________________
६. २३] . सुदर्शन-चरित
२४१ जांय वही पंथ है ( महाजनो येन गतः स पन्थाः )। मैंने उसी समय प्रतिज्ञा कर ली थी कि यदि इस उपसर्ग से छूट गया, तो मैं दिगम्बरी दीक्षा ले लूँगा और पाणिपात्र में ( हाथों में ) भोजन करूँगा।
२३. राजा द्वारा सुदर्शन की स्तुति सुदर्शन के इस प्रकार वचन सुनकर गूंगे के समान निरुत्तर हुआ वह सपरिग्रह नरेश इस प्रकार वर्णन करने लगा। परमात्म की भावना करनेवाले, वंदारक-वृन्द द्वारा वंदितपद, हे वणीन्द्र, तुम्हारे सदृश पुरुष ही तो जिनेन्द्र कहलाता है। तुम्हारे समस्त गुणों का वर्णन कौन कर सकता है ? लोग मोहग्रस्त होकर घरगृहस्थी का पालन करते हैं। वे कुछ भी पाप का विचार नहीं करते। दूसरों को धोखा देते हैं; कृषि, कबाड़ व सेवा को ही अच्छा मानते हैं; तप के नाम से उनके शरीर में ज्वर चढ़ आता है। (ऐसा लोक स्वभाव होते हुए भी ) जो कोई प्राप्त हुई अपनी सम्पदा का त्याग कर महाव्रत लेता है, वह धन्य है। (इस प्रकार सुदर्शन का गुणगान करके ) जब राजा नगर में वापिस आया, तब इसी बीच, रस्सी की फांसी बनाकर और वृक्ष से लटककर अभया ने आत्मघात कर लिया। इस प्रकार मरकर वह पाटलिपुत्र नगर में व्यंतरी उत्पन्न हुई। पंडिता भी अपने मन में संत्रस्त होकर, शीघ्र ही उसी पाटलिपुत्र की ओर भाग गई। वहाँ पहुँचकर पंडिता देवदत्ता गणिका के घर रहने लगी। इस प्रकार समवसरण में जिनेन्द्र के प्रत्यक्ष, नयों का आनन्द लेनेवाले गौतम गणि ने व्याख्यान किया।
इति माणिक्यनंदि विद्यके शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित, पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करनेवाले, सुदर्शनचरित में, महासंग्राम समाप्त हो जाने पर, राजा का वणिग्वर को राज्यश्री समर्पित करना, सुदर्शन द्वारा उसका ग्रहण नहीं किया जाना, अभया का मरकर व्यंतरी उत्पन्न होना, व पंडिता का पाटलिपुत्र नगर में जाना, इनका वर्णन करनेवाली नौंवी संधि समाप्त ।
॥ संधि ९॥