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सुदर्शन-चरित
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लिए नाश को प्राप्त हुए । इस प्रकार ये सातों ही व्यसन कष्टदायी हैं । अतः तूं संयम ग्रहण कर इनको त्याग दे । सेठ के इन वचनों को उस गोप ने अपने मन में स्थिर कर लिया। फिर बहुत दिनों पश्चात् प्रसन्नचित्त होकर एक दिन वह गोप घर से निकलकर गंगानदी को गया । ( यह करिमकरभुजा नाम का दुवई छन्द है) । सुन्दर जल और सारस पक्षियों से युक्त, निर्मल, प्रसन्न व सुखदायी नदी सदैव उसी प्रकार शोभायमान होती है जैसे सुन्दर चरणों व सुलक्षणों से युक्त स्वच्छहृदय, हँसमुख, सुखकारी पतिव्रता स्त्री, अथवा सुन्दर शब्दों से युक्त, व्याकरण के नियमों से शुद्ध, निर्दोष, प्रसाद गुणयुक्त आनन्ददायिनी सुकवि कृत कथा । १२. गंगानदी का वर्णन
वह गंगा नदी प्रफुल्ल कमलरूप अपने मुख से हँस रही थी । घूमती हुई भ्रमरावलीरूपी अलकों सहित ( उनके गुँजार के रूप में ) बोल रही थी । दीर्घ मछली रूपी नेत्रों से मन को हरण करती थी । सीप के पुट रूपी ओष्ठ-पुटों से धृति ( हर्ष ) उत्पन्न करती थी। मोती रूपी दंतावलि दिखला रही थी । प्रतिबिम्बित जल के रूप में वह शशिदर्पण देख रही थी । तटवर्ती वृक्षों की शाखाओं द्वारा नाट्य कर रही थी । जल के प्रस्खलन रूप त्रिभंगी प्रकट कर रही थी । सुन्दर चकवारूपी चक्राकार स्तनों के भार से नमन कर रही थी। गम्भीर नीर की भंवर रूप नाभि को धारण करती थी । फेन- पुञ्ज रूप बृहत् हार पहने हुए थी । कल्लोल रूपी विशेष त्रिवली से शोभायमान थी । शतदल नीलकमल रूपी नीलाम्बर की शोभा दे रही थी। जल की खलमलाती कल्लोलों रूपी कटिसूत्र धारण किये हुए थी। मंथर गति से लीला पूर्वक संचार करती हुई वह सागर की ओर बह रही थी, जिस प्रकार कि वेश्या अपने प्रेमी का अनुसरण करती है । सुरसरि ( गंगा ) को ऐसी शोभायुक्त देखकर वह सुभग गोप मन में हर्षित और शरीर में रोमांचित होकर, कलकल ध्वनि करते हुए ग्वालों के साथ कृष्ण के समान बहुत देर तक क्रीड़ा करता रहा ।
१३.
गोप-क्रीड़ा
एक क्षण में वह लोटता व किसी को त्रास देता व समान पीड़ा देता । एक
सुभग एक क्षण लुकता व झड़प देता था । ग्वाल दल को पीटता था । क्षण में वह छिप जाता, नीचे को चला जाता । क्षग में क्रीड़ा करता व ग्रह के क्षण में शंकित होता और अपना मुख ढंक लेता था । क्षण में वन-वृक्षों की डालों को मोड़ता व लूटता था । एक क्षण में दौड़ता और फिर वापस आता, जैसे कि मन । एक क्षण में दिखाई देता और फिर विलुप्त हो जाता, जैसे धन । उसी समय एक चमक ( घबराहट ) मन में धारण करके खेत का रखवाला उसके सम्मुख आ पहुंचा। वह बहुत कांपता हुआ सहसा बोला- अरे चल, हे महायशस्वी, खेले मत । मैंने तेरी गउओं को जाते देखा है । वे नदी के दूसरे तट की ओर गम्भीर जल में पहुंच गई हैं। इसे सुन कर अपना सिर धुन कर वह गोप वहां से