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________________ २. ३] सुदर्शन-चरित १६१ समूह सुविशाल और शीतल दधिशालाओं से युक्त, निरन्तर गउओं द्वारा प्रसृत बच्छड़ों की शोभा सहित तथा तरुणी गोपिकाओं का आलिंगन करते हुए ग्राम युवकों सहित वहां के उपवनों के सदृश ही दिखाई देते थे, जहां सुविशाल, शीतल शाखालय थे, निरन्तर सुगन्धी पुष्पों को शोभा थी, तथा वृक्षों के समूहों पर पुष्पों की रज लगी हुई थी। वहां गावों के खेत उत्तम खाद से खूब उर्वर बनाए गये थे। बहुत से कृषकों से बसे हुए थे, उनपर कर भी स्वल्प लगाया जाता था। अपने अपने भूमिपति द्वारा रक्षित सुदृढ़ कछारों सहित थे। अतएव वे ग्राम उन सामन्तों के समान थे जिन्होंने श्रेष्ठ क्षत्रियत्व द्वारा अपने क्षेत्र को वशीभूत कर लिया था, जो खूब खींचकर बाग चलाते थे, जो ललित करों से युक्त थे, अपने-अपने भूपतियों द्वारा सुरक्षित थे और दृढ़ता से बद्ध-कक्ष रहते थे। वहां के नगरस्थान खूब रत्नों से युक्त एवं सब प्रकार कल्याणपूर्ण थे। अतएव वे उन जिनवरों के समान थे, जिनके गर्भादि कल्याणक देवों द्वारा किये गये थे। ऐसे उस अंगदेश में चम्पापुर नाम का नगर रत्नों का निधान होने से रत्नाकर ( सागर ) के समान शोभायमान था। वहां अनेक देवालय थे और वह पण्डितों से मनोहर होता हुआ ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह बहुत से विमानों से युक्त तथा देवों से मनोहर देवेन्द्रपुरी ही हो । ३. चंपा नगरी का वर्णन वह चम्पापुर जल से भरी हुई परिखा, कोट तथा गोपुरों से ऐसा महान् एवं ध्वजाओं से ऐसा संकीण था, जैसे मानों भगवान् का समोसरण ही हो। वह कविजनों से पूर्ण एवं लक्षणों से युक्त रमणियों से ऐसा रमणीक था, जैसे कि रामायण कपियों से युक्त एवं लक्ष्मण सहित राम के चरित्र से रमणीक है। वहां के निवासी गुरुजनों की कान ( विनय ) मानते थे ; वहां के पथ लोगों के गमनागमन से व्याप्त थे; और वहां अन्न से भरे द्रोण दिखाई देते थे ; इस प्रकार वह महाभारत के समान था, जिसमें गुरु (भीष्म पितामह ) और कर्ण का सम्मान, पार्थ का व्यापार एवं कणभरिय ? द्रोणाचार्य पाये जाते हैं। वह जातियों और उनकी प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में ऐसा विशाल तथा साधुजनों से ऐसा शोभायमान था जैसे जाति वृत्त द्वारा विस्तृत रचना, एवं यति और गणों से अलंकृत छन्द हो । वह अर्थी ब्राह्मणों के द्वारा एवं चारों दिशाओं में अनन्त प्रजा द्वारा उत्पन्न कोलाहल से उस मन्दर पर्वत के समान शोभा को धारण करता था, जो समुद्र-मंथन के लिए स्थापित किया गया था, और जिसके द्वारा चारों दिशाओं में अनन्त जलराशि में क्षोभ उत्पन्न हुआ था। वहां मित्रजन भ्रमण करते थे; और वह अज्ञान को दूर करनेवाले कल्याणकारी विद्वान् गुरूजनों से पवित्र था; जिससे वह उस गगनतल के समान था जहां सूर्य का परिभ्रमण होता है, एवं जहां अन्धकार का अपहरण करनेवाले मंगल, बुध व गुरु नामक ग्रहों का संचार होता है। अथवा उस नगरी में न्याय वर्ता जाता था, और मनोहर लक्ष्मी की शोभा दिखाई देती थी; अतएव वह उस पाताल के समान था, जहां नागों का निवास है, और जहां मनोहर २१
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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