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२२२ नयनन्दि विरचित
[८. ३०. ३०. अभया का अन्तिम प्रलोभन और धमकी अभी भी मैं तुझ पर अनुराग रखती हूं। मैं जन्म भर तेरे पैरों को नहीं छोडूगी। अभी भी तू विषय सुख का उपभोग कर। भला, कह तो, मोक्ष को किसने जाकर देखा है ? अथवा, यदि तू किसी कारणवश आज मेरी अवहेलना करता है, तो ले, कल तेरा कार्य सिद्ध ( समाप्त ) हो। यदि इतना ही ताप मैं तुझे न दं; यदि तुझे सगोत्र क्षय को न पहुंचा दूं, तो में बेचारी अभया नाम ही न रखू ( अर्थात् छोड़ दू)। मैं अब पूर्ववत् पातिव्रत सेवी ( या पति के पदों की सेविका) हो गई । अतः यदि मैं तेरा नाश न कर डालू , तो सब लोगों के देखते हुए मैं अपने आप फांसी पर लटक कर मर जाउंगी। बहुत क्या ? अब मैं स्त्री-ढाढ़स ( साहस ) करके दिखाती हूं। मरकर भी मैं तुझे छोडूगी नहीं। फिर भी मैं तेरा घोर उपसर्ग करूंगी। इस प्रकार पुनः पुनः खूब कहकर वह सुन्दरी अपने शयन पर जा पड़ी। वह राजरानी ऐसी प्रतीत हुई जैसे मानों नागिनी निष्पंद पड़ी हो ।
३१. सुदर्शन और अभया को विरोधी मानसिक दशाएं
तब यहां सुदर्शन अपने कर्तव्य का विचार करने लगा; उधर अभया सोचने लगी मैं इस मनोज्ञ का रमण न कर पाई। सुदर्शन सोचता, जल जाय यह नारी; अभया सोचती, यह मेरे सुख का शत्रु हुआ। सुदर्शन सोचता, मैं उबर जाऊं अभया सोचती, इस सुन्दर को पकड़ रखू। सुदर्शन कमों के नाश करने की बात सोचता: अभया रति अभिलाषा की बात सोचती। सुदर्शन ज्ञान लाभ की बात सोचता ; अभया सोचती, मेरे अंग में दाह हो रहा है। सुदर्शन मोक्ष मार्ग की चिन्ता करता ; अभया चिन्ता करती मैं भोग न भोग सकी। सुदर्शन विचारता कि मैं कर्म का क्षय करू'; अभया सोचती, मैंने अधर्म किया। सुदर्शन सोचता कि जग अनित्य है; अभया चिन्ता करती कि मेरी मृत्यु आ पहुची। सुदर्शन हृदय में विचारता, रे जीव, तु दुराचारिणी के साहस की अवहेलना कर; तथा अतिशयों और कल्याणकों से युक्त अर्हन्तों की आराधना कर ।
३२. सम्यक्चारित्र की दुर्लभता ___ पाताल में शेषनाग का पाना सुलभ है। कामातुर के विरह की दाह सुलभ है। नया मेघ आने पर जल का प्रवाह सुलभ है। हीरों की खान में हीरे की प्राप्ति सुलभ है। काश्मीर में केशरपिंड सुलभ है। मानसरोवर में कमलपंड सुलभ है। नाना द्वीपों में विविध भांड सुलभ हैं। पाषाण से हिरण्य खंड पाना सुलभ है। मलयाचल में सुगंधयुक्त वायु सुलभ है। गगनांगन में तारापुंज सुलभ है। स्वामी का कार्य कर देने पर उसका प्रसाद सुलभ है। इर्ष्यालु व्यक्ति में कपाय सुलभ है। रविकांत मणिद्वारा अग्नि सुलभ है। उत्तम लक्षण शास्त्र