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नयनन्दि विरचित
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का राजहंस, निर्मत्सर व बुद्धिमान लोगों की प्रशंसा को प्राप्त करनेवाला होगा । फिर वह साधु होकर एवं उपसर्ग सहन कर ध्यान के द्वारा मोक्ष प्राप्त करेगा । यह सुनकर वे दोनों पति-पत्नी मन में हर्षित हुए, और जिनेन्द्र तथा मुनिराज को नमस्कार करके अपने घर लौट आए। वहां वह गोप उस प्रकार निदान करके मरने पर उस सेठ की प्रियपत्नी के उदर में अवतार लेकर रहा। वहां गर्भ में स्थित वह ऐसा शोभायमान हुआ जैसे आकाश में स्थित रवि, कमलिनी पत्र पर जल अथवा सघन सीप की पुट में अनुपम मुक्ताफल ।
३. सुदर्शन का जन्म
जैसे दूसरों की ऋद्धि को देखकर दुर्जनों का मुख काला पड़ जाता है, वैसे ही उस गर्भिणी सेठानी के दोनों स्तन कृष्णवर्ण हो गये । उसका मुख चन्द्र को जीतता हुआ ऐसा शोभायमान था, जैसे मानों अपने गर्भस्थित पुत्र के यश से उज्ज्वल हो उठा हो । चलने में उसकी गति मन्द हो गई, और बोलने में उसकी वाणी सूक्ष्म । उसके आठों अंग ऐसे शिथिल हो गये कि क्षण-क्षण उसके शरीर में स्खलन प्रकट दिखाई देता था । उसे जिनाभिषेक अच्छे दान आदि विवेकपूर्ण दोहले उत्पन्न होने लगे । फिर पौष मास आने पर व शुक्लपक्ष होने पर चतुर्थी तिथि से संयुक्त बुधवार के दिन शतभिषा नक्षत्र, वरियाण योग, ववा नामक प्रधान प्रथम करण के होने पर व पांच अंश छोड़ नौ मास पूरे होने पर, विशेष पुण्य के प्रभाव से उसे पुत्र उत्पन्न हुआ, मानों जीवगणों को विशाल पाताल ( अधोगति ) में गिरते हुए देखकर दुःख और पाप का नाश करनेवाला स्वयं धर्म मनुष्य होकर अवतीर्ण हुआ हो ।
४. सेठ के घर पुत्र जन्मोत्सव
वहां उस सुन्दर लक्ष्मी से सुशोभित सेठ के घर अत्यन्त प्रसन्नमुख, पूर्ण पात्र से युक्त, आनन्दध्वनि करते हुए मनोहर प्रजाजनों की कतार बंध गई । नाना प्रवृत्तियों वाले चट्ट, भट्ट और पुरोहित मिल कर आये। वहां ऐसे बाजे बजने लगे जिनमें जोरदार नगाड़ों की ध्वनि भी थी एवं मृदंगों और कंसालों की ताल भी । करड और टिविल की ध्वनि भी थी, एवं बांसुरी और वीणा का नाद भी था । इस वाद्यध्वनि से नगर भर के मयूर नाच उठे, समस्त दिशाओं के मुख भर गये और विरहिणी स्त्रियों का मन झूरने लगा । स रि ग म प ध नी इन सप्त स्वरों से संयुक्त, किन्नरों द्वारा प्रशंसनीय अमृत के समान गायकों का गान भी प्रारंभ हो गया । गज के समान सुमन्दगामी, सुन्दर और विशाल नितंबों से युक्त, उन्नत स्तन, चन्द्रमुखी नारिवृन्द नृत्य करने लगा । दुर्जनों के शिर का शूल और सज्जनों के आनन्द का मूल, मंगनों ( भिखारियों ) का अविरल कोलाहल फैलने लगा । सेठ जिनेन्द्र भगवान को सिर नवा कर नमस्कार करता हुआ दान देने लगा । ( यह आठ यतियों से युक्त मालिनी छन्द कहा गया है ।) उस श्रेष्ठ वणिक् ने सन्तुष्ट