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( १८ ) स्त्री की ओर से अनुचित प्रेम के प्रस्ताव और पुरुष द्वारा उसके निषेध के कुछ प्रसंग हमें प्राचीनतम भारतीय साहित्य में भी दिखायी देते हैं । इस विषय का सबसे प्रसिद्ध ऋग्वेद का वह सूक्त (१०, ११) है जिसमें यम और यमी का संवाद पाया जाता है। यमी अपने जुड़वां भ्राता यम से प्रेम का प्रस्ताव करती है और यम उसे अनुचित समझकर अस्वीकार करता है । वह वार्तालाप इस प्रकार है
यमी-विस्तृत समुद्र के मध्य द्वीप में आकर, इस निर्जन प्रदेश में, मैं तुम्हारा सहवास व मिलन चाहती हूँ, क्योंकि गर्भावस्था से ही तुम मेरे साथी हो । विधाता ने मन ही मन समझा है कि तुम्हारे द्वारा मेरे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा वह हमारे पिता का एक श्रेष्ठ नाती होगा।
यम-यमी, तुम्हारा साथी यम तुम्हारे साथ ऐसा सम्पर्क नहीं चाहता, क्योंकि तुम सहोदरा भगिनी हो, अगन्तव्या हो । यह निर्जन प्रदेश नहीं है, क्योंकि बली प्रजापति के धुलोक का धारण करनेवाले वीर पुत्र ( देवों के चर ) सब देखते हैं।
यमी-यद्यपि मनुष्य के लिए ऐसा संसर्ग निषिद्ध है, तो भी देवता लोग इच्छा पूर्वक ऐसा संसर्ग करते हैं। इसलिए मेरी जैसी इच्छा होती है, वैसे ही तुम भी करो। पुत्र-जन्मदाता पति के समान मेरे शरीर में पैठो।
यम-हमने ऐसा कर्म कभी नहीं किया। हम सत्य-वक्ता हैं। कभी मिथ्याकथन नहीं किया है। अन्तरिक्ष में स्थिर गन्धर्व वा जल के धारक आदित्य और अन्तरिक्ष में ही रहने वाली योषा ( सूर्य की स्त्री सरण्यू ) हमारे माता-पिता हैं। इसलिए हम सहोदर बन्धु हैं । ऐसा सम्बन्ध उचित नहीं।
यमी-रूपकर्ता, शुभाशुभ प्रेरक, सर्वात्मक, दिव्य और जनक प्रजापति ने तो हमें गर्भावस्था में ही दम्पति बना दिया है। प्रजापति का कर्म कोई लुप्त नहीं कर सकता। हमारे इस सम्बन्ध को द्यावा-पृथिवी भी जानते हैं । जैसे एक शय्या पर पत्नी पति के पास अपनी देह का उद्घाटन करती है, वैसे ही तुम्हारे पास, यम, मैं अपने शरीर को प्रकाशित कर देती हूँ। तुम मेरी अभिलाषा करो। आओ, एक स्थान पर दोनों शयन करें रथ के दोनों चक्कों के समान हम एक कार्य में प्रवृत्त हों।
यम-देवों के जो गुप्तचर हैं, वे दिन रात विचरण करते हैं, उनकी आँखें कभी बन्द नहीं होती। दुखदायिनी यमी, शीघ्र दूसरे के पास जाओ, और रथ के चक्कों के समान उसके साथ एक कार्य करो । इत्यादि।
ऋग्वेद के वृषाकपि सूक्त (१०.८६) में जो इन्द्राणी और वृषाकपि के उत्तरप्रत्युत्तर पाये जाते हैं तथा इन्द्राणी ने उसके विरुद्ध इन्द्र से जो शिकायत की है उसमें भी प्रेम के प्रस्ताव, अस्वीकार और बदले में विनाश की भावना पायी जाती है । यथा