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संधि ८
१. राजमन्दिर की शोभा ___कोमल-पद, उदार, छंदानुवर्ती, गंभीर, अर्थसमृद्ध तथा मनोवांछित सौन्दर्य युक्त कलत्र व काव्य इस संसार में किसी ( सौभाग्यशाली ) को ही प्राप्त होता है।
पूर्व में सरस्वती ने सुदर्शन-चरित्र को कवीन्द्रों से गुप्त करके रखा था, इसीलिये कि नयनों का आनन्द प्राप्त करनेवाले नयनन्दि कवि होंगे, जो सुदर्शन चरित्र की रचना करेंगे।
सुलक्षणों से युक्त, अलंकारों से आभूषित और कांतियुक्त अभयादेवी जहाँ देखो वहाँ ही ऐसी प्यारी दिखाई देती थी, जैसी सुकवि द्वारा रचित कथा। वह अभयादेवी क्रमशः लौटकर राजमंदिर में आई, जो वायु से कंपित ध्वजपताकाओं से लहलहा रहा था; जो प्रवालों और इन्द्रनील मणियों के जाल से विचित्र दिखाई देता था; जो सुन्दर तारों, हारों, कुन्द-पुष्पों व चन्द्र के समान शुभ्र था; जो विचित्र स्तम्भों व सुवर्ण-भित्तियों से जगमगा रहा था; जहाँ मधुर धूम की गंध के लोभी भ्रमर भ्रमण कर रहे थे, जो अपनी अनेक कौतूहलपूर्ण रचनाओं से देवों को भी मोहित कर रहा था; जो गवाक्षों और मत्तवारणों ( दालानों) से सुशोभित था; जो रुनझुन करती हुई घंटियों के गुच्छों से आच्छादित था; जहाँ चिकने मोतियों की मालाएँ लटक रहीं थीं; जहाँ हँस के पंखों के विशाल गद्दे बिछे हुए थे; जो पढ़ते हुए शुक-सारिकाओं से मनोहर था; जो अपने मणियों की प्रभा से सूर्य की प्रचुर किरणों की प्रभा को भी जीत रहा था; जो अनेक प्रकार के पुष्पों की गंध से सुन्दर था; तथा जो अपनी उत्तुगता के माहात्म्य से मंदर (पर्वत) को भी जीत रहा था। (यह वसंतचत्वर छंद है)। वहाँ क्षुधारहित, शिथिलांगी तथा नष्टचित्त ( अनमनी) एवं कांतिहीन अभयादेवी को पंडिता ने ऐसी देखा, जैसे पुताई से रहित, जर्जरभित्ति, जीर्णचित्र, व शोभाहीन पुरानी देवकुटी।
२. अभया की विरह-वेदना उसे देखकर सद्गुणों से सम्पन्न पंडिता ने दौड़कर पूछा--"हे पुत्रि, तू बिस्तर पर क्यों पड़ी हुई है, और ऐसी उन्मनी-दुर्मनी क्यों दिखाई देती है ? इससे मुझे घनी वेदना होती है ।" यह सुनकर उस नरेन्द्र-पत्नी ने कहा-“हे पंडिते, जहां तुमसे छुपी कोई बात नहीं, वहां मैं तुमसे क्या कहूँ ?" तब पंडिता ने कहा-- "मुझसे क्यों छिपाती है ? मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है, तू कह तो सही ?" तब अभया बोली--"मैं तुझसे छिपाती नहीं हूं। पंडित सुन। मैं अपने अन्तरंग की बात कहती हूं। यदि मैं सुदर्शन का प्रेम पा सकी तो मदन मुझे पीड़ा नहीं
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