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१२.५] सुदर्शनन-चरित
२६१ आप निःसंग हैं, आप निष्तन्द्र हैं, देवों द्वारा भक्ति से वंदनीय हैं। आप त्रैलोक्य के पूज्यों के भी पूज्य हैं; तथा निश्चय ही कर्मरूपी पर्वतों के वज्र हैं। आपने बंध और मोक्ष का चिन्तन किया है, और अव्याबाध ज्ञान को प्राप्त किया है।
आप समस्त साधुओं के स्वामी हैं व दुर्लभ लोकाग्र (मोक्ष ) के गामी हैं। आप सर्वज्ञ हैं, और भव्यों के लिए आनन्दभूत हैं। (यह विद्युत्माला छंद है)। इस प्रकार केवली सुदर्शन मुनि की इन्द्र ने स्तुति की। तत्पश्चात् शीघ्र ही कुवेर यक्ष ने बारह गणों ( भागों ) से युक्त चतुर्दिक सभामंडप निर्माण किया, और उसके मध्य में भद्रपीठ पर कर्ममलरहित मुनि विराजमान हुए।
४. केवली भगवान् के विशेष अतिशय चन्द्र व दुग्ध के समान धवल दो चमर, देवों द्वारा भौंरों को तुष्टि उत्पन्न करनेवाली पुष्प-वृष्टि, लोगों को प्रसन्न करनेवाला दुंदुभि-घोष, अपूर्व रवि के समान दिव्य भामंडल, तीनों जगत् का शोक दूर करनेवाला अशोक वृक्ष, तथा पाप का नाश करनेवाली सुमनोज्ञवाणी, इनसे युक्त वह उत्तम केवलज्ञानी मुनि ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे मानों साक्षात् जिनेन्द्र समोसरण में विराजमान हों। और भी समस्त विशेष अतिशय उसी प्रकार प्रगट हुए, जैसे जिनवर के होते हैं। ( इसे निश्वयत: चन्द्रलेखा छंद जानो)। वहाँ अति उपशान्त व बहुत भक्ति के भार से निमित, एवं संसार से विरक्त, उन्हीं में चित्त लगानेवाले भव्यजनों के पूछने पर वे महामुनि उन्हें इस प्रकार उपदेश देने लगे।
५. सुदर्शन केवली का उपदेश व व्यन्तरी का वैराग्यभाव
दोषों से रहित अरहंतदेव, ऋषि गुरु, तथा रत्नत्रय का ध्यान करना चाहिये । अहिंसा-लक्षणात्मक धर्म ही गुणकारी होता है। उसमें भी उत्तम मोक्षमार्ग निर्ग्रन्थ धर्म ही है। यह बात मिथ्यात्व के परवश हुआ जीव नहीं मानता, और वह मोहान्ध व अज्ञानी हुआ पाप करता है। यह जीव अनादि-निधन है, और वह संसार में उसी प्रकार भ्रमण करता है, जैसे समुद्र में मछली। चारों गतियों में दुःख सहता हुआ वह उत्पन्न होता, और मरता रहता है। वह मनुष्य-जन्म नहीं पाता। यदि पा ही जाय, तो उस धमे को नहीं सुनता जो विरोध रहित है। यदि सुनता भी है, तो उसे हृदय में नहीं रखता। और यदि रखता है, तो तपश्चरण से डरता है। तप के विना ध्यान उत्पन्न नहीं होता और ध्यान के विना मोक्ष नहीं प्राप्त होता। (मुनि का यह उपदेश सुनकर ) वह व्यंतरी भी उपशान्त हो गई और नमन करती हुई बोली “हे मुनिवर, इतना कीजिये कि रौरव नरक में गिरती हुई दुर्नयवती मुझे दया करके तप की दीक्षा दीजिये।"