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१९८ नयनन्दि विरचित
[६.२० जन्म, जरा व मरण रूपी बंधनों का क्षय करनेवाला तपश्चरण ग्रहण कर लेगा, तो फिर यह कुल किसका मुख देखकर रहेगा ? तू ही हमारे कुल का तिलक है। तू ही श्रेष्ठ पुरुष रूप रत्न है। तू ही एक मात्र सुहृद्जनों के हृदय को ढाढ़स बंधानेवाला है। तुझे छोड़कर और कौन है जो इस घर के भार रूपी धुरे को धारण कर सके। जो अज्ञानवश खोटी बातें करके गालियां देता है, तथा रो-रो कर माता से भोजन मांगता है, ऐसे अपने छोटे से पुत्र को छोड़कर जाना क्या तेरे लिए योग्य है ? तू अभी जिनभवन निर्माण करा, तथा जिनाभिषेक, जिनपूजा व जिनस्तुति कर। अप्रमाण और सुपवित्र मुनिदान दे; एवं जिनवरों ने जिनशासन में जो कुछ उपदेश दिया है, उसके अनुसार कर। जो कोई मनोहर जिन-मन्दिर निर्माण कराते हैं, वे अन्य जन्म में चिरकाल तक देवगृहों में रमण करते हैं। जो कोई श्रद्धापूर्वक जिनाभिषेक करते हैं या कराते हैं, वे स्वयं भी मेरुपर्वत के शिखर पर अभिषेक पाते हैं। जो भक्ति पूर्वक मनोज्ञ जिनपूजा करते हैं, वे इस संसार में देवों, मनुष्यों एवं नागों के पूज्य बनते हैं। जो जगतरूपी कमलसरोवर के सूर्य, जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करते हैं, उनकी दो सहस्त्र जिह्वाओं द्वारा नागेन्द्र स्तुति करता है। जो शक्तिअनुसार, भक्तिपूर्वक मुनियों को दान देते हैं, वे भोग-भूमियों में सुख भोगकर स्वर्ग जाते हैं। (यह मदनावतार छन्द है)। इस प्रकार अपने पुत्र को उपदेश देकर पश्चात् सुदर्शन के माता-पिता धर्म में आनन्द मानते हुए, समाधिगुप्त मुनि के चरणों को नमस्कार करके तथा तपस्या करके देवलोक को गए।
___ इति माणिक्यनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करने वाले सुदर्शनचरित में, वणोन्द्र को नंदनवन में मुनिवर द्वारा उपदिष्ट अणुव्रत, गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत एवं अनस्तमितव्रत तथा ऋषभदास का स्वर्गगमन, इन का वर्णन करनेवाली छठी संधि समाप्त ।
संधि ॥६॥