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________________ १६२ नयनन्दि विरचित [ २. ४पद्मावती की शोभा पाई जाती है। अथवा उस नगरी का क्या वर्णन किया जाय, जहां मणियों और रत्नों आदि की संख्या ही नहीं थी। उस पुरी में धाईवाहन नाम का ज्ञानी राजा था जो ऐसा मनोहर और लोगों को वश में करनेवाला था जैसे मानों कामदेव ने उसे अपना बाणरूप ही सजाया हो। ४. राजा धाईवाहन की प्रशंसा वह राजा नई मेधा से युक्त होता हुआ भी, नये मेघ के समान जलमय ( जड़मति ) नही था। वह सोम अर्थात सौम्य प्रकृति होता हुआ भी, अदोष अर्थात् निर्दोष एवं मदरहित (निरभिमानी ) था; सोम (चन्द्र ) के समान सदोष नहीं था; और न सोमरस के समान मदयुक्त। वह शूर होता हुआ भी कुवलय (पृथ्वीमंडल) को संताप नहीं पहुंचाता था; जिस प्रकार कि सूर्य कुवलय (कुमुदनी) को सन्ताप पहुंचाता है। वह रज (पाप) समूह से वर्जित था; तो भी विभीषण नहीं था, जिसने रजनीचर (निशाचर ) रावण का साथ छोड़ दिया था। वह विबुधपति ( विद्वानों में श्रेष्ठ) होता हुआ भी, बृहस्पति व इन्द्र के समान अनिमिष दृष्टिवाला सुर नहीं था; तथा सुरा (वारुणी) की ओर देखता भी नहीं था, जैसे बृहस्पति व इन्द्र सुरों (देवों) के दृष्टिगोचर होते हैं। वह आर्जव गुण का धारी होता हुआ भी, अपने गुरु द्रोण के प्रतिकूल लड़नेवाले अर्जुन के समान नहीं था। नरश्रेष्ठ ( अर्थात् मनुष्यों में श्रेष्ठ ) होता हुआ भी, वह राष्ट्र की रक्षा की ही इच्छा करता था; और इस प्रकार नरज्येष्ठ ( अर्जुन का बड़ा भाई युधिष्ठिर ) होता हुआ भी, धृतराष्ट्र से स्नेह करता था। वह बाहुबलि ( भुजशाली ) होता हुआ भी, भारतदेश भर में श्रेष्ठ था, और इस प्रकार बाहुबलि होकर भी, भरत से जेठा था। वह राम ( रमणशील ) अथवा दूसरों को आराम देने वाला होता हुआ भी, हलधर ( बलराम ) नहीं कहलाता था। वह शत्रुकुल को नाश करने के लिए अग्नि के समान होता हुआ भी, अविनीत नहीं था। वह स्वामी होता हुआ भी, स्वामी ( अथात् कात्तिकेय ) के समान महेश्वर का साथी नहीं था। वह सारंग ( सुन्दर अंगवान् ) होता हुआ भी, पुंडरीक ( कमलों ) को धारण करता था जैसे मानो एक सारंग ( मृग) पुण्डरीक ( व्याघ्र ) का साथी बन गया हो। वह न्याय-विचारक था तथापि अति अभिमानी नहीं था। इसी प्रकार नागों (हाथियों) का विदारक होते हुए भी मृगाधिप (सिंह ) नहीं था। वह आदर सहित होते भी, सागर नहीं था जिसमें मछलियां संक्षोभ उत्पन्न करती हैं। वह चतुरों की आशा पूरी करनेवाला होने से चतुरास्य ( चतुरानन ब्रह्मा ) होता हुआ भी, हाथ में रुद्राक्ष माला नहीं रखता था। वह बिना पंखों के रथ का वाहन रखता हुआ भी, गरुड़ वाहन श्रीधर ( अर्थात् नारायण) नहीं था। वह नीस (नृ+ईश-नरेश्वर ) था, एवं क्रम ( चरणों) की शोभा से आलिंगित था; और इस प्रकार नीश (न+ ईश-दरिद्री) होता हुआ भी, कमलाक्षी लक्ष्मी से आलिंगित था। वह गुणवान् और धनवान् था, अतएव परमुखापेक्षी नहीं था, और इस प्रकार वह उस
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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