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संधि ५
१. मनोरमा की कामपीड़ा गौतम गणधर कहते हैं-हे श्रेणिक राजन् , मनोरमा को यहां वहां किसी भी प्रदेश में अच्छा नहीं लगता था। केवल एक अति दुर्लभ वल्लभ के विना लोगों से भरा हुआ घर भी वन के समान प्रतीत होता है। कमल, जल से भीगा हुआ पंखा, गान, भूषणविधि, कपरचन्दन, भोजन, शयन या भवन, ये कुछ भी नहीं भाते ; चित्त में एक व्याकुलता ही बढ़ती है।
मनोरमा संतप्त होकर पुनः पुनः कहती-रे रे खलस्वभावी मकरध्वज, तू भी छल ग्रहण करके मेरी देह को तपा रहा है, क्या यह बात सत्पुरुष के लिये योग्य है ? रुद्र ने तो तेरी देह को दग्ध किया था। कहो, महिला के ऊपर कौन वीर नहीं बन जाता ? रे अज्ञानी, तू अपने पाँचों बाणों को मेरे हृदय में छेद कर अब दूसरों का कौन बाण से हनन करेगा? वह कमलपत्र के समान विशाललोचन बालिका जहाँ कहीं को भी अवलोकन करती, वहाँ वहाँ उसे उसका प्रेमी ही आता हुआ प्रतीत होता । मानों समस्त जगत् सुदर्शन से ही भर गया हो।
यहाँ जैसी अवस्था मनोरमा की थी, उसी प्रकार वहाँ सुदर्शन की भी थी। स्नेह कभी एकाश्रित घटित नहीं होता। यदि कभी घटित भी हो जाय तो वह स्थिर नहीं होता, जैसे छिद्र युक्त करतल में पानी नहीं ठहरता । सुदर्शन को विरह-पीड़ित एवं रति-विरहित देख ऋषभदास मन में सोचने लगा-यदि मेरा गुणगणों से युक्त पुत्र विवाहित हो जाय तो मेरी कुलसंतति बढ़ने लगे।
२. सुदर्शन के पिता की पुत्र-विवाह संबंधी चिन्ता कुल-संतति से धर्म का संपादन होता है, और धर्म से पाप क्षीण होता है। पापक्षय से ज्ञान, और ज्ञान से फिर मोक्षरूपी शाश्वतपुरी को गमन किया जा सकता है। इसी से गृहस्थ कुल को बड़ी वस्तु मानते हैं, और यह अवस्था चारों वर्गों के लिये है। तो अब कोई उत्तम कन्या देखना चाहिये, जिससे उसके साथ पुत्र का विवाह किया जा सके। अथवा सारी-बूत (चौपड़ ) खेलते हुए स्वयं सागरदत्त ने एक बार कहा था-“यदि मेरे कोई पुत्री उत्पन्न हुई, तो वह तुम्हारे पुत्र को दी जायगी।" तो अच्छा होगा कि उससे अब उसकी मांग की जाय; देता है या नहीं देता, इस सत्य का पता भी लग जायगा। प्रार्थना-भंग के भय से लोग अपने इष्ट व महान कार्य की भी अवहेलना ( लापरवाही) कर देते हैं। यद्यपि ऐसा है, तो भी ऐसा मान नहीं करना चाहिये जिससे अपने कार्य का नाश हो।