिताः; सकलत्राः राजहंसाः मानसरः प्राप्ताः । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ टिप्पण ४-२. १. जाहे चरण सारुण अइकोमल - यस्याः मनोरमायाः चरणौ पादौ रक्तौ कोमलौ ! २. जाहे पाय 'विचित्तई - यस्याः मनोरमायाः पादयोः नखमणिविचित्रतां निरीक्ष्य । हे ठिय णक्खत्तई - तिरस्कृतानि इव नभसि स्थितानि नक्षत्राणि । ३. जाहे गुप्फ-यस्याः मनोरमायाः गूढगुल्फा: । उवहसियड विप्पइमया विशेषमतिः विप्रः मंत्री जितः, अथवा मतिविकल्पः । ४. रंभउ - कदलीगर्भस्तम्भः । ५. अलहंतें- अलभमानेन कंदर्पेण । रइकंतें - कंदर्पेण । ६. तिवलि - उदरे रेखात्रयं । जलउम्भिउ - जलउर्मी, लहरी । सयसक्करु वञ्चहिं- शतखंडत्वं गच्छति लहरी समुद्रे प्रविष्टा वा ! ८. जाहे मज्झु किसु- -यस्याः मनोरमायाः मध्यप्रदेश: कटिविभागं संकीर्ण । ६. सुरोमावलिए परज्जिय णाइणि बिले पइसइ - रोमावल्या पराजिता नागिनी बिले प्रविष्टा । १०. ण वि विहि विरयंतर - विधाता विरचिता न यदि । ११. गुरुथ -गरिष्टस्तनाः । मज्झु-मध्यप्रदेश | अवसु- अवश्य । ........ ४-३. १. जाहे 'बहिउ - यस्याः मनोरमायाः कोमलबाहू दृष्ट्वा कमलदंड लता इव । बिस-मृणाल । करहि - करोति । तग्गुगउम्माहउ - भुजा गुणवाञ्छा करोति । २. कंकेल्लिदलहिं वि अहिलसियई - अशोकवृक्षपत्रैः वाञ्छितौ । ३. अहिहवियए माहविए-अभिभूतया पराभवं प्राप्तं दुःखं प्राप्तया कोकिलया । ५. विदुमप्रवालाः । कढिणत्तणु - कठिनत्वम् । ७. जाहे सास सुरहि-यस्याः मुखे श्वाससुगंधो। उ थिरुवि धावs - स्थिरो न गच्छति शीघ्रं धावति । ८. मुहयंदसयासए - मुखचन्द्राश्रयेण । णिवडणखप्पर व्व ससि भासए - घटद्विगुणं द्विखण्डं खपरमिव चन्द्रः शोभते । ६. सर्वक पयड सुउ णासिय- शुकाः सवङ्काः नासिकाः प्रकटयन्ति । १०. विभिएहिं विस्मितैः । गहणहिं - वनेषु । ११. सुरधणु जित्तउ - इन्द्रधनुः जितम् । जा भालि "ससि - यस्याः मनोरमायाः भालस्थलेन कपोलेन जितः चन्द्रः कृष्णाष्टम्याः । १२. खेयहो - आकाशे । १३. केसहिं जाए जित्त अलिसत्थ वि-यस्याः मनोरमायाः मस्तकैः कृत्वा भ्रमरसमूहः शेषनागो वा पाताले गमः [गतः ] | १४. सोमालिय त बालियहे रूउ नियच्छवि - सुदर्शनेन एवम्भूतायाः मनोरमायाः रूपं निरीक्ष्य कपिलमित्र पृष्टः । मुहयरु - मोहकरं । १५. विभियमणेण - विस्मितमनसा । सहयरु - कपिलः । ४४. १. किं णायवहू - किं वा नागकन्या घटते हे मित्र । २. देववरंगण - देवस्य अप्सरा । दिही - धृति । अमी- एषा । सोहग्गणिही - सौभाग्यनिधीव । ३. कईदथुआ - कवीन्द्रस्तुता । ५ पीइ-रई - प्रीति-रति कंदर्पस्य भार्या । खेयरिया - किं वा विद्याधरी । ६. कविलो -पुरोहितः । हे सुहि - हे सुदर्शन । ७. णिहाण-निधाने । इब्भ- धनाढ्यः । ११. उत्तुंगथरणा... सायरसेण - तस्य सागरदत्तस्य भार्या सागर सेना अस्ति उत्तुंग - कठिनस्तना । १२. तीए जणिया - सागरसेनयानया पुत्री जनिता । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित २७३ ४-५. १. तो हिययं तस्य हृदयं चित्ताभिप्रायं ज्ञात्वा । वम्महं सरवणियं - कन्दर्पशरेन व्रणितम् । सुहिणा - सुहृत्कपिलेन । तो- ततः, तदनंतरं तस्मात् कारणात् । २. दुलक्खु–दुर्लक्ष्यः अज्ञातः । अहिवाओ - अभिप्रायः । जाणेविणु कीरइ अणुराओयुवतीनां अभिप्रायं ज्ञात्वा स अनुरागः स्त्रीणां अभिप्रायं [ ज्ञात्वा कर्त्तव्यः ] | ३. हियत्यें - हितार्थेन । विडगुरुसत्यें - कामशास्त्रेण कामीगुरुकथितेन । ४. पयइ-स्त्रीणां प्रकृति वातपित्तादि । ५. एयाणं जो जाणइ लक्खं - एतासां सप्तानां यः कामी लक्ष जानाति । ६. भद्दा लयहंसी - चतुःप्रकारा युवतीनां जातिः - १. भद्रा २. मन्दा ३. लता ४. हंसी । मन्दाजाति स्थूलांगा । ७. भद्दा सव्वंगेहि सरुवी - सर्वागेषु स्वरूपा भद्राजाति । ८. दीर्घगलया - ताडलतादीर्घाङ्गा । समंसल देहें अणुआ - समांसला देहे परिपूर्णा, सुपुष्टदेहा । ६. असंसउ - अप्रशस्तः । अणु परिवाडीए - अनुक्रमेण । १०. णूणं - नूनं निश्वयेन । उज्जुअ - सरलपरिणाम । ११. खेयरियाणं - विद्याधरीणां अंसे । मइरावाणं - मदिरापानं । भावइ - इच्छति । भावइ कमला - कमलपुष्पादिक वल्लभां विद्याधरीणाम् । १२. दविणं इटुं जक्खणियाणं-द्रव्यं वल्लभं यक्षिणीणां अंशतः । दुचरितं - व्यभिचारी च लम्पटं च । १३. अटूविहई आयण्णइ संतइ-स्त्रीणां अष्टविधा संतति कथ्यते । १४. सारसी 'मयरी - एतासां स्वभावाः सारंसी पक्षिणी, मृगी, कागड, शशली, महिसी, गद्द भी, मकरमच्छी । १५. ताणं मज्झे - तासां मध्ये । पियपास - प्रियपार्श्व सारसपक्षी वत् । १६. उज्जुअसीला कीलयणे हें - क्रीडनस्नेहेन उद्यमशीला । भिजिवि मरइ णविय पियविरहे - भर्त्तुविरहेन भूरयित्वा भूरयित्वा मरइ, प्रियविरन दुक्खिता सता । १८. ण मुयइ - न जानाति, न जल्पनं, न मुंचति क्षणमात्रं । रिट्ठी - कागडी । परलीणा - परपुरुषेषु लीना रक्ता वा पराधीन स्वभावा । फरुसं - कठिन । १९. णिणि - निर्दया, निर्गुणा वा । पीलियमयणा - मदनपीडिता । २०. की लिणि- क्रीडनशीला । धयरट्ठी- हंसी । अइ कोवाउर - अति कोपातुर २१. गुरुणायं - गुरुशब्दम् । सहइ चवेडं करकमघायं चपेटा हस्तपादघातं सहते खरी । २२. गाहामिस- ग्राह्यमत्स्यः । साहससारा - साहसवती । अप्पडिरुद्धा - निरंकुशा, आज्ञारहिता । २३. को कलओ - कः ज्ञातो । २४. देसीउ - देशोद्भवाः । कीलाहरहिंक्रीडागृहेषु २५. वाणार सिय कयायर - वाणारसी देशोद्भवास्त्रीकृतादरा । ४-६. १. अब्बु- अर्बुद ; दिणमाणु करेप्पिणु - दिवससंरूपां कृत्वा रमती । २. आसत्ती पियगेहहो... वि दइयहो - प्रियगृहे [आ] सक्ता द्रव्यं निजप्राणानपि भतुः ददाति । ३. कुडलवत्तु मणु अप्पइ - वक्रचित्तेन हृदयं अर्प[य]ति ; गुणविसेसि पररप्पइ - परपुरुषं प्रति रमति गुणैः कृत्वा रज्यते ; रूप - यौवन - वचनबलादिगुणाः । ४. दिविडि... ण लज्जइ - द्रविड देशजस्त्रीमुखाश्लेषं चुम्बनं ददती न लज्जते । वरसुरयहो जिवि पुज्जइ-भर्त्ता : सुरतकाले वा भर्त्ता सुष्ठु रक्तस्य मन्यते । ५. लाडिय... रंजइ - लाडदेशजस्त्री मनोहर वचनैः रज्यते । विण्णाणेण... भिज्जइविज्ञानेन कृत्वा गडदेशजा स्त्री रति रम्यते [ रमते ] । ६. कालिंगी उवयारहिं रक्खु ३५ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ टिप्पण वि-कलिंगदेशजस्त्री उपकारैः द्रव्य-वस्त्र-मुक्ताफलादिकैः रक्ष्या रक्षणीया]। रज्जइ....पच्चक्खु वि-उपकारैः कृत्वा मनुष्यः प्रत्यक्षं किं न रज्यते, अपितु रज्यते [०त एव] । ७. गुज्जरि णियकज्जहो णउ भुल्लइ-गुर्जरी स्त्री स्वकीयकार्य करोति स्वकीयकार्यात्। ९. गोल्ली आरणारि जिम्मच्छर-गोलवाडी स्त्री रूप-यौवन-धनादि[९]निर्मत्सरा न। रइक्लिासे कण्णाडी कोच्छर-भोगक्रीडायां कर्णाटस्त्री चतुरा-डाही सुरतकाले। १०. पाडलिया णियगुण वित्थारइपाटलीपुत्रदेशजस्त्रीः स्वकीयगुणमहिमा विस्तारयति । पारयत्ति-पारयात्रिकस्य स्त्री। पुरिसायु उसारइ-पुरुषस्य आयुः उत्सारयति, परपुरुषे रक्ता। ११. हिमवंतिणि-हेमाचलजा सवालखी स्त्री। वसियरणई-वशीकरण काम [कार्याथ]कोटल-जडी-मूली [?] । कोमलमज्झएसतियकरणइं-कोमलमध्यदेशः स्त्रीणां करणः । १२. कहमि-हे प्रधानपुरुष ! स्त्रीणां प्रकृतिः स्वभावं कथयामि अनुक्रमेण । पयइप्रकृतिः । १३. सा वि तिविह-सा प्रकृतिः त्रिधा। कय-कृता। वायपित्तसिंभलसम-वात-पित्त-श्लेष्मा प्रकृतिः । ४-७. २.बहुयपलाविणि-वाचाल लव लव करइ (गुज०)। कक्कसफरसिणि-कर्कशस्पर्शा। ३. किण्हंगी-कृष्णाङ्गी । गोजीहालिय-गोजिह्वासदृशी । ५. सा सद्दगहीरहिं कढिण. पहारहिं सेविज्जइ-सा वायुप्रकृतिस्त्री शब्दगम्भीरैः कठिनप्रहारैः सेव्यते । ७. पित्तल-पित्तप्रकृतिमती स्त्री । णहपिंगल-नखपिङ्गला । ८. गोरीकायं-गौरवर्णशरीरा चम्पकवती। कडुयपसेयं-कटुकप्रस्वेदं । १०. रूसइ-कोपइ काम-कोप करइ, गगजां करइ (गुज०)। ११. पिउ भासेवी-प्रियवचनेन भाषया । १५. सिंभलपयइश्लेष्मप्रकृति स्त्री । जुअई-युवती । १६. कयली-कदलीवत् । १७. मउ-मृदु । सोणीयलभग। १७. साहारणकए-साधारणकृते रतिभोगः क्रियते । दिहि-धृति । २०. झत्ति विरप्पइ-शीघ्र विरक्ता भवति । २१. दाणे पणएं-पुष्पताम्बूलपक्वान्नदानेन [प्रणयेन]। २४. लक्खियउ लक्षिताः ज्ञाताः । अक्खियउ-कथिताः। पयइउ जाउ विभिन्न उ-याः प्रकृतयः विभिन्नाः पृथक् पृथक् प्रकृतयः मिश्राः भवन्ति । २५. संकिण्णउ-मिश्राः । ४-८. १. संकिण्णउ..........देसिउ-यथा प्रकृतयः मिश्राः तथा जाति, अंश, सन्तति, देश एते मिश्राः । भद्रा, मन्दा, मिश्रा । लताहंसी जाति मिश्रा । २. चउरंग (सेण्ण)-अश्व, हस्ति, रथ, पदाति । तियभावपहाण-स्त्रीभावेन प्रधान । ४. पियारउत्रिप्रकार । मंदु तिक्खु तिक्खउरउ-स्त्रीणां शुद्धभावः त्रिधा-मन्दभावः, तीक्ष्णभावः, तीक्ष्णतरभावः । ५. ईसि ईसि लज्जंकमणिट्ठिए-ईषत् ईषत् लोचन मनोवल्लभे घोलयति । मंदभाउ जाणिज्जइ दिट्टिए-मन्दभावः स्त्रीणां लोचनेन कृत्वा ज्ञायते । ६. दिदि तिविह-दृष्टि त्रिप्रकाश । मउल तह लुलिया-मुकुला दृष्टि, लुलित दृष्टि कटाक्ष । परकलिया- परज्ञाता, चतुरेण ज्ञायते । ७. हिययविहियवरगुणउक्करिसें-हृदयकृतभर्तुः गुणोत्कर्षेण हर्षेण । पियमाणसे जा पेल्लियहरिसें-या दृष्टिः हर्षेण प्रेरिता प्रियमनुष्यः वल्लभः भर्ता । ९. अणुराएण-प्रीत्या । वियसइ पिययमे वच्चइप्रियतमे दृष्टे सति विकसति वारं वारं । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन चरित २७५ ४-९. करिणिव्व-हस्तिनीव । २. सुकडक्खवलियत्ति-सुकटाक्षचलनं कोपि बुधः कलयति । ३. वियसइ........'मुहमलिणु-मुखमलिनं प्रिये इष्ट विकसति । ४. उट्ठउड थरहरहि-ओष्ठपुटं स्फुरति । देवउल धउ जेम-देवगृहध्वजा इव । ५. धावा पसेओ वि गंडयले-प्रिय दृष्टे सति गण्डस्थले प्रस्वेदं धावति उत्पद्यते । मयगलहो गं दाणुहस्तिनः दानमिव । ६. अणुदियहुं-अनुदिनं, अहोरात्रि, निरन्तरं । ७. दीहुण्हदीर्घोष्ण। ६-७. मुणि जेम"वज्जति। परिहरिवि""चल्लंति-मुनयः यथा भयलोभ-गुरुणां लज्जा एतान् वर्जयन्ति मुश्चन्ति तथा स्त्रियः कुलमार्ग मुक्त्वा उन्मार्ग चलन्ति । बहुलम्मि.........खिज्जति-कृष्णपक्षे यथा चन्द्रः दिने दिने क्षीणो भवति तथा स्त्रियः क्षीणाः [भवन्ति] इत्यर्थः। ६. बहुसंसियउ सुद्धभाउ-बहुभिः जनैः प्रशंसितः शुद्धभावः। १०. दुइजउ कहमि-द्वितीयः अशुभभावः कथयामि । भाउ असुद्धउ एयहिं-एतैः कृत्वा स्त्रीणां अशुद्धभावो परिणामो भवति । १. अण्णदेस ........."गुरुक्कै-एतेन अन्यदेशगमनलोभेन इत्थं युक्त्या अशुद्धभावो भवति । दुट्ठमइ-दुष्टमति । २. दुसहेण-दुःसाहेण । सबचिपमममणेसपत्नीपदनमनेन । वार वार'...."अंतोगमणे-वारंवारं कृतं बाह्यगमनेन गृहे गृहे भ्रमन्त्या अशुद्धभावो भवति । ३. अइपसंग ....... करणें-अन्धपुरुषस्य अतीवप्रसङ्गेन। पच्छण्णदोससंभरण-व्यभिचारादिदोषस्मरणेन । ५. तें-सेनाशुद्धभावेनैव करोति । णाहि-नाभौ । ६. कलेण-विज्ञानेन । ७. आसप्रणउ भणेविर्तारं समीपं ज्ञात्वा, यदि समीपं भर्तारं पश्यति अन्य भणित्वा उत्सारयति । ८. संकिण्णत्तहो णिज्जइ-मिश्रत्वं प्राप्यते शुद्धाशुद्धभावः। ९-१०. वरणिवसम्महिं.......... "घिप्पइ एह उवायहि-एतैः कृत्वा स्त्रीणां मिश्रा शुद्धाशुद्धभावो भवति । एतैः उपायैः कृत्वा एतासां मिश्रभावः गृह्यते । १०. पडु दूएण-पटदर्शनेन । १. दुरेह-द्विरेफः । मुणि-जानाहि । २. भुक्खा-क्षुधाग्नि । ३. गमणिगिएगमनेङ्गितया यस्याः स्त्रियः गमनचेष्टया। सुण्णालाउ-वृथाजल्पनं । वलियाणणु परिणिएइ-पश्चात् मुखवलनं कृत्वा पश्यति । चारु-वारं वारं । ४. णिहिंगिए जंभाइय हवेइ-निद्रेङ्गितया, यस्याः निद्रालक्षणेन बगाइ (बगासी-जम्हाई) करइ। लोयणमउलंगी माणवेई-मुकुलितलोचना ज्ञायते । ५. भयइंगिए-भयेङ्गित्तया, भयलक्षणेन । सुदीणवयण--दीनमुखा दीनवचना वा । वेविरतणु-कमिफ्तशरीरा स्त्री । तस्लति प्रयणलोचनं तरडावइ [तरलायति । ६.रोसिंगिए-यस्याः युवत्याः [कोधेगिस्तं] क्रोधलक्षणं विद्यते तस्याः क्रोधलक्षणयुवत्याः। सुखेउ-सुखेदः । फुरियणास-नाकापरडइ, नाकफरकावइ (गुज.) । सुसेउ-सुस्वेदः । ७. हिंगिए-स्नेहेतिया] स्नेहलक्षणया लिया। ८. मुहरायचत्तु-मुखरागरहिता, मुखकलारहिता। गिर सुण्ण-शून्यं वचनं जत्पति । ६. दुक्खिगिए-दुःखेङ्गितया] दुःखलक्षणवत्या । णासइ पुव्वछाय-पूर्व Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ टिप्पण शोभा नश्यति । णीसरइ-निःसरति । १०. खामकवोल-क्षीणकपोल । वियलइ मय[विगलति मदः] मदरहिता । ११. णिस्सेसु वि दावइ तणुवियारु-समस्तशरीरगुप्तस्थानं दर्शयति । १३. धूमें अणलु संभाविज्जइ-यथा धूमेन कृत्वा वैश्वानरं ज्ञायते । १४. इंगियहि-इङ्गितैः, लक्षणैः, चेष्टाभिः, चिह्नः । जणभाउ भाविज्जइ-लोकाना भावः ज्ञायते । ४-१२. १. भो मित्त-भो मित्र ! एतैः कृत्वा स्त्रीणां लक्षणं जानीहि । २. जाईहिं पयः ईहिं-जातिभिः प्रकृतिभिः। ३. भावेहि-भावैः । ७. जाणेसु-जानीहि । ८. बहु भमणु-बहुभ्रमण । १०. खलसंग-दुर्जनसङ्गा । दमियंग-दमिताङ्गा । ११. णिहालनिद्रालुः । १२. अवियड-अविदग्धा मूर्खा । सोयड्ड-शोकाव्य । १५. मा रमसु-एवम्भूता मा रमस्व । १७-१८. दियवरु वणिवरसुयहो थीलक्खणु कहइ-[द्विजवरः] कपिलः सुदर्शनस्य स्त्रीलक्षणं कथयति । १८. संकित्तउ-संकीर्तनं । ४-१३. १. पसत्थ-प्रशस्त । जंघोरु थणग्गवित्ता-जङ्घा, उरु-हृदयः, थणग्ग-स्तनाग्र, वृत्ताः प्रशस्ताः यस्याः २. पईह-प्रदीर्घाः। ४. ति उत्तरंती हवेइ-स्त्रीषु उत्कृष्टा भवति । ५. कायस्स-काकस्य । जंघोरुजुयं अभ-जङ्घा उरुयुग्मं अभद्रं । ६. कायसह-काकशब्दं । ७. काउ-काकः । जीए-यस्याः । ८. दीहाउसु णस्थि तीए-तस्याः दीर्घायुर्नास्ति । १०. सुवित्त-वृत्ताकार, पाणी-हस्त । पंक्ति ८ पर उद्धरण : लम्बोदरी-स्थूलशिरा-रक्ताक्षी-पिङ्गलोचना। पतिनोपार्जितं द्रव्यं अन्येन सह भक्षयेत् ।। १२. पुत्ताइयलच्छी-पुत्रादिकलक्ष्मी । १३. सव्वे रत्त वि छाय जाय-सर्वाः रक्तछायाः यस्याः। १४. णासुच्चओ-नासा उच्चस्तरा । सिंधुर-हस्ति । जीए-यस्याः। १५. सुहवत्तु-सौभाग्यत्व, सौभाग्य । १७-१८. विस-झस-दाम........"चिरु अहिणंदइ णियघरे-यस्याः [वामे] करे शेषनाग, मत्स्य, माला, शिला, ध्वजा, कमल, गिरि, गोपुराणि [चिह्नाङ्कितानि भवन्ति सा निजगृहे चिरं] वर्द्धमाना भवति धन धान्यपुत्रादि[ना] ! ४-१४. १. उद्धरेह-ऊर्ध्वरेखा। राइय-कमल। ३. तित्तिरच्छि-[ तित्तिराक्षी] तित्तिरपक्षीना सारखी [सदृश] दृष्टि । पारेवय...."भोयणिया-पारापतवत् नरभोगिनी लम्पटा भवति। ४. छिच्छइ-कुलटा स्त्री। ५. थोरसुमंथरणासा-स्थूलनासा, वक्रनासा, नासिकामुखमध्यगाः ताः सर्वाः दुःखिताःज्ञेया धनशीलविजिताः। लंजियालञ्जिका। थोवधणवंती-स्तोकधनवती। ६. वायसगइ-सह-दिट्ठी-काकगति यस्याः, शब्दः दृष्टिश्च। ८. कुम्मुण्णचलण-कूर्मोन्नतचरण। खोसला-हस्वा, वामनी । १०. उत्तावलिय-शीघ्र । ११. सा फुडु 'छाइया-पुत्र-भर्तृवियोगेन छादिता । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित २७७ १४. इय गिर सुणेवि-कपिलस्य वचनं स्त्रीवर्णनं तथा लक्षणं श्रुत्वा । तहो-तस्याः। १५. सुण्णमणु-असावधान । झिज्जंततणु-शरीर झुरन्तम् धूजन्तम् । वणिसुउ-सुदर्शनः । पंक्ति ३-६ पर उद्धरण (१) पिङ्गाक्षी-कूपगल्ली-खर-परुष-रवा स्थूल-जचोर्ध्वकेशी । रक्ताक्षी-वक्रनासा-प्रविरलदशना"... ''ताल्वोष्ठजिला ॥ शू..."ङ्गी-सेङ्गितचू कुचयुगविषमा वामना चातिदीर्घा । कन्यैषा वर्जनीया सुखधनरहिता दुष्टशीला च नित्यम् ॥ (२) मृदङ्गमृगजङ्घा च मृगाक्षी च मृगोदरी । हंसगत्या समा नारी राजपत्नी भविष्यति । ४-१५. १. तहिँ.... पत्त-यद्यपि मन्दिरं प्राप्ता मनोरमा। सुकुमालाबालारत्तचित्त-चम्पानगयों सागरदत्त-सागरसेना, तयोः पुत्री मनोरमा सुदर्शनदर्शनात् कामपीडिता सति स्वगृहे गता एवं करोति । ५. गाढिउ...''आलवेइ-गाढं दृढं यथा आलापं विलापं करोति । ६. जोयइ-योजयति । ७. थणहर-स्तनभार । णविय-नत । ८. संबोहणु पर ताहि तिसाइहि-हे प्राणनाथ ! हे स्वामिन् ! हे वल्लभ ! हे सुदर्शन ! त्राहि त्राहि ! रक्ष रक्ष ! मां मनोरमां इति भगति । लढेइ-महाति, करोति। ९. बुहणलिणरवि-बुधकमलसूर्यः। १७. मुयवि-मुक्त्वा । आयामिउआनामितः। पुष्पिका:- जाइउ-जातयः। सन्धि -५ ५-१. उद्धरण- १. तहिँ जे णमंति ण सीसं कस्स वि भुवणे वि जे महासुहगा। रागंधा-गलियबला रुलंति महिलाण चलणजुयले ॥ १. पएसि-प्रदेशे। २. एक्केण वि विणुवल्लहेण-एकेन वल्लभेन सुदर्शनेन विना। ५. सा-मनोरमा। ६. सउरिसहो-सुपुरुषस्य शूरेश्वरस्य । ७. तव दडदु देहु-तव देहो भस्मसात् कृतः । गोहु-नरः। ८. पंचवाण-उन्मादन, मोहन, शोषण, सन्तापन, मारण। ९. सयवत्त"."विसाल-शतपत्रवत् विशाललोचना १०. सुहउ-सुभग, सुदर्शन । सुहदसण...'णाइँ-जगत् सुदर्शनेन भृतमिव । ११. तासु-सुदर्शनस्य; जा तहि.." "तहिं अवत्थ-या अवस्था तस्या मनोरमायाः वर्तते, सा अवस्था तस्य सुदर्शनस्य तत्र वर्तते। एक्कासिउणेहुण घडइ-एकाश्रितः : एकवस्तूनि एकजने स्नेहो न घटते। १३. गियवि-दृष्ट्वा । रइ विरहियउ रतिविरहितः। १४. परिणाविउ होइ-परिणीतो भवति । महु-मम । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ टिप्पण ५-२. २. ताए-तेन बोधिना। ५. खेलंतें-क्रीडता। ६. काय वि-काऽपि । ८. अब्भत्थण-अभ्यर्थना । अवहेरहि-अवधीरयति, अनादरं करोतिः। ९. अत्थिययाचक। ११. उद्धरण-दद्यात् सौम्यादृशं वाचमभ्युत्थानमथासनं । शक्त्या भोजन-ताम्बूलं शत्रावपि गृहागते ।। एह्यागच्छ समाश्रयासनमिदं कस्माञ्चिरादृश्यते । का वार्ता अतिदुर्बलोसि भवान्प्रीतोस्मि ते दर्शनात् ।। एवं नीचजने पि कर्तुमुचितं प्राप्ते गृहं सर्वदा । धर्मोऽयं गृहमेधिनां निगदितः प्रा लघुस्वर्गदः ।। ५.३. १. पभणहु-कथ्यताम् । णिय मणिठु-निजमनोऽभीष्टं कार्यम् । ३. ओया. नेणम्हइँ-येन कारणेन वयं आगता। ५. इंदिदिरसंपइ-भ्रमरसम्पत् । ६. बालहो" जाणहो-बालयोः पुत्री-पुत्रयोः विवाहः कर्त्तव्यः । ७. पडिवण्णउ-अङ्गीकृतम्। ८. वियक्कु णस्थि-वितर्क-विचारः नास्ति । १०. तंबोलहत्थु-ताम्बूलहस्तःश्रेष्ठी। जोइसगंथकुसलु-ज्योतिष्कग्रन्थकुशलः। ११. जोइसिउ-ज्योतिष्कः । गुस्थणवसिउमुरुजनवशीकृतः । १.२. सुहदसणहो-सुदशनस्य । वरलग्गु कहो-वरलग्नं कथय । तेण वि-श्रीधरेण [नाम्ना ] ज्योतिष्केन ।। ५-४. १. सुजवारए-[सूर्यवारे] रविवारे । २. सिवजोयए-शिवयोगे । मूलरिक्खेमूलनक्षत्रे । पंक्ति १-४:- वैशाख[मासे] शुक्लपक्षे पञ्चम्यां तिथौ रविवारे मूलनक्षत्रे कौलवकरणे शिव नाम योगे घटी-दिवसे पल ४५ मिथुनलग्नवहमाने लग्नः [स्थापितः] । १०. सच्चुवहाणु-सत्यः पाख्यानः एषः। ११. समरट्टियहिँ तरट्टियहि - सगर्वाभिः स्त्रीभिः। ५-५. १. समञ्चिउ-[ समर्चितः] पूजितः। २. सियपरिहण-श्वेतपरिधानः । बाउहरम्मि पइठु-मातृगृहे प्रविष्टः। ७. णिकेयहो-गृहात् मण्डपात् । लेविणु कंत विणिग्गउ-कान्तां भार्या गृहीत्वा, भार्या स्कन्धे कृत्वा विनिर्गतः। सराउ सपीलुसरोवरात् हस्तीव। ९. पयक्खिण... .. दिति-प्रदक्षिणां द्वावपि पार्श्वयोर्ददतो। ९. गिरिंदहो....."सहंति-उदयाद्रौ-पर्वते रत्नादेवीसमेतः सूर्य इव शोभते । १०. विजुलकंद-विद्युत्-मेघौ। १४. पईवउ-प्रदीपाः । खट्ट-पल्यङ्कः। समप्पहसमर्पयति । १६. आसत्तहिं-आसक्तयोस्तयोः । १. इंदियवग्गमोयणं-[ इन्द्रियवर्गमोदनं ] . पञ्चेन्द्रियाणां आनन्दकारी भोजनम् । २. आहुंजेइ-भुङ्क्ते। ४. कलविभत्तु-कलमशालिनो ओदनम् । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित २७९ ८. मोया - [ मोदकाः ] मोदकसमूह । मणमोया - मनमोदकाः । ६. उवणिय - उपनीताः । १०. णाणा तिम्मणाइँ - नानाप्रकारशाकानि । तिम्मणा हूँ - स्त्रीमनानि [स्त्रीमनाः ] | १३. मरट्ट - गर्वः । १४. रहसंकिउ - एकान्ते कृतम् दुष्टकार्यमिव । १५. केहरकीदृशम् । १६ गेहिवि रुि - सुसंग्रहीत्वा । अइतित्तिए - अतितृप्त्या । ५-७. ३. जेमियणराहँ-भुक्तनराणाम् । ५. पूयहलु - पूगफल: । पण्णु - [पर्णः ] पान | १०. णं अत्थवंतु सोवयविचित्तु यः अर्थवान् न च पदार्थवान् स व्रतेषु चित्तो भवति, सूर्य पक्षे अस्ताचले वर्त्तते उद्गम अस्तंगमन-प्रतिज्ञाचित्तो । ११. णिडुहणहेउ - निर्दहन हेतु । हुयवहहो तेउ - वैश्वानरस्य तेजः । १२. माणिणि विताउपश्चिम [दिशा] स्त्रियः । राउ - रागः । १३. जाणिवि भवित्ति - कालेन भवितव्यतां ज्ञात्वा स्त्रीषु पुरुषमिलनं भविष्यति [ इति] भवितव्यतां ज्ञात्वा । १४. गहतरुवरासु फलु - गगनवृक्षस्य फलम् । १६. जर जणिय रार - लोकानां रागमुत्पाद्यः । कंदप्पराउकन्दर्पस्य रागपुञ्ज इव सूर्यः वा कन्दर्पराजा । १७ - १८. सिरितिया रविकणकुंभु ल्हसियर - नमः श्री स्त्रियः रविः कनककुम्भ इव पतितः पश्चिम दिशायाम् । १९. हसिरितियाहि चंदुज्जलाहिं इति वा पाठः । २० पहराहउ आरन्तर संतावजुओ-चतुः प्रहारैः [प्रहरैः] हतः आरक्तः सन्तापयुक्तः । रवि सायरे जाम निमज्जइ [ सूर्यः] पश्चिमसमुद्रे पतति यावत् । २१. सो उद्धवइ - उर्द्धवम् पतत् सूर्यः । णिसिं रक्खसिए - रात्रि राक्षस्याः । ५-८. ४. गह १. सूर - पराक्रमी, सूर्यश्व; अत्थमियउ - मरणं अस्तं च । २. जो वारुणिहिं रन्तु यः वारुण्यां दिशायां रक्तः सूर्यः सन् । वारुणी-मद्यं, सूर्य पक्षे पश्चिम दिशा । कवणुण कवणु णासए - कः कः न नश्यति, अपितु नश्यति एव । ३. णहमरगयभायणुनभोमरकतभाजनः । संझाराउ घुसिणु - सन्ध्याराग एव केशरः । मङ्गल, बुध, बृहस्पति नक्षत्राणि । कुवलय - कमलानि । ५. मंगलकरणुराइय णिसितरट्टि पराइय - मङ्गलकरणार्थं प्रीत्या रात्रिस्त्री आगता । ६. णं संतोस कहि मि ण माझ्य - रात्रिस्त्री सन्तोषेन [ कुत्रापि ] न माता [मान्ती ?] विस्तारं प्राप्ता । ७. बहुअए जुउ रइहरे पइसंतउ - वध्वा युक्तः रतिगृहे प्रविशन्; यत्र समा च वधूवर रतिगृहे याति तत्र समा च रात्रिस्त्री सामग्रीं कृत्वा वर्धापनार्थ आगता । ८. पडिहासइ - प्रतिभाषते । करिणिए-करिण्या । ६. सिरिचक्कहूंश्री [ चक्रेण ] - नारायण इव । १०. गोरि - तियक्ख हूँ - गौरी-ईश्वरौ । रइमयण हूँ - रतिरामीमदनौ । पयक्खइँ हुइँ - प्रत्यक्षौ जातौ । ११. चंदणतिलयहिं महमहिउ - वनपक्षे चन्दनवृक्ष तिलकवृक्षैः महिमाट: । णहलग्गचा रुवण दावइ-नभो लग्न चारुवृक्षवनं दापयति दर्शयति, [ वधूपक्षे रतिक्रीडायां ] नखलग्नचारुवणं दापयति । १२. जोव्वणु वपु घण्णङ सेवइ - यः सुदर्शनः मनोरमायाः यौवनवनं सेवते स धन्यः । उद्धरण :- बाहुद्वन्द्वमृणालमास्यकमलं लावण्यलीलावती श्रोणी-तीरलता च नेत्र- सफरी धम्मिल्ल-से [शै]वालयं [कं ]। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० टिप्पण नारीणां स्तन-चक्रवाकयुगलं कन्दर्पदावानले दग्धानामवगाहनाय विधिना नारी-सरो निर्मितम् ।। ५-९. १. करइ वियार विविह अहिणववर-नवीनवरः नानाप्रकारविकारं करोति । णववहुया विलज्जए-नवीनवधू मनोरमा लज्जति । २. अह कामंधु"..'णेव छज्जएअथ कामान्धपुरुषः यत् विकारादिकभोगं न करोति तत् परं न शोभते । ३. णियच्छए-निरीक्षते, आकर्षति । णियंसण-वस्त्र, पटोलचीर, पौताम्बर । णीविबंधण-नीविबन्धन । ४. सकामयं पयंपए-सकामुकं वचनं प्रजल्पते। ८. दिएहिं होट्ठ चप्पए-द्विजैः [दन्तैः] कृत्वा मनोरमायाः ओष्ठं अधरं चप्यते । ५-१०. १. छुडु छुडु' ........ पवासिया-प्रभतकालस्य चिन्हं जातं । पचलिय पवासिया-प्रचलिताः पथिकाः । २. उट्रिय कायसह-काकशब्दाः उत्थिताः । जिल्लुक्क कोसिया-अदृश्याः जाताः [कौशिकाः] घूकाः। ३. उडु.... 'उद्धासिणि-नक्षत्राण्येव कुमुदानि ऊर्व आश्रितानि। ४. उम्मूलिय पच्चूसमयंगें-[प्रत्यूषमातङ्गेन] प्रभात हस्तिना रात्रिरूपिणी कमलिनी पद्मिनी उन्मूलिता। ५. बहल. ''अरि-बहुल अन्धकार एव गजेन्द्रः शत्रु सूर्यः । ६. लीलाकमल-क्रीडाकमल। ७. सोहम्माई ............ जोयहो-सौधर्मादिकल्पफलयोग्यस्य । गयणासोयहो-गगनाशोकस्य । दिणसिरि....... कंदु व-दिवसलक्ष्मी तस्याः विद्रुमवल्लयाः कन्द इव सूर्यः । णहसिरि....."बिंदु व-नभो लक्ष्म्याः ललाटे केशरतिलक इव सूर्यः । ८. वरइत्तहो-वरस्य । १२. तरुणि......"हरणु-युवतीनां सीणां लोचन-हृदयहारी। जणदिहिकरणुजनानां लोकानां सन्तोषकारकः । मयरद्धउ-मकरध्वजः] कन्दर्पः, कामः । पुष्पिका :- विरहकायरा-विरहकातरा। सन्धि ६ ६-१. १. मोययसारं पमाणसिद्धं खु-मर्यादासहितं भोजनं आगमे निष्पन्न । ३. परिमिउ-[परिमितः] मण्डितः । ६. करिविलग्गओ णं सुरेसो-करिचटित (आरूढ) इन्द्र इव । ८. अत्तागम......."सदहाणु-आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानं। १०. तत्तु वि परवाइयणयदुलंघु-मिथ्याष्टिवादिनां नयशास्त्राणां दुःसाध्य[ता]-दुर्लध्यता[म्] आगम्य [तेषां परवादिनां तत्त्वश्रद्धानं दुर्लभं । १२. अक्खिय ए ए तहिं सच सव्वएतानि तत्त्वानि आख्यातानि एतैः सत्यं सर्वे । १३. केवि-[केऽपि] मिथ्यादृष्टयः । १४. गउ सेण... 'मंति-आन्ध्रदेशे धान्यकनगरः, राजा दत्तः, संघश्री नाम मन्त्री, एकदा आवासोपरिराजा मन्त्रिणा विचारं कुर्वन् आकाशे चारणमुनि युग्मं दृष्ट्वा न श्रद्दधानः। १६. तं अकियत्थु जाइ-तपः कृतं निष्फलं भवति । १७. तरुवरहो मूलुतरोर्मूलं यथा सारं । पंक्ति १४ पर उद्धरण : Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित २८१ . जलचन्द्रो मतः साङ्ख्यैः भौतिकं गृहदीपवत् । चार्वाकैः पञ्चभूतात्मा विप्रैर्घट-चटकवत् ।। ६.२. १. सुहुमत्तससमिद्ध-[सूक्ष्मत्रससमृद्धाः] सूक्ष्मजीवभृताः। २. णेय-नैव ! ६. तं जो घोट्टए-यः पुमान् मद्यपिवति । ७. कविल-[कापिलः] चार्वाक् [साङ्ख्य]? ८. अभणिउ जंपइ-अयोग्यवचनं जल्पति । रंगइ-रङ्गते, क्रीडति । ९. माउ जि संगइ-मातृ सह संङ्गं करोति । ११. विहत्थहो-विक्लवः । १४. मंडल-श्वानः। ३. सुक्कसोणिएहिं जाउ-शुक्रशोणिताभ्यां जातं। ४. विहत्थु-बीभत्स । दुगुंछ-[जुगुप्सितं] निन्दितम् । ६. एरिसं-ईदृशम् । असेइ-भक्षति । ८. एयचक्के जो पहाणु-एकचक्रपुरे बकराक्षसाभिधानः । ९. असंतु संतु-अश्नन् भक्षन् सन् । १०. आसि विप्प वोमे जंतु-पूर्व विप्राः व्योम्नि आकाशे यान्ति स्म । १. भयाणणे-भयानके। णियवि-दृष्ट्वा । महुयरीण छत्त-मधुकरीणां छत्रम्। ३. मच्छिय-मक्षिका । पेच्छिनइ-दृश्यति। चिलिसिजइ-दूष्यते । ५. अयाणु मइमोहिउ-मतिमोहित अज्ञानी। ६. जीहिंदियवसु-जिह्वेन्द्रिय [वशः] लम्पटः। ८. सुइ सुइ-[शुचि शुचि अतिपवित्र । खउ गच्छइ-[क्षयं गच्छति] मरणं प्राप्नोति । ९. बारहगामडहणे जं कहियउ-(भागवते) उद्धरण : न ग्राह्याणि न देयानि षट्वस्तूनि च पण्डितैः । अग्निर्मधु विषं शस्त्रं मद्यं मांसं तथैव च ।। सप्तप्रामेषु पत्यामग्निना भस्मसात् कृते । तस्येतज्जायते पापं मधुविन्दृय भक्षणात् ।। ११. आसि काले-पूर्वकाले, शास्त्रे पुराणे। संदरसियदुहमलि-[संदशित] दुःखमलिनकारणं, पापकारणं। ६-५. ४. सिद्ध भवासियभेयहिँ-सिद्ध-भवाश्रितभेदाभ्यां, सिद्धजीवराशिः संसारी जीवराशिश्च । ६. भवासियो-भवाश्रयिनः। १०. कम्मपयडिधम्मा-[ कर्म प्रकृति धर्माः] कर्मसहिताः। १४. दुत्थो-दुस्थः, दुःखी। १५. ण कीरए-न क्रियते । १७. तसु काई सीसए-तस्य किं कथ्यते । २०. इयरह-[इतराणाम्] त्रसानाम् । पिउ देवत्थु वि-पितृ-देवतानिमित्तम् । ६-६. १. सपरहिययरा-स्व-परहितकरा वाणी। ५-६. सिरिभूइ वणिवरहो रयणाई हरिवि-श्रीभूति[नाम्ना नृपतिः] समुद्रदत्तस्य [वणिग्वरस्य] पञ्चरत्नानि [हृत्वा] गृहीत्वा । ८. चडुल...."भंजणं-चपलतरमनः प्रसारं परिभञ्जनं कुरु । ९. परिसेसणंनाशनम् । १२. सब्भए-श्वभ्रे नरके। १६. रइभंजणं-[रतिभञ्जनं] प्रीतिनाश । १९ संखलु-[शृङ्खला ] दोर । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ टिप्पण ६-७. १. सल्लकसा यगारवे - शल्यत्रय, गारवत्रय, कषायचतुष्कं । सम्मं - सामायिकं । २. समया चित्ते - समता चित्ते, सर्व सावद्यविरतोऽस्मि । दो मुकम्मंनिर्दोषधर्मं स्मर्यते । ५. मयण - मदन । ६. सुहनिवाणु - पुण्यनिधानपात्रं । ६-८. ९. ऊसरछेत्त - ऊषरक्षेत्रे । १०. कंचरणमणि - गणोहु सयणासणु उद्धरण :गौमं गजवाजिनो भूमिमहिलादासी - तिलस्यन्दनम् । सद्गेहं प्रतिबद्धमन्त्रदशधा दानं शठैः कीर्त्तितम् ॥ तद्दाता कुगतिं प्रव्रजत्वा पुर हिंसादिसंवद्धनात् । · नेतापि वचं सदा त्यज बुधैः निन्द्यं कलङ्कास्पदम् ॥ १२. चयवि - त्यक्त्वा । ६-९. १. चइवि - चयुत्वा । ३. उवयरियई खलयणे किं करंति - दुर्जनलोके उपकारं [कृतं ] यथा वृथा याति । ७. तुंगीहि रात्रिषु । ८. तहिँ समये - रात्रिसमये । ११. अडंति - अटन्ति गच्छन्ति जीवाः । ११. एविणु पतंति - आगत्य जीवाः पतन्ति । १४. सीलु विवज्जेवि - दयां वर्जयित्वा । ६-१०. ६. गुग्गुलं - कषाया १. त ''खिज्जए - तनुः दुर्बलो भवति । ३. महउ सुहभावणं - शुभभावनां ध्यान जापादिकं करोतु वृथा । ५. करणखल - तीर्थ । म्बरम् । ७. णवउ-नमतु । ८. गोग्गहे - गोग्रहे । ६ देउ - दंदतु । पेसणं[प्रेषण ] आज्ञा । १०. कव्वञ्च्चणं - काव्यपूजनं । - ११. तणु जि परिखिज्जए - एतैः कृत्वा शरीरं क्षीयते । ६-११. १. के वि- मिध्यादृष्टयः । ६. पंगु-मंट - वामनः लोलः । १६. मग्गमाणयाचमानः । १७. पाठान्तरः- चंडियाहिं अग्गिमाहिं ठेल्लिताहि-चण्डिकाभिः खीभिः [प्रेरिताः] ठेल्लिताः पतन्ति । २३. संतावइ - दुःखं प्राप्नोति । ६-१२. १. कलुणकारया - करुणाकारकाः । ७. पयंति - पचन्ति । ६. रिहउ जिवंति - काकवत् जीवति । १२. सिय- श्री । १४. इय जाणेविणु वज्जहिं - इति रात्रिभोजन[स्य ] बहून् दोषान् ज्ञात्वा ये [ रात्रिभोजनं ] वर्जयन्ति । १५. पाठान्तरःदियरु व्व व भासहिं- वपुः भासन्ते, भास्कर इव शोभन्ते । ६-१३. २. तियसपुज्जिया - [ त्रिदशैः ] देवैः पूज्याः । इंद उव्व - इन्द्रसदृशाः । विदुरसहासवज्जिया - [ विधुर] कष्टानां सहस्र [वर्जिताः ] रहिताः । ६. साउहभडेहिं - सायुध Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित २८३ भटैः । दप्पुब्भडेहिं-दर्पोटैः] हुङ्कारमानैः । सेविजहिं-सेव्यन्ते । ७. आरुहहिंचटन्ति । १०. माणिज्जहि-भोग्यन्ते । ११ जियहो-जीवस्य । १२. अणथमियहो फलु-रात्रिभोजन[त्याग]स्य फलम् । ६-१४. जा जुवइ विविहरसं चयति-या युवतिः एवंभूतं रात्रिभोजनं त्यजति सा एवंभूता जायते । जह विसं-यथा विष हालाहलं मुश्चति तथा रात्रिभोजनं मुश्चति । ३. कुडिलालय-कुटिलअलकाः। ४. सिद्धदसण-स्निग्धदशन । ५. भुय-भुजा । मज्झंकिस-मध्ये कृशा। ६. जणिय रइ-उत्पादित सौख्या। ७. वेल्लि व हलहलियफलफलितवेल्लीसहशा। ८. बुहथणिय-बुधैः विद्वद्भिः स्तुता। ९. पाणपिय[प्राणप्रिया] वल्लभा कान्ता। १४. सहयरिहिं-सहचरीभिः। १५. सुहसय जिविसुखशतानि भुक्त्वा । वइरायवंत तउ पालइ-वैराग्यवती भूत्वा तपः पालयति ! ६.१५. १-२ कुगुरुकुदेव...इत्यादि-याः युक्त्याः रात्रिभोजनं कुर्वन्ति ताः एवम्भूताः भवन्ति ज्ञेयाः । १. मयपत्तिओ-मद[प्रमत्ताः]मत्ताः। २. कंचाइणि सरिच्छओकात्यायनीसदृशाः ३. रयभुरकुंडिउ-रत[भार]विह्वलाः, भोगेन विह्वलाः, लम्पटाः भवन्ति । ४. चिब्बिरणासिउ-[चिपटी] नासिका। ५. विसरिसभालउ-विसदृश[भालाः]मस्तकाः ११. पेसणसारिउ--परगृहवतार्याः[१]। विप्पियगारउ-विप्रियकारिकाः। ६-१६. __२. उद्धंकियकरो-ऊर्ध्वकृतं शुण्डादण्डम् । ४. जा घिप्पइ...करिणा-यावत् [स नरः] गजेन गृह्यते । हरिणा-सिंहेन । ५. अडउ-अन्धकूपः । ७. अहो जोयइअधः विलोकते। ६. किण्हसियाभूसय-कृष्णश्वेतमूशकौ । कुरुडहिं-छेत्तु लग्नौ १२. गलिउ-गलितम् । १३. तहो राओ-मधुकरीणां रवः । १५. खिल्लविल्लसंजोएंहलन[चलन] संयोगेन । १६. जीहहो-जिह्वायाम् । १. महुयरी-[मधुकरी मधुमक्षिा । ४. मिच्चु-मृत्युः। ५. भायणु-भाजनं स्थानम्। ७ मइदक्ख-हे मतिदक्षः। ८. दुच्चजु-दुश्चलः । १२. जे-[येन] तपसा। भव भव णिण्णासइ-भवे भवे कृतं पापं निर्नाशयति । - १. गयचरित्तउ-[गतचरित्रः] चारित्ररहितः दीक्षां विना। ४. संखित्तउसंक्षिप्तः[संक्षेपतः]। ५. अणुजायउ-अनुजातम्। ६. अज्जलोए . किज्जइआर्यलोके दाक्षिण्यं क्रियते । ६. मम्मिलहं छंदें वत्तिज्जइ-मर्मिणां छन्देन वर्तनम् । णियकज्जें...गणिज्जइ-स्वकीयकार्येण गर्दभः गुरु इव गण्यते। १०. पडुयउप्रकटम्। १३. मायारउ-मायारतः] कपटी। १४. कासु वि पियारउ ण होइकस्यापि वल्लभः न भवति । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ टिप्पण १. जो मम्मई ण भासए-यः पुरुषः परेषां मर्माणि दुःखकारी वचनं न भाष्यते । चलइ छंदु-नृणां छन्देन चलति । ४. थिए-स्थिते । १५. इट्ठदुगुंछणुइष्टानां निन्दा । १८. परिसेसमि-त्यक्त्वा [त्यजामि ?]। ६-२०. १. हयभवं-हतसंसारम् । २. णिवपसायं-नृपः प्रसादम् । ७. तुहुँ एक्कु सुहि एकः त्वं सुहृत् सज्जनः । सुहिहियय दिहिकरणु-अस्माकं [सुहृत् । सज्जनानां त्वं हृदयसन्तोषकरः। १०. माय मग्गेइ-मातरं याचते। ११. अंगरुहु-पुत्रः । १४. जं वुत्तु-यत् कुलं कथितम् । २४. दिवि-स्वर्गे। २६. जणणी जणणु वि तउ करेविवृषभदास-अहंदासी दीक्षां तपं कृत्वा । सन्धि ७ ७-१. १. सुरलीला-इन्द्रलीलया । ३. सुपुण्णु लिंतओ-पुण्यं उपार्जन समीचीन पुण्यं गृह्णन् । मुणीण सत्थे-मुनीनां वृन्देषु। सुहयाण-शुभदानः। ७. सरसं-शृङ्गारहास्य-करुणादि नवरससहितम्। णियंतओ-पश्यन् । सुहावहं...सुणंतओसुखावहं गीतस्वरं शृण्वन् । ८. कीलाहरे-क्रीडागृहे। मणोज . दमंतओ-मनोज्ञ आश्चर्येण भोगेन प्रियां मनोरमां हर्ष सन्तोषं ददन् । ९. सुचाडु...तोसवंतओ मणोज भोयेण सुहं जणंतओ इत्यपि पाठः। १२. समीहए-चेष्टते ; छेलहएछेकानां चतुराणां मध्ये सुदर्शनः शोभते । १३. सुविणोयहि-सुष्ठुविनोदैः । चरिमागंगउ-चरमशरीरः चरमकामदेवो वा । ७-२. १. वराए वाणीए तिलोयरंजया-यस्य सुदर्शनस्य विशिष्टतया वाण्या वचनैः कृत्वा त्रैलोक्यरंजितः । जसुत्तमा...संजया-यस्याग्रतः उत्तमाः शिष्याः संयताः यतयः भणन्ति । २. तहो...सीसए[तस्य सुदर्शनस्य सौभाग्यं कथं वर्ण्यते । ४. अच्छउ .. वरएण वि-विशिष्टदर्शनेन तिष्ठतु । होइ णेहु...णिसुएण वि-केनापि[सह] श्रुतेन सति स्नेहो भवति, तहिं तस्य सौभाग्यं कथं-वर्ण्यते । ६. आयामिय-पीडिता। ७. विहलंघलु-विह्वला। ८. णजइ-[ज्ञायते]नीयते, गण्यते । ६. दिसिहिं पधावइदिक्षु धावति । णावइ-इव । १०. अह ण...संताविउ-स्नेहेन कृत्वा कः लोकः न सन्तापितः । १२ पंच विसमसरु कामहो-[कामस्य पञ्चमरागः कृतः।। ७-३. १. सुहस्स लुद्धए-सौभाग्यस्य लुब्धया। १-२. मुद्धए मुएवि णीसासमुग्धया निःश्वासं मुक्त्वा । ५. णीसेसउ गणियउ-गणिका: स्त्रीजनः समग्रस्त्रियः । पुप्फ...वणियउ-पुष्पवाणैः येन सुदर्शनेन व्रणिता जर्जरिता । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित २८५ ७.४ २. वयंसि-[वयस्या] हे सखि । ५. गय-[गता] गत्वा। ६. तुह...वेयणतव मित्रस्य कपिलस्य मस्तके वेदना वर्धते । ७. अवियप्पु-अविकल्पवशेन । १६. आहाणउ-आख्यानकम् । हियत्थे-हितार्थेन, सत्यार्थेन । १९. संढउ मई इहअहं नपुंसकोऽस्मिन् भवे । २३. दूरयरपियाण-दूरतरप्रियाणाम् । ७-५ १. मलयद्दिमारुओ-[मलयाद्रिमारुतः] मलयाचलवातः । २. स माणिणीणं ... सुभए-वसन्तः मलयाचलवायुर्वा अभिमानिनीनां युवतीनां अभिमानं टालयति । ४. जहिं-वसन्तमासे । छप्पर-भ्रमरः । ५. जो मंदार...कुप्पइ-यो मन्दारपुष्पे कुप्यति, यो मन्दारं त्यजति । पक्षे मृदु-कोमल-सरलस्वभावे पुरुष यः कुप्यति । कुडा-कुटकोटकी पुष्पे । ६. केयइ-केतकी । ६. जिणहरेसु...सुचञ्चरि-जिन[गृहेषु] प्रासादेषु प्रारब्धा पूजा। ११. अहिसारिहिं....गम्मइ-[अभिसारिकाभिः] कुलटाभिः स्त्रीभिः सङ्केतस्थानं पुरुषं प्रति गम्यते। गयवईहि-गत पतिकाभिः]भर्तृकाभिः स्त्रीभिः । १२. पिय-प्रिया । पहियह डोलिजइ-पथिकानां कामदुःख उत्पद्यते, गमनं क्रियते । १४. णरवइ-धात्रीवाहन । २. सुप्फुल्लियं-फलितं पुष्पितम् । ३. धुमुधुमिय महलई-गमनावसरं ज्ञात्वा एवंभूतानि वाजित्रैः [वादित्रैः] वाद्य-वाद्यानि [वाद्यानि वादितानि । ७-७. ७. हिट्ठा-हृष्टा। ७.८. १. सरं-सरश्च शरः । पत्तविसेसभूसियं-पत्रं वाहनं पर्णानि च, नृत्यपात्रमण्डितः । सुहालयं -शुभालयं, सुखालयं । सक्कइविंदसेवियं-शक-उपेन्द्रेण नारायणेन लक्ष्मणेन सेवितम् ; पक्षे-पक्षिभिः [सत्कविवृन्दैवा] सेवितम् । २. सुणाययं-नागाश्च न्यायः । णिउ व्व-नृप इव । ३. रंभा 'कोमल-कदलीवत् कोमलजङ्घा, उरु, वनपक्षे रम्भा कदलीवृक्षः,। ४. पवरलयाहर-कदलीगृहं रम्यं आवासम् । पसूण-[प्रसून] । पियंसण-वस्त्र। ६. सिहि-[शिखि] मयूर। ११. चंदण...... वण्णकेशरचन्दनैमनोहरवर्णः। १२. बहुभुयंग सेविय-कामीपुरुषैः सः सेविता वा। हरिवाहण-अश्ववाहन, सिंहवाहनश्च । १३. सुमंड-बलात्कारः, पक्षे-स्थूलः। १४. तरु"....."राएं-तत्र वने राज्ञा तरुराजिः वेश्या इव [दृष्टा] १७-१८. रायागमणेण अग्धंजलि व पयासइ-धात्रीवाहनराजा आगते वनश्रेणिवेश्या अर्घपात्रं प्रकाशत इव। ७-९. " १-२. वयंसीहि सायरसेणपुत्तिया सहेइ-सखीभिः सह मनोरमा शोभते । ४. उपहाविय"..... "तृप्ति नीताः बान्धव-सुहृदां लोचनानि यया मनोरमायाः। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ टिप्पण पुण्णवंत एह-एषा मनोरमा पुण्यवती पुत्रवती। ५. कविलाए पवुत्तउ-कपिलया ब्राह्मण्या अभया महादेवी प्रति उक्तम् । ७. मीणइ-मेनका । सइ-शची । ८. पुज्जइप्राप्नोति । ८. पुत्तु जणणि ....... रयणायरु-पुत्रैव मातुः मानः रत्नस्य रत्नाकरः १०. णियहि-जानीहि । १२. तें-[तेन] कारणेन । आयहि-एतस्या मनोरमायाः। णंदणवंतहिं-पुत्रसंयुक्तायाः पइ-पति । १४. रायहे....." मई सुउ-कस्यापि पार्थे मया श्रुतं [य] मनोरमायाः भतः षण्ढः वर्तते । ७-१०. १. राणिया-राज्ञी। २. डंभिया-वञ्चिता। ४. मझु.........हियउ केमममाने हृदयं कथं गोपयसि। ७-११. १. इमाहे कंतस्स-अस्याः मनोरमायाः [कान्तस्य] भर्तः । २. वयंसिए अग्गए सख्या अग्रे । ४. पयलंतु-प्रज्वलन्तम् । ९. छुहेमि-क्षिपामि । १०. धुत्तीहि-धूर्ताभिः वाहिज्जइ-ड[दह्यते । पाणहिय-[उपानह] बुन्देली में पनही । ७-१३. ४. एत्थु-अस्मिन् भवे अहं ब्राह्मणी । ६. णिसुणती न लज्जिया-श्रवणं कारयती अहं न लज्जिता । ८. ललिया-चतुरा, दग्धा। १०. अइ छइल्ल तो जाणमि धूर्त्ता चतुरबुद्धि जानामि । ११. मयंध-मदान्ध । १४. कोड्डु-कौतूहलम् । २०. संचारिमणाई-अन्य वार्ता उपायक लग्ना। माउल्लिय-पण्डिता धात्री। ७-१३. २. भावइ-दीप्तिवती। धणुच्चा वम्महभल्लि-धनुषरहिता [मन्मथ] कन्दर्पस्य भिल्लि इव] ३. सारिउ-साराः। णारिउ-नार्यः मनोरमा कपिलादि । ४. केण विकेनापि पुंसां, णिय भाविणि-निज भामिनी] स्त्री। ७. पिय तोसिज्जइ-भार्या भत्तणा सन्तोष्यते । ८. मां-मा। ९. पायहिं-स्त्रीणां पादयोः । १०. रत्तु-कामातुर. पुमान् । ण किं वि वियप्पइ-किं न करोति । ७-१४. २. आण समीहमाणओ-आज्ञां वाञ्छन् । ३. थणवट्ट"""सतुंग-स्तनवृत्तः [पीन] कठिन-स्थल-उत्तुगः। ५. कत्थई छप्पउ-कुत्रापि षट्पदो। ६. काहे...... रोमराइ-कस्याः [अपि] वनितायाः तुच्छोदरे रोमराजि । पायड-प्रकटीभूता। ६. मुद्ध-मुग्धा । ८. सा तेण" 'वसेइ-सा स्त्री कथयति हे प्रिय भर्तुः तेन कारणेन मानसरोवरे वसति...."। ६. अउव्वधाणुक्किणीए-[अपूर्वधानुष्किन्याः [अपूर्वभ्रयुगलवत्याः]। १०. अविधु विधु-अविद्धः पुरुषः विद्धः कटाक्षबाणैः । ११. पिय जाइ-भार्या युवती याति [गच्छति । तहो..."धावइ-भत्तु : मनः तत्र याति । १२, तहो । 'णावइ-तस्य पुरुषस्य तया भार्यया अपूर्वमोहनं दत्तम् । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित . २८७ ७-१५. १. लया... "णिरंधए-लतागृहे किं भूते वल्लीगृहे ? पीतवर्णे रन्ध्र-छिद्ररहिते] ४. सा भणइ... 'असोउ-स्त्री भणति हे भर्तः स्वामिन् यः अशोकः शोकरहितः स [अवश्य] विकसति । वियसइ-[विकसति हसति । ५. सिरिहलाइं-श्रीफलानि, नारिकेलफलानि, लक्ष्मीफलानि पुण्यफलानि मृष्टानि [मिष्टानि भवन्ति । ६. वयह[बकानां] पक्षिणां । कहिं ....."हवंति-हे भत्तु: स्वामिन् प्राणनाथ सरसैः रसयुक्तानां किं व्रतानि भवन्ति । ७. विसहरु-विषधरः हृदः, सर्पः। ८. को वि....""काउकोऽपि भाषति हे प्रिये हे कान्ते कः कः कं कं [कृत्वा] भाषते । सुउ-श्रुतम् । कंठणाउकण्ठनादः। कंतारयाई-वनानि, कान्तारतानि । ७-१६. ३. तो णिवेण' ...."मणहर-तदनन्तरं धात्रीवाहनराज्ञा समस्तलोकेन नन्दनवनमध्ये सरोवरं एवं विधं [मनोहरं] दृष्टम् । ६. कल-मनोज्ञः। ८ अणिलविहुय[अनिलविधूत] वायधुनित । १०. करिरहंग-चक्रवाकः । 2. पवण्णिउं.....तारिसा-तादृशी जलक्रीडां वर्णयितुं कोपि न शक्नोति । ७. तिसाइं-तृषाभिः । ९. ऊरु-स्तनौ। १०. काहि..."दिण्ण-कस्या अपि स्त्रियाः [रमणे] भर्तरि दृष्टिदत्ता। ७-१८. १. सुटठुद्धपत्तं-शोभनोष्टार्द्धपत्रम् । दिय दत्त । २. कहिं वि-कस्मिन् स्थाने। ४. अइतरल-अतीवचपलस्त्री। ६. तहि-रक्तहस्तपादेषु कमलं ज्ञात्वा । ७. घुसिणरस-केशररस। १०. मुहपरिमलं हरिसवसु..."सयदलं-हर्ष प्राप्तः भर्त्ता हस्तात् कमलं क्षिप्त्वा स्त्रियाः मुखपरिमलं [पिवति] ग्रह्णाति । १३. को वि-[कोऽपि पुमान् । १५. पियफरिसणं-प्रियस्पर्शनम्। १६. बहल . "रइगुणं-रतिगणं [°गुणं] बहुलभूतं श्रान्तः [श्रान्ता ?] सन् परिहरति । १७. तणुघडण-शरीरसंघट्टनेन स्त्रीभर्ताभ्याम् । १८. सहहि शोभते । २०. तो तरुणिहिं...."णियतणु-युवतीभिः सह अभया [ सरोवरात् ] निःसता निजशरीरं प्रसाधयति मण्डनं करोति । ७-१९. १. दुरेहु... ... .."सत्तओ-जातिपुष्पकलिकायां सक्तः [द्विरेफः] भ्रमरः । ५. सिहिणहं उवरि-स्तनयोः उपरि । ७. महुसिरोहिं-[मधु] वसन्तश्रियः । ७. थङ्ग्रह .........."गुणवंतु वि-कठिनस्तनयोः अग्रे लोट्यमानः नमन् सन् [गुणवानपि हारः] मध्यस्थितिं न लभते। ८. मेहलाए. ... ..."संपाइउ-मेखलया यत् हुतभुक् सेवितः तपः कृतः [तेन] तपसः फलेन अभयानितम्बः प्राप्तः। ९. मंजीर......"घोसइ, चलणजुवलुल्लउदुलहउ... .... 'भल्लउ--मया मीरयुग्मेन लब्धं समीचीनं [दुर्लभं] चरणयुग्मं [इति] घोषयति इव । १२. गउ णयणंदिउ पुरवरे-न्यायेन वर्द्धितः लोकः चम्पापुरे आगतः । पुष्पिका :-- पइण्णसंबंधयं-प्रतिज्ञासम्बन्धकम् । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ टिप्पण सन्धि ८ ३. आसि-पूर्व । सरसइए'......"कइंदाणं-सरस्वत्या प्रगोपित कवीन्द्राणाम् । ४. गयणाणंदो-लोचनानन्दकारी। रइस्सए जम्हा-यस्मात् रचयिष्यति । ७. मरुद्धया धयावडीय-मरुद्धृतध्वजा [पताका] पटी [क]। १५. विच्छाइय-निस्तेजः । १६. जुण्णदेव........" सरिस-जीर्णपुष्पकलिकासदृश, जीर्णदेवगृह वा जीर्णदेवमूतिः । पंडियए-पण्डिता नाम्न्या धाया। ८-२. १. सगुणविराइयए-चतुर [दग्धां] डाहां पुनः कलाविज्ञानप्राप्तां अभयाम् । ५. ण मुणेमि-न जानामि । कहहि-कथय । ८. णित्तलिय-प्रतिज्ञा । ९. बुहिए मइवंतियए-बुद्धिमत्या पण्डितया। १०. पई उग्गीरियउ-तवसा [उद्गीरितः-उद्गीण] कथितम्। ८-३. १. लच्छिए .... अवरुंडिउ-प्रणयिन्याः लक्ष्म्याः मनोरमभार्यायाः शोभितः। २. अयसयम्मु-अपयशकर्मः-पापकर्मः, परस्त्रीगमनम् । किं........."पडिवज्जइ-परस्त्रीं कथं अङ्गीकरोति ।३.कि...'गाइज्जइ-यथा [मृत्वा मृतकाग्रे पश्चमरागादिकं वृथा तथा यः प्रीतिः स्नेहं न धरति तेन सह प्रीतिवृथा। ४. जो पुणु..... .."अवगण्णइ-यः सुदर्शनः अन्यनितम्बिनी अवगणयति, अन्यस्त्रीणां सन्मुखं न पश्यति । ५. होउ........ छिज्जइ-तेन सुवर्णेन पूर्यतां [अलं] भवतु येन कर्णयुग्मं [छिद्यते] त्रुट्यते, तथा तेन [सह] स्नेहेन भोगेन प्रीत्या [वा] किं क्रियते येन [यया प्रीत्या. वा] लोकानां मध्ये अपयशः [ज्ञायते भवति वा]। ६. बेदिसेहि...... पिंछोवमु-द्वाभ्यां दिशाभ्याम्] उभयोः पार्श्वयोः रक्त-मनोहर-रम्य-सुमनोरम-मयूरी पृच्छेव स्नेहः रम्यः । एक्क......"किं पेम्में-मयूरपृच्छोपमेन एकपार्थाभिरामेन प्रेम्णा किम् । ८. कहि......."सो-त्वं रक्ता स विरक्तः । दूरट्ठियहो ....."छंडइत्वत् अभया सकाशात् दूरस्थितस्य सुदर्शनस्य स्नेह-प्रेम मुश्च स्व] १०. एत्तहि'.. ..... "रुच्चइ-[अत्र] तव शिक्षावचनं रुच्यते [तत्र] सुदर्शनोऽपि रुच्यते किं बहुना। १. अव्वो-अम्बे । एइ-आगच्छति । आणेह-आनय । ३-४ ता लज्जा मओ...ण वियंभए जाम--कुल-माता-पिता-श्वस्तु लोकानां लज्जा-भयं-सुमर्यादा तावत् यावत् मदनो न [विजभ्भते] विस्तरति । ५. विरयइ....पासेओ-यस्स सुदर्शनेन अदर्शनेन मम शरीरे काम]दाहो विरच्यते शरीरं कामाग्निना दह्यते तस्य सुदर्शनस्य दर्शनेन प्रस्वेदः जायते। ६. णिव्वहइ-कथयति । ७-८. कोमल....पजत्तं-तस्य सुदर्शनस्य आलिङ्गनसौख्यं यद्यपि न भवति तथापि तं दृष्टे सति यत्सौख्यं नयनाभ्यां कृत्वा Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित । २८६ जायते तेन किं किं न पर्याप्तम् न पूर्णम्। ६. सो को पि...पडिहाइ-स कः प्रियतमः भवति येन प्रियतमेन विना रतिसौख्यं कथमपि न [प्रतिभाति प्रतिभासते। ११. जेणायण्णियमित्ते-आकर्णित-श्रुतमात्रेण येन सुदर्शनेन प्राणवल्लभेन । ण माइन माति । १२. संबंध-आलिङ्गनम् । १४. विहु-विधु[सूर्यः] । लहइ....पोमिणीकमलिनी पद्मिनी सुखं लभते दृष्ट सति । १६. परिभाविऊण-[परिभावयित्वा] विचारं कृत्वा । १७. सुहावह चिंतियउ-[सुखावहं] सुखप्रापकं च मनसि चिन्तनीयं वचनं । अच्चग्गलु-अत्यग्रम् , अत्यधिकम् । ८-५. १. जाइ...कुलउत्तिहे कुलवन्तीनां शीलगुणसहितानां[कुल]पुत्रीणां एकैव [कान्तः]भर्ता भवति । २. देवहि...दिण्ण उ-देवब्राह्मणसाक्षीकृत्वा याः परिणतीः ६. सेच्छ-स्वेच्छा। णाह-नाथः]भर्ता। ७. तियहि-स्त्रियः। १०. ताहँ-तासां असतीनाम् । ११. तं खजइ...पावइ-तत् सौख्यं भुङ्क्ते यत्सौख्यं भर्चः सकाशात् प्राप्यते । १३. मयरद्धउ-[मकरध्वजः] कामदेवः । १५. जं पइँ जंपिउ-यत् त्वया जल्पितम् । ८-६. १. गुणगणसहिउ-सम्यक्त्वव्रतधारी। २. पर महु...परत्तु-परन्तु]मदीयं हृदयं मम वशे नास्ति । ३. उवहाण-दृष्टान्तानि । ४. को ण...उवएस कहंतुपरेषां उपदेशान् कथयन् कः पण्डितो न। १०. वाइ-वातः । १२. सुपइण्णसुप्रतिज्ञा । १७. रहसे...परिच्चएवि-एकान्ते शीलं त्यक्त्वा। ८-७. १. पासिउ-पार्श्वस्थ । जुवइहे-युवतीनाम् । मंडणु-आभरणम्।२. णीय-नीता। ३. अणंतमइ-अङ्गदेशे चम्पापुरे श्रेणिक[स्य] प्रियदत्ता भार्या अङ्गवती पुत्री अनन्तमती। ५. मायउ-मातरः । ७. जायउ-[जातः] जनितः । ८-८. ३. पलीविए-प्रज्वलितया। ४. सयाणउ-[सुजानकः] ज्ञाता, चतुरः । ५. हाहारउ-अपकीर्ति । १०. अइरेण-[अचिरेण] शीघेण । ८-९. १. पेयवणे-प्रेतवने । गिज्झु-गृद्ध-राक्षसः । ५. जोव्वणइत्ते-यौवनत्व । ८. ण फिट्टइ ... असगाहु-[अस्या]: एतेषां असनाहः न [स्फिटति] गच्छति । । ८-१०. १. अकज्ज-[अकार्य] पापकार्य, अधर्म । २. कवणु' ...."पत्तिहे-वसुधाधिपपल्याः] धात्रीवाहनस्य भार्यायाः कः दोषः अपितु न । ५. ताए-तया पण्डितया। धीरी होहि-स्थिरा भवतु । ६. अच्छउ....."हारउ-सुदर्शनः तव हृदये [दोलायमान हारमिव वसतु] आलिङ्गनं ददतु । ७.पियइँ-प्रियाणि । गेह-गृहाणि । पयावइ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० टिप्पण [प्रजापतिः] कुम्भकारः। ८. मट्टियवाउल्ला-मृत्तिकापुरुषाः। ६. जामिणिहे[यामिन्याम् ] रात्रौ। मयणहो वउ-मदन[स्य व्रतम् । १०. तसु माहप्पे-[तस्य] मदनव्रतस्य माहात्म्येन। ८-११. २. पडिहासहिं-प्रतिभासन्ते, शोभन्ते । ३. हरिसियंग-हर्षिताङ्गाः, प्रमोद प्राप्ताः। रमहिं-रमन्ति, क्रीडन्ति । ४. तसहि-त्रस्यन्ते ! ६. वियप्पु मुणहिंविकल्पं जानन्ति । ८. ताहै..."रणहिं-तस्याः अभयायाः मरणं कथयन्तीव । ९. संक परिसेसवि-शङ्कां [परिशेषयित्वा] त्यक्त्वा, निःशङ्कं भूत्वा । ८-१२. तुहिक्किय थक्किय-[तूष्णीकृत मौनं कृत्वा स्थिता] । ६. रोसु फुरंतियएरोषजाज्वल्यमानया। ७. रक्खवाल कुविय-रक्षपालो कुपितः। ८. अणपुच्छविअपृष्ट्वा । ९. सकज्जविरयंतियहे-स्वकार्य [विरच्यमानया ], कुर्वन्त्या। १०. सुएहि-सुतैः। ८-१४. २. आणमि-आनयामि । ४. कयडंभहिं-कृतपाखण्डैः । २. छुट्ट बाल-विमुक्तकेश [कलापा] । उद्धरणः-- कहिं...."आदि-विमुक्तकेश-काषायैः नग्नेन्धन-बुभुक्षितैः । ___कुब्जान्ध-वन्ध्या-रजकैः दृष्टः सिद्धिर्न जायते ।। ३. साणु-श्वान। ८. वामिय-वामन। १०. उप्पेक्खइ-अपशकुनानवगणयति । ८-१६. ४. साइणी-शाकिनी, डाकिनी । ससंकेय भासणे-तासां संकेतकथनं यत्र [स्मशाने]। ६. थंभण-स्तम्भनम् । ९. अक्कमिउ-आक्रान्तः। १०. वसु-वशः १. कण्णियचूडुल्लउ-कर्णिकाभरणं २. अलिणयणउ-भ्रमरलोचनम् । ३. चक्कइँ-चक्रवाक् । इथियसंगु विवजिवि थक्कई-[स्त्रीसङ्गं विवर्जयित्वा स्थितानि] चक्रवाकाः चक्रवाकीनाम् सङ्गं त्यक्त्वा स्थितानि । अजवि-अद्यापि । कमु-अनुक्रमः। ८-१८ ___१. तासु-नभःश्रिया । १. पहिडउ-प्रहृष्टा। ४. सवत्तिहिं-सपन्याः । केसग्गकेशाग्रम् । ६. आलिंगणहँ-आलिङ्गनाथ । खेड्डेण-हास्येन । ८. कासु वि-कस्यापि । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित २६१ ८-१९. , १. विड वेस णिएप्पिणु- [विटाः] कामीपुरुषाः वेश्यां निरीक्ष्य वेश्यार्थ युद्ध[ कलहं] कुर्वन्ति । ४. कच्छहिं धरवि-कक्षं धृत्वा। ५. चडुयम्महिचाटुकर्मभिः। ६. विलेवए-विलेपनार्थम् । ८-२०. १. तत्थ-तत्र स्मशाने । ४. णहि. ..मंतेण-मेलापक[सहसङ्गमं] अन्तरेण जीवाशा न भवति तस्याः। ८-२१ २. तहि...सोहहि-तस्याः अभयायाः पादबद्धा अपि न शोभन्ते अप्सरसः । ४. तेहिय-तादृशी। ६. णईए-नद्या। १०. पुरुसा... कीरइ-पुरुषार्थत्वं पौरुषत्व] तावत् क्रियते ११. अवसु-अवश्यम् । १२. खाइहइ-खादिष्यति । १३. विणडेजंतुविडम्बनं [क्रियमाणः]। ८-२२. ३. णिवविदहो...जुया-नृपवृन्दस्य नृपवन्द्यस्य वा धात्रीवाहनस्य[राज्ञः] अति[अनुराग] प्रीतियुक्ता। ५. णिरसिउ-[निरस्तः] तिरस्कृतः । ६. कहि माएकथय हे मातः। ८-२३. १. विसेवि केयणं-प्रविश्य निकेतनं। २. तुलपंके-पल्य पर्यङ्के । ६. बुहीय-विदुष्या पण्डितया। १४. सुर'...."रंभे-देवमन्थनारम्भे। ८-२४. १. पाउ आसवेइ-पापं आश्रवति । २. मज्जवाण-मद्यपान । १३. थूलसण्हपाणभूय-[स्थूल-स्लक्ष्ण प्राणभूताः] तरवः-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाः प्राणभूताः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः। एषाः सत्त्वाः प्रकीर्तिताः। १४. सोय-श्रोत्र । १५. सुप्पइण्ण-[स] प्रतिज्ञा । १७. उव्वरिउ-उवृत्तः [उद्धृतः] । जमकरणहो[यमकरणात् ] उपसर्गात् । १८. संहुए वासरे-[सम्भूते संजाते दिने । १. वयपुण्ण-व्रतपूर्णौ । २. णिवपत्ति-नृपपत्नी अभया महादेवी ! ३. एहु मारु-एषः [मारः] कन्दपः । परिचत्तसिंगारु-[परित्यक्तशृङ्गारः] शृङ्गाररहितः प्रोषधस्थः एकवस्त्रे स्थितः । ५. केत्तडउ-कियन्मात्रम् । ६. सच्छेहिं णिम्मीलिअच्छेहि-स्वच्छाभ्यां]निर्मलाभ्यां निमीलिताक्षाभ्यां। ७. उत्तत्तकणयाहउत्तप्तकनकाभः। ६. मुहजित्तमयवाह-मुखजितमृगवाहः चन्द्रः। तियचित्त मयवाह-स्त्रीचित्तमृगव्याघ्रः। ९. णिपवित्ति-अतिपवित्रे। १०. करिऊण आयासुजिनधर्मे [जिनधर्मपालने आयासं ] क्लेशं कृत्वा। १२. माणि-मानस्व ! १५. परजम्मु किं दिठु-[परजन्मः] परभवं केन दृष्टम् । १६. पयपंति-पदपंक्ति । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ टिप्पण ८-२६. १. सुहय जइ इच्छसे...इत्यादि, ता मइँ अणुहुंजहि-हे सुभगसुदर्शन यद्येवंभूतं मन्दिरं इच्छसि तर्हि मां अभयां प्रति रमस्व । ६. अलिणिह-अलिनिभ । १०. समाउलं-[समाकुलं] व्याप्तम् । १२. णिज्झरवंत गया-कपोले मदक्षरन्ताः गजाः। ८-२७. १. सुउ- श्रुतं । कहिंमि-कुत्रापि । विक्खाउ-विख्यातम् । ३. गोवीहिं लोणिमहेनवनीतमयाभिः गोपाङ्गनाभिः सह श्रीनारायणो सुख-भोगं भुङ्क्ते । दणुयारिदनुजारिनारायणः । हरि-गृहे । ६. मयअद्ध-[मृगार्द्ध] चन्द्रस्य मृगः । सिरिविस्समित्तेण-श्री विश्वामित्रेण । ७. आहल्ल...इत्यादि उद्धरण: किमु कुवलयनेत्राः सन्ति नो नाकनार्यः त्रिदशपतिरहिल्यां विप्रभायों स यासीत् । हृदयतृणकुटीरे दीप्यमाने स्मराग्ना वुचितमनुचितं वा वेत्ति कः पण्डितोऽपि ॥ ७. हरि-इन्द्रः। ८. मइँ माणि-मामनुभव [मां भुङ्क्षस्व] । ९. दिट्ठत सय-दृष्टान्तशतानि । १०. खम्भालइ-क्षोभं करोति । ८-२८. २.णियडए-[निकटे समीपं आगत्य । ५. गोपइ-गोपयति । णाहि पलोवइस्वकीय नाभिप्रदेश प्रलोकयति]। ६. सिढिलइ-शिथिलयति । ११. समणिउं मम्मणु-कामोद्रेककारी वचनं जल्पति । १४. णं कट्ठी-काष्ठस्तम्भवत् । ८-२९. ___१. दोच्छियउ-निर्भसितः। ३. पिसुणावयार-[पिशुन]दुर्जनावतार। ६. देवथाणु-ईश्वरः। ६. भइरवम्मि-भैरवझम्पायाम् [भृगुपाते । १०. रइसुहवहाहि-रतिसुखावहाभिः[स्तनैः]। ११. घण-पाषाण। १४. कुरुखेत्ते गहणुकुरुक्षेत्रे तीर्थे गमनम् । १५. हयास-हे दुष्टचित्त हताश । १६. गयकणखलम्मिगजकनखले तीर्थे । १७. पियरपिंडु पाडिउ-पूर्वजेभ्योः पिण्डदानं पूर्ण दत्तम् । २८. पिहुलडहरमणि-[पृथुल] विस्तीर्ण[मनोज्ञ]कटिप्रदेशे। २१. उरु-हृदय । २६. असगाहु-[असदाग्रहः] दुराग्रहः । सल्लइ-शल्यति । मेल्लहि-मुच्च[स्व] । ८-३०. ३. अहवा...भज्ज-अथवा कथं]मम अनादरः करोषि अद्य। ५. पग्गि द्रोपदी(१) । 'हउँ पग्गि व पई वइसेवि जाय' वा पाठः। ७.तियढङ्सु-स्त्रीसाहस । ८. सयणि सुहाविणि-सुखकारी[शयने]शय्यायाम् । ६. णिफंद-[निष्पन्द] निश्चला। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित २६३ ह. अवहेरमि अडयणसाहसु-स्त्रीसाहसं अनादरं करोमि पापसमूह नाशयामि वा। ___१. सुलहउ-सुलभः। ६. सावण्णे जणे-साऽवज्ञे मूर्खे दुर्जने मिथ्यादृष्टि पुंसि । कसाउ-कषायः। ८-३३. २. तइं-तदा। ४. सा भावण-कुभावना । जाए-[यया भावनया कुवासनया। ६. असगाह-असदाग्रह, कदाग्रह। ८. एम वि--एतेन प्रकारेण । ६. परयारं-[परदार] परस्त्रीभोक्ता [पुरुष], परपुरुषलम्पटा स्त्री। ८-३४. २. बाहुडिय-निवृत्ता। ३. चंदणहि-चन्द्रनखा, शूर्पनखा। लक्खणलक्ष्मण । ५. बीइंदुयारसूईमुहेहि-द्वितीयाचन्द्राकारशूचीमुखै खैः। ९. लडहंगई कोमलङ्गानि ! ८-३५. ८-३६. १-२. वोमे विहयहं पायमग्गु जइ कह व दीसइ-व्योम्नि विहगानां पादमार्गः यदि कथमपि दृश्यते । सलिले जलयरहं गमणागमणायारह-सलिले जलचराणां जीवानां गमनागमनकारकानाम् । ४. पारय-पारद। सूइमुहे-शूचीमुखे । ८. मिससएहिं-मिषशतैः छद्मपाखण्डशतैः। मुहियई-मोहितान् सुहतान् । ९. पयडेइ-प्रकटयति । ११. णीयरय-नीचरता, [नदी] पक्षे निमग्ना । १२. उहयपक्ख-उभयपक्ष, उभयतट । १९-२०. आयहं पासिउ...."सुरयछलेण-यथा एतेषां पार्वे वक्रता तथा स्त्रीणाम् ; वक्राभिः स्त्रीभिः कामी [पुरुषः] तृणवत् गण्यते ; कामीपुरुषः सुरत मिषेन हन्यते । अब्भहिउ बंकिम-अभ्यस्ता अभ्यधिक वक्रता । तिण विहियउ-तृणकृतः । २४. कवडें सव्वई करेइ-सर्वमपि यत् कार्य करोति तत् कपटेन । २६-३०. इय समलु वि. 'मण्णइ केम, पाउसगिरिणइ जेम-सकलमेतन् मयोदा रहित-पावस गिरि नदी सदृश न मन्यते । ३८. वसुहवीढ-[वसुधापीठ] पृथ्वीमण्डल। ४०. पयारए-प्रकारेण । ४५. णउ पुणु अणुमित्तु वि तियहे जाइज्जइ वीसासु--स्त्रीणां स्तोकं परमाणुमात्रमपि विश्वासः नोत्पद्यते न क्रियते ! ४५. सम्भावदोहिय-सद्भावेन द्रोही। ४९-५०. जो तहि पत्तिज्जेइ सो दुक्खावलियं-ईदृशी युवतीस्त्रीणां यः पुमान् प्रतीति विश्वासं करोति सः दुखश्रेणी प्राप्नोति । ५४. णवणायसहस्स बलु-चणिक्पुत्रस्य सप्तसहस्रभटाः। ५६. जेम"...दिट्टीए-यथा एते वक्राः तथा स्त्रियः हृदये वक्राः। ६१. ससरु-सचाउ-[सशरः सचापः]चाप-सहितः धनुः । ६२. तडितरलु-विद्यत्करवालः। ८-३७. ४. अरि को वि...विग्गहे-किं कोऽपि शत्रुः ममोपरि अग्रतः प्राप्त । ५. नडवेक्खणं-नटप्रेक्षणं। ६. वम्मासिया-मर्माश्रिता, कदर्थिता, विडम्बिता। १३. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ टिप्पण कुलिससूइ-[कुलिश]वज्रशूची, वज्रमयशूली। घासए-प्रासयेत् । १६. छलेण... मुंजए-पाखण्डेन पराक्रमेण बलात्कारेण कः समर्थः मदीयां भायाँ भुङ्क्ते [भोक्तु] । १८. ण सो सुइरु गंदए-स पुमान् दीर्घकालं[सुचिरं]न नन्दते न तिष्ठति। १९. सुदुष्टनरनिग्रहं, सज्जनप्रतिपालनं । २०. जइ भूसयं-जगतिर्भूषणं। ८-३८. ३. असिधेनुय-असिधेनुका-छुरिका। ६. हत्थ...वियरेसमि-हस्त-प्रहस्तवान् विस्तारयामि[विचरिष्यामि]। इंद इव्व...धरेसमि-इन्द्रजितवत्, यथा इन्द्रजितेन हनुमन्तः धृतः तथा अहं सुदर्शनं धरेमि । ७. अजुणु व्व...लग्गेसमि-यथा अर्जुनः संयामे[संग्रामे] कर्णनरेन्द्रेण लग्नः तथा अहं सुदर्शनेन लग्नामि । १०. गजि किं गर्जना किम् । विरलें...साहिजइ-विरलेन पुरुषेण स्वामिनः कार्य क्रियते साध्यते]; १२. साणहिं-श्वानैः। ___१. जा...लियउ-यावत् मारणार्थ स्मशाने ग्रहीतः[नीतः] । ५. सिहिण -स्तनौ ६. मणिप्पलंब-मणिपालम्ब । ८-४०. ८. एहउ-ईदृक् । ९. जाणमि संदु-अहं जानामि त्वं परस्त्रियां षण्ढः नसपुंकः । छुडु...रक्खिउ-हे कान्तः त्वं शीलवान एवं] ज्ञात्वा[अपि कथं] केनापि न रक्षितः । ८-४१. ३. असङ्कलउ-दृढम् । ८. मम्मणमणिय-मणितः कामोद्रेकशब्दः । वीलणउपीडनं। १४. चाडुएहिं संबोहिय-[चाटुकैः सम्बोधिता] चाटुकारवचनैः कृत्वा मानयिता। १६. सुइपुरणु...मंजरिय-[श्रुति कर्ण पूर्ण कृतं [भ्रमरगुञ्जित] अशोकवृक्षस्य मञ्जर्या आरोपिता [इति स्मरामि । २१. खउ किं ण जासि-क्षयः किं न यासि । २२. णिहि दक्खालेवि-निधिं निदर्श्य । ८-४२. १. जइ...णोत्थरंति-यदि चेत् मेघाः गगने न भवन्ति, न वर्षन्ति, तहि त्वं परस्त्रीगमनं करोसि । ह. पावेवि णिमित्त-परस्त्रीनिमित्त प्राप्य । ८-४३. ६. लोइ-लोके। ७. वयहले-तफलेषु । १०. तमु जि दिवायरवियरणे[दिवाकरविचरणे]सूर्योदये प्रकाशे यथा अन्धकारं न दृश्यति तथैव जिनस्मरणे भव्यानां पापसमग्र[समूह]मपि न दृश्यते [नावशिष्यते] ८-४४. १. अंजणपव्वय-अंजनाचल [°पर्वत]। २. सदप्पु करि-[सदपः]करीन्द्रः मदोन्मत्तः गजः। ३. पसुत्त -समुट्ठिउ-प्रसुप्तः समुत्थितः। २०. किवाणु: [कृपाणः] खड्गः। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित २६५ सधि-६ ९-२. -- १. गोंदले-संग्रामे। १०. जुयखग-युगक्षये क्षयकाले । ९-३. ८. मुसइ-मृषति व्याप्नोति । पुसइ-स्पृशति । ९. उसइ करहओ -उच्छवसि, त्रस्यति । करभः उष्ट्रः शब्दं करोति । ११. रइभमो-रजोभ्रमः । १४. रहइ-क्षुण्णति। णिवसाहणहो-नृपसैन्यात् । ३. विहुणिउ-विधूनितः, रज उड्डापिता। कडस्थि-कटि । ३. गाहावलिय-मध्यावली । ४. खगपरियरिय-[ खगपरिचरित ] पक्षिणां कोलाहलेन परिवारिता। १०. रुहिरणइह-रुधिरनद्याम् । ९-७. ८. संचारिममहीहरा-[महीधरौ] अञ्जनाचलौ पर्वतौ चलितौ। १३. दिति उरे उत्थलं-उरसि उरस्थलं-हृदयेन हृदयं ददतौ। १७. णिवदंतियनृप [ दन्तिना ] हस्तिना। रयण-[ रदन ] दन्त । ९.८ ____३. हुइ-भूता, जाता। ४. दोच्छितु-दुगुञ्छितः [ जुगुप्सितः ] । ८. भेक्खसु-भयकृत् । ९-९. ___ ९. रत्ततिम्मिरा-[ रक्त ] रुधिरादि-क्षरतौ भूतौ । १३. करिपञ्चलुमहान हस्ति। ९-१०. १. मरट्ट-अहंकार। थोह-समर्थौ । आहवे पयट्ट-[आहवे प्रवृत्तौ] संग्रामे प्रविष्टौ। ५. अंगाहिव-[ अङ्गदेशाधिप ] धात्रीवाहन । ८. अहिपासहि-अभिपाधैः। मच्छ-मत्स्य । ९-११ २. धगधगियमणियरे-[धगधगितमणिकरैः ] रत्नकिरण जगमगाहट ! ३. मणुजवपयट्टए-मनोवेगी घोटको योक्तितौ, पवनवेगीरथः, वायुवेगेन प्रवृत्ते रथे Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ टिप्पण २. जणहिययरामेण-[ जनहृदयरामेण ] लोकानां हृदयप्रियः। ८. सुयवि-श्रत्वा। ९-१३. ४. सुरहँ-राक्षसात्। ५. णिसियरु राएं णिज्जिउ-[ निशाचरः] व्यन्तरः राज्ञा [निर ] जितः। मणि सकसाएं-क्रोधसहिरोन चित्तेन। ९. वेविर-कम्पित । १५. इय कह जक्खणे-ईदृशी वार्ता आकाशे वर्तते यत् क्षणे यदा। १८. घुडुक्कड-घटोत्कचः । ९.१४ २. वणंतु-व्रणयन् । ५. कवोउ-कपोतः। ८. दुरेहु-भ्रमरः । १०. मइंदु-मृगेन्द्रः। १. अक्खु-उंदुरः । २. विरालओ-[ बिलारः ] मार्जारः। ९. चित्तभाणु-[ चित्रभानुः ] वैश्वानरः। . ९-१६. भल्लिएँ"मुच्छाविउ-राक्षसेन भल्लेन [कुन्तेन] हत्वा राजानं मूच्छितः । ३. लहिवि चे?-[चेष्टा ] चेतनां प्राप्य, सावधानं भूत्वा तंबेरमु-मृगः। ६. दोहाइउ-द्विघाकृतः । ९.१७. ४. गिंभागमे यथा [ ग्रीष्मागमे ] ग्रीष्मकाले ज्येष्ठ आषाढे । ५. दिव्यु-देवः। ६. णिय-राजा; मेल्लाविउ भडयणु-सुभटजनाःमोचाविताः । ९.१८. १६. मित्ती पहाणरेहा इव-सत्पुरुषानां मैत्री पाषाणरेखा वत्अचला [ दृढा]। ९-१९. २. सुमणु-[ सुमनः ] निर्मलचित्तम् । ३. छारें-भस्मना। ६. सेय आवज्जणु-श्रेयावर्जकः । १०. सुरधणु छायापयासिरेण रज्जे-सूर्योदये छायासदृशेन राज्येन। ९.२०. ११. सव्वया--सर्वदा; विधु-वृद्धः । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित ___२९७ ९-२१. - विद्वत्तें-वृद्धत्वेन; ढिल्लु-शिथिलम् । ४. णवइ-नमति । दिण्णुण्णयमहिगोमय अमेज्झु-विष्टायाः उन्नतिं ददाति । ६. जोवणु पडिउ महियलु णिएइ -यौवनं पतितं निरीक्ष्यते । पए पए खलेइ-पदे पदे स्खलति । ७. दुप्पुत्तुवदुष्टपुत्रवत्; सुइवयणु ण सुणंति-वृद्धावस्थायां कर्णेभ्यो न शृणोति । जुझंति जाण डिंभय भणंति यावत् डिम्भकाः न वदन्ति, वृद्धावस्थायां पुत्रपौत्रादिकाः कलहं कुर्वन्ति । १०. देसु-द्वेषः । ११. पण्णा-प्रज्ञा, बुद्धिः । ९-२२. ____२. तणुरुह-भरत-बाहुबलि आदि । ८. णिगंथु-निग्रन्थः । ४. सणकुमारु-सनत्कुमारः चतुर्थ चक्रवर्ती । ९-२३. ४. जणु-अन्ये लोकाः, वामोह-स्त्रीसमूह। ६. संपत्त वि चएविसम्पदा राज्यं त्यक्त्वा। १०. विउसि-[विदुषी] पण्डिता। ११. गणिगौतम [ गणधरः]। सन्धि-१० १०-१. २. गयतामसे- गततामसे भावे ] निर्मलचित्ते । ४. दुव्वायदुर्वात् । ११. जंणहो व्व-यत् जिनालयं आकाशवत् शोभते। रोहिणीमणोहरं-निःश्रेणिस्त्वधिरोहिणीत्यमरः। १२. सरुव्व-सरोवरवत् । १०.२. ६. धाउरहिय-सप्तधातुरहित। कामतणु-देदीप्यमानशरीरम् । अक्खया[ अक्षय ] क्षयरहित । ९. मयाहिवा-मृगाधिपा। १०. अकरण-शुभाशुभ कर्तव्यरहितः। १२. दोसया-द्वेष। १४. पारु को वि चकम्मइ-अलोकाकाशस्य पारं प्राप्नोति । १५. तुह गुण वण्णिवि सक्कइ-तव गुणान् वर्णयितुं शक्नोति । १०-३. १. खुहइ खलयणु-[ क्षुभति खलजनः ] हे जिन तव नाम्ना दुर्जनाः क्षुभ्यन्ति तव सेवकाः भवन्ति । ९. मयाणभट्ठु-अष्टमदात् भ्रष्टः । णेत्तइठु -भव्यानां लोचनानां इष्टः वल्लभः। जल्ललित्त गत्तओ-सर्वाङ्गमलविलिप्तः । १०. देसु--द्वेषः। ११. तिलोयबंधु-[त्रैलोक्यबन्धु ] त्रैलोक्यानां प्राणिनां हितकारकः । १२. अलंघसत्ति-पश्चाचारप्रकटनकारी। १४. पंकउद्धरोभव्यानां पापकर्दमात् उद्धरणः निष्कासनः । १६. पसण्णमुत्ति-[प्रसन्न ] ३८ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ टिप्पण आदेयमूर्तिः। सुज्जदित्ति-द्वादशादित्यतपिततेजः। १७. पमायणासु-प्रमादनाशकः । कंदभासु-मेघ [ गर्जन ] वत् भाषा, स्वरगर्जना। १८. सत्तुशत्रु। १६. धीसु-धीमान त्रिज्ञान सहितान् । १०.४. २. अहिणंदेवि-वन्दित्वा। ३. सो रहसु ण"सयलु कहइ-मुनिः सुदर्शनस्य रहस्यं [ भेदं ] न रक्षति, [ सकलं ] यथार्थ कथयति। रायसीहवारे". पुक्करंतु-सर्वलोकः फूत्कारं कुर्वन् राजसिंहद्वारे प्राप्तः । ११. पत्थिवेण[पार्थिवेन ] भूमिपालेन । १३. विक्कमिल्लु-विक्रमवान् । १४. पसत्तुप्रसक्तः । २२. सो-भिल्लः व्याघ्रः। १०५. कलुणु-[ करुणः ] कारुण्योत्पादकः । ४. दंडाहिउ-दण्डाधिपः । अणत्तु-आज्ञप्तः । ५. गंजोल्लियगत्तु-उल्लसित - रोमाञ्चित शरीरः [ गात्रः] । ६. पहुत्तो अणंतो-अनन्तसैन्यैः सहगतः; पुलिंदेण-ब्याघेण। १३. सिआलशृगालः । २१. असिअसियउ--[ असिअसितः ] खड्गछिन्नः। विहिविहियउ -[विधिविहितः ] कमणाकृतः। मरेवि समरु समरंगणे-एवम्भूते संग्रामे व्याघ्रभिल्लः मृतः। १०-६. १. गोट्ठिए-[गोष्टयां ] गोथुले, गोवृन्दगोपालगृहे। ६. भलहुल्लुश्वानः। ८. सीहपियाहिँ-सिंह नाम्ना पुरुषः, भार्या सिंही, तयोः पुत्रः सुभग नाम्ना गोपः। ९. कुलक्खयकम्मकरंतु-कुल क्षय [कारी ] कर्म कुर्वन् । खलोव्व-खल इव । ११. सुदंसणु तंसि हुओ-त्वं सुदर्शनो जातः । १४. °पिय-कुरङ्गी। १०-७. १. रजयसामलहा-श्यामलनाम्ना रजकस्य यशोवती भार्या, तयोः पुत्री वत्सिनी। २. विहव-विधवा । अणत्थमिउ-[अनस्तमितं रात्रिभोजन [विरति] नियम ग्रहीत्वा । ३. सा हुय-मनोरमा जाता। ४. जाएसइ सुरणरसुहई अँजिवि मोक्खु णिरुत्तु-सुरनरसुखानि भुङ्क्त्वा निश्चिततया मोक्षं गमिष्यति -प्राप्स्यति । ६. पमत्तु-विमलवाहनमुनिः सुदर्शनाग्रे कथयति [ यत् ] जीवः पञ्चेन्द्रियाणां वशवर्ती सन् संसारे भ्रमति, एकैकेन इन्द्रियेण जीवः दुःखं प्राप्नोति । समांसलगत्तु करंतु पसंगु-मंसिलगात्रः हस्ती प्रसङ्ग हस्तिन्या सह स्पर्शभोगं करणार्थ वनमध्ये बन्धनं प्राप्नोति । ७. पलम्मि-मांसे । ९. पयंगु-पतङ्गः चक्षुरिन्द्रियवशवी सन् । १०. अणंते- वने सम्मत्तु-समाप्तः । १२. दुहसार-दुःखानां [ सारे ] समूहे । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित . २६४ १०-८. २. सुभउमु-सुभौमचक्रवर्ती ; णिउ-नृपः । ५. अंगारड्ढणउंअङ्गाराकर्षणं करोति । ६. गया खउ देव-देवाः अपि क्षयं गताः। चित्तवसिल्ल चित्तस्य-वशवर्तिनः। ७. थेरु-[ स्थविरः] तपस्वी-ब्रह्मा। ८. गोवहं गोविउगोपानां गोपिकाः। ६. सुरसिंधु-गङ्गा। १०. असेस "सूलु-एवम्भृतो रावणः मनोवशवत्ति-[त्वात् क्षयं-विनाशं प्राप्तः ], धराहरमूलु-[धराधरमूल: ] कैलाशपर्वतः। १२. राम-रामा। १५. भरहेसहो गंदणु-[ भरतेशस्य नन्दनः ] अर्ककीर्तिः । सुलोयण-सुलोचना जयकुमारेण वरिता [ विवाहिता]। १६, घणणाएं-[घनवत्नादेन-स्वरेण ] जयकुमारेण । १०.९. ४. दोवइ-द्रौपदी। १३. विमाणे-मान-संख्या रहिते । १०-१०. १. हवइ"पव्वयहँ-यथा पर्वतानां [ मध्ये ] मेरुः सारो भवति, तथा ( ३.. णरजम्मु जम्महं ) जन्मनां मध्ये नरजन्म एव सारम् । २. अइरावउ कुंजरह-यथा कुञ्जराणां मध्ये एरावणो सारः; सुरगेहु हम्महं-हाणां मध्ये सुरगृहं [ सारः ] । ७. छणम्मि छणम्मि" चलेइ-[क्षणे-क्षणे ] रात्रि-दिवसे धनार्थ कान्तार्थ प्रहृष्टः सन् भ्रमति । ८. तुम "हवेइ-त्वं चिरंजीवी-दीर्घायुः भवतु [ इति ] केनापि एवं कथितेन प्रहृष्टः भवति । १०. मयाइणु-मृगाजिनः मृगचर्म । गंडय अस्थि-गण्डकास्थि । १४. हियत्थे-हितार्थे, आत्मार्थे । १५. लेहु-गृह्णीध्वं; ण जम्मणकूवे पडेहु-यथा जन्मकूपे न पतति । १८-१६. जो-णयणंदियसासणु सकलाहरु-यः पुमान् नयनन्दिः जिनेश्वरः तस्य शासनमङ्गीकरोति स कलाधारी-ज्ञानवान् भवति । १९. कुवलयपिउ-पृथ्वीवलयः प्रियम् । सन्धि-११ ११-१. १७. हुओ खंधिव्वउ तासु पियाउ-धात्रीवाहनस्य राज्ञः वल्लभाः आयिकाः जाताः। १८. मउडाहिय दिक्खिय-मुकुटाधिपाः राजानः दीक्षाङ्किताः। १९. अवरहि पडिवज्जिउ-अपरैः कतिपयैः लोकैः तान् वैराग्यं प्राप्तवान् दृष्ट्वा श्रावकव्रतानि ग्रहीतानि । ११-२. २. चउत्थु-उपवासः। ४. ण वि गारउ-न गर्वः । पेम्म-प्रेम, मोहन । ५. उच्चउ णिच्चउ गेहु-उच्च-नीच-गृहम् । ६. रिक्खणणहंगणए-यथा चन्द्रमा नक्षत्रे नक्षत्रे भ्रमन क्रमेण शोभते आकाशे तथा सुदर्शनः मुनिः गृहे गृहे भ्रमन शोभते । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १०. पंडु - नपुंसक । छम्मिय - छलिता वञ्चिता । १७ भिसं भृशं अतिशयेन । १८. - जेगु कामरसं - येन स्त्रीकथान्तरेण कामरसं उत्पद्यते । १९. - सेसिउ हासुहास्य मुक्तम् । हासु-रईभरणं - हास्येन अवलोकनं स्त्रीपूर्वरतस्मरणम् । ११-३. ३०० ३. किदियम्मु - [ कृतिकर्म ] क्रियाकाण्ड । ७. चउदह मल - णह - रोम-जंतु - अट्ठि-कण-कुंडय - रुहिर-मंस- चम्माणि फल-फुल्ल-बीय-मलोच्छिन्नमला चोहसा होंति । ११-४. ३. परमतच्चु - [ परमतत्त्व ] जीवस्वरूपं शुद्धं निर्मलस्वरूपं केवलज्ञानकेवलदर्शन स्वरूपम् । ४. तमु सल्लु व पाडइ वा पाठः । ११. सत्तारह असंयम - पंचासव वेरमणं पंचेंदियणिग्गहं कसाअजओ । तिहि दंडेहिं विरत्तो सत्तारसंयमो भणिओ || संपराय अट्ठारह ११-५. ९. हिउ - पुरोहितः । ११. संढरं - नपुंसकः । १३. सखेडु - सहास्यम् । ११-६• जइ दसघम्मा पवयणमादट्ठरस संपरायगुणा । तेहिंतो जि विरमणं असंपराई ति णिद्दिट्ठ ॥ ९. सिय- श्री । १०. मय - मृता । ११-७. ११.८. २. सण्ण-संज्ञया । ८. मरणहो चुक्कु-मरणाच्च्युतःमुक्तः । १२. विअक्खण - विचक्षणा । ११- ९. किं मित्तें कवडपयासिरेण किं साहुण इंदियलंपडेण-कपट प्रकाशकेन मित्रेण किं तथा इन्द्रियलम्पटेन साधुना किम् । ११-११. ११-१०. १. विहुर - कष्ट । ३. ताम दिदिरि - पार्वतीचरणकमलभ्रमरी । ४. खमवासह-क्षमास्थानकस्य । ८. हियत्थवयगु - हितार्थवचनं अथवा स्तनौ मुखं । ५. आवेल्लणु - आवेष्टनम् । १०. तीए - तया । ११-१२. ३. वित्तियथूहए - व लस्तूपे । अमरंगण - [ अमराङ्गना ] व्यन्तरी । ७. दुवारए - द्वारे; सारए - सारे । ११. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित ३०१ ११-१३. ३. भायचित्त-कायरस्य चित्तम्। ४. जिह' 'जिणवर-यथा मानभङ्गः जिनेन प्रवर्त्तते; सउण्णे-सपुण्ये । ९. मणुसोत्तरम्मि"गमणु-मानुषोत्तरपर्वते यथा मनुष्यगमनं नास्ति। ८. भदिओ-भाद्रेयः कृष्णः। ४. तोलियो-नोटितः । ११.१५. ६. पायव-पादपाः वृक्षाः । ८. घुघुव-घूवड । १३. मुणिहे-मुनेः सुदर्शनस्य । ११-९६. १२. गतवत्थइँ-गतवस्त्राणि नग्नानि । ११-१७. १. समण्णु-श्रमणः दिगम्बरः। २. अमरपव्वओ-[ अमरपर्वतः ] मेरु । ४. जलपंकिय-[जलपङ्कित ] चिकृत । वणयरह-वनचराणाम् । १०. जलयसरजलदस्वरः। १२. णियसुयहिं सहुँ पियहिं-निजसुहृदभिः [ तथा ] प्रियाभिःसह । ११-१८. ८. वेयंड-गजाः। ११-१९. १. सवणु-[श्रमणः ] मुनिः ;. १-२ तरणि गयणयलहो, उपसमु तवही भूसणं -यथा सूर्यः गगनस्य भूषणं, तथा तपसः भूषणं [ उपशमः ] क्षमा। ३. सुयधरहा-श्रुतधरस्य । ६. पंचेणइ संगम-पञ्चनदीसङ्गमे, संजउ-संयतः, मुनिः। ८-९ विसवि अट्ठावउ तुलियउ-प्रविश्य अष्टापदस्तुलितः । . १०. खिल्लहिं-कीलकैः । २४. समग्गइं-समग्रतः। ११-२०. ५.-लेमि-लात्वा। ९. णग्गयस्स कज्जि नग्नस्य कार्ये । १४. पाणिभाएपाणिभागे। २४. °शरु-बाण । सिसिरु-चन्द्रबाण । ११-२१. ११-२२. , १. पलयसिहिसणिहु-[ प्रलयशिखिसन्निभः ] प्रकृष्टाग्निसदृशः। १८. णेसरहा-सूर्यात् । पुष्पिका सुरदत्ता-देवदत्तया वेश्यया। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ टिप्पण . सन्धि-१२ १२-१... ३. सुरपहाणु-[ सुरप्रधानः ] इन्द्रः। ५. आसई-आस्यानि मुखानि; णेत्तइँ-नेत्राणि । ६. जलयर सहत-जलचरा शोभन्तः। १२. चलग्गवि-चटित्वा। १२-२. ३. दढहयसर-दृढहतस्मरः-[ दृढतया-समूलतया हतः स्मरः येन केवलिना सुदर्शनमुनिना ]। ५. कयकय-दयवह-कृतकृत्यः, दयावहः । ६. णयवणवहन्यायजलप्रवाहः । ७. 'मह-मथ [ नः ]. णयसयमुह-नतशतमुखः । १२-३. ____३. गंभीरो तं पारावारो-समुद्रात् गम्भीरः। ५. दुज्जो-दुर्जयः । १२-४. ४. पारावारए-समुद्रे। १२-६. . १५. तार-द्वे पण्डिता, देवदत्ता । २०. सुद्धद्धणक्खत्ते-[ शुद्ध ] आर्द्रा नक्षत्रे। १२-७. १२-८. ७. दिहिसेणे-धृतिसेनेन। १२-९. १२-१०. ३. दुद्धर-दुर्द्धर। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-कोश ( यहाँ केवल विशिष्ट शब्दों का संग्रह किया गया है ) अवरुंडिअ-(दे) प्रालिङ्गित, हि .. अंगारय-प्रङ्गारक, अंगारा २.११.१ व्याप्त २.१.११ अंगिय–अङ्गिका, अङ्गदेशीया स्त्री ४.६.४ अवहत्थिय-अपहस्तित, परित्यक्त ८.३६.४८ अंतयड-अन्तकृत ( केवली ) १.२.६ /अवहेर-अवहेलय हिं . ५.२.८ 'णाणि-अन्तकृत् केवल ज्ञानी १.२.८ अविणीय-अविनीत २.४.५ अंबुल-मातृ ८.६.२ अविरोल-अविरल . . . ३.४.७ अंसय-अंश+क ४.५.४ अव्वो-मातृ ( सम्बोधने ) ८.४.१ अग्गिल-अग्रला ब्राह्मणी ६.८.१ असगाह-असदाग्रह, कदाग्रह ३.३.६ प्रच्छर-अप्सरा ७.६.७; ८.२७.४ असड्ढलन-असाध्य + क, ८.४१३ अच्छरिम-पाश्चर्य १२.६.७ असमच्छर-असम ( अनुपम ) अच्छिजमाण-आ+छिद्+शानच् १.६८ + अप्सरा, . १.४.८ प्रड-कूप ६.१६.६ असराल-( दे ) कराल .१०.६.१५ अडय-कूप+क . ६.१६.११ असालिय-असार+क, निष्तेज ११.२०.२३ अडयण-(द) कुलटा, व्यभिचारिणी ८.३१.६ अहम्म-अधर्म ८.३१.७ अणथमिश्र-अनस्तमित ( व्रत) १०.७.२ प्रहासी-आभाषिताः ४.५.६ अणह-अनघ, निष्पाप १,११.३ अहिवाअ-अभिप्राय ४,५.२ अत्थड्ढ-अर्थाढ्य, अर्थप्रचुर २.५.८ अहिहविय-अभिभूत ४.३.३ पद्धजाइयचित्त-अर्धजातिकचित्रछन्द८ २४ १६ 'आ' अब्बुयवासिणि-अर्बुदवासिनी (स्त्री) ४.१६.१ पाढत्त-आरब्ध ३.४.५, १०.१.१७ अब्बो-मातृ ( सम्बोधने) ८.६.१० पाणंद-पानन्द अब्भहिम-अभ्यधिक ३.५.४. (छन्द) ४.१२.१६, ११.२२.२० अमरपुरसुंदर-छन्द ६.१०.१३ /आणव-पा + ज्ञापय वेइ १२.१.४ री ६.११.१०। प्राणा-प्राज्ञा ११०.८ अरुह–अर्हन् , अर्हन्त ८.३१.१० प्राभिट्ट-(दे) भिडनाइ ६.४.१ प्रलोढा-(दे) मिथ्याचारिणी कुलटा ८ ३६.३७ पामेल्लिय-प्रा + मुक्त .६.४.६ अल्लल्लम-आर्द्र + आ + क ८.३७.११ आलि-वयस्या, सखी .. १२.२.१५ अवडयदिटुंत-प्रवड ( = कूप ) भावली-छन्द ८.२६ १२ दृष्टान्त ६.१५.२० आवेल्लण-आवर्तन, शरीर को अवरत्तर-(द) अनुताप, पश्चात्ताप ६.२३.७ मटकाना ११.११.५ अवरुंड-(दे) आलिङ्ग इ . ८.३५.४ पासासण-पाश्वासन १.१०.३ (द्वि० पु० एक०) ८.३.८ आसि-पासीत Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ शब्द-कोश प्रासिकाल-पासीत् + काल, Vउत्थरंत-अव + स्तृ + शतृ ६.१५.७ (भूतकाल ) ६.४.११ उद्धसिय-उत् + हसित १.१.८ पाहाणप्र-आख्यानक ७.१२.६ उप्पाडिय-उत्पाटित ८.४१.१२ /आहज-आ + भुज् जेइ ५.६.२ उप्पेक्ख-उत्+प्र+ईक्ष् इ ८.१५.१० उभिज-उद् + भृ ( कमणि ) °इ ५.४.६ इंगल-इङ्गाल, कोयला ६.१५.७ उब्भिय-ऊध्वित ५,५३ इंगाल-प्रङ्गार, कोयला ११.३.६ उमा-( तत्सम ) पार्वती ४.४.५ इंदिदिर-भ्रमर ५.३.५ उम्मायउ-उन्मादित ८.७.७ इंदिदिरि-भ्रमरी ११.१०.३ उम्माह-उन्माथ, उमाह, उत्साह ४.३.१ इड्ढिवंत-ऋद्धिवन्त २.६.६ उम्माहिम-उन्माथित, उन्मत्त ८.३५.२ इलरक्ख-इला ( भूमि ) रक्षक ११.६.२० खेत का रखवाला २.१३.५ उम्मो-ऊर्मों २.१२.६ इहरत-इह + अत्र, अस्मिन् संसारे १२.७.५ उल्लल-उत् + लल् °इ ६.४.६ उल्लव-उत् + लप् °वेइ २.१.३ ईरिम-ईरित, कथित २.१.८ उवरोहिप-उपरोधित २१.५.६ ईसरसंगउ-ईश्वरसङ्गतः, महेश्वर उवहाण-उपाख्यान ८.६.३ ___सङ्गतः २.४.६ /उब्वर-उद् + वृ रेमि ८.३१.३ ईसास-ईर्ष्यालु ८.३२.६ उब्वरिअ-उद्वृत्त ८.२४.१७ उव्वसी-उर्वशौ ( छन्द ) ७.७.१० उंद-वाद्य ७६५ उबिविरु-उद्विग्न २.१४.६ उंबर-उदुम्बर फल ६.२.१ उविग्विअ-उद्विग्न ११.१.१७ /उग्गोव-उत् + गुप् इ ११.४.१५ उज्वेल्लिम-उद्वेलित ११.१६.१० उग्घाडइ-उत् + घट् + णिच् उज्वेविरू-उद्विग्न ४.३.७ . इ. .. ४.१०.६ ; ८.२८.४ उस-उत् + श्वस् °इ ६.३.६ उच्छंग-उत्सङ्ग, कोड़ , गोद६.१८.४ /उच्छल-उत् + चल् ग्लेवि (क्त्वा ) ७१८.१३ ऊरं-उर ११.६८ उच्छलण-उछलना ३.११ १२:६.१०.८ ऊसरछेत्त-ऊषरक्षेत्र ६.८६ ११.६.५ उच्छल्लिम-उच्छलित १.६.१२ : ६.२.१०; . य १.१.७, ७.१२.११ : ११.१५.१२ एक्कसि-एकशः, एकवार ७.१३.८ उच्छल्लिया-(स्त्री०) उच्छलिता ११.१८.१८ एक्कासिम-एकाश्रित, एकपक्षीय ५.१.११ उजड-(दे) उजाड़ २.१४.७ एण्हि-इदानीम् ११.१८६ उड्डाण-उड्डयन, उड़ान, उड़ना २.६.६ एतहि-(अप) इतस् , इधर ७४८ उहिया-ऊष्गिका (छन्द ) ८.२३.११ एत्तहे-(अप ) इतस् , इधर ८.३.१० उत्तसिय-उत्त्रस्त, भयभीत १.१.६ एयचक्क-एकचक्र ( नगर) उत्तहु-( दे ) तत्र, उधर ८.३.१० एवड-(अप) इयत् , इतना ८,३६.४ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.२.४ सुदर्शन चरित ३०५ 'ओ कणिन-क्वणित ( ध्वन्या ) ३.७.८ प्रोणल्लिया-(दे) अपनुदित, भिदा कण-कण ३.८.४ हृया ११.२१.३ कण्णमाणु-(i) ( दे ) विनयशील, Vओलग-अव + लग ९ ___ कान ( लजा ) युक्त (ii) . . (प्रात्मने) ६.१६.४ कर्ण+मान ( सम्मान) २.३.३ मोवडंत-भव+ पत् + शतृ ११.१८.१७ कण्णाडी-कर्णाटी स्त्री .. ४.६.६ ओसर-अप + सु मि ११.१६.२४ कत्थई --कुत्रचित् ७.५.१० ८.३५.६ प्रोसरिअ-अपमृत १.१.८ कत्थर-कुत्रचित् . १०:६.६ बोहामिन-अधः (अधम ) कृत, कप्पविहइ-कल्पविभूति... २.१.१२ तिरस्कृत मोहामिया-(स्त्री० ) अधःकृता /कप्प- क्लृप् , काटना पैवि ८.३७.२२ तिरस्कृता ७.७.६ कप्पिन- क्लुप् (कर्मणि) जेइ ८.३६.५० पोहासिय-उपहसित ४.३.६ कब्बाड-(दे) कबाड़ीपन . ६.२३ ५ कयरोल कृतरोल, कृत कोलाहल ४.१२,६ कइत्थ - कृतार्थ ११.११.६ करजोडण-करयोजन, हाथ मिलाना : कइयण (i) कपिजन ( ii ) करण-प्रेमाचार ४.५.११, ८.४१.४ कविजन २.३.२ करड-वाद्य ३.४.३ कउलागमे-कोलागम ८.२५ १५ करडोह- करड+प्रोध, करड कंकेल्ली-कङ्केलि, अशोकवृक्ष - ४.३.२ वाद्य समूह कंचाइणि-कात्यायनी ६ १५.२ करयर-करकराय (ध्वन्या) रति ११.१५.६ कतिल्ल-कान्ति + मतुप २६.२ करयरिउ-करकरायित (ध्वन्या ) ८.१५.७ कंद-( दे ) मेघ १०.३.१७ कलंतरिल्ल-कलान्तर + मतुप् कक्कड-कर्कट, कर्कश ८.१५.८ ब्याजयुक्त ११.२०.२० कक्कड-(i) कर्कट ( ii ) कल-कलय् °इ ४.६.२ कर्कराशि ( कर्कनक्षत्र) २.१४.२ कलुण-करुण ६.१२.१ कक्खउ-कक्ष, (हि. कोख ) ८२८८ कल्ल-कल्थ, आगामी कल ८.२४.१८८.३०.३ कच्चोलअ-कच्चोलक ( सं० कचेलक ), कवडकूड - कपट कूट ८.३५५ प्याला, कटोरा ८.१७,१० कन्वुरं-कर्बुर, चित्र-विचित्र . ८.१.७ कट्ठीहर-काष्ठधर, पहरेदार ८.१२ ५ कस्सीरय-कश्मीरज, केशर ८.२६.३ ; प्र कडकड-कडकड ( ध्वन्या० ) ८.३२.३ डंति ११.१५.६ कहाणन-कथानक ७.१०.६ कडक्ख-कटाक्ष ४.८.६ कामवाण-छन्द ३,९.१६ ; ६.११.२२ कडिदोरय-कटिदोरक, कटिसूत्र ३.७.८ कामलेह-कामलेखा ( छन्द) ७.८ १६ /कड्ढ–कृष डढेइ ८.१५.३; कालिगी-कलिङ्ग देशवासिनी स्त्री ४.६.६ ड्ढेवि ८.१८.४ किडि-किरि, शूकर ११.२१.१० कणकरिणय--करणक्वणित ( ध्वन्या०) ७.६.३ कित्तिम-कियत् , कितना ८.६.८ कणभरिय-कणभृत २.३.३ किदियम्मु-कृतिकर्म ११.३.३ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ किराड --- किरात किरिकिरिरि - ध्वन्या० / किलकिल - किलकिलय ( ध्वन्या० ) 'लंति फिलिकिलंत - किलकिलय् ( ध्वन्या ) + शतृ कुंट - कुष्ट, हस्तरहित कुंटिउ - कुष्टित, टूटी स्त्री कुड्डंतरिय - कुड्यान्तरित कुण - कृ इ कुप्परु-कूर्परः कुहनौ मारना ( नामधातु ) धक्का देना कृत् / कुरुड - कृत्, काटना हि कुलकुल - कुरुकुराय् ( ध्वन्या० •लं ति कुवलयमालिणी - छन्द ) शब्द-कोश ८.२९.३ ७.६.१२ ६. १०.७; १०.१०.५ ६.१६.६ ११.१५.४ कूडअ - कूट, झूठा कूडसाखि - कूटसाक्षी, झूठी साक्षी ८.१६.३ ६.११.ε ६.१५.६ ३.१२.२ ६.३.१५ ११.१५.१० ११.१६.१८; ११.१६.२२ / कुवार - (दे ) पुकार मचाना रेवि ( क्त्वा ) कुसढ – कु + शठ - कुसुमविलासिया दुवइ - कुसुमविलासिका द्विपदी छन्द ११.१५.८ ११.१६.१६ ९.३.१६ ८. १६.३ ८.२४.७ ८.३५.१ कूवार - ( दे ) पुकार V/ कुवार - ( दे ) पुकार मचाना रेवि ( क्त्वा ) त्तर - कियत्, कितना केयण - केतन, ध्वजा केवट्टिणं दिणि- कैवर्त्तनन्दिनी , केह - कीदृक् कीदृश् २.१.१५८.१२.११ कोंकणवासिणी - कों करणवासिनी स्त्री ४.६.८ कोच्छर - (दे ) कुत्सित ४.६.६६ १२.१.१० कोच्छर - ( दे ) कुशल ६.६.४; १२.१०.७ कोट्टिम - कुट्टिम, बंध भूमि ८.६.७ को-कोष्ठक, कोठे कोडिय - (दे ) पिशुन कोड - (दे ) कौतुक कोढ - कुष्ठ रोग, कोढ़ कोटि-कुष्ठिन, कोढ़ी कोसलि - कोशल देशवासिनी स्त्रो खंच -- खंभ - स्तम्भ - कृष् • 'चेवि 'ख' खजा - खाद्य, खाजा खडक्क – खटत्कृत ( ध्वनि ) - कर्पर, कपाल / खम्भालन - क्षोभय् इ खप्पर - क १.६.५ ३१.७ ७.१२.१४ २. १५.६ ७.३.२ ५.६.६ २.१०.२० ४.३.५ ; ८.६.१८ ८,२७.१० ११.१०.४ खम - क्षमा खरि - खरी ( स्त्री विशे० ४५.१.४ खलखलिय - खलखलित ( ध्वन्या० ) ६. १२.६ खवालिउ - क्षोभित ११.६.५ ८.२५.५ खीसरण - (दे ) खींसना, भूरना १.९.४ खुंट - ( दे ) खूंट, इंठ खुडि - क्षुद् + क्त त्रुटित खुण्ण-क्षण्ण, भग्न १०.६२ ८.५.८ ८. १५.४ ४.६.३ खुत्त-क्षुण्ण, निमग्न. श्रासक्त खुत्तन - ( देखो ऊपर ) खेड्डू – खेल, क्रीड़ा खोणि-क्षोणि, पृथिवी / खा-खाद् इहइ खासरण---कास्· खांसना खासण:- ( विशे० ) कासनः, खांसने वाला / खिज-- क्षि, क्षीण होना 'ए ( श्रात्मने० खिल्ल - कील ) ५.२.१ ११. १६.१५ खिल्लविल्ल - (दे) खल्वाट - बिल्बन्याय ६.१६.१५ खिल्लिन - कीलित ६.१८.६ खिव - क्षिप् इ ७.१८.१० खीलय - कीलक ८.२८.१३ ८.२११२ ६.१६.६ ८.५.३ ८.६.१६ ८.२४.१० २.१४.५ ५७.१५ ७.१७.१० ८.६.६ ७.२.१४ ८.१८.६ ७.६.२ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित ३०७ खोसला-(दे० ) दन्तुल स्त्री ४.१४.८ गुरुक्किय-गुरुकृत, महान् ८.७.३ खोहित्र-क्षोभित ११.२.६ /गुलगुल-गुलगुलाय °लंति ११.१५.१० गुलगुलंत-गुलगुलाय् + शतृ ६.१६.२ गउडि-गौड देशवासिनी स्त्री. १.६.५ गुलिप-/ग्लै, मथित, विलोड़ित ६.१६.१२ गंजण-गर्जना ६.१२.५ गोंदल-( दे ) समूह ? ६२.१ गंजाविय-गावित, अपमानित ११.१८.८ गोट्ठि-गोष्ठी १०.६.१ गंजिय-गञ्जिता, तिरस्कृता ८.१४.३ गोतंकली - गोत्रकलह गंजिय-गञ्जित, पीड़ित ८.३४.६ गोल्ली-गौल्य देशीया ४.६.६ गंजोलिय ( दे ) रोमाञ्चित २.१२.६ गोह-भट, योद्धा '५.१.७ गंबोलिय-( दे ) रोमाञ्चित १०.५.५ गोहयाह-गोधनाह, गोह की पकड़ ८.८.११ /गडयड-गडगडाय (ध्वन्या०) इ ११ २२.६ 'घ' गडरियपवाहे-(दे) गड्डरिका घञ्चर--घर्घर (ध्वनि) ३.७.७ . १०.१.१३; प्रवाह, भेड़धसान . ६६.५ ११.१२.३ गयकणखल-गजकनखल ( तीर्थ ) धट्टग-घर्षण ८.२८.१०, ६.११.१० ६.१०.५, ८.२६.१६ घट्ट-घृष्ट, घर्षित ७.६.१ गयणयल-गगनतल १.८.१० /घल्ल-(दे) क्षिप् °इ गलगंडरोय-गलगण्डरोग, गण्डमाला १२.७.७ - ए पात्मने गलगजिय-गलगजित ११.६.१६ /घल्लंत-( दे ) क्षिप् + शतृ ३.७.३ गलडाहिय-गलदाह ८.३६.८ घल्लिम-( दे ) क्षिप्त ८.३४.२ गहिल-ग्रहिल, भूताविष्ट ४.४.६ /घल्लिज-( दे ) क्षिप् ( कर्मणि ) गारउ–गौरव १२.२.४ इ . ८.३३.१० गाली-गालि, गाली ६.२०.६ घवघव-घवघवय् (ध्वन्या० ) ३.७७ गिभ--ग्रीष्म ११.४.१ घवघवंत-घवघवय्+शतृ ११.१२.३ गिभागम-ग्रीष्मागम ६.१७.४ घास-प्रस् °ए ( स्वार्थे प्रात्मने) गिल-गिल निगलना °लंति ६.६.८ ८.३७.१३ /गिलिगिल-गिलगिलाय ( धन्या) चित्त-- क्षिप्त ६.१५.६ १२.१७.१५ पिप्प-ग्रह °इ ४.७.२२ गिलिज-गिल् ( कर्मणि ) °इ ५.७.२१ ए ( आत्मने० ) ४.१०.१० ; ६.१६.४; गुग्गुल-गुग्गुल ६.१०.६ ८.३६.३७ गुजरि-गुर्जरी, गुर्जर देशीया ४.६.७ घिरिहोल-( दे ) मक्खी ६.६.१० गुज्झ-गुह्य ४.११.७ घुग्घु-घुघूयू (ध्वन्या० ) गुणगुण-गुनगुनाय ( ध्वन्या०) घु घू ध्वनि °वति ११.१५.८ . ति ११.१५.७ घुछ-घष्ट ३.५२; ११.१४.७ /गुमगुम-गुमगुमाय् + शतृ ११.१२ ६ घुण-घुण, धुन ८.४०.७ गुमगुमिय-गुमगुमायित ६.११.४ घुम्मिर-धुर्ण + इर ( ताच्छोल्ये ) गुरुक्कउ-गुरु + क (स्वार्थे) महान् ११.१३.१२ ६.१३.७, ६.६.६ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-कोश घुरहुर-धुरुघुराय ( ध्वन्या० ) चत्त-त्यक्त .. ६.१.६ ११.१५.६ / चमक्क-चमत्+कृ० इ ७.१२ १९ Vघुरहुरंत-घुरघुराय् + शतृ ८.१६.१ चमक्क-चमत्कार, पाश्चर्य २.१३.५ Vघुल-चूर्ण, इ ६.३.७ चलझलक-चञ्चल+झलक ३.१२.२ Vघुलंत-चूर्ण + शतृ ८.१०.६ चव-वच् इ ८.३३२; ११.१७.६ घुलिय-धूणित २.१२.१ / चवंत-वच्+शत ७.१.१० घुसिण-घुसूण, कुंकुम, केशर चविश्न-उक्त ८.२.६ ५.४.७, ८.३२.३ ___चवेड-चपेटा, तमाचा ४५.२१ घूवड-घूक, उल्लू ११.१५.८ चट्ट-( दे ) निमग्न, लीन ८.६.५ Vघोट्ट-पा, पान करनाइ ६.२.५ चाप-त्याग १.१.१४ चाइउ-त्यागी ३.२.४ चउमाणथंभ-चतुर्मानस्तम्भ १.६.४ चाड्डय-चाटुक, प्रशंसा १.८.५; ४.१०.६ चउवग्ग-चतुर्वर्ग-धर्म, अर्थ, काम, चारुदत्त-व्यक्ति नाम २.१०.१७, ६.२.१७ मोक्ष १.१.४ चारुपयपंति-चारुपदपंक्ति छंद चंग-(दे) सुन्दर, चंगा ६.२१.१३ ८.२५.१७, ६ १२.१२ चंडवालु-चण्डपाल (छन्द) ८.२६.४ चाह-वाञ्छ °इ ७.१४.४ चंदलेह-चन्द्रलेखा ( छन्द) ५.७.१६ चिंधडय-चिह्नित. लाञ्छित ८.२६ १२ ६.१२.१३ । ८.२६.२४; १२.४.११ चिकारियं-चीत्कृतं चंदवेझ-चन्द्रबेध्य ( शस्त्र विद्या ) ३.६ ११ /चिजंत-चि+शत, चीयमान ६.१.१५ चंदोवडंबर-चन्द्रोपक+आडम्बर चिण्ण-चीर्ण, आचरित, अनुष्ठित चंदोवा युक्त ११.१२.८ ३.१२.६ : ८.२६.२० जंपिय-(दे) आक्रान्त, चांपा हुप्रा ६.२१.५ चित्तलेहपद्धडिया- चित्रलेखा चक्कल-चक्राकार ३.१०.१३ पद्धडिया छन्द २.६.१२ चच्चर-चत्वर . २.१०.२७ चित्त-चित्र ( छन्द ) ८.२४.१६ चच्चारि-चर्चरी ( नृत्य ) ७.५.६ चिलिसिज-( दे ) घृणा करना चट्टणु-(दे) चाटना ८.२८.१० "इ ( कर्मणि ) /चड-(दे) आ+रुह °उ .. (विधि० ) .. ६.१०.४ चिहूर-चिकुर, केश ४.११.११, ७.१८.११ V चड-( दे ) पा+रुह् चडेइ ७.१७ ४ चुंधल-( दे ) चुन्धापन ( अक्षिरोग) ६.२.१.८ युक्त ६.१५६ । चडाविय-प्रा + रु+क्त्वा १०.१०.१५ चुक्क-(दे) भ्रष्ट ११.८.८ चडिय-आरूढ ६.१०.५, ६.११.७, चुक्किय--( दे ) भ्रष्ट, २.७.११, ६.७.३ ... य २.५.८% ६.८.६; ११.१२.११ चूडल्ल-( दे ) चूडाबन्ध ८ .१७.१ चडियउ-आरूढ ३६.२० /चूरेबि-चूरय , चूर्णय् + क्त्वा ६.१२.७ चडिण्ण- मारूढ ५.५.३ ; ११.१६.११ चेतु-( दे ) जागृ+शत, चड्डुयम्म-चाटुकर्म ८.१९.५ जागते हुए २.७.२ चडेमि Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित tot चोज-( दे ) पाश्चर्य, चमत्कार छेइल्ल - छेक, चतुर, विदग्ध ७.१०.७ ८.३७.५; ११.१३.१२, ७.१.८ छेयल्ल-छेक ४.१४.४, ५.६.११ चोल्लय-चोलक, चन्दोवा ३.८.८ Vछेर -(दे) चिल्लाना इ ६२.१२ छेल-छक ७.१.१२ छइल्ल-(दे) विदग्ध, चतुर ७.११.७; ७.१२.१० छोट्टिप्र-( दे ) छोटी ६.१५.६ Vछंड-छर्द, मुच् इ ११.४.११; °हि V छोड-( दे ) छोटय् इ ४.१०.६ ; ८.३.८ ; °मि ८.८.७ ४.१५.२ छडिप्र-छदित, मुक्त, परित्यक्त ८.२३.२ ८.२८.७ / छडिवि-छर्द + क्त्वा ८.३५ ६ छोडण ( दे ) छोड़ना ८.४१.१०; ९.१०.७ छक्कम्म-वैदिक षट्कर्म ४.१.४ छोडिन ( दे ) छोटित, मुक्त ५.१०.६ Vछज-( दे ) राज , शोभना इ १.३,६; छोत्ति-( दे ) छूत ८.२२.७ २.२.६, ७.६.६; १०.८.११ ; °ए छोल्लिय-( दे ) छोटी सी छोकरी ५.५.१२ ९.२; ७.१२.१३ छम्म-छम, छल ११.८.५ जंगल-जङ्गल २.१०.११ ; ८.१६.२ छम्मिय--छद्रित, छलित ११ २.१० जंप - जल्प् °इ छरहरिय-(दे) छरहरित २.११.१० जंपणउ-जल्पनम् छाइय-छादित ७.१६.६ प्पिज-जल्प.(कर्मणि) °इ ६.८.३ छावासय-षट् अावश्यक ( कर्म ) ११.३.४ / पिर- जल्प् + इर छाहि-(दे) छाँह, छाया १६.१० (ताच्छोल्ये ) ६.६.५ छिछइ-(दे ) असती, कुलटा ४ १४.४ जंभाइय-जृम्भायित, जृम्भित, छिक्क-छोत्कृत, छोंक ८.१५१ जंभाई ४.११.४ छिज-छिद् °इ ८.३.३ जंभारिस - जृम्भनशील, पालसी १२.७.६ छिव-( दे ) स्पृश इ ७१६८; जगहर-जग+गृह २.१.१५ . छिवंति १०.१०.१२ १/जग्ग-जागृ, जग्गेसइ ८.२२.३ छिन्वर-( दे ) चिपटी जग्गेसए ८१३.२ छुट्ट-(दे) छुटित, मुक्त ८.१५.२, ११.५.११ जग्गिय जागृत १.१.८ Vछुट्ट-(दे) छुट् °इ ६.१७.६, ६ २०.११ जमाइम-जामातृ क ( स्वार्थे ) ६.२२६ . जामाता, जमाइ छुटकेस-मुक्तकेश २.१०.१८ जलजल-ज्वलज्वल लति ११.१५.१३ छुड्डु--( दे ) यदि १.२.४ जलमउ-(i) जलमय (ii) छुद्ध-( दे ) क्षिप्त ११.८.६ अउमति २.४.१ छुट्टहीरा-( दे ) मणिजटितहीरा ७.७.५ जाई-जाति Vछुभ-क्षम् हिं ८.१४४ जाउहाण-जातुधान, राक्षस ६.१६.५ Vछुह-क्षिप् छुहेमि ७.११.६ जाहि-यावत् ९.१६.६ छूढउ--क्षिप्त ६.१०.१ जामाइउ-जामातृ °क छूढु-क्षिप्त २.१०.२५ जावहाण-जातुधान ६.१०.४ __छुट्टसमि Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-कोश जिगजिगंत- जिग्जिगाय झिज-क्षि°इ ... १०.६.१५ (ध्वन्या०)+ शतृ ६.१६.४ / झिजिवि—क्षि + क्त्वा ४.५.१६ / जिगिजिगंत- जिजिगाय् + झिमिझिमिय – झिमिझिमित (ध्वन्य०) ७.६.१३ शतृ ११.१२ ५ झीणी-क्षीणा ( स्त्री० विशे०) ७.४.११ । जिण-जि, जिणेइ ६.२१.१२ । बिर-(दे) प्रा + लम्ब् + इर . जुइवलय-द्युतिवलय १.११.१० (ताच्छील्ये) ११.१२.८ 1/झुंज-युज् जुंजेइ २.११.६; झुरिण-ध्वनि- १.११.१३ ; ११.१३.५ -- जुंजहि ११.२.१४ झुम्मुक्क – ( दे ) झूमका ११.१२.८ जुष्ण-जीर्ण, जूना, पुराना ८१.१६ मूरिज-(दे) स्मृ. (कर्मणि, इ ८.१०.१ जुहिठिल्ल --- युधिष्ठिर । २.१०.६ V/ जूर-जर, भूरना इ ८.८.८; ८ १८.६ टणटगिय-टनटनित ( ध्वन्या० ) ६.११.३ /जूर -ज, जूरेइ २.११ ७ V टरटर-(ध्वन्या० ) टरटराना जेमिय-जेमित ५.७.३ प्रति ८.१६.१ जेहउ – (अप०.) यादृक् , यादृश् ८.१२ १२; टलटलिउ–टलटलित ११.१४.१६ ६.२३.३ टलटलिय-टलटलित........... ६.१२.६ जोअ-( दे ) दृश् , जोएइ ६.२०.५ टलटलियउ-टलटलायित; १.१.६ जोय-योजय इ . ४.१५.६ टिविल-वाद्य जोवणइत्तिप-यौवनवती ११.२.८ जोविन--( दे ) दृष्ट २ १३.७ 13-स्था, ठंति ६.७.१३ ठग--ठक, झकोलिय-( दे ) झकझोरित ११.१८.२० Vठव-स्थापय् वंति १२.१.१० / झप–पा + च्छादय °इ. ४ ११.१२ ठविया-स्यापिता ८.११.१ Vझंप-झम्प् , गोता लगाना २.१४.४ झपड-(दे) विकराल, विशाल ८.४४.५ /डंक-दंश् इ ८.२८.३ ; ८.४४.१० झंपतिय-प्रां + च्छादय् + शतृ डंडंत-(ध्वन्या०) डमडमायमान ७.६.८ ' (स्त्री० विशे०) ... ८.२.६ डंभ-दम्भ ८.१३.१ ८.२४.८% झडप्पिम-(दे) झडप, झपट . १.७.१२ सील-दम्भशील . . ३.६.५ झडा-(दे) झडप, झपट २.१३.१ डभिया-दम्भिता, छलिता ७.१०.२ झणझरिणय-भणझरिणत (ध्वन्या०) ३.७.१२ डक्क-वाद्य झलझल-जाज्वल इ ११.१७.१३, डमडमिय-(ध्वन्या० ) डमडमित ७.६.८ ... लंति ११.१५.१२ डर - ( दे ) दर् त्रस् डरेमि .. ७.१५.७ झलझलिय-जाज्वलित ६ १२.७ डर-दर, भय, त्रास .. २.११.६ झत्ति-झटिति, झटपट .. ४.७.२० । डरिय-त्रस्त ६.१२.४ झारण-ध्यान :: ११.३.१० डिस-दंश् , डसंति - १२.७.८ झिझित-(ध्वन्मा) झनझनाते हुए ७.६.१० डसिया-दष्टा ( स्त्री० विशे०) ५.६ ११ झिक्किरि-वाद्य .:. ७६.१० डहण-दहन ६.४.६ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन चरित डाहु-दाह, जलन ८.३१.५; ८.३२.१ °णाण-ज्ञान -१.१.११ डिंड-( दे ) फेन . ६.६.४ णायवंत-(i) नागवन्त ( ii ) डिभय-डिम्भकाः ( बहु० ) बालक ६.२१.८ न्यायवरत २.३.७ डुल्लसिय–दोलायित, क्षोभित १.६.३ णावियारण--(1) नागविदारणः .. डेड-(दे) ढेड. कौवे के समान (ii ) न्यायविचारण: ... २.४.७ दुष्ट पुरुष . . ३ १.७ रणावइ-(अप) इव २.११.१७ ; ७.१७.१२ डोड्डि-(दे) दुष्टा ब्राह्मणी . ८.३३.२ /णिज -नी °इ ( प्रात्मने०) ४.१०.८ Vडोलिज-दोलय (कर्मणि) इ ७.५ १२ ।णिड्डह-निर् + दह °इ. . .. ३.२.७ डोल्लिय-दोलित ११.१४.३ /णिड्डार-( दे ) अाँखे फाडना डोल्लिय - ( दे ) डोली, शिविका, __ रेवि (क्त्वा) ६.१६.१ पालको ( स्त्री० विशे०) १.६.१२ णितुल्ल-निष्तुल्य, अनुपम .. ३.२.१४ डोलिया-दोलिता ११.१८.१७ णित्तुलिय-( दे ) निश्चय से .२.८ णित्यार-निस्तार ( क ) .. २.७.५ Vढंक-(दे ) छादय °इ २.१३.३ ; ६.५.५ । णिद्धाड-निर् + धाटय ११.४.४ ढंकण-( दे ) छादन, ढकना ८.६.१८ /णिप्पील-निष्पीड् लति ६.४ २ ढंकिन-(दे) छादित - ११.६.८ /णियंति-( दे ) दृश् + शतृ .... Vढढंत-(ध्वन्या०) ढमढमाता हा ७.६ ५ _ (स्त्रो०) २.१२.२ ; °हे (षष्ठी) ८.१०.७ ढड्ढसु-(दे) ढाडस, साहस /गियच्छ– ( दे ) दृश् °च्छिवि .. ११.२.१२ ४.३.१४ ; °च्छेवि ६.१३.१५ .८.२०.१ ढढ्ढर-(दे.) राक्षस, पिशाच Vढाल-(दे) ढालना,नीचे गिराना ६.१४.१६ णियच्छिन-( दे ) दृष्ट ५.५.८ /णियड्ड–नि + कृष् °ए ( स्वार्थे , ढुक्क-ढाकित, उपस्थित ६.६.८ : ६.१०७; . आत्मने) ... ११.८.८ णिरू-(अप नितरां, निरन्तर । पनि निरन्तर ढुक्कउ-ढौकित .. ३.३.१७ , ६.१३.१३ १.११.१६, ४.१५.५ दुक्किय-ढौकित २.७.१० गिरुंभ-निरुद्ध, आच्छादित ७.१७.६ ढोइअ-होकित, अर्पित ११.१.१५; /णिरूभइ-नि + रूध भेइ ११.१४.५ य ५.६.६ णिरूतउ-( दे ) निश्चित + क ... ढोर-( दे ) बैल, ढोर ५.५.६ ; ७ १७.१० (स्वार्थे ) । .. ८.२.१३ ....... 'ण' णिरूतिय-( दे ) निश्चित रूप से - ७.८.१५ Vणज-ज्ञ °इ ( प्रात्मने० ) जिल्लुक्क-(दे) निलीन ५.१०.२ २.२.१०, ७.२.८ णिवड-नि + पत् डेइ ८.३६.१० Vणड-नट् इ ११.१२.६; /णिव्वह-निर्व+ह इ ८.४.६ णडेइ २.१०.१३ णिव्वाह-निर + वह इ .. ११.४.७ Vण्डंति --नट् + शतृ ( स्त्री०) २.१२.४ णिव्वियडि-निर्विकृति, निर्विकार .. ६.७.४ डिन-(दे) वञ्चित, विप्रतारित, णिसुभ-नि + शुम्भ इ. ११.४.५ ... खेदित २.११.४ ; °थ ४.५.१६ णिसुभण-निशुम्भनः, नाश करने. णल-नल ( व्यक्तिवाचक ). २.१०.७ . वाला .. . ३.३.१० Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ शब्द-कोश णिसुभियं-निशुम्भित ११.२२.२ तुंड-तुण्ड, मुख ११.१८.६ णि सुभिया-निशुम्भिता ( स्त्री०) ६.१.८ तुहिक्किय-तूष्णीक ८.१२.१ जिसेणि-नि: श्रेणि छन्द १०.१.१५ तुरुतुरिय-तुरुतुरित ( ध्वन्या० ) /णिहाल-निभल् इ ११.४.६ तूरध्वनि ७.६.१५ णिहालअ-निभालक (i) दृष्टिवाला तेहि-(अप० ) तत्र ७.४.८ (ii ) देखने वाला २.४.३ तोडणप्र-त्रोटनक छन्द २.१३.८, ४.४.१० णिहालण-निभालन १.१०.८ तोडगो-त्रोटनः, भेदन करने वाला १०.३.१८ णिहाली-णिभाली, देखने वाली ४.५.१६ तोडिअ-त्रोटित ११.१४.४,°य ८.४१.२१ णीयरय-नीचरत ८.३६.११ तोग-तोणक छन्द ६.१५.२४ तोमरेह-तोभरेख छन्द ६.३.१२ तंबेरम-स्तम्बेरम, हस्ती ६.१६.३ तक्कर-तस्कर ८.४४.१२ थ - स्था, थंति १०.६.8 तक्खड-( दे ) अक्खड़, उद्धत ६६.१ थंभिय-स्तम्भित ६.१.६ तखेतखिखे-(ध्वन्या० ) तक्खा थक्क-(दे) स्थित ३६.१८, ३.१२.२ ; वाद्यध्वनि ७.६.११ ६.१२.६; १२.१.७ तटद-वाद्य ७.६.१२ थक्क-(दे) स्था °इ २.१३.१, १२.५.७; /तडतड-तडतडाय ( ध्वन्या० ) ५.८.६ ८.१७ १३; °ए (स्वार्थ डंति ११.१५.६ प्रात्मने) ११.६ Vतडयड-तड्तडाय इ ११.१७.५; थक्कउ-( दे ) स्थित २.१.६ । ६.३.१८ ११.२२.१० ११८७; ११.१३.११ तत्तिय-(दे) तत्परता, चिन्ता ८.२२.५ किय-( ) स्थित ८.१२.१ तरट्टि-( दे ) प्रगल्भ स्त्री, प्रौढा थगेदुगेगे-(ध्वन्या०) ७.६.११ नायिका ५.४.११ ; ५.८.५ थड-( दे ) ठठ, यूथ, समूह १०.५.५ तामहिं-( अप० ) तावत् ६.१६.६ थडा-( दे ) यूथ, दल २.१३.१ ति-इति ३.१०.२० थड्ढ-स्तब्ध, निश्चल, गर्विष्ठ ७.१९.७ तिउल-वाद्य थण-स्तन ८.२६. ७८.२८.४ तिड्डिक्क-( दे ) स्फुलिङ्ग ११.१८.१ थणवट्ट-स्तनवृत्त ७.१७.११ तित्ति-तृप्ति १.१.५ यत्ति-स्थिति १०.१०.१२ तिपवणवलय-त्रिपवनवलय २.१६ थरथरिर-(ध्वन्या०) ७.६.६ तिम्मण-(दे) प्रचार-चटनी ५.६.१० थरहर-(दे) थर्राना इ ४.६४; तिम्मिर-तिम्+इर ( ताच्छील्ये) रेइ ३.११.७, रवि ११.१३.१; आई, लथपथ ___ 'रेवि ११.१३.११ तियढढ्ढसु-स्त्रीढाढस, स्त्रीसाहस ८.३०७ था-स्था इ ८.१८.६, हि तुंगी-(दे) रात्रि ६.६.७ (प्राज्ञा० ) १०.२०.४ तुम-त्रुटित ६.१.१५ थाम-स्थान ८.१२.३ Vतुट्ट-ट् टंति १०.३.४ थाम-बल, पराक्रम ६.१२.२; ११.१४.८ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित ३१३ थाल-स्थाल, बड़ी थाली ५.६.३ दिणमणि-दिनमणि छन्द ७.१८.१८ थिन-स्थित ८.२५.१ दिविडि-द्रविड़ी, द्रविड़ देशीया ४.६.४ थी-स्त्री ४.१२.१८, ८.२४.११ दिहि-धुति (देवी) ४.४.२ थुइ-स्तुति १०.१.१७ दिहि-धृति ४.१५.७ Vथुकिज-थूत् + कृ ( कर्मणि ) °इ ६.४.४ दिहिकरणु-धुतिकरण ०, धृतिकारक ६.२०.७ ; Vथुण-स्तु हिं ८.११.७ ; थुणेइ ६.२१.१२ गारउ-धृतिकारक ६.१६.८ Vथुणंत-स्तु+शत ७.१,४ दुंदुमिय-दुंदुमित (ध्वन्या०) ७.६.५ Vथुणहुँ-स्तु+तुमुन् । १.१०.१० । दुगंछ- जुगुप्स् °इ ११.४.१८॥ थुणिय-स्तुत ६.१४.८ दुगुंछइ ११.३.११ थुत्थुक्कारियन-थूत् थूत्कारित ८.२.१० दुगंछु-जुगुप्सनीय, घृणित ६.३.४ Vथुन्व-स्तु इ १२.१.१२ दुगुंछण-जुगुप्सा, घृणा ६.१६.१५ थूलसण्ह- स्थूल + स्लक्ष्य ८.२४.१३ दुघोट्ट-(दे ) हस्तो ६.१०.१ थूह-स्तूप ११.१२.३ दुत्यिय-दुःस्थित १.१०.३ थोटु-(दे) हूंठा ६.१०.१ दुमदुमिय-(ध्वन्या० ) दुमदुमित, थोत्त-स्तोत्र दुंदुभी शब्द ७.६.४ ६.२०.२२ थोव-स्तोक ७.१.१० दुमियंग-दावितांगा, ( स्त्री. विशे० ) थोवन-स्तोक, थोड़ा २.१३.६ पीड़िताँगा ४.१२.१० थोवड -( दे ) स्थूल ११.६.११ /दुम्भ-दू, दावय् °इ ८.८.१२ दुहंड-द्विखण्ड ३१०.३ १२.१.५ दइयंबरिय-दैगम्बरिक, दिगम्बरी ६.२२.१० दूणिय-द्विगुणित दिड-दलय् दडेइ ७.१७.४; । ८.३६.४३ ८.१८.६ दड-( दे ) दरकना, काम्पना इ दूहव-दुर्भगा, अभागिनी २.११.८ २.११.१०, ६.३.१३, ११२२.११ देउल -देवकुल दिड-( दे ) गिड़गिड़ाना, दडंति ६.११.१८ देवुत्तर-कुरु-देवकुरु एवं उत्तर दडत्ति-(दे ) झटपट, तुरन्त ८.३४.२ कुरु ( पोराणिक भोगभूमियाँ ) १.२.१२ दिडदड-( दे ) दडदड़ाना डंति ११.१५.५ देसि-देशी छन्द ३.६.३ दमयंति-दमयन्ती ( देवी ) ४.४.४ देसिन-देशित, कथित ४.५.४ दर-ईषत् ४.१५.४, ६.६.१२; १०.५.३ दोच्छिम-( दे ) फटकारा गया ८.२६.२५; दहछहसयलु-दशषट्सकल, सोलह, १.५.८ यउ ६.८.४ दहिथ१-दधिथूथ, दही का थक्का ५.६.१३ दोहंडिय-द्विखण्डित ६.१६.६ दाइजय-देयक, दायज, दहेज ५.५.१४ दोहय-दोधक छन्द दाढिय - दंष्ट्रिन, दाढ़वाला ८.३६.४२ दोहाइउ-द्विधाकृत, द्विखण्डित ६.१६.६ दाव-- दर्शय °इ ४.११.११ दोहिय-द्रोहिका, द्रोहिणी नारी ८.३६.४८ दावेइ २.११.७ दाव-दापय मि ८.३०.६ धगधग-धगधगाय इ ११.२१.६ ‘दाविज-दर्शय् ( कर्मणि ) °इ ६.१८.७ घड-(दे ) धड़ ६.१.१७ दूवड ४. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ शब्द-कोश ७.११.१० धणा-धन्या, पत्नी ४.४११ पद्धडिया-बंध-पद्धडिया छन्द १.२.३ धवक्कउ-- दे) समूह ११.१०.५ पमारिणया-प्रमाणिका छन्द १.७.१४ Vधवल-धवलय लिति ३.११.४ /पमेल्ल-प्र+मुच इ ८.३२.१४ धाउवाय-धातुवाद ३.६.१४ पयंप - प्र+जल्प °पंति ( बहृ०) ४.६.८ घाणुक्किणी-धानुष्किनी,धनुषधारिणी ७.१४.६ पयक्ख प्रत्यक्ष ६.१८.१२ धाहाव-(दे) हाहाकार मचाना इ ६.५६ पयविसम-पदविषम, विषमपदी छन्द २.६.१२ धाहावियउ-(दे) हाहाकार मचाया ६.१८.७ /परिघोल-परि+घूर्ण, इ ७.१९.५ Vधुण-धू + शतृ ( स्त्री०) ६.१२.१० परिघोलिर-परि+घूर्ण +इर Vधुण-धू हिं ८.११.६ (ताच्छील्ये ) १.४.३ धुत्तिय-धूर्ता ४.७.१० परिचइअ—परित्यक्त १२.६.६ धुत्ती-धूर्ती परिचत्त-परित्यक्त ८.२५.३ धुमुधुमिय-(ध्वन्या ) धुमधुमित ७.६.३ परिसक्क-परि+वष्क् °इ ७.१२.२०; Vधुव्विर-धू+इर ( ताच्छील्ये) ८.१.७ ए (आत्मने) ६.११.६ /धोविज-धाव (कर्मणि) °इ धोना ६.८.६ पलास- १) पल+अश, राक्षस २.१४.५ 'प' पलित्त-प्रदीप्त ११.१५.२ पइज-प्रतिज्ञा, पैज ७.१२.१६ ; ८.८.७ पलित्तपो-प्रदीप्तः, क्रुद्धः . ६.१.१२ पइण्ण-प्रतिज्ञा ८ २२.६ पवियंभ-प्र + विजृम्भ °इ ६.७.१२ ; /पइसर-प्र+ विश् रेवि ७.१७.३ ५.१.७ पईह-प्रदीर्घ ४.१३.२ पसर-( दे ) प्रातः ३.१.१३ पउम-पद्म, बलराम १.१२.१२ पहराहन-प्रहार + पाहत ५.७.२० पउलीदुवार-प्रतोलीद्वार ८.२२.८ पहिल्लअ-(दे) प्रयम, पहला २.१.१३ पंचचामर-छन्द १०.३.२१ /पहुच्च-प्र+भू , पहुँचना हिं पंच-णमोक्कार-पञ्चनमस्कार १.१.३ ४.२.६ पगाम-प्रकाम, अत्यर्थ, प्रत्यन्त ५.७.६ पहृत्तप-प्रभूतः; प्राप्तः ७.६.१५ पगेण्हिय-प्रग्रहीता ( स्त्री०) ११.१.१० पहृत्तियऊ-प्रभूता, प्राप्ता ( स्त्री० ) २.१३.७ पग्गिव-प्राक+इव ८.३०.५ पत्तिया-प्रभता. प्राप्ता ७.१३.१ पञ्चल-(दे) समर्थ, शक्तिशाली ६.६.१३ पत्त-प्रभूतः, प्राप्ताः ८.३४.८; ६.८.८ . पच्छुत्ता-पश्चात्ताप ६.१८.१३ पहल्लियवत्तु-प्रफुल्लितवक्त्र ५.५.११ पछविय-प्रस्थापित १.१.१० पाडलिया-पाटलिका, पाटलिपुत्र/पड-पत् , पडेमि ६.२१.८ वासिनी ४.६.१० पडिहास-प्रति + भास् °इ ३.८.१ पाडिल-पातितः ८.२६१७ पढुक्किय-प्रढोकित १११०.४ पायफुट्ट-पादस्फुटित, फटे पांव ६.११.८ पण्णा-प्रज्ञा ६.२१ ११ पत्तिज-प्रति+इ ( कर्मणि ) पायाउलय-पादाकुलक छन्द प्रतीतिकरना, विश्वासकरना इ ८.३६.४६ १.१२.१८ ; ४.५.२३ पद्धडिया-छन्द ८.३०.७:८.३१५. पारदिया पद्धडिया छन्द ८.१०. ८८.३८.१०% ८.३२.१० ८.३३.१०।८.३४.८ ८.३६.८; ८.४०.८ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित पारद्धिया पद्धडिया-छन्द ६ .१६.१० फुड-स्फुट , भ्रंश् °इ ११.२२.११ पारयत्ति--पारियात्री, पारियात्र फुड-स्फुट, स्पष्ट, व्यक्त ८.२५.१६ देशीया नायिका ४.६.१० फुडहत्य - स्फुटहस्त (व्यक्ति नाम) ६.६.१२ पिंचुय-पिचुक वस्तु विशेष ) ८.३.६ /फेक्कर-फेत्+कृ शृगाल की पित्तल-पित्त + ल ( मतुप् ) ___ फेत्कार रति ( बहु०) ८.१५.८ पित्त प्रकृति नायिका ४.७.७ फेक्कार-फेत्कार ८.१६.३ पियारअ-प्रियतर, प्यारा ५.४.१०, ६.१८.१४ /फेड-स्फेटय °डिवि ( क्त्वा) ५.५.५ /पिल्ल-क्षिप् ए (स्वार्थे आत्मने०) ५.६.६ /फोड-स्फोटय डेवि ( क्त्वा ) ८.१३.१ पिसल्ल-पिशाच .८.१ : ११.२०.७ फोडण - स्फोटन ६.१६.७ पिह-पृथु. विस्तीर्ण १.२.१० फोडिय-स्फोटित ११.६.२ पुंडरिय-पुण्डरीक (१) व्याघ्र (२) कमल २.४.६ बंदग हत्ति-वन्दना + भक्त बन्ना +भक्त ६.१.६ पुंडुच्छु-पुण्ड + इक्षु ३.१.२ बंभयत्तु–ब्रह्मदत्त (एक चक्रवर्ती) २.१० २२ /पुक्करंत-पूर्व + कृ + शतृ १०.४.८ बगाहिहाण---बक + अभिधान /पुक्कार-पूत् + कृ रिवि (क्त्वा) ८.३६.५६ बक नामक राजा Vपुज-पूरय इ ७.६.८ बप्प-( दे ) मूख ११.२०.८ पुरएउ-पुरादेव, आदिनाथ तीर्थंकर १.१०.११ बप्पडउ-( दे ) बेचारा पुरिसायउ-पुरुषायत, विपरीत रति ४.६.१० बाहृडिय-( दे ) लजित, भयभीत ८.३४.२ पूयहल - पूगीफल ५.७.५ /बुज्झ-बुध् + उ (विधि०) ४.११.८ पेट्ट-( दे ) पिट्टय् , पीटना इ २.१३.१ बुडउ-बुडित, मग्न २.१४.३ पेल्लंत-प्र+ईरय् + शतृ ६५.४ /बोक्किज-( दे ) वम् ( कर्मणि ) - पेल्लिम-प्रेरितः १.७.११ °इ उल्टी करना ६.४.४ पेल्लिय-प्रेरिता ( स्त्री०) ४.८.७ बोटिज-(दे) भुज + णिच् पोमरय - पद्मरज, पराग २.२.५ अन्न प्राशन कराना इ ३.७.४ Vबोल्लंति-वद् + शतृ ति (स्त्रियाम्) ३.३.३ फंसण-स्पर्शन ३.११.५ /बोल्ल–वद् हि (द्वि० पु० एक०) ८,२६.२५ /फरहरंत - फरफराय+शतृ ११.१२.५ बोल्लिन- उक्त ७.११.८; °य ११ १४.३ ; फरुस-परुस ४.१४.६ ___ व्या (स्त्री०) ११.१२.३ Vफाड-पाटय, स्फाटय, फाड़ना Vबोलिज-वद् ( कर्मणि ) 'इ ५.३.७ 'डिवि ६.१८.७ फाडिअ-स्फाटित ८.३४.५; ११.१४.५ ७.६.१४ फिफर-( ) फिफर ( कठूमर) भंभा-वाद्य ६.२.१ भद्दा-भद्रा नायिका ४.५.६ /फिक्कर-फेत् + कृ, फेत्कार । . करना रंति ( बहु०) ११.१५.११ भरह-भारत, भरत क्षेत्र - १.२.११ /फिट्ट-भ्रंश् इ ८.६.१ ; फुटेइ ११.२१.११ भलहल्ल -- ( दे ) भौंकने वाला ___टुंति ( वह०) १०.३.५ अर्थात् कुत्ता १०.६.६ ८.४१.१४ फुट-स्फुटित . भल्लम-भद्र+क ७.१६.१० त Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ शब्द-कोश भ्रमरपद-छन्द ८.२६.८ मंडिन-मण्डित, शोभित , २.१.११ भाडि-भाटिका, शुल्क, भाड़ा ८.१९.४ मंदयार मन्दचार छन्द ६.६.१८ भाणवी-(दे) शनिश्चर ११.१४.७ मंदर-मन्दर पर्वत २.१.१५ भिउड-भ्रकुटी ८.१२.७ मंदा-मन्दा नायिका भेद ४.५.६ /भिड-( दे ) भिड़ना डेवि (क्त्वा) ६.२.१ मंदारदाय-छन्द ११.१८.२२ भिडिप्र-(दे) भिड़ गया ६.१.१; मंदोअरि-मन्दोदरी ४.४.४ ९.५.१ ; २.२. मच्छ मत्स्य ३.११.१२ °य ६.८.१० ; ६.१६.४ मझएसतिय-मध्यदेश स्त्री भिडु-( दे ) भिड़ जाओ (प्राज्ञा) ६.८.८ मध्यदेशीय नायिका ४.६.११ भुंभुरभोलप-( दे ) अत्यन्त भोला २.६.६ मझम्म-मध्यम छन्द २.४.६ भुंभुरभोलिउ-( दे ) अत्यन्त भोली ८.२६.६ मडय-मृतक, मुर्दा ८.१६.५ भुयंगप्पयाअ- भुजङ्गप्रयात छन्द १.६.१० मरिणथह-मरिणस्तूप १.६.५ भुरकुंडिअ-( दे ) लम्पट ( स्त्री० ) ६.१५.३ मणिसाइई-मणियुक्त, मणिमय ८.१४.८ भल्लउ-भ्रष्ट भूला हुआ ७.५.७ मरिणसेहर-मणिशेखर छन्द ११.२१.१२ ‘भुल्लिजइ-भ्रंश् , भ्रम् ( कर्मणि ) /मण्णाव-मन् + णिच् इ ६५.३ ; भूलना इ ७.५.१२ ६.१८.१३: भेक्खस-( दे ) राक्षस-रिपु, भयदाता ६.८.८ विवि ( क्त्वा ) ८.१८.३ भेडचितु-(दे) भीरुचित्त, कायर ११.१३.३ मण्णावण-मनावन, मनाना ८.४१. २ मण्णाविप्र-मानित, मनाया भेरूड-(दे) भेरूण्ड, चीता ११.१६.५ ११.१८.७; य भेसअ-भेषकः, डरानेवाला ८.१४.४ १.७.३ भोग्ग-भोग पदार्थ /मणिज-मन ( कर्मणि ) , ८.३१.६ ___°इ (बिधि० ) मत्तमायंग- मत्तमातङ्ग छन्द ३.५.६ मइराकिर-मकराकृति छन्द ११.२.२२ मम्मण-मन्मन, अव्यक्त वचन मइल-मलिनय °इ ८.१७.२ ८.४१.८ ; ११.६.१४ मइल-मलिन, कुचेलिउ मैली मम्मण-(दे ) रोष ८.२८.११; ११.११.५ ६.१५.१३ मम्मिल्ल-मर्म + इल्ल ( मतुपा) ) मउड-मुकुट .१०.२.१ मर्मो जन ६.१८.६ मंगलदव्वट्ठ-मङ्गलद्रव्य + अष्ट १.६.६ मयरण-मदन छन्द ४.७.२३, ६.१६१६ मंट-(दे) बौना .. ६.११.६ ८.२८.१५, ६.१३.१६ मंटिउ-( दे ) बौनी ६.१५.६ मयगावयारो-मदनावतार छन्द ४.६.८; मंड -( दे ) रोकना, मनाना °ए ६.२०.२४ ८.२७.८ (स्वार्थे आत्मने) ८.१८.५ मय गविलासा मदनविलासा मंड-(दे) बलात्कार ८.३७.१६ ; ६.५.५ द्विपदी छन्द मंडय-( दे ) मांडा, छपाती ५.६.६ मयरी-- मकरी नायिका भेद ४.५.१४ मंडलिल्ल-मण्डल + इल्ल ( मतुपार्थे ) मरट्ट-( दे ) गर्व, अहंकार, मान गोलाकार ५.६.१३; ८.६.५ कुचैली Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन-चरित मरहट्ठि-महाराष्ट्री, महाराष्ट्र देशीया मोट्टिउ-(दे) मोटी स्त्री ६.१५.६ नायिका ४.६.८ मोट्टियारू-मोटे प्राकार वाला १०,४.१५ मिल-मृद् , मलना, मर्दन करना /मोड-मोटय इ २.१३३, ३.१२.३ ; लेवि ( क्त्वा) ६.६.१२ ४.१०.६. ४.१५.२ ; ८.३६.२३ मिलवल- (द) (मुंह) बनाना इ ६.४.४ मोत्तियदाम-मौक्तिकदाम छन्द ५.५.१५ ; महकइकहबंधु-महाकवि कथाबन्ध २.५.८ ८.६.८ महल्ल-महत् २.६.८ मोर-मयूर ८.२६.४ महारउ-अस्माकम् . ८.४१.१६ महिसी-महिषी नायिका भेद ४.५.१४ रइडंबर-रजाडम्बर, धूलि बवण्डर ६.१५३ महुबिंदुय-मधुबिन्दु + क (स्वार्थे) ६.४.११ रंडिअ-रण्डिता विधवाकृता २.१.७ माइय -- मात, समाया हा ७.१६.११ / रक्ख-रक्ष मि ( उ० पु०) २१.७ मागहणक्कडिया-मागधनक्कुटिका छन्द ७ ४.२२ रच्छ-रथ्या २.१०.१३ माणसणी-मानस्विनी, मानिनी ३.८.६ / रड-रट् इ ३.७.१०, ११.१२.६; माणिणी-मानिनी छन्द ११.२० २३ डेवि ( क्त्वा) ८.३६.५६ मारुयपणइणि-मारुतप्रगयिनी, रडिय-रटित, रटन ११.१६.११ वात प्रकृति वाली नायिका ४.७.१ । रण-रण (ध्वनि) हिं (बहु०) ८.१८.८ मालविरणी-मालविनी, मालवदेशीया / रणझगंत-रणझगाय + शतृ नायिका ७.१६.६; ११.१२.४ ४.५२४ रणझरिणय-रणझरिणत ७.६.७ मालिणी छन्द --मालिनी छन्द ३.४ ८ रणरण-रणरण ( ध्वनि ) ६८.३, ११.१४.१ ५.१ ४ माहप्प-माहात्म्य मिगि-मृगी नायिका भेद ४५.१४ । रणरणंत-रणरणाय् + शतृ ११.१२.४ रण्ण-रण्या ( देवी ) ४.४ ३, ५.५.६ मिच्च-मृत्यु ८.३१.८ रण-अरण्य मुंड-- मुण्ड, शिर २.७.७. ८.२७.४ ११.१५.५ मुंडिज-मुण्डय् ( कर्मणि ) °इ ३.७.४ Vरप्प-रम् इ ४.६.३ रमगी-छन्द ३.१.१७ मुखंगलीलक्खखंडक-छन्द ८.२६.१० रयडा-छन्द ८.१८८; ८.३०.७, ८.३१.८; ?/मुस - मृष् , स्पृश् इ ? ६.३.८. मुसुमूरइ-भञ्इ ८.३२.१०; ८.३३.१०, ८.३४.८ ११.४.१७ रयणमाल पद्धडिया-रत्नमाला मेर- ( दे ) मिरा, मर्यादा १.३.४ पद्धडिया छन्द / मेल्ल -- मुच् इ ८.३५.६ ; मेल्लेइ ३.५.३ ; ६.१४.१४ रयणियरु-रजनीचर, राक्षस २.४.२ ए (आत्मने०) ७.१२.४ ; °मि ८.३० १; रवण्ण-रमणीक ८.२६.२०; १०.६.५ °हि ( विधि०) ८.२६.२६ रसारिणी-छन्द २८.८ /मेल्लंत-मुच् + शतृ. ३.७.३ Vरह-( दे ) रह ( वस् ) /मेल्लंतियए-मुच् + शतु तिय __ रहना इ ४.१२.१८; ६.३.१४; ( स्त्रियांम् ) ८.१२.३ १०.४.३ मेह-मेघ २.४.१ रह-( दे ) रक्ष् छिपाना हि मोग्ग-मूक ६.२३.१ (द्वि० पु० एक०) ८.२.५ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ शब्द-कोश रहस-रहस्य १०.४.३ लंजिय-लजिता ( स्त्री०) ८.१४.३ - रहिय-( दे ) रहा, ठहरा १०६३ लंजिय-( दे ) लूंजी, लंगड़ी ४.१४.५ रामण --रावण, दशमुख २.११.१२ लंजिया-लजिता ( स्त्री०) ७१२ १७ राम - बलराम १.१२ १२ Vलग्ग-ल ६.२६; रासाउल--रासाकुलक छन्द ८.४१.२० लग्गेसइ ( भवि०) ८३६.५५ Vरिक - ( दे ) रेंकना ( ध्वन्या ) लडह-(दे) रम्य, सुन्दर ४.२.४ ; ५४.६ ; ६.२.१० .८.२६.१८ ; ८.३४.६ रिधि-ऋक्षी, स्त्री भालू .८.२७.४ - लढ-(दे) रट लगाना, लढेइ ४.१५.८ रिट्ठ-रिष्ट, कौवा ८.१५.७ लय-लता नायिका भेद ४.५६ रिट्ठी-रिष्टी नायिका भेद ४.५.१४ लयाकुसुम-लताकुसुम छन्द ११२ २२ रिणिउ-(१ ) ऋगी ( २ ) ऋण ६.७.१८ लल-लड् , विलास करना इ ४८.१० रीणउ-रीण क्षरित, पीड़ित ६.१५.१२ Vलल्लक्क-( दे ) ललकारना °ई /रूजंत-रु + शतृ ११.१८.१५ (बह० ) रुंड-- रुण्ड, धड़८.१६.७ , ११.१५,५ रुंद-( दे ) विशाल,विस्तीर्ण २ ३.४ ___ लहु-लघु, शीन ८३४१ २.११.५ ३.१० ६.६ १५.१५ १०.१.११ ला- लागय °इ ( विधि०) लाडिय-लाटदेशीया नायिका ४५.६ रुभिय-रुद्ध लुक्कमुट्ठि-लुप्तमुष्टि-विद्या ३.६.४ । रुरुंजंत-रुरु ( ध्वन्या० ) लुक्ल - रूक्ष, रूखा ६७.४ ६ १२.३ + शतृ ११.१६.२ लुगत-लू + शतृ २१४.४ रुज्झत–रुद् + शतृ २.७.१ -लुल-लुट् °इ ११.२१.१० V रुण-(ध्वन्या) रुणरुणाना °इ ६.३.१५ -लुह-मृज , पौंछना, कुचलना /रुणरुण-देखो ऊपर रुणरुण °णंति हेमि ७.११ ६ ? ( दे ) ११ १५.७ १/लूड-लुण्ट लूटना इ २१३.३ /रुगरुणंत -रुणरुणाय + शतृ लेययम्म-लेप्यकम ३.६.१३ भ्रमरों का रुणरुणाना ४३.१३ लोट्ट- लुठ् , स्वप् , लोटना इ रुद्ददत्त-रुद्रदत्त २.१०.४ . २.१३.१; ६.२.५ /रुल-(दे) लुढ़ इ ६.३ ११ लोणिय-- लावण्य, सौन्दर्य ८.२७.३ रुसण-रोषण, रोष करना ११.१६१ /लोल-लुट् , कल्लोल करना °इ ७.१६.५ /रेह-राज हंति ( बहु०) १२.४.१० ल्हसिय-स्रस्त ६.१०.१० रोल-(दे) कोलाहल ८.४४.७ ल्हसियउ-स्रस्त ३.१२.७; ५.७.१८ रोसिगि-रोष + इङ्गित ४११.६ लिहक्क-( दे ) लुप् , नि + ली छिपना __°इ २.१३.१ °एवि (क्त्वा) ८.१८.६ लइ-ले, मच्छा, ठीक Vलइ-ला, लइयउ-पाक्रान्तः ६.१७.२; वइटुउ-उपविष्ट १.११.१८ ; ५.५.३ ग्रहीतः, ११.१.२ वइयर-व्यतिकरः, प्रसङ्ग, वृतान्त ११.१२.२ लंजि-(दे) प्रदेश १०.४.६ वइरायरे-वज्राकर, वज्र की खान ८.३२.२ ८.२.५ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वउ -- ववा नामक कररण ( ज्योतिषीय) ३.३.७ वंसत्थु - वंशस्थ छन्द ७.१ १२ वश्व - ब्रजहिं (बहु० ) ४२.६ वजर - (दे ) वच् “इ ३८. १२ ५. ३१२ वरि कथित वजरी - कथिता विहारु - ( दे ) बड़ा विहार वड्डम - (दे ) बड़ाई, श्लाघा मूर्ख - (दे ) मूक, वरणरक्खस - वनराक्षस वढ - वयंसि वयस्या वरसक्कय -- वर ( सुन्दर ) + संस्कृत वरिया - वरियाग, ज्योतिषीय योग रसरण - (दे ) हाहाकार ध्वनि करना हि (बहु० ) वलइल्लउ - वलयाकृतः, वलयाकार वेष्टित वलग्ग - श्रारूढ वसंतचच्चर - वसन्तचत्वर छन्द वहाइय-वाहिता ( स्त्री० वहा वाल्ल - (दे ) पुतला वाल्ल - (दे ) पुतला ) वाल्लिय - व्याकुला, बावली सुदर्शन-चरित .१११० १२.१०५ ८ ३६२८ ८ ३३.३ २ १० ११ ७.११ २ १९०३ ३३७ करना, ले जाना, ढोना इ विउरण - द्विगुण, दुगुना ८ ११.८ २.१.१३ १.६७ ५६१० ८.७४ ८.१०.८ ८.१३.१ ८.२२ ३ ; °य ११६१ ~ वाहिइ - वह् ( कर्मणि ) धारण N ८.१.१४ ( स्त्री० ) वामो- व्यामोह, मोह वाराणसीय - वाराणसी नगर वारिरुभ - जलस्तम्भन विद्या वाविर-वापित, बोया दृश्रा वासारत्त — वर्षाऋतु वासारत्तु - वर्षाऋतु २. ५.५ / वाह-व्या + ह् + ऊण ( क्त्वा ) ७.११.२ विछिय - वृश्चिक, बिच्छू विभय - विस्मय ७.११.१० ६. १६.२ विछुट्ट - वि + छुटित, छूट गया विजुला दुवइ - विजुला द्विपदी छन्द विजुलेह - विद्युल्लेखा छन्द विजमाल - विद्युन्माला छन्द विट्टल - विटाल, दूषित विडगुरुसत्य — विटगुरुशास्त्र, वात्स्यायन कामशास्त्र ३१६ विरुयार - विरूप + श्राचार, १२.७.८ ४.३.१० ८.३७.२ ६.७.१६ २.१०.२६ १२३.८ ६.२११४ ४.५.३ १.१ १४ √विढप्प — श्रर्ज इ -- विडिअ - विनटित, विडम्बित ६ ८.५; ११.६.१७; य १०.६.५ विणडेजंत - वि + नय् ( कर्मणि ) + शतृ वित्थारण्य - विस्तारण + क विद्दाग - विद्राण, म्लान, खिन्न विप्फइ - ( दे ) विशाल ४.२.३ विबुहवइ - विबुधपति, बृहस्पति, इन्द्र २.४.३ विरालो - बिडाल, मार्जार ६ १५.२ विराव - वि + रञ्ज, विरक्त होना इ ३११ ११ विरुद्ध आचरण विरह - वि + राज् विरेहंति १.६६ ( बहु० ) विलक्ख - विलक्ष, लजित, व्याकुल ८.३२.१२ विलासिणि- विलासिनी छन्द ७ १६११ ; ७.१२.२० ६.२३.४ ८.१६.८, ६.१.१८; १०.२.१३ ; ११.१२.१० ४ ५.२५ ३. ६.१५ विसट्ट - (दे ) विकसित ४.११० १२.१.१० ११.९.५. विसट्टअ - ( दे ) विकसित ७.७.२ ६.१.१५ ३.७.१० विसिलोय - छन्द ६.६८ ८.२१.१३ २ ११.११ ८.२०.३ ८.३३.६ विहंसणु - विध्वंसन, नाश १ १०.५ V विहट्ट - वि + घट्टय् इ (ग्रात्मने) ८.४४.१६ विहत्य - वीभत्स ६.३.४ ६.२.११ विहत्य - विहस्त, व्याकुल, व्यग्र विहप्फइ - बृहस्पति ४.२.३ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० शब्द-कोश विहलंघल-विह्वलाङ्ग. व्याकुल २.१०.१३, संपूस -- सं + पोषय इ ६.४.७ ७.२.७ , ८.४.४ संभडिय-( दे ) संभिडित, भिड़े हुए ८.१६.१ विहृणि-विधूत, उन्मूलित, ५/संभर-सं + स्मृ इ ११.२२.२१ ____उखाड़ा हुआ, उड़ा हुआ ६ .५.३ /संभरंत-सं + स्मृ + शतृ २.८.१ विहरं-विधुर, विकल, व्याकुल ३.१.५ सभरणु-संस्मरण १.२.४; ४.१०.३ विहुर विधुर, विपत्ति, विह्वलता ८.१६.७; /संभरि–सं + स्मृ ( आज्ञा०) ८.४३.२ ८.२३.१३ /संभरिज-सं + स्मृ (कर्मणि) °ए ६.७.२ वीराग–वीर ( महावीर संवरिउ-विस्तृत ? १२.१.११ तीर्थकर ) + आज्ञा १.१२.३ सक्कार-सत्कार ११.३.१२ वीलण-पीड़न, मर्दन ८.४१.८ सखेड-स + खेल, क्रीडापूर्वक ११.५ १३ वुच्चंत-वद् + शतृ ३.७१ सग्गिणी-स्रग्विणी छन्द ११.१४.१० वुडिय-ब्रुडित, डूबे हुए, अर्थात् सच्चाउल-सत्य + त्याग + ल (मतुप) पिचके ( कपोल ) ६.१५.५ सत्य एवं त्यागवन्त २.५६ वेझ-वेध्य ( विद्या) ८.४४.२ सञ्चिलप्र-सत्य + लम (वत्) सञ्चा ८.२६.१४ वेढ–वेष्ट वि ( क्त्वा) ५.४.११, सडिय-शटित, सड़ा हुआ ८.१६.२ . ढिवि २.१.६; ८ ३३.१२ सणेहल-स्नेह ल ( मतुप ) स्नेही ४.७ १७ वेढिप-वेष्टित ६.१७.१ °य ६.१६.१२ सह-श्लक्ष्ण १०७.१० वेल्लि-वल्ली, लता ८.१७८ सत्त-सत्व ४.५.४ वेसर-वेसर, अश्वतर, खच्चर १७.१२ सब्भ-श्वभ्र, नरक ६.६.१२ वोल्लिय-व्युत्क्रान्त, उल्लंधित ११.१८.१६ समरट्ट-स + गर्व, दर्पयुक्त ६.१० १ वोलीण-गत, व्यतीत ३.५.७ समरट्टिय–स + गर्व (स्त्री०) मानिनी ५.४.११ वोल-(संज्ञा) उल्लंघन करने वाला ८.४४.७ ।। समसीसी-( दे ) स्पर्धा, बराबरी ९.८.७ Vवोलेवए-बोडय् ( डुबाना )+ समागिय–समानिका छन्द ३.१०.२० ( तुमुन् ) ८.१६.६ समाणिया-समानिका छन्द ६ .२०.१० Vवोल्ल-वद् °ल्लेइ ८३६.२१ समारोडिग्र-(दे) रौंदा गया १११४.४ वोल्लिप-व्युत्क्रान्त, उल्लंधित १.७ ११ समुप्पेल्लिम-समुत्क्षिप्त, समुत्पीड़ित १.६ ५ सम्मइ-जिणहो-सन्मति जिन, सइत्तिय-सती स्त्री २.११.१७ महावीर तीर्थकर १.१.१२ सउटुउ–स + पोष्ट + क ८.३८.४ सयभिस-शतभिषा नक्षत्र ३.३.७ सउह-शपथ ८.३६.३४ सयमह-शतमख-इन्द्र १.११.१ संखल-शृङ्खला ६.६ १६ सयसक्कर-शतशर्कर, शतखण्ड ४.२.६ संघसिरि-संघश्री नामक मंत्री ६.१.१४ सयाणअ-स + ज्ञान + क, सुजान ८८.४ संठिय-संस्थित ८.४.१३ सराढ-शरड, कृकलास, गिरगिट ८.३६.१८ संतठ्ठिय-संत्रस्त ( स्त्री.) १.२३.. सलग्ध-लाध्य ६.१.१० संथुण-सं + स्तु णेवि (क्त्वा) १२.६.१० सलसल-(दे ) सलबलाना, संथुय-संस्तुत, कथित ४.११.१४ लंति ( बहु०) ११.१५.११ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलसलिय - ( ध्वन्या० ) सलसलित, सलसलाना ७.६ ६ ; ६.१२.७ सलहज - श्लाघ् (कर्मणि) इ ८.७८ ७६.३ सलहिय - नाघित / सल्ल - (दे ) प्रिय लगना 'इ सवडम्मुह - (दे ) सन्मुख सविलक्ख - स + वैलक्ष्य ससज्झयस + साध्वस ससि - शशि-नायिका भेद ससितिल - शशितिलक छन्द सुदर्शन-चरित ६ ३.१८; ९ ७.१३ ८.३३११ ६.४.१० ४.५.१४ ४,६७ ? ८ १५६ : / सह - राज् °इ / सहलिज - सफलय ( कर्मणि ) उ ( विधि० ) संहल्लि - सहेली, मखी ? सहोच्छिय - सह + उत्थित, सहोन्नत स्वास्थ्य साइणी - शाकिनी ( व्यन्तरी ) सागो - शाटनः, विनाश करने वाला सादि - स्वाद्य पदार्थ सारसि - सारसी - नायिका भेद सारीय – छन्द १.११.१६ ; ११.१७१८ ३.२ १४; ७ १३६ ७.३.२ सुखेड्डु -- १.२ ५ सुडोर - सु + दोर-सुन्दर लड़ियाँ सुरण — श्रु ° इ རྗ N ~ सुरगड - सु + नट सुदंसण - सुदर्शन नायक सुद्दयड - सूत्रकृत, सू कृताङ्ग सुपइण - सुप्रतिज्ञा ८.५.११ ८१६.४ १०.३.१६ ११ ३.२ ४५.१४ ८२०८ साल-वाद्य ध्वनि ३.४३ ७.१२१८ साल हंजिया - शालभञ्जिका छन्द सालिसियो - शालिसिक्य ( मःस्य ) ६५.१४ सासुइग्र - स + श्रुतिक, ज्ञानवान् ८.८.४ ८.४०.१ / साहार - सं + धारय् इ / साहार - सं + धारय हु ( आज्ञा० ) सिगिरि - ( दे ) सिग्गिरि सिक्कर, सका ८.३७.२१ २.२४ साहाल - ( दे ) दधिशाला युक्त सिंधविसैन्धवी, सिन्धु देश की नायिका ४६.२ सिंभलपयइ - श्लेष्मप्रकृति, (स्त्री० ) कफ प्रकृति वाली नायिका ४७ १५ सिंहलि- सिंहली, सिंहस देश की नायिका ४.६ ३ ε६ १७ ( ? ) / सिढिल - शिथिलय इ ८.१७२ ८.२८.६ सिढिल - शिथिल ८.२६२ ? सिद्ध-सिद्धक छन्द ६६.१२ / संघ – (दे) सूंघना 'र्घवि ( क्त्वा ) ६.२१५ सुकइकहा – सुकविकथा - २.६३ सुकइत - सुकवित्व १.१०.७ सुखाण - सु + खादन, सुन्दर खाना ११.३२ सुखेड -- स + क्रीडा, विलासपूर्वक, रतपूर्वक V सुपाहूड - सु + प्राभृत सुपील - सु + गज, सुन्दर हस्ति सुमत्तियदाम - सु + मौक्तिकदाम छन् / सुम्मइ - श्रु इ ( ग्रात्मने ० ) सुरोल - सु + रोल, कोलाहल ३२१ सुहवत्त - सुभगत्व, सौभाग्य सूर - ( १ ) शूर ( २ ) सूर्य / सूसुव - ( ध्वन्या ) सू सू करना "वंति ( बहु० ११.२.१६ ७६.१ ११.२.२० १.१२३ ३.७.१० १ १२.११ ११४१४ ८६१२ १०.६.११ ५५.७ १४.१६ ८.५.११ ३.४७ ४.१३१६ २.४.२ ११.१५.८ ८१८१० ६८३ १०.५.१६ ४.१२१२ सूहव – सुभग, सौभाग्यशालिनी सेयंस- श्रेयांस (नृपति ) सोमराई - सोमराजी छन्द सोयड्ढ --- शोकाढ्य, शोकाकुल सोरट्ठि - सौराष्ट्र, सौराष्ट्र देश की नायिका ४६.७ सोलह दहकलय विसमपअ पायाउल - षोडशदशकलाविषमपद - पादाकुलक, १६ मात्राओं का विषमपदी पादाकुलक छन्द ५३.६ ६ १६१४ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२. शब्द-कोश हला-हला, सखी ३.८१ हंसी-हमी नायिका भेद ४.५६, ४.५ १४ हिंड-हिण्ड भ्रमण करनाइ ८३५.४ ; हक्क-( दे ) हाँक, हुकार ११.१६.१६ डिवि ( क्त्वा ) ८३५.१० / हक्क-( दे ) हांकना, पुकारना /हिंडंत-हिण्ड + शतृ ३.१२.१२; ४.१३ किऊग ( क्त्वा) १०५ १६ हिडंती-हिण्ड + शतृ + °ती हक्कार-(३) प्राकारण, हांक ८३३ ६ स्त्रियाम् २७.११ इलिया-आहता ( स्त्री०) ११२०६ हिंडिय-हिण्डित, भ्रमित ८.१६.७ हडहड-(ध्वन्या० ) हडहडाय, हिमवंतिणि-हिमवन्तिनी, हिमवान हडहड ध्वनि करना 'डंति देश की नायिका ४ ६.११ (बहृ०) ११ १५.५ हिलिहिलिय-( दे ) हिनहिनाते । हड्ड-(दे) हाड़, अस्थि ६ १५.७ हए ( घोड़े) १११६ हत्यपहत्यवंत-हस्त-प्रहस्त + वन्त हरु हल्लरु -- (दे हर्र । हुल्ल हर्ष ध्वनियों ३ ७.१ (वान् ) हाथोंहाथ ८.३८.६ हृल्ल - (दे) फुल्लि-पुष्पवती (बेल) १०.३.१५ हम्म हर्म्य, गृह, प्रासाद १०.१०२ हलिय-( दे हूलित, हूला गया, Vहम्मइ-हन् ‘इ ८ ३६.२० ; ६.१८८ शस्त्रों से भेदा गया ११.१६ १३ हरहाइ-( दे ) चरागाह ८.३५.१० हूहुश्य-(दे) शंखों की हू हू ध्वनि ७.६.१५ हरिसोल्लिभ-हर्ष+उल्लिन ( दे ) हेट्ठ-प्रधस् , नीचे . २११० उल्लसित ५३६ हेला-दुवइया-हेला नायक द्विपदिका हलहलिय- ( दे ) कम्पित, लहलहाती हुई ६ १४७ होटु-प्रोष्ठ ३.१०८, ५०६८ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- _