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संधि ६
१. ऋषभदास का मुनिदर्शन हे सखे, सरस, व्यंजन सहित, मोदकसार (माधुर्य-पूर्ण ) तथा प्रमाणसिद्ध ( उचित मात्रा में पका हुआ), ऐसा भोजन एवं काव्य-विशेष इस लोक में विरल ( दुर्लभ ) है।
फिर उसी अवसर पर समस्त संघ से परिवारित, मानों मुनि के वेष में तप के पुंज साधु समाधिगुप्त उपवन में आए। तब ऋषभदास उनकी वन्दना-भक्ति के लिए गया, जैसे हाथी पर बैठकर सुरेन्द्र जिन भगवान की वन्दना के लिये गया था। ऋषभदास के पूछने पर मुनिवर ने उस सिर से प्रणाम करनेवाले वणिग्वर को गृहस्थ धर्म का उपदेश दिया। आप्त, आगम और तत्वों में जो श्रद्धान किया जाय, उसी को सम्यक्त्व जानो। आप्त वह है जो अठारह दोषों से रहित हो। उन्हीं आप्त के द्वारा जो कहा जाय, वही सूत्र अर्थात् आगम होता है। सूत्र भी ऐसा होता है जो परवादियों के नयों से दुलध्य ( अकाट्य ) हो, पूर्वापर अविरुद्ध हो, एवं श्लाध्य हो। जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये सात तत्त्व कहे गये हैं। इनमें जो कोई भव्य हैं, वे ही श्रद्धान करते हैं। कोई इनमें आजन्म भी श्रद्धान नहीं करते ( वे मिथ्यात्वी हैं )। और क्या मिथ्यात्व के शिरपर सींग होते हैं ? इसी मिथ्यात्व के कारण संघश्री मंत्री नरक में गया। क्या पाप से कहीं भी शान्ति मिल सकती है ? सम्यक्त्व के विना घोर और प्रबल तप संचय करने से शरीर का शोषण मात्र होता है। बहुत कहने से क्या, वह तप वैसा ही अकृतार्थे जाता है, जैसे दुर्जन जन के प्रति किया गया उपकार । जिस प्रकार वृक्ष का मूल व धड़ का सिर सारभूत अंग है, उसी प्रकार व्रतों का सार सम्यक्त्व है। इस प्रकार जो समझ लेता है, वह लाखों दुःख विनष्ट कर देता है। इसके पश्चात् मुनीन्द्र ने ऋषभदास को मूल गुणव्रतों का भाषण किया (व्याख्यान करके समझाया)।
२. मद्यपान के दोष द्विविध पीपल ( पीपल और पाकर) ऊमर, वट और फिंफर (कठूमर), ये पांचो उदुंबर सूक्ष्म त्रस जीवों से युक्त होते हैं। इसलिए ये पांचों ही न खाने योग्य हैं और न देने योग्य; क्योंकि इनका आगम में निषेध किया गया है। मदिरा जब सड़ा कर बनाई जाती है, तब उसमें बहुत से सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इसे जो पीता है, वह मनुष्य ( उन्मत्त होकर ) लोटता है, गाता है, नाचता है ; सब जनों की निन्दा करता है, कपिलों ( कुत्तों) की वंदना करता है, हँसता है, विना बुलाए बोलता है; रेंगता है, कूदता है, युवतियों से लगता है,