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२५४ नयनन्दि विरचित
[११. १३. प्रकार के चित्रों तथा गोल स्तूपाकार शिखर से युक्त, घग्घरसमूह (घाघरा परिकर ?) से घव-घव शब्द करता हुआ, घंटियों के स्वर का रूनझुन् शब्द करते हुए, टनटनाते हुए घंटों से युक्त, जगमगाते हुए रत्नों की प्रभा से प्रभासमान, फहराते हुए ध्वजपटों से विशाल, मणिमय गवाक्षों व मणिमय कपाटों से युक्त, नृत्य करती हुई शालभंजिकाओं से सुसज्जित, द्वारपर मत्तवारणों ( ओटों) से अंकित, पत्रावलि के नानारूप आकारों से सुन्दर, पचरंगे चंदोवे से संयुक्त, नाना रत्नों के झूमकों से झूलते हुए, धूप की गंध से दिशाओं को सुवासित करते हुए, गुमगुमाते हुए भौंरों से घिरे, तीव्र सूर्यकिरणों को पराजित करते हुए, देव-विमान से भी अधिक विशिष्ट, ऐसे विमान में चढ़कर एक देवांगना हर्ष से नाचती घूमने की इच्छा से नभस्तल में जाती हुई प्रगट हुई।
१३. मुनिराज के ऊपर आकर विमान कैसा स्थिर हुआ
जब वह विमान मुनिवर सुदर्शन के ऊपर पहुंचा, तब वह थर्रा कर ऐसा स्थिर हो गया, जैसे पूर्वकाल में कैलाश पर्वत पर बालि मुनि के ऊपर पुष्पक विमान स्थिर हुआ था। जैसे कायरचित्त मनुष्य भटों के भीषण संग्राम में प्रवृत्त नहीं होता। जैसे देव का स्वर्ग से नरक में पतन नहीं होता। जैसे सुपुण्यवान जिनवर के सम्मुख मानविकार की प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे उत्तम सुवर्ण में मलकलंक नहीं रहता। जैसे मूर्ख लोगों की वाणी पदों के समास में प्रवृत्त नहीं होती। जैसे यम का पाश लोकाग्र में वास करनेवाले सिद्धों पर नहीं चलता। जैसे सूर्य के प्रकाश में अंधकार नहीं आ पाता। जैसे कुकवियों की रचना सुन्दर कवित्व में प्रवृत्त नहीं होती। जैसे मन की शुद्धि से शुद्ध मुनि की स्नान करने में प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे पाप का लेप सम्यज्ञानी पुरुष में उत्पन्न नहीं होता। जैसे उपशमधारी में संक्लेश भाव उत्पन्न नहीं होता। जैसे स्नेह-हीन व्यक्ति में रतिविलास नहीं चलता। जैसे मानुषोत्तर के ऊपर मनुष्य-गमन नहीं होता। जैसे शुद्ध सिद्ध में संसारोत्पत्ति नहीं होती। तथा जिस प्रकार केवलज्ञानी में खानपान रूप प्रवृत्ति नहीं होती। उसी प्रकार वह विमान मुनीश्वर के सिर पर से आगे नहीं बढ़ सका। वह देवविमान नभ में चलते चलते थर्रा कर स्थिर हो गया। किन्तु फिर भी वह भूमि-तल पर नहीं गिरा, यही मेरे मन में बड़ा आश्चर्य है।
१४. देवांगना का रोष मुनि के तपश्चरण के प्रवर माहात्म्य से चन्द्र भी आकाश से आ गिरता है; फिर दूसरे किसी की तो गणना ही क्या है ? ऐसा जान कर जिनवर-धर्म में लगना चाहिये। अपने विमान को आकाश में डोलते हुए देखकर, वह व्यंतरी रोषपूर्वक बोली-"किसने सोते हुए सिंह को रौंदा है ? किसने नारायण की