Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनन और - मूल्यांकन EHIBRAIPTE Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनन का प्रयोजन है स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना । अतीत की अभिसंधि परोक्ष के साथ जुड़ी हुई है। चिन्तन के कण पूरे आकाश-मण्डल में बिखरे पड़े हैं। उनकी उपलब्धि का उपाय हैमनन और मूल्यांकन । मनन और मूल्यांकन में अतीत के साथ संपर्क स्थापित करने का एक विनम्र आयास है। विषय की गहराई में डुबकी लगाने वालों के लिए विषय-वस्तु मन की सीमा से परे नहीं होगी। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनन और मूल्यांकन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनन और न मूल्योक वाचार्य महाप्रज्ञ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक : मुनि दुलहराज © आदर्श साहित्य संघ, चूरू श्री मोतीलाल पुखराज सुखलाल डूंगरवाल कुंवाथल - दहीसर के आर्थिक सौजन्य से प्रकाशित मूल्य : बारह रुपये / प्रथम संस्करण : १९८३ / प्रकाशक : कमलेश चतुर्वेदी, प्रबन्धक - आदर्श साहित्य संघ, चूरू ( राजस्थान ) / मुद्रक : गणेश कम्पोजिंग एजेंसी द्वारा रूपाभ प्रिंटर्स, दिल्ली - ३२ MANAN AUR MOOLYANKAN by Yuvacharya Mahaprajna Rs. 12.00 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति क्षितिज के उस पार जो है, उसे देखना चाहता हूं। यह चाह शाश्वत चाह है। मनुष्य ने आर की अपेक्षा पार को अधिक महत्त्व दिया है। परोक्ष को प्रत्यक्ष करने की चाह केवल श्रवण या महत्त्व से पूरी नहीं होती, वह पूरी होती है मनन और मूल्यांकन के द्वारा। मूल्यांकन के अनेक कोण और अनेक बिन्दु हमारे सामने हैं। पर हमारे चरण श्रवण के पास आ ठिठुर जाते हैं और हम असहाय बने हुए फिर स्थूल की शरण में चले जाते हैं। ___मनन का प्रयोजन है स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना। अतीत की अभिसंधि परोक्ष के साथ जुड़ी हुई है। चिन्तन के कण पूरे आकाश-मण्डल में बिखरे पड़े हैं। उनकी उपलब्धि का उपाय है—मनन और मूल्यांकन। मनन और मूल्यांकन में अतीत के साथ संपर्क स्थापित करने का एक विनम्र आयास है। आचार्यश्री तुलसी अतीत और वर्तमान में सामंजस्य स्थापित करने की कला में दक्ष हैं। उनकी दक्षता पूरे संघ में संक्रान्त है। उसका मैंने उपयोग किया है। इसके संपादन में मुनि दुलहराजजी को श्रमपूर्ण निष्ठा प्रज्वलित है। विषय की गहराई में डुबकी लगाने वालों के लिए विषय-वस्तु मन की सीमा से परे नहीं होगी। राणावास "१-११-१९८२ युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. आचार संहिता की पृष्ठभूमि २. संबोधि और अहिंसा ३. आचार का पहला सूत्र ४. अहिंसा और अनेकान्त अनुक्रम ५. आत्म-तुला और मानसिक - अहिंसा ६. आचारशास्त्र के आधारभूत तत्त्व ( १ ) ७. आचारशास्त्र के आधार भूत तत्त्व ( २ ) ८. योगदर्शन का हृदय ६. विभूतिपाद १०. जैन साहित्य में चैतन्य- केन्द्र ११. संस्कृत साहित्य : एक विहंगावलोकन १२. मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र १३. नमस्कार महामन्त्र का मूल स्रोत और कर्त्ता १४. प्रज्ञा और प्रज्ञ १५. अतीन्द्रिय चेतना १६. जैन साहित्य के आलोक में गीता का अध्ययन १७. आत्मा का अस्तित्व १ ६ १७ २४ ३१ ३६ ४६ ५७ ६७ ७८ ८५ ६४ १०२ १०८ ११२ ११७ १२५ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्राचार-संहिता की पृष्ठभूमि कोई भी आधार निश्चित होता है तो उस पर विचार किया जाता है। आधार का निश्चय हुए बिना कोई आचार-संहिता नहीं बन सकती। अनात्मवाद के आधार पर कोई दार्शनिक दृष्टि चलती है तो उसके अनुसार बनने वाली आचार-संहिता एक प्रकार की होगी और आत्मवाद के आधार पर बनने वाली आचार-संहिता दूसरे प्रकार की होगी। आचारांग सूत्र में सबसे पहले इस प्रश्न पर विचार किया गया है कि जो आचार निरूपित किया जा रहा है, उसका आधार क्या है ? इस चिन्तन से आत्माको प्रस्तुत किया गया। हमारी जो भी आचार-संहिता है, उसका आधार है- आत्मा। सबसे पहले आत्मा का अवबोध होना चाहिए, आत्मा का ज्ञान होना चाहिए। जिसे आत्मा का ज्ञान नहीं होता, उसका यह आचार नहीं हो सकता। आत्मा एक अमूर्त तत्त्व है। वह दृष्ट नहीं है। हर व्यक्ति उसे देख नहीं पाता। इसी सत्य को भगवान् महावीर ने निरूपित करते हुए कहा, “बहुत सारे व्यक्ति ऐसे होते हैं जिन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि मैं कौन हूं? मैं कहां से आया हूं? यहां से मर कर कहां जाऊंगा? किस दिशा से-पूर्व से, पश्चिम से, उत्तर से, दक्षिण से, ऊर्ध्व दिशा से या अधो दिशा से-आया हूं? या मैं किसी अनुदिशा से आया हूं? ये अठारह दिशाएं हैं-चार दिशाएं, चार विदिशाएं, आठ अनुदिशाएं और ऊंची-नीची दिशा । मैं किस दिशा से आया हूं?—यह सब उसे ज्ञात नहीं होता। जब तक यह सारा ज्ञात नहीं होता, तब तक आत्मा का बोध नहीं हो सकता। आत्मा के बोध का एक स्पष्ट लक्षण है-पूर्वजन्म । जब पूर्वजन्म या पुनर्जन्म ज्ञात हो जाता है तब आत्मा के विषय में कोई संदेह नहीं रहता। . ___ आत्मवाद और अनात्मवाद की एक मुख्य भेद-रेखा है। अनात्मवाद की स्वीकृति है—इस जीवन से पहले कुछ नहीं था और इस जीवन के बाद कुछ नहीं होगा। हमारा अस्तित्व या हमारी चेतना केवल वर्तमान में ही है। आत्मवाद आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व को स्वीकृति देता है। जब आत्मा का अस्तित्व पूर्वकाल में भी था, उसका अस्तित्व उत्तरकाल में भी होगा, वह वर्तमान में भी है, इसलिए उसका कालिक अस्तित्व है। इस त्रैकालिक अस्तित्व का बोध ही आत्मवाद है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ मनन और मूल्यांकन जिसे यह ज्ञात हो जाता है कि मैं कहां से आया हूं, फिर आत्मा के बारे में कोई प्रश्न शेष नहीं रहता। इसलिए सबसे पहले इसी प्रश्न पर विचार किया गया कि बहुत लोग नहीं जानते कि वे कहां से आये हैं, इसलिए वे आत्मा के बारे में निश्चय नहीं कर पाते। जब यह पता नहीं होता कि मैं कहां से आया हूं तो यह पता भी नहीं होता कि मैं कौन हूं? मैं कहां जाऊंगा? ये तीनों बातें ज्ञात नहीं होतीं। जब इन तीनों बातों की जानकारी नहीं होती तो वह किसी भी निर्णय पर नहीं पहुंचता। उसका कोई आचार भी होगा तो वह केवल वार्तमानिक होगा। वर्तमान का जीवन, सामाजिक जीवन, किस प्रकार सुविधा से चल सके, उसी को लक्ष्य में रखकर आचार का निर्धारण होगा। - आचार के निर्धारण का एक दृष्टिकोण है-उपयोगितावाद और दूसरा दृष्टिकोण है-वास्तविकतावाद । उपयोगितावादी दृष्टिकोण यह होगा कि जो वर्तमान में हमारे लिए उपयोगी है, वही किया जाए। किन्तु बहुत से ऐसे कार्य हैं जो वर्तमान में उपयोगी नहीं हैं, अनुपयोगी होते हुए भी हमारे मूल उद्देश्य के लिए बहुत हितकर हैं। उन हितकर कर्मों का भी निर्धारण किया जाएगा। इसलिए आज विज्ञान के क्षेत्र में आत्मा के विषय में खोज हो रही है। बहुत सारे लोग सोचते हैं कि यदि आत्मा उपलब्ध हो गया तो चिन्तन की धारा ही बदल जाएगी, सारा दृष्टिकोण बदल जाएगा और फिर आचार का आधार ही बदल जाएगा। ऐसी स्थिति में मानव के सारे क्रियाकलापों का जो मूल दर्शन है, उसमें भी परिवर्तन आ जाएगा। अतः इस मूल प्रश्न का स्पर्श किया गया और यह निष्कर्ष निकाला गया कि आत्मा को जानने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे अव्याकृत कहकर नहीं छोड़ देना चाहिए। एक प्रश्न हो सकता है-क्या आत्मा को जाना जा सकता है ? इसका उत्तर हैहां, आत्मा को जाना जा सकता है। उसको जानने के तीन हेतु बन सकते icitic १. साधना करते-करते अतीन्द्रिय ज्ञान विकसित हो सकता है। उससे आत्म-साक्षात्कार हो सकता है। २. यदि साधना करने पर भी अपनी मति विकसित न हो तो प्रयत्न नहीं छोड़ना चाहिए। दूसरों को पूछते रहना चाहिए कि मैं कहां से आया हूं? मैं कौन हूं ? मैं कहां जाऊंगा? ये प्रश्न दोहराते रहना चाहिए । जब यह ज्ञात हो जाए कि अमुक व्यक्ति अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न है, उसके पास जाकर ये प्रश्न पूछने चाहिए। ३. किसी व्यक्ति को अतीन्द्रिय ज्ञानी से मिलने का अवसर मिला हो, वैसे व्यक्ति से सम्पर्क कर उन प्रश्नों का समाधान करना चाहिए। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षेप में तीन हेतु ये हैं१. स्वयं का ज्ञान । २. दूसरे का ज्ञान । ३. दूसरे के द्वारा निरूपित किसी व्यक्ति से सुना हुआ ज्ञान । इन तीनों माध्यमों से अपने अस्तित्व के बारे में जानने का प्रयत्न करना चाहिए । जब यह ज्ञात हो जाता है कि मैं कौन हूं ? मैं कहां से आया हूं ? मैं कहां जाऊंगा ? तब आगे की रेखाएं स्पष्ट हो जाती हैं । महावीर ने इस भूमिका में उस सिद्धान्तको आधार बनाया -- केवल अग्र का ही नहीं, मूल का भी स्पर्श करना चाहिए। उस समय दो तरह की विचारधाराएं चल रही थीं । एक थी अग्रवादी धारा और दूसरी थी मूलवादी धारा । अग्रवादी विचारधारा केवल वर्तमान की विचारधारा है। उसके अनुसार वर्तमान में जो है, उसे देखो । दुःख है तो दुःख को देखो, जानो और काटो । इस बात पर चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं है कि दुःख कहां से आया ? बाण लगा है तो उसका उपचार करो। किन्तु बाण किसने फेंका ?इस बात पर जाओगे तो उसका उपचार नहीं हो सकेगा । लेकिन महावीर इस बात से सहमत नहीं थे । उन्होंने कहा- -जब तक यह विचार नहीं करोगे कि बाण किसने फेंका, कहां से आया, तब तक केवल वर्तमान का उपचार करने पर समस्या सुलझेगी नहीं । बाण आते ही रहेंगे । एक आया, दूसरा और तीसरा आया तो चौथा भी आ सकता है । उन्होंने दो उदाहरणों द्वारा इस तथ्य को समझाया। उन्होंने कहा- - दो प्रकार की वृत्ति होती है। एक है श्वावृत्ति और दूसरी है सिंहवृत्ति । कुत्ते के सामने ढेला फेंकने पर वह ढेले को चाटने लग जाता है। वह उसकी चिन्ता नहीं करता कि ढेला किसने फेंका ? क्यों फेंका ? वह केवल वर्तमान की घटना को देखता है। सिंह की ओर गोली दागो । वह गोली पर ध्यान देने की अपेक्षा उस ओर ध्यान अधिक देगा कि गोली किसने दागी ? वह उसी ओर आक्रमण करेगा । वह जानता है, एक गोली आई है तो दूसरी, तीसरी भी आ सकती है । वह मूल को खोजता है । यह है— सिंहवृत्ति । आचार संहिता की पृष्ठभूमि ३ - भगवान् महावीर ने कहा, "अग्र को भी देखो और मूल को भी देखो ।” उन्होंने दोनों का समन्वय किया । उन्होंने सुझाया, “वर्तमान को देखना ही पर्याप्त नहीं है। घटना के मूल स्रोत को जानना भी आवश्यक है, इस पर भी ध्यान देना है, और दुःख के हेतु क्या हैं— इस पर भी ध्यान देना आवश्यक है ।" अग्र और मूल- -दोनों पर विचार करना चाहिए। अग्र है वर्तमान और मूल है उसका हेतु । दोनों पर विचार करना है तो इस प्रश्न का समाधान पाना आवश्यक है कि आत्मा क्या है ? वह कहां से आता है ? मैं कौन हूं ? मैं कहां से आया हूं ? मुझे कहां जाना है ? जब ये जान लिये जाते हैं, उन उपायों के द्वारा जो पूर्व निर्दिष्ट हैं, तब मूलभूत प्रश्न समाहित हो जाता है और उसके साथ-साथ दूसरे अनेक प्रश्न भी उत्तरित हो जाते Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ मनन और मूल्यांका हैं। जैसे ही आत्मा है, मैं हं, मैं चैतन्य हूं, मैं पहले भी था और बाद में भी होऊंगायह स्पष्ट हो जाता है तो उसके साथ अनेक समस्याएं समाहित हो जाती हैं। दूसरी बात है-मैं अनुसंचरण करने वाला हूं, इस संसार-चक्र में भ्रमण करने वाला हूं। मैं पहले अमुक-अमुक था। बाद में अमुक-अमुफ होऊंगा। यह जो अमुक-अमुक रूपों में परिवर्तन होता है, वह सब कर्मों के कारण होता है। इस स्थिति में दूसरा प्रश्न उभरता है कि कर्म का बंध क्यों होता है ? प्राणी कर्म क्यों करता है ? - कर्म का बंध इसलिए होता है कि मैं अक्रिय नहीं हूं। मुझमें क्रिया है । अकरिस्सं चहं, कारवेसुं चहं, करो यावि समणुण्णे भविस्सामि--- मैंने क्रिया की थी, करवाई थी। मैं क्रिया करता हूं, करवाता हूं और करने वाले का अनुमोदन करता हैं। मैं क्रिया करूंगा, करवाऊंगा और करने वाले का अनुमोदन करूंगा। मुझमें क्रिया है, क्योंकि कषाय है। क्रिया है, इसलिए आस्रव हैं। बाहर से मैं कुछ खींचता हूं, आकर्षित करता हूं। वे निजातीय तत्त्व मुझे प्रभावित करते हैं, मैं उनसे प्रभावित होता हूं और उनके प्रभाव से बंध जाता हूँ। उनके द्वारा बंधा हुआ हूं, इसलिए उनके द्वारा संचालित होता हूं। मैं बार-बार जन्म-मरण की यात्रा करता हूँ, अनुसंचरण करता हूं और नाना योनियों में परिभ्रमण करता हूं। ___ आत्मा है-यह स्पष्ट हो जाने पर कर्म है, क्रिया है, अनुसंचरण है, पुनर्जन्म और पूर्वजन्म है ये सब स्पष्ट हो जाते हैं। भगवान् महावीर ने मूलतः जिन तत्त्वों का प्रतिपादन किया उनकी सम्यक् जानकारी प्रारभ के आत्मसूत्र में हमें प्राप्त हो जाती है। इससे आगे का.एक सूत्र है-से आयावाई, लोयावाई, कम्मावाई, किरियावाई-जो अनुसंचरण को जान लेता है वह आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है। सबसे पहला है-आत्मवाद । आत्मा ज्ञात हो जाने पर यह ज्ञात हो जाता है -लोक है। लोक का अर्थ है-पुद्गल । पुद्गल दृश्य है । लोक्यते इति लोकःजो दृष्ट होता है, वह लोक है। पुद्गल देखा जाता है, इसलिए उसे लोक कहा गया है। शेष द्रव्य दृष्ट नहीं होते। जो आत्मा को जान लेता हैं, वह पुद्गल को जान नेता है । जो आत्मवादी है, वह लोकवादी है। वह आत्मा और पुद्गल, चेतन और अचेतन--दोनों को जान लेता है। निष्कर्ष यह निकला कि केवल चेतन ही नहीं है। यदि केवल चेतन ही होता तो परिभ्रमण का कोई कारण ही नहीं होता। केवल पुद्गल ही होता तो भी परिभ्रमण का कोई प्रश्न नहीं उठता। दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। आत्मा भी है और पुद्गल भी है। आत्मवाद और लोकवाद--इन दो वादों की स्थापना हो गई। आत्मा भी हो और पुद्गल भी हो, किन्तु यदि उनमें कोई सम्बन्ध न हो तो न Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-संहिता की पृष्ठभूमि ५ आत्मा पुद्गल को प्रभावित कर सकती है और न पुद्गल आत्मा को प्रभावित कर सकता है। तीसरी बात है-कर्म। कर्म पुद्गल है । आत्मा और कर्म का सम्बन्ध है। आत्मा और पुद्गल का सम्बन्ध है । आत्मा पुद्गल को प्रभावित करती है और पुद्गल आत्मा को प्रभावित करता है। आत्मा और पुद्गल का सम्बन्ध होता है । सम्बन्ध का हेतु है-क्रिया। यह चौथी बात है। सम्बन्ध क्रिया और प्रकृति के द्वारा स्थापित होता है । अक्रिय अवस्था में कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता । जैसे-जैसे कषाय क्षीण होते हैं, कषाय का संवरण होता है, आत्मा शुद्ध होता है, अक्रिया आती है तब पुद्गल और आत्मा का सम्बन्ध क्षीण होने लगता है। जब पूर्ण अक्रिया की स्थिति घटित होती है तब सारे सम्बन्ध क्षीण हो जाते हैं । ___आत्मा आत्मा है और पुद्गल पुद्गल । अस्तित्व दोनों का है। दोनों का अस्तित्व रहता है, पर सम्बन्ध नहीं रहता। वह क्रिया की स्थिति में ही होता है। अक्रिया की स्थिति में वह सेतु टूट जाता है। इस प्रकार ये चार वाद-आत्मबाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावादफलित होते हैं। अब 'सोऽहं!' 'मैं वह हूं'---यह प्रत्यभिज्ञा होती है, अस्तित्व की स्मृति होती है, तब आत्मा पुष्ट होता है और ये चार वाद इसके आधार बन जाते हैं। समूचे आचार के आधारभूत तत्व ये चार बाद हैं। पर्याय दो प्रकार के होते हैं-स्वाभाविक पर्याय और सापेक्षिक या सांयोगिक पर्याय । स्वाभाविक पर्याय प्रत्येक में होते हैं। मूर्त में भी होते हैं और अमूर्त में भी होते हैं। सापेक्षिक या सांयोगिक पर्याय केवल जीव और पुद्गल में ही होते हैं। ये व्यंजन पर्याय हैं, स्थूल पर्याय हैं । ये ही परिवर्तन के हेतुभूत हैं । अन्य चार द्रव्योंधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल- इनमें ये व्यञ्जन पर्याय नहीं होते। केवल स्वाभाविक पर्याय ही होते हैं। पुद्गल के योग से आत्मा अनेक रूप लेती है-कभी कुछ बन जाती है, कभी कुछ बन जाती है। आत्मा के योग से पुद्गल विशेष प्रकार के रूप लेते हैं। जीव और पुद्गल के व्यञ्जन पर्याय ही हमारे सामने आते हैं। उन पर्यायों के कारण ही जीव का नाना गतियों में अनुसंचरण होता है। यहां अस्तित्व की बात नहीं, शुद्ध आत्मा की बात नहीं की गई है। आत्मा का स्वरूप क्या है-यह इसका प्रतिपाद्य नहीं है। इसका प्रतिपाद्य यह है कि जो संसार मे भ्रमण कर रहा है, वह क्या है ? जो अनुसंचरण कर रहा है वह चैतन्य की शुद्ध सत्ता नहीं है । शुद्ध सत्ता अभी तक बनी नहीं है । वह अशुद्ध है । यह आत्मा और पुद्गल की सांयोगिक दशा है। इसीलिए यह अनुसंचरण हो रहा है। 'सोऽहं' 'सोऽहं' की प्रत्यभिज्ञा में शुद्ध सत्ता की स्मृति नहीं है। मैं वह हूं जो Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ मनन और मूल्यांकन अनुसचरण करता है। जो दिशाओं और विदिशाओं में अनुसंचरण करता है, परिभ्रमण कर रहा है वह मैं हं । अब प्रश्न यह उठता है कि 'मैं हूँ और अनुसंचरण पुद्गल के योग से कर रहा हूं, क्रिया और कर्म के कारण कर रहा हूं, तो क्या इस अनुसंचरण को बंद किया जा सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि अनुसंचरण को रोका जा सकता है। जब अनुसंचरण, कर्म और बंध के हेतुआस्रव का ज्ञान हो जाता है तब आस्रव के साथ-साथ संवर का भी ज्ञान हो जाता है। इन कर्म-समारंभों और क्रियाओं को रोका जा सके तो कर्म-बंध को रोका जा सकता है। जब अनुसंचरण रुक जाता है तो स्वाभाविक सत्ता और स्वाभाविक स्थिरता प्राप्त की जा सकती है। समूचे आलापक में आत्मा, पुद्गल (अजीव), कर्म अर्थात् कर्म की तीन अवस्थाएं-बंध, पुण्य और पाप तथा आस्रव और संवर-ये सात तत्त्व फलित होते हैं। महावीर ने सबसे पहले नौ तत्वों का विवेचन किया। यह आचारांग के आधार पर कहा जा सकता है। पंचास्तिकाय या षट् द्रव्य का प्रतिपादन इसके अनन्तर हुआ। मूल तत्त्व नौ हैं। साधना के क्षेत्र में षट् द्रव्यों या पंचास्तिकाय का कोई विशेष प्रयोजन नहीं है । साधना के क्षेत्र में नौ तत्त्वों का ही प्रयोजन है और उन्हीं के आधार पर सारी आचार-व्यवस्था बनी है। षट् द्रव्य का निरूपण जगत्व्यवस्था के सम्बन्ध में हो सकता है। यहां उसका विशेष प्रयोजन नहीं है। कर्म को हम एक तत्त्व माने या विस्तार में उसके तीन भाग मान लें-बंध, पुण्य और . पाप। एक अव्याकृत, अज्ञात आत्मा को जान लेने पर दुःख क्या है ? दुःख क्यों है ? दुःख को कैसे रोका जा सकता है ?-ये तीनों प्रश्न एक साथ समाहित हो जाते हैं। जैसे 'चित्तवृत्ति-निरोध' से योग का प्रारंभ होता है, वैसे ही 'आस्रव-निरोध' से आत्मवाद का या आचारांग में निरूपित आचार का प्रारंभ होता है। . (आचारांग के आधार पर-पहला प्रवचन-लाडनूं १२-१२-७७) जिज्ञासा : समाधान प्रश्न : महावीर से पहले दर्शन के क्षेत्र में यह जिज्ञासा उठती रही है कि संसार की उत्पत्ति कैसे हई ? यही जिज्ञासा वैदिक और यूनानी दर्शन में भी प्राप्त होती है। इस मौलिक तत्त्व को खोजने का प्रयत्न हुआ कि सृष्टि का मूल क्या है ? किन्तु महावीर ने यह नहीं खोजा कि सृष्टि कहां से उत्पन्न हुई है? उन्होंने खोजा थाजीव कहां से आया है ? ये तो भिन्न खोजों की बातें हैं। एक कहता है-सृष्टि कहां से आई और दूसरा कहता है-जीव कहां से आया ? इन दोनों में मौलिक भेद क्या है ? Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार संहिता की पृष्ठभूमि ७ उत्तर : जहां विश्व के आदि बिन्दु के विषय में जिज्ञासा होती है तो यही प्रश्न होगा कि जगत् क्या है ? सृष्टि क्या है ? यह जगत् कहां से आया ? किन्तु जहां o आचार की पृष्ठभूमि की मीमांमा करते हैं वहां यह अस्तित्ववादी प्रश्न नहीं जगत् कहां से आया ? जगत् क्या है ? आचारांग में वस्तुत्ववादी विचारधारा के अनुसार आचार के आधार के रूप में यह सारा निरूपण किया गया है । इसलिए जीव कहां से आया- यहां यही खोज प्रासंगिक है । यह खोज अस्तित्ववादी खोज के उत्तरकाल में होने वाली खोज है । प्रश्न : जाति-स्मृति और पुनर्जन्म का प्रतिपादन तो महात्मा बुद्ध ने भी किया है, फिर भी उन्होंने आत्मा को अव्याकृत कहा । उसमें क्या भेद रहा होगा ? महावीर के आत्म-दर्शन और जाति-स्मृति के जानने में और महात्मा बुद्ध के जानने में- दोनों की क्या दृष्टि थी ? उत्तर : इस विषय में महात्मा बुद्ध का यह चिन्तन रहा कि सामान्य व्यक्ति आत्मा जैसे अमूर्त-तत्त्व के विषय में उलझे नहीं । उसके लिए तो इतना ही पर्याप्त है कि वह दुःख को दूर करता रहे, वासना और तृष्णा को मिटाता रहे और समाधि तथा स्थिरता में रहे। यह बुद्ध की दृष्टि करुणाप्रद थी । वे वर्तमान के दुःखोच्छेद बात कहते थे । आत्मा जैसे अमूर्त-तत्त्व को समझने की आवश्यकता ही नहीं है । अतः उन्होंने इसे अव्याकृत कहा । महावीर ने कहा- जब तक स्वयं के अनुभव में यह बात नहीं आएगी कि मैं कौन हूं, तब तक उसे कितना ही समझाएं, उसकी आस्था जमेगी नहीं । जब कोई एक अनुभव हो जाता है तब उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती । वह स्वयं योग में प्रवृत्त हो जाता है । आचार्य का कर्तव्य यह है कि पहले उसे थोड़ा अनुभव करा दें । महावीर का दृष्टिकोण था कि उसे आत्मा का अनुभव हो; इसलिए वे जाति-स्मृति का प्रयोग बताते । स्वयं समाधान कर सको तो करो, अन्यथा विशिष्टज्ञानी हो उसके पास जाकर समाधान लो । पहले यह समाधान लो कि आत्मा है, पुनर्जन्म है । यह अनुभव हो जाएगा तो आचार में व्यक्ति स्वयं प्रतिष्ठित हो जाएगा । प्रश्न : महावीर की दृष्टि में आत्मा किसका कर्त्ता है, पर-पदार्थों में परिणाम कर्त्ता आत्मा है या स्व के परिणामों का कर्त्ता आत्मा है ? उत्तर : आत्मा स्व के परिणमन का ही कर्त्ता है । दूसरे कर्तृत्व का कोई प्रश्न ही नहीं है । यह स्वाभाविक पर्याय है । यह प्रश्न सांख्य दर्शन के सन्दर्भ में भी उठ सकता है । अन्यथा जैन दृष्टि से विचार करें तो स्वपर्याय का कर्त्ता तो पुद्गल भी है । अगुरुलघु- पर्याय जो स्वाभाविक पर्याय है, छहों द्रव्य उसके कर्त्ता हैं । अतः स्वाभाविक पर्याय के कर्तृत्व का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता, फिर आत्म-कर्तृत्व का प्रश्न ही क्या है ? कर्तृत्व वही है जहां व्यञ्जन पर्यायों का निर्माण हो । व्यञ्जन पर्याय दूसरे के योग से ही होगा । पुद्गल के योग के बिना व्यंजन-पर्याय नहीं हो Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनन और मूल्यांकन सकता। यह कर्तृत्व की बात आत्मा में इसीलिए उठी कि आत्मा में ऐसी भी क्षमता है कि वह स्वाभाविक पर्याय के अतिरिक्त वैभाविक पर्याय का सृजन भी कर सकती है। ८ प्राण-शक्ति का कर्त्ता कौन है ? यह सारी प्राण-शक्ति और उसके आधार पर होने वाली मन, वचन और काया की प्रवृत्तियां -- इन सबका कर्त्ता मूल चैतन्य ही है । निश्चय नय से विचार करने वाले कहते हैं कि आत्मा अपने ही भावों का कर्त्ता है | कर्तृत्व का विचार भी दो दृष्टियों से हुआ है— उपादान की दृष्टि से और निमित्त की दृष्टि से । उपादान की दृष्टि से यह ठीक है कि कोई किसी का कर्ता नहीं है । जब हम मान लेते हैं कि आत्मा भी अनादि है तो फिर उपादन की दृष्टि किसी का नहीं है । कर्तृत्व आदि का विचार निमित्त की दृष्टि से है । आत्मा के कारण पुद्गल में परिवर्तन होता है और पुद्गल के कारण आत्मा में परिवर्तन होता है । अतः आत्म-कर्तृत्व अपने आप सिद्ध हो जाता है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. संबोधि और अहिंसा मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-आर्त और अनार्त। जिसकी चेतना इन्द्रिय और मन के स्तर पर ज्यादा काम करती है, केवल विषयों से संपृक्त रहती है, वह आर्त होता है। आर्त मनुष्य बोधि को सहज रूप में प्राप्त नहीं कर सकता। वह ज्ञान के स्तर पर जीता है। ऐसा मनुष्य आत्मा के आधार पर निर्धारित किए जाने वाले आचार का अनुशीलन नहीं कर पाता। जो आचार आत्मा को केन्द्र में रखकर निश्चित किया जाता है उसका पहला रूप बनता है—अहिंसा । आचार के निर्धारण में तीन सन्दर्भ जुड़ते हैं १. प्राणी जगत् के प्रति व्यवहार । २. पदार्थ के प्रति व्यवहार। ३. अपने प्रति व्यवहार । प्राणी जगत् के प्रति व्यवहार कैसा हो-इसका सम्बन्ध जुड़ता है अहिंसा से । पदार्थ के प्रति व्यवहार कैसा हो—इसका सम्बन्ध जुड़ता है अपरिग्रह से । अपने प्रति व्यवहार कैसा हो--इसका सम्बन्ध जुड़ता है आत्म-रमण से । आत्म-रमण के आधार पर आचार का निश्चय होता है। आचार का निश्चय जब प्राणी जगत् के सन्दर्भ में बनता है तब उसका पहला सूत्र बनता है--अहिंसा। अहिंसा को समझने के लिए चेतना की जो भूमिका चाहिए वह है-संबोधि । जब तक संबोधिस्तरीय चेतना जागृत नहीं होती तब तक अहिंसा के सिद्धान्त को समझा नहीं जा सकता। क्योंकि जहां इन्द्रिय और मन के स्तर पर चेतना का विकास होता है वहां इन्द्रिय और मन की लालसा की पूर्ति ही मुख्य बनती है और मानव यही चिन्तन करता है कि इन्द्रिय और मन को सुख और आनन्द मिले । इससे आगे उसका चिन्तन विकसित नहीं होता । वह यह सोच ही नहीं सकता कि इन्द्रिय और मन की तृप्ति से बड़ी कोई दूसरी सिद्धि हो सकती है। उसकी परिधि मात्र इन्द्रिय और मन ही रहता है। वह उस परिधि की परिक्रमा करता रहता है। वह मन और इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगा रहता है। इस स्थिति में वह आर्त बनता है। जब वह आर्त होता है तब प्रव्यथित रहता है। कभी भी उसकी व्यथा का शमन नहीं होता। व्यथा बनी ही रहती है। अपनी व्यथा को मिटाने के लिए वह Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० मनन और मूल्यांकन दूसरों को दुःख देता है, दूसरों का वध करता है, परिताप देता है, सताता है, दूसरों की उपेक्षा करता है। इन सब प्रवृत्तियों का मूल कारण है-उसकी आतुरता। आतुर व्यक्ति दूसरों को परिताप देते हैं-आतुरा परितार्वति (१-१४)। आतुर व्यक्ति तीन प्रकार के होते हैं-कामातुर, भयातुर और क्षुधातुर। काम से आतुर व्यक्ति वह होता है जिसके केवल मन और इन्द्रियां विकसित होती हैं, संबोधि और प्रज्ञा विकसित नहीं होती। भय से आतुर व्यक्ति वह होता है जिसकी बुद्धि केवल विषयों तक ही जाती है। केवल विषयों की परिक्रमा करने वाला सदा भयातुर होता है। उसमें यह आशंका बनी रहती है कि प्राप्त विषय कोई छीन न ले। यह भय उसे निरन्तर सताता रहता है। उसका सारा मानस भयाक्रान्त हो जाता है। भय से आतुर व्यक्ति दूसरों को परिताप देता है। . क्षुधा से आतुर व्यक्ति वह होता है जिसका मन सदा भूख की पूर्ति में ही लगा रहता है । वह दूसरों को परिताप देता है। तीनों वृत्तियां आतुरता पैदा करती हैं। वह आतुरता व्यक्ति को हिंसा के लिए प्रेरित करती है । आतुर हिंसा की बहुत बड़ी प्रेरणा है। यह आतुरता आदमी की अज्ञानपूर्ण मनःस्थिति और असंबोधि की मनःस्थिति के कारण उत्पन्न होती है। आर्त से असंबोधि को बल मिलता है। असंबोधि से अज्ञान को बल मिलत है । अज्ञान से व्यथा और आतुरता को बल मिलता है और वह व्यक्ति प्राणों का अतिपात-हिंसा करता है। यद्यपि इस संसार में सभी प्राणी वैसे ही हैं जैसी अपनी आत्मा है। लेकिन व्यक्ति अज्ञान और विषयासक्ति के कारण उन जीवों को नहीं जानता और जान लेने पर भी उन जीवों के प्रति वैसा व्यवहार नहीं करता। ____ लज्जमाणा पुढो पास (१-१५)-कुछ लोग ऐसे हैं जो संयम का व्यवहार नहीं करते । लज्जा का अर्थ है-संयम । सामान्य व्यक्तियों की बात हम छोड़ दें किन्तु कुछ ऐसे मनुष्य भी हैं जो अपने आपको अनगार कहते हैं, गृहत्यागी संन्यासी कहते हैं, वे लोग भी अहिंसा का पालन नहीं करते, संयम का पालन नहीं करते, क्योंकि उन्हें अभी संबोधि प्राप्त नहीं है । वे घर को छोड़कर कुछेक कारणों से संन्यासी बन गए किन्तु वे संबोधि की चेतना को विकसित नहीं कर पाए, अतः वे गृहत्यागी होते हुए भी हिंसा में प्रवृत्त हैं। वे जीवों की हिंसा करते हैं। __ हिंसा करने के भी कुछेक कारण हैं । जब परमार्थ की चेतना जागृत नहीं होती, केवल इन्द्रिय और मन की परिधि में ही चेतना का विकास होता है तब मन में प्रशंसा, बड़प्पन, पजा, प्रतिष्ठा की भावना पनपती है। यह लोकषणा सदा बनी रहती है। इस लोकषणा के कारण वे लोग हिंसा करते हैं । लोकषणा हिंसा का एक-मुख्य Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि और अहिंसा ११ कारण है । हिंसा से ही व्यक्ति मुक्त हो सकता है जिसकी लोकैषणा समाप्त हो जाती है । लोकैषणा तब समाप्त होती है जब चेतना का ऊर्ध्वगामी विकास होता है, जब चेतना काम - केन्द्र से ऊपर उठकर प्रज्ञा के स्तर पर आ जाती है और शुद्ध निर्मल प्रज्ञा बन जाती है, ऐसी स्थिति में लोकैषणा समाप्त हो जाती है । तब व्यक्ति लोकैषणा से परे जाकर सोच सकता है । अन्यथा सबसे प्रिय यही लगता है— लोग मुझे वन्दना करें, मेरी स्तवना करें, मेरी पूजा-प्रतिष्ठा करें। जब ये प्राप्त होती रहती हैं तब व्यक्ति यह सोच भी नहीं सकता कि उसे अहिंसा का विकास करना है । यह प्रश्न उसके सामने उपस्थित ही नहीं होता । इस लोकैषणा से धर्म की धारणा विकृत बन जाती है । वह सोचता है— हिंसा से भी जन्म मरण से मुक्ति पाई जा सकती है, दुःखों से छुटकारा मिल सकता है। धर्म के साथ जो हिंसा जुड़ती है उसके दो कारण हैं— जन्म मरण से मुक्ति और दुःख से मुक्ति । जब तक यह प्रस्थापित नहीं किया जाता कि हिंसा होने पर जन्म मरण से तथा दुःख से छुटकारा नहीं मिल सकता तब तक हिंसा को सहारा मिलता है। इसलिए बहुत से धार्मिकों ने महावीर के समय में भी तंत्र आदि के प्रयोग चालू किए । पशु बलि की बात तो मान्य थी ही, नर बलि भी सम्मत हो गई । उसका आधार यही बनता था कि इन प्रक्रियाओं से शक्ति की उपासना होती है, आराधना होती है, देवता सन्तुष्ट होते हैं । देवताओं को तृप्त करते-करते, उनका अनुग्रह प्राप्त करते-करते संसार से भी मुक्ति पाई जा सकती है । इस संसार मुक्ति और दुःख-मुक्ति के लिए बहुत सारे लोग हिंसा करते थे । इस प्रकार हिंसा के मुख्य कारण बन जाते हैं -- लोकैषणा और धर्म की मिथ्या धारणा जो लोकैषणा से ही प्रेरित होती है । यह सारा ऐसे लोगों की मनःस्थिति का चित्रण है, जिनको संबोधि प्राप्त नहीं है, जो विषयों की परिधि में जीते हैं, मिथ्या धारणाएं बनाते हैं और हिंसा करते रहते हैं । जिनकी संबोधि जागृत हो जाती है, जिनकी प्रज्ञा संबोधि के स्तर पर उन्मेष लेती है, इन्द्रिय और मन के स्तर से ऊपर उठकर जिनका चैतन्य विकसित होता है वे व्यक्ति अपने आदानीय को प्राप्त हो जाते हैं, जो प्राप्तव्य है वह उन्हें प्राप्त हो जाता है - से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए (१-२४) । वे अपने आदान को लेकर चलते हैं । जब तक आदानीय नहीं मिलता, जो पथ प्राप्तव्य है वह प्राप्त नहीं होता; तब तक व्यक्ति हेय के साथ-साथ चलता है । चलने की दों दिशाएं हैं। एक है हेय के साथ-साथ चलना और दूसरी है. आदेय के साथ-साथ चलना । इन्द्रिय और मन की चेतना के साथ चलने वाला सदा हेय के साथ चलता है | जब व्यक्ति इस स्तर की चेतना से ऊपर उठ जाता है, जब उसमें संबोधि जागृत हो जाती है, तब वह आदानीय - उपादेय के साथ चलता है । आदानी के साथ उसकी यात्रा प्रारंभ हो जाती है । संबोधि प्राप्त होने पर, कोई Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मनन और मूल्यांकन अतिशयज्ञानी व्यक्ति का सहवास मिल जाता है तो उसे एक बल और प्राप्त हो जाता है। वह उस ज्ञानी व्यक्ति से सुन लेता है--प्राणी का वध करना हिंसा है और हिंसा एक ग्रन्थि है। उसमें ऐसा संस्कार निर्मित हो जाता है, जिससे मुक्त होना सरल नहीं होता। वह ग्रन्थि कठिनाई से खुलती हैं। वह सदा सताती रहती है । एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए (१-२५)हिंसा एक ग्रन्थि है। वह मोह पैदा करती है। वह ऐसी मूढ़ता पैदा करती है, जिससे छुटकारा पाना मुश्किल होता है। वह सदा पीछा करती रहती है। हिंसा मार-मृत्यु है। व्यक्ति दूसरे को नहीं मारता, वह स्वयं को ही मारता है। जो व्यक्ति दूसरे प्राणी का वध करता है, वह अपना स्वयं का वध करता है। दूसरे प्राणी की मृत्यु नहीं होती, स्वयं की मृत्यु होती है । वह व्यक्ति स्वयं की प्राण-शक्ति से, स्वयं की चैतन्य-शक्ति से और स्वयं के आचार से स्खलित हो जाता है। वह स्वयं पहले मरता है। दूसरों को मारने से पहले वह स्वयं को पहले मारता है। हिंसा नरक है। 'हिंसा करने वाला नरक में जाता है'-यह भविष्य की बात हो सकती है, किन्तु हिंसा स्वयं नरक है। हिंसा का क्षण नरक का क्षण है। हिंसा करने वाला कब मरेगा और कब उसे नरक प्राप्त होगा, यह आगे की बात है। किन्तु हिंसा का क्षण मृत्यु का क्षण है । हिंसा का क्षण नरक का क्षण है । उस स्थिति का सही चित्रण करने के लिए वर्तमान में भविष्य का उपचार-आरोपण किया गया. है। इस आरोपण के कारण हिंसा का स्वरूप बहुत स्पष्ट हो जाता है कि हिंसा करने वाले व्यक्ति की जो चेतना निर्मित होती है वह नारकीय चेतना होती है । इस प्रकार वह व्यक्ति अपने अन्तःकरण में इस प्रकार दुःख अजित कर लेता है कि बिना नरक में गए भी वह नारकीय यातना को इसी जन्म में भुगत लेता है। जब व्यक्ति को सम्बोधि प्राप्त हो जाती है और उस सम्बोधि का समर्थन जब उसे किसी अतीन्द्रिय ज्ञानी द्वारा मिल जाता है तब उसकी श्रद्धा पुष्ट हो जाती है। वह यह मानने लग जाता है कि हिंसा वही करता है जो आसक्त होता है, जो पागल होता है। जिसमें आसक्ति नहीं होती, वह हिंसा नहीं करता। जिसमें उन्माद या पागलपन नहीं होता, वह हिंसा नहीं करता।। ____ आसक्ति स्वयं एक नशा है, उन्माद है, पागलपन है। आसक्ति का चरम-बिन्दु ही पागलपन है। आसक्ति जब तीव्र होती है तब वह एक ही दिशा में प्रवाहित होने लग जाती है। पागल भी वही होता है जो जिस बात को पकड़ लेता है, उसे छोड़ता नहीं, छोड़ नहीं पाता। जिसमें छोड़ने की क्षमता नहीं होती, वह पागल होता है। पागल और समझदार व्यक्ति के व्यवहार में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। समझदार आदमी में भी बात की पकड़ होती है, किन्तु उसमें यह भी क्षमता होती है कि वह जब चाहे तब उस बात को छोड़ सकता है। पागल आदमी में नियन्त्रण की क्षमता नहीं होती। जो बात पकड़ ली, वह पकड़ ही ली। उसे छोड़ने का प्रश्न Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि और अहिंसा १३ हो नहीं आता। गाली देना प्रारंभ किया तो गाली देता ही जाएगा। सामने फिर कोई भी क्यों न हो । हंसना शुरू किया तो हंसता ही रहेगा। रोना शुरू किया तो रोता ही रहेगा । उस धारा को तोड़ने की क्षमता उसमें नहीं रहती। आसक्ति की धारा इतनी तीव्र हो जाती है कि वह पागलपन बन जाती है। यह अनुभव होता है-इच्चत्थं गढिए लोए (१-४६)-लोक इसमें ग्रथित है, आसक्त है, पागल है। वह आसक्त होकर ही नाना प्रकार के जीवों की हिंसा करता है। इस प्रसंग में यह प्रश्न प्राप्त होता है-जीव क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने 'षड्जीवनिकाय' का निरूपण किया। जीव छह प्रकार के हैं-पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव, अग्निकायिक जीव, वायुकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीव और त्रसकाथिक जीव । समूचे भारतीय दर्शन में यह निरूपण एक नया निरूपण है। आचार्य सिद्ध सेन ने द्वात्रिंशिका में लिखा है-"भगवन् ! आप सर्वज्ञ थे, यह समझने के लिए और अधिक प्रमाण की जरूरत नहीं है, केवल षड् जीवनिकाय का निरूपण ही यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि आप सर्वज्ञ हैं।" षड् जीवनिकाय में पहला है-पृथ्वीकाय। सूत्रकार कहते हैं- ग्रथित व्यक्ति स्वीकाय के जीवों की हिंसा करता है, मिट्टी के जीवों की हिंसा करता है। इस प्रसंग में एक रहस्य का उद्घाटन भी होता है कि जो पृथ्वीकाय की हिंसा करता है वह केवल पृथ्वी काय के जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु पृथ्वी के आश्रय में रहने वाले अनेक दूसरे जीवों की भी हिंसा करता है। जीवों का परस्पर इतना गहरा सम्बन्ध है कि एक जीव दूसरे जीव के आश्रय में जीता है। मनुष्य त्रसकायिक प्राणी है। वह प्रत्येकशरीरी है। उसमें एक ही आत्मा है। किन्तु उस आत्मा के सहारे असंख्य जीव पलते हैं। उन जीवों को आत्मा का अंश समझकर कुछ लोग यह कल्पना करते हैं कि एक शरीर में एक आत्मा नहीं होती, किन्तु मानव शरीर में असंख्य आत्माएं होती हैं। एक होती है मूल आत्मा और उसके आश्रित होती हैं असंख्य आत्माएं। जो शरीर की आरंभक आत्मा होती है, वह मूल आत्मा है । जिसने शरीर का आरंभ किया, जिसने शरीर का निर्माण किया, वह है आरंभक आत्मा। आरंभक आत्मा के सहारे रहने वाली आत्माएं आश्रित आत्माएं कहलाती हैं। जैसे वृक्ष का बीज आरंभक आत्मा है, किन्तु बीज जब अंकुरित होता है, बढ़ता है और शरीर का विस्तार करता है तब दूसरी-दूसरी आत्माएं उसके सहारे पनपने लगती हैं। पत्र, पुष्प, फल आदि असंख्य आत्माएं उससे जुड़ जाती हैं। पृथ्वीकाय के आश्रय में भी अनेक आत्माएं होती हैं। पृथ्वीकाय के आश्रय में पृथ्वी के जीव ही नहीं रहते, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीव भी रहते हैं। पृथ्वी के जीवों की हिंसा करने वाला केवल पृथ्वी की ही हिसा नहीं Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ मनन और मूल्यांकन करता, बह अन्य जीवों की भी हिंसा करता है । पुनः एक प्रश्न होता है कि क्या पृथ्वीकाय में चेतना है ? प्रतीत नहीं होता कि उसमें चेतना है, क्योंकि ऐसा कोई लक्षण नहीं दीखता, जिससे जाना जा सके कि चेतना है, फिर यह हिंसा की बात क्यों आरोपित की जाए ? इस प्रश्न को विस्तार से समझाया गया कि पृथ्वीकाय में चेतना है -- यह निश्चित स्थापना है । जीव और अजीव का भेद इस आधार पर स्थापित करते हैं कि जीव में कुछ ऐसे लक्षण हैं जो अजीव में नहीं होते । प्राणों का 'स्पन्दन, हलन चलन, श्वास, आहार, पुद्गलों का सात्मीकरण - ये कुछ बातें जिनमें होती हैं, उसे हम जीव कहते हैं। ये बातें जिनमें नहीं होतीं उसे हम अजीव कहते हैं । जिसमें अपने सुखदुःख को प्रकट करने की क्षमता होती है वह जीव होता है और जिसमें यह क्षमता नहीं होती, वह अजीव कहलाता है । क्या पृथ्वीकाय में ये क्षमताएं हैं, जिनके आधार पर यह मान सकें कि पृथ्वीकाय जीव है ? इस प्रश्न के उत्तर में यह बताया गया कि एक आदमी जो जन्म से अंधा है, बहरा है और मूक है, उसका कोई छेदन"भेदन करता है --- टखने का, घुटने का, पिंडली का, जंघा का या एक-एक अवयव का छेदन-भेदन करता है, क्या उस व्यक्ति को कोई पीड़ा की अनुभूति नहीं होती ? अवश्य होती है, क्योंकि उसमें चेतना है । वह पीड़ा का अनुभव करता है । वह बोलकर अपनी - पीड़ा को व्यक्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसे वाणी प्राप्त नहीं है । वह सुनकर भी नहीं जान सकता कि उसे पीड़ा हो रही है, क्योंकि वह सुन भी नहीं सकता । अंधा होने के कारण मारने वाले को भी नहीं देख सकता । उसके सारे अवयव इस प्रकार • खण्डित कर दिये गए हैं कि उसमें किसी प्रकार के संचालन की क्षमता भी नहीं रहती । उसे इतना व्यथित और बेभान कर दिया गया है कि मूर्च्छा जैसी स्थिति प्राप्त करा दी गई है । वह पीड़ा का अनुभव करते हुए भी अपनी स्थिति को - अभिव्यक्त नहीं कर सकता। जब एक मानव जिसके पास पांच इन्द्रियां हैं, हलन'चलन है, दूसरे जीवों की अपेक्षा से विकसित चेतना प्राप्त है, वह भी इस स्थिति में अपनी वेदना को प्रदर्शित करने में सक्षम नहीं होता तो एक स्थावर जीव जो -संज्ञाओं से शून्य है, जिसकी चेतना अल्पविकसित हैं, बोलने की क्षमता नहीं है, हलनचलन की क्षमता नहीं है, जिसके हाथ-पैर आदि अवयव नहीं हैं, वह प्राणी यदि अपनी वेदना को अभिव्यक्त नहीं कर सकता तो उसके आधार पर यह नहीं माना जा • सकता कि उसमें वेदना नहीं है । यह मानना ही अधिक संगत होगा कि उसमें वेदना है पर उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकता, क्योंकि अभिव्यक्ति का उसके पास कोई साधन नहीं है । इसका निष्कर्ष यह निकला कि तथाकथित बधिर, मूक, अंध और पीड़ा से मूच्छित मानव को मारने पर वेदना होती है । पर वह वेदना को प्रकट नहीं कर सकता। इसी प्रकार पृथ्वीकाय के जीव को भी वेदना होती है, किन्तु वह 'स्त्यानद्धि' मूर्च्छा के कारण उसे व्यक्त नहीं कर पाता । 'स्त्यानद्ध' मूर्च्छा की Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि और अहिंसा १५ 'एक विशेष अवस्था है । मूर्छा की पांच अवस्थाएं हैं १. निद्रा। २. निद्रा-निद्रा। ३. प्रचला। ४. प्रचला-प्रचला। ५. स्त्यानद्धि । स्त्यानद्धि अवस्था में चेतना इतनी सघन हो जाती है कि वह जड़ बन जाती है। वहां चेतन और अचेतन की भेदरेखा बहुत अस्पष्ट हो जाती है । स्थूलदृष्टि से सम्पन्न लोगों की दृष्टि में वह चेतना प्रतीत नहीं होती। पृथ्वीकाय के जीव स्त्यानद्धि चेतना का जीवन जीते हैं। यह इतनी जड़ीभूत चेतना की अवस्था है कि उसमें वे अपना लक्षण प्रकट नहीं कर सकते । इसमें रहने वाले जीवों को नहीं कहा जा सकता कि वे चेतन हैं। किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से सम्पन्न लोग यह कह सकते हैं कि पृथ्वी में चेतना की अनुभूति है। वे चेतन हैं, इसलिए उनमें सुख-दुःख की अनुभूति भी होती है। स्पर्श आदि प्रवृत्तियों के द्वारा उन्हें कष्ट की अनुभूति होती है। जो व्यक्ति पृथ्वीकायिक जीवों की सचेतनता स्वीकार कर उनके समारंभ से विरत होता है, वह 'परिज्ञातकर्मा' कहलाता है। जो परिज्ञातकर्मा होता है, वही अहिंसक होता है। ___ कर्म (प्रवृत्ति) के विषय में दो मुख्य धारणाएं हैं। एक है- अनासक्त भाव से कर्म करने की और दूसरी है-कर्म के त्याग की। प्रस्तुत सन्दर्भ में भगवान् महावीर ने कर्म-त्याग की बात कही और उस मार्ग का विशद प्रतिपादन किया। यह परित्याग ही विवेक है। जो कर्म-त्याग करता है वही अहिंसक होता है। हिंसासमारंभ को छोड़ने वाला अहिंसक होता है। कर्म को छोड़ने वाला अहिंसक होता है। परिष्कार की बात वृत्तियों में हो सकती है। कर्म में परिष्कार की बात नहीं आती। हिंसा करने के मानस का परिष्कार किया जा सकता है। मानस को अनासक्त बनाया जा सकता है। मानस के सन्दर्भ में यह बात हो सकती है, कर्म के सन्दर्भ में नहीं। कर्म का परित्याग किया जा सकता है। जो कर्म का परित्याग करता है वह परिज्ञातकर्मा मुनि कहलाता है। __ मुनि शब्द का अर्थ-सम्बन्ध मौन से नहीं है। संस्कृत साहित्य में मुनि का अर्थ बदल गया और मौन करने वाला मुनि कहलाने लगा। किन्तु प्राकृत साहित्य में मुनि शब्द का मौन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मोणेण मुणी होई-मौन से मुनि होता है। यहां 'मौन' का अर्थ है-ज्ञान। 'मुणाति-जाणाति'-मुनि वह है जो जानता है। 'मुण' धातु जानने के अर्थ में है। संस्कृत साहित्य में भी यह प्रचलित था-'मन्यते स मुनिः'—जो मनन करता है वह मुनि होता है। किन्तु Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ मनन और मूल्यांकन उत्तरकाल में इसको मौन के साथ जोड़ दिया गया। यह अर्थ संगत नहीं है। जैसे पंडित का अर्थ है-विरत-विरइं पडुच्च पंडिए त्ति आहिज्जई। उसी प्रकार मुनि का अर्थ है- ज्ञानी। ___ जो परिज्ञातकर्मा है वह मुनि है। जो हिंसा के कर्म को त्याग देता है, वह त्यागी ही पंडित है, मुनि है। जो हिंसा का परित्याग नहीं करता वह दुस्संबोहे अविजाणए-अज्ञानी ही रहता, उसे बोधि प्राप्त नहीं होती। जो पृथ्वीकाय के जीवों के प्रति शस्त्र का प्रयोग नहीं करता, उस व्यक्ति के आरंभ स्वयं परित्यक्त हो जाते हैं। वह परिज्ञात हो जाता है। यहां 'शस्त्र' शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है। आचारांग के प्रथम अध्ययन का नाम ही है-शस्त्रपरिज्ञा-शस्त्र का विवेक । शस्त्र का विवेक हुए बिना हिंसा और अहिंसा को नहीं समझा जा सकता। शस्त्र का अर्थ है-विरोधी वस्तु । शस्त्र दस प्रकार के होते हैं-अग्नि, विष, लवण, स्नेह, क्षार, अम्ल, दुष्प्रयुक्त मन, दुष्प्रयुक्त वचन, दुष्प्रयुक्त काया और अविरति । इनमें प्रथम छह द्रव्यशस्त्र और शेष चार भावशस्त्र हैं (ठाणं १०/६३). अग्नि भी एक शस्त्र है। नमक, विष आदि भी शस्त्र हैं। ये सब हैं द्रव्यशस्त्र । एक है भावशस्त्र । प्राणी का मनोभाव भी एक शस्त्र है। अविरति भी शस्त्र है। हिंसा से विरत न होना भी एक शस्त्र है। हिंसा का प्रयोग करना या हिंसा का मनोभाव करना भी हिंसा है, शस्त्र है। कायिकी क्रिया के दो प्रकार हैं-अनुपरत कायिकी क्रिया और दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया । काया का वह प्रयोग जो विरत नहीं है, उपरत नहीं है वह अनुपरत कायिकी क्रिया है । दूसरा है--काया दुष्प्रयोग । अविरत काया भी शस्त्र है। मन, वचन और काया का दुष्प्रयोग न करने पर भी यदि उपरति नहीं है, उपरति का संकल्प नहीं है तो उस व्यक्ति की काया भी शस्त्र है। एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स-इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स--इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति। (१-३१, ३२) शस्त्र का असमारंभ उसी स्थिति में प्राप्त होता है जब काया उपरत हाती है, दुष्प्रयुक्त नहीं होती। दोनों स्थितियां बनती हैं तब शस्त्र का असमारंभ होता है। आरंभ अपने आप परिज्ञात हो जाता है, क्योंकि जब तक उपरति नहीं होती तब तक मनुष्य का भाव हिंसा से जुड़ा रहता है । जब भाव नहीं होगा तभी काया हिंसा से उपरत होगी। भाव सौर काया-जब दोनों शस्त्र नहीं बनते तभी आरंभ परित्यक्त होते हैं। सूत्रकार ने उपदेश की भाषा में कहा है-एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्म-समारंभा परिजाणियन्वा भवंति (१-११)। (आचारांग के आधार पर-दूसरा प्रवचन-लाडनूं १३-१२-७७) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. पाचार का पहला सत्र आचार के पांच प्रकार हैं-ज्ञान आचार, दर्शन आचार, चारित्र आचार, तपः आचार और वीर्य आचार। - आचारांग सूत्र में सबसे पहले चारित्र आचार का वर्णन हुआ है। चारित्र आचार का पहला सूत्र है-अहिंसा । इसका अर्थ है-प्राणातिपात से विरति, जीव हिंसा का त्याग । अहिंसा के प्रसंग में सबसे पहले पृथ्वीकाय की हिंसा की विरति का उपदेश दिया गया। इसका एक कारण यह प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में यह मान्यता थी कि सृष्टि की रचना भूतों से हुई है। कुछ लोग मानते हैं कि भूतों से चेतना निर्मित होती है। इस विषय में भगवान् महावीर का दृष्टिकोण इस अहिंसा के प्रसंग में ही प्रतिपादित होता है। उन्होंने कहा, "पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु-ये स्वयं जीव हैं। इनमें जीव उत्पन्न नहीं होते, ये स्वयं जीव हैं । यह दृश्य जगत् जीवों से बना हुआ है। परमाणु सूक्ष्म होते हैं, वे जीव के शरीर रूप में परिणत होकर स्थूल बनते हैं।" इसका अर्थ यह हुआ कि यह स्थूल या दृश्य जगत् या तो जीवच्छरीर है या जीवमुक्त शरीर है। स्थूलता और दृश्यता जीवों के कारण उत्पन्न होती है। जो पुद्गल जीव के शरीर के रूप में परिणत हो गए-जीबों ने जिन पुद्गलों को अपने शरीर के रूप में परिणत कर लिया, वे पुद्गल स्थूल बन जाते हैं। वे दो ही प्रकार के हैं--जीवच्छरीर या जीवमुक्त शरीर । आगमों में दो शब्द प्रचलित हैं-बद्धलगा, मुक्केलगा-बद्ध और मुक्त । पुद्गल दो प्रकार के होते हैं-बद्ध पुद्गल और मुक्त पुद्गल । जीव से बद्ध पुद्गल और जीव से मुक्त पुद्गल । जीव जितनी वर्गणाओं का उपयोग करता है, वे सारी वर्गणाएं बद्ध होती हैं । जीवमुक्त वर्गणाएं भी हैं। - प्राचीनकाल में दोनों विचारधाराएं थीं-भूतों से सृष्टि और चेतना उत्पन्न हुई है या चेतन से सृष्टि उत्पन्न हुई है । स्थूल सृष्टि जीव से हुई है, यह भी अपेक्षादृष्टि से कहा जा सकता है। क्योंकि यह स्थूल या दृश्य जगत् जीव के द्वारा कृत है। इस दृष्टि से सर्वप्रथम जीव के रूप में पृथ्वी का निरूपण हुआ। पृथ्वी जो भूत माना जाता है, वह भूत ही नहीं, स्वयं जीव है। वह जीव का उत्पादक नहीं, स्वयं जीव है। उसके प्रति भी आत्मवत् व्यवहार होना चाहिए । पृथ्वी के अनन्तर दूसरा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ मनन और मूल्यांकन तत्त्व है-जल । जल भी स्वयं जीव है। प्रश्न होता है कि जल के जीवों के लक्षण क्या हैं ? उत्तर में कहा गया-यदि तुम्हें किसी तर्क या हेतु से पता न चले कि जल में जीव हैं तो आज्ञा से जान लो कि जल में जीव हैं। यहां यह स्पष्ट है कि समझ के दो प्रकार हैं—एक है स्वयं का ज्ञान, दूसरा है-आज्ञा-अतीन्द्रियज्ञान सम्पन्न व्यक्ति का ज्ञान । आज्ञा का अर्थ है-आगम, अतीन्द्रियज्ञान, आप्त पुरुष का ज्ञान, साक्षात् द्रष्टा का ज्ञान । 'जल में जीव हैं-इसे तुम स्वयं न जान सको तो आज्ञा से उसे जान लो, अतीन्द्रिय ज्ञानी से पूछकर जान लो और फिर अकुतोभयं (१-३८)-उन जीवों को अभय प्रदान करो, उन्हें भय उत्पन्न मत करो। क्या जल के जीवों में भी भय होता है ? जल के जीवों में आहार, भय, मैथुन, क्रोध, मान, माया-ये सारी संज्ञाएं होती हैं। वनस्पति के विषय में आज बहुत खोजें हो चुकी हैं। वनस्पति के जीव कितने भयभीत होते हैं- इस विषय में अनेक प्रयोग किये गए। एक व्यक्ति ने एक पौधे को कष्ट पहुंचाया। कुछ समय बाद एक वैज्ञानिक ने उस व्यक्ति को पुनः उसी पौधे के पास भेजा। जैसे ही वह व्यक्ति वहां पहुंचा, पौधा भय से कांपने लगा। ग्राफ बदल गया। वैज्ञानिक ने सोचा, शायद अकेला व्यक्ति था, इसलिए पौधे ने पहचान लिया। फिर उसने पांच व्यक्तियों के साथ उसको भेजा। पांच व्यक्ति गए, तब पौधे में कोई परिवर्तन नहीं आया। ज्यों ही वह गया, पौधा कांपने लगा। वनस्पति के जीव उस व्यक्ति से भयभीत होते हैं जो उन्हें कष्ट पहुंचाता है और उस व्यक्ति से भी डरते हैं जो बुरी भावना लेकर जाता है। वनस्पति में भय संज्ञा होती है, यह आज बहुत स्पष्ट हो चुका है। 'अकुतोभयं'-यह शब्द भी उसी सत्य की ओर संकेत करता है कि जल जीवों में भी भय संज्ञा होती है। भगवान् ने कहा, "किसी भी प्रकार से जल के जीवों को भय मत पहुंचाओ, उन्हें अभय करो, उनके प्रति हिंसा की भावना मत करो।" फिर प्रश्न होता है कि जल में जीव है-यह कैसे स्वीकार्य हो सकता है ? क्योंकि उसमें जीव का कोई लक्षण प्रकट नहीं है। उत्तर में कहा गया-नेव सयं लोगं अभाइक्खेज्जा......(१-३६) लोक (जीवलोक) का अभ्याख्यान मत करो। जल में जीव हैं-इस सत्य का अपलाप मत करो। जो सचाई है। उसे झुठलाओ मत । जल में जीव होता है-यह एक बात है और जल स्वयं जीव है--यह दूसरी बात है। जल में आगंतुक जीव भी हैं, किन्तु जल स्वयं जीव है। इस सचाई को झुठलाने वाला स्वयं के अस्तित्व को झुठलाता है। जे लोयं (आउकाइय लोयं) अन्भाइक्खइ, से अत्ताणं अन्भाइक्खइ। जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोयं अन्भाइक्खा ॥ (१-३६) -जो जल के जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपने अस्तित्व को अस्वीकार करता है। जो अपने अस्तित्व को अस्वीकार करता है वही जल के Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार का पहला सूत्र १६ जीव के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। आत्मौपम्य की बात यहां इतनी गहराई से कही गई है कि जहां तुम्हारी आत्मा है, वहां जल के जीव की आत्मा है । आत्माआत्मा में कोई अन्तर नहीं है। यदि कोई जल की आत्मा को अस्वीकार करता है तो वह स्वयं की आत्मा को अस्वीकार करता है। अपनी आत्मा को अस्वीकार करके ही कोई जल की आत्मा को अस्वीकार कर सकता है। गहराई में उतरो और अपनी आत्मा का अनुभव करो, साक्षात् करो। जब अपनी आत्मा का अनुभव हो जाएगा तब जल की आत्मा का अनुभव हो जाएगा। जिसे जल की आत्मा का अनुभव हो जाएगा, उसे अपनी आत्मा का भी अनुभव हो जाएगा। आत्मा की इतनी एकात्मकता है, इतना अद्वैत है कि एक आत्मा का सही अनुभव होने पर सभी आत्माओं का अनुभव हो जाता है। बुद्धि के स्तर पर आत्मा को मानना एक बात है और अनुभव के स्तर पर उसे जानना एक बात है। एक जीव का अनुभव करो, सब जीवों का अनुभव हो जाएगा। यह उस ज्ञान के स्तर की बात नहीं है जिस स्तर पर मानव की चेतना अस्तित्व को साक्षात् जान लेती है। जब एक को साक्षात् जान लेती है तो दूसरे को भी साक्षात् जान लेती है। - इस प्रसंग के पश्चात् अहिंसा का सामान्य आलापक सूत्र प्रस्तुत होता है और उसमें कई नयी जानकारियां भी हैं। .. अणगाराणं उदय-जीवा वियाहिया-इस आलापक के तीन अर्थ किए जा सकते हैं --१. अनगारों ने जल में जीव बतलाए हैं, २. अनगारों के लिए जल में जीव बतलाए हैं और ३. अनगार दर्शन में जल स्वयं जीव रूप में निरूपित है। जल में जीव हैं, इसलिए जल में शस्त्र को देखो। जल जीवों के लिए जो शस्त्र बनता है उसका भी तुम विवेक करो और देखो कि उन जीवों के लिए कौन-कौन से शस्त्र बनते हैं। 'अनगार' शब्द जैन मुनियों के लिए तो व्यवहृत होता ही है, अन्यतीथिक मुनियों के लिए भी वह व्यवहृत है । अणगारामोत्ति एगे पवयमाणा (१-४१)-जो भी गृहत्यागी होते थे, वे अणगार कहलाते थे। यह ऋषि-मुनियों और संन्यासियों के लिए व्यवहृत होने वाला सर्व-सामान्य शब्द था । अनगारों के लिए बताया गया कि जल में जीव होते हैं। अतः उनके लिए कुछ मर्यादाएं निर्धारित की। उन्हें बताया कि जल के जीवों के अनेक शस्त्र हैं--पुढो सत्यं पवेइयं (१-५७)। उस समय की एक चर्चा का और उल्लेख है कि कुछ अनगार जल लेते थे, पर वे बिना आज्ञा के नहीं लेते थे। जैसे विहार करते समय रास्ते में नदी आ गई, कुआं आ गया और यदि पानी पीना होता तो वे अनगार स्वयं जल नहीं लेते; किन्तु साथ में चलने वाले व्यक्ति या कोई पथिक से अनुमति लेकर जल ग्रहण कर लेते, पी लेते। उनका यह तर्क था-हमने कोई चोरी नहीं की है, हमने स्वकृतिपूर्वक जल पीया है। जैन श्रमण इसके प्रत्युत्तर में तर्क देते-अदुवा अदिण्णादाणं (१-५८) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० मनन और मूल्यांकन अनुमतिपूर्वक सचित्त जल ग्रहण करना भी अदत्तादान है। फिर प्रश्न उठा कि व्यक्ति की आज्ञा से लिया जाने वाला जल अदत्तादान कैसे हो सकता है ? पथिक की आज्ञा या अन्य किसी व्यक्ति की आज्ञा ले लेने पर अदनादान कैसे हो सकता हैं ? उस समय इन्द्रावग्रह आदि अनेक प्रकार के अवग्रह प्रचलित थे। अवग्रह ले लेने पर चोरी कैसे ? इसका उत्तर था-तुमने कुएं के स्वामी या पथिक से अनुमति ली, किन्तु जल के जीवों की अनुमति नहीं ली कि हम तुम्हें पीना चाहते हैं। जल के जीव अपने शरीर के स्वयं स्वामी हैं, कुएं का मालिक या अन्य कोई भी उनका स्वामी नहीं हो सकता। अतः उनकी अनुमति के बिना उनकी हिंसा करना अदत्तादान है। उस समय के संन्यासियों और अनगारों की जल-ग्रहण सम्बन्धी विविध मर्यादाएं थीं। कुछ कहते-जल-ग्रहण की हमारी एक सीमा है । हम परिमाण के साथ सजीव जल लेते हैं । हम छना हुआ सजीव जल लेते हैं। कुछ कहते-हम केवल पीने के लिए सजीव जल ले सकते हैं। कुछ कहते-हम पीने और स्नान आदि करने के लिए सजीव जल ले सकते हैं। उस समय विभिन्न मान्यताएं प्रचलित थीं। इन सबका वर्णन जैन आगम 'औपपातिक' में विस्तार से प्राप्त होता है। पानी कव लेना चाहिए, कितना लेना चाहिए-इसका स्पष्ट वर्णन वहां प्राप्त है। सूत्रकार ने प्रस्तुत प्रसंग में इन मान्यताओं का संकेत इन शब्दों में दिया है-कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए (१-५६)। - तीसरा तत्त्व है-तैजसकाय। अग्नि भी जीव है। जो अग्नि के जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपने अस्तित्व को अस्वीकार करता है। 'दीर्घलोक' यह अग्नि का द्योतक शब्द है। यह सबसे बड़ा लोक है। यह सब पर हावी होने वाला लोक है। यह अत्यन्त व्यापक है। सबसे बड़ा जगत् है वनस्पति का । अग्नि वनस्पति का शस्त्र है। वनस्पति की हिंसा अग्नि से होती है। अतः यह दीर्घलोक है । ये स्थावर जीव परस्पर एक-दूसरे के शस्त्र बनते हैं। जल अग्नि का शस्त्र है। अग्नि पृथ्वी और वनस्पति के लिए शस्त्र बनती है। अग्नि दीर्घलोकशस्त्र है जे दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे। जे असत्थस्स खेयण्णे, से दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे ॥ (१-६७) । ----जो अग्नि-शस्त्र को जानता है, वह अशस्त्र को जान लेता है। जो अशस्त्र को जानता है, वह अग्नि-शस्त्र को जान लेता है। जो यह जान लेता है कि अग्निशस्त्र है, वह यह भी जान लेता है कि अग्नि की हिंसा कैसे नहीं हो सकती। ___ अग्नि जीव है; इस निरूपण में भूतवाद की चर्चा पुनः प्राप्त होती है । अग्नि भूत नहीं, स्वयं जीव है। जीव-निकायों का क्रम इस प्रकार है-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार का पहला सूत्र २१ और त्रस । प्रस्तुत सूत्र में इस क्रम का व्यत्यय हुआ है । वायु चौथा भूत था, वह यहां अन्त में रखा गया है। यह व्यत्यय और किसी सूत्र में प्राप्त नहीं है। यहां चौथा भूत वनस्पति है और छठा वायु । इसका भी महत्त्वपूर्ण कारण है। चार जीवनिकाय केवल स्थावर हैं--पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति। इनके बाद बस का क्रम आता है । वायु त्रस और स्थावर-दोनों में माना जाता है, क्योंकि यह गतिशील है। गतिशील होने के कारण यह गतित्रस है, किन्तु गतिलब्धियुक्त नहीं है, अतः स्थावर है। यह नया वर्गीकरण बन गया। वायु त्रस भी है और स्थावर भी है। बाद की परम्परा में, स्थानांग सूत्र में, अग्नि और वायु-दोनों को त्रस माना है। तत्त्वार्थ सूत्र में भी वायु को त्रस माना है। आचारांग सूत्र में अग्नि को त्रस की कोटि में नहीं गिना, किन्तु वायु को ही त्रस माना है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि अग्नि की जो ऊर्ध्वगति होती है, तिर्यग् गति होती है वह वायु के कारण होती है। वायु की गति स्वतः है, वह किसी के द्वारा प्रेरित नहीं है। वैसी गति अग्नि की नहीं है । अतः वायु को ही त्रस माना गया। अग्नि के बाद वनस्पति का निरूपण है। यह सम्भव है कि अहिंसा के सन्दर्भ में चौथा जीव-निकाय वनस्पति है। यह बहुत बड़ा जगत् है। अनादि जगत् है, जीवों का अक्षय कोष है। इसे भी दीर्घलोक की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यह जीवों का अक्षय कोष है। समूचे जीवों का विकास वनस्पति से ही सम्भव हुआ है। जो जीव मुक्त होता है, उसकी पूर्ति वनस्पति से होती है। यह कभी खाली नहीं होता। ऐसे जीव भी वनस्पति में प्राप्त होते हैं जो वनस्पति को छोड़कर कभी बाहर नहीं आए। वे अव्यवहार राशि के जीव हैं । उनका विकास कभी नहीं हुआ। (आचारांग के आधार पर-तीसरा प्रवचन-लाडनूं १४-१२-७७) जिज्ञासा : समाधान प्रश्न : जीवन की कुछ अनिवार्य आवश्यकताएं होती हैं। जैसे पानी, वायु आदि। क्या पृथ्वीकाय के जीवों को भी इनकी आवश्यकता है ? क्या इनके बिना वे जीवित रह सकते हैं ? उत्तर : जैसे मनुष्य की आवश्यकताएं हैं, वैसे ही उन जीवों की भी आवश्यकताएं हैं। किन्तु श्वास की आवश्यकता सब जीवों में है। पृथ्वी में भी आनापान है। आनापान के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता। जितने भी जीव-निकाय हैं, उन सबको वायु की आवश्यकता होती है। वायु को भी आनापान की आवश्यकता होती है। प्रश्न : इसका अर्थ यह हुआ कि चन्द्रमा पर वायुकाय नहीं है, अतः वहां का पृथ्वीकाय अचित्त है ? Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मनन और मूल्यांकन उत्तर : वहां स्थूल वायु नहीं है, किन्तु सूक्ष्म वायु है। दूसरी बात यह है कि इम जो श्वास लेते हैं वह वास्तविक वायु नहीं है, औपचारिक है। भगवती सूत्र में इसकी बहुत स्पष्ट चर्चा है। वहां प्रश्न उठाया गया है कि हम वायुकाय का श्वास लेते हैं, पर वायुकाय किसका श्वास लेगा? फिर दूसरा वायुकाय किसका श्वास लेगा? यहां अनवस्था दोष आ जाएगा। इसके उत्तर में कहा गया--हम जो श्वास लेते हैं वह वायुकाय सजीव नहीं है, किन्तु सूक्ष्म पुद्गल हैं । वे वायु की तरह सूक्ष्म हैं। उपचार से उन सूक्ष्म पुद्गलों को वायु कह दिया गया। छहों जीव-निकाय श्वास लेते हैं, आनापान लेते हैं। इसका स्फुट वर्णन वहां प्रस्तुत है। ___ सात पृथ्वियां हैं। आठवीं पृथ्वी है-सिद्ध शिला । आठों पृथ्वियों में जीव हैं। सूक्ष्म जीव सर्वत्र व्याप्त है। स्थूल जीव इस लोक के एक भाग में हैं, सर्वत्र नहीं। ऐसे स्थान भी हो सकते हैं, जहां प्राणवायु न हो, श्वास के लिए उपयुक्त वायु न हो। वहां स्थूल जीव नहीं हो सकते, फिर चाहे वह पृथ्वी हो या चन्द्रलोक हो। चन्द्रलोक या दूसरे विमानों का जो वर्णन प्राप्त है वे सब सचित्त पृथ्वी के बने हुए हैं। कुछ पृथ्वीकायिक निर्जीव भी होते हैं। जो वैमानिक देवों के विमान हैं, वहां जो वृक्ष और पर्वत हैं, वे सारे निर्जीव हैं। वे वृक्ष भी पृथ्वीकायिक हैं, मिट्टी के बने कुएं हैं। तैजसकाय भी दोनों प्रकार का है--सचित्त तैजसकाय और अचित्त तैजसकाय । पांचों ही स्थावर सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार के होते हैं। वे मिश्र भी होते हैं। मान लें कि पृथ्वी का कोई खण्ड है, सहज ही वे जीव वहां से च्युत हो सकते हैं, अपनी मौत मर सकते हैं । ऐसा भी होता है कि पृथ्वी है, लेकिन वहां जीव उत्पन्न न हो। केवल परमाणु एकत्रित हो जाएं। ऐसे ही पानी भी सचित्त और अचित्त दोनों होता है। एक तालाब पानी से भरा हुआ है। सब जीव वहां से च्युत हो गए तो वह अचित्त हो जाता है। जीवों के च्युत होने पर भी अचित्त हो जाता है तथा जीव पैदा न हों तो भी अचित्त हो जाता है । नारकीय अग्नि अचित्त होती है। जो गुण सचित्त अग्नि में होते हैं, वे ही गुण अचित्त अग्नि में भी होते हैं। प्रश्न : सचित्त और अचित्त की पहचान कैसे हो सकती है ? उत्तर : पहचान की बात बहुत सूक्ष्म है। प्रत्यक्षज्ञानी इसे स्पष्ट पहचान लेता है। तर्क के द्वारा यह जानना सम्भव नहीं है कि यह सचित्त है या अचित्त । एक प्रसंग है- भगवान् महावीर सिन्धु सौवीर देश को जा रहे थे। साथ में सैकड़ों श्रमण थे। रास्ते में पानी का अभाव था। अनेक मुनि पानी के अभाव में कालकवलित हो गए। रास्ते में एक जलाशय आया। पानी अचित्त था, निर्जीव था। पानी पीने का प्रसंग आया। भगवान् महावीर ने अनुमति नहीं दी। वे प्रत्यक्षज्ञानी थे। वे तो जानते थे कि पूरा तालाब अचित्त है। पर अल्पज्ञानी कैसे जानते । फिर तो यही व्यवहार चल पड़ता कि तालाब का पानी पीया जा सकता है। यद्यपि सब Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार का पहला सूत्र २३ जीवों के आभामण्डल होता है, किन्तु इसे जानना तर्क का विषय नहीं है । यह अतीन्द्रिय ज्ञान या सूक्ष्म यन्त्रों के द्वारा ही जाना जा सकता है। यह बुद्धि के स्तर पर नहीं जाना जा सकता। जो जीव जितने सूक्ष्म होते हैं, उनका आभा-मण्डल भी उतना ही सूक्ष्म होता है । उसे जानने के दो ही साधन हैं १. अतीन्द्रिय ज्ञान (साधना द्वारा उपलब्ध ज्ञान) । २. यन्त्रों के द्वारा किया जाने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान । जानने का माध्यम अतीन्द्रित ज्ञान ही होगा। यह ज्ञान इन्द्रिय और मन की परिधि में नहीं आता, अतः तर्क का विषय नहीं बनता । तर्क वहीं होता है जहां हम कोई व्याप्ति बनाते हैं और वह व्याप्ति इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष हो । प्राचीनकाल साधना द्वारा लब्धज्ञान से इन सूक्ष्म जीवों के आभामण्डल का साक्षात् किया जाता था और आज सूक्ष्म यन्त्रों के द्वारा उसका साक्षात् किया जाता है । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. अहिंसा और अनेकान्त आचार का पहला अंग है-अनारंभ। यह हिंसात्मक प्रबृत्ति का निषेध है। उस समय कुछ मुनि प्रवजित होकर भी आरंभ-हिंसा करते थे। सूत्रकार कहते हैं-आरंभमाणा विणयं वयंति १-१७१-आरंभ भी करते हैं और विनय की बात भी करते हैं। उस समय विनय शब्द आचार-व्यवस्था के अर्थ में बहुत प्रचलित था। अन्यान्य परंपराओं में भी समूची आचार-व्यवस्था इस एक शब्द के द्वारा अभिहित होती थी। वे मुनि आरंभ भी करते और विनय (आचार-व्यवस्था) की भी बात करते। ये दोनों विरोधी बातें हैं। अनारंभ व्यक्ति विनय की बात कहता है तो वह उसके अनुरूप है। आरंभ करने वाला व्यक्ति आचार की बात कहता है तो वह एक विडंबना मात्र है। आचारवान् व्यक्ति आचार की बात कहता है तो उसका प्रभाव होता है, किन्तु आचारशून्य व्यक्ति यदि आचार की बात कहता है तो उसका कुछ भी प्रभाव नहीं होता, बल्कि उसके कथन से वह आचार भी हास्यास्पद बन जाता है। ___ आचार का मूल आधार है-अनारंभ । भगवान् महावीर की समूची साधनापद्धति में दो बातों पर बहुत बल दिया गया। उन्होंने कहा, “साधक के लिए अनारंभ और अपरिग्रह बहुत आवश्यक हैं। साधक की यह अनिवार्य आवश्यकता है कि वह अनारंभी हो, अपरिग्रही हो।" स्थानांग सूत्र का अभिमत है कि व्यक्ति दो कारणों से संबोधि को प्राप्त नहीं होता-आरंभेण परिग्गहेण-आरंभ से और परिग्रह से। इन दो कारणों से व्यक्ति विशिष्ट ज्ञान को प्राप्त नहीं होता। जितनी आध्यात्मिक उपलब्धियां हैं वे उस व्यक्ति को प्राप्त होती हैं जो आरंभ और परिग्रह से मुक्त है । जो आरंभ और परिग्रह में आसक्त है वह कभी इन उपलब्धियों को प्राप्त नहीं कर सकता। ये दो साधना के विध्न हैं। ___जो आरंभ करेगा वह आसक्त होगा। यह आसक्ति दूसरी आसक्तियों को भी पैदा करती है। आसक्ति का मूल है—प्रवृत्ति । जैसे-जैसे प्रवृत्ति बढ़ेगी आसक्ति भी उसी अनुपात में बढ़ती जाएगी। कुछेक कहते हैं हम अनासक्त भी रहते हैं और प्रवृत्ति भी करते हैं। यह कथन श्रुति-मधुर अवश्य है, पर है असंभव । प्रवृत्ति का Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा और अनेकान्त २५ का जाल बिछता जाए और व्यक्ति अनासक्त भी रहे, यह कभी संभव नहीं लगता। कोई विरल व्यक्ति ही इसे साध पाता है। यह सर्व सामान्य साधना नहीं हो सकती। सामान्य बात यह हो सकती है कि यदि व्यक्ति अनारंभी होगा तो वह अनासक्त हो सकेगा। आरंभी व्यक्ति अनासक्त नहीं हो सकता। आरंभ में अनासक्त योग का होना बहुत कठिन है। मक्खन अग्नि से दूर रहता है तब तक वह मक्खन का रूप बनाए रख सकता है। अग्नि पर उसे तपाया जाए और वह न पिघले, यह असंभव कार्य है। आग पर रखने पर भी वह न पिघले तो मानना चाहिए कि आग आग नहीं है और मक्खन मक्खन नहीं है। अहिंसा के विषय में भी यही बात लागू होती है। अनारंभ अवस्था में अनासक्ति की बात समझ में आ जाती है और साधना की प्रक्रिया भी उससे प्रस्फुटित होती है। किन्तु आरंभ करता जाए और व्यक्ति अनासक्त भी रहे या उसकी अनासक्ति बढ़ती जाए, यह उतनी ही दुर्लभ बात है जितनी कि मक्खन आग पर रखा जाए, पर पिघले नहीं। __मनुष्य की एक वृत्ति है-छंदोवणीया अज्झोववण्णा (१-१७२) । वह इच्छा के वशीभूत होकर चलता है। प्रवृत्ति का मूल है—इच्छा । उसमें इच्छा पैदा होती है। इच्छा के कुछ हेतु हैं, संस्कार हैं, कुछ शारीरिक अपेक्षाएं हैं। हमारा समूचा शरीर-तंत्र संचालित होता है अध्यवसाय और सूक्ष्म मन से। हम सोचते हैं कि हम मन से संचालित होते हैं। यह बात ठीक नहीं है । मन स्वयं दूसरों से संचालित होता है। प्राण-शक्ति से तीन तंत्र संचालित होते हैं- शरीरतंत्र, वाक्तंत्र और मानसतंत्र । ये तीनों अचेतन हैं। किन्तु जब ये प्राण-शक्ति से संयुक्त होते हैं तब सचेतन बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इनमें प्राण के माध्यम से चेतना का अवतरण होता है। प्राण-शक्ति का योग मिलते ही शरीर भी सचेतन, वाक् भी सचेतन और मन भी सचेतन हो जाता है। प्राणशक्ति संचालित होती है तैजस-शरीर से और तैजस-शरीर का संबंध जुड़ता है सूक्ष्म-शरीर से—कर्म शरीर से। इसका फलित यह हुआ कि चेतना सूक्ष्म-शरीर के स्तर पर काम करती है । अध्यवसाय और सूक्ष्म मन उसी स्तर पर काम करते हैं। उनसे ही सारे तंत्र संचालित होते हैं। किन्तु हमें लगता है कि स्थूल मन ही इनका संचालक है। वह संचालक नहीं है, वह तो स्वयं संचालित होने वालों में से है। सारा संचालित होता है कर्म-शरीर की चेतना से। मनोविज्ञान की भाषा में कहा जा सकता है कि मूल संचालक है- अवचेतन मन। मनुष्य अनेक अवसरों पर इस अन्तविरोध का अनुभव करता है कि मन कुछ चाहता है, पर वैसा होता नहीं, क्योंकि सूक्ष्म मन वैसा नहीं चाहता। हम बहुत बार मन के न चाहने पर भी अन्यथा काम कर लेते हैं। हमारी क्रिया में यह जो अन्तविरोध या असंगति आती है उसका मूल कारण यही है कि स्थूल मन चाहे या न चाहे, भावनात्मक मन यदि वैसा चाहता है तो वह काम हो जाएगा। जब Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ मनन और मूल्यांकन तक संकल्प स्थूल-मन के स्तर तक ही रहता है तब तक वह स्थायी नहीं होता । जब वह भावना के स्तर पर उतर जाता है तब वह स्थायी बन जाता है । जब संकल्प सूक्ष्म-मन के स्तर पर, सूक्ष्म शरीर के स्तर पर चला जाता है तब वह चेतना की पकड़ में आ जाता है । उस पर विश्वास किया जा सकता है । स्थूल-मन के स्तर पर संकल्प भी विश्वसनीय नहीं होता और इच्छा भी विश्वसनीय नहीं होती । वह पूरी हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती । आवश्यकता है कि हम साधना जो सुझाव देते हैं वे वहां तक पहुंचने चाहिए जहां से सब कुछ संचालित हो रहा है । यदि वहां नहीं पहुंचते है तो कुछ भी घटित नहीं हो सकता । ―― छंदोवणीया -- मनुष्य अपने छंद से संचालित हो रहा है । छंद का अर्थ हैआन्तरिक संस्कार । यही अविरति है, अविरति का मूल है। जहां इच्छा का मूल है, वहां से सारा संचालित हो रहा है। जब इच्छा से संचालित हैं, पूर्वकृत संस्कारों और वासनाओं से संचालित हैं, भावना के स्तर पर संचालित हैं तब अज्झोववण्णावहां से आसक्ति आती है, आसक्ति का संबंध जुड़ा हुआ रहता है। जहां इच्छा है, अविरति है वहां आसक्ति है | स्थूल अर्थ में हम कह देते हैं - यह काम मैं निर्मल मन से कर रहा हूं, इसमें मेरा कोई स्वार्थ नहीं है, मेरी कोई आसक्ति नहीं है | यह काम निःस्वार्थ भाव से केवल कर्त्तव्य निभाने के लिए कर रहा हूं ' परन्तु निर्मलता और निःस्वार्थ भाव को पहचान पाना या पकड़ पाना इतना सरल नहीं है । उन्हें पहचानना कठिन कर्म है । कभी-कभी लोग कह देते हैं कि हम यह काम अन्तरात्मा की आवाज से करते हैं । वास्तव में जो अन्तरात्मा की आवाज से किया जाता है वह कभी गलत नहीं होता, वह सही ही होगा । वह धर्म का कार्य होगा, अधर्म का नहीं । परंतु सबसे बड़ी कठिनाई है कि अन्तरात्मा की आवाज किसे कहा जाए ? उसकी पहचान क्या है ? लोग अन्तरात्मा की आवाज के आधार पर संघर्ष भी कर लेते हैं, संघटनों को तोड़ डालते हैं, और भी ऐसी ही हरकतें कर डालते हैं। क्या अन्तरात्मा की आवाज से ये अधर्म कार्य संभव हैं ? क्या अन्तरात्मा इनको आज्ञा दे सकती है ? अन्तरात्मा की आवाज - यह भ्रम है | अन्तरात्मा के आवाज की बात एक वीतरागी कह सकता है । वह व्यक्ति कह सकता है जो निर्मल है, जिसके सारे मल नष्ट हो गए हैं। उसके अन्तर् से जो आवाज उठेगी, वह सदा सत् होगी, असत् नहीं, अच्छी होगी, बुरी नहीं । वह व्यक्ति अन्तरात्मा की आवाज का दावा कर सकता है। हर कोई व्यक्ति कहे कि यह मेरी अन्तरात्मा की आवाज है तो वह धोखा है, भ्रम है। हर व्यक्ति की अन्त । क्योंकि अन्तरात्मा रात्मा की आवाज अच्छी ही होती है यह नियामकता नहीं है में कषाय भी हैं, दोष भी हैं, मल भी हैं, बुरे संस्कार भी हैं । कषाय भी आध्यात्मिक हैं, क्योंकि वे भीतर में होते हैं । भीतर में होने मात्र से कोई अच्छा नहीं हो जाता । भीतर में अच्छाइयां हैं तो बुराइयां भी हैं। अच्छे संस्कार हैं तो बुरे संस्कार Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा और अनेकान्त भी हैं । आध्यात्मिक का अर्थ केवल अच्छा ही नहीं है । इसका मूल अर्थ है - भीतर में होना । भीतर में अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी हो सकता है । जैसे गुण आध्यात्मिक होते हैं, वैसे ही दोष भी आध्यात्मिक होते हैं । जैसे सुख आध्यात्मिक होता है, वैसे ही दुःख भी आध्यात्मिक होता है । सांख्य दर्शन में आध्यात्मिक ताप का सुन्दर वर्णन है । जो व्यक्ति कषायमुक्त है, राग-द्वेष के जाल से छूट चुका है, उसका आध्यात्मिक अच्छा ही होगा, निर्मल होगा। जिसका कषाय अवशिष्ट है, उसका आध्यात्मिक अच्छा ही होता है, यह नियामकता नहीं आती। छंदोवणीया अज्झोववण्णा - इच्छा भीतर से जागती है और आदमी आसक्त बन जाता है। आरंभ ( प्रवृत्ति ) में आसक्त होता है और फिर नयी आसक्ति को जन्म देता है । यह एक चक्र बन जाता है । इच्छा से आसक्ति, आसक्ति से आरंभ और आरंभ से फिर इच्छा । यह चक्र चलता रहता है। यह चक्र सारे संसार का मूल है। भगवान् भहावीर ने इस चक्र को तोड़ने का उपाय बताया। उन्होंने कहासेवमं सव्वसमन्नागय-पन्नाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मं (१-१७४) sant तोड़ने के लिए पूरी प्रज्ञा का उपयोग करो, पाप कर्म मत करो, अनारंभ हो । सबसे पहला सूत्र है --- आरंभ मत करो, अनारंभ रहो। किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो, अहिंसक रहो। उन्होंने प्रवृत्ति का सर्वथा निषेध किया है । यह बात व्यवहार से कुछ दूर जा पड़ती है । 'सव्वं पावं अकरणीयं' - यदि सारे पाप अकरणीय हैं तब तो संसार चलेगा ही नहीं। क्योंकि सबसे पहले शरीर का प्रश्न है। और अपने लिए भोजन का प्रश्न है । और सारी बातों को छोड़ दें । शरीर-धारण के लिए भोजन और भोजन के लिए आरंभ । 'सर्वारम्भास्तन्दुलप्रस्थमूला:'मनुष्य की सारी प्रवृत्ति सेर भर चावल के लिए होती है या यों कहें कि उसकी प्रवृत्ति रोटी के लिए होती है । प्रवृत्ति का मूलस्रोत है - भूख । यह सब प्राणियों में है तो फिर अनारंभ या अप्रवृत्ति की बात संगत नहीं लगती । एक ओर समूचा व्यवहार और एक ओर अनारंभ । एक ओर प्रवृत्ति और एक ओर अप्रवृत्ति । दोनों परस्पर विरोधी । अनारंभ की बात कैसे संभव हो सकती है ? अहिंसा का उपदेश असंभव का उपदेश जैसा लगता है । इस असंभाव्यता या विरोध के कारण ही अहिंसा का सिद्धान्त व्यापक बना । यदि यह विरोध नहीं आता तो अहिंसा का निरूपण इतना विस्तृत नहीं होता । यह संक्षिप्त हो जाता। बात तो इतनी-सी थी कि अनारंभ रहो, किसी को मत मारो। किन्तु यह सारे जीवन का सिद्धान्त बन गया। जीवन तो चाहता है प्रवृत्ति, क्योंकि समूचा जीवन-धारण प्रवृत्ति पर निर्भर है । और यह अनारंभ की बात बिल्कुल निवृत्ति की बात है । अहिंसा निवृत्ति चाहती है। एक ओर ससूचे संसार का प्रश्न है जीवन-धारण और दूसरी ओर है. २७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ मनन और मूल्यांकन अहिंसा का प्रश्त। दोनों की दो भिन्न दिशाएं हैं। दोनों में संगति कैसे हो ? इस प्रश्न पर ही समूचा विस्तार हुआ है। पूर्ण हिंसा-देश हिंसा, अर्थ हिंसा-अनर्थ हिंसा, आरंभजा हिंसा-विरोधजा हिंसा, संकल्पजा हिंसा-ये सारे भेद उस प्रश्न के समाधान में किये गए। पहला विकल्प है—पूर्ण हिंसा-देश हिंसा। आध्यात्मिक विकास के लिए यह अनिवार्य है कि किसी का भी आरम्भ मत करो। यह ध्रुव सिद्धांत है और मेरु की तरह मध्य में स्थित है। इसमें कोई अन्तर नहीं आएगा। इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जाएगा। ध्रुव में कभी परिवर्तन नहीं होता। यह धर्म धुवे नियए सासए-ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है। व्यवहार टूटता हो तो टूटे, विरोध आता हो तो आए, सिद्धान्त यही रहेगा। फिर प्रश्न हुआ कि व्यवहार कैसे चलेगा? व्यवहार के लिए शक्यता या अशक्यता पर विचार किया जा सकता है, किन्तु अहिंसा के विषय में कुछ भी विचार नहीं किया जा सकता । व्यवहार का अर्थ हैअशक्यता । अनारंभ रहकर कोई भी व्यक्ति जीवन नहीं चला सकता। यह अशक्यता है। शक्यता की दृष्टि से विचार करो, न कि अहिंसा की दृष्टि से। चिंतनीय विषय बदल जाता है और सोचने की बात दूसरी हो जाती हैं। हमारे जीवन की अशक्यता है कि आरम्भ किए बिना जीवन को धारण नहीं किया जा सकता। हिंसा या आरम्भ नहीं करना—यह सिद्धान्त है किन्तु जहां अशक्यता का प्रश्न होता है, उसको तो करना ही पड़ता है। यहां निवृत्ति के साथ प्रवृत्ति का सूत्र जुड़ गया । एक सेतु बन गया। एक समझौता हो गया। वह भी काम चलाऊ। हिंसा हिंसा है, किन्तु वह करनी पड़ेगी, क्योंकि उसके बिना जीवन चलता नहीं। जब यह स्वीकृत हो गया कि अशक्य कोटि की हिंसा करनी पड़ेगी तो फिर कहा गया कि मुनि को तो हिंसा करनी ही नहीं चाहिए। उसे 'परिज्ञातकर्मा' होना चाहिए। यह कैसे होगा? यह मान लिया गया कि गृहस्थ अहिंसा में विश्वास रखता है। वह अहिंसा को केन्द्र में रखकर भी अशक्य कोटि की हिंसा से बच नहीं सकेगा, वह करेगा। किन्तु मुनि उस अशक्य कोटि की हिंसा को कैसे करेगा? जब व्यक्ति मुनि बन जाता है तब सामाजिक जीवन से उसकी मुक्ति मान ली जाती है। उसका नया जन्म हो जाता है। उसके लिए जीव-हिंसा से मुक्त होना बहुत जरूरी है। जो जीवनैषणा है, शरीर-धारण की अनिवार्यता है उससे भी उसे मुक्त होना पड़ेगा। मुनि की सामाजिक जीवन से मुक्ति होती है, इसका अर्थ ही है कि जीव-हिंसा से उसकी मुक्ति होती है। जीवियं नावकंखे---यह मुनि जीवन की पहली शर्त है। मुनि जीवन की आकांक्षा न करे। 'मरणधार सुध मग लह्यो' - आचार्य भिक्षु ने मरना स्वीकार कर मोक्षमार्ग पर चलने का दृढ़ निश्चय किया। मुनि बनने का अर्थ ही है-मृत्यु को स्वीकार कर चलना, जीने की आकांक्षा को नामशेष कर देना। अहिंसा से शरीर टिके तो टिके, अन्यथा मेरे लिए मत्यु Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा और अनेकान्त २६ वरणीय है, स्वीकार्य है । इसका अर्थ है मुनि बनना । अन्यथा मुनित्व प्राप्त ही नहीं होता। इस स्थिति में जीवन-धारण के लिए अशक्य कोटि की हिंसा भी कभी मान्य नहीं हो सकती। दूसरे संदर्भ में अशक्य कोटि की हिंसा मुनि को मान्य हो सकती है, जीवन-धारण के संदर्भ में नहीं । वह संदर्भ यह है । सारा संसार जीवाकुल है । अनन्त अनन्त जीव हैं । सूक्ष्म स्थूल, त्रस -स्थावर - सभी प्रकार के जीव भरे पड़े हैं । एक अणुमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है जहां जीव का अस्तित्व न हो । आकाश Math प्रदेश भी जीवमुक्त नहीं है। अनन्त जीव हैं । उस स्थिति में मुनि श्वास लेता है, चलता-फिरता है, उठता बैठता है, सोता-जागता है, सब कुछ वह करता है तब क्या यह संभव है कि उससे किसी जीव की हिंसा न हो ? उसके शरीर के योग से कोई जीवन मरे, क्या यह संभव है ? नहीं, यह कभी संभव नहीं हो सकता । उसके प्रमाद से भी जीव हिंसा हो सकती है और अप्रमाद अवस्था में भी जीव हिंसा हो सकती है । कोई जीव ऊपर से उसके शरीर पर गिरकर मर सकता है । कोई जीव उसके पैरों के नीचे आकर मर सकता है । जाने-अनजाने भी मर सकता है। तो फिर अहिंसा का सर्वपालन कैसे होगा ? उस स्थिति में यह प्रतिपादित किया गया कि अशक्य कोटि की हिंसा मुनि से भी हो जाती है । वह हिंसा करता नहीं, किन्तु वह हो जाती है । यह शरीर की अनिवार्यता है, इसfare हो जाती है । किन्तु मुनि शरीर धारण के लिए उस हिंसा का आश्रयण नहीं ले सकता । इसमें इतना अन्तर आ गया। एक मुनि भूखा है। रोटी प्राप्त नहीं हो रही है, फिर भी वह रोटी नहीं पकाएगा, आरम्भ नहीं करेगा । वह अनारम्भ रहेगा । शरीर चला जाए तो जाए, वह इस हेतु से आरम्भ नहीं करेगा। मुनि के लिए ये दोनों बातें बहुत स्पष्ट हैं कि भोजन के लिए अशक्य कोटि की हिंसा का सर्वथा निषेध है । वह कभी नहीं कर सकता । किन्तु उसका शरीर है, उसके योग से कभी हिंसा हो भी जाती है । सामाजिक प्राणी जो अहिंसा में विश्वास करता है उसके लिए यही बात प्राप्त है कि वह शाक्य कोटि की हिंसा को छोड़े यानी अनर्थ हिंसा को छोड़ दे । किन्तु जो उसके लिए अशक्य है, भोजन पकाना आदि, वह नहीं छोड़ सकता। मकान बनाना वह छोड़ नहीं सकता । कपड़े बुनना, खेती करना वह छोड़ नहीं सकता। जो अर्थ हिंसा है, आवश्यक हिंसा है उसको वह करता है किन्तु अनावश्यक हिंसा - अनर्थ हिंसा को नहीं करता । यह उसकी सीमा है । इस आधार पर अनगारधर्म और आगारधर्म का विकास हुआ। यह माना जाता है कि आचारांग सूत्र में केवल मुनिधर्म का ही प्रतिपादन है, केवल अहिंसा का ही वर्णन है। गृहस्थ के धर्म का वर्णन नहीं है । गृहस्थ को प्रमत्त बतलाया है और गृहवास की निन्दा ही की है । कुछ अंशों में यह सत्य हो सकता है । किन्तु यदि हम थोड़े गहरे में जाएं तो यह प्रश्न आता है कि जब पूर्ण अनारंभ या पूर्ण अहिंसा की बात कही है, जहां पूर्ण अहिंसा की बात है तो क्या गहस्थ के Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० मनन और मूल्यांकन लिए अहिंसा का कोई अवकाश ही नहीं है ? गृहस्थी में रहता हुआ गृहस्थ क्या सदा हिंसा ही करता रहेगा? क्या वह अहिंसा का कुछ भी आचरण नहीं कर सकता? महावीर का यह एकांगी दृष्टिकोण नहीं हो सकता। अनारम्भ का प्रतिपादन आचारांग में हुआ है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि महावीर ने गृहस्थ के धर्म का प्रतिपादन नहीं किला। यद्यपि आचारांग में स्पष्टतः गृहस्थ-धर्म का प्रतिपादन नहीं है, इससे यह कैसे मान लिया जाए कि यह परम्परा उत्तर-कालीन है, बाद में विकसित हुई है। यदि यह निष्कर्ष निकाला जाए तो अहिंसा का रूप एकांगी हो जाएगा और यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि गृहस्थ के लिए अहिंसा का कोई विधान हो ही नहीं सकता। ___'अरली जैनिज्म' के लेखक दीक्षित ने आचारांग के आधार पर यह स्थापना की है—गृहस्थ का धर्म उत्तरकालीन परम्परा से प्राप्त है। आचारांग में गृहवास की निंदा-ही-निंदा की गई है। यदि ऐसा मान लिया जाए तो गृहस्थ के लिए अहिंसा की बात प्राप्त ही नहीं हो सकती और जो यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है वह भी नहीं निकाला जा सकेगा। एक अन्तर्विरोध भी आता है। एक ओर पूर्ण अनारंभ की बात है तो दूसरी ओर जीवन का व्यवहार है। अनारंभ की बात केवल मुनि के लिए ही है, गृहस्थ के लिए नहीं तो फिर विरोध की बात भी नहीं आ सकती। क्योंकि मुनि तो उस बात को स्वीकार करके ही चलता है। इन सारे तथ्यों के आधार पर, शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन को हम इस संदर्भ में देखें कि अनारंभ अहिंसा का शुद्ध रूप है और वह साधना के केन्द्र में है। उसकी 'परिधि में जो सारे विकास हुए हैं, वे विकास अनारंभ की व्याख्या करने के लिए ही हुए हैं, उसकी व्याख्या से भिन्न नहीं हैं। वे अनारंभ की परिधि में ही हैं, उससे बाहर नहीं हैं। यदि इन तथ्यों को ठीक समझ लें तो उस प्रकार की कल्पना करने का कोई अवकाश ही नहीं आता। (आचारांग के आधार पर-चौथा प्रवचन-लाडनूं १६-१२-७७) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.मात्म-तुला और मानसिक हिंसा पहले अध्ययन में अप्राणातिपात का निरूपण है। यह अहिंसा का मूल आधार रहा है । जीव वध न हो, सर्वथा अप्राणातिपात। इसका सर्वांगीण विवेचन प्राप्त है। प्रश्न यह होता है कि क्या अप्राणातिपात ही अहिंसा है ? प्रस्तुत अध्ययन में मानसिक अहिंसा की कोई चर्चा नहीं है। व्यावहारिक अहिंसा का भी कोई उल्लेख नहीं है। इनका प्रतिपादन क्यों नहीं किया गया? यदि गहराई से हम सोचें तो यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि जहां सर्वथा अनारंभ का प्रतिपादन है वहां इन प्रश्नों को अवकाश ही नहीं रहता। हिंसा के मूल में द्वेष की वृत्ति काम करती है। आत्मौपम्य का जितना अभाव होता है, उतनी ही हिंसा होती है। प्रस्तुत अध्ययन (शस्त्र-परिज्ञा) में आत्म-तुला पर सारा भार दिया गया है । जब आत्म-तुला की चेतना जाग जाती है तब अन्यान्य बातें स्वतः निरस्त हो जाती हैं। आत्म-तुला का विकास होने पर किसी के प्रति मानसिक दुश्चिन्तन, अन्याय, अप्रामाणिक व्यवहार, अनिष्ट भावना-ये नहीं आ सकते। आत्म-तुला के अभाव में ये सारे पनपते हैं। एक प्रस्थापना यह है-आत्म-तुला का विकास करो। प्राणीमात्र के प्रति आत्मानुभूति, आत्मौपम्य का अनुभव करो। जब तादात्म्य का अनुभव होगा तब मानसिक और व्यावहारिक हिंसाएं अपने आप समाप्त हो जाएंगी। क्योंकि जब तादात्म्य की अनुभूति नहीं होती तब मानसिक और व्यावहारिक हिंसा को पनपने का अवसर मिलता है। जो व्यक्ति शिखर को छू लेता है, उसके लिए तलहटी को छुने की बात शेष नहीं रहती। इस दृष्टि से ही समूचे अध्ययन में आत्म-तुला के विकास पर बल दिया गया है। आत्म-तुला का अनुभव करो और प्राणियों के सुख-दुःख को समझो-यही इसका निष्कर्ष है-एयं तुलमण्णेसि (१-१४८) सर्वेसि पाणाणं सवेसि भूयाणं सर्वसि जीवाणं सर्वसि सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महन्भयं दुक्खं ति बेमि ॥ (१-१२२) यह अहिंसा का मानदंड है, कसौटी है। अस्सायं अपरिनिव्वाणं महन्भयं दुक्खंउन सब जीवों के लिए जो अपरिनिर्वाण है, अशांति है, वह किसी को प्रिय नहीं Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ मनन और मूल्यांकन है। उन जीवों को चाहे गाली देकर, ताड़ना-तर्जना देकर या उनके प्रति दुश्चिन्ता करके अशांति पैदा की जाए, वह अपरिनिर्वाण है, वह महान् भय है, वह महान् दुःख है । वह किसीको प्रिय नहीं है। णिज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिणिव्वाणं (१-१२१)—पहले प्रत्येक प्राणी के परिनिर्वाण को देखो। इस बात की समीक्षा करो कि प्रत्येक प्राणी परिनिर्वाण को चाहता है, इसलिए परिनिर्वाण को समझो। अपरिनिर्वाण उत्पन्न मत करो। इस एक वाक्य में अहिंसा का पूरा सिद्धांत भित है। इसका पूरा विवरण यहां प्राप्त होता है। ____ एक प्रश्न है कि आचार के ग्रन्थों पर दृष्टिपात करने से ऐसा लगता है कि एक युग में जो कार्य प्रायश्चित्ताह माने गए वे दूसरे युग में अनुमत हो गए और उनके लिए प्रायश्चित्त आवश्यक नहीं रह गया। तो क्या एक युग में जो प्रवृत्ति हिंसात्मक मानी गई, वह दूसरे युग में अहिंसात्मक बन गई ? अहिंसा मूल आचार है। आचार का दूसरा अंग है---अपरिग्रह । आचारांग का दूसरा अध्ययन 'लोकविजय' इसी अममत्व और अपरिग्रह के सूत्र से प्रारंभ होता है। उसमें ममत्व के दोषों और अममत्व की साधना का दिग्दर्शन कराया गया है। आचार की व्यवस्थाएं उत्तरकाल में व्यवस्थित और विकसित होती गईं। वे सारी केवल अहिंसा के आधार पर नहीं किन्तु अहिंसा और अपरिग्रह तथा उनके अन्तर्गभिंत अस्तेय आदि के आधार पर हुई हैं। इन सारे अध्यात्म के नियमों के आधार पर आचार की व्यवस्था का विकास हुआ है । अब कसौटी यह करनी होगी कि उत्तरकाल में जो नियम बनते गए वे नियम क्या महावीर की भावना और महावीर के सिद्धांत हैं ? उनके अनुरूप हैं या उनका अतिक्रमण करने वाले हैं ? अहिंसा की दृष्टि से भी कसौटी आचारांग ही होगा और अपरिग्रह की दृष्टि से भी कसौटी आचारांग ही होगा। साथ-साथ हम सूत्रकृतांग को भी कसौटी के रूप में मान्य कर सकते हैं। इन दो आगामों के आधार पर ही यह निर्णय करना होगा कि ये नियम मूल भावना से संबंधित हैं और ये नियम मूल भावना से दूर हैं । यह पूरा एक ऐतिहासिक विश्लेषण होगा। हम इस संदर्भ में एक उदाहरण लें पुस्तक रखने का । एक समय तक यह नियम था कि मुनि पुस्तक नहीं रख सकता। उसका हेतु यही दिया गया कि पुस्तक रखने से जीव-विराधना होती है और यह परिग्रह भी है। हिंसा और परिग्रहये दोनों दृष्टियां थीं इसके निषेध के पीछे। आचारांग सूत्र में जो उपकरण बतलाए हैं- वस्त्र, पात्र, कंवल आदि, उनमें पुस्तक का उल्लेख नहीं है और वस्त्रों की भी एक सीमित स्थापना है। मुनि सर्दी में कुछ वस्त्र रखे और हेमन्त के अतिक्रान्त होने पर उनका परिष्ठापन कर दे। एक सीमित व्यवस्था थी। पुस्तकें न रखने की व्यवस्था चल रही थी हिंसा और परिग्रह के आधार पर । फिर यह प्रतीत हआ कि जो ज्ञान कंठगत है वह धीरे-धीरे विस्मत हो रहा है, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-तुला और मानसिक अहिंसा ३३ 1 1 विलुप्त हो रहा है और यदि उसे लिपिबद्ध न किया गया तो सारी ज्ञानराशि विलुप्त हो जाएगी । उस स्थिति में अनेक श्रुतधर मुनि एकत्रित हुए और यह व्यवस्था दी कि पुस्तकें लिखी जा सकती हैं, रखी जा सकती हैं। उससे पूर्व यह विधान था कि मुनि यदि एक अक्षर भी लिखता है तो उसे चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । नया विधान किया गया कि मुनि लिख सकता है, पुस्तकें रख सकता है । दो बातें हो गईं। एक विधान था पुस्तकें न लिखने और न रखने का और दूसरा विधान बना पुस्तकें लिखने और रखने का । यदि हम इस प्रश्न को आचारांग की कसौटी पर कसेंगे तो यह स्वीकार करना होगा कि यह आचारांग कालीन व्यवस्था नहीं है, महावीर कालीन व्यवस्था है । उस समय न लिखने की अपेक्षा मानी जाती थी और न ग्रन्थ रखे जाते थे । जीवन-निर्वाह के साधनमात्र रखे जाते थे । अनेक मुनि न वस्त्र रखते थे और न पात्र रखते थे । वे दिगंबर और करपात्री रहते थे । अचेल और पाणिपात्र - यह व्यवस्था थी । स्वाध्याय और ध्यान - यही जीवन-क्रम था । न उपदेश और न लोकसंग्रह | ज्यों-ज्यों संघ का विकास हुआ, लोक-संग्रह होने लगा, ध्यान और स्वाध्याय hat वृत्ति में कमी आयी तब ग्रन्थों के निर्माण की ओर ध्यान गया । ज्ञान बढ़ा, ग्रन्थ बढ़े । ग्रन्थ- निर्माण की परंपरा चल पड़ी। यह नया सिद्धांत स्थापित हो गया कि मुनि ग्रंथों का निर्माण कर सकता है । और यह स्थापना इस तर्क के आधार पर की गई कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि के लिए यदि लिखा जाता है तो कोई आपत्ति नहीं है । फिर प्रश्न उठा कि एक अक्षर भी लिखते हैं तो उसमें हिंसा होती है तो ग्रन्थ का निर्माण कैसे किया जाए ? इस के समाधान में कहा गया कि अक्षर लिखने में जो हिंसा होती है, वह द्रव्य-हिंसा है, भाव-हिंसा नहीं है। मुनि सावधानीपूर्वक चल रहा है, फिर भी संभव है कि चलते समय जीव - हिंसा हो जाए, या मुनि से टकराकर कोई प्राणी मर जाए, वह द्रव्य - हिंसा है, क्योंकि मुनि में प्राण - वियोजन करने का कोई भाव नहीं होता और न वह मुनि प्रमत्त है। वह सावधानीपूर्वकचल रहा है। मुनि केवल निमित्त बना, इसलिए वह द्रव्य - हिंसा है, भाव-हिंसा नहीं है । पुस्तक लिखने के परिप्रेक्ष्य में भी कहा गया कि हम केवल ज्ञान की सुरक्षा के लिए ग्रन्थ लिखते हैं । जीवों को मारने की भावना नहीं होती। इतना होने पर भी यदि कोई जीव मर जाता है तो वह द्रव्य -हिंसा होगी, भाव-हिंसा नहीं होगी ! इस तर्क के आधार पर ग्रन्थ-निर्माण और ग्रन्थ रखने की स्थापना हुई। यह भी एक नयी स्थापना थी, क्योंकि आचारांग में द्रव्य - हिंसा और भाव-हिंसा की चर्चा नहीं है । उत्तरकाल के आगमों में या ग्रन्थों में यह चर्चा मिलती है। सारी चर्चा द्रव्य - हिंसा को सामने रखकर की गई है । द्रव्य - हिंसा और भाव - हिंसा का सिद्धांत परिस्थितियों और समस्याओं के समाधान के रूप में स्थापित हुआ । जीवन का व्यवहार ऐसा है कि वह ग्रन्थ ( हिंसा) आदि के बिना नहीं चल सकता और आचार-पक्ष में पूर्ण अहिंसा के पालन की बात आती है तो दोनों में एक टकराव होता है। इस टकराव के Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनन और मूल्यांकन समाधान के रूप में द्रव्य हिंसा और भाव-हिंसा की बात स्थापित हुई । मैं मानता हूं कि यह उत्तरकालीन विकास है। यह एक प्रक्रिया है कि सबसे पहले सामान्यरूप से एक सिद्धांत स्थापित होता है । जैसे-जैसे समस्याएं आती हैं, उसकी कसौटी होती जाती है । जैसे-जैसे कसौटी होती है वैसे-वैसे नयी स्थापनाएं और नये आयाम स्थापित होते जाते हैं । अहिंसा का विकास भी समस्याओं के संदर्भ में हुआ है, उनके साथसाथ हुआ है। प्रत्येक समस्या का समाधान समाज के संदर्भ में होता है । व्यक्ति अकेला होता है, वहां संदर्भ की बात प्राप्त नहीं होती । वहां अध्यात्म की बात हो सकती है, सिद्धांत की नहीं । सिद्धांत की बात सदा समाज और समूह के संदर्भ में होती है, क्योंकि समूह में ही समस्या पैदा होती है और उसी संदर्भ में समाधान खोजे जाते हैं और उनकी स्थापना की जाती है । जैसे- दो मुनि साथ में रहते हैं । एक मुनि ने अनाचार का सेवन कर लिया। दूसरा जानता है । दोनों गुरु के पास आए । एक ने गुरु से कहा - "इस मुनि ने अनाचार का सेवन किया है।" गुरु उस मुनि से पूछते हैं। यदि वह अपना दोष स्वीकार करे तो गुरु उसे प्रायश्चित्त दें और यदि वह अपना दोष स्वीकार न करे और कहे - " इस मुनि ने मेरे पर झूठा अभियोग लगाया है । मैंने अनाचार का सेवन नहीं किया है ।" गुरु उसे प्रायश्चित्त नहीं दे सकते । कोई दोष की शुद्धि चाहे तो उसे प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, अन्यथा नहीं । दोष बताने वाला मुनि कहे- मैं इसके अनाचार सेवन का प्रत्यक्ष साक्षी हूं। मैंने इसे दोष का सेवन करते देखा है । यह अस्वीकार कर रहा है। यह झूठा है ।" इस स्थिति में गुरु क्या करें ? दोनों साधु हैं। दोनों उनके शिष्य हैं। तीसरा कोई नहीं है । उस स्थिति में गुरु अपने मन से निर्णय लें और यह लगे कि यह दोषी है तो उसे समझाकर प्रायश्चित्त दें। यदि स्वयं को यह प्रतीत हो कि यह निर्दोष है, तो दूसरा मुनि कितना ही कहे, उसे दोषी न मानें। प्रायश्चित्त न दें । दोनों मुनि अपनी बात को सत्य बता रहे हैं। एक कहता है - " मैं सहो कह रहा हूं।" दूसरा कहता है- "मैं सही कह रहा हूं।" गुरु व्यवहार के आधार पर निर्णय लेंगे। जिसका व्यवहार पुष्ट होगा, निर्णय उसके पक्ष में होगा । दोनों में से एक के पक्ष में निर्णय होगा : सत्य का जो मूल नियम है उसकी दृष्टि से देखें तो एक ओर असत्य का पोषण हुआ ही है। दोनों मुनियों में से एक तो असत्य है । किन्तु सत्य के सिद्धांत का निरूपण बिल्कुल निरपेक्ष होता है । वहां केवल सत्य ही मान्य होगा और कुछ नहीं । किन्तु जहां समाज या समुदाय में समस्या आती है, वहां व्यवहार को प्रधानता देनी पड़ती है, निश्चय को गौण करना पड़ता है । निश्चय की दृष्टि से पांच महाव्रतों का प्रतिपादन सिद्धान्ततः ठीक है । किन्तु जब वह सिद्धांत व्यवहार में उतरा और नयी-नयी समस्याएं उत्पन्न हुईं तब अनेक उपजीवी सिद्धांत स्थापित किये गए । इसे हम एक उदाहरण से समझें । मुनि जा रहे हैं । एक गांव में पहुंचे। वहां ठहरने का एक ही स्थान है । मूर्ति के लिए . ३४ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-तुला और मानसिक अहिंसा ३५ विधान है कि मुनि अदत्त कुछ भी न ले । वस्त्र, पात्र, मकान आदि की याचना करे और गृहस्वामी की आज्ञा से ले । अवग्रह (स्थान) की याचना करे । अनुमति मिलने पर वहां रहे और न मिलने पर न रहे। उस गांव में स्थान एक ही है। आगंतुक साधु-संन्यासी अनेक हैं। पहले जाने वाला वहां स्थान को रोक सकता है अब उसे स्वामी की आज्ञा प्राप्त करनी है। स्वामी की आज्ञा लेने जाए और पीछे से कोई दूसरा आकर ठहर जाए तो उसे कठिनाई हो सकती है। ऐसी स्थिति में यह विधान किया गया कि वह पहले उस स्थान में ठहर जाए और पश्चात् आज्ञा ले। मूल नियम है-अवग्रह (गृहस्वामी की आज्ञा) के बिना किसी मकान में न रहे। किन्तु जब यह नियम व्यवहार में आया तब कुछ समस्याएं आई। इसमें कुछ परिवर्तन और संशोधन कर दिया गया कि पहले ठहर जाओ, बाद में आज्ञा ले लेना। पहले ठहरने में कोई अदत्त या चोरी की भावना तो है नहीं, किन्तु परिस्थितिवश बिना आज्ञा ठहरना पड़ रहा है। नियमों में जो ये परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं वे सामाजिक समस्याओं के संदर्भ में हुए हैं। फिर भी यह ध्यान रखा गया कि भाव-हिंसा न हो। द्रव्य-हिंसा का सिद्धांत इसमें विकसित हुआ। इसे हम द्रव्य-चोरी कह सकते है, किन्तु भावचोरी नहीं कह सकते। इस प्रकार द्रव्य-हिंसा-भाव-हिंसा, द्रव्य-असत्य-भावअसत्य, द्रव्य-चोरी-भाव-चोरी-ये युगल बन गए । द्रव्य और भाव का सिद्धांत विकसित हुआ और इस आधार पर अनेक निर्णय लिये जाने लगे। पुस्तक धर्मोपकरण है, द्रव्य परिग्रह है, परभाव परिग्रह नहीं है। यह सीमा का विस्तार उत्तरकाल में हुआ। परिग्रह की सीमा विस्तृत हो गई। मुनि जब पान रख सकता है, वस्त्र रख सकता है तो पुस्तक क्यों नहीं रख सकता? पुस्तक यदि परिग्रह है तो वस्त्र-पान परिग्रह क्यों नहीं है ? उन्हें यदि द्रव्य परिग्रह माना जाए तो पुस्तक को द्रव्य परिग्रह क्यों नहीं माना जा सकता? इस आधार पर नियमों में परिवर्तन हुए हैं और उन नियमों को कसौटी के रूप में देखें तो यह स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है कि महावीर द्वारा प्रतिपादित जो मूल सिद्धांत थे उनका विस्तार सामाजिक संदर्भो में होता रहा है। (आचारांग के आधार पर-पांचवां प्रवचन-लाडनूं १७-१२-७७) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (१) ग्यारह अंगों में सूत्रकृत दूसरा अंग है। जैन आगमों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें अनेक विषयों का विशद प्रतिपादन हुआ है। आचार-शास्त्र के निरूपण का यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसे हम आचार-शास्त्रीय ग्रन्थ कह सकते हैं। आचार्य आर्यरक्षित ने आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त किया(१) द्रव्यानुयोग-दर्शनशास्त्र, (२) गणितानुयोग-गणितशास्त्र, (३) चरणकरणानुयोग-आचारशास्त्र, (४) धर्मकथानुयोग-कथाशास्त्र । सूत्रकृतांग को द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत माना है, परन्तु वस्तुतः यह चरणकरणानुयोग का शास्त्र है। ___ पश्चिमी दर्शनों में आचार शास्त्र का स्वतंत्र अस्तित्व है। भारतीय दर्शनों में भी प्राचीन काल में आचार-शास्त्र का स्वतंत्र विभाग था। किन्तु उसकी समीचीन स्वतंत्र अभिव्यञ्जना न होने के कारण उसका स्वतंत्र अस्तित्व गौण हो गया। पश्चिमी विचारकों ने आचार-शास्त्र का अध्ययन यूनानी दर्शनों और यूनानी दार्शनिकों के माध्यम से किया और उन्होंने भारतीय दर्शन की नितान्त उपेक्षा की। पश्चिमी दार्शनिकों ने हेराक्लाइटस, शुकरात, प्लेटो, अरस्तू आदि दार्शनिकों के दर्शन के आधार पर आचार और नीतिशास्त्र की व्याख्या की, किन्तु किसी भी भारतीय आचार्य, दार्शनिक या शास्त्र की मीमांसा के आधार पर प्रकाश नहीं डाला। भारतीय समीक्षकों ने भी पश्चिमी दृष्टिकोण के आधार पर आचार की मीमांसा की। उन्होंने भारतीय आचार-ग्रन्थों का गहन अध्ययन करने का आयास नहीं किया। चार अनुयोगों के आधार पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि आचार-शास्त्र की स्वतंत्र व्यवस्था थी । वह उस समय चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत आता था। पर उसका सही मूल्यांकन नहीं हो सका। एक प्रश्न आता है कि यदि सूत्रकृतांग आचार-शास्त्र है तो उसमें जीव, आत्मा, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (१) ३७ जगत्, सृष्टि का कर्तृत्व, विभिन्न दर्शन-आदि दार्शनिक तथ्यों की चर्चा क्यों है ? हम इस सचाई को न भूलें कि दर्शन और आचार दो नहीं हैं। वास्तव में वे एक ही हैं। प्रश्न पूछा गया-ज्ञान का सार क्या है ? नियुक्तिकार ने कहा-णाणस्स सारं आयारो-ज्ञान का सार है-आचार। जैसे दूध और घी को सर्वथा भिन्न नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों में तादात्म्य है, इसी प्रकार ज्ञान और आचार को सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता। कोरा आचार वस्तुतः आचार नहीं होता और कोरा ज्ञान वस्तुतः ज्ञान नहीं होता। पहले दृष्टि-दर्शन होता है और फिर उससे फलित होता है-आचार । अन्यथा न दर्शन दर्शन रहता है और न आचार आचार । यदि दर्शन की पृष्ठभूमि न हो तो आचार होता ही नहीं। दर्शन की निष्पत्ति है-आचार । दर्शन की सार्थकता है—आचार । आचार की स्वीकृति दर्शन से होती है, इसलिए दोनों को सर्वथा पृथक् नहीं मान सकते। प्रस्तुत आगम का प्रारम्भ वाक्य है-बुज्झज्ज। इसका अर्थ है-जानो। यदि जानोगे नहीं तो आचार का निर्धारण कैसे होगा। इस शब्द की विस्तृत व्याख्या दशकालिक सूत्र (४-श्लोक १०) में उपलब्ध होती है। वहां का वाक्य है—किंवा नाहिइ छेय पावगं—जो ज्ञानी नहीं है वह कैसे जानेगा कि श्रेय क्या है, अश्रेय क्या है ? पुण्य क्या है, पाप क्या है ? इसको नहीं जानने वाला आचारशास्त्र का अध्ययन नहीं कर सकता। जीवन में दो ही बातें होती हैं--श्रेय या अश्रेय । इसी के आधार पर व्यवहार को अच्छा-बुरा कहा जाता है। इसका अध्ययन ही आचार-शास्त्र का विषय है और यही आचार-शास्त्र है। प्रस्तुत आगम में श्रेय और अश्रेय का अध्ययन किया गया है। जीवन के लिए श्रेय क्या है ? अश्रेय क्या है ? कल्याण क्या है ? अकल्याण क्या है ? कल्याण और श्रेय में बाधक तत्त्व कौन-से हैं? इनका अध्ययन होने के कारण सूत्रकृतांग आचार-शास्त्र है। पहले जानो, फिर आचरण करो। ज्ञान के बाद आचार है। आचार ज्ञानशून्य नहीं होना चाहिए। 'आचारः प्रथमो धर्मः'- यह वाक्य बहु-प्रचलित है। यह पूर्ण सचाई को अभिव्यक्त नहीं करता। वास्तविक सूत्र यह हो—ज्ञानं प्रथमो धर्मः, आचारः द्वितीयो धर्मः-ज्ञान पहला धर्म है और आचार दूसरा धर्म है। आचार पहला धर्म बन जाए तो पहले भी कुछ नहीं, बाद में भी कुछ नहीं। फिर तो एक अज्ञानी मनुष्य का सारा आचरण धर्म बन जाएगा। धर्म-अधर्म, नैतिकअनैतिक, श्रेय-अश्रेय- इनमें तब भेद-रेखा खींच पाना सम्भव नहीं होगा क्योंकि इनके बीच भेद-रेखा खींचने वाला तत्त्व है-ज्ञान। ज्ञान ही आचार-शास्त्र की मर्यादा का निर्धारण कर सकता है। पहला धर्म है-ज्ञान । पहला निर्देश है-'बुज्झज्ज'-जानो। प्रश्न होता है कि जानना किसलिए? यहां जानना केवल जानने के लिए नहीं, ज्ञान केवल ज्ञान Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ मनन और मूल्यांकन के लिए नहीं, किन्तु उद्देश्यपूर्ति के लिए हो। ज्ञान ज्ञान के लिए भी हो सकता है । मैं जानता हूं क्योंकि मुझे ज्ञान उपलब्ध है। यह अपने आप उद्देश्य की सार्थकता है । यह अनुचित नहीं है। किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में 'बुज्झेज्ज' शब्द का प्रतिपाद्य है कि ज्ञान ज्ञान के लिए नहीं, कर्तव्य कर्तव्य के लिए नही, किन्तु लक्ष्यपूर्ति के लिए हो।। काण्ट ने कहा, "कर्तव्य कर्त्तव्य के लिए होना चाहिए, किसी लाभ विशेष के लिए नहीं।" यह कथन उचित है, किन्तु पूर्ण नहीं है। यदि कर्त्तव्य कर्तव्य के लिए हो तो शून्यता होगी। उसका अवश्य ही कोई उद्देश्य होना चाहिए, लक्ष्य होना चाहिए। क्या आदमी केवल कार्य करने के लिए ही जन्मा है ? क्या उसका कोई लक्ष्य नहीं है ? क्या वह लक्ष्यहीन जीवन जी रहा है ? क्रिया क्रिया के लिए होगी तो वह व्यर्थ होगी। मनुष्य अनावश्यक क्रियाओं में उलझ जाएगा। क्रिया उद्देश्यपूर्ति के लिए होनी चाहिए। जितना प्रयोजन उतनी क्रिया-यह व्यवहार का बहुत ही महत्त्वपूर्ण सूत्र है। यदि क्रिया केवल क्रिया के लिए ही हो तो वह अनन्त हो जाएगी और उसकी पूर्ति का विरामचिह्न कहीं नहीं लगेगा। ज्ञान और कर्तव्य किसी-न-किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए होने चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में 'बुज्झेज्ज' के बाद का शब्द है-'तिउट्टे ज्जा'। इसका अर्थ है-तोड़ो। पहले जानो, फिर आचरण करो, तोड़ो। ज्ञान और आचरण-दोनों साथ-साथ चलें । केवल जानना पर्याप्त नहीं है । यह अपूर्ण है। उसमें तोड़ने का,आचरण करने का प्रश्न ही नहीं आता। किन्तु 'बुज्झेज्ज तिउट्टज्जा' यह ज्ञान और आचरण का समन्वय-स्त्र है। जानो और तोड़ो । दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं। दोनों साथ होकर पूर्ण होते हैं । दोनों एक-एक रहकर अपूर्ण होते हैं । आचार-शास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय है-आचार-शास्त्र की प्रेरकता। प्रश्न है हम क्यों जानें? यदि कोई प्रेरणा न हो तो जानने की सार्थकता नहीं होती। वह प्रेरणा है-तोड़ना । सामान्यतः प्रत्येक प्राणी की प्रकृति है कि वह सुख की उपलब्धि और दुःख की निवृत्ति के लिए प्रयत्न करता है। आचारशास्त्र ने सुखवादी दृष्टिकोण के आधार पर प्रतिपादित किया कि मनुष्य सुख चाहता है, दुःख नहीं। इसलिए हमारे समूचे आचारशास्त्र का आधार बनता है--सुखवाद । इसका सुख मूल है, यह बात नहीं है। मूल है—राग, काम। वह सुख से प्रेरित नहीं, किन्तु कामना से प्रेरित होकर काम करता है। भगवान् महावीर ने कहा'कामकामी खलु अयं पुरिसे'- मनुष्य काम (कामना) से प्रेरित होकर प्रवृत्ति करता है । हमारी प्रेरणा है-काम । भारतीय आचार-शास्त्र में दो धाराओं का अनुशीलन और अनुचिन्तन किया गया। इन दोधाराओं के आधार पर दो पक्ष बनते हैं-लौकिक और आध्यात्मिक। आचार-शास्त्र के लौकिक पक्ष में काम और अर्थ पर विचार किया गया और Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व ( १ ) ३६ आध्यात्मिक पक्ष में धर्म और मोक्ष पर चिंतन किया गया। दोनों पक्षों में चारों पुरुषार्थ समा जाते हैं । हेराक्लाइटस ने यह प्रश्न उपस्थित किया - आचार क्यों ? आचार को जानने लिए जगत् की प्रकृति का अध्ययन जरूरी है । निष्कर्ष निकाला कि जगत् का मूल तत्त्व है - कठोरता और रूक्षता । हमारे जीवन का उद्देश्य है -- प्रकाश करना अंधकार को समाप्त करना । आर्द्रता को समाप्त कर रूक्षता का विकास करना, रूक्षता का अर्जन करना। हेराक्लाइटस ने कहा - keep your life dry — जीवन को रूखा बनाओ। उनके दर्शन के आधार पर संयम का विकास हुआ। इच्छाओं पर नियंत्रण पाना उनका मुख्य आधार-सूत्र बन गया । आश्चर्य की बात है | dry का पर्यायशब्द रूक्ष है । भगवान् महावीर की वाणी में संयम का पर्यायवाची शब्द रूक्ष है । भगवान् महावीर और हेराक्लाइटस का समय आसपास का ही है । क्षेत्रीय दूरी होने पर भी दोनों ने संयम के अर्थ में एक ही शब्द का प्रयोग किया है । हेराक्लाइटस के रूक्षता के सिद्धान्त के आधार पर इच्छाओं पर नियंत्रण पाने, संयम करने के सिद्धान्त का विकास हुआ । यही आचार - शास्त्र का मूल सूत्र बना । कुछ समत पश्चात् डेमोक्रेटस ने इच्छातृप्ति और सुखोपलब्धि का सूत्र दिया । इनके आधार पर अचारशास्त्र की नींव डाली गई । महावीर ने जिस आचारशास्त्र का प्रतिपादन किया, उसमें सुख और दुःख की परिभाषा बदल गई । व्यवहार में पूछा जाता है— तुम सुख चाहते हो या दुःख ? उत्तर होगा - सुख चाहता हूं, दुःख कभी नहीं चाहता । सुख चाहना और दुःख न चाहना – यह मनुष्य की प्रकृति है । इस आधार पर दो सिद्धान्तों— सुखवाद और दुखवाद का विकास हुआ। किन्तु महावीर ने भाषा बदल दी। उन्होंने दो शब्दों का प्रयोग किया—बंध और मोक्ष | दो धाराएं हैं-लौकिक और आध्यात्मिक । लौकिक धारा पहले से प्रचलित श्री । समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों ने इसका विकास किया । कुछ लोग कहते हैं कि जैन-दर्शन अधूरा है, पूरा नहीं है क्योंकि वह जीवन की समग्र धाराओं का प्रतिपादन नहीं करता । वह केवल अध्यात्म पक्ष है, केवल क्ष की बात करता है । यह एकपक्षीय प्रतिपादन है । यह कथन सर्वथा यथार्थ भी नहीं है और सर्वथा अयथार्थ भी नहीं है । जैन दर्शन अध्यात्म-दर्शन है, इसलिए वह एक ही पक्ष का प्रतिपादन करता है । वह धर्म और मोक्ष का प्रतिपादन करता है, अर्थ और काम का प्रतिपादन नहीं करता । धर्म और मोक्ष जीवन का एक पक्ष है, उसी प्रकार अर्थ और काम भी जीवन का एक पक्ष है। दोनों मिलकर जीवन की पूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । यह आरोप या कथन यूनानी दार्शनिकों की दार्शनिक सृष्टि के बाद यहां फैला, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० मनन और मूल्यांकन क्योंकि प्लेटो, अरस्तू आदि दार्शनिकों ने समग्रदृष्टि से विचार किया और उसकी व्यवस्थाएं भी दीं। उन्होंने काम और अर्थ के विषय में चिन्तन किया, व्यवस्थाएं दी, उसी प्रकार राजनीति और राज्य के विषय में भी विचार किया, व्यवस्थाएं दी। पश्चिमी ताकिक मानस के लोग यह जानना चाहेंगे कि जैसे प्लेटो और अरस्तू ने राज्य-व्यवस्था के सत्र दिए, क्या उसी प्रकार महावीर, बुद्ध और भारतीय दार्शनिकों ने भी कुछ सूत्र दिए हैं ? वस्तुतः भारतीय दार्शनिकों ने ऐसा नहीं किया और इसलिए नहीं किया कि यहां लौकिक और आध्यात्मिक-दोनों धाराएं स्वीकृत थीं। भगवान महावीर और बुद्ध ने आध्यात्मिक पक्ष का प्रतिपादन किया और समाज का चिन्तन करने वाले ऋषि-महर्षियों ने काम और अर्थ की भावनाएं प्रस्तुत की। वात्स्यायन ने कामशास्त्र लिखा । वह काम-शाखा का मूल ग्रन्थ है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र लिखा। शुक्रनीति ग्रन्थ का प्रणयन हुआ और भी अनेक ग्रन्थ लिखे गए। जैन और जैनेतर विद्वानों ने इस विषय के अनेक ग्रन्थ लिखे । परन्तु वे सब इस बात पर एकमत रहे कि दोनों पक्षों-लौकिक और आध्यात्मिक-का मिश्रण न हो। कामशास्त्र में वात्स्यायन ने लिखा है- 'स्थविरे धर्ममोक्ष'-अर्थ और काम से धर्म और मोक्ष स्थविर हैं, बड़े हैं। वे जानते थे कि काम और अर्थ जीवन की तृप्ति के लिए हैं। दोनों आवश्यकताएं हैं जीवन की। किन्तु ये वास्तविक नहीं हैं। ये जीवन का उन्नयन करने वाली नहीं हैं। यद्यपि कौटिल्य ने कहा'अर्थः प्रधानं'- अर्थ प्रधान है, यह प्रधानता भी अर्थ की दृष्टि से है। उन्होंने धर्म का विस्मरण कभी नहीं किया। उन्होंने अध्यात्म के अनेक ग्रन्थ लिखे और काम और अर्थ को हेय बतलाया। ___इस प्रकार लौकिक धारा और आध्यात्मिक धारा-दोनों धाराएं स्वतन्त्र रहीं। किन्तु प्रश्न होता है कि क्या अध्यात्म के आचार्य यह नहीं जानते थे कि काम और अर्थ से सुख मिलता है, अर्थ काम की पूर्ति का साधन है ? वे जानने थे और इसका प्रतिपादन भी करते थे कि काम के सेवन से सुख मिलता है, किन्तु वे साथ-साथ उसकी हेयता का भी प्रतिपादन करते थे। उनके सामने दोनों धाराओं का स्पष्ट विवेक था, विवेचन था। चेतना की दो धाराएं हैं। एक है - राग-चेतना की धारा और दूसरी हैवीतराग-चेतना की धारा। जीवन में दोनों धाराओं का समन्वय होता है। जो व्यक्ति वीतराग चेतना में जीता है, वह कभी राग-चेतना की उपादेयता को स्वीकार नहीं करेगा । वह कभी उस दिशा में प्रस्थान नहीं करेगा। राग-चेतना को स्वीकार करने वाले वीतराग-चेतना को अस्वीकार नहीं करते हैं। अपवाद रूप में चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन वीतराग-चेतना को अस्वीकार करते हैं। सभी भारतीय दर्शन एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि राग-चेतना जीवन की अन्तिम उपलब्धि नहीं है। वास्तव में अन्तिम उपलब्धि है-वीतराग-चेतना। जैन, बौद्ध और औप Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (१) ४१ निषदिक दर्शन -सभी वीतराग-चेतना को स्वीकृति देते हैं । दोनों धाराएं बराबर चलती रहीं। कर्म और अर्थ की धारा भी चलती रही और धर्म और मोक्ष की 'धारा भी चलती रही। जो व्यक्ति अध्यात्म को उपलब्ध हो गए, जिन्हें अध्यात्म का साक्षात्कार हो गया, उन्हें वीतराग-चेतना से नीचे उतरकर राग-चेतना के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना उचित नहीं लगा। अध्यात्मवेत्ताओं ने राज्य-व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था, काम-व्यवस्था और समाजव्यवस्था के विषय में लेखनी नहीं चलाई। उनकी दृष्टि स्पष्ट थी । उन्होंने कहा"जब हम शाश्वत सत्यों की व्याख्या कर रहे हैं, तब सामयिक सत्यों की व्याख्या करना अपेक्षित नहीं है। शाश्वत और सामयिक सत्यों का मिश्रण नयी कठिनाइयां पैदा करता है। उससे नया रूढ़िवाद जन्म लेता है। एक ओर शाश्वत सत्यों की व्याख्या और दूसरी ओर सामयिक या अशाश्वत सत्यों का प्रतिपादन-दोनों में कोई सामंजस्य नहीं है। जिन्होंने दोनों का प्रतिपादन किया है वहां वे दोनों के मिश्रण से बच नहीं पाए हैं। उससे अनेक गड़बड़ियां हुई हैं।" ___ भारतीय राज्यशास्त्रियों ने लिखा--"राजा ईश्वर का पुत्र होता है। वह ईश्वरीय सत्ता है। वह देवता है। उसे राज्य करने का जन्मसिद्ध अधिकार है।" शाश्वत सत्य की दृष्टि से राजा न ईश्वर का पुत्र है, न ईश्वरीय सत्ता है और न देवता है। वह केवल शक्ति के अर्जन या संवर्धन से राजा बन गया या परिपाटी से राजा बना दिया गया। ___ आज राजतंत्र, ईश्वरीय सत्ता और देववाद-सारे समाप्त हो गए । वर्तमान के चिंतन में राजा को देव या ईश्वर मानना उचित नहीं लगता। वह हमारे जैसा ही एक मनुष्य है। __जब शाश्वत और सामयिक-दोनों का मिश्रण हो जाता है तब समस्याएं उत्पन्न होती हैं। महावीर ने कहा.-अहिंसा शाश्वत सत्य है, धर्म है। यदि वे इसके साथ-साथ यह भी कह देते कि राज्य-रक्षा करना धर्म है तो बड़ी समस्या 'पैदा हो जाती। अहिंसा को धर्म कहने वाला व्यक्ति ही यदि कहे कि राज्य रक्षा भी धर्म है तो अहिंसा का सिद्धान्त अपने आप खंडित हो जाता है। कोई भी राज्यशास्त्री या समाजशास्त्री यही कहेगा कि राज्य-रक्षा करना पहला धर्म है और अहिंसा दूसरा धर्म है । अध्यात्मशास्त्री कहेगा-अहिंसा ही धर्म है, राज्य-रक्षा धर्म नहीं है। दोनों में कितना विरोधाभास है ? राज्य-रक्षा में या राज्य-व्यवस्था में हजारों लोग मरते हैं, उसकी राज्य को चिंता नहीं होती। उसे हिंसा या अधर्म की 'चिंता नहीं होती। उसे केवल रक्षा और व्यवस्था की चिंता होती है। यदि अध्यात्मशास्त्री कह दे-राज्य-रक्षा धर्म है तो फिर अहिंसा का शाश्वत मूल्य समाप्त हो जाएगा। वह शाश्वत सत्य नहीं रहेगा। भारतीय दर्शन जीवन के प्रति समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत नहीं करता, यह भ्रांति Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ मनन और मूल्यांकन है। वह शाश्वत और अशाश्वत की स्पष्ट सीमाओं को स्वीकार करता है । वह दोनों में भेद मानता है । जीवन के दोनों पक्ष हैं, किन्तु वह दोनों का मिश्रण कभी स्वीकार नहीं करता । शाश्वत का अपना मूल्य है, सर्वोपरि मूल्य है । सामयिक का अपना मूल्य है, अल्पकालिक मूल्य है। केवल समाज के सम्पर्क में ही उसका मूल्य है। शाश्वत की सीमा में वह मूल्यहीन है। उन्होंने कहा-अध्यात्म, दर्शन और आचार-शास्त्र की एक सीमा है और समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र की दूसरी सीमा है। दोनों का पृथक अस्तित्व है। यदि दोनों अपनी-अपनी सीमा का अतिक्रमण करते हैं तो दोनों मूल्यहीन बन जाते हैं। शाश्वत की सीमा में शाश्वत का मूल्य है और अशाश्वत की सीमा में अशाश्वत का मूल्य है। भारतीय दार्शनिकों के सामने यह स्पष्ट भेद-रेखा थी। किन्तु यदि हम पश्चिमी दार्शनिकों को पढ़ते तो यह ज्ञात हो जाता है कि उनके सामने अध्यात्म की रेखाएं स्पष्ट नहीं थीं। उनका दर्शन केवल जीवन के एक पक्ष की मीमांसा प्रस्तुत करता है। ____ वास्तव में मानना यह चाहिए कि दर्शन मुख्यतया तत्त्व मीमांसा है, मोक्ष और आत्मा की मीमांसा नहीं है। उसका दर्शन या तत्त्वज्ञान के आधार पर व्यावहारिक आचार-शास्त्र बना, आचार-शास्त्र की मीमांसा हुई, किन्तु मोक्ष, आत्मा या अध्यात्म के आधार पर उसकी अभिव्यक्ति नहीं हुई। यदि पश्चिमी दार्शनिकों के सामने अध्यात्म की दृष्टि होती तो आचार-शास्त्र का स्वरूप और मीमांसा दूसरे प्रकार की होती। मार्क्स ने कहा-."दर्शन आदमी को ज्ञान देता है पर बदलता नहीं, इसलिए ऐसा दर्शन चाहिए जोसमाज को बदल सके।" पश्चिमी दार्शनिकों का यह दृष्टिकोण निष्कारण नहीं था। उनके दर्शन की पृष्ठभूमि यही थी। उन्होंने तत्त्वज्ञान और आचार को विभक्त कर दिया। पर यह विभाजन उचित नहीं था। दर्शन और आचार को अलग नहीं किया जा सकता। भगवान् महावीर के दो शब्द-बुज्झज्ज, तिउज्जा —इसी ओर संकेत करते हैं। ज्ञान प्रथम आवश्यकता है। जानने के बाद आचरण करना, तोड़ना आवश्यक होता है । जानो और करो। फिर प्रश्न उठा कि क्या जाने ? क्या करें? आर्य जम्बू ने गणधर सुधर्मा से पूछा-'किमाहु बंधणं वीरे-बंधन क्या है ? किं वा जाणं तिउट्टई'- क्या जानने से बंधन टूटता है ? बंधन क्या है-इसे जानना है । उसको तोड़ने का उपाय क्या है-इसे जानना है और करना है। आर्य सुधर्मा ने आचारशास्त्रीय दृष्टि से यहां एक बहुत बड़े सत्य का उद्घाटन किया है। उन्होंने कहा-"परिग्रह बंधन है।" यह सूत्र समूचे आचारशास्त्र का आधार-सूत्र है। हमारी जीवन-यात्रा परिग्रह से शुरू होती है। यदि परिग्रह नहीं है तो समाज भी नहीं है और जीवन-यात्रा भी नहीं है। परिग्रह का अर्थ है-बाहर से कुछ लेना। बाहर से लेना बंधन है। हमः Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (१) ४३ श्वास लेते हैं, चिन्तन के परमाणुओं को ग्रहण करते हैं, संस्कारों को ग्रहण करते हैं—यह सब परिग्रह है, बंधन है। एक बच्चा मां से जो कुछ ग्रहण करता है वह सब परिग्रह है। माता-पिता के गुण-धर्म और संस्कार लेना, आहार लेना, शरीर धारण करना, शरीर का पोषण करना—यह सारा परिग्रह है। इसकी सीमा बहुत व्यापक है। परिग्रह तीन भागों में विभक्त है--कर्म, शरीर और धन-धान्य आदि । महावीर ने कहा-"परिग्रह बंधन है।" यदि यहां कर्मशास्त्रीय विवेचन होता तो कहा जाता कि राग-द्वेष बंधन हैं, आठ कर्मों का बंध होना बंधन है । पर यदि हम सोचें तो यह कर्मशास्त्रीय विवेचन नहीं है, यह तो आचारशास्त्रीय विवेचन है। इसमें कर्म-बंधन विवक्षित नहीं है, परिग्रह-बंधन विवक्षित है। आदमी सबसे पहले परिग्रह से बंधता है और अन्त तक उसी से बंधा रहता है। उसकी जीवन की सारी यात्रा परिग्रह से होती है। दूसरा प्रश्न है—बंधन-मुक्ति का उपाय क्या है ? इसका उत्तर है-परिवार, धन आदि के प्रति भेदानुभूति का होना ही बंधन-मुक्ति का उपाय है। प्रश्न आता है कि यहां परिग्रह की बात कही गई है, हिंसा की बात क्यों नहीं कही गई ? प्रश्न उचित है। हमें समझना है कि आदमी हिंसा के लिए हिंसा नहीं करता। वह सारी प्रवृत्ति, सारी हिंसा परिग्रह के लिए करता है। परिग्रह है-- प्रयोजन, हिंसा है--समाधान । चार पुरुषार्थों में भी दो प्रयोजन हैं और दो साधन हैं । मोक्ष प्रयोजन है, धर्म साधन है। काम प्रयोजन है, अर्थ साधन है। महावीर का दृष्टिकोण है कि मनुष्य की मूलवृत्ति है-संग्रह करना। यही परिग्रह है। व्यक्ति परिग्रह के लिए ही हिंसा करता है । जीवन की समूची यात्रा संग्रह के लिए चलती है। कपड़ा, धन, धान्य बाहर से लेना-यह सब संग्रह है, परिग्रह है। ____ बंधन का प्रेरक तत्त्व क्या है ? वह है ममत्व । आदमी ममत्व के कारण ही संग्रह करता है। उसका शरीर के प्रति ममत्व है, परिवार और समाज के प्रति ममत्व है, राष्ट्र के प्रति ममत्व है। इस ममत्व के कारण ही वह बंधा हुआ है। उसी की प्रेरकता से वह परिग्रह करता है और परिग्रह के लिए हिंसा करता है। जैसे बंधन का प्रेरक तत्त्व है-ममत्व, वैसे ही बंधन-मुक्ति का प्रेरक तत्त्व है-अत्राण की अनुभूति । मनुष्य को यह अनुभव होना चाहिए कि परिवार और धन में बाणशक्ति नहीं है । बे वाण नहीं दे सकते। वे अक्षम हैं । बंधन-मुक्ति का यह पहला प्रेरक तत्त्व है। ___ बंधन-मुक्ति का दूसरा प्रेरक तत्व है-सुख-दुःख की क्षणिकता या नश्वरता का अनुभव। ___ बंधनमुक्ति के ये दो प्रेरक तत्त्व हैं। राग-चेतना से सुख होता है। आगमकार कहते हैं-खणमेत्तसोक्खा-सुख क्षणिक होता है। यह अध्यात्म का उपदेश है। व्यवहार में हम देखते हैं कि भूखे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ मनन और मूल्यांकन को रोटी मिली। उससे सुख की अनुभूति हुई। पांचों इन्द्रियों के विषय-सेवन से सुख की अनुभूति होती है । कान से प्रिय शब्द सुनना, आंख से सौन्दर्य देखना, नाक से सुगंध लेना, त्वचा से अच्छा स्पर्श करना, जीभ से रस का आस्वादन लेना ---ये सारे सुख की अनुभूति में कारण बनते हैं। पर अध्यात्मवेत्ता कहेगा-वास्तव में भौतिक वस्तुओं से सुख नहीं मिलता। व्यवहार में जीने वाला व्यक्ति इसे झूठ मानेगा। पर जो अनुभूत हो रहा है, जो सुख सहज उपलब्ध है, पौद्गलिक वस्तुओं से जो निष्पादित होता है और जीवन के क्षण-क्षण में जिस सुख का हम अनुभव करते हैं, उसे कैसे झुठलाया जा सकता है ? इस प्रत्यक्ष अनुभूत सुख की विद्यमानता में यह परिकल्पना क्यों की गई कि अरस और अस्पर्श का अनुभव करना, अरूप और अशब्द का अनुभव करना ही वास्तव में सुख है। दो प्रकार की प्रक्रियाएं हैं । एक है-लाघव की प्रक्रिया और दूसरी हैगौरव की प्रक्रिया । इन्द्रियों का मार्ग लाघव की प्रक्रिया है। पदार्थों में सुख देने की क्षमता है । इन्द्रियां प्राप्त हैं। पदार्थों का उपभोग करो। यद लाघवप्रक्रिया है। ___ इन्द्रियों का नियंत्रण करना, इन्द्रिय-संयम करना, इन्द्रियातीत सुख को उपलब्ध करना----यह गौरव प्रक्रिया है। प्रश्न होता है कि यह विभाजन क्यों? अनेक दार्शनिकों ने इस प्रश्न पर विमर्श किया और कहा-यदि यह विभाजन न हो तो धर्म, अध्यात्म और नैतिकता-ये सब काल्पनिक तथ्य बन जाएंगे। उनकी यथार्थता समाप्त हो जाएगी, क्योंकि उनका आधार होता है वह सुख, जो इन्द्रियातीत हो, इन्द्रियों द्वारा प्राप्त न हो। काण्ट ने तीन बातें बताई१. संकल्प की स्वतंत्रता। २. ईश्वरीय-सत्ता। ३. आत्मा की अमरता। नैतिकता के ये तीन आधार बनते है । भारतीय दर्शनों में धर्म और अध्यात्म पर जो विचार हुआ, जो प्रेरक तत्त्व और आधार बतलाए, वे शाश्वत हैं। वे दो हैं—अत्राण की अनुभूति और सुखदुःख की नश्वरता। इन दो मूलभूत बातों पर अध्यात्म का विकास हुआ। ___इन्द्रियों से प्राप्त सुख अनैकान्तिक होता है। पदार्थ से सुख मिलता भी है और नहीं भी मिलता। जिसको कभी उनसे सुख मिलता है, उसको कभी उनसे सुख नहीं भी मिलता । यह सुख एकान्तिक नहीं हो सकता। मन स्वस्थ है तो संगीत सुनना सुख देता है। ज्वर है तो वही संगीत दुःख देता है। इन्द्रियजन्य सुख आत्यन्तिक नहीं होता। एक बार सुख मिला, दूसरी बार Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (१) ४५ नहीं भी मिलता । तृप्ति हुई, फिर अतृप्ति हो गई । आत्यन्तिक वह होता है जो एक बार तृप्ति देता है और फिर अतृप्ति कभी नहीं होती । इस विषय में सांख्य दर्शन ने गहरा चिंतन किया है। उसने बताया- रोटी खाने से कैसा सुख मिलता है ? भूख जठराग्नि की पीड़ा है। यह बीमारी है । बीमारी को मिटाना सुख कैसे ? यह तो बीमारी का उपचारमात्र है। भूख-प्यास मिटाना बीमारी का उपचार है, सुख नहीं । मनुष्य भोजन करता है। भूख मिटती है । तृप्ति का अनुभव होता है, परन्तु अतृप्ति का क्षण वहीं से प्रारंभ हो जाता है । यदि उसी क्षण में अतृप्ति प्रारंभ न हो तो वह कभी प्रारंभ नहीं हो सकती । यदि उसी समय भूख लगनी प्रारंभ न हो तो फिर कभी भूख लग ही नहीं सकती। जिस समय मनुष्य जन्म लेता है, उसी क्षण से यदि मृत्यु प्रारंभ न हो तो उसकी मृत्यु कभी नहीं हो सकती । वह अमर बन जाता है । भूख एक ही मिनट में नहीं लगती। जिस क्षण में भूख मिटी, उसी क्षण से भूख प्रारंभ हो जाती है । जब भूख चरम बिन्दु पर पहुंचती है तब हम कहते हैं— भूख लग गई। भूख मिटने या प्यास बुझने का सुख आत्यन्तिक नहीं होता । तीसरी बात है कि पदार्थजन्य सुख निर्बाध नहीं है । उसमें अनेक अवरोध हैं, बाधाएं हैं। वीतराग-चेतना से उपलब्ध सुख अनैकान्तिक, आत्यन्तिक और निर्बाध है, इसी आधार पर अध्यात्म का विकास हुआ, बंधन तोड़ने की प्रेरणा मिली। यह सुख शाश्वत है । इसमें त्राणशक्ति है । बंधन के हेतु कौन-कौन से हैं ? मोक्ष के हेतु क्या हैं ? इनको आचार-शास्त्र के संदर्भ में समझना होगा । अन्यथा आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण को नहीं समझा जा गा। (सूत्रकृतांग सूत्र के आधार पर - पहला प्रवचन - १ - १ - ७६ लाडनूं) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. आचार - शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (२) आचार-शास्त्र के आधारभूत सिद्धांत चार हैं ---- १. अत्राण । २. अनित्यता । ३. आत्मा की परिणामि नित्यता । ४. श्रेय का आचरण तथा अश्रेय से बचाव । उनमें अत्राण और अनित्यता की चर्चा पहले की जा चुकी है । आचार - शास्त्र का तीसरा सिद्धान्त है - आत्मा की परिणामि नित्यता । यदि आत्मा न हो तो आचार - शास्त्र का कोई आधार नहीं बनता और आत्मा हो और वह कर्त्ता न हो, उसका स्वतंत्र कर्तृत्व न हो तो आचार - शास्त्र की दिशा भिन्न होगी । आत्मा हो और वह यदि कूटस्थनित्य हो तो भी आचार - शास्त्र की दिशा भिन्न होगी, इसलिए सूत्रकार ने इस प्रसंग पर एक मीमांसा प्रस्तुत की है। उस मीमांसा में दो प्रकार के दर्शन आते हैं। एक है - अनात्मवादी दर्शन और दूसरा है - आत्मवादी दर्शन । सूत्रकार ने सर्वप्रथम पांच महाभूतवादियों का उल्लेख किया है । वे पांच महाभूतों का अस्तित्व स्वीकारते हैं और उन्हीं से आत्मा को उत्पन्न हुआ मानते हैं । वे मानते हैं कि शरीर के विनाश के साथ ही आत्मा का भी नाश हो जाता है । पंचमहाभूतवाद के पश्चात् एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद, पंचस्कंधवाद, नियतिवाद, ज्ञानवाद की चर्चाएं प्राप्त हैं। जहां भूतवाद की चर्चा प्राप्त है, वहां आचार- शास्त्र पर इतना गंभीर चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं होती । आत्मा की अनुपस्थिति में जो समाज की उपयोगिता है वही आचार का पर्याप्त आधार है। उससे आगे किसी भी आचारशास्त्रीय नियम -को खोजने की आवश्यकता नहीं है । वर्णित दर्शनों में तज्जीवतच्छरीरवाद, पंचमहाभूतवाद आदि दर्शन अनात्मवादी हैं । ये दर्शन आत्मा की शाश्वत सत्ता को स्वीकार नहीं करते । ये विश्व के आधारभूत तत्त्व के रूप में आत्मा की प्रतिष्ठा नहीं करते । अकारकवाद, एकात्मक — ये आत्मवादी दर्शन हैं । इनके आधार पर Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (२) ४७ भी आचारशास्त्रीय दिशाएं स्पष्ट नहीं होती। __आचार-शास्त्र का मूल आधार है-श्रेय का आचरण और अश्रेय का निरोध । यही इसका स्वरूप है। आचार-शास्त्र कोई तत्त्वविद्या नहीं है। वह जीवन का मूल्य है, आदर्श का अध्ययन है। जीवन का मूल्य है-श्रेय का आचारण और अश्रेय से बचाव । श्रेय और अश्रेय का उत्पादक' कौन है ?—यह आचार-शास्त्र का ज्वलंत प्रश्न है। क्या मनुष्य श्रेय और अश्रेय का आचरण करने में स्वतंत्र है या परतंत्र ? इन प्रश्नों का उत्तर विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न दृष्टिकोणों से दिया है। आचार-शास्त्र के तीन सिद्धान्त हैं१. संकल्प की स्वतंत्रता। २. नियतिवाद। ३. आत्म-नियतिवाद। कुछ दार्शनिक मानते हैं कि मनुष्य कर्म और संकल्प करने में स्वतंत्र है। यूननी दार्शनिकों का यही अभिमत रहा। काण्ट ने आचार-शास्त्र के दो आधार प्रस्तुत किए। उनमें पहला है--संकल्प की स्वतंत्रता। उनका तर्क था कि यदि मनुष्य में संकल्प की स्वतंत्रता न हो तो उससे सदाचार की आशा नहीं की जा सकती। भले-बुरे के लिए उसे उत्तरदायी नही ठहराया जा सकता। फिर उत्तरदायी कोई दूसरा ही होगा। जो ईश्वरवादी दार्शनिक हैं उनके सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न है। वे मनुष्य के संकल्प की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करते। वे मानते हैं कि मनुष्य जो भी कर्म करता है, प्रवृत्ति करता है, वह सब ईश्वर-प्रेरित होती है। अब प्रश्न आता है कि मनुष्य के कर्म का उत्तरदायी कौन? उसके श्रेय और अश्रेय के प्रति उत्तरदायी कौन ? - पश्चिम के धर्म-प्रधान दार्शनिकों में यह विचार प्रचलित रहा कि ईश्वर ने श्रेय ही उत्पन्न किया था, किन्तु बाद में अश्रेय हो गया । अश्रेय या बुराई है ईश्वरीय आदेशों का अतिक्रमण । ईसाई धर्म में माना गया है कि प्रथम पुरुष आदम ने ईश्वरीय इच्छाओं का अतिक्रमण किया इसलिए अश्रेय उत्पन्न हो गया। 'अश्रेय को ईश्वर ने उत्पन्न किया' यह अभ्युपगम कठिन होता है, इसलिए इसे स्वीकार नहीं किया गया। मनुष्य पहले अच्छा ही था, बाद में वह बुरा बना। वह बुरा इसलिए है कि वह ईश्वरीय आदेशों का अतिक्रमण करता जा रहा है। भारतीय दर्शनों-ईश्वरवादी दर्शनों के सामने भी यह प्रश्न है कि मनुष्य के भले-बुरे आचरण का उत्तरदायी कौन ? कहा गया है-'ईश्वर-प्रेरितो गच्छेत्, स्वर्ग वा नरकं तथा'...। फिर मनुष्य को क्यों उत्तरदायी माना जाए। इस जटिल प्रश्न का समाधान बहुत कठिन है, यदि हम उसके कर्तृत्व की स्वतंत्रता स्वीकार न करें। मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, संकल्प करने में स्वतंत्र है। यदि वह स्वतंत्र है तभी वह श्रेय Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ मनन और मूल्यांकन और अश्रेय के प्रति उत्तरदायी माना जा सकता है, अन्यथा नहीं । दूसरा दृष्टिकोण है— नियतिवाद । नियतिवादी मानते हैं कि सब कुछ नियत है, अनियत कुछ भी नहीं है। सारे भौतिक पदार्थ नियत हैं। एक परमाणु का भी क्रम नियत है, अनियत कुछ भी नहीं । इसीलिए समूचा भौतिकवादी विज्ञान एक निश्चित सिद्धान्त के आधार पर निष्कर्ष निकालता है, भौतिक पदार्थ की व्याख्या करता है, भविष्यवाणी करता है । भविष्यवाणी इसीलिए को जा सकती है कि भौतिक पदार्थ में अनियमितता नहीं है, अव्यवस्था नहीं है । नियतिवादी विचारधारा मनुष्य को भौतिक पदार्थ की भांति यांत्रिक मानती है । उसी के आधार पर मनुष्य की नियति को व्याख्यायित करती है । व्यावहारिक मनोविज्ञान मनुष्य को भौतिक पदार्थ की भांति परिस्थिति के अधीन यंत्रवत् मानती है, परिस्थितिवाद, वातावरणवाद और निमित्तवाद - ये सब मनुष्य को नियति मानकर तत्त्व की व्याख्या करते हैं । सूत्रकृतांग में नियतिवाद का उल्लेख है । यह आजीवक सम्प्रदाय का अभिमत है । इसके अनुसार मनुष्य एक नियत क्रम से चलता है । वह नियति के अधीन है । मनुष्य के संकल्प की कोई स्वतंत्रता नहीं है । नियतिवाद: और संकल्प की स्वतंत्रता - ये दोनों असमन्वित होकर सही नहीं है । इस प्रकार सूत्रकार ने विभिन्न दृष्टिकोणों की व्याख्या प्रस्तुत की है । आगे के श्लोकों में सूत्रकार ने यह प्रतिपादन किया है कि जब तक दुःख की उत्पत्ति को नहीं जाना जाता, तब तक दुःख-निरोध को भी नहीं जाना जा सकता । अमणुन्न सणुप्पायं अमनोज्ञ का उत्पाद ही दुःख है । अमनोज्ञ का अर्थ है - असंयम | असंयम से दुःख उत्पन्न होता है । इस दुःख की उत्पत्ति को जो नहीं जानता वह उसके निरोध को कैसे जान सकता है ? 1 आचार - शास्त्र के तीन मूल तत्त्व हैं - दुःख, दुःख का उत्पाद और दुःख का निरोध । दुःख को जानना है, दुःख के उत्पाद को जानना है और दुःख के निरोध को जानना है । सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि दुःख क्या है ? दूसरी बात है कि दुःख उत्पन्न कैसे होता है ? और तीसरी बात है कि दुःख का निरोध कैसे होता है ? सूत्रकार इस बात का समर्थन करते हैं कि व्यक्ति संकल्प में स्वतन्त्र है । यदि वह स्वतंत्र न हो तो दुःख को उत्पन्न नहीं कर सकता । यदि व्यक्ति कर्म करने में और संकल्प करने में स्वतंत्र न हो तो फिर उसने दुःख उत्पन्न किया, यह कभी प्रस्थापित नहीं किया जा सकता । दुःख की स्थापना में व्यक्ति की कर्म और संकल्प की स्वतंत्रता ही मूल तत्त्व है । किन्तु संकल्प की स्वतंत्रता एकान्तिक नहीं हो सकती । नियतिवाद का अस्वीकार एकान्तिक नहीं हो सकता । प्रस्तुत सूत्र में नियति और संकल्प की स्वतंत्रता — दोनों का समन्वय उपलब्ध होता है | यदि संकल्प ही सब कुछ हो तो कार्य-कारण के सिद्धान्त की सर्वथा अव-हेलना हो जाती है । कार्य-कारण के सिद्धान्त में संकल्प की स्वतंत्रता एकान्ततः 1 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (२) ४६ स्वीकृत नहीं हो सकती। संकल्प के पीछे भी कोई कारण है । संकल्प एक कार्य है। उसका कारण अवश्य ही होना चाहिए। कार्य जब कारण से प्रतिबद्ध है तो उसे एकान्तिक रूप से स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता । वह सापेक्ष है । यदि ऐसा न हो तो मनुष्य किसी भी कार्य के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। इसलिए नियतिवाद भी सापेक्ष है। नियतिवाद और कार्य-कारणवाद या संकल्प की स्वतन्त्रता और नियतिइन दोनों की सापेक्ष स्वीकृति ही दुःख के उत्पाद और निरोध में सहायक बनती है। प्रत्येक प्राणी विकास करना चाहता है। वनस्पति प्राणीवर्ग से ही स्वतंत्रता उद्भूत होने लग जाती है। मनुष्य का विकास एकेन्द्रिय से होता है, वनस्पति से होता है। जगत् में सबसे अधिक जीवों का संग्रहण वनस्पति में है। वह जीवों का अक्षय भंडार है। कहा जा सकता है कि वनस्पति जीव-वर्ग समूचे जीवों के विकास का आधारभूत है। जितने भी जीव विकास-क्रम में आए हैं, वे वनस्पति से आए हैं। वनस्पति का एक जीव-वर्ग है-निगोद । वह जीवों का अक्षय कोष है। वनस्पति जीवों के दो प्रकार हैं१. प्रत्येक शरीरी-एक शरीर में एक ही जीव की अवस्थिति। २. साधारण शरीरी-एक शरीर में अनन्त जीवों की अवस्थिति। वनस्पति का अनन्तजीवी वर्ग निगोद संज्ञा से अभिहित होता है। उसमें अनन्तअनन्त जीव हैं। वह कभी रिक्त नहीं होता । वह कभी जीवशून्य नहीं होता। निगोद की जीवराशि एक ओर तथा शेष सारी जीवसृष्टि एक ओर-फिर भी दोनों की तुलना नहीं हो सकती। निगोद की जीवराशि उससे बहुत विशाल है। अंगुली टिके जितने भाग में निगोद के अनन्त जीव होते हैं। वे अव्यवहार-राशि के जीव कहलाते हैं। वे वहां से निकलकर व्यवहार में आते हैं (स्थूल जगत् में आते हैं)। अव्यवहार-राशि के जीवों में न भाषा का व्यवहार है और न चिंतन का स्पष्ट व्यवहार है। उनमें कोई विभाग नहीं होता। वे सब एक ही श्रेणी के होते हैं। वे एकेन्द्रिय हैं। वहां से निकलकर वे विभाग के जगत् में आते हैं । वहां उनके विभाग प्रारंभ हो जाते हैं। वे विभाग हैं-पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तथा मनस्क, अमनस्क आदि। यह सारा विकास या विभाग अव्यवहार-राशि से व्यवहार-राशि में आने वाले जीवों का होता है। प्रश्न होता है कि अव्यवहार-राशि से जीव व्यवहार-राशि में कैसे आता है ? उनके आने का कारण संकल्प की स्वतन्त्रता नहीं है। यह काल से नियंत्रित क्रम है। काल-लब्धि के कारण ऐसा होता है । जब काल-लब्धि का पूरा परिपाक होता है तब जीव अव्यवहार-राशि से निकलकर व्यवहार-राशि में आ जाता है। वह वहां अनन्त काल से अविकास की भूमिका में पड़ा हुआ था। वहां से वह विकास की भूमिका में आता है। जब तक जीव व्यवहार-राशि में नहीं आता तब तक वह अविकसित अवस्था में अनन्त-काल तक पड़ा रहता है। जीव का अव्यवहार-राशि Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० मनन और मूल्यांकन से निकलना या न निकलना संकल्प के वशीभूत नहीं है । नियति के कारण वह वहां से निकलता है और विकास करने लग जाता है। यदि कोई कहे कि यह तो मान्यता मात्र है। क्या इसका कोई तार्किक समाधान भी है ? उत्तर निषेधात्मक ही होगा। कोई तार्किक समाधान नहीं दिया जा सकता, क्योंकि जहां नियति का स्वीकार है वहां तर्क नहीं होता। यह प्रकृतिवाद है, शाश्वतवाद है। नियतिवाद को यदि हम वर्तमान चिंतन के संदर्भ में प्रस्तुत करें तो उसे हम सार्वभौम नियम कह सकते हैं। विश्व के कुछेक सार्वभौम नियम (यूनिवर्सल लाज) होते हैं, जिनसे विश्व की सारी व्यवस्था संचालित होती है। ये नियम शाश्वत हैं। इनमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। अब हम इन सार्वभौम नियमों को ईश्वरीय सत्ता माने, काल का विपाक कहें, कोई अन्तर नहीं आता। भिन्न-भिन्न शब्दों का अभ्युपगम हो सकता है। किन्तु ये सब नियम नियत हैं, जागतिक हैं, यूनिवर्सल हैं । ये सब अपरिवर्तनीय हैं। जैसे पुद्गल के लिए नियम हैं, वैसे ही चेतन के लिए नियम हैं । परमाणुओं का एक नियम है कि अमुक काल के बाद वर्ण का, गंध का, रस का और स्पर्श का परिवर्तन अवश्य ही होगा। यह निश्चित नियम है। इसे टाला नहीं जा सकता। इसी प्रकार चेतन के लिए यह निश्चित नियम है कि अमुक काल के पश्चात् जीव अव्यवहारराशि से निकलकर व्यवहार-राशि में आएगा। अविकास की शृंखला से छूटकर विकास की शृंखला में जुड़ जाएगा। यह नियति है। हम इसे सर्वथा अस्वीकार नहीं कर सकते । यदि हम नियतिवाद को स्वीकार नहीं करते तो व्यवस्था में बहुत गड़बड़ियां हो जाती हैं। जागतिक नियम बहुत स्पष्ट हैं, उन्हें अमान्य नहीं किया जा सकता। किन्तु हम नियति को ही सब कुछ मानकर चलें तब हमारा सारा संकल्प यंत्रवत् हो जाएगा। हम कुछ भी नहीं कर पाएंगे। जो होना है, होगा। ___एक मकान है। वह जड़ है। उसकी कुछेक बातें नियत हैं। वह सर्दी में भी छांह देगा और गर्मी में भी छांह देगा। वह छांह के स्थान पर आतप और आतप के स्थान पर छांह नहीं ला सकता। मनुष्य चेतन है। उसमें स्वतंत्रता है। यदि सर्दी है तो वह धूप में जाकर बैठ सकता है और यदि धूप है तो वह छांह में आकर बैठ सकता है। वह स्वतंत्र है, करने या न करने में। एक रेलगाड़ी पटरी पर चलती है। उसमें यह स्वतंत्रता नहीं है कि इच्छा हो तो पटरी पर चले और इच्छा न हो तो नीचे चलने लग जाए। किन्तु चींटी में वह स्वतंत्रता है। वह चाहे तो पटरी पर भी चल सकती है और चाहे तो नीचे उतर सकती है, नीचे भी चल सकती है। चींटी में (सभी प्राणियों में) इच्छा-शक्ति का विशिष्ट गुण होता है और जब जीव अव्यवहार-राशि से व्यवहार-राशि में आता है तब इच्छा-शक्ति का प्रयोग प्रारंभ कर देता है । उस इच्छा-शक्ति या संकल्प-शक्ति के आधार पर एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय बनता है, दो इन्द्रिय वाला बनता है। फिर जैसे-जैसे उसके संकल्प का विकास होता है वह तीन इन्द्रिय वाला, चार इन्द्रिय वाला और पांच इन्द्रिय Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (२) ५१ वाला बनता जाता है। फिर समनस्क, अतीन्द्रियज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी बनता है। यह सारा जैविक विकास स्वतंत्र संकल्प-शक्ति और इच्छा-शक्ति के आधार पर होता है। हम एकान्ततः न नियतिवाद को स्वीकार कर सकते हैं और न संकल्पवाद की स्वतंत्रता को स्वीकार कर सकते हैं। हम उन्हें एक सीमा में ही स्वीकार कर सकते हैं । नियति की भी एक सीमा है और संकल्प की भी एक सीमा है। ये दोनों सीमायें मिलकर एक तीसरे मार्ग का उद्घाटन करती हैं। वह है-सापेक्षता का मार्ग । मनुष्य का सारा कार्य नियति-सापेक्ष भी है और संकल्प-सापेक्ष भी है। मनुष्य नियति से बंधा हुआ है, इसलिए विकास के निश्चित क्रम में चल रहा है। विकास का जो क्रम प्रारंभ हो गया वह विकास मनुष्य होने तक और आचार का निर्धारण करने तक चलता रहता है। मनुष्य स्वतंत्र संकल्पवादी है । वह आगे का चुनाव भी करता है। वह नियति के क्रम को तोड़कर एक दूसरी सृष्टि का सृजन करता है, दूसरे जगत् में चला जाता है। यह है-अश्रेय से छूटना, दुःख का निरोध करना। भगवान् महावीर ने जिस आचार-शास्त्र का निरूपण किया, उसके पीछे नियतिवाद और स्वतंत्र संकल्पवाद-ये दोनों सिद्धान्त सम्मत हैं । ये दोनों मिलकर ही हमारे आचार-शास्त्र की दिशाओं का निर्धारण करते हैं। - प्रस्तुत सूत्र में एकांगी मतों का भी उल्लेख हुआ है। जो एकांतवादी दर्शन हैं वे दुःख के उत्पाद को नहीं जानते और उनमें दुःख का उत्पाद संभव भी नहीं होता। जो भूतवादी हैं, वे आत्मा का शाश्वत अस्तित्व स्वीकार नहीं करते, इसलिए उनके लिए दुःख की बात प्राप्त नहीं होती। उनका दुःख मात्र वर्तमान का होता है। उस दुःख के पीछे कोई हेतु नहीं होता, जिसके आधार पर आचारशास्त्रीय मीमांसा की जा सके। इस दुःख का हेतु क्या है और उस हेतु को निरस्त कैसे किया जा सकता है ये प्रश्न वहां प्राप्त नहीं होते। उन दर्शनों के अनुसार गहरे में जाने की जरूरत नहीं होती। वे मानते हैं कि वर्तमान परिस्थिति जो मन के प्रतिकूल है, वही दुःख है और यदि उस परिस्थिति को बदल दिया जाए तो दुःख समाप्त हो जाता है। वहां केवल परिस्थिति के परिवर्तन की ही बात आती है, आगे-पीछे की बात नहीं आती। उन दर्शनों में इस संबंध की गहरी मीमांसा भी नहीं है। ____ आत्मवादी दर्शनों के अनेक प्रकार हैं। दर्शन आत्मवादी है, किन्तु वह अक्रियावाद को मानता है तो वहां आत्मा का कोई स्वतंत्र कर्तृत्व प्राप्त नहीं होता। वहां दुःख आत्म-चेतित नहीं होता। दुःख-सुख आत्म-चेतित नहीं हैं, मात्र संयोग हैं । यह संयोग आत्मा के विकास में कोई अवरोध उत्पन्न नही करता और आत्मा के मुक्त होने में कोई नयी दिशा प्रदान नहीं करता । एक जटिल प्रश्न उपस्थित होता है कि जहां हमारी आत्मा का कोई कर्तृत्व नहीं है, दुःख के प्रति और सुख के प्रति, वहां फिर आत्मा से कोई संबंध स्थापित नहीं होता। यह सारा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ मनन और मूल्यांकन एक वलय में होता है, परिधिगत होता है। उसका कोई केन्द्र नहीं होता। केन्द्र है ही नहीं, सारा परिधिगत है। परिधि केन्द्र के बिना होती है, यह बात सहजगम्य नहीं है। अक्रियावाद या अकारकवाद में सबसे बड़ी कठिनाई है-केन्द्रशून्य परिधि का प्रपंच। जिस सुख-दुःख या श्रेय-अश्रेय के निर्माण में केन्द्र की शुन्यता और परिधि की स्वीकृति है, वह तथ्य संगत नहीं हो सकता क्योंकि अक्रियावाद यदि सम्मत है तो भी दुःख का उत्पाद कैसे होता है, यह नहीं जाना जा सकता और दुःख के निरोध को भी नहीं जाना जा सकता। एकात्मवाद में भी यही समस्या है। यदि एक ही आत्मा है और वह व्यापक है तो दुःख के उत्पाद और निरोध की बात ही प्राप्त नहीं हो सकती। कौन दुःख भोगने वाला है, कौन दुःख करने वाला है और दुःख क्या है ? सब कुछ आत्मा ही आत्मा है। इन सभी संदर्भो में यह प्रश्न बहुत जटिल बन जाता है कि दुःख उत्पन्न कैसे होता है ? ___ जो एकांगी मतों की चर्चा करने वाले दर्शन हैं वे इस चर्चा को नहीं जानते कि आत्मा अनादि है, अकृत है। पर्याय उत्पन्न होता है, नष्ट होता है। दुःख-सुख उत्पन्न होता है, नष्ट होता है। वह सारा आत्मा के द्वारा कृत है, अकृत नहीं है, आत्म-संचेतित है। गणधर सुधर्मा कहते हैं-'सुयं च मे अज्झत्थियं च मे, बंधपमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव'-मैंने सुना है और जाना है कि बंध और मोक्षदोनों तुम्हारे अन्तःकरण में हैं, तुम्हारी लेश्याओं में हैं, तुम्हारे अध्यवसाय में हैं। वे बाहर से नहीं आते। वे बाहर से प्रेरित भी नहीं हैं। यह आत्म-कर्तृत्ववाद है। प्रश्न होता है कि फिर दुःख किससे उत्पन्न होता है ? दुःख का उत्पादक कौन है ? आत्म-कर्तृत्ववाद में यह स्पष्ट अभिमत है कि दुःख का कर्ता स्वयं आत्मा है। दूसरी कोई सत्ता नहीं है जो दुःख का उत्पादक हो। अश्रेय का उत्पादक आत्मा है। कोई दूसरी सत्ता अश्रेय को उत्पन्न नहीं कर सकती। फिर प्रश्न होता है कि दुःख क्यों उत्पन्न होता है ? दुःख का उत्पादक तत्त्व है-असंयम। जितना दुःख है वह सारा व्यक्ति के असंयम से उत्पन्न होता है। इसी मूल तत्त्व के आधार पर भगवान् महावीर ने समूचे आचार-शास्त्र की व्यवस्था की है। असंयम-लालसा के कारण व्यक्ति संग्रह करता है। यह परिग्रह है। इसीलिए परिग्रह असंयमकृत है। यदि आत्मा अपने स्वरूप में, चैतन्यस्वरूप में हो तो उसे बाहर से कुछ भी लेने की आवश्यकता नहीं होती। प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में स्थित होता है, चेतन चेतन में स्थित होता है और अचेतन अचेतन में स्थित होता है। परमाणु परमाणु में स्थित होता है और आत्मा आत्मा में स्थित होता है। लोकस्थिति के छह द्रव्य हैं। उनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल-ये चार द्रव्य स्वरूप-स्थित हैं। इनमें कोई व्यंजन पर्याय Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व ( २ ) ५३. नहीं होता, केवल अर्थ - पर्याय होता है । अर्थ- पर्याय स्वाभाविक पर्याय है । व्यंजनपर्याय वैभाविक पर्याय है । इन द्रव्यों में कोई कृत पर्याय हो सकता है औपचारिक रूप में। किन्तु किसी पदार्थ के आन्तरिक घुलन - मिलन के स्वभाव से पर्याय का परिवर्तन नहीं होता । पुद्गल और जीव-इन दो द्रव्यों में व्यंजन पर्याय होता है । पुद्गल जीव को प्रभावित करता है और जीव पुद्गल को प्रभावित करता है । पुद्गल के संयोग से जीव बदल जाता है और जीव के संयोग से पुद्गल में परिवर्तन आ जाता है । आत्मा अपने स्वरूप में स्थित नहीं है क्योंकि वह अनादिकाल से पुद्गल के साथ मिली हुई है। पुद्गल भी पूर्णतः स्वतंत्र नहीं है । जीव के द्वारा पुद्गलों में बहुत परिवर्तन घटित होता है । 1 शरीर पुद्गल है । जीव आत्मा है । हमारा जो व्यक्तित्व आचार का निर्धारण और पालन करता है वह न केवल आत्मा है और न केवल शरीर । वह न केवल अचेतन है और न केवल चेतन । वह पुद्गल और चेतन के संयोग से निष्पन्न तीसरा तत्व है । उसे हम जीव कहते हैं । जीव को हम केवल आत्मा भी नहीं कह सकते और केवल शरीर भी नहीं कह सकते। यह दोनों का एक मौलिक (या भौतिक) मिश्रण है । आत्मा और पुद्गल का एक योग मिला और एक नयी शक्ति पैदा हुई । उसे प्राण कहा जाता है । इसीके द्वारा समूचे जीवन का संचालन होता है । प्राण-शक्ति-संपन्न आत्मा, जिसके साथ पुद्गल मिला हुआ है, उसका नाम है— जीवन | जीवन न केवल पौद्गलिक है और न केवल आत्मिक । यह यौगिक है - दोनों के योग से निष्पन्न है । इस यौगिक व्यक्तित्व में हम जो कुछ करते हैं वह सारा व्यंजन पर्याय के आधार पर करते हैं । सारे व्यक्त या स्थूल पर्याय जीव और पुद्गल से निष्पन्न हैं । इस दृष्टि से जीव भी पूरा स्वतंत्र नहीं है और पुद्गल भी पूरा स्वतंत्र नहीं है । यह एक नियति है कि जीव और पुद्गल अलग नहीं होते । ये दोनों नियति के आधार पर साथ-साथ चलते हैं । यह एक निश्चित सिद्धान्त है, नियतिवाद है कि जब तक हमारा जीवन प्राण-शक्ति के द्वारा संचालित है तब तक संकल्प सर्वथा स्वतंत्र नहीं हो सकता । यह सार्वभौम सत्य है । इस नियति की स्थिति में, जीव और पुद्गल — दोनों के योग से चलने वाले व्यक्तित्व में एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया पैदा होती है। वह प्रक्रिया है - असंयम । आत्मा को लेना कुछ भी नहीं है । उसे केवल छोड़ना है। जो योग है, विजातीय है, उसे छोड़ना है । किन्तु वह निराकांक्षी नहीं बन सकती, क्योंकि वह आत्मा नहीं, अभी जीव है । जीव है इसलिए उसमें आकांक्षा होना स्वाभाविक है । कुछ लेना स्वाभाविक है । प्राण शक्ति विद्यमान है तो कुछ लेना पड़ेगा । इस प्राण-शक्ति के कारण ही एक विशेष प्रकार की परिस्थिति निर्मित होती है । उसी का नाम असंयम है | असंयम प्राण-शक्ति की स्वाभाविक प्रक्रिया है । जब तक प्राणी है, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ मनन और मूल्यांकन प्राण-शक्ति है, असंयम के कारण प्राण-शक्ति के द्वारा ही संचालित होता है तो वह बाहर से लेता ही लेता है। असंयम का पहला काम है बाहर से लेना। आहार लेना, शरीर के परमाणुओं को लेना, श्वास के परमाणुओं को लेना, भाषा और चिन्तन के परमाणुओं को लेना, कर्म के परमाणुओं को लेना, यह सब प्राण-शक्ति के द्वारा होता है। जितना भी परमाणुओं का आदान-प्रदान है, जो प्राणशक्ति के लिए आवश्यक है, वह असंयम के साथ-साथ चलता है। जब तक ग्रहण का यह क्रम रहेगा तब तक असंयम रहेगा । असंयम दुःख उत्पन्न करता है। बाहर से लेना ही दुःख है। जब आत्मा बाहर से कुछ नहीं लेती तब कोई दुःख नहीं होता। जब तक वह बाहर से लेती रहती है तब तक दुःख का क्रम नहीं टूटता। जैन पारिभाषिक शब्दावली में कहा जाता है कि जब जीव अयोगावस्था में पहुंचता है, शैलेशी अवस्था को उपलब्ध होता है तब दुःख का पूर्ण निरोध हो जाता है। जब तक योगावस्था है-मन, वचन और शरीर की चंचलता की स्थिति है तब तक केवली या वीतराग हो जाने पर भी दुःख का पूर्ण निरोध नहीं होता। केवली के भी दुःख का उदय होता है। वह केवली व्यक्ति दुःख का संवेदन नहीं करता क्योंकि ज्ञान का वहां पूर्ण विकास हो चुका होता है। किन्तु शरीर में दु:ख के परमाणु आते हैं और शारीरिक वेदना उत्पन्न करते हैं। असंयम ही दुःख का मूल है। दुःख-निरोध का मूल तत्त्व है---संयम । सूत्रकार ने बताया है कि संयम करो, उससे दुःख का निरोध होता है। दुःख के उत्पन्न होने का हेतु है—असंयम और दुःख के निरोध का हेतु है-संयम। जब बाहर से लेना बंद होता है तब संयम घटित होता है। जब तक बाहर से लेना चलता रहता है तब तक असंयम बना रहता है। . पहला तत्त्व है कि बाहर से न लिया जाए। परिग्रह न किया जाए। इस क्रम में सबसे पहले हमें स्थूल से चलना होगा। पहले क्षण में यह नहीं हो सकता कि श्वास न लें। यह संभव नहीं है। पहले हम स्थूल को छोड़ें, उपधि ग्रहण न करें। पदार्थों को छोड़ें। धन-धान्य और मकान को छोड़ें। पदार्थों पर ही यह प्रतिबंध हो सकता है कि हम उनका परिग्रहण न करें। यह संभव भी है। जब संयम की यह स्थिति परिपक्व हो जाए तब हम भाषा के परमाणुओं का ग्रहण न करें। यह मौन के विकास का आदि-बिन्दु है। इससे वाकगुप्ति घटित होगी। चिन्तन के परमाणुओं को न लें तो मनोगुप्ति घटित होगी। ___ आचार-शास्त्र के मूल अंग हैं-मनोगुप्ति, वाक्गुप्ति और कायगुप्ति । इनका आधार है---असंयम का निरोध । असंयम का निरोध यानी भाषा के परमाणुओं का अग्रहण, मन के परमाणुओं का अग्रहण। जब ये दोनों घटित हो जाते हैं तब काया के परमाणुओं का अग्रहण स्वयं प्राप्त हो जाता है। मनोगुप्ति सधती है, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (२) ५५ वाक्गुप्ति सधती है और कार्यगुप्ति सधती है तब श्वास-संयम की बात प्राप्त होती है। श्वास के परमाणुओं को भी न लिया जाए। इन सबका एक निश्चित क्रम है। सबसे पहले कायगुप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि भाषा के लिए, चिन्तन के लिए और श्वास के लिए परमाणुओं को ग्रहण करने वाला है-शरीर। यह स्थूल शरीर ही सारे परमाणुओं को आकर्षित करने वाला है। हमारे विकास का एक क्रम है। सबसे पहले शरीर का विकास होता है। इसके बाद भाषा का विकास होता है। एकेन्द्रिय वर्ग से जीव द्वीन्द्रिय आदि वर्गों में पादन्यास करता है। एकेन्द्रिय वर्ग के जीवों में भाषा का विकास नहीं है । भाषा का विकास द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों में होता है । भाषा के विकास के पश्चात् मन के विकास का क्रम प्राप्त होता है। इसी क्रम से चलें। पहले मन का निरोध, फिर भाषा का निरोध और फिर शरीर का निरोध । शरीर का ही एक सूक्ष्म भाग हैश्वास । फिर उसका निरोध । आगम कहते हैं—मणजोगं निरंभई, वईजोगं निरंभई, कायजोगं निरंभई। अयोगावस्था में केवली पहले मनोयोग का निरोध करता है, मानसिक चंचलता का निरोध करता है। फिर वह वचन योग का निरोध करता है, वचन की चंचलता का निरोध करता है और फिर काययोग का निरोध करता है, शरीर की चंचलता का निरोध करता है। सबके अन्त में वह 'आणापाणं निरंभई'-श्वास-प्रवास का निरोध करता है, श्वास की चंचलता का निरोध करता है। जब इन सबका निरोध होता है तब कर्म-परमाणुओं का भी निरोध होने पर दुःख का निरोध हो जाता है। सुन्दर क्रम है। वह इस प्रकार है • मन के परमाणुओं का निरोध । ० वचन के परमाणुओं का निरोध । ० शरीर के परमाणुओं का निरोध । ० श्वास-प्रश्वास के परमाणुओं का निरोध । ० कर्म के परमाणुओं का निरोध । ० दुःख का निरोध। इसी का नाम ह–संयम। भगवान् महावीर ने जिस आचार का प्रतिपादन किया उसके तेरह मूलभूत अंग है-पांच महाव्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तियां । ये सारे अंग संयम के आधार पर विकसित हुए हैं। असंयम से दुःख होता है। इसको हम इन शब्दों में भी कह सकते हैं० मन की चंचलता से दुःख होता है। ० वाणी की चंचलता से दुःख होता है। ० शरीर की चंचलता से दुःख होता है। • श्वास की चंचलता से दुःख होता है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ मनन और मूल्यांकन o कर्म-परमाणुओं की चंचलता से दुःख होता है । संस्कारों की चंचलता से दुख होता है। ये सारे असंयम के साधन हैं । दुःख का निरोध इनके प्रतिपक्ष से होता है• दुःख का निरोध होता है मन की अचंचलता से । ० दुःख का निरोध होता है वाणी की अचंचलता से । • दुःख का निरोध होता है शरीर की अचंचलता से । O दुःख का निरोध होता है श्वास की अचंचलता से । • दुःख का निरोध होता है कर्म - परमाणुओं की या पूर्वकृत संस्कारों की अचंचलता से । यही संयम है । - (सूत्रकृतांग सूत्र के आधार पर दूसरा प्रवचन - लाडनूं ४-१-७९ ) - Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. योगदर्शन का हृदय एक है समाधि की धारा और दूसरी है असमाधि की धारा ।असमाधि की धारा में चित्त को समाधान नहीं मिलता, जिज्ञासा को समाधान नहीं मिलता। ज्ञानात्मक, सुखात्मक और जागृतिमूलक समाधान नहीं मिलता। व्यक्ति जानना चाहता है, उसमें जिज्ञासा होती है, किन्तु ज्ञान का आवरण है, उसे समाधान नहीं मिलता। व्यक्ति-आनन्द में रहना चाहता है, सुख चाहता है, दुःख नहीं चाहता, किन्तु मूर्छा या मोह का एक ऐसा सघन वलय है कि उसे आनन्द की अनुभूति नहीं होती, सुख का अनुभव नहीं होता। व्यक्ति शक्ति-संपन्न होना चाहता है किन्तु एक ऐसी बाधा है जो उसे शक्ति-संपन्न होने नहीं देती। ये सारे विघ्न असमाधि के घटक हैं। ज्ञानावरण के कारण ज्ञान की समाधि में विघ्न, मूर्छा के कारण सुख या आनन्द में विघ्न और अन्तराय के कारण शक्ति में विघ्न होता है। इस स्थिति में ज्ञान की समाधि नहीं होती, आनन्द की समाधि उपलब्ध नहीं होती और शक्ति का समाधान भी नहीं मिलता। इस असमाधि की स्थति ने एक नयी दिशा का उद्घाटन किया। मनुष्य ने समाधि की खोज प्रारंभ की। विपरीत दिशा की खोज सदा ही चरमबिन्दु से प्रारंभ होती है। जब मनुष्य असमाधि के चरम-बिन्दु पर पहुंचा तब उसे दिशा परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत हुई। संसार में कोई भी दिशा ऐसी नहीं है, जिसकी विरोधी दिशा न हो। एक ही दिशा हो, यह जगत् का नियम नहीं है। जगत् का अटल नियम है-दो विरोधी दिशाओं का होना। दो दिशाओं के होने का अर्थ है-एक दिशा के विपरीत दिशा का होना । विपरीत दिशा न हो तो एक का अस्तित्व नहीं हो सकता। यदि हो भी तो हम नहीं जान सकते । हम किसी भी पदार्थ का अस्तित्व जानते हैं तो वह उसके विरोधी पदार्थ के कारण जानते हैं। सत् वह है जिसका प्रतिपक्ष विद्यमान हो। जिसका प्रतिपक्ष नहीं है, वह सत् नहीं हो सकता। यह विपरीत दिशा का नियम शाश्वत नियम है। इसका कोई अपवाद नहीं है। किन्तु विपरीत दिशा की खोज तब होती है जब एक दिशा का बिन्दु बहुत उभर जाता है। जब असमाधि का बिन्दु प्रस्फुट हो गया, आदमी वहां तक पहुंच गया तब उसे समाधि के बिन्दु को खोजने की आवश्यकता प्रतीत हुई। उसने खोज प्रारंभ कर दी। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ मनन और मूल्यांकन मनुष्य के जीवन की दो दिशाएं हैं। एक है--समाधि की दिशा और दूसरी है-असमाधि की दिशा। समाधि की दिशा भी हमारे ही प्रयत्न से स्पष्ट होती है और असमाधि की दिशा भी हमारे ही प्रयत्न से स्पष्ट होती है। समाधि के बिन्दु की खोज ने तीन बातें स्पष्ट कर दी१. ज्ञान की असमाधि मिट सकती है, ज्ञान की समाधि उपलब्ध हो सकती है। २. सख की असमाधि मिट सकती है, सुख की समाधि उपलब्ध हो सकती है। ३. शक्ति का व्यवधान मिट सकता है, शक्ति की स्फुरणा हो सकती है। इस खोज के बाद उन मनीषी साधकों ने अपने उपलब्ध सत्यों का प्रदिपादन किया। वे सत्य अनेक भाषाओं और अनेक पद्धतियों में, रूपक में या स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त हुए हैं। भारतीय अनुभव-शास्त्र में जो अनुभव प्रतिपादित हुए हैं उनमें पतंजलि का योगदर्शन एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।' योगशास्त्र को यदि हम योगशास्त्र के रूप में ही देखेंगे तो पूरा ज्ञान नहीं होगा। यदि बौद्ध, जैन, सांख्य और उपनिषद्-इन चारों के संदर्भ में पतंजलि के योगसूत्र को पढ़ते हैं तो उसका पूरा हार्द समझ में आ जाता है । यह योगसूत्र श्रमण-परम्परा का ग्रंथ है। यह सांख्य-दर्शन का ग्रन्थ है, सांख्य-दर्शन की साधना-पद्धति का ग्रंन्थ है । जिस युग में यह ग्रन्थ रचा गया, उस युग में सांख्य-दर्शन वैदिक नहीं था।. वह श्रमण-परम्परा का दर्शन था। परिव्राजकों का दर्शन था। उत्तरकाल में इसका अर्द्धवैदिकीकरण हुआ और धीरे-धीरे वैदिकीकरण हो गया। आज वह वैदिक दर्शन माना जाता है । यथार्थ में यह श्रमण-परंपरा का ग्रन्थ है । इसके विस्तार में मैं नहीं जाऊंगा, किन्तु इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि इसको समझने के लिए. जैन और बौद्ध साहित्य का अध्ययन नितान्त जरूरी है। जैन और बौद्ध परम्परा ने 'समाहि' (समाधि) शब्द का प्रयोग किया है। दोनों की साधना-पद्धति का यह महत्त्वपूर्ण शब्द था। एक है समाधि का जगत् और एक है असमाधि का जगत् । असमाधि का जगत् समाधानशून्य जगत् है। वहां न इन्द्रियों का समाधान है, न मन का समाधान है और न चित्त का समाधान है। दूसरा समाधि का जगत् है । वहां इन्द्रिय, मन और चित्त का समाधान है। समाधि शब्द व्यापक था। सारी साधना इसमें गर्भित थी। यह साधना का प्रतीक-शब्द था। इसके बाद इस अर्थ का वाचक कोई शब्द प्रचलित नहीं हुआ। पतंजलि ने 'योग' शब्द का प्रयोग किया। ऐसा नहीं है कि योग शब्द इससे पूर्व प्रचलित नहीं था, किन्तु समाधि के अर्थ में योग शब्द का प्रचलन पतंजलि ने किया। पतंजलि ने कहा, योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।। योग का अर्थ है-समाधि । चित्तवृत्ति का निरोध अर्थात् समाधि । योग, और समाधि-दोनों शब्द एकार्थक हैं। योग शब्द 'युज् समाधौ' धातु से बना है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगदर्शन का हृदय ५६ युज् धातु समाधि के अर्थ में है । 'युज' नर् योगे — इस धातु का अर्थ है— जोड़ना । समाधि का अर्थ इससे निष्पन्न नहीं होता । किन्तु योग का यह अर्थ भी चल पड़ा । योग का अध्यात्मस्पर्शी या भावनास्पर्शी जो अर्थ है, वह है-समाधि । यही इसका मूल अर्थ है । समाधि अर्थात् योग और योग अर्थात् समाधि | योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यह भी कहा जा सकता है, और समाधिश्चित्तवृत्तिनिरोधः – यह भी कहा जा सकता है । दोनों में कोई अन्तर नहीं है । धीरे-धीरे समाधि शब्द छूटता गया और योग शब्द अधिक व्यवहृत होता गया । प्राचीन समय में भावनायोग, संवरयोग आदि शब्द प्रचलित थे, किन्तु 'योग' शब्द स्वतंत्र रूप में इस अर्थ में प्रचलित नहीं था। जैनों ने इस अर्थ में योग शब्द का प्रचलन नहीं किया, इसका कारण यह था कि जैन - परम्परा में 'योग' शब्द का प्रसिद्ध अर्थ है - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति । इन तीनों प्रकार की प्रवृत्तियों का संग्राहक शब्द है— योग | यह शब्द वहां प्रवृत्ति वाचक है और समाधि के अर्थ में प्रयुक्त योग शब्द निवृत्ति वाचक है । जैन- साधना-पद्धति में 'अयोग' शब्द प्रचलित है । जैसे-जैसे साधना आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे अयोग की अवस्था प्राप्त होती जाती है। पतंजलि का 'योग' और जैन-साधना-पद्धति का 'अयोग' – ये दोनों एक अर्थ में चलते हैं । साधना की विकसित अवस्था में समाधि, समाधान, समाहित – इन शब्दों का अधिक प्रयोग मिलेगा । जैसे-जैसे पतंजलि के योग की दिशा में विकास करते हैं वैसे-वैसे जैनसाधना-पद्धति के ' अयोग' की साधना में विकास करते हैं। योग शब्द समाधि ही अर्थ देता है । साधना का पहला बिन्दु है - समाधि का अनुभव, समाधि को उपलब्ध होना । परंतु प्रश्न यह है कि समाधि की उपलब्धि कब हो सकती है ? मनुष्य वृत्तियों के साथ जीता है । उसका सारा व्यवहार प्रतिक्रिया के साथ चलता है । वृत्ति और प्रतिक्रिया -- इन दोनों में कोई अर्थभेद नहीं है । जितनी वृत्तियां हैं, वे सब प्रतिक्रियाएं हैं । क्रिया है अपना स्वतंत्र अस्तित्व, स्वतंत्र अनुभव । स्वरूपानुभव—यह है क्रिया । वृत्ति - संवलित आचरण है— प्रतिक्रिया । वृत्तियों से प्रभावित सारा आचरण प्रतिक्रिया है । प्रतिक्रिया की निवृत्ति से ही समाधि का प्रारंभ होता है । प्रतिक्रिया का जीवन असमाधि का जीवन है । पतंजलि ने पहले सूत्र में ही यह स्पष्ट निर्देश दे दिया कि चित्त की वृत्तियों का निरोध योग हैं, समाधि है । हमारा समूचा जीवन वृत्तियों का जीवन है और है ही क्या ? एक चक्र है। एक वृत्ति नीचे जाती है, दूसरी ऊपर आ जाती है । एक वृत्ति गौण होती है, दूसरी मुख्य बन जाती है । जो मुख्य है वह गौण और जो गौण है वह मुख्य —— यह चक्र निरंतर चलता रहता है । कभी बंद नहीं होता । जैन आचार्यों ने इसे बहुत स्पष्ट किया है, संसारी आत्मा इस शरीर में निरन्तर घूमती रहती है, चक्राकार घूमती रहती है । खिचड़ी जब पकाई जाती है तब उसमें चावल 1 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० मन और मूल्यांकन कभी ऊपर आता है और कभी दाल ऊपर आती है । यह क्रम चलता है । वैसे ही आत्मा ऊपर-नीचे घूमती रहती है। इसको यदि वर्तमान के शरीर - शास्त्र और योग- शास्त्र के सन्दर्भ में देखें तो बात और स्पष्ट हो जाती है। योग के आचार्यों ने बताया कि जब चित्त मूलाधार, स्वाधिष्ठान पर जाता है तब वहां की वृत्तियां ( काम, कोध, आवेश आदि) उभरती हैं । मणिपूर पर चित्त जाता है तो वहां की वृत्तियां उत्तेजित होती हैं। वर्तमान शरीर शास्त्र की दृष्टि से कहा जाता है कि जब चित्त एड्रिनल ग्रन्थि से संयुक्त होता है तब उत्तेजनाएं उभरती हैं। जब चित्त गोनाड्स पर जाता है तब काम की वृत्ति उभरती है । तीनों संदर्भों में -- जीव के स्पंदन या जो चलाचल चलता है उससे, योग की दृष्टि से चित्त का चक्रों के पास जाने से और शरीर शास्त्र की दृष्टि से चित्त का ग्लेण्ड्स के पास जाने से - वृत्तियों में तरंगे उठती हैं और उनमें उभार आता है । ये वृत्तियां निरन्तर चलती रहती हैं। इनका चक्र घूमता रहता है । वृत्ति एक ही प्रकार की नहीं रहती । जिस वृत्ति केन्द्र के साथ चित्त का संबंध जुड़ता है, वे वृत्तियां उभर आती हैं । वे मुख्य बन जाती हैं, शेष गौण हो जाती हैं 1 । कर्मशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो विरोधी कर्म एक साथ विपाक में नहीं आते । सुखानुभूति और दुःखानुभूति — दोनों विरोधी वृत्तियां हैं, दोनों एक साथ नहीं होंगी । सुख की अनुभूति होगी तो उस समय दुःख की अनुभूति गौण हो जाएगी, अविपाक में चली जाएगी, अनुदय की अवस्था में चली जाएगी। इसका अर्थ यह नहीं है कि जिस समय सुख का अनुभव है उस समय दुःख समाप्त हो गया। यदि समाप्त हो गया तो फिर आएगा कहां से ? समाप्त नहीं हुआ किन्तु अनुदय की अवस्था में चला गया । अविपाक अवस्था में चला गया। जब दुःख विपाक में आता है तब सुख अनुदय में चला जाता है और जब सुख विपाक में आता है तब दुःख अनुदय में चला जाता है । जिस समय क्रोध की वृत्ति तीव्र होती है तब न लोभ का विपाक होता है और न काम का । एक वृत्ति जब बहुत तीव्र होती है तब दूसरी सारी वृत्तियां दब जाती हैं । तब लगता है कि माना वह आदमी दूसरी वृत्तियों के लिए वीतराग बन गया हो। कोई वृत्ति नहीं सताती । जब अत्यन्त प्रिय व्यक्ति से भी कलह हो जाता है तब स्नेह और राग की वृत्तियां इतनी शांत-उपशांत हो जाती हैं, मानो कि व्यक्ति वीतरागता में जी रहा हो। वह वीतराग नहीं है किन्तु उस tat हुई राग की वृत्ति के कारण उसे वीतराग कहा जा सकता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि दो विरोधी शक्तियां - राग और द्वेष, प्रियता और अप्रियता — एक साथ सक्रिय नहीं होतीं, मुख्य नहीं होतीं। एक मुख्य होगी तो दूसरी गौण हो जाएगी। यह प्रकृति का नियम है कि अनेक को एक साथ मुख्यता नहीं दी जा सकती । एक वृत्ति मुख्य होगी तो शेष सारी वृत्तियां गौण हो जाएंगी। कोई-नकोई वृत्ति निरंतर बनी रहेगी। कभी क्रोध की वृत्ति जागती है तो कभी अभिमान Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगदर्शन का हृदय ६१ और माया की वृत्ति जाग जाती है । कभी कपट की वृत्ति जागती है तो कभी वासना की वृत्ति तीव्र हो जाती है। एक के बाद एक की निरंतरता बनी रहती है । यह निरंतरता कभी नहीं टूटती । वृत्तियां ऐसा एक भी क्षण आने नहीं देतीं कि व्यक्ति समाधि में चला जाए। वे अपनी पकड़ को कभी शिथिल नहीं होने देतीं । इनका बहुत बड़ा सुरक्षा व्यूह है । समाधि के पास वैसा सुरक्षा व्यूह नहीं है । नींद भी एक वृत्ति है । उसमें अन्यान्य वृत्तियां उभरती रहती हैं। पतंजलि ने पांच वृत्तियों का उल्लेख किया है। उनमें नींद एक वृत्ति है । वह भी यदि अपना काम करे तो संभव है व्यक्ति सोते-सोते ही समाधि में चला जाए। वह हरदम पहरा देती रहती है । वह व्यक्ति को समाधि में नहीं जाने देती । यह चक्र चलता रहता है । वृत्तियों के निरोध से समाधि की प्राप्ति होती है । निरोध की शर्त कठोर है । जो सतत गतिमान प्रवाह है उसे रोकना या तोड़ना सरल नहीं है । किन्तु इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है जो समाधि के जगत् में प्रवेश करा सके । केवल यही एक विकल्प है - वृत्तियों का निरोध होगा तो योग होगा, समाधि होगी अन्यथा नहीं । वृत्तियां पांच हैं - प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । (पातं ०१-६) जैन - परम्परा में दस संज्ञाओं का उल्लेख है १. आहार संज्ञा ६. मान संज्ञा २. भय संज्ञा ३. मैथुन संज्ञा ४. प्ररिग्रह संज्ञा ५. क्रोध संज्ञा ७. माया संज्ञा ८. लोभ संज्ञा ६. ओघ संज्ञा १०. लोक संज्ञा । पतंजलि का 'वृत्ति' शब्द और जैन परंपरा का 'संज्ञा' शब्द - एकार्थक है । तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं है । चित्त की विकसित या अविकसित अवस्था में भी ये दसों संज्ञाएं होती हैं । मन का विकास और चित्त का विकास केवल मनुष्य में होता है। पशु में मन होता है, पर उसका उतना विकास नहीं होता, जितना मनुष्य में होता है। पांच इन्द्रिय वालों से चार इन्द्रिय वालों में मन का विकास कम होता है, उससे कम तीन इन्द्रिय वालों में, उससे कम दो इन्द्रिय वालों में और सबसे कम एक इन्द्रिय वाले प्राणियों में होता है । एकेन्द्रिय प्राणियों में न मन का विकास है और न चित्त का विकास है । फिर भी उनमें वृत्तियां विद्यमान हैं । वे कभी अपना स्थान नहीं छोड़तीं । प्राणी का सारा जीवन वृत्ति के सहारे ही चलता है । वे प्राणी ज्यादा संवेदनशील होते हैं। वनस्पति के जीव जितने संवेदनशील हैं, मनुष्य उतना संवेदनशील नहीं है । जैसे-जैसे ज्ञान का विकास होता चला जाएगा, वैसे-वैसे संवेदन का धागा टूटता जाएगा । वनस्पति जगत् के प्राणी संवेदना के द्वारा जितने Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ मनन और मूल्यांकन तथ्यों को पकड़ते हैं, उतने तथ्य आदमी नहीं पकड़ सकता। मनुष्य का विकास ज्ञान की दिशा में होने लगा, इसलिए उसकी संवेदना कम हो गई, गति धीमी हो गई। जो वृत्तियों की परिधि में जीता है, वह अधिक संवेदनशील होता है। भर्तृहरि ने एक सुन्दर श्लोक लिखा है 'आहारनिद्राभयमथुनं च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । तत्रापि धर्मो ह्यधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥ श्लोक साधारण-सा है। न इसमें शब्दों का चाकचिक्य है और न अर्थ की गूढ़ता। साधक सीधी-सादी बात कहता है। उसे साधक बड़ी मानता है। बुद्धि के बल पर जीने वाला इन बातों को छोटी मानता है। उसे शब्दों का आडंबर चाहिए। किन्तु अनुभव के स्तर पर पहुंचा हुआ आदमी इस श्लोक में अभिव्यंजित सचाई पर मुग्ध हो जाएगा। जीवन की सारी सचाई श्लोक के दो चरणों में प्रकट कर दी। चार संज्ञाएं-आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन-संज्ञा और परिग्रह-संज्ञासब में होती हैं, फिर चाहे वह पशु हो या मनुष्य । वृत्ति के स्तर पर जीने वाले सारे एक ही कोटि के होते हैं।' एकेन्द्रिय प्राणी भी वृत्ति के स्तर पर जीता है और मनुष्य भी वृत्ति के स्तर पर जीता है। एकेन्द्रिय प्राणी भी असमाधि का जीवन जीता है और मनुष्य भी असमाधि का जीवन जीता है। एकेन्द्रिय प्राणी स्त्यानद्धि निद्रा में होता है, मच्छित जीवन जीता है। मनुष्य की भी यही अवस्था है। दोनों में 'विशेष अन्तर नहीं है। मानसिक विकास की दृष्टि से भले ही दोनों में अन्तर हो परन्तु वृत्ति के स्तर पर दोनों में कोई अन्तर नहीं है। मनुष्य भी वैसा ही असमाधि और मर्छा का जीवन जी रहा है जैसा वनस्पति के प्राणी जी रहे हैं। एक महत्त्वपूर्ण अन्तर भी है दोनों में। मनुष्य वृत्ति-निरोध की अवस्था में जा सकता है, 'पशु नहीं जा सकता। मनुष्य की एक विशेषता है कि वह वृत्ति से हटकर जी सकता है। दूसरे प्राणियों में वह क्षमता नहीं होती। मनुष्य संज्ञातीत जीवन जी सकता है । आगमकार ने इसका वाचक शब्द 'नो-संज्ञोपयुक्त' दिया है। एक है"संज्ञोपयक्त' जीवन और दूसरा है-'नो-संज्ञोपयुक्त जीवन । जो वृत्ति का जीवन है वह संज्ञोपयुक्त जीवन है और जो समाधि का जीवन है, वह नो-संज्ञोपयुक्त जीवन है। इस अवस्था में संज्ञाएं विपाक में नहीं रहतीं या समाप्त हो जाती हैं। जहां संज्ञाएं समाप्त हो जाती हैं, वहां वीतरागता का पूरा विकास हो जाता है। जहां ये संज्ञाएं उपशान्त रहती हैं, वहां नो-संज्ञोपयुक्त जीवन का, वीतराग चेतना का या समाधि का प्रारम्भ होता है। एक है-समाधि का चरम-बिन्दु और एक है-समाधि का आदि-बिन्दु। जहां वृत्तियों का निरोध होता है, वहां विभाजन होता है। समाधि का बिन्दू विभाजन का बिन्दु है। यहां मनुष्य की दो श्रेणियां हो जाती हैं। एक श्रेणी होती है उन व्यक्तियों की जो वृत्ति का जीवन जीते हैं और दूसरी श्रेणी होती है उन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगदर्शन का हृदय ६३ व्यक्तियों की जो वृत्ति-निरोध का जीवन जीते हैं। एक हैं-असमाधि में जीने वाले और दूसरे हैं-समाधि में जीने वाले । पतंजलि ने समूचे योगदर्शन में इसी बिन्दु को स्पष्ट किया है कि व्यक्ति इस समाधि के बिन्दु पर कैसे जी सकता है ? कैसे गतिशील हो सकता ह ? इस पहले सूत्र 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' में उनका समूचा योग-दर्शन आ जाता है। प्रश्न होता है कि एक साथ वृत्तियों का निरोध सभव है ? यह प्रश्न बहुत जटिल है। प्रशिक्षण लेते-लेते, परिपक्व होते-होते, एक सैनिक अग्रिम मोर्चे पर लड़ने के लिए सक्षम हो सकता है, किन्तु आज ही सैनिक बना और आज ही अग्रिम मोर्चे पर लड़ने चला जाए तो मरने के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रहता। वह स्वयं मरता है और दूसरों को पराजय में ढकेल देता है। इसी प्रकार कोई साधना के क्षेत्र में प्रवेश करता है और उसे उसी दिन कहा जाए कि तुम वृत्तियों का निरोध करो, तो उसे पराजित करना है। फिर इस बात को समाहित करने के लिए पतंजलि को विस्तार देना पड़ा। उन्होंने कहा-चित्तवृत्ति का निरोध होने से समाधि होती है, यह शत-प्रतिशत सही है, किन्तु चित्तवृत्ति का निरोध साधना में प्रवेश करते ही नहीं हो जाता। इसलिए उसे चित्त की पांच भूमिकाओं को समझना चाहिए। वे पांच भूमिकाएं हैं—क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । क्षिप्त अवस्था और मूढ़ अवस्था समाधि के लिए उपयुक्त नहीं है। विक्षिप्त अवस्था में झूठी समाधि भी सही लगती है। उसमें कभी-कभी सही समाधि की झलक आ सकती है। वह स्थायी नहीं होती। आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में यह 'यातायात' अवस्था है। कभी आदमी भीतर जाता है और कभी वाहर आता है। इस अवस्था में यह क्रम चलता रहता है। जब कोई व्यक्ति साधना का अभ्यास करता है तब वह इसी अवस्था से गुजरता है । दीर्घश्वास-प्रेक्षा के प्रयोग में चित्त उससे जुड़ता है, बिछुड़ता है। उसका यातायात प्रारम्भ हो जाता है। इससे इतना लाभ तो अवश्य ही हो जाता है कि जो चित्त बाहर-ही-बाहर भटकता था, वह भीतर जाने में भी अभ्यस्त हो जाता है। जो सदा चंचल ही रहता था, अब वह किसी के साथ जुड़ने लगता है। यह भी बहुत महत्त्व की बात नहीं है। । चित्त की चौथी भूमिका है-एकाग्रता । यह जब उपलब्ध होती है तब वास्तव में साधना प्रारम्भ होती है। एकाग्रता में चित्त का निरोध होता भी है और नहीं भी होता । इस अवस्था में अनेक वृत्तियों का निरोध होता है, किन्तु एक वृत्ति का आलंबन भी रहता है। पतंजलि यदि कह देते-'योगःसर्वचित्तवृत्तिनिरोधः' तो समस्या खड़ी हो जाती। कोई भी व्यक्ति साधना को प्रारम्भ करने के तैयार नहीं होता । कोई भी व्यक्ति योग में प्रवेश करने का साहस नहीं करता क्योंकि पहले ही चरण में यह बात आ जाती है कि सब प्रवृत्तियों का निरोध करोगे तो समाधि उपलब्ध होगी, अन्यथा नहीं। न सब वृत्तियों का निरोध सम्भव है और न समाधि Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ मनन और मूल्यांकन सम्भव है। पतंजलि ने यह नहीं लिखा कि सब प्रवृत्तियों का निरोध करना है। उन्होंने केवल लिखा—वृत्तियों का निरोध करना है। 'सर्व' शब्द का प्रयोग नहीं किया, इसलिए साधक के लिए बहुत बड़ा अवकाश रह गया। सभी वृत्तियों का निरोध एक साथ कभी सम्भव नहीं है। पहले किसी एक वृत्ति का सहारा लो, अभ्यास प्रारम्भ करो। 'विषस्य विषमौषधम्'---यही सिद्धान्त इसमें भी कारगर होता है । संखिया स्वयं विष है, किन्तु उसका उपयोग विष-निवृत्ति के लिए होता है। विष को मिटाने के लिए विष का ही उपयोग। वृत्तियों का निरोध दो भागों में बंट गया। एक है-सब वृत्तियों का निरोध और दूसरा है--किसी एक वृत्ति का आलंबन लेकर वृत्ति का निरोध । पहला निरोध है और दूसरा एकाग्रता। दोनों में अन्तर है। भाष्यकार लिखते हैं—'एकाग्रता निरोधमभिमुखं करोति'-~-एकाग्रता निरोध को अभिमुख करती है। वह निरोध की ओर ले जाती है। गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा- "भंते ! एगग्गसन्निवेसेणं जीवे कि जणयई"-- भन्ते ! एकाग्रसन्निवेषण से क्या उपलब्ध होता है ? भगवान् ने कहा-"चित्त को किसी एक आलंबन पर टिकाने से चित्त का निरोध होता है। एकाग्रता जितनी पुष्ट होती है, चित्त का निरोध भी उतना ही होता चला जाता है । एकाग्रता का जो प्रारम्भिक बिन्दु है वह वृत्ति-निरोध का प्रारंभिक बिन्दु है। जैसे ही एकाग्रता पराकाष्ठा पर पहुंचती है, एकाग्रता की भूमिका समाप्त हो जाती है और निरोध की भूमिका प्राप्त हो जाती है । वृत्ति का आलंबन भी छूट जाता है। निरालंबन स्थिति आ जाती है। जहां किसी वृत्ति का आलंबन नहीं रहता वहां चेतना की निरालंबन स्थिति होती है। यह निरोध की स्थिति है। पहले एकाग्रता की समाधि प्राप्त होती है और फिर निरोध की समाधि। पहला सम्प्रज्ञात योग है और दूसरा असम्प्रज्ञात योग है। सम्प्रज्ञात योग में वृत्ति का आलंबन रहता है और असम्प्रज्ञात योग में वृत्ति का आलंबन छूट जाता है । इसे निर्बीज समाधि भी कहते हैं। यहां कोई बीज या हेतु शेष नहीं रहता। वृत्ति-निरोध के जीवन में 'स्वरूपावस्थानं' होता है --आत्मा अपने शुद्ध चैतन्य के अनुभव में स्थित हो जाती है। जैन परम्परा का सूत्र है - जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे-जो अनन्य - आत्मा को देखता है, केवल चैतन्य का अनुभव करता है, राग-द्वेष से मुक्त रहता है, वह अनन्य में आरमण करने वाला अनन्य-दर्शी होता है । जो अनन्य को देखता है वह अनन्य में आरमण करता है। पतंजलि की भी यही भाषा है-'तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थान' (पातं० १-३)। उस अवस्था में जो द्रष्टा है वह स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। यही है समाधि की अवस्था। चैतन्य का अनुभव हुए बिना, आत्म-स्वरूप का अनुभव हुए बिना, रागद्वेष-मुक्त क्षण जीये बिना समाधि की अवस्था उपलब्ध नहीं होती। न एकाग्रता Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगदर्शन का हृदय ६५ की समाधि प्राप्त होती है और न निरोध की समाधि प्राप्त होती है। एकाग्रता की समाधि चित्त का परिकर्म हुए बिना भी प्राप्त हो सकती है, किन्तु निरोध की समाधि में चित्त की आत्यन्तिक निर्मलता अपेक्षित होती है। एक शिकारी अपने शिकार पर निशाना साधता है, यह भी एकाग्रता की समाधि है। किन्तु इसमें चित्त का परिकर्म नहीं है, राग-द्वेष की शून्यता नहीं है । इसलिए यह साधना की समाधि नहीं है, मूर्छा की समाधि है, नींद की समाधि है। निरोध की समाधि चैतन्य की समाधि है, जागृत समाधि है । यह समाधि उपलब्ध होती है स्वरूप की अवस्थिति में जब चित्त का पूर्ण परिकर्म हो जाता है। पतंजलि के योग-दर्शन' में एक पाद है-साधना-पाद । उसमें चित्त-परिकर्म के उपाय निर्दिष्ट हैं । चित्त समाधि के योग्य कैसे बन सकता है ? चित्त का परिकर्म कैसे हो सकता है ? 'परिकर्म' शब्द उस समय का बहुत ही महत्त्वपूर्ण शब्द है। तीनों परम्पराओं में यह शब्द प्रचलित रहा है। इसका अर्थ है-संवारना, मांजना, साफ करना। सोने को तपा-गलाकर उसका परिकर्म किया जाता है। उसकी भी एक निश्चित प्रक्रिया है। चित्त के परिकर्म की प्रक्रिया समाधि की प्रक्रिया है। जब व्यक्ति समाधि के जीवन में नहीं होता उस समय वृत्ति-सारूप्य होता है। हम बहुत बार देखते हैं कि आदमी प्रातःकाल बहुत स्नेहिल होता है। जैसे-जैसे दिन की गर्मी बढ़ती है, उसके दिमाग की भी गर्मी बढ़ती है और सांझ होते-होते वह झगड़ालू वृत्ति का हो जाता है। यह क्यों होता है ? प्रातः और सायं में इतना अन्तर क्यों आता है ? इसका मूल कारण है-वृत्तिसारूप्य । व्यक्ति कुछ भी नहीं है। वह कोरा यन्त्र है। वह केवल टेप-रिकार्डर है। वह वृत्तियों का दास है। वृत्तियां जैसा कराती हैं व्यक्ति वैसे ही आचरण करने लग जाता है। वह गाली देता है तो क्या उसकी वाणी का दोष है ? वह झूठ बोलता है तो क्या वह उसकी वाणी का दोष है ? नहीं, वाणी का कोई दोष नहीं है । गाली भी वृत्ति दिलवा रही है और झूठ भी वृत्ति का ही कार्य है। वाणी केवल माध्यम है। आदमी प्रेम भी वृत्ति के कारण करता है और द्वेष भी वृत्ति के कारण करता है। मन भी यन्त्र है, वाणी भी यन्त्र है और शरीर भी यन्त्र है। तीनों वृत्ति के अधीन हैं। जब तक वृत्तियां हैं तब तक ये तीनों यन्त्र स्वतन्त्र कार्य नहीं कर सकते । जैसा वृत्ति कराती है, वैसा कर देते हैं। वृत्ति जब जागती है तब व्यक्ति का आचरण वैसा ही होने लग जाता है । यही कारण है कि व्यक्ति को पहचान पाना सबसे कठिन काम है। जो व्यक्ति युवावस्था में विशुद्ध आचरण वाला होता है वह कभी-कभी वृद्धावस्था में पतित हो जाता है। जो आज बुरे आचरण कर रहा है वह कल साधु भी बन सकता है, बनता है। जो आज साधु है वह कल साधुता से गिर भी सकता है। हमारा जीवन वृत्तिसारूप्य का जीवन है। यह पूरा असमाधि का जीवन है। चित्तवृत्ति के जो दो परिणाम या दो अवस्थाएं है, योगदर्शन में उनका सुन्दर Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ मनन और मूल्यांकन विवेचन मिलता है। दो प्रकार का जीवन है । एक है-वृत्तियों से संश्लिष्ट जीवन और दूसरा है-वृत्तिशून्य जीवन। वृत्तियों से संश्लिष्ट जीवन वृत्तिसारूप्य का जीवन है, संज्ञाओं का जीवन है। वृत्तिशून्य जीवन नो-संज्ञोपयुक्त या संज्ञाशून्य जीवन है। जब हमारी चेतना की प्रवृत्ति संज्ञा में होती है तब हम संज्ञोपयुक्त होते हैं, वृत्तिसारूप्य का जीवन जीते हैं। जब चेतना की प्रवृत्ति चेतना में ही होती है तब नो-संज्ञोपयुक्त जीवन जीते हैं। जीवन की दो धाराएं हैं-समाधि और असमाधि । असमाधि की धारा में जीने वाले व्यक्ति को कैसे पहचाना जा सकता है ? समाधि की धारा में जीने वाले व्यक्ति को कैसे पहचाना जा सकता है ? चित्तवृत्ति का निरोध कैसे किया जा सकता है ? एकाग्रता से प्रारम्भ कर निरोध की भूमिका तक कैसे पहुंचा जा सकता है ? योगदर्शन का हार्द इन चार सूत्रों (प्रश्नों के उत्तरों) में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है। जो हार्द को जान लेता है, उसके लिए समूचे शरीर की यात्रा सहज हो जाती है। योगदर्शन के हार्द को जान लेने पर, उसका पारायण सहज हो जाता है। (पातंजल योगदर्शन के आधार पर-पहला प्रवचन-लाडनूं ३०-१२-७६) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. विभूतिपाद पातंजल योगदर्शन का तीसरा पाद है-विभूतिपाद। इसमें विभूति का निरूपण किया गया है। वैभव केवल पदार्थ का ही नहीं होता, वह व्यक्ति की आंतरिक शक्तियों का भी होता है। जैन आगमों में दो प्रकार के मनुष्य बतलाये गए हैं-ऋद्धिमान् और अ-ऋद्धिमान् । जिनमें आन्तरिक विशेषताएं जाग जाती हैं, आन्तरिक शक्तियां विकसित हो जाती हैं, ज्ञान की विशेषता और क्रिया की विशेषता पैदा हो जाती है, वे पुरुष ऋद्धिमान् कहलाते हैं। जिनकी आन्तरिक क्षमताएं जागृत नहीं होतीं वे अ-ऋद्धिमान होते हैं। जिस अर्थ में 'ऋद्धि' शब्द का प्रयोग है जैन-साहित्य में, उसी अर्थ में पतंजलि ने 'विभूति' शब्द का प्रयोग किया । आन्तरिक विभूति या ऋद्धि कैसे विकसित होती है, इसकी प्रक्रिया भी जान लेनी जरूरी है। पतंजलि ने योगदर्शन के दूसरे पाद में योग के यम, नियम आदि पांच अंगों का निरूपण किया है। इस विभूतिपाद में योग के तीन अंगों-धारणा, ध्यान और समाधि का निरूपण है। इस पाद के पचपन सूत्र हैं। उनमें प्रथम पांच सूत्रों में 'संयम' प्रतिपादित है। किन्तु संयम की कोई स्पष्ट परिभाषा वहां नहीं है। योगदर्शन को पढ़ने की आज सबसे बड़ी समस्या भी यही है कि परिभाषाएं नहीं मिलती और भाष्यकार ने जो परिभाषाएं की हैं उनको पढ़ने से ज्ञात होता है कि स्वयं भाष्यकार उलझे हुए हैं, स्पष्ट नहीं हैं। वे स्वयं भी नहीं समझ पा रहे हैं। उन्होंने लिखा है'त्रयमेकत्र संयमः'-धारणा, ध्यान और समाधि- इन तीनों का एक साथ योग होना संयम है। किंतु संयम क्या है, इसकी कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। इस कठिनाई को सुलझाने के लिए हमें तुलनात्मक अध्ययन की जरूरत होती है। जैन, बौद्ध तथा योग की परम्परा और वैदिक परम्परा-इन सबका यदि तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो एक की कमी दूसरे में पूरी हो जाती है। किसी में कुछ नहीं मिलता और किसी में कुछ नहीं मिलता। सर्वत्र ऐसी कमियां प्रतीत होती हैं। किन्तु एक परम्परा, दूसरी परम्परा की पूरक बन जाती है। जैनपरम्परा में या जैन-साधना पद्धति में संयम की बहुत सुन्दर परिभाषा मिलती है। 'सवणे नाणे विन्नाणे, पच्चक्खाणे य संयमें'-प्रत्याख्यान से संयम होता है। शरीर Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ मनन और मूल्यांकन की चेष्टा का प्रत्याख्यान, वाणी का प्रत्याख्यान, मन की सारी वृत्तियों का प्रत्याख्यान, संस्कारों का प्रत्याख्यान करना संयम है। प्रत्याख्यान की निष्पत्ति है-संयम । प्रत्याख्यान के बिना संयम नहीं होता। संयम के पूर्व में है-प्रत्याख्यान और संयम के उत्तर में है-अनाश्रव । जब तक आश्रवन होता है तब तक विशिष्ट शक्तियां जागृत नहीं होती। विशिष्ट शक्तियों के जागरण के लिए अनाश्रव की स्थिति आवश्यक है। कुछ भी बाहर से झर नहीं रहा है। यह है-अनाश्रव । संयम का फल है-अनाश्रव और संयम का रूप है-प्रत्याख्यान । संयम से अनाश्रव प्राप्त होता है। बाहर का सब कुछ रुक जाता है। जब अनाश्रव होता है तब संवर की स्थिति बनती है। संवर ऐसे ही नहीं हो जाता। मन का संवर, वाणी का संवर, काया का संवर, इन्द्रियों का संवर, कोई भी संवर हो, संवर से पहले अनाश्रव होता है। अनाव के लिए संवर होना जरूरी है। संयम एक साधना की प्रक्रिया है। संवर उसकी सहज निष्पत्ति है। मन का संयम किया, इसका अर्थ है कि मन की प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान किया। जब मन की प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान होता है तब मन का संयम सधता है। जब मन का संयम सध गया तो आश्रव रुक गया, अनाश्रव हो गया। अनाव हुआ तो मन का संवर हो गया। संयम की परिभाषा को समझने के लिए प्रत्याख्यान, संयम, अनाश्रव और संवर-इन चारों को समझना जरूरी है। यह पूरी प्रक्रिया है। जब संवर की स्थिति आती है तब आन्तरिक ऋद्धियां और विभूतियां जागती हैं। . महर्षि पतंजलि ने चार सूत्रों में संयम की स्थिति का निरूपण किया है। धारणा, ध्यान और समाधि-ये तीनों जब एक साथ हो जाते हैं तब संयम की स्थिति बनती है। इसका अर्थ है-प्रत्याख्यान हो गया। धारणा में प्रत्याख्यान है, ध्यान में प्रत्याख्यान है और समाधि में प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान की मात्रा जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ही संयम की भूमिका भी पुष्ट होती चली जाती है। धारणा में प्रत्याख्यान होता है, किन्तु चरम-बिन्दु का प्रत्याख्यान नहीं होता। एक स्थिति पर चित्त को टिका दिया, इतना हो गया, किन्तु चित्त की तन्मयता ध्येय के साथ नहीं होती। ध्यान में प्रत्याख्यान का कुछ और विकास होता है और समाधि में पूरा प्रत्याख्यान होकर ध्येय के साथ पूरी तन्मयता बन जाती है। ध्यान तक पूरी तन्मयता नहीं होती। ध्येय के साथ दूरी बनी-की-बनी रहती है। ध्येय और ध्यान या ध्याता के बीच में व्यवधान बना रहता है। समाधि में अभेद-प्रणिधान हो जाता है, दूरी समाप्त हो जाती है, तटस्थता या तन्मयता आ जाती है। इसलिए धारणा का उत्कर्ष है-ध्यान और ध्यान का उत्कर्ष है-समाधि। वास्तव में तीनों पृथक् तत्त्व नहीं हैं। तीनों एक ही हैं। किन्तु मात्रा का भेद है। जैसे-जैसे प्रत्याख्यान की मात्रा पुष्ट होती चली जाती है वैसे-वैसे धारणा ध्यान में बदल जाती है और ध्यान समाधि में बदल जाता है Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विभूतिपाद ६६ और जब समाधि की अवस्था आ जाती है तब संयम पूरा बन जाता है। धारणा भी संयम है, ध्यान और समाधि भी संयम है। यह जो कहा गया है कि तीनों एक स्थान में होते हैं तब संयम होता है, इससे आप यह न माने कि तीनों एक साथ होते हैं। एक साथ हो ही नहीं सकते क्योंकि जब ध्यान है तो फिर धारणा का कोई अर्थ नहीं होता। जब समाधि है तब धारणा और ध्यान का कोई अर्थ नहीं होता। तीनों एक साथ नहीं हो सकते। इनमें उत्तरवर्तिता है। धारणा के बाद ध्यान होता है और ध्यान के बाद समाधि होती है। वे एक साथ हो नहीं सकते। किन्तु तीनों एक साथ होते हैं-यह कहने का अर्थ है कि जिस ध्येय पर पहले धारणा की, ध्यान किया और फिर समाधि की तो वह संयम पूरा हो गया। धारणा भी संयम है, ध्यान भी संयम है और समाधि भी संयम है। तीनों संयम. हैं, किन्तु संयम की पराकाष्ठा समाधि की अवस्था में आती है। वहां पूरा संयम सध जाता है। प्रस्तुत पाद के प्रथम चार सूत्रों में संयम की भूमिकाओं का निरूपण किया गया है और क्रमिक विकास की बात भी बतलायी गई है। पांचवां सूत्र है-'तज्जयात्प्रज्ञालोक :'-- इसमें संयम का फल बतलाया गया है। जैसे-जैसे संयम बढ़ता है वैसे-वैसे प्रज्ञा का आलोक बढ़ता जाता है। प्रज्ञा संयम से जागती है। बुद्धि का विकास पढ़ने से होता है, श्रुत के अध्ययन से होता है और प्रज्ञा का विकास ध्यान से होता है। दो भिन्न स्थितियां हैं। प्रज्ञा कोई बौद्धिक विकास नहीं है। यह स्व-संवेदन या स्वानुभव का विकास है। जब पूछा गया कि तत्त्व किससे ज्ञात होता है ? तो उत्तर मिला-'पण्णा समिक्खए धम्म।' प्रज्ञा के द्वारा तत्त्व का विनिश्चय प्राप्त होता है। पूछा कि आत्मा को कैसे जाना जा सकता है ? उत्तर मिला-प्रज्ञा के द्वारा आत्मा को जाना जा सकता है। यह प्रज्ञा बुद्धि से परे का तत्त्व है। इन्द्रिय, मन और बुद्धि-इनसे परे जो साक्षात्कार की चेतना जागती है, जिस चेतना में परोक्ष समाप्त हो जाता है और साक्षात्कार प्रारंभ होता है, उस चेतना का नाम है-प्रज्ञा। अतीन्द्रिय ज्ञानी के लिए 'प्रज्ञ' शब्द का प्रयोग होता है। कोशकार प्रज्ञा और बुद्धि एकार्थक मान लेते हैं। किन्तु कोश का वर्गीकरण बहुत स्थूल होता है। जितने पर्यायवाची नाम बतलाते हैं वे वस्तुतः पर्यायवाची होते ही नहीं हैं। समभिरूढ़ नय की दृष्टि से कोई भी शब्द पर्यायवाची होता ही नहीं। प्रत्येक शब्द का अपना अर्थ होता है। पर्यायवाची या एकार्थक का वर्गीकरण बहुत स्थूल है और केवल स्थूल बुद्धि वालों के लिए है। वास्तव में हर शब्द का अपना अर्थ होता है और अपना वाच्य होता है । प्रज्ञा का अपना एक विशिष्ट अर्थ है। इसका सम्बन्ध अध्यात्म से है। बुद्धि तक की हमारी भूमिका बाह्य जगत् की भूमिका है, स्थूल जगत् या भौतिक जगत् की भूमिका है, किन्तु जहां प्रज्ञा शब्द का प्रयोग होता है वहां से अध्यात्म-जगत् या अतीन्द्रिय-जगत् प्रारंभ होता है। यदि अतीन्द्रिय-जगत् का ज्ञान, सूक्ष्म-पदार्थ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० मनन और मूल्यांकन का ज्ञान न हो तो प्रज्ञा का कोई अर्थ नहीं होता, कोई प्रयोग भी नहीं होता। प्रज्ञा का आलोक आन्तरिक चेतना का आलोक या अध्यात्म का आलोक है। यह संयम के द्वारा ही उपलब्ध होता है। यह किसी अध्ययन से उपलब्ध नहीं होता। यह नितान्त संयम से उपलब्ध होने वाली चेतना है। इसलिए इन चारों सूत्रों के पश्चात् परिणाम यह बताया कि संयम के अभ्यास से प्रज्ञा का आलोक मिलता है। ___अब प्रश्न होता है कि कितनी प्रज्ञा ? प्रज्ञा की भी मर्यादा है। इसकी भी क्रमिक विकास की सीमाएं हैं। अगले सूत्र में बतलाया गया-'तस्य भूमिषु विनियोगः-प्रज्ञा का पृथक्-पृथक् भूमियों में विनियोग होता है। प्रज्ञा की सात भूमिकाएं बतलाई हैं। दूसरे पाद में यह कहा गया है कि जितना संयम, सधता है उतनी प्रज्ञा जागती है। प्रज्ञा और संयम दोनों का विकास साथ-साथ चलता है। प्रथम कोटि का संयम, प्रथम कोटि की प्रज्ञा । द्वितीय भूमिका का संयम तो द्वितीय भूमिका की प्रज्ञा। संयम के साथ-साथ प्रज्ञा का विकास होता है। मन.पर्यवज्ञान कब हो सकता है ? अवधिज्ञान कब हो सकता है ? अलग-अलग संयम की भूमिकाएं हैं । संयम का जितना विकास हो सकता है, उस पर प्रज्ञा का जागरण निर्भर है। अप्रमत्त संयम का विकास हो गया तो पर-चित्तज्ञान या मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होगा। यदि अप्रमत्त संयम की भूमिका नहीं है तो पर-चित्तज्ञान नहीं हो सकता। छठे गुणस्थान तक की भूमिका प्रमत्त संयमी की भूमिका है। उसमें पर-चित्तज्ञान नहीं हो सकता। अप्रमत्त संयमी की भूमिका में, उस विशिष्ट संयम में, मनःपर्यवज्ञान का विकास होता है। अतीन्द्रिय ज्ञान का सारा विकास संयम के विकास के साथ-साथ चलता है। कैवल्य कब होता है ? अवधिज्ञान कब होता है ? मन पर्यव ज्ञान कब होता है ? और अवधिज्ञान की विशिष्ट भूमिकाएं-देशावधि, सर्वावधि कब होती हैं ? इन सबका संयम के साथ संबंध है। संयम की साधना जितनी अप्रमत्त होती है, जितनी आन्तरिक जागरूकता बढ़ती जाती है उतना ही आंतरिक चेतना का विकास होता जाता है, आन्तरिक चेतना जागती जाती है। इसका कारण भी है कि बुद्धि तक का ज्ञान हमारे मस्तिष्क के साथ जुड़ा हुआ है। इसलिए स्मृति, कल्पना और चिंतन के साथ इसका सम्बन्ध है। बुद्धि से परे का जो ज्ञान है उसका इस मस्तिष्क के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका सम्बन्ध जुड़ जाता है-तैजस शरीर के साथ यानि लेश्या के साथ, लेश्या के परिणामों के साथ । संयम जितना विकसित होता है, लेश्या जितनी शुद्ध होती है उतना ही आन्तरिक ज्ञान विकसित होता जाता है । लेश्या विशुद्ध हुई, जाति-स्मृति ज्ञान पैदा हो गया। यह जाति-स्मृति एक विभूति, एक ऋद्धि है। लेश्या विशुद्ध हुई, अवधिज्ञान पैदा हुआ। इन सबका सम्बन्ध लेश्या के साथ जुड़ जाता है, सूक्ष्म-शरीर की चेतना के साथ जुड़ जाता है । सूक्ष्म-शरीर के साथ जो चेतना काम करती है, लेश्या जितनी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभूतिपाद ७१ निर्मल होती है उतनी ही आन्तरिक चेतना विकसित होती जाती है । यह प्रज्ञा के आलोक की जो बात बतलाई है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है । प्रज्ञा का आलोक उतना ही होगा जितनी संयम की भूमिका होगी। जिस प्रकार की संयम की भूमिका होगी उसी प्रकार की प्रज्ञा होगी। इसमें एक निश्चित क्रम है, छलांग नहीं होगी । संयम की पहली भूमिका सिद्ध होगी तो प्रज्ञा का प्रथम रूप विकसित होगा । अब ऐसा नहीं होता कि संयम की पांचवीं भूमिका पर कोई सीधा ही चला गया । उसको क्रमशः साधना पड़ेगा । उसकी दूसरी, तीसरी, चौथी भूमिका आएगी, क्रमिक भूमिका का विकास होगा और क्रमिक ही प्रज्ञा का विकास होगा । सातवें और आठवें सूत्र में अन्तरंग और बहिरंग की चर्चा है, क्योंकि धारणा, ध्यान और समाधि-- ये सब साधन हैं । वास्तव में यह पाद साधन-पाद का ही परिशेष है । यह वर्गीकरण कैसे किया गया, मुझे तो आश्चर्य होता है। यह सारा साधन - पाद में ही जाना चाहिए था । वास्तव में यह द्वितीय पाद का परिशेष ही है । इस प्रसंग में बहिरंग और अन्तरंग की चर्चा थी । अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार - ये पांच बहिरंग हैं और तीन-धारणा, ध्यान और समाधि - ये तीन अन्तरंग हैं । यह एक वर्गीकरण है। दूसरा वर्गीकरण यह भी है— निर्बीज समाधि की दृष्टि से धारणा, ध्यान और समाधि भी बहिरंग हैं। उसका कारण है कि जहां निर्बीज समाधि उपलब्ध होती है वहां फिर कोई साधन नहीं रहता । साधन समाप्त हो जाते हैं। इसलिए यह धारणा, ध्यान और समाधि, उसकी तुलना में, बहिरंग ही बन जाते हैं । धर्म साधना काल में धर्म होता है और स्वभाव में जाकर स्वभाव बन जाता है । साधनाकाल में अहिंसा, संयम, तप – ये सारे साधन हैं किन्तु सिद्धिकाल में ये ही स्वभाव बन जाते हैं । दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः दर्शन, ज्ञान और चारित्र – ये साधन हैं साधना काल में । सिद्धि-काल में ये आत्मा के स्वभाव हैं । साधन वही होता है जो स्वभाव होता है और साधन जब अपना कार्य कर चुकता है तब साधन समाप्त हो जाता है और वह स्वभाव में बदल जाता है। इसलिए परम समाधि या निर्बीज समाधि या जैन भाषा में क्षायिकभाव में साधन समाप्त हो जाते हैं । फिर साधन की कोई जरूरत नहीं होती । वे स्वभाव बन जाते हैं । इसलिए सारे के सारे बहिरंग होते हैं । अन्तरंग तो कोरा स्वभाव होता है । साधन जितना भी है, वह सारा बहिरंग ही होगा, बाहर से स्वीकृत होगा, अपनाया गया होगा । अपनाया गया है, इसलिए वह साधन होता है और वह सारा बहिरंग होता है । इस दृष्टि से यह सही है कि क्षायोपशमिक भाव तक सारा साधन बहिरंग होता है, क्षायिकभाव में जब जाते हैं तो फिर साधन स्वभाव में बदल जाते हैं । वे कभी समाप्त नहीं होते । किन्तु आज इस अन्तरंग और बहिरंग की चर्चा को स्पष्ट समझने में ही हमें कठिनाई हो रही है । प्रत्याहार को क्यों बहिरंग माना जाए ? प्रत्याहार तो बहुत आन्तरिक Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ मनन और मूल्यांकन किया है । परन्तु यही बात जैनों की तपस्या की पद्धति में मिलती है । प्रतिसंलीनता की बाह्य तप माना गया है । प्रतिसंलीनता बाह्य तप है और अन्तरंग तप शुरू होता है— प्रायचित्त से । उसमें ध्यान, समाधि, व्युत्सर्ग आदि सारे आ जाते हैं । यह कठिनाई वहां भी है । यही प्रश्न वहां है । प्रतिसंलीनता को बाह्य क्यों माना गया ? प्रत्याहार को बहिरंग क्यों माना गया ? एक बात तो मुझे लगती हैं कि धारणा से जो क्रम शुरू होता है उसका सम्बन्ध शरीर के साथ जुड़ जाता है । प्रतिसंलीनता और प्रत्याहार का भी शरीर के साथ कम सम्बन्ध नहीं है । इस दृष्टि से विचार करें तो मुझे लगता है कि प्रत्याहार की प्रक्रिया भी स्पष्ट नहीं है और जो पतंजलि का प्रत्याहार का सूत्र है उसकी व्याख्या भी स्पष्ट नहीं है । इन्द्रियों को अपने विषय से हटा लेना यदि इतना ही प्रत्याहार हो तो त्वचा के प्रत्याहार की बात समझ में ही नहीं आती, और भी इन्द्रियों के प्रत्याहार की बात समझ में नहीं आती। इसलिए धारणा और ध्यान का अभ्यास करने वाले मिलेंगे किन्तु प्रत्याहार की साधना करने वाले साधक नहीं मिलेंगे । पता ही नहीं है इस क्रम का कि कैसे साधना की जाती है ? प्रत्याहार की भी अपनी एक साधना होती हैं। पूरी प्रक्रिया है प्रत्याहार की साधना की । किसी भी जैन व्यक्ति से पूछा जाए 1 किं इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता और योग प्रतिसंलीनता कैसे की जाती है ? तो वे बता नहीं पाएंगे। उन्हें ज्ञात ही नहीं है । प्रतिसंलीनता का कोरा तात्त्विक रूप हमारे सामने है, किन्तु उसका साधनात्मक पहलू हमारे सामने स्पष्ट नहीं है । यहीं कठिनाई जैन-साधना पद्धति की है और यही कठिनाई योगदर्शन की है। योगदर्शन की भी बौद्धिक व्याख्याएं तो हैं किन्तु उसका साधना का पक्ष आज भी रहस्यमय है । वह उपलब्ध नहीं है । उसकी चाबियां हाथ में नहीं हैं। प्रतिसंलीनता और प्रत्याहार इनको बहिरंग मानने का अधिक-से-अधिक बौद्धिक या अनुभूतिगम्य कारण यही हो सकता है कि वह पृष्ठभूमि है और धारणा से मूल क्रम शुरू होता है। योग तब सधता है, ध्यान तब होता है जब ध्याता जितेन्द्रिय होता है । जितेन्द्रिय होना यह तो ध्यान की पृष्ठिभूमि में आ गया। ध्यान की अर्हता बन गई । ध्यान का अर्ह कौन हो सकता है ? ध्यान की योग्यता किस व्यक्ति में मानी जा सकती है ? इसकी कसौटी है कि साधक को कम-से-कम जितेन्द्रिय होना चाहिए। इसका मतलब है कि ध्यान से जितेन्द्रियता नहीं आई, ध्यान से पहले ही जितेन्द्रिय होना आवश्यक हो गया । इतनी साधना तो ध्यान से पूर्व ही आ जाए कि जिसमें जितेन्द्रियता निष्पन्न हो जाए। इस पृष्ठभूमि की बात को या पृष्ठभूमि पर होने वाली प्रवृत्ति को अलग रखकर इसे बहिरंग मान लिया । अन्यथा प्रत्याहार को बहिरंग मानने का कोई कारण नहीं है । यह तो सचमुच आंतरिक प्रक्रिया है । मैं जहां तक समझ पाया हूं प्रत्याहार का अर्थ - प्राण- समाहार। हमारी सारी प्रवृत्ति होती है— प्राण-नियोजन के द्वारा । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभूतिपाद ७३ आयुर्वेद में पांच या दस प्राण माने हैं और जैन आगमों में दस प्राण मान्य हैं। आंख बन्द कर लेना मात्र प्रत्याहार नहीं है । किन्तु आंख अपना काम करती है— इन्द्रिय प्राण के द्वारा । चक्षु इन्द्रिय प्राण प्राण का एक प्रकार है, प्राण की एक धारा है । उसके द्वारा आंख अपना काम करती है । साधना करने वाला व्यक्ति अपनी प्राण की साधना के द्वारा दूसरों को जो प्राण का प्रवाह दे रहा है उसको बिल्कुल समेट लेता है, समाहार कर लेता है। आंख खुली है पर अपना काम नहीं कर रही है । कान सुनता है तो कान का यह आकार नहीं सुनता। कान के साथ उस प्राण का - योग होता है, श्रोत्रेन्द्रिय प्राण का योग होता है तब यह कान सुनता है। बस, स्विच आफ कर दिया, प्राण को यहां से हटा लिया, कान पड़ा है, खुला है अंगुलि लगाने की कोई जरूरत नहीं, मुद्रा करने की कोई अपेक्षा नहीं किन्तु कितनी ही आवाज हो रही है, कान अपना काम नहीं कर रहा है । उपकरण इन्द्रिय के साथ जिस ऊर्जा का, जिस प्राणधारा का योग होता है, चैतन्य और प्राण का समन्वित योग होता है, चेतनायुक्त प्राणधारा का जो प्रवाह होता है, उस प्रवाह को वहां से हटा लेना यह श्रोत्रेन्द्रिय का प्रत्याहार होता है । प्रत्याहार की साधना बहुत महत्त्वपूर्ण साधना है और उसका अर्थ है कि प्राण के प्रवाह को वहां से समाहित कर लेना, हटा लेना और मूल प्राण के साथ उसको जोड़ देना । यह जब साधना होती है तो इन्द्रिय की पूरी प्रतिसंलीनता हो जाती है । इन्द्रियां अपने आप में लीन हो जाती हैं, अपना काम नहीं करती । कषार्य भी प्राण प्रवाह के द्वारा पैदा होता है । प्राण की धारा जुड़ती है तो क्रोध आता है, अभिमान आता है, सारे कषाय आते हैं । प्राण का कनेक्शन तोड़ दिया तो सारे कषाय बिल्कुल शांत हो जाते हैं । योग की प्रवृत्ति - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति - भी प्राणधारा के द्वारा होती है । प्राणधारा को उस स्थान से हटा लेने का अर्थ होता है - प्रत्याहार । यह प्रत्याहार की प्रक्रिया आन्तरिक प्रक्रिया है । किन्तु वर्गीकरण करने वालों के सामने यही रहा कि इसको ध्यान के लिए योग्य माना जाए। यम, एक है - प्रत्याहार से इधर का जगत् और दूसरा है - प्रत्याहार से उधर - का जगत् । बीच का एक सेतु-बंध बन जाता है । प्रत्याहार से इधर का जगत् है, वह सारा का सारा बाह्य जगत् है यानि अभी तक भीतर में कोई प्रवेश नहीं है । नियम, आसन और प्राणायाम -- यह प्रत्याहार से इधर का जगत् है, जहां कोई भीतर का प्रवेश अभी नहीं हुआ । भीतर का कोई दरवाजा नहीं खुला । नियम लिया तो एक संकल्प कर लिया । नियम में अभी भी शारीरिक प्रक्रिया है और प्राणायाम श्वास की प्रक्रिया है दरवाजा नहीं खुला । इसलिए यह जगत् बाह्य जगत् हो गया । नियम से हो जाता है, प्रक्रिया चालू हो जाती है किन्तु प्राणायाम तक यह नहीं कह सकते कि कोई अन्तर्चेतना का द्वार खुला हो । जब प्रत्याहार में आते हैं संकल्प है । आसन । भीतर का कोई सांधना का प्रारंभ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ मनन और मूल्यांकन तब एक स्थिति बनती है और बाह्य जगत् का रूप बदल जाता है। प्रत्याहार. को बाह्य नहीं कह सकते, क्योंकि उससे भीतर में प्रवेश होता है, इन्द्रियां जो बाहर प्रवृत्ति करती थीं वे अब भीतर की ओर मुड़ गयीं, मन जो बाहर दौड़ता था, भीतर की ओर मुड़ गया, चित्त की चेतना भी भीतर की ओर सूक्ष्म-जगत् में और अन्तर्जगत् में प्रवेश कर गयी। यह एक मोड़ का बिन्दु है। यहां से मोड़ प्रारंभ होता है। इस बिन्दु को हम चाहें तो अगले विभाग में रख सकते हैं, चाहें तो इस विभाग में रख सकते हैं । अच्छा तो यह होता कि तीन भूमिकाएं की जाती-बहिरंगयोग, मध्य-योग और उत्तर-योग। धारणा, ध्यान और समाधि-यह उत्तर-योग है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम-यह बहिरंग-योग है और प्रत्याहार-यह मध्य-योग है। यह दोनों को जोड़ने वाला है। जब प्रत्याहार होता है तो ये चारों ही फिर अन्तर्जगत् के साथ जुड़ जाते हैं। पहले नहीं जुड़ते । कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति-ये तीन गुप्तियां होती हैं तो पांच महाव्रत और पांच समितियां अन्तर्जगत् के साथ जुड़ जाती हैं । जब ये तीन गुप्तियां नहीं होती हैं तो समितियां और महाव्रत भी मात्र बाह्य आचरण ही रह जाते हैं, अन्तर्जगत् के साथ नहीं जुड़ते। इनका एक मध्य बिन्दु है-प्रत्याहार। इस मध्य बिन्दु को चाहे हम धारणा, ध्यान, समाधि-इस त्रिपदी के साथ जोड़कर चतुष्पदी बना दें या यम, नियम के साथ जोड़कर षट्पदी बना दें। पतंजलि ने शायद यह सोचा हो कि प्रत्याहार को प्रथम वर्गीकरण में रखने से शेष चार-आसन, यम, नियम आदि भी कम-से-कम योग के अंग बन जाएंगे और यदि प्रत्याहार साथ में न रहा तो वे चार भी शायद योग के अंग न बन सकें, क्योंकि आसन तो एक मल्ल भी करता है, स्वास्थ्य की साधना करने वाला व्यक्ति भी करता है। प्राणायाम हर कोई व्यक्ति करता है, जाने-अनजाने करता ही है। कौन ऐसा व्यक्ति है जो प्राणायाम नहीं करता? जब थोड़ा-सा 'जी' घुटने लगता है तो अपने-आप दीर्घश्वास का प्रयोग शुरू कर देता है। प्राणायाम का प्रयोग तो जानवर भी करते हैं और यम, नियम का प्रयोग हर सामाजिक आदमी करता है। धर्म को, साधना को, आत्मा को न मानने वाला व्यक्ति भी यम, नियम का प्रयोग करता है। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं, जो इन चारों का प्रयोग न करे । प्रत्याहार की जरूरत उनको नहीं होती। अन्तर्दृष्टि जागती है तभी प्रत्याहार किया जाता है, नहीं तो कोई आवश्यकता नहीं होती। प्रत्याहार की साधना के साथ जुड़कर यम, नियम, आसन आदि आध्यात्मिक बन जाते हैं, इस दृष्टि से प्रत्याहार को उस विभाग में रख दिया। प्रत्याहार से जो एक द्वार खुलता है और उसके बाद जो कुछ करने का होता है उसे अन्तरंग की कोटि में रख दिया गया है। ___ आठवें सूत्र के पश्चात् नौवें से पन्द्रहवें सूत्र तक परिणाम की चर्चा है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। समाधि के पश्चात् परिणाम की चर्चा की गयी है । यह बहुतः Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभूतिपाद ७५ जटिल बन गई है । लोग समझने में कठिनाई का अनुभव करते हैं और पढ़ाने वाले समझाने में कठिनाई का अनुभव करते हैं । यदि इस परिणाम की चर्चा को कर्म-ग्रंथ और पांच भावों के संदर्भ में जाना जाए तो बहुत आसान हो जाए। जैन दर्शन में औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक -- इन पांच भावों की जो चर्चा है, वैसी ही चर्चा योगदर्शन में आठवें से पन्द्रहवें सूत्र तक की गयी है । यह परिणामों की चर्चा है, क्योंकि जब विभूतियों का वर्णन करना है तो 'परिणामक्रमान्यत्व' - परिणाम का अन्यत्व होना जरूरी है और परिणाम का अन्यत्व क्यों होगा, यह जानने के लिए परिणामों को जानना जरूरी है । एकाग्रता का परिणाम, निरोध का परिणाम, संस्कार का परिणाम, शांत, उदित — ये सारी कर्म की अवस्थाएं हैं, विपाक की अवस्थाएं हैं। एक जैन इस सारे प्रकरण को यदि पांच भावों के संदर्भ में पढ़े तो बहुत अच्छी तरह समझ सकता है। कर्म-ग्रंथ और पांच भावों को नहीं जानने वाला, दूसरी परम्परा का व्यक्ति, उतनी स्पष्टता के साथ नहीं समझ सकता । क्षायिक भाव में सारे परिणाम समाप्त हो जाते हैं, किन्तु क्षायोपशमिक भाव शांत और उदित रहते हैं। एक शांत होता है, दूसरा परिणाम उदय में आ जाता है । दूसरा शांत होता है, पहला उदय में आ जाता है। शांत और उदित का क्रम चलता रहता है। कर्म का उदय भी होता रहता है और कर्म का विपाक शांत भी होता रहता है। पूरी प्रक्रिया चलती है। एक परिणाम, फिर दूसरा परिणाम, फिर तीसरा परिणाम । एक परिणाम बीतता है, फिर दूसरा परिणाम उदय में आ जाता है । कर्म-ग्रंथ को जानने वाला जानता है कि दो विरोधी प्रकृतियां एक साथ उदय में नहीं आतीं । सातवेदनीय और असातावेदनीय, सुख का संवेदन और दुःख का संवेदन- दोनों एक साथ नहीं होते । निद्रा और जागरण — दोनों एक साथ नहीं होते। जितनी विरोधी प्रकृतियां हैं - एक उदय में आती है और दूसरी शांत हो जाती है। क्या जब सुख का संवेदन है तब हम मान लें कि दुःख समाप्त हो गया ? नहीं, दुःख समाप्त नहीं हुआ, किन्तु दुःख अनुदय में चला गया, क्योंकि जब एक प्रकृति उदय में होती है तो फिर दूसरी विरोधी प्रकृति उदय में नहीं आ सकती, गौण हो जाती है, अनुदित हो जाती है, किन्तु संस्कार समाप्त नहीं होता, विपाक उसका समाप्त नहीं होता, बंध समाप्त नहीं होता। परम्परा चलती है । जैसे ही निमित्त बदला वह उदय में आ जाएगी और जो उदय में थी वह शान्तावस्था में चली जाएगी। क्षयोपशम तक यह प्रक्रिया चलती रहती है । हमारे जितने क्षायोपशमिक भाव हैं, उनमें परिणामों की यह धारा चलती रहती है। एक अच्छा विचार आया, बुरा विचार दब गया और बुरा विचार आया तो अच्छा विचार दब गया, यह क्रम निरंतर चलता रहता है । इसीलिए हमारी जागरूकता का प्रयत्न भी निरंतर Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ मनन और मूल्यांकन चलता रहता है। हम ज्ञान का अभ्यास करते हैं, ज्ञान का आवरण दूर होता है । जैसे ही अभ्यास बंद किया फिर आवरण आ जाता है । इसे व्याख्याकारों ने एक रूपक द्वारा समझाया है एक तालाब था । वह शेवाल से भरा पड़ा था। रात का समय । आकाश में चांद-तारे चमक रहे थे । हवा चली। शेवाल कुछ हटा। एक कछुए ने ऊपर देखा । चांद-तारों को देख वह मुग्ध हो गया । उसने सोचा, मैं अकेला ही आनन्द लूट रहा । अपने साथियों को बुलाकर दिखाऊं । उसने पानी में डुबकी लगाई । साथियों को ले आया । पर अब शेवाल पुनः छा गई थी । आकाश दीखना बंद हो गया । जब तक आदमी पुरुषार्थ करता है, उस शेवाल को हटाता रहता है तब तक तो कर्म का क्षयोपशम काम करता रहता है और जब उस पुरुषार्थ को छोड़ देता है । तो वह शेवाल पुनः छा जाता है, आकाश दीखना बंद हो जाता है । इसीलिए क्षयोपशम का अर्थ है - सतत अभ्यास, सतत पुरुषार्थ और सतत जागरूकता । यह क्षयोपशम का सिद्धान्त तब तक चलता रहता है जब तक क्षायिक की प्रक्रिया नहीं आ जाती। इन सूत्रों में इस क्षयोपशम की प्रक्रिया का बहुत सुंदर वर्णन किया गया है। सोलहवें सूत्र से ५५ वें सूत्र तक विभूतियों का वर्णन किया गया है। ये सारी विभूतियां हैं। किस साधना के द्वारा कौन-सी विभूति प्राप्त होती है, वह भी बहुत महत्त्वपूर्ण और जानने का विषय है। कभी उसकी चर्चा हो सकती है । जातिस्मृति, पर-चित्तज्ञान आदि-आदि जो ज्ञान की विभूतियां हैं वे किस प्रक्रिया से उपलब्ध होती हैं, इसको भी जानना जरूरी है। आज हमारे सामने जो समस्या है वह यह नहीं है कि प्राचीन ग्रंथों में मनोविज्ञान या परा - मनोविज्ञान के कितने तत्त्व मिलते हैं ? इस पर तो काफी लिखा गया है, लिखा जा रहा है। जैन साधना पद्धति और बौद्ध साधना पद्धति में इनका पूरा विवरण मिलता है । मूल समस्या यह है कि उनकी प्रक्रिया क्या है ? वे कैसे उपलब्ध होती हैं ? पातंजलि ने जैसे स्वयं निर्देश दिया है कि सिद्धियां, विभूतियां तपस्या के द्वारा भी, मंत्र के द्वारा भी, औषधि (वनस्पति) के द्वारा भी और योग-साधना के द्वारा भी प्राप्त की जा सकती हैं । इनमें जो वनस्पति के द्वारा होती हैं वे कम शक्तिशाली होती हैं । किंतु तप और साधना के द्वारा जो होती हैं वे बहुत शक्तिशाली होती हैं । सिद्धियों के बारे में यह भी स्पष्ट दृष्टि रही है कि समाधि के विघ्न व्युत्थान के लिए तो अच्छे हैं और समाधि के लिए विघ्न हैं । एक परिणाम का व्युत्थान होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि औदयिकभाव के लिए तो अच्छी हैं किन्तु क्षायिकभाव के लिए इनका कोई उपयोग नहीं। सभी परम्पराओं में सिद्धियों के प्रयोग का निषेध भी रहा है । किन्तु एक बात इसमें समझ लेनी है कि अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान की जो विभूतियां या सिद्धियां हैं. ये समाधि के लिए विघ्न नहीं हैं । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभूतिपाद ७७ प्राण-साधना से उपलब्ध जितनी सिद्धियां हैं वे समाधि के विघ्न हो सकती हैं । प्राण, उदान, समान के जय से होने वाली जो सिद्धियां हैं वे सारी विघ्न बन सकती हैं । दो-तीन प्रकार के परिणाम होते हैं। पतंजलि ने दो प्रकार के परिणामों की चर्चा की है – अभिभव और प्रादुर्भाव । तीन प्रकार की परिणाम-धारा होती हैहीयमान, वर्द्धमान और अवस्थित । हीयमान परिणाम होता है जो अभिभव है । एक वर्द्धमान होता है जो प्रादुर्भूत होता है, बढ़ता है और एक अवस्थित होता है । इनके साथ-साथ तुलना करने पर बहुत सारी नयी संभावनाएं और नयी बातें हमें उपलब्ध हो सकती हैं। सामान्य दृष्टि से इस विभूतिपाद का संक्षिप्त सा अवलोकन किया गया कि विभूतिपाद पढ़ने वाले विद्यार्थी को इसकी पृष्ठभूमि में कितना जान लेना चाहिए । पृष्ठभूमि जान लेने पर अगला अध्ययन सहज, सरल हो जाता है। मुझे एक ही बात प्रतीत होती है- वह है परिभाषा की जटिलता । मैं यह नहीं कहता कि पतंजलि ने कोई जटिल परिभाषाएं की हैं। यह किसी का सवाल नहीं, पतंजलि ar नहीं और किसी का नहीं, यह मूल भाषा का प्रश्न है । आज से २००० वर्ष पूर्व जिन लोगों ने जो सच्चाइयां समझीं, उन्होंने बहुत सरल भाषा में प्रस्तुत कीं, किन्तु आज वे हमारे लिए बहुत गूढ़ बन गई, क्योंकि हमारा उस समय के भाषा-प्रवाह के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहा और उन परिभाषाओं के साथ में सम्बन्ध नहीं रहा । उन परिभाषाओं के नीचे जो सम्बन्ध तैर रहा है, हम उन परिभाषाओं के पकड़ने में अपने आपको असमर्थ पा रहे हैं । आज सबसे बड़ा जो काम करना है वह यह है कि सत्य को परिभाषाओं की कारा से मुक्त किया जाए। हठयोग में स्रावों का बहुत वर्णन है । हमारे शरीर में स्राव होते हैं । जैसे चन्द्रमा से अमृत झर रहा है, सिर से अमृत झर रहा है, यह कहा जाता रहा है । आज जब ग्रंथि - तंत्र को पढ़ते हैं कि अमुक हारमोन्स, अन्तःस्राविग्रंथियों का स्राव अमुक-अमुक स्थितियों को प्रभावित करता है । अगर परिभाषाओं को हम छोड़ दें, इन दोनों को देखें तो प्रतीत होगा कि दोनों सच्चाइयां एक हैं। यदि हम अध्ययन के द्वारा ऐसी क्षमता का विकास कर सकें कि जिससे परिभाषाओं में क्या है, उसमें न उलझें किन्तु उनके नीचे क्या है, वहां तक पहुंच सकें । ऐसी स्थिति में बहुत सच्चाइयां उपलब्ध हो जाएंगी। मैं अध्ययन का एक ही अर्थ मानता हूं, जो विद्यार्थी हैं, अध्ययन करने वाले हैं, उनकी चेतना जागे या उसे जगाने में हम निमित्त बन सकें और इस प्रज्ञा को जगा सकें कि शब्दों, भाषा और परिभाषा के नीचे जो कुछ छिपा पड़ा है, आवृत है, उसे अनावृत करने में वे सक्षम हों, तो मैं समझता हूं. अध्ययन की बहुत बड़ी सार्थकता होगी। ( पातंजल योगदर्शन के आधार पर - दूसरा प्रवचन - लाडनूं 8-२-८० ) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. जैन साहित्य में चैतन्य-केन्द्र प्रज्ञापना में अवधिज्ञान के दो प्रकार उपलब्ध हैं-देशावधि और सर्वावधि। नंदी में देशावधि, सर्वावधि का उल्लेख नहीं है, केवल परमावधि का उल्लेख मिलता है। गोमटसार में अवधिज्ञान के तीन प्रकार मिलते हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि' । __ नंदी में अवधिज्ञान के छह प्रकार किये गए हैं, उनमें पहला प्रकार अनुगामिक है। उसके दो प्रकार हैं----अंतगत और मध्यगत। यह विषय अन्य किसी भी उपलब्ध आगम में नहीं है। प्रतीत होता है कि देवद्धिगणी ने यह पूरा प्रकरण ज्ञानप्रवाद पूर्व से लिया था। इस दृष्टि से नन्दी सूत्र का मुख्य आधार ज्ञानप्रवादपूर्व हो सकता है। स्थानांग, समवायांग, भगवती आदि इसके आधार नहीं हो सकते। ज्ञानप्रवाद चौदह पूर्वो में पांचवां पूर्व है। उसकी विशाल ग्रंथ राशि में केवल ज्ञान का ही निरूपण है। ___ नंदी के इस प्रकरण से एक चिर जिज्ञासित प्रश्न का समाधान होता है। कहा जाता है कि तंत्रशास्त्र और हठयोग में चक्रों का निरूपण है, किंतु जैन साहित्य में उनका कोई निरूपण नहीं है। ध्यान की पद्धति छूट जाने के कारण इस प्रश्न का उत्तर खोजा भी नहीं गया। हरिभद्रसूरी, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र आदि आचार्यों १. प्रज्ञापना ३३३३३ । २. नन्दी सूत्र, १८, गा० २। ३. गोमटसार जीवकाण्ड, गाथा ३७३ : भवपच्चइगो ओही, देसोही होदि परमसव्वोही। गुणपच्चइगो णियमा, देसोही वि य गुणे होदि ॥ ४. नंदी, सूत्र है। ५. नंदी, सूत्र १०। ६. नंदी, चूणि पृ० ७५ : __ पंचमं णाणप्पवादं ति, तम्मि मतिणाइपंचकस्स सप्रभेदं प्ररूवणा जम्हा कता तम्हा णाणप्पवादं । तम्मि पदपरिमाणं एका पदकोडी एक पदूणा। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में चैतन्य-केन्द्र ७६ ने अपने योगग्रन्थों में हठयोग का समावेश किया, किन्तु जैन साहित्य में उपलब्ध चक्रों की ओर ध्यान नहीं दिया। देशावधिज्ञान चक्र सिद्धान्त का मौलिक आधार है। नन्दी सूत्र में देशावधि और सर्वावधि का उल्लेख नहीं है, किंतु उनकी व्याख्या बहुत विस्तार से मिलती है। अंतगत देशावधि का सूचक है और मध्यगत सर्वावधि का सूचक है। अंतगत अवधिज्ञान के तीन प्रकार हैं १. पुरतः अंतगत। २. पृष्ठत: अंतगत। ३. पार्वत: अंतगत। चूर्णिकार और हरिभद्रसूरी ने अंतगत शब्द के अनेक अर्थ किए हैं१. यह औदारिक शरीर के पर्यन्त भाग में स्थित होता है, इसलिए अंतगत है। २. यह स्पर्धक' अवधि होने के कारण आत्म प्रदेशों के अंतभाग में रहता है, इसलिए अंतगत है। ३. यह औदारिक शरीर के किसी देश (भाग) से साक्षात् जानता है, इसलिए अंतगत है। औदारिक शरीर के मध्यवर्ती स्पर्धकों की विशुद्धि, सब आत्म-प्रदेशों की विशुद्धि अथवा सब दिशाओं का ज्ञान होने के कारण यह अवधिज्ञान मध्यगत कहलाता है। जब आगे के चक्र या चैतन्य केन्द्र जागृत होते हैं तब पुरतः अंतगत अवधिज्ञान होता है। उससे अग्रवर्ती ज्ञेय जाना जाता है। १. आत्मगुण का आच्छादन करने वाली कर्म की शक्ति का नाम स्पर्धक है। वह दो प्रकार का होता है-देशघाति और सर्वघाति । आत्मा के किसी एक देश का आच्छादन करनेवाली कर्मशक्ति को देशघाति स्पर्धक और सर्व-देश का आच्छादन करनेवाली कर्म-शक्ति को सर्वघाति स्पर्धक कहा जाता है। २. नन्दी चूर्णि, पृ० १६ : (क) एवं ओरालि यसरीरंते ठितं गतं ति एगट्ट, तं च आतप्पदेसफड्डगावहि, एगदिसोवलंभाओ य अंतगतमोधिण्णाणं भण्णति । अहवा सव्वतप्पदेसविसुद्धेसू वि ओरालियसरीरेगतेण एगदिसिपासणगतं ति अंतगतं भण्णति । अहवा फुडतरमत्थो भण्णति-एगदिसावधिउवलद्धखेत्तातो सो अवधिपुरिसो अंतगतो ति जम्हा तम्हा अंतगतं भण्णति । (ख) नंदी सूत्र, हरिभद्रवृत्ति पृ० २३ । ३. नंदी चूणि, पृ० १६ : मझगतं पुण ओरालियसरीरमज्झे फड्डगविसुद्धीतो सव्वातप्पदेसविसुद्धीतो वा सम्बदिसोवलंभत्तणतो मज्झगतो ति भण्णति । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० मनन और मूल्यांकन जब पीछे के चैतन्य- केन्द्र जागृत होते हैं तब पृष्ठतः अंतगत अवधिज्ञान होता है, उससे पृष्ठवर्ती ज्ञेय जाना जाता है । जब पार्श्व के चैतन्य- केन्द्र जागृत होते हैं, तब पार्श्वतः अंतगत अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, उससे पार्श्ववर्ती ज्ञेय जाना जाता है । जब मध्यवर्ती चैतन्य- केन्द्र जागृत होते हैं तब मध्यगत अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। उससे सर्वतः समन्तात् ( चारों ओर से ) ज्ञेय जाना जाता है । ' इसका निष्कर्ष है कि हमारे समूचे शरीर में चैतन्य- केन्द्र अवस्थित हैं । साधना के तारतम्य के अनुसार जो चैतन्य-केन्द्र जागृत होता है उसी में से अतीन्द्रिय ज्ञान रश्मियां बाहर निकलने लग जाती हैं। पूरे शरीर को जागृत कर लिया जाता है तो पूरे शरीर में से अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां फूट पड़ती हैं। अनेक चैतन्य केन्द्रों की सक्रियता से होने वाले अवधिज्ञान का नाम पूरे शरीर की सक्रियता से होने वाला अवधिज्ञान सर्वावधि है । किसी एक या देशावधि है । प्राणी के पास चार 'करण' होते हैं' - मन- करण, वचन-करण, काय करण और कर्म-करण | अशुभकरण से असुख का और शुभकरण से सुख का संवेदन होता है ।' श्वेताम्बर साहित्य में 'करण' के विषय में अर्थ की परंपरा विस्मृत हो गई । दिगम्बर साहित्य में उसकी अर्थ-परंपरा आज भी उपलब्ध है। उससे चक्र या चैतन्य केन्द्र के बारे में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है । करण का एक अर्थ होता है – निर्मल चित्त धारा । उसका दूसरा अर्थ हैचित्त की निर्मलता से होने वाली शरीर, मन आदि की निर्मलता । शरीर के जिस देश में निर्मलता हो जाती है, अर्थात् शरीर का जो भाग करणरूप में परिणत हो १. नन्दी, सूत्र १६ : अंतगयस्स मज्झगयस्स य को पइविसेसो ? पुरओ अंतगएणं ओहिणाणेणं पुरओ चेव संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ । मग्गओ अंतगएणं ओहिणाणेणं मग्गओ चेव संखेज्जाणि वा असं खेज्जाणि वा जोयणाइं जाणइ पासइ । पासओ अंतगएणं ओहिणाणेणं पासओ चैव संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ । झणं ओहिणणं सव्वओ समंता संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाइं जाणइ पासइ । २. भगवती ६/५ । ३. भगवती ६ / १४ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में चैतन्य-केन्द्र ८१ जाता है, उस भाग से अतीन्द्रियज्ञान होने लग जाता है। इस दृष्टि से हमारे शरीर में अवधिज्ञान के अनेक क्षेत्र हैं, अनेक संस्थान हैं। ये संस्थान ही चक्र या चैतन्य-केन्द्र हैं। नन्दी सूत्र में अवधिज्ञान के छह प्रकार बतलाये गए हैं। - १. आनुगामिक ४. हीयमान २. अनानुगामिक ५. प्रतिपाति ३. वर्धमान ६. अप्रतिपाति ।" षट्खंडागम में अवधिज्ञान के तेरह प्रकार बतलाये गए हैं१. देशावधि ८. अनुगामी २. परमावधि ६. अननुगामी ३. सर्वावधि १०. सप्रतिपाती ४. हायमान ११. अप्रतिपाती ५. वर्धमान १२. एक क्षेत्र ६. अवस्थित १३. अनेक क्षेत्र। ७. अनवस्थित प्रस्तुत प्रसंग में एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र-ये दो भेद बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। जिसमें जीव-शरीर का एक देश (चैतन्य-केन्द्र) करण बनता है, वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है। जो प्रतिनियत क्षेत्र के माध्यम से नहीं होता, किन्तु शरीर के १. षट्खंडागम, पुस्तक १३, पृ० २६६ धवला : ओहिणाणमणेयक्खेत्तं चेव, सव्वजीवपदेसेसु अक्कमेण खओवसमं गदेसु सरीरेगदेसेणेव वज्झट्ठावगमाणुववत्तीदो? ण, अण्णत्थ करणाभावेण करण सरूवेण परिणदसरीरेगदेसेण तदवगमस्स विरोहाभावादो। २. वही, पृ० २६६ धवला : खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा ॥५॥ जहा कायाणमिदियाण च पडिणियदं सठाणं तहा ओहिणाणस्स ण होदि, किंतु ओहिणाणावरणीयखओवसमगदजीवपदेसाणं करणीभूदसरीरपदेसा अणेगसंठाणसंठिदा होंति। ३. नन्दी, सूत्र । ४. षट्खंडागम, पुस्तक, १३ पृ० २६२ । ५. वही, पृ० २६५ : जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करणं होदि तमोहिणाणमेगक्खेत्तं णाम। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.२ मनन और मूल्यांकन सभी अवयवों के माध्यम से होता है - शरीर के सभी अवयव करण बन जाते हैं, वह अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान है । ' यद्यपि अवधिज्ञान की क्षमता सभी आत्म-प्रदेशों में प्रकट होती है, फिर भी शरीर का जो देश करण बनता है उसी के माध्यम से अवधिज्ञान प्रकट होता है । शरीर का जो भाग करणरूप में परिणत हो जाता है, वही अवधिज्ञान के प्रकट होने का माध्यम बन सकता है। नंदी सूत्र में भी सब अवयवों से जानने और किसी एक अवयव से जानने की चर्चा मिलती है । एकक्षेत्र अवधिज्ञान में शरीर का एक चैतन्य-केन्द्र भी जागृत हो सकता है तथा दो, तीन, चार, पांच आदि चैतन्य- केन्द्र भी एक साथ जागृत हो सकते हैं। चैतन्य- केन्द्र अनेक संस्थान वाले होते हैं। जैसे इन्द्रियों का संस्थान प्रतिनियत होता है वैसे चैतन्य- केन्द्रों का संस्थान प्रतिनियत नहीं होता किन्तु करणरूप में परिणत शरीर- प्रदेश अनेक संस्थान वाले होते हैं । कुछ संस्थानों के नाम-निर्देश मिलते हैं । जैसे- श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त आदि। धवलाकार ने आदि शब्द के द्वारा अन्य अनेक शुभ संस्थानों का निर्देश किया है' । तन्त्रशास्त्र १. षट्खंडागम, पुस्तक १३, पृ० २६५ : जमोहिणाणं पडिणियदखेत्तं तमणेगक्खेत्तं णाम । २. नंदी, सूत्र २२ : देवतित्थंकराय, ओहिस्सऽवाहिरा हुंति । पासंति सव्वओ खल, सेसा देसेण पासंति ॥ ३. षट्खंडागम, पुस्तक, १३ पृ० २६७ : णच एक्कस्स जीवस्स एक्कम्हि चेव पदेसे ओहिणाणकरणं होदि त्ति णियमो अत्थि, एंग-दो तिष्णि चतारि-पंच-छआदि खेत्ताण मेगजीवहि संखादिसुहसंठाणाणं कम्हि वि सभवादो । ४. वही, पृ० २६६ : वज्जिय सरीरसव्वावयवेस वद्रदि · खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा ॥५७॥ ५. वही, पृ० २६७ : सिरिवच्छ - कलस - संख-सोत्थिय णंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्त्राणि भवंति । ६. वही, पृ० २६७ एत्थ आदिसद्देण असि पि सुहसंठाणाणं गहणं कायव्वं । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में चैतन्य- केन्द्र और हठयोग में चक्रों के लिए कमल शब्द की प्रकल्पना मिलती है। यहां कमलशब्द का उल्लेख नहीं है, किन्तु आदि शब्द के द्वारा उसका निर्देश स्वतः प्राप्त हो जाता है | आचार्य नेमिचन्द्र ने गुणप्रत्यय अवधिज्ञान को शंख आदि चिह्नों से उत्पन्न होने वाला बतलाया है' । टीकाकार ने आदि शब्द की व्याख्या में पद्म, वज्र, स्वस्तिक, मत्स्य, कलश आदि शब्दों का निर्देश दिया है। जैन साहित्य में अष्ट मंगल की मान्यता प्रचलित है'। अनुमान किया जा सकता है कि अवधिज्ञान के शरीरगत चिह्नों और अष्ट मंगलों में कोई सामञ्जस्य का सूत्र रहा हो । श्रीवत्स आदि शुभ संस्थान वाले चैतन्य- केन्द्र मनुष्य और पशु के नाभि के ऊपर के भाग में होते हैं । वीरसेन आचार्य का मत है कि शुभ संस्थान वाले चैतन्य- केन्द्र नीचे के भाग में नहीं होते । नाभि से नीचे होने वाले चैतन्य- केन्द्रों के संस्थान अशुभ होते हैं, गिरगिट आदि अशुभ आकार वाले होते हैं । आचार्य वीरसेन के अनुसार इस विषय का षट्खंडागम में सूत्र नहीं है, किन्तु यह विषय उन्हें गुरु-परम्परा से उपलब्ध है । " चैतन्य- केन्द्रों के संस्थानों में परिवर्तन भी हो सकता है । सम्यक्त्व उपलब्ध १. गोमटसार, जीवकाण्ड, गा० ३७१ : भवपच्चइगो सुरणिरयाणं, तित्थेवि सव्व अंगुत्थो । गुणपच्चइगो णरतिरियाणं संखादिचिण्हभवो ॥ २ . वही, टीका : नाभेरुपरि शङ्खपद्मवज्रस्वस्तिकझषकलशादि शुभ चिह्नलक्षितात्मप्रदेशस्थावधिज्ञानावरणवीर्यान्तरायकर्मद्वयक्षयोपशमोत्पन्नमित्यर्थः । ३. ओवाइयं, सूत्र ६४ : अट्ठ मंगलया पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्टिया तं जहा- सोवत्थियसिरिवच्छ-गंदियावत्त- वद्धमाणग-भद्दासण- कलस-मच्छ-दप्पणया । ४. षट्खंडागम, पुस्तक १३, पृ० २६७ : एदाणि संठाणाणि तिरिक्ख- मणुस्साणं नाहीए उवरिमभागे होंति, ter; सुहठाणामधोभागेण सह विरोहादो । ५. वही, पुस्तक १३ पृ० २६८ तिरिक्खमणुसविहंगणाणीणं नाहीए हेट्ठा मरडादि असुहसंठाणाणि होंति त्ति गुरुवदेसो, ण सुत्तमत्थि । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ मनन और मूल्यांकन होने पर नाभि से नीचे के अशुभ संस्थान मिट जाते हैं, नाभि से ऊपर के शुभ संस्थान निमित हो जाते हैं । इसी प्रकार सम्यक्दृष्टि के मिथ्यात्व अवस्था में चले जाने पर नाभि से ऊपर के शुभ सस्थान मिट जाते हैं और नाभि से नीचे के अशुभ संस्थान निर्मित हो जाते हैं। - १. वही, १३ पृ० २९८ : विहंगणाणीणमोहिणाणे सम्मत्तादिफलेण समुप्पण्णे सरडादि असुहसंठाणाणि फिट्टिदूण णाहीए उवरि संखादिसुहसंठाणाणि होत्ति त्ति घेतव्वं । एवमोहिणाणपच्छायदविहंगणाणीणं वि सुहसंठाणाणि फिट्टिदूणं असुहसंठाणाणि होति त्ति घेतव्वं । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. संस्कृत साहिय एक विहंगावलोकन भगवान् महावीर के युग में संस्कृत पंडितों की भाषा बन गयी थी । भाषा के आधार पर दो वर्ग स्थापित हो गए थे - एक वर्ग उन पंडितों का था, जो संस्कृतविदों को ही तत्त्वद्रष्टा मानते थे और संस्कृत नहीं जानने वालों की बुद्धि पर अपना अधिकार किये हुए थे। दूसरा वर्ग उन लोगों का था, जो यह मानते थे कि संस्कृतविद् ही तत्त्व की व्याख्या कर सकते हैं । भगवान् महावीर ने अनुभव किया कि सत्य को खोजने की क्षमता हर व्यक्ति में है । उस पर भाषा का प्रतिबंध नहीं हो सकता । जिसका चित्त राग-द्वेषशून्य है, वह संस्कृतविद् न होने पर भी सत्य को उपलब्ध हो जाता है और जिसका चित्त राग-द्वेषशून्य नहीं होता, वह संस्कृतविद् होने पर भी सत्य को उपलब्ध नहीं होता । सत्य और भाषा का गठबंधन नहीं है— इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए भगवान् महावीर ने जनभाषा प्राकृत को सत्य निरूपण का माध्यम बनाया । : I भगवान् महावीर ने प्राकृत में उपदेश किया। उनके प्रमुख शिष्य गौतम आदि गणधरों ने उसका प्राकृत में ही गुंफन किया । उनके निर्वाण की पांचवीं शताब्दी तक धर्मोपदेश तथा ग्रंथ-रचना में प्राकृत का ही उपयोग होता रहा । निर्वाण की छठी शताब्दी में फिर संस्कृत का स्वर गुंजित हुआ । आर्यरक्षित' ने संस्कृत और प्राकृत दोनों को ऋषि-भाषा कहा । उनकी यह ध्वनि स्थानांग के स्वरमण्डल में भी प्रतिध्वनित हुई । उमास्वाति (स्वामी) ने मोक्षशास्त्र ( तत्त्वार्थ सूत्र ) का संस्कृत में प्रणयन किया । उनका अस्तित्व काल विक्रम की तीसरी से पांचवी शताब्दी के मध्य माना जाता है। जैन परंपरा में इसी कालावधि में संस्कृत युग प्रारंभ हुआ । जैन आचार्यों ने प्राकृत को तिलाञ्जलि नहीं दी । प्राकृत में ग्रन्थ रचना का कार्य, १. आर्य रक्षित का जन्म काल : ईस्वीपूर्व ४ ( वि० सं० ५२), दीक्षा ई० स० १८ ( वि० सं०७४), युगप्रधान ई० स० ५८ (वि० स० ११४), स्वर्गवास ई० स०७१ (वि० सं० १२७) । २. अणुओगद्दा राई, स्वर मण्डल : सक्कयं पागयं चेव, पसत्थं इसिभा सियं । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ मनन और मूल्यांकन अनवरत चलता रहा। भगवान महावीर ने लोकभाषा के प्रति जो दृष्टिकोण निर्मित किया था, उसे विस्मृत नहीं किया गया और संस्कृत के अध्येताओं में जो पांडित्य-प्रदर्शन की भावना थी, उसे भी स्मृति में रखा गया। फिर भी दर्शनयुग की स्थापना के काल में जैन दर्शन को प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से संस्कृत की अनिवार्यता अनुभव की। सिद्धर्षि ने जैन लेखकों की इस अनुभूति को स्पष्ट अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने लिखा है 'संस्कृता प्राकृता चेति, भाषे प्राधान्यमहतः। तत्रापि संस्कृता तावद्, दुर्विदग्धहृदि स्थिता ।। बालानामपि सद्बोध-कारिणी कर्णपेशला। तथापि प्राकृता भाषा, न तेषामभिभाषते ॥ उपाये सति कर्तव्यं, सर्वेषां चित्तरञ्जनम् । अतस्तदनुरोधेन, संस्कृतेऽयं करिष्यते ॥' -'संस्कृत और प्राकृत—ये दो प्रधान भाषाएं हैं। संस्कृत दुर्विदग्ध-पंडितमानी जनों के हृदय में बसी हुई है। 'प्राकृत भाषा जन-साधारण को प्रकाश देने वाली और श्रुति-मधुर है, फिर भी उन्हें वह अच्छी नहीं लगती। ___ 'मेरे सामने संस्कृतप्रिय जनों के चित्तरंजन का उपाय है। इसीलिए उनके अनुरोध से मैं प्रस्तुत कथा को संस्कृत भाषा में लिख रहा हूं।' गुप्त साम्राज्य-काल में संस्कृत का प्रभाव बहुत बढ़ गया। जैन और बौद्ध परंपराओं में भी संस्कृत भाषा प्रमुख हो गयी। - उत्तर भारत में गुजरात और राजस्थान—दोनों जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। इन दोनों में जैन मुनि स्थान-स्थान पर विहार करते थे। उनकी साहित्यसाधना भी प्रचुर मात्रा में हुई। राजस्थान की जैन परंपरा में संस्कृत-साहित्य के प्रथम निर्माता हरिभद्रसूरि हैं। उनका अस्तित्व-काल विक्रम की आठवीं-नौवीं शताब्दी (७५७-८५७) है। उन्हें प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं पर समान अधिकार प्राप्त था। उनकी लेखनी दोनों भाषाओं पर समान रूप से चली। उनकी प्राकृत-रचनाएं जितनी विपुल संख्या में और जितनी महत्त्वपूर्ण हैं, उतनी ही महत्त्वपूर्ण और उतनी ही विपुल संख्या में उनकी संस्कृत रचनाएं हैं। उन्होंने धर्म, योग, दर्शन, न्याय, अनेकान्त, आचार, अहिंसा आदि अनेक विषयों पर लिखा । आगम सूत्रों पर अनेक विशाल व्याख्या-ग्रन्थ लिखे। जैन दर्शन ने सत्य की व्याख्या नय-पद्धति से की। 'तीर्थंकर का कोई भी वचन नयशून्य नहीं है'- इस उक्ति की प्रतिध्वनि यह है कि कोई भी वचन निरपेक्ष नहीं है। प्रत्येक वचन को नयदृष्टि से ही समझा जा सकता है। सिद्धसेन दिवाकर और समंतभद्र ने अनेकांत और नयवाद को दार्शनिक धरातल पर प्रस्फुटित किया। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य : एक विहंगावलोकन ८७ उसके पल्लवनकारों में हरिभद्रसूरि एक प्रमुख व्यक्त्वि हैं । उन्होंने संस्कृत-साहित्य को कल्पना और अलंकार की कसौटी से कसे हुए कवित्व तथा तर्कवाद और निराकरण प्रधान शैली से परिपुष्ट तार्किकता से ऊपर उठाकर स्वतन्त्र चिन्तन और समन्वय की भूमिका पर प्रतिष्ठित किया। उनके 'लोकतत्त्व निर्णय' नामक ग्रंथ में स्वतन्त्र चिन्तन की ऐसी चिरंतन व्याख्या हुई है, जिसे कालातीत कहा जा सकता है। उन्होंने लिखा है 'मातृमोदकवद् बालाः, ये गृहन्त्यविचारितम्। ते पश्चात् परितप्यन्ते, सवर्णग्राहको यथा ।। -मां के द्वारा दिए हुए मोदक को बिना किसी विचार के ले लेने वाले बालक की भांति, बिना विचार किए दूसरे के विचार को स्वीकार करने वाला वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे बिना परीक्षा किए स्वर्ण को खरीदने वाला पछताता है। . सुनने के लिए कान हैं। विचारणा के लिए वाणी और बुद्धि है। फिर भी जो व्यक्ति श्रुत विषय पर चितन नहीं करता. वह कर्त्तव्य को कैसे प्राप्त हो सकता __ श्रोतव्ये च कृतौ कों, वाग्बुद्धिश्च विचारणे। यः श्रुतं न विचारत, स कार्य विन्दते कथम् ?॥' आगम-युग में श्रद्धा पर बहुत बल दिया। 'ईश्वरीय आदेशों और आप्त वचनों पर संदेह नहीं किया जा सकता'-इस मान्यता ने चिंतन की धारा को क्षीण बना दिया था। अधिकांश लोग किसी व्यक्ति की वाणी या ग्रंथ को बिना किसी चिंतन के स्वीकार कर लेते थे । इस परंपरा ने रूढ़िवाद की जड़ें बहुत सुदृढ़ बना दी थीं। उन्हें तोड़ना श्रम-साध्य था। वैसे वातावरण में दूसरों पर भरोसा कर चलने को बुरा कहना, कहने वाले के लिए अच्छा नहीं था। फिर भी कहा गया हठो हठे यद्वदभिप्लुतः स्यात्, नौ वि श्रद्धा च यथा समुद्र । तथा परप्रत्ययमात्रदक्षः, लोकः प्रमादाम्भसि बम्भ्रमीति ॥ —'जो व्यक्ति दूसरों की वाणी का अनुसरण करने में ही दक्ष है, वह प्रमाद के जल में वैसे ही भ्रमण करता है, जैसे जलकुंभी का पौधा दूसरे पौधे के पीछे-पीछे बहता है और जैसे नाव से बंधी हुई नाव उसके पीछे-पीछे चलती है।' ___ हरिभद्रसूरि को समन्वय का पुरोधा और उनकी रचनाओं को समन्वय की संहिता कहा जा सकता है। जब सम्प्रदायों में अपने-अपने इष्टदेव के नाम की महिमा गायी जा रही थी, उस समय यह स्वर कितना महत्त्वपूर्ण था १. लोकतत्त्वनिर्णय, १६ । २. वही, २०। ३. वही, १४ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ मनन और मूल्यांकन यस्य निखिलाश्च दोषाः न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ -'जिसके समस्त दोष नष्ट हो च के हैं, सब गुण प्रकट हो गए हैं, उसे मेरा नमस्कार है, फिर वह ब्रह्मा हो या विष्णु, महादेव हो या जिन। 'शास्त्रवार्ता' हरिभद्रसूरि की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। सात सौ श्लोक वाले इस ग्रंथ में विभिन्न दर्शनों के मतों की समीक्षा है। उसमें निरसन की दृष्टि मुख्य नहीं है, समन्वय की दृष्टि सतत उपलब्ध है । उसका आधारभूत तत्त्व यह है शास्त्रकारा महात्मानः, प्रायो वीतस्पहा भवे। सत्त्वार्थसंप्रवृत्ताश्च, कथं तेऽयुक्तभाषिणः॥ अभिप्रायस्ततस्तेषां, सम्यग्मग्यो हितैषिणा।' -जितने भी शास्त्रकार हैं वे सब महात्मा हैं। प्रायः वे स्पृहारहित और जनहित के लिए प्रवृत्त होते हैं। वे अयुक्तभाषी कैसे होंगे? इसलिए सत्य-संधित्सु व्यक्ति को उनके अभिप्राय की सम्यक् गवेषणा करनी चाहिए।' ___ बौद्ध विद्वान् दिङ नाग (५ वीं शती) के न्यायप्रवेश पर लिखित टीका इसका साक्ष्य है कि अनेकान्त का दृष्टिकोण संप्रदायातीत है। षड्दर्शन समुच्चय एक लघु कृति है, पर इस दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि उसमें सभी दर्शनों के अभ्युपगमों का तटस्थ निरूपण है। ___'अनेकान्तजयपताका' (स्वोपज्ञवृत्ति सहित), 'अनेकान्तवाद प्रवेश' और 'सर्वज्ञसिद्धि' जैनन्याय के उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। सोलह षोडशकों और बत्तीस अष्टकों में विविध विषय चचित हैं। वे केवल कर्ता की बहुश्रुतता के ही द्योतक नहीं हैं, संस्कृत साहित्य के गौरव-स्तम्भ भी हैं। उनमें सिद्धान्त-प्रतिपादन के साथ-साथ कवित्व भी हैं शुश्रूषा चेहाद्य, लिङ्ग खलु वर्णयन्ति विद्वांसः । तदभावपि श्रावणमसिरावनिकूपखननसमम् ॥ -'बुद्धि का पहला गुण शुश्रूषा है। उसे जागृत किए बिना तत्त्वज्ञान सुनाने का प्रयत्न वैसा ही है जैसा जलस्रोतरहित भूमि में कुआं खोदने का प्रयत्न ।' ___ कुछ विद्वान् कहते हैं-जैन साहित्य में गृहस्थ धर्म की सर्वांगीण मीमांसा नहीं मिलती। यदि 'धर्मबिन्दु' उन्हें उपलब्ध होता तो यह आलोचना नहीं होती। आठ अध्याय वाले इस ग्रन्थ के प्रथम तीन अध्यायों में गृहस्थ के लौकिक और लोकोत्तर–दोनों जीवन पक्षों का संतुलित निरूपण है। १. लोकतत्त्वनिर्णय, ४० । २. शास्त्रवार्तासमुच्चय, ३/१५,१६ । ३. षोडशक, ११।१। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य : एक विहंगावलोकन ८६ हरिभद्रसूरी ने योग की विविध परंपराओं का समन्वय कर जैन योगपद्धति को नया रूप प्रदान किया। 'योगविशिका' प्राकृत में लिखित है । संस्कृत में उनकी दो महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं-'योगदृष्टिसमुच्चय' और 'योगबिन्दु'। उनमें जैनयोग और पतंजलि की योग पद्धति का तुलनात्मक अध्ययन बहुत सूक्ष्ममति से किया गया है। अनेकान्तदृष्टि प्राप्त होने पर सांप्रदायिक अभिनिवेश समाप्त हो जाता है। योग मार्ग में भी वह नहीं होता। यह आशय इन शब्दों में व्यक्त हुआ है आत्मीयः परकीयो वा, कः सिद्धान्तो विपश्चिताम् । दृष्टष्टाबाधितो यस्तु, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥' -'ज्ञानी के लिए कोई भी सिद्धांत अपना या पराया नहीं होता। जो प्रत्यक्ष और हेतु से अबाधित होता है, वही उसके लिए मान्य होता है।' विक्रम की आठवीं शती में संस्कृत साहित्य की जो धारा प्रवाहित हुई, वह वर्तमान शती तक अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित है। वह कभी विशाल हुई है और कभी क्षीण, पर उसका अस्तित्त्व निरंतरित रहा है। जैन परंपरा के संस्कृत साहित्य पर अभी कोई व्यवस्थित कार्य नहीं हुआ है। लेखक, लेखन-स्थान, लेखन-काल-ये सब अभी निर्णय की प्रतीक्षा में हैं। अब तक 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' इस शीर्षक से जितने प्रबन्ध लिखे गए हैं, वे या तो जैन परंपरा के संस्कृत साहित्य का स्पर्श नहीं करते या दो-चार प्रसिद्ध ग्रन्थों का विवरण प्रस्तुत कर विषय को सम्पन्न कर देते हैं । जैन विद्वान् भी इस कार्य के प्रति उदासीन रहे हैं । इन दिनों कुछ ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, पर वे अपेक्षा के अनुरूप शोधपूर्ण और वैज्ञानिक पद्धति से लिखित नहीं हैं। मैं इस अपेक्षा को इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूं कि 'जैन परंपरा के संस्कृत साहित्य का इतिहास' इस विषय का एक महाग्रंथ आधुनिक शैली में तैयार किया जाए। मैं नहीं मानता कि इस लघुकाय निबंध में मैं राजस्थान के जैन लेखकों की सभी संस्कृत रचनाओं के साथ न्याय कर सकूँगा। हरिभद्रसूरि की रचनाओं के बाद सिद्धषि की महान् कृति 'उपमितिभवप्रपंचकथा' है । यह वि० सं० ६०६ (ई० स० ९६२) में लिखी गयी थी। शैली की दृष्टि से यह एक अपूर्व ग्रंथ है। इसमें काल्पनिक पात्रों के माध्यम से धर्म के विराट स्वरूप को रूपायित किया गया है। डॉ० हीरालाल जैन ने लिखा है-इसे पढ़ते हुए अंग्रेजी की जॉन बनयन कृत 'पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस' का स्मरण हो आता है, जिसमें रूपक की रीति से धर्मवृद्धि और उसमें आने वाली विघ्न-बाधाओं की कथा कही गयी है। सिद्धर्षि ने उपदेशमाला की टीका लिखी, कुछ अन्य ग्रन्थ भी लिखे। पर मैं केवल उन्हीं ग्रन्थों का नामोल्लेख करना अपेक्षित समझता हूं, जिनका विधा और वर्ण्य-विषय की दृष्टि से वैशिष्ट्य है। १. योगबिंदु, ५२४। २. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १७४ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० मनन और मूल्यांकन विधा और प्रेरक तत्त्व देश, काल, मान्यताएं, परिस्थितियां, लोक-मानस, लोक-कल्याण, जनप्रतिबोध, शिक्षा और उद्देश्य-ये लेखन के प्रेरक तत्त्व होते हैं । लेखन की विधाएं प्रेरक तत्त्वों के आधार पर बनती हैं। जन लेखकों ने अनेक प्रेरणाओं से सस्कृत साहित्य लिखा और अनेक विधाओं में लिखा। धर्म प्रचार के उद्देश्य से धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथ लिखे गए। अपने अभ्युपगम की स्थापना और प्रतिपक्ष-निरसन के लिए तर्कप्रधान न्यायशास्त्रों की रचना हुई। जन-प्रतिबोध और शिक्षा के उद्देश्य से कथा-ग्रंथों का प्रणयन हुआ। लोक-कल्याण की दृष्टि से आयुर्वेद और ज्योतिष् के ग्रंथ निर्मित हुए। देश, काल और लोक-मानस को ध्यान में रखकर जन लेखकों ने प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत भाषा को भी महत्त्व दिया। प्राकृत युग (विक्रम की तीसरी शती तक) में जैन लेखकों ने केवल प्राकृत में लिखा । प्राकृत-सस्कृत-मिश्रित युग (विक्रम की चौथी शती से आठवीं शती के पूर्वार्ध तक) में अधिकांश रचनाएं प्राकृत में हुईं और कुछ-कुछ संस्कृत में भी। विक्रम की पांचवीं से सातवीं शती के मध्य लिखित आगम-चूणियों में मिश्रित भाषा का प्रयोग मिलता है-प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत के वाक्य भी प्रयुक्त हैं। आठवीं शती के उत्तरार्ध में हरिभद्रसूरी ने प्रथम बार आगम की व्याख्याएं सस्कृत में लिखीं। विक्रम की ग्यारहवीं शती के उत्तरवर्ती संस्कृत प्राकृत मिश्रित युग में आगमों की अधिकांश व्याख्याएं संस्कृत में ही लिखी गयीं। अन्य साहित्य भी अधिक मात्रा में संस्कृत में ही लिखे गए। और अनेक विधाओं में लिखे गए। गुजरात, मालवा (मध्य प्रदेश) और दक्षिण भारत तथा राजस्थान में भी लिखे गए साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। आयुर्वेद ___ आयुर्वेद का सम्बन्ध जीवन से है। जीवन का सम्बन्ध स्वास्थ्य से है। स्वास्थ्य का सम्बन्ध हित-मित आहार से है। हित-मित आहार करते हुए भी यदि रोग उत्पन्न हो जाए तो चिकित्सा की अपेक्षा होती है । जैन विद्वानों ने इस अपेक्षा की भी यथासम्भव पूर्ति की है। उन्होंने राजस्थानी में आयुर्वेद के विषय में प्रचुर साहित्य लिखा। कुछ ग्रंथ संस्कृत में भी लिखे । हर्षकीति सूरी (विक्रम की १७वीं शती) का 'योगचिंतामणि' और यति हस्तिरुचि (विक्रम की १८वीं शती) का 'वैद्य वल्लभ' दोनों प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। ये चिकित्सा-क्षेत्र में बहुत प्रचलित रहे हैं। इन पर अनेक व्याख्याएं लिखी गयीं। ज्योतिष विक्रम् की आठवीं शती से जैन मुनियों और यतियों ने ज्योतिष के ग्रथ लिखने Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य : एक विहंगावलोकन ६१ शुरू किए। यह क्रम १९वीं शती तक चला। नरचंद्र सूरी ने वि० सं० १२८० में ज्योतिस्सार (नारचंद्र ज्योतिष्) नामक ग्रंथ की रचना की। उपाध्याय नरचंद्र विक्रम की चौदहवीं शती में बेडाजातक वृत्ति, प्रश्नशतक, प्रश्न चतुर्विंशतिका आदि अनेक ग्रंथ लिखे। डॉ० नेमिचंद्र शास्त्री ने इनके ग्रंथों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है-बेडा जातकवृत्ति में लग्न और चंद्रमा से ही समस्त फलों का विचार किया गया है। यह जातक ग्रंथ अत्यन्त उपयोगी है। प्रश्नचतुर्विशतिका के प्रारम्भ में ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण गणित लिखा है। ग्रंथ अत्यन्त गूढ़ और रहस्यपूर्ण है।' - उपाध्याय मेघविजय ने विक्रमी के अठारहवीं शती के पूर्वार्ध में 'वर्षप्रबोध', 'रमलशास्त्र', 'हस्तसंजीवन' आदि अनेक ग्रंथ लिखे। डा० नेमिचंद्र शास्त्री के अनुसार-'इनके फलित ग्रंथों को देखने से संहिता और सामुद्रिक शास्त्र संबंधी प्रकाण्ड विद्वत्ता का पता सहज में लग जाता है। मध्ययुग में जैन उपाश्रय शिक्षा, चिकित्सा और ज्योतिष के केन्द्र बन गए थे। जैसे-जैसे जन सम्पर्क बढ़ा वैसे-वैसे लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियां और तद्विषयक साहित्य की मात्रा बढ़ी। स्तोत्र ___ समूचा उत्तर भारत भक्ति की लहर से आप्लावित हो रहा था। ईश्वर और गुरु की स्तुति ही धर्म की प्रधान अंग बन रही थी। जैन धर्म भी उस धारा से अप्रभावित नहीं था। इन बारह सौ वर्षों में विपुल मात्रा में स्तोत्र के पाठ की वृत्ति भी विकसित की गयी। संस्कृत नहीं जानने वाले भी स्तोत्र का पाठ करते थे । इसके साथ श्रद्धा और विघ्न-विलय की भावना दोनों जुड़ी हुई थीं। स्तोत्रों के साथ मंत्र-ग्रंथों का भी निर्माण हुआ। ऐहिक सिद्धि के लिए मंत्र, यंत्र और तंत्र-तीनों का प्रयोग होता था। फलतः तीनों विषयों पर अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यात्रा-ग्रंथ जिनप्रभसूरी ने वि० सं० १३८६ (ई० स० १३३२) में 'विविध-तीर्थकल्प' नामक ग्रंथ का निर्माण किया। तीर्थ-यात्रा में जो देखा, उसका सजिव वर्णन हुआ उसमें । उसमें भक्ति, इतिहास और चरित-तीनों एक साथ मिलते हैं। १. भारतीय ज्योतिष, संस्करण छठा, पृ० १०२। २. वही, पृ० १०६। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ मनन और मूल्यांकन महाकाव्य और काव्य I जन साधारण में संस्कृत का ज्ञान नहीं था । फिर भी उसमें संस्कृत और संस्कृतज्ञ के प्रति सम्मान का भाव था। कुछ लोग सहृदय थे, वे काव्य के मर्म को समझते थे । काव्य-शक्ति दुर्लभ मानी जाती थी । राजस्थान के जैन कवियों ने केवल काव्यों की ही रचना नहीं की, उनमें कुछ प्रयोग भी किए। उदाहरण के लिए महोपाध्याय समयसुन्दर की अष्टलक्षी, जिनप्रभसूरी के व्याश्रय काव्य और उपाध्याय मेघविजय के सप्तसन्धान काव्य को प्रस्तुत किया जा सकता है। अष्टलक्षी वि० सं० १६४६ की रचना है । उसमें 'राजा नो ददते सौख्यम्' इन आठ अक्षरों के आठ लाख अर्थ किये गए हैं । महाकवि धनंजय ( ग्यारहवीं शती) का द्विसन्धान काव्य तथा आचार्य हेमचंद्र का व्याश्रय काव्य प्रतिष्ठित हो चुका था । विक्रम की चौदहवीं शती में जिनप्रभसूरी ने श्रेणिक याश्रय काव्य लिखा । उसमें कातन्त्र व्याकरण की दुर्गसिंह कृत वृत्ति के उदाहरण और मगधपति श्रेणिक का जीवन चरित्र — दोनों एक साथ चलते हैं । विक्रम की अठारहवीं शती में उपाध्याय मेघविजय ने सप्तसंधान काव्य का निर्माण किया । उसमें ऋषभ, शान्तिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीरइन पांच तीर्थंकरों तथा राम और कृष्ण के चरित निबद्ध हैं । विक्रम की तेरहवीं शती में सोमप्रभाचार्य ने 'सूक्तिमुक्तावलि' की रचना की । वह सुभाषित सूत्र होने के साथ-साथ प्रांजल भाषा, प्रसाद गुण संपन्न पदावली और कलात्मक कृति है । इनकी 'श्रृंगार वैराग्य तरंगिणी' भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है । 'सूक्तिमुक्तावलि' का दूसरा नाम 'सिंदूरप्रकर' है । इस पर अनेक व्याख्याएं लिखी गयीं। इसका अनुसरण कर कर्पूर प्रकर, कस्तूरी प्रकर, हिंगुल प्रकर आदि अनेक सूक्ति-ग्रंथों का सृजन हुआ । विक्रम की सातवीं शती तक जैन लेखक धर्म, दर्शन, न्याय, गणित, ज्योतिष, भूगोल, खगोल, जीवन-चरित और कथा- - मुख्यतः इन विषयों पर ही लिखते रहे। विक्रम की आठवीं शती से लेखन की धाराएं विकसित होने लगीं। उसमें सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन, साम्प्रदायिक प्रतिस्पर्धा और संघर्ष, लोकसंग्रह के प्रति झुकाव, जैन शासन के अस्तित्व की सुरक्षा, शक्ति प्रयोग, शक्ति-साधना, चमत्कार - प्रदर्शन, जनता को आकर्षित करने का प्रयत्न, बाह्याचार पर अतिरिक्त बल आदि अनेक कारण बने । बौद्ध कवि अश्वघोष का बुद्धचरित बहुत ख्याति पा चुका था । महाकवि कालिदास, माघ और भारवि के काव्य प्रसिद्धि के शिखर पर थे । उस समय जैन कवियों में भी संस्कृत भाषा में काव्य लिखने की मनोवृत्ति विकसित हुई । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य : एक विहंगावलोकन १३ राजस्थान के जैन लेखक भी इस प्रवृत्ति में पीछे नहीं रहे । महाकाव्यों की श्रृंखला में भी अनेक काव्यों की रचना हुई । उनमें 'भरतबाहुबलि महाकाव्य' का उल्लेख अनिवार्य है । जैनेतर ग्रंथों पर टीकाएं जैन आचार्यों और विद्वानों को उदारता का दृष्टिकोण विरासत में प्राप्त था । उन्होंने उसका उपयोग साहित्य की दिशा में भी किया। जैन लेखकों ने बौद्ध और वैदिक साहित्य पर अनेक व्याख्याएं लिखीं। राजस्थान के जैन लेखक इसमें अग्रणी रहे हैं । हरिभद्रसूरी ने बौद्ध विद्वान् दिङ्नाग (ईसा की पांचवी शती) के न्यायप्रवेश पर टीका लिखी । पार्श्वदेव गणी ( अपर नाम श्रीचंद्रसूरी) ने विक्रम की बारहवीं शती में न्यायप्रवेश पर पंजिका लिखी । बौद्ध आचार्य धर्मदास के 'विदग्धमुख मंडन' पर जिनप्रभसूरी ने एक व्याख्या लिखी । खरतरगच्छीय जिन राजसूरी ने विक्रम की पंद्रहवीं शती में नैषध चरित पर टीका लिखी । विक्रम की पंद्रहवीं शती में बैराठ के अंचलगच्छीय श्रावक वाडव ने कुमारसंभव, मेघदूत, रघुवंश, माघ आदि काव्यों पर 'अवचूरि', विधा की व्याख्याएं निर्मित कीं । सिंहावलोकन राजस्थान में संस्कृत की सरिता प्रवाहित हुई, उसमें जैन आचार्य आदि-स्रोत रहे हैं । ईसा की सातवीं शती में महाकवि माघ ( भीनमाल प्रदेश) अपनी काव्यशक्ति से राजस्थान की मरुधरा को अभिषिक्त कर रहे थे तो दूसरी ओर हरिभद्रसूरी ( चित्तोड़ ) अपनी बहुमुखी प्रतिभा से मरुधरा के कण-कण को प्राणवान् बना रहे थे। इसके उत्तरकाल में भी जैन लेखकों की लेखनी सभी दिशाओं में अनवरत चली । वह आज भी गतिशील है । वर्तमान शती में राजस्थान में विहार करने वाले जैन आचार्यों, साधु-साध्वियों और लेखकों ने अनेक ग्रंथों, काव्यों और महाकाव्यों की रचना की है । संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्तियां भी प्रचलित हैं । प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश आज प्रचलित भाषाएं: नहीं हैं । फिर भी ये बहुत समृद्ध भाषाएं हैं। वर्तमान की भाषा का प्रयोग करते हुए भी इनका मूल्य विस्मृत न करना — जैन परम्परा का यह चिरंतन सूत्र आज भी उसकी स्मृति में है । संस्कृत के विकास और उसकी प्रवृत्ति के पीछे भी वह सर्वत्र प्राणवान् रहा है । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र उपोद्घात कुछ लोग परम्परावादी होते हैं । वे परम्परा से प्राप्त अपने शास्त्रों को शाश्वत मानते चले जाते हैं । उन्हें उन शास्त्रों के पाठ और अर्थ में किसी अनुसंधान की अपेक्षा अनुभूत नहीं होती । किन्तु अनुसंधित्सु वर्ग इस बात को स्वीकार नहीं करता । वह शास्त्र के पाठ और अर्थ - दोनों का अनुसंधान करता है। जो कुछ या उपलब्ध होता है, उसे विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत भी करता है । 1 हमने आचार्यश्री तुलसी के वाचना- प्रमुखत्व में जैन आगमों के अनुसंधान का 'कार्य प्रारंभ किया । एक ओर हम पाठ का अनुसंधान कर रहे हैं तो दूसरी ओर अर्थ के अनुसंधान का कार्य भी चलता है । आगमों के सूत्र पाठ की अनेक वाचनाएं हैं और पन्द्रह सौ वर्ष की लम्बी अवधि में, अनेक कारणों से उनके अनेक पाठ-भेद हो गए हैं। बंद उनसे भी अधिक मिलता है। अनुसंधान का उद्देश्य है - मूल पाठ और मूल मर्म की खोज । अनेक प्रकार के पाठों ओर अर्थों में से मूल पाठ और अर्थ को निकालना कोई सरल कार्य नहीं है । फिर भी मनुष्य प्रयत्न करता है और कठिन कार्य को सरल बनाने को उसमें भावना सन्निहित होती है। हमारा प्रयत्न और हमारी भावना मूल के अनुसंधान की दृष्टि से प्रेरित है। इसीलिए इस कार्य के प्रति हमारा दृष्टिकोण सत्य के प्रति समर्पित है, किसी सम्प्रदाय या किसी विशेष विचार के प्रति समर्पित नहीं है । मंगलवाद दार्शनिक युग 'में शास्त्र के प्रारंभ में मंगल, अभिधेय, संबंध और प्रयोजन -- ये चार अनुबन्ध बतलाए जाते थे । आगमयुग में इन चारों की परम्परा प्रचलित नहीं थी । आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही अपने आगम का प्रारंभ करते थे । आगम स्वयं मंगल हैं । उनके लिए मंगल - वाक्य आवश्यक नहीं होता । जय-धवला लिखा है कि आगम में मंगल - वाक्य का नियम नहीं है, क्योंकि परम आगम में Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र १५ चित्त को केन्द्रित करने से नियमतः मंगल का फल उपलब्ध हो जाता हैं।' इस विशेष अर्थ को ज्ञापित करने के लिए भट्टारक गुणधर ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल नहीं किया । आचारांग सूत्र के प्रारंभ में मंगल वाक्य उपलब्ध नहीं है । उसका प्रारम्भ - 'सुयं मे आउसं ! तेण भगवया एवमक्खायं' - इस वाक्य से होता है। सूत्रकृतांग सूत्र का प्रारंभ 'बुज्झेज्ज तिउट्टे ज्जा' - इस उपदेश वाक्य से होता है । स्थानांग और समवायांग सूत्र के आदि- वाक्य 'सुयं मे आउसं ! तेण भगवता एवमखातं' है । भगवती सूत्र के प्रारम्भ में तीन मंगल-वाक्य मिलते हैं १. नमो अरहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो बसाहूण २. नमो बंभीए लिवीए ३. नमो. सुयस्स । ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा - इन सब सूत्रों का प्रारम्भ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं'-- से होता है । प्रश्नव्याकण सूत्र का आदि वाक्य है - 'जम्बू' । विपाक सूत्र का आदि वाक्य 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' है । जैन आगमों में द्वादशांगी स्वतः प्रमाण है । यह गणधरों द्वारा रचित मानी जाती है। इसका बारहवां अंग उपलब्ध नहीं है । उपलब्ध ग्यारह अंगों में, केवल भगवती सूत्र के प्रारंभ में मंगल- वाक्य हैं, अन्य किसी अंग-सूत्र का प्रारम्भ मंगलवाक्य से नहीं हुआ है । सहज ही प्रश्न होता है कि उपलब्ध ग्यारह अंगों में से केवल एक ही अंग में मंगल - वाक्य का विन्यास क्यों ? कालांतर में मंगल - वाक्य के प्रक्षिप्त होने की अधिक संभावना है। जब यह धारणा रूढ़ हो गयी कि १. कसाय पाहुड भाग १, गाथा १, पृष्ठ ६ : एत्थ पुण नियमो णत्थि, परमाग - मुवजोगम्मि नियमेण मंगल फलोवलंभादो । २. वही, पृष्ठ ६ : एदस्य अत्यविसेसस्स जाणावणट्ठ गुणहरभट्टारएण गंथस्सादीए मंगलं कयं । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ मनन और मूल्यांकन आदि, मध्य और अन्त में मंगल-वाक्य होना चाहिए तब ये मंगल-वाक्य लिखे गए। ___ भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक के प्रारंभ में भी मंगल-वाक्य उपलब्ध होता है-नमो सुयदेवयाए भगवईए। अभयदेव सूरी ने इसकी व्याख्या नहीं की है। इससे लगता है कि प्रारंभ के मंगल-वाक्य, लिपिकारों या अन्य किसी आचार्य ने, वृत्ति की रचना से पूर्व जोड़ दिए थे और मध्यवर्ती-मंगल वृत्ति की रचना के बाद जुड़ा । पन्द्रहवें अध्याय का पाठ विघ्नकारक माना जाता था इसलिए इस अध्ययन के साथ मंगलवाक्य जोड़ा गया, यह बहुत संभव है। मंगलवाक्य के प्रक्षिप्त होने की बात अन्य आगमों से भी पुष्ट होती है। दशाश्रुतस्कंध की वृत्ति में मंगलवाक्य के रूप में नमस्कार मंत्र व्याख्यात है, किन्तु चूणि में वह व्याख्यात नहीं है। इससे स्पष्ट है कि चूणि के रचनाकाल में वह प्रत्तियों में उपलब्ध नहीं था और वृत्ति की रचना से पूर्व वह उनमें जुड़ गया था। कल्पसूत्र (पर्युषणाकल्प) दशाश्रुतस्कंध का आठवां अध्ययन है। उसके प्रारंभ में भी नमस्कार मंत्र लिखा हुआ मिलता है। आगम के महान् अनुसंधाता मुनि पूण्यविजयजी ने इसे प्रक्षिप्त माना है। उनके अनुसार प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रतियों में यह उपलब्ध नहीं है और वृत्ति में भी व्याख्यात नहीं है। यह अष्टम अध्ययन होने के कारण इस में मध्य मंगल भी नहीं हो सकता। इसलिए यह प्रक्षिप्त प्रज्ञापना सूत्र के प्रारंभ में भी नमस्कार मन्त्र लिखा हुआ है, किन्तु हरिभद्रसूरी और मलयगिरि-इन दोनों व्याख्याकारों के द्वारा यह व्याख्यात नहीं है। प्रज्ञापना के रचनाकार श्री श्यामार्य ने मंगल-वाक्य पूर्वक रचना का प्रारंभ १.विशेषावश्यकभाष्य, गाथा, १३,१४ : तं मंगलमाईए मज्झे पज्जतए य सत्थस्स । पढमं सत्थस्साविग्घपारगमणाए निद्दिट्ठ। तस्सेवाविग्घत्थं मज्झिमयं अंतिमं च तस्सेव । अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स ॥ कल्पसूत्र (मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित) पृष्ठ ३ : कल्पसूत्रारम्भे नेतद् नमस्कारसूत्ररूपं सूत्रं भूम्ना प्राचीनतमेषु ताड़पत्रीयादर्शेषु दृश्यते, नापि टीकाकृदादिभिरेतदादृतं व्याख्यातं वा, तथा चास्य कल्पसूत्रस्य दशाश्रुतस्कंधसूत्रस्याष्टमाध्ययनत्वान्न मध्ये मंगलरूपत्वेनापि एतत्सूत्रं संगतमिति प्रक्षिप्त मेवैतत् सूत्रमिति ।। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र ६७ किया है'। इससे ज्ञात होता है कि ई० पू० पहली शताब्दी के आसपास आगमरचना से पूर्व मंगल वाक्य लिखने की पद्धति प्रचलित हो गयी । प्रज्ञापनाकार का मंगल वाक्य उनके द्वारा रचित है। इसे निवद्ध - मंगल कहा जाता है । दूसरों के द्वारा रचे हुए मंगल- वाक्य उद्धृत करने को 'अनिबद्ध-मंगल' कहा जाता है । प्रतिलेखकों ने अपने प्रति-लेखन में कहीं-कहीं अनिबद्ध-मंगल का प्रयोग किया है । इसीलिए मंगल वाक्य लिखने की परंपरा का सही समय खोज निकालना कुछ जटिल हो गया । नमस्कार महामन्त्र के पाठ भेद नमस्कार महामंत्र का बहुत प्रचलित पाठ यह है - णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं । प्राचीन ग्रंथों में इसके अनेक पदों एवं वाक्यों के पाठान्तर मिलते हैं• णमो - नमो • अरहंताणं - अरिहंताणं, अरुहंताणं । • आयरियाणं - आइरियाणं । • णमो लोए सव्वसाहूणं - णमो सव्व साहूणं । • नमो अरहंतानं, नमो सवसिधानं । • णमो नमो -- प्राकृत में आदि में 'न' का 'ण' विकल्प से होता है इसलिए 'नमो', 'नमो' – ये दोनों रूप मिलते हैं । • अरहताणं, अरिहंताणं - प्राकृत में 'अहं' धातु के दो रूप बनते हैंअरहर, अरिहइ । 'अरहंताणं' और 'अरिहंताणं' ये दोनों 'अहं' धातु के शतृ प्रत्ययांत रूप हैं । ' अरहंत' और 'अरिहंत' - इन दोनों में कोई अर्थभेद नहीं है । व्याख्याकारों ने 'अरिहंत' शब्द को संस्कृत की दृष्टि से देखकर उसमें अर्थभेद किया है। अरि + हंत = शत्रु का हनन करने वाला । यह अर्थ शब्द - साम्य के १. प्रज्ञापना, पद १, गाथा १ : ववगजरमरणभए, सिद्धे अभिवंदिऊण तिविहेणं । वंदामि जिनवरिदं, तेलोक्कगुरुं महावीरं ॥ २. धवला, षट्खंडागम १-१-१ पृष्ठ ४२ : तं च मंगलं दुविहं णिबद्धमणिबद्धमिदि । तत्थ णिबद्धं णाम, जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवदाणमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं । जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णणिबद्धो देवदाणमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ मनन और मूल्यांकन कारण किया गया है । आवश्यक नियुक्ति में यह अर्थ उपलब्ध है । अर्हता का अर्थ इसके बाद किया गया है। इस अर्थभेद के होने पर 'अरहंत' और 'अरिहंत' ये एक ही दोनों धातु के दो रूपों में निष्पन्न दो शब्द नहीं होते किन्तु भिन्न-भिन्न अर्थ वाले दो शब्द बन जाते हैं। आवश्यक सूत्र के नियुक्तिकार ने अरहंत, अरिहंत के तीन अर्थ किए हैं१. पूजा की अहंता होने के कारण अरहत। २. अरि का हनन करने के कारण अरिहंत । ३. रज-कर्म का हनन करने के कारण अरिहंत । वीरसेनाचार्य ने 'अरिहंताण' पद के चार अर्थ किए हैं१. अरि का हनन करने के कारण अरिहंत। २. रज का हनन करने के कारण अरिहत । ३. रहस्य के अभाव से अरिहंत । ४. अतिशय पूजा की अर्हता होने के कारण अरिहंत'। प्रथम तीन अर्थ अरि+हन्ता-इन दो पदों के आधार पर किये गए हैं और चौथा अर्थ अर्ह, धातु के 'अरहता' पद के आधार पर किया गया है। भाषा की दृष्टि से 'नमो' और 'णमो' तथा 'अरहताण' तथा 'अरिहंताणं'– इन दो में मात्र रूपभेद है, किन्तु मन्त्रशास्त्रीय दृष्टि से 'न' और 'ण' के उच्चारण की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया होती है। 'ण' मूर्धन्य वर्ण है। उसके उच्चारण से जो १. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६१६, ६२० : इंदियविसयकसाये परीसहे वेयणाओ उवसग्गे। एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति ।। अविहं वि अ कम्म, अरिभूअं होइ सव्वजीवाणं। तं कम्ममरिं हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति ।। २. वही, गाथा ६२१, ६२२: अरिहंति वंदणनमंसणाणि अरिहंति पूअसक्कारे । सिद्धिगमणं च अरिहा अरहता तेण वुच्चंति ।। . देवासुरमणुएसु अरिहा पूआ सुरुत्तमा जम्हा । ३. वही, गाथा ६२२: अरिणो रयं च हंता अरिहंता तेण वुच्चंति ।। ४. धवला, षट्खंडागम १-१-१, पृ०४३-४५ : अरिहननादरिहन्ता।" रजोहननाद् वा अरिहन्ता।... रहस्याभावाद् वा अरहन्ता।अतिशयपूजार्हत्वात् वार्हन्तः । ५. विद्यानुशासन, योगशास्त्र पृष्ठ ६०, ६१ । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र ६६ घर्षण होता है, जो मस्तिष्कीय प्राण-विद्युत् का संचार होता है, वह 'न' के उच्चारण से नहीं होता। अरहंताणं के अकार और अरिहंताणं के इकार का भी मंत्रशास्त्रीय अर्थ एक नहीं है। मंत्रशास्त्र के अनुसार अकार का वर्ण स्वणिम और स्वाद नमकीन होता है तथा इकार का वर्ण स्वर्णिम और स्वाद कषैला होता है। अकार पुल्लिग और इकार नपुंसकलिंग होता है। अरहंताणं-यह पाठ-भेद भगवती सूत्र की वृत्ति में व्याख्यात है। वत्तिकार अभयदेवसूरी ने इसका अर्थ अपुनर्भव किया है। जैसे बीज के अत्यन्त दग्ध होने पर उससे अंकुर नहीं फूटता, वैसे ही कर्म-बीज के अत्यन्त दग्ध हो जाने पर भवांकुर नहीं फूटता। आवश्यकनियुक्ति और धवला में 'अरुहंत' पाठ व्याख्यात नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि यह पाठान्तर उनके उत्तरकाल में बना है। ऐसी अनुश्रुति भी है कि यह पाठान्तर तमिल कौर कन्नड़ भाषा के प्रभाव से हुआ है। किन्तु इसकी पुष्टि के लिए कोई स्पष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं है। 'अरुह' शब्द का प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य मे मिलता है। उन्होंने 'अरुहंत' और 'अरहंत' का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है। वे दक्षिण के थे, इसलिए 'अरहंत' के अर्थ में 'अरुह' का प्रयोग दक्षिण के उच्चारण से प्रभावित है, इस उपपत्ति की पुष्टि होती है । बोधप्राभृत में उन्होंने 'अर्हत्' का वर्णन किया है। उसमें २८, २९, ३०, ३२-इन चार गाथाओं में 'अरहंत' का प्रयोग है और ३१, ३४, ३६, ३६, ४१ इन पांच गाथाओं में 'अरुह' का प्रयोग है। __आचार्य हेमचन्द्र ने उपलब्ध प्रयोगों के आधार पर अर्हत् शब्द के तीन रूप सिद्ध किए हैं--अरुहो, अरहो, अरिहो, अरुहन्तो अरहन्तो, अरिहन्तो। ____ डॉ० पिशेल ने अरहा, अरिहा, अरुहा और अरिहन्त का विभिन्न भाषाओं की दृष्टि से अध्ययन प्रस्तुत किया है। अरहा, अरहन्त- अर्धमागधी अरिहा -शौरसेनी अरुहा -जैन महाराष्ट्री १. भगवती वृत्ति, पत्र ३ : अरुहंताणमित्यपि पाठान्तरं, तत्र अरोहद्भ्यः अनुपजायमानेभ्यः क्षीणकर्मबीजत्वात्, आह च--- 'दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः। कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ॥ २. हेमशब्दानुशाशन, ८/२/१११ : उच्चाहति । ३. कम्पेरेटिव ग्रामर ऑफ दी प्राकृत लेंग्वेजेज, पिशेल ऽऽ १४०, पृष्ठ ११३ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० मनन और मूल्यांकन अहिंताणं आयरियाणं - आइरियाणं आगम साहित्य में यकार के स्थान में इकार के प्रयोग मिलते हैं - वयगुत्तवइगुत्त । वयर - वइर । इस प्रकार 'आयरिय' और 'आइरिय' में रूपभेद है । • णमो लोए सव्वसाहूणं - णमो सव्वसाहूणं - अभयदेवसूरी के अनुसार भगवती सूत्र के मंगलवाक्य के रूप में उपलब्ध नमस्कार मंत्र का पांचवां पद ' णमो सव्वसाहूणं' है। 'णमो लोए सव्वसाहूणं' का उन्होंने पाठान्तर के रूप में उल्लेख किया है - णमो लोए सव्वसाहूण ति क्वचित्पाठः । ' इस पाठान्तर की व्याख्या में उन्होंने बताया है कि 'सर्व' शब्द आंशिक सर्व के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है | अतः परिपूर्ण सर्व का बोध कराने के लिए इस पाठान्तर में 'लोक' शब्द का प्रयोग किया गया है' । 'लोक' और 'सर्व' – इन दोनों शब्दों के होने पर यह प्रश्न होना स्वाभाविक ही है और अभयदेवसूरी ने इसी का समाधान किया है । दशाgतस्कंध के वृत्तिकार ब्रह्मऋषि ने भी 'णमो लोए सव्वसाहूणं' को पाठान्तर के रूप में व्याख्यात किया है'। इसकी व्याख्या में वे अभयदेवसूरी का अक्षरश: अनुसरण करते हैं । — मागधी हमने अभयदेवसूरी की वृत्ति के आधार पर भगवती सूत्र में 'णमो सव्वसाहूणं' को मूलपाठ और ' णमो लोए सध्वसाहूणं' को पाठान्तर स्वीकृत किया है । इसका यह अर्थ नहीं है कि णमो लोए सव्वसाहूणं' सर्वत्र पाठान्तर है। आवश्यक सूत्र में हमने ' णमो लोए सव्व साहूणं' को ही मूल पाठ माना है । हमने आगम- अनुसंधान की जो पद्धति निर्धारित की है, उसके अनुसार हम प्राचीनतम प्रति या चूणि, वृत्ति आदि व्याख्या में उपलब्ध पाठ को प्राथमिकता देते हैं। सबसे अधिक प्राथमिकता आगम में उपलब्ध पाठ को देते हैं । आगम के द्वारा आगम के पाठसंशोधन में सर्वाधिक प्रामाणिकता प्रतीत होती है। इस पद्धति के अनुसार हमें सर्वत्र 'णमो लोए सव्व साहूणं' इसे मूलपाठ के रूप में स्वीकृत करना चाहिए था, किन्तु नमस्कार मन्त्र किस आगम का मूलपाठ है, इसका निर्णय अभी नहीं हो पाया है। यह जहां कहीं उपलब्ध है वहां ग्रन्थ के अवयव के रूप में उपलब्ध नहीं है, मंगलवाक्य के रूप में उपलब्ध है । आवश्यक सूत्र के प्रारंभ में नमस्कार मन्त्र १. भगवती वृत्ति, पत्र ४ । २ . वही, पत्र ४ : तत्र सर्वशब्दस्य देश सर्वतायामपि दर्शनादपरिशेष सर्वतोपदर्शनार्थमुच्यते 'लोके' - मनुष्यलोके न तु गच्छादौ ये सर्वसाधवस्तेभ्यो नमः । ३. हस्तलिखित वृत्ति, पत्र ४ । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र १०१ मिलता है । किन्तु वह आवश्यक का अंग नहीं है । आवश्यक के मूल अंग सामायिक, चतुर्विंशस्तव आदि हैं। इस दृष्टि से भगवती सूत्र में नमस्कार मंत्र का जो प्राचीन रूप हमें मिला, वही हमने मूलरूप में स्वीकृत किया । अभयदेवसूरी की व्याख्या से प्राचीन या समकालीन कोई भी प्रति प्राप्त नहीं है । यह वृत्ति ही सबसे प्राचीन है । इसलिए वृत्तिकार द्वारा निर्दिष्ट पाठ और पाठान्तर को स्वीकार करना ही उचित प्रतीत हुआ । ' णमो सव्वसाहूणं' पाठ मौलिक है या 'णमो लोए सव्व साहूणं' पाठ मौलिक है - इसकी चर्चा यहां अपेक्षित नहीं है । यहां इतनी ही चर्चा अपेक्षित है कि अभयदेवसूरी को भगवती सूत्र की प्रतियों में 'णमो सव्वसाहूणं' पाठ प्राप्त हुआ और क्वचित् 'णमो लोए सव्वसाहूणं' पाठ मिला । • नमो अरहंतानं - रामो सव- सिधानं - यह पाठान्तर खारवेल के हाथीगुंफा लेख में मिलता हैं'। इसमें अंतिम नकार भी णकार नहीं है, सिद्ध के साथ सर्व शब्द का योग है और 'सिधानं' में द्वित्व 'ध' प्रयुक्त नहीं है । यह पाठ भी बहुत पुराना है, इसलिए इसे भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता । १. प्राचीन भारतीय अभिलेख, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ २६ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. नमस्कार महामन्त्र का मल स्रोत सौर कती नमस्कार महामन्त्र आदि-मंगल के रूप में अनेक आगमों और ग्रन्थों में उपलब्ध होता है । अभयदेव-सूरी ने भगवती सूत्र की वृत्ति के प्रारम्भ में नमस्कार महामन्त्र की व्याख्या की है। प्रज्ञापना के आदर्शों में प्रारम्भ में नमस्कार महामन्त्र लिखा हुआ मिलता है, किंतु म जयगिरि ने प्रज्ञापना वृत्ति में उसकी व्याख्या नहीं की। षट्खंड के प्रारम्भ में नमस्कार महामन्त्र मंगल सूत्र के रूप में उपलब्ध है। इन सब उपलब्धियों से उसके मूल स्रोत का पता नहीं चलता। महानिशीथ में लिखा है कि पंचमंगल महाश्रुतस्कंध का व्याख्यान सूत्र की नियुक्ति, भाष्य और चूणियों में किया गया था और वह व्याख्यान तीर्थंकरों के द्वारा प्राप्त हुआ था। कालदोष से वे नियुक्ति, भाष्य और चूणियां विच्छिन्न हो गयीं। फिर कुछ समय बाद वज्रस्वामी ने नमस्कार महामन्त्र का उद्धार कर उसे मूल सूत्र में स्थापित किया। यह बात वृद्ध सम्प्रदाय के आधार पर लिखी गयी है। इससे भी नमस्कार मंत्र के मूल स्रोत पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता।। ____ आवश्यक नियुक्ति में वज्रसूरी के प्रकरण में उक्त घटना का उल्लेख भी नहीं है। वज्रसूरी दस पूर्वधर हुए हैं। उनका अस्तित्वकाल ई० पू० पहली शताब्दी है। शय्यंभवसूरी चतुर्दश पूर्वधर हुए हैं और उनका अस्तित्वकाल ई० पू० ५-६ १. महानिशीथ, अध्ययन ५, अभिधान राजेन्द्र पृ० १८३५ : इओ य वच्चंतेणं कालेणं समएणं महड्ढिपत्ते पयाणुसारी वइरसामी नाम दुवालसंगसुअहरे समुप्पन्ने। तेण य पंच मंगल महासुयक्खंधस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मझेलिहिओएस वुड्ढसंपयाओ। एयं तु जं पंचमंगल महासुयक्खंधस्स वक्खाणं तं महया पबंधेण अणंतगयपज्जवेहिं सुत्तस्स य पियभूयाहिं णिजुत्तिभासचुन्नीहिं जहेव अणंतनाणदसणधरेहि तित्थयरेहि वक्खाणियं तहेव समासो वक्खाणिज्जतं आसि । अहन्नयाकालपरिहाणिदोसेणं ताओ णिजुत्तिभासचुन्नीओ वुच्छिन्नाओ। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार महामंत्र का मूल स्रोत और कर्त्ता १०३ शताब्दी है । उन्होंने कायोत्सर्ग को नमस्कार के द्वारा पूर्ण करने का निर्देश किया है'। दशर्वकालिक सूत्र की दोनों चूर्णियों और हारिभद्रीय वृत्ति में नमस्कार की व्याख्या ' णमो अरिहंताणं' मंत्र के रूप में की है । आचार्य वीरसेन ने षड्खंडागम के प्रारम्भ में दिये गए नमस्कार मंत्र को निबद्धमंगल बतलाया है। इसका फलित यह होता है कि नमस्कार महामंत्र के कर्त्ता आचार्य पुष्पदन्त हैं । आचार्य वीरसेन ने यह किस आधार पर लिखा, इसका कोई अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । जैसे भगवती सूत्र की प्रतियों के प्रारम्भ में नमस्कार महामंत्र लिखा हुआ था और अभयदेवसूरी ने उसे सूत्र का अंग मानकर उसकी व्याख्या की, वैसे ही आचार्य पुष्पदन्त को उसका कर्त्ता बतला दिया । आचार्य पुष्पदन्त का अस्तित्व काल वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी ( ई० पहली शताब्दी) है । खारवेल का शिलालेख ई० पू० १५२ का है । उसमें 'नमो अरहंताणं' 'नमो सवसिधानं' - ये पद मिलते हैं। इससे नमस्कार महामंत्र का अस्तित्व-काल आचार्य पुष्पदन्त से बहुत पहले चला जाता है । शय्यंभव सूरी का दशवैकालिक में प्राप्त निर्देश भी इसी ओर संकेत करता है । भगवान् महावीर दीक्षित हुए तब उन्होंने सिद्धों को नमस्कार किया था । उत्तराध्ययन के बीसवें अध्ययन के प्रारम्भ में 'सिद्धाणं नमो किच्चा, संजयाणं च भावओ' - सिद्ध और साधुओं को नमस्कार किया गया है। इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि नमस्कार की परिपाटी बहुत पुरानी है, किन्तु भगवान् महावीर के काल में पंच मंगलात्मक नमस्कार मंत्र प्रचलित था या नहीं - इस प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर देना सरल नहीं है । महानिशीथ के उक्त प्रसंग के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान स्वरूप वाला नमस्कार महामंत्र भगवान् महावीर के समय में प्रचलित था । किन्तु उसकी पुष्टि के लिए कोई दूसरा प्रमाण अपेक्षित है। आवश्यक निर्युक्ति में एक महत्त्वपूर्ण १. दसवेआलियं, ५ / १ / ६३ : णमोक्कारेण पारिता । २. (क) अगस्त्यचूर्ण, पृ० १२३; 'नमो अरहंताणं' ति एतेण वयणेण काउस्तग्गं पारेत्ता । (ख) जिनदास चूणि, पृ० १८६ | (ग) हारिभद्रीयावृत्ति, पत्र १८० : नमस्कारेण पारयित्वा 'नमो अरहंताणं' इत्यनेन । ३. षट्खंडागम, खंड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ४२ : इदं पुण जीवद्वाणं णिबद्धमंगलं । एत्तो इमेसि चोद्दसहं जीवसमासाणं इदि एदस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध ' णमो अरिहंताणं' इच्चादि देवदाणमोक्कारदंसणादो | ४. आयारचूला १५३२ : सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ मनन और मूल्यांकन सूचना मिलती है। नियुक्तिकार ने लिखा है- 'पंच परमेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक करना चाहिए। यह पंच नमस्कार सामायिक का ही एक अंग है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नमस्कार महामंत्र उतना ही पुराना है जितना सामायिक सूत्र । सामायिक आवश्यक का प्रथम अध्ययन है। नंदी में आयी हुई आगम की सूची में उसका उल्लेख है। नमस्कार महामंत्र का वहां एक श्रुतस्कन्ध या महाश्रुतस्कन्ध के रूप में कोई उल्लेख नहीं है। इससे भी अनुमान किया जा सकता है कि यह सामायिक अध्ययन का एक अंगभूत रहा है। सामायिक के प्रारम्भ में और उसके अन्त में पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया जाता था। कायोत्सर्ग के प्रारम्भ और अन्त में भी पंचनमस्कार की पद्धति प्रचलित थी। आचार्य भद्रबाहु के अनुसार नंदी और अनुयोगद्वार को जानकर तथा पंचमंगल को नमस्कार कर सूत्र को प्रारम्भ किया जाता है। संभव है इसीलिए अनेक आगमसूत्रों के प्रारम्भ में नमस्कार महामंत्र लिखने की पद्धति प्रचलित हुई। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने उसी आधार पर नमस्कार महामंत्र को सर्वश्रुतान्तर्गत बतलाया। उनके अनुसार पंच नमस्कार करने पर ही आचार्य सामायिक आदि आवश्यक और क्रमशः शेष श्रुत शिष्यों को पढ़ाते थे। प्रारम्भ में नमस्कार मंत्र का पाठ देने और उसके बाद आवश्यक का पाठ देने की पद्धति थी। इस प्रकार अन्य सूत्रों के प्रारम्भ में भी नमस्कार मंत्र का पाठ किया जाता था। इस दृष्टि से उसे सर्व-श्रुताभ्यन्तरवर्ती कहा गया। फिर भी नमस्कार मंत्र को जैसे सामायिक का अंग बतलाया है वैसे किसी अन्य आगम का अंग नहीं बताया गया है। इस दृष्टि से नमस्कार महामंत्र का मूलस्रोत सामायिक अध्ययन ही सिद्ध होता है । आवश्यक या सामायिक अध्ययन के कर्ता यदि गौतम गणधर को माना जाए तो पंचमंगल रूप नमस्कार महामंत्र के कर्ता भी गौतम गणधर ही ठहरते हैं। १. आवश्यक नियुक्ति, गाथा १०२७ : कयपंचनमोक्कारो करेइ सामाइयंति सोऽभिहितो। सामाइयंगमेव य ज सो सेसं अतो वोच्छं। २. वही, गाथा १०२६ : नंदिमणुओगदारं विहिवदुवग्घाइयं च नाऊणं । काऊण पंचमंगलमारंभो होइ सुत्तस्स ।। ३.विशेषावश्यकभाष्य, गाथा : सोसव्वसुतक्खंधब्भन्तरभूतोजओततो तस्स । आवासयाणुयोगादिगहणगहितोऽणुयोगो वि ॥ ४. वही, गाथा । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार महामंत्र का मूल स्रोत और कर्त्ता १०५ नमस्कार महामन्त्र के पद कुछ आचार्यों ने नमस्कार महामंत्र को अनादि बतलाया है । यह श्रद्धा का अतिरेक ही प्रतीत होता है । तत्त्व या अर्थ की दृष्टि से कुछ भी अनादि हो सकता है । उस दृष्टि से द्वादशांग गणिपिटक भी अनादि है, किन्तु शब्द या भाषा की दृष्टि से द्वादशांग गणिपिटक भी अनादि नहीं है, फिर नमस्कार महामंत्र अनादि कैसे हो सकता है ? हम इस बात को भूल जाते हैं कि जैन आचार्यों ने वेदों की अपौरुषेयता का इसी आधार पर निरसन किया था कि कोई भी शब्दमय ग्रन्थ अपौरुषेय नहीं हो सकता, अनादि नहीं हो सकता । जो वाङ् मय है वह मनुष्य के प्रयत्न से ही होता है। और जो प्रयत्नजन्य होता है वह अनादि नहीं हो सकता। नमस्कार महामंत्र वाङ् मय है । इसे हम यदि अनादि मानें तो वेदों के अपौरुषेयत्व और अनादित्व के निरसन का कोई अर्थ ही नहीं रहता । नमस्कार महामन्त्र जिस रूप में आज उपलब्ध है उसी रूप में भगवान् महावीर के समय में या उनसे पूर्व पार्श्व आदि तीर्थंकरों के समय में उपलब्ध था या नहीं, इस पर निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता, फिर भी इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भगवान् महावीर के समय में 'नमो सिद्धाणंयह पद प्रचलित रहा हो, और फिर आवश्यक की रचना के समय उसके पांच पद किये गए हों । भगवान् महावीर के समय में आचार्य और उपाध्याय की व्यवस्था नहीं मिलती। उसका विकास उनके निर्वाण के बाद हुआ है और संभव है कि 'नमो आयरियाणं' 'नमो उवज्झायाणं' ये पद उसी समय नमस्कार मन्त्र के साथ जुड़े हों । नमस्कार महामन्त्र के पदों को लेकर जो चर्चा प्रारम्भ हुई थी, उससे इस बात की सूचना मिलती है। चर्चा का एक पक्ष यह था कि नमस्कार महामंत्र संक्षिप्त और विस्तार - दोनों दृष्टियों से ठीक नहीं है । यदि इसका संक्षिप्त रूप हो तो ' णमो सिद्धाणं' 'णमो लोए सव्वसाहूणं' - ये दो ही पद होने चाहिए। यदि इसका विस्तृत रूप हो तो इसके अनेक पद होने चाहिएं। जैसे- नमो केवलीणं, नमो सुय केवलीणं, नमो ओहिनाणीणं, नमो मणपज्जवनाणीण, आदि-आदि । दूसरे पक्ष का चिंतन यह था कि अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय नियमतः साधु होते हैं, किंतु साधु नियमतः अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय नहीं होते। कुछेक साधु अर्हत् आदि होते हैं । साधु को नमस्कार करने में वह फल प्राप्त नहीं होता जो अर्हत् को नमस्कार करने में होता है । इस दृष्टि से नमस्कार महामंत्र के पांच पद ९. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा १०२० : अरिहंताई नियमा साहू साहू य तेसु भइयव्वा । तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्तं हवइ सिद्धो ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ मनन और मूल्यांकन किये गए हैं। उत्तरपक्ष का तर्क बहुत शक्तिशाली नहीं है, फिर भी इस प्रसंग द्विपक्षीय चिन्तन की सूचना अवश्य मिल जाती है । कर्त्ता की अपनी-अपनी अपेक्षा होती है । जिस समय अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय का महत्त्व बढ़ गया था समय महामन्त्र के कर्त्ता उनको स्वतन्त्र स्थान कैसे नहीं देते ? नमस्कार महामन्त्र के पदों का क्रम नमस्कार महामन्त्र के पदों का क्रम भी चर्चित रहा है। क्रम दो प्रकार का होता है— पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी । पूर्व पक्ष का कहना है कि नमस्कार महामन्त्र में ये दोनों प्रकार के क्रम नहीं हैं । यदि पूर्वानुपूर्वी क्रम हो तो णमो सिद्धाणं', ' णमो अरहंताणं' ऐसा होना चाहिए। यदि पश्चानुपूर्वी क्रम हो तो ' णमो लोए सव्व साहूणं - यहां से वह प्रारम्भ होना चाहिए और उसके अन्त में ' णमो सिद्धाणं' होना चाहिए। उत्तर पक्ष का प्रतिपादन यह रहा कि नमस्कार महामन्त्र का क्रम पूर्वानुपूर्वी ही है। इसमें क्रम का व्यत्यय नहीं है । इस क्रम की पुष्टि के लिए नियुक्तिकार ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि सिद्ध अर्हत् के उपदेश से ही जाने जाते हैं । वे ज्ञापक होने के कारण हमारे अधिक निकट हैं, अधिक पूजनीय हैं, अतः उनको प्रथम स्थान दिया गया । आचार्य मलयगिरि ने एक तर्क और प्रस्तुत किया कि अर्हत् और सिद्ध की कृतकृत्यता में दीर्घकाल का व्यवधान नहीं है। उनकी कृतकृत्यता प्रायः समान ही है । आत्म विकास की दृष्टि से देखा जाए तो अर्हत् और सिद्ध में कोई अन्तर नहीं होता । आत्म-विकास में बाधा डालने वाले चार घात्य कर्म ही हैं। उनके क्षीण होने पर आत्म-स्वरूप पूर्ण विकसित हो जाता है । विकास का एक अंश भी न्यून नहीं रहता । केवल भग्राही कर्म शेष रहने के कारण अर्हत् शरीर को धारण किए रहते हैं । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अर्हत् से सिद्ध बड़े हैं । नैश्चयिक दृष्टि से बड़े-छोटे का कोई प्रश्न ही नहीं है । यह प्रश्न मात्र व्यावहारिक है । व्यवहार के स्तर पर अर्हत् का प्रथम स्थान अधिक उचित है । अर्हत् या तीर्थंकर धर्म के आदिकर होते हैं । धर्म का स्रोत उन्हीं से निकलता है । उसी में निष्णात होकर अनेक व्यक्तिः १. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा १०२०, मलयगिरिवृत्ति पत्र ५५२-५५३ । २. वही, गाथा १०२१ : पुव्वाणुपुवि न कमो नेव य पच्छानुपुव्वि एस भवे । सिद्धाईआ पढमा बीआए साहुणो आई || ३. वही, गाथा १०२२: अरिहंतु एसेणं सिद्धा नज्जति तेण अरिहाई | ४. वही, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ५५३ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार महामंत्र का मल स्रोत और कर्त्ता १०७ सिद्ध बनते हैं। अतः व्यवहार के धरातल पर धर्म के आदिकर या महास्रोत होने के कारण जितना महत्त्व अर्हत् का है उतना सिद्ध का नहीं। प्रथम पद में अर्हत शब्द के द्वारा केवल तीर्थकर ही विवक्षित हैं, अन्य केवली या अर्हत् विवक्षित नहीं हैं। यदि नैश्चयिक दृष्टि की बात होती तो सामान्य केवली या सामान्य अर्हत् को पांचवें पद में सब साधुओं की श्रेणी में नहीं रखा जाता। आचार्य और उपाध्याय तीसरे-चौथे पद में हैं और केवली पांचवें पद में। इसका व्यावहारिक हेतु उपयोगिता ही है। ___यह प्रश्न किया गया कि आचार्य अर्हत के भी ज्ञापक होते हैं, इसलिए णमो आयरियाणं' यह प्रथम पद होना चाहिए। इसके उत्तर में नियुक्तिकार ने कहा'आचार्य अर्हत् की परिषद् होते हैं । कोई भी व्यक्ति परिषद् को प्रणाम कर राजा को प्रणाम नहीं करता। अर्हत् और सिद्ध दोनों तुल्य-बल हैं, इसलिए उनमें पौर्वापर्य का विचार किया जा सकता है, किन्तु परमनायक अर्हत् और परिषत्कल्प आचार्य में पौर्वापर्य का विचार नहीं किया जा सकता। नमस्कार महामंत्र का महत्त्व प्रस्तुत महामन्त्र समग्र जैन शासन में समान रूप से प्रतिष्ठा प्राप्त है। यही इसकी प्राचीनता का हेतु है। यदि यह श्वेताम्बर और दिगम्बर का अन्तर होने के बाद निर्मित होता तो संभव है कि समग्र जैन शासन में इसे इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती। किसी एक सम्प्रदाय में इसका महत्त्व होता, दूसरे में इतना महत्त्व नहीं होता। यह मन्त्राधिराज के रूप में प्रतिष्ठित नहीं होता। लगभग डेढ़ हजार वर्ष की अवधि में इस महामन्त्र पर विपुल साहित्य रचा गया। इसके सहारे अनेक मन्त्रों का विकास हुआ और इसकी स्तुति में अनेक काव्य रचे गए। यह जैनत्व का प्रतीक बना हुआ है। 'जो जैन होता है वह कम-से-कम महामन्त्र का अवश्य पाठ करता है। वह कैसा जैन जो महामन्त्र को नहीं जानता ?जो नमस्कार महामन्त्र को धारण करता है वह श्रावक है। उसे परमबन्धु मानना चाहिए।" इस उक्ति से हम नमस्कार महामन्त्र की व्यापकता का मूल्यांकन कर सकते हैं ? १. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १०२२ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. प्रज्ञा और प्रज्ञ मेरी धारणा थी कि प्रज्ञा के विषय में बौद्ध साहित्य में बहुत चर्चा है । पातंजल योगदर्शन में भी उसकी परिभाषा मिलती है। जैनदर्शन में इसकी चर्चा नहीं है या बहुत स्वल्प है । दो वर्ष पूर्व तक मेरी यही धारणा बनी रही । आगम साहित्य के मंथन का इतना अवसर मिलने पर भी उस धारणा को बदलने का कोई निमित्त नहीं मिला । ज्ञान के अनन्त पर्याय होते हैं । कुछेक पर्यायों को हम छूते हैं, अनछूए पर्याय अनन्त रह जाते हैं । वि० सं० २०३५ कार्तिक शुक्ला १३ के दिन गंगाशहर दीक्षा का बृहद् समारोह था। अचानक आचार्यश्री तुलसी ने कहा - "तुम खड़े जाओ ।" उनके आदेशानुसार मैं खड़ा हो गया । आचार्यश्री ने एक पृष्ठभूमि के साथ मुझे 'महाप्रज्ञ' के अलंकरण से अलंकृत किया। उस दिन मैंने नहीं सोचा था कि एक दिन यह अलंकरण मेरा नाम बन जाएगा । वि० सं० २०३५ माघ शुक्ला सप्तमी के दिन राजलदेसर में आचार्यवर ने मुझे युवाचार्य बनाया और मेरा नाम महाप्रज्ञ कर दिया। मुनि नथमल अब महाप्रज्ञ हो गया । कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी के दिन गंगाशहर में 'महाप्रज्ञ' अलंकरण का अभिनन्दन समारोह किया गया। उसमें आशीर्वाद देते हुए आचार्यवर ने कहा"अब तुम हमारे संघ में अपनी प्रज्ञा की रश्मियां बिखेरो ।" उस दिन से प्रज्ञा और महाप्रज्ञ - ये दोनों शब्द मेरे लिए अन्वेषणीय बन गए । शुभकरणजी दशानी तथा धर्मचन्द चोपड़ा आदि ने महाप्रज्ञ की गरिमा का विश्लेषण किया । मुनि दुलहराजजी ने उत्तराध्ययन को उद्धृत करते हुए 'महाप्रज्ञ' के महत्त्व का वर्णन किया। मुनि गणेशमलजी, मुनि दुलीचंदजी ने महाप्रज्ञ की अनुशंसा की । अनेक साध्वियों प्रज्ञा के प्रति अपना अभिनन्दन प्रस्तुत किया। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने प्रज्ञा के विस्तार की मंगल भावना की । पूरे समारोह में प्रज्ञा और महाप्रज्ञ - ये दो शब्द गुंजित हो रहे थे। मेरे कानो में भी ये दोनों शब्द निरंतर प्रतिध्वनित हो रहे थे और मेरा चित्त उनके अर्थानुसंधान में लग रहा था । पतंजलि का 'ऋतंभरा प्रज्ञा', गीता का स्थितप्रज्ञ और 'तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता' तथा बौद्ध साहित्य का 'पञ्ञ और पञ्ञा' – ये शब्द मेरे स्मृति पटल पर आ-जा रहे थे। जैन साहित्य में उत्तराध्ययन का 'महापण्ण' (उत्तरा० ५।१) शब्द मेरे सामने Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा और प्रज्ञ १०६ था। उसके अतिरिक्त दूसरा शब्द ध्यान में नहीं उतर रहा था। मैंने सोचाआचार्यश्री ने यह शब्द क्यों चुना? इसका रहस्य क्या है ? बहुत चिन्तन करने पर भी मैं रहस्य को नहीं समझ पाया। मैंने अपनी चिरंतन प्रकृति के अनुसार इस प्रश्न को अन्तश्चेतना को सौंप दिया। मैं इस चिन्तन से मुक्त हो गया। इस प्रक्रिया से मुझे सदा समाधान मिलते रहे हैं। कभी अल्पावधि से समाधान मिल जाता है और कभी दीर्घावधि से। मैं उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता। दीर्घकाल तक समाधान न मिलने पर भी अधीर नहीं होता। मेरी धृति ने सदा मुझे साथ दिया है और अन्तश्चेतना ने कभी मुझे धोखा नहीं दिया है।। __ अभी एक मास पूर्व (सं० २०३७ आषाढ़) महाप्रज्ञ का रहस्य अनावृत हो गया। आचार्यश्री द्वारा महाप्रज्ञ शब्द के चुनाव का अर्थ स्पष्ट हो गया। जैन परम्परा में प्रज्ञा की विलुप्त धारा को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए ही यह शब्द चुना गया। मुनि दुलहराजजी सूत्रकृतांग के टिप्पण सुना रहे थे। सूत्रकृतांग का छठा अध्ययन है 'वीरत्थुई। महावीर की स्तुति के प्रसंग में प्रज्ञ (६/४, १५), आशुप्रज्ञ (६/७, २५) और भूतिप्रज्ञ (६/१५, १८) ये दो-दो बार प्रयुक्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त अन्य अध्ययनों में भी प्रज्ञ, महाप्रज्ञ और आशुप्रज्ञ-इनका अनेक बार प्रयोग हुआ है। आचारांग में भी प्रज्ञ, प्रज्ञान और प्रज्ञानवान का अनेक बार प्रयोग मिलता है। दूसरे अध्ययन के पचीसवें और छबीसवें-दोनों सूत्रों में पांचों इन्द्रियों के साथ प्रज्ञान शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। शेष स्थानों में प्रज्ञान का प्रयोग प्रज्ञा के अर्थ में हुआ है । मूल प्रश्न है -प्रज्ञा क्या है ? कुमार श्रमण केशी के उत्तर में गौतम ने कहा-धर्म का दर्शन और तत्त्व का निश्चय प्रज्ञा से होता है। इससे ज्ञात होता है कि प्रज्ञा इन्द्रियज्ञान से प्राप्त प्रत्ययों का विवेक करने वाली बुद्धि से परे का ज्ञान है। कुमार श्रमण केशी ने गौतम की प्रज्ञा को बार-बार साधुवाद दिया है। आचारचूला में बतलाया गया है कि समाधिस्थ मुनि की प्रज्ञा बढ़ती है। ध्यान और समाधि के साथ जिस प्रज्ञा का संबंध है वह इन्द्रियातीत है। वीरस्तुति में बतलाया गया है कि भगवान् महावीर प्रज्ञा के अक्षय सागर थे। १. प्रज्ञ-सूयगडो-१७।८; १।१४।१६; २।११६६; २१६१६ । महाप्रज्ञ-सूयगडो-१।११।१३, ३८ । ___ आशुप्रज्ञ-सूयगडो-१३।२; १।१४।४,२२; २।५।१; २।६।१८ । २. उत्तरज्झयणाणि-२३।२५। ३. वही, अध्ययन २३ । ४. आयारचूला, १६।५। ५. सूयगडो, १।६।। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० मनन और मूल्यांकन उक्त विवरण से दो प्रकार की प्रज्ञा फलित होती है— इन्द्रिय-संबद्ध - प्रज्ञा और इन्द्रियातीत प्रज्ञा | धवलाकार ने प्रज्ञा और ज्ञान का भेद बतलाया है । उनके अनुसार गुरु के उपदेश से निरपेक्ष ज्ञान की हेतुभूत चैतन्य शक्ति का नाम प्रज्ञा है और ज्ञान उसका कार्य है' । इससे स्पष्ट होता है कि प्रज्ञा शास्त्रीय ज्ञान से उपलब्ध नहीं होती । वह चेतना का शास्त्र-निरपेक्ष विकास है । जैन साहित्य में अनेक लब्धियां या ऋद्धियां वर्णित हैं। महर्षि पतंजलि की भाषा में उन्हें योगविभूति कहा जा सकता है । उन लब्धियों में एक लब्धि है-प्रज्ञाश्रमण । प्रज्ञाश्रमण मुनि अध्ययन किए बिना ही सर्वश्रुत का पारगामी होता है । वह चतुर्दशपूर्वी के प्रश्नों का भी समाधान दे सकता है। इस प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि के चार प्रकार किये गए हैं- औत्पत्तिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा । • नंदी सूत्र में आभिनिबोधिक ज्ञान के दो प्रकार बतलाए हैं— श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित । श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान अध्ययन से प्राप्त होता है । अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान अध्ययन-निरपेक्ष होता है । यह प्रज्ञा है । तिलोयपण्णत्ती में प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि के जो चार प्रकार बतलाएं है, नंदी सूत्र में आभिनिबधिक ज्ञान के वे ही चार प्रकार- ( औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी) निर्दिष्ट हैं। यहां इन्हें बुद्धि कहा गया है । प्रज्ञा और बुद्धि - दोनों शब्द सामान्य ज्ञान के अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं और सर्वसाधारण में मिलते हैं । किन्तु यहां अन्तरंग बुद्धि और अन्तरंग प्रज्ञा का निर्देश है। ये दोनों विशिष्ट विकास वालों में ही उपलब्ध होती हैं । अदृष्ट, अश्रुत, और अनालोचित अर्थ जैसे ही सामने आता है वैसे ही उसका यथार्थ बोध हो जाता है । वह औत्पत्तिकी प्रज्ञा है । हरिभद्रसूरी ने इसे प्रातिभज्ञान कहा है और उपाध्याय यशोविजय ने मतिज्ञान और केवलज्ञान के बीच का ज्ञान कहा है । विनय द्वारा प्राप्त अनुग्रह से वैनयिकी, कर्म के सुदीर्घावलोकन से होने वाली कर्मजा और वयपरिपाक से परिणत होने वाली पारिणामिकी प्रज्ञा भी शास्त्राभ्यास से निरपेक्ष होती है । 'मंत्रराजरहस्य' में 'प्रज्ञश्रमण' का उल्लेख मिलता है । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र की वृत्ति में प्राज्ञश्रमण की व्याख्या की है । धवला में प्रज्ञाश्रमण को १. धवला ६४, १; १८।६४।२ । २. तिलोयपण्णत्ती ४।१०१७ - २१ । ३. नंदी, सूत्र ३७, ३८ । ४. मंत्रराज रहस्य, श्लोक ५२२, सूरिमंत्रकल्पसमुच्चय भाग १, पृ० ६३ | ५. योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति, सूरिमंत्रकल्पसमुच्चय भाग २, पृ० ३६५ । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा और प्रज्ञ १११ नमस्कार किया गया और उन्हें 'जिन' भी बतलाया गया है । आचार्य अकलंक ने भी प्रज्ञाश्रमण का निरूपण किया है। इस प्रकार अनेक ग्रंथों में प्रज्ञा और प्रज्ञाश्रमण के विषय में सामग्री बिखरी हुई है। उसका अध्ययन प्रज्ञा रश्मियों के विकिरण में बहुत उपयोगी हो सकता है। १. षट्खंडागम, चतुर्थ वेदनाखंड, धवला पुस्तक ६, लब्धिस्वरूप वर्णन । २. तत्त्वार्थवार्तिक, सूत्र ३६ । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. अतोन्द्रिय चेतना मनुष्य का व्यक्तित्व दो आयामों में विकसित होता है। उसका बाहरी आयाम विस्तृत और निरंतर गतिशील होता है। उसका आन्तरिक आयाम संकुचित और निष्क्रिय होता है। उसके बाहरी आयाम की व्याख्या स्थूल-शरीर, वाणी, मन और बुद्धि के आधार पर की जाती है। उसके आन्तरिक आयाम की व्याख्या सूक्ष्म और सूक्ष्मतर-शरीर, प्राण-शक्ति, प्रज्ञा (अतीन्द्रिय चेतना) और अमूर्छा के आधार पर की जा सकती है। बाहरी व्यक्तित्व से हमारा घनिष्ट संबंध है । उसमें बुद्धि का स्थान सर्वोपरि है, इसलिए वह हमारे चिन्तन की सीमा बन गयी। उससे परे जाकर चिन्तन करना हमारे लिए स्वाभाविक नहीं है। यह अपराविद्या की भूमिका है। पराविद्या का पहला चरण है बुद्धि की सीमा का अतिक्रमण। जैसे ही प्रज्ञा का जागरण होता है, बुद्धि की सीमा अतिक्रान्त हो जाती है। प्रज्ञा की सीमा में प्रवेश करते ही यह ज्ञात होता है कि बुद्धि मनुष्य की चेतना का अंतिम पड़ाव नहीं है। इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है। बाहरी व्यक्तित्व इस सीमा से आगे नहीं जा सकता। इस सीमा को पार करते ही मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व उजागर हो जाता है। वहां प्राण-शक्ति प्रखर होती है और चेतना सूक्ष्म । बुद्धि की सीमा में पदार्थ के प्रति मूर्छा का न होना संभव नहीं माना जाता, किन्तु प्रज्ञा की सीमा में समता का भाव निर्मित होता है और अमर्त्य संभव बन जाती है। पराविद्या के क्षेत्र में प्राण-ऊर्जा और अतीन्द्रिय चेतना का अध्ययन किया गया है, किन्तु अमूर्छा या वीतरागता उसके अध्ययन का विषय अभी नहीं बना है। यह परामनोविज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है। अभी तक परामनोविज्ञान का अध्ययन चार विषयों तक सीमित है, जैसे अतीन्द्रियज्ञान (CLAIRVOYANCE), विचार-संप्रेषण (TELEPATHY), पूर्वाभास (PRE-COGNITION) और मस्तिष्कीय आन्दोलन द्वारा प्राणी जगत् और पदार्थ का प्रभावित होना (PSYCHO-KINESIS)। अमूर्छा का विधायक अर्थ है-समता। उसका विकास होने पर अतीन्द्रिय चेतना अपने आप विकसित होती है। परामनोविज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाले लोग केवल अतीन्द्रिय चेतना के विकास की खोज में लगे हुए हैं। यह खोज बहुत Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीन्द्रिय चेतना ११३ लंबी हो सकती है और अनास्था भी उत्पन्न कर सकती है। अग्रमस्तिष्क (फन्टल लॉब) कषाय या विषमता का केन्द्र है। अतीन्द्रिय चेतना का केन्द्र भी वही है । जैसे-जैसे विषमता समता में रूपान्तरित होती है, वैसेवैसे अतीन्द्रिय चेतना विकसित होती चली जाती है। उसका सामान्य बिन्दु प्रत्येक प्राणी में विकसित होता है। उसका विशिष्ट विकास समता के विकास के साथ ही होता है। मनुष्य के आवेगों और आवेशों पर हाइपोथेलेमस का नियंत्रण है। उससे पिनियल और पिच्यूटरी ग्लैण्ड्स प्रभावित होते हैं। उनका स्राव एड्रीनल ग्लैण्ड को प्रभावित करता है। वहां आवेश प्रकट होते हैं। ये आवेश अतीन्द्रिय चेतना को निष्क्रिय बना देते हैं। उसकी सक्रियता के लिए हाइपोथेलेमस और पूरे ग्रन्थितंत्र को प्रभावित करना आवश्यक होता है। ग्रन्थितंत्र का संबंध मनुष्य के भावपक्ष से है। भावपक्ष का सृजन इस स्थूल-शरीर से नहीं होता। उसका सृजन सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर से होता है। सूक्ष्म शरीर से आने वाले प्रतिबिम्ब और प्रकंपन हाइपोथेलेमस के द्वारा ग्रन्थितंत्र में उतरते हैं। जैसा भाव होता है, वैसा ही ग्रन्थियों का स्राव होता है और स्राव के अनुरूप ही मनुष्य का व्यवहार और आचरण बनता है। यह कहने में कोई जटिलता नहीं लगती कि मनुष्य के व्यवहार और आचरण का नियंत्रण ग्रन्थितंत्र करता है और ग्रन्थितंत्र का नियंत्रण हाइपोथेलेमस के माध्यम से भावतंत्र करता है और भावतंत्र सूक्ष्म-शरीर के स्तर पर सूक्ष्म-चेतना के साथ जन्म लेता है। स्मृति, कल्पना और चिन्तन की पवित्रता से भावतंत्र प्रभावित होता है और उससे ग्रन्थितंत्र का स्राव बदल जाता है। उस रासायनिक परिवर्तन के साथ मनुष्य का व्यवहार और आचरण भी बदल जाता है। यह परिवर्तन मनुष्य की अतीन्द्रिय चेतना को सक्रिय बनाने में बहुत सहयोग करता है। ___ मनुष्य का शरीर अनेक रहस्यों से जुड़ा हुआ है। उसमें इन्द्रिय की क्षमता है। शरीर के कुछ भाग ज्ञान और संवेदना के साधन बने हुए हैं। वे भाग 'करण' कहलाते हैं । आंख एक 'करण' है। उसके माध्यम से रूप को जाना जा सकता है। किन्तु मनुष्य के पूरे शरीर में 'करण' बनने की क्षमता है। यदि संकल्प के विशेष प्रयोगों के द्वारा पूरे शरीर को 'करण' किया जा सके तो कपोलों से भी देखा जा सकता है, हाथ और पैर की अंगुलियों से भी देखा जा सकता है। यह इन्द्रिय चेतना का ही विकास है। इसे अतीन्द्रिय चेतना का विकास नहीं कहा जा सकता। पूरे शरीर से सुना जा सकता है, चखा जा सकता है, गंध का अनुभव किया जा सकता है। इन्द्रिय चेतना की भांति मानसिक चेतना का भी विकास किया जा सकता है। स्मृति मन का एक कार्य है। उसे विकसित करते-करते पूर्वजन्म की स्मृति (जातिस्मृति) हो जाती है। यह भी अतीन्द्रिय चेतना (एक्स्ट्रा सेंसरी परसेप्सन-ई० एस० पी०) नहीं है । दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, दूर-आश्वादन और दूर Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ मनन और मूल्यांकन स्पर्शन का विकास भी इन्द्रिय चेतना का ही विकास हं । ये सब विशिष्ट क्षमताएं हैं । फिर भी इन्हें अतीन्द्रिय चेतना ( ई० एस० पी०) नहीं कहा जा सकता । कल्पना और चिन्तन के विकास से भी अनेक अज्ञात रहस्य जान लिये जाते हैं । फिर भी वह अतीन्द्रिय चेतना की उपलब्धि नहीं है । औत्पत्तिको बुद्धि के द्वारा अदृष्ट, अश्रुत बातें जान ली जाती हैं । पर यह अतीन्द्रिय चेतना नहीं है । परामनोविज्ञान के अनुसार पूर्वाभास अतीन्द्रिय ज्ञान माना जाता है । पर वास्तव में वह संधिकालीन ज्ञान है । उसे न इन्द्रिय ज्ञान कहा जा सकता है और न अतीन्द्रियज्ञान | वह इन्द्रिय और मन से उत्पन्न नहीं है, इसलिए उसे इन्द्रियज्ञान नहीं कहा जा सकता । अतीन्द्रियज्ञान की क्षमता उत्पन्न होने पर भविष्य में घटित होने वाली घटना अथवा अतीत-कालीन घटना को प्रत्येक अवधान के साथ जाना जा सकता है । किन्तु पूर्वाभास में ऐसा नहीं होता । उसमें भविष्य की घटना का आकस्मिक आभास होता है । अवधान के साथ उसके ज्ञान का निश्चित संबंध नहीं होता, इसलिए उसे अतीन्द्रिय ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता। वह दिन और रात की संधि की भांति इन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियज्ञान का संधिज्ञान है । मनुष्य का स्थूल शरीर सूक्ष्मत र शरीर का संवादी होता है । सूक्ष्मतर शरीर में जिन क्षमताओं के स्पंदन होते हैं, उन सबकी अभिव्यक्ति के लिए स्थूल शरीर में केन्द्र बन जाते हैं । उसमें शक्ति और चैतन्य की अभिव्यंजना के अनेक केन्द्र हैं । वे सुप्त अवस्था में रहते हैं | अभ्यास के द्वारा उन्हें जागृत किया जाता है । अपनी जागृत अवस्था में वे 'करण' बन जाते हैं । 'करण' को विज्ञान की भाषा में विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र (एलेक्ट्रो मेग्नेटिक फील्ड) कहा जा सकता है। तंत्रशास्त्र और हठयोग में छह या सात चक्रों का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ है। प्रतिपादन की प्राचीन शैली रूपकमय है । अतः चक्रों के विषय में स्पष्ट कल्पना करना कठिन है । बहुत लोगों ने उन्हें किसी विशिष्ट अवयव के रूप में स्थूल शरीर में खोजने का प्रयत्न किया, पर उन्हें अपनी खोज में कभी सफलता नहीं मिली । स्थूल शरीर में ग्रन्थियां हैं। शरीर शास्त्र के अनुसार उनका कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण है । उन्हें चक्र माना जा सकता है । चक्रों और ग्रन्थियों के स्थान भी प्रायः एक ही हैं। मूलाधार चक्र का किसी ग्रन्थि से सीधा संबंध नहीं है । स्वाधिष्ठान चक्र का कामग्रन्थि ( गोनाइस) से संबंध है । मणिपूर चक्र का एड्रीनल से, अनाहत चक्र का थाइमस से, विशुद्धि चक्र का थाइराइड से, आज्ञाचक्र का पिच्युटरी से और सहस्रार चक्र का पिनियल से संबंध स्थापित किया जा सकता है। जैन पराविद्या के अनुसार शक्ति और चैतन्य के केन्द्र अनगिन हैं । वे पूरे शरीर में फैले हुए हैं। उन्हें ग्रन्थियों तक सीमित नहीं किया जा सकता । ग्रन्थियों का काम सूक्ष्मतर या कर्मशरीर से आने वाले कर्म-रसायनों और भावों का प्रभाव प्रदर्शित करना है । अतीन्द्रिय चेतना को प्रकट करना उनका मुख्य कार्य नहीं है । वे Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीन्द्रिय चेतना १.१५ अतीन्द्रिय चेतना की अभिव्यक्ति के लिए विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र बन सकते हैं अथवा उनके आसपास का क्षेत्र विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र बन सकता है । उनके अतिरिक्त शरीर के और भी अनेक भाग विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र बन सकते हैं । इसलिए शक्ति केन्द्रों और चैतन्य- केन्द्रों की संख्या बहुत अधिक हो जाती है। हमारी पसलियों में कोख के नीचे बहुत शक्तिशाली चैतन्य- केन्द्र है । हमारे कंधे बहुत बड़े शक्ति केन्द्र हैं। फलित की भाषा में कहा जा सकता है कि शक्ति केन्द्र और चैतन्य -केन्द्र शरीर के अवयव नहीं हैं, किन्तु शरीर के वे भाग हैं, जिनमें विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र बनने की क्षमता है । वे भाग नाभि से नीचे पैर की एड़ी तक तथा नाभि से ऊपर सिर की चोटी तक आगे भी हैं, पीछे भी हैं, दाएं भी हैं और बाएं भी हैं । समता, ऋजुता आदि विशिष्ट गुणों की साधना के द्वारा वे केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं, 'करण' बन जाते हैं, तब उनमें अतीन्द्रिय चेतना प्रकट होने लग जाती है । यह कोई आकस्मिक संयोग नहीं है । यह एक स्थाई विकास है । एक बार चैतन्य- केन्द्र के सक्रिय हो जाने पर जीवन भर उसकी सक्रियता बनी रहती है । अतीन्द्रिय-ज्ञानी जब चाहे तब अपनी अतीन्द्रिय चेतना का करणभूत चैतन्यकेन्द्र के द्वारा उपयोग कर सकता है। वह सूक्ष्म, व्यवहित और दूरस्थ पदार्थ का साक्षात् कर सकता है । इस चर्चा से अतीन्द्रिय चेतना की प्रारंभिक अवस्था -! - पूर्वाभास, अतीतबोध और उसकी विकसित अवस्था की सीमा को समझा जा सकता है । मनः पर्यवज्ञान या परचित्तज्ञान भी अतीन्द्रियज्ञान है । विचार-संप्रेषण विकसित इन्द्रिय- चेतना काही एक स्तर है । उसे अतीन्द्रियज्ञान कहना सहज-सरल नहीं है । विचारसंप्रेषण की प्रक्रिया में अपने मस्तिष्क में उभरने वाले विचार-प्रतिबिम्बों के आधार पर दूसरे के विचार जाने जाते हैं । मनः पर्यवज्ञान में विचार - प्रतिबिम्बों का साक्षात्कार होता है । प्रत्येक विचार अपनी आकृति का निर्माण करता है । विचार का सिलसिला चलता है तब नयी-नयी आकृतियां निर्मित होती जाती हैं। और प्राचीन आकृतियां विसर्जित हो, आकाशिक रेकार्ड में जमा होती जाती हैं। मनः पर्यवज्ञानी उन आकृतियों का साक्षात्कार कर संबद्ध व्यक्ति की विचारधारा को जान लेता है । उसमें अतीत, वर्तमान और भविष्य के विचारों को जानने की भी क्षमता होती है । मानसिक चिन्तन के लिए उपर्युक्त परमाणुओं की एक राशि होती है । वह परमाणु-राशि हमारे चिन्तन में सहयोग करती है । उसको ग्रहण किए बिना हम कोई भी चिन्तन नहीं कर सकते। उस राशि के परमाणुओं के भावी परिवर्तन के आधार पर मनः पर्यवज्ञानी भविष्य में होने वाले विचार को भी जान सकता है । अतीन्द्रियज्ञान प्रत्यक्षज्ञान है । जिस ज्ञान के क्षण में इन्द्रिय और मन को माध्यम बनाना आवश्यक नहीं होता, वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है । इन्द्रिय और Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ मनन और मूल्यांकन मन के माध्यम से होने वाला ज्ञान विशिष्ट कोटि का होने पर भी परोक्ष ही होता है। विकास के क्रम के अनुसार प्रत्येक प्राणी में चेतना अनावृत होती है । इन्द्रिय, मानसिक और बौद्धिक चेतना के साथ-साथ कुछ अस्पष्ट या धुंधली सी अतीन्द्रिय चेतना भी अनावृत होती है । पूर्वाभास, विचार संप्रेषण आदि उसी कोटि के हैं। उनकी स्पष्टता के लिए शरीरगत चैतन्य- केन्द्रों को निर्मल बनाना होता है । संयम और चरित्र की साधना जितनी पुष्ट होती है, उतनी ही उनकी निर्मलता बढ़ती जाती है । चैतन्य केन्द्रों को निर्मल बनाने का सबसे सशक्त साधन है ध्यान । प्रियता और अप्रियता के भाव से मुक्त चित्त नाभि के ऊपर के चैतन्य- केन्द्रों ( आनन्द - केद्र, विशुद्धि - केन्द्र, प्राण- केन्द्र, दर्शन-केन्द्र, ज्योति केन्द्र और ज्ञान केन्द्र) पर केन्द्रित होता है, तब वे निर्मल होने लग जाते हैं । इसका दीर्घकालीन अभ्यास अतीन्द्रिय ज्ञान की आधारभूमि बन जाता है । अतीन्द्रियज्ञान के धुंधले रूप चरित्र के विकास के बिना भी संभव हो सकते हैं । किन्तु अतीन्द्रिय चेतना के विकास के साथ चरित्र के विकास का गहरा संबंध है। यहां चरित्र का अर्थ समता है, रागद्वेष या प्रियता- अप्रियता के भाव से मुक्त होना है । उसकी अभ्यास-पद्धति प्रेक्षाध्यान है । प्रेक्षा का अर्थ है - देखना । देखने का अर्थ है चित्त को राग-द्वेष से मुक्त कर ध्येय का अनुभव करना । दर्शन की इस प्रक्रिया को अतीन्द्रिय चेतनाविकास की प्रक्रिया कहा जा सकता है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. जैन साहिय के मालोक में गीता का अध्ययन भगवद्गीता विश्व साहित्य के आकाश में एक तेजस्वी नक्षत्र की भांति प्रतिष्ठित है। उसके लघु शरीर में विशाल तत्त्व की प्रतिष्ठा हुई है। अणु से महान् और स्थूल से सूक्ष्म-सभी तत्त्वों के बीज उसमें उपलब्ध होते हैं। उसकी इस व्यापकता ने ही अनेक द्रष्टाओं को अनेक दृष्टियों से देखने का अवसर दिया है। उसकी अनेक व्याख्याओं का मूल कारण यही है। आचार्यश्री तुलसी ने अनेक बार मुझे कहा-गीता की अनेकांतदृष्टि से व्याख्या की जाए। यह विचार बहुत महत्त्वपूर्ण है। अनेकान्तदृष्टि से गीता का मूल्यांकन, साथ-साथ भारतीय दर्शनों का भी मूल्यांकन हो तो सहज ही अनेकता से एकता की दिशा में हमारा प्रस्थान संभव होगा। सत्य अनेकरूप नहीं है। अनेकरूपता परिभाषा, व्याख्या और शब्दिक-चयन में है। शास्त्रों की अनेकवाक्यता को ध्यान में रखकर ही महामनीषी कुमारिल ने सर्वज्ञता के विषय ने अपना संदेह प्रकट किया था। उनका प्रश्न था-- "यदि शास्त्रकार सर्वज्ञ हैं तो शास्त्रों में भेद क्यो ? यदि शास्त्रों में भेद है तो शास्त्रकार सर्वज्ञ कैसे?" यह प्रश्न पहेली जैसा लगता है, पर इस पहेली को बुझाना कोई जटिल काम नहीं है। सर्वज्ञ सब जान सकता है, पर सब कह नहीं सकता। ज्ञान के साथ जहां भाषा जुड़ती है, वहां ज्ञान ससीम हो जाता है। भाषा ससीम है। ससीम से जुड़ा हुआ ज्ञान असीम कैसे हो सकता है ? दुनिया का कोई भी शास्त्र इस सीमा का अतिक्रमण नहीं करता। फिर भी मनुष्य ने ससीम में छिपे असीम को खोजने का प्रयत्न किया है। गीता इस कोटि का ग्रन्थ है जिसे माध्यम बनाकर ससीम में छिपे असीम को खोजने का प्रयत्न किया जा सकता है। प्रस्तुत निबंध में गीता के कुछेक विषयों का जैन तत्त्व की दृष्टि से अनुशीलन यह निदर्शित किया है कि भाषा की भिन्नता होने पर भी सत्य की अभिन्नता होती है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ मनन और मूल्यांकन चेतना के स्तर हमारी चेतना अनेक स्तरों में विभक्त है। सभी दर्शनों ने अपनी-अपनी अवधारणा के साथ चेतना-स्तरों को व्याख्यायित किया है। गीता में चेतना के अनेक स्तर उपलब्ध होते हैं१. इन्द्रिय-चेतना, ४. चित्त-चेतना, २. मनस्चेतना, ५. बुद्धि-चेतना, ३. प्रज्ञा-चेतना, ६. द्रष्टा-चेतना। गीता (३।४२) में इन्द्रिय, मन, बुद्धि और द्रष्टा-चेतना का उल्लेख मिलता है। इन्द्रियां प्रकृष्ट हैं। उनसे आगे मन, उससे आगे बुद्धि और बुद्धि से परे है आत्मा। मन संकल्प-विकल्पात्मक चेतना है और आत्मा द्रष्टा है। मानसिक चेतना इन्द्रिय-सापेक्ष चेतना है। इन्द्रिय द्वारा उपलब्ध विषयों के आधार पर संकल्पविकल्प उत्पन्न होते हैं। बुद्धि-चेतना इन्द्रिय-निरपेक्ष होती है। आत्यन्तिक सुख को गीता में अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य बतलाया गया है। ___ सांख्य-दर्शन में चित्त की संकल्पना नहीं है। पतंजलि के योगदर्शन में मन की संकल्पना नहीं है। गीता में मन और चित्त-दोनों उपलब्ध हैं । जैन दर्शन में भी मन और चित्त-दोनों उपलब्ध होते हैं, किन्तु मन पौद्गलिक है। वह पौद्गलिक है इसलिए अचेतन है। चित्त स्थलशरीर में अभिव्यक्त होने वाली चेतना है, इसलिए वह (चित्त) चेतन है। . मन और चित्त का स्वरूप एक नहीं है। चित्त स्थाई तत्त्व है। मन उत्पन्न होता है और विलीन होता है । उसका उत्पन्न होना और विलीन होना ही चंचलता है। इस चंचलता को ध्यान में रखकर ही अर्जुन ने कहा-'मन चंचल है। उसका निग्रह वायु की तरह सुदुष्कर है। इसके उत्तर में योगिराज कृष्ण ने कहा'अभ्यास और वैराग्य के द्वारा उसका निग्रह किया जा सकता है'।' मन का निग्रह करना होता है। मन स्वयं अपना निग्रह नहीं कर सकता। नट कितना ही सुशिक्षित हो, वह अपने कंधे पर नहीं चढ़ सकता। तलवार की धार कितनी ही तेज हो, वह स्वयं को नहीं काट सकती। मन का निग्रह करने वाला कोई दूसरा तत्त्व है । वह चित्त या बुद्धि है। १. गीता, ६।२१: २. वही, ६।३४ : सुखमात्यन्तिकं यद् तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । चंचलं हि मनः कृष्ण !, प्रमाथि बलवद् दृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये, वायोरिव सुदुष्करम् ॥ अभ्यासेन तु कौन्तेय! वैराग्येण च गृह्यते। ३. वही, ६।३५: Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य के आलोक में गीता का अध्ययन ११९ मन गतिशील है। उसकी गति पदार्थ में हो या चेतन में, बाह्य जगत् में हो या अन्तर्जगत् में, उसका नियमनबुद्धि के द्वारा होता है । इन्द्रियों का नियमन मन के द्वारा होता है, इसका संकेत मिलता है, किन्तु भाष्यकार ने इसे स्पष्ट कर दिया कि विवेकयुक्त मन के द्वारा ही इन्द्रियों का नियमन होता है। केवल मन में उनका नियमन करने की शक्ति नहीं है। अभ्यास के द्वारा चित्त की भूमि में उसकी समान प्रत्यय वाली वृत्ति होती है। वैराग्य के द्वारा चित्त में वितृष्णा उत्पन्न होती है। जब चित्त शान्त होता है तब मन का निग्रह सहज ही हो जाता है। इसका अर्थ है-मन उत्पन्न ही नहीं होता। जैन दर्शन के अनुसार मनन से पूर्व और मनन के बाद मन नहीं होता, मनन के क्षण में ही मन होता है-'मन्यमानं मनः । यह उलझा हुआ प्रश्न है कि एकाग्र मन होता है या चित्त होता है ? निरोध मन का होता है या चित्त का होता है ? गीता का दर्शन है-एकाग्रता और निरोध--ये दोनों चित्त की अवस्थाएं है। जैन दर्शन के अनुसार मन की गुप्ति और मन का समाहरण होने पर चित्र एकाग्र होता है। एकाग्रता मन की भी हो १. गीता, ६।२५, २६ : शनैः शनैरुपरमेद् बुद्धया धृतिगृहीतया। आत्मसंस्थ मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥ यतो यतो निश्चरति मनश्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। २. वही, ६।२४ : संकल्पप्रभवान् कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः। मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ।। भाष्य किं च मनसा एव विवेकयुक्तेन इन्द्रियग्रामम्-इन्द्रिय समुदाय, विनियम्य-नियमनं कृत्वा। ३. वही, ६।३५ अभ्यासेन तु कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते ॥ भाष्य किंतु 'अभ्यासेन तु'-अभ्यासो नाम चित्तभूमी कस्यांचित् समानप्रत्ययावृत्तिः चित्तस्य । वैराग्यं नाम दृष्टादृष्टेष्टभोगेषु दोषदर्शनाभ्यासाद् बैतृष्ण्यं तेन च वैराग्येण गृह्यते विक्षेपरूपः प्रचार: चित्तस्य । एवं तद् मनो गृह्यते निगृह्यते निरुध्यते इत्यर्थः।। ४. भगवई, १३६१२६: पुदिव भंते ! मणे ?. मणिज्जमाणे मणे? मणसमय वीतिक्कते मणे? गोयमा ! नो पुव्विं मणे, मणिज्जमाणे मणे, नो मणसमयवीतिक्कते मणे । ५. उत्तरज्झयणाणि, २६५४,५७ : मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ । मणसमाहारणयाए णं एगग्गं जणयइ । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० मनन और मूल्यांकन सकती है। एक ही प्रकार के मन को उत्पन्न करना मानसिक एकाग्रता है। इस मानसिक एकाग्रता से चित्त का निरोध होता है। मन, चित्त और बुद्धि-ये चेतना के भिन्न स्तर हैं। फिर भी चित्त और बुद्धि के अर्थ में मन का प्रयोग मिलता है और मन के अर्थ में चित्त और बुद्धि का। इससे पाठक को बड़ी उलझन होती है। इसे सम्यग् दृष्टि द्वारा ही सुलझाया जा सकता है । गीता (५।११) में मन और बुद्धि दोनों का स्वतन्त्र अर्थ है और ५।१३ में मन का बुद्धि के अर्थ में प्रयोग हुआ है । भाष्यकार ने उसका अर्थ 'विवेक बुद्धि' किया है । इन्द्रिय, मन और बुद्धि का स्वतन्त्र चेतना-स्तर के अर्थ में प्रयोग मिलता है-यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मनिर्मोक्षपरायणः (गीता ॥२८) चेतना का पांचवां स्तर है-प्रज्ञा। शब्दकोष में बुद्धि, धी और प्रज्ञा-ये सब एकार्थक माने जाते हैं । वस्तुतः ये एकार्थक नहीं हैं। गीता में प्रज्ञा का प्रयोग बुद्धि के ही अर्थ में किया गया है। इसलिए स्थितप्रज्ञ, स्थितधी-दोनों प्रयोग साथ-साथ मिलते हैं। भाष्यकार ने आत्मा और अनात्मा के विवेक से होने वाले ज्ञान का अर्थ प्रज्ञा किया है। ___ जैन साहित्य में प्रज्ञ, महाप्रज्ञ, आशुप्रज्ञ और भूतिप्रज्ञ का प्रयोग मिलता है। कुमारश्रमण केशी के उत्तर में गौतम ने कहा-धर्म का दर्शन और तत्त्व का निश्चय प्रज्ञा से होता है। इससे ज्ञात होता है कि प्रज्ञा इन्द्रिय-ज्ञान से प्राप्त प्रत्ययों का विवेक करने वाली बुद्धि से परे का ज्ञान है। कुमारश्रमण केशी ने गौतम की प्रज्ञा को बार-बार साधुवाद दिया। आचारचूला में बतलाया गया है कि समाधिस्थ मुनि की प्रज्ञा बढ़ती है। ध्यान और समाधि के साथ जिस प्रज्ञा १. उत्तरज्झयणाणि, २६।२६ : एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं चित्तनिरोहं करेइ । २. गीता, ५।११: कायेन मनसा बुद्ध्या"। ३. वही, ४१३: भाष्य-मनसा विवेकबुदया। ४. वही, २०५४ : स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत, किमासीत व्रजेत किम् ।। ५. गीता २।५५ : भाष्य-स्थिता-प्रतिष्ठिता आत्मानात्मविवेकजा प्रज्ञा यस्य सः स्थितप्रज्ञः। . ६. उत्तरज्झयणाणि, २३।२५ : पन्ना समिक्खए धम्म, तत्तं तत्तविणिच्छयं । ७. वही, २३।२८, ३४, ३६, ४४ आदि : साहु गोयम ! पन्ना ते"। ८. आचारचूला, १६।५ : विदू णते 'धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुणिस्स झायओ। समाहियस्सऽग्गिंसिहा व तेयसा, तवो य पण्णा य जसो य वड्ढइ ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य के आलोक में गीता का अध्ययन १२१ का संबंध है वह इन्द्रियातीत है । उक्त विवरण से दो प्रकार की प्रज्ञा फलित होती है— इन्द्रियसंबद्ध प्रज्ञा और इन्द्रियातीत प्रज्ञा | धवलाकार ने प्रज्ञा और ज्ञान का भेद बतलाया है। उनके अनुसार गुरु के उपदेश से निरपेक्ष ज्ञान की हेतुभूत चैतन्य शक्ति का नाम प्रज्ञा है और ज्ञान उसका कार्य है'। इससे स्पष्ट होता है कि प्रज्ञा शास्त्रीय ज्ञान से उपलब्ध नहीं होती । वह चेतना का शास्त्र-निरपेक्ष विकास है । चेतना का छठा स्तर है - द्रष्टाभाव । एक व्यक्ति ने कन्फ्यूशियस से पूछा"मैं साधना करना चाहता हूं, क्या करूं ?” कन्फ्यूशियस ने उत्तर दिया"केवल सुनो, केवल देखो ।" गीता का दर्शन है - योगी का कर्म केवल शरीर, केवल मन, केवल बुद्धि और केवल इन्द्रियों के द्वारा होता है । उसमें ममत्त्व नहीं होता, प्रिय अप्रिय का संवेदन नहीं होता'। जहां राग-द्वेष की धारा प्रवाहित होती है वहां इन्द्रिय, मन और बुद्धि की चेतना मात्र द्रष्टा नहीं होती, वह फल या बंध की कर्त्ता बन जाती है । जैन दर्शन का चिन्तन है— इन्द्रियों के विषयों को नहीं रोका जा सकता । उनके प्रति होने वाले राग-द्वेष या प्रिय-अप्रिय संवेदन को रोका जा सकता है । द्रष्टा चेतना का अर्थ है - स्वाभाविक चेतना या शुद्ध चेतना । चेतना अपने स्वरूप में शुद्ध ही होती है । राग-द्वेष के सम्मोह से समूढ़ होकर वह कर्म-बंध की कर्त्ता या अकेवल बन जाती है । ज्ञान और विज्ञान गीता में ज्ञान और विज्ञान के विषय में बहुत स्पष्ट दृष्टिकोण मिलता है। ज्ञान अज्ञान से आवृत है । प्रश्न होता है - अज्ञान क्या है ? ज्ञान क्या है ? गीताकार का समाधान है मृदुता, ऋजुता, अहिंसा, शान्ति यह ज्ञान है । मान, माया, हिंसा १. धवला, ६३४, ११८१८४, २ २. गीता, ५।११ : कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ ३. आचारचूला, १५।७२-७६ A ण सक्का ण सोउं सद्दा, सोयविसयमागता । णो सक्का रूवमदठ्ठे, चक्खुविसयमागयं... | णो सक्का ण गंधमग्घाउं, णासाविसयमागयं । जो सक्का रसमणासाउं, जीहाविसयमागयं णो सक्का ण संवेदेउं, फासविसयमागयं । रागदोसा उजे तत्थ, ते भिक्खु परिवज्जए । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ मनन और मूल्यांकन और असहिष्णुता-यह अज्ञान है। ज्ञान पदार्थ-विषयक और आत्म-विषयकदोनों प्रकार का होता है। प्रस्तुत प्रकरण में आत्म-विषयक बोध को ही ज्ञान माना गया है। ज्ञान और तप से पवित मनुष्य ईश्वरभाव को उपलब्ध हो जाते हैं। यह ज्ञान परमात्मविषयक ज्ञान है । इन्द्रिय और प्राणवायु के सब कर्म की आत्म-संयमरूपी योगाग्नि में आहुति दी जाती है, वह योगाग्नि ज्ञान से दीप्त होती है। यह ज्ञान विवेकज ज्ञान है। द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेय है। यह ज्ञान मोक्ष साधन विषयक है। कहीं-कहीं शास्त्र से होने वाले अवबोध को भी ज्ञान कहा गया है । ज्ञान की उत्तरवर्ती अवस्था विज्ञान है । विज्ञान का अर्थ है-स्वानुभव' । जैन साहित्य में प्रतिपादित है-श्रवण से ज्ञान और ज्ञान से विज्ञान होता है। सर्व प्रथम सुना जाता है, फिर जाना जाता है । तत्पश्चात् उसका अनुभव किया जाता - ज्ञान के विषय में हमारी दृष्टि साफ नहीं होती। हम संहारक अस्त्रों का निर्माण करने वाली मति को भी ज्ञान मानते हैं और मोज्ञ-साधक मति को भी ज्ञान मानते हैं। इसलिए कहां किस अर्थ में ज्ञान का प्रयोग हुआ है, इसका विवेक अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा जगत् की सबसे बड़ी समस्या है कि पदार्थ-विषयक शान से चरित्र और अनुशासन के विकास की अपेक्षा की जा रही है। यह अपेक्षा १. गीता, १३।११ : अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं, तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।। भाष्य अज्ञानं यद् अतः अस्माद यथोक्ताद् अन्यथा विपर्ययेण मानित्वं दम्भित्वं हिंसा अक्षान्तिः अनार्जवम् इत्यादि अज्ञानम्। २. वही, ४।१०:. बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः । भाष्य-- ज्ञानम्-परमात्मविषयम् । ३. वही, ४।२७ : जुह्वति ज्ञानदीपिते । भाष्य-स्नेहेन इव प्रदीपिते विवेकविज्ञानेन उज्ज्वलभावं आपादिते..।' ४. वही, ४१३३ : श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञान्ज्ञानयज्ञः परंतप ! भाष्य-ज्ञाने-मोक्षसाधने । ५. वही, ४।२८ : भाष्य-ज्ञानं- शास्त्रार्थपरिज्ञानं । ६।४६: भाष्य-ज्ञान-शास्त्रपाण्डित्यं..। ६. वही, ७२ : भाष्य-संविज्ञान विज्ञानं विज्ञानसहितं स्वानुभवसंयुक्तम् । ७. ठाणं, ३॥४१८: किंफला पज्जुवासणया? सवणफला। से णं भंते ! सवणे किंफले? णाणफले। से गं भंते ! णाणे किंफले ? विण्णाणफले।... Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य के आलोक में गीता का अध्ययन एक बीज से सब फलों को पाने की अपेक्षा है। ज्ञान का न होना अज्ञान है । तत्तद् विषयक अध्ययन से तत्-तद् विषयक अज्ञान मिट जाता है और ज्ञान हो जाता है । इस ज्ञान को चरित्र विकास या अनुशासन विकास का हेतुभूत ज्ञान नहीं कहा जा सकता । चरित्र और अनुशासन का विकास आत्म विषयक ज्ञान से ही हो सकता है। गीता में यह दृष्टिकोण विस्तार से उपलब्ध होता है । 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' । यह ज्ञान आत्मज्ञान ही है । वास्तव में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही सम्यग् ज्ञान है' । जैन दर्शन में ज्ञान दो रूपों में विभक्त हैमिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान। जिसे भेद - विज्ञान उपलब्ध नहीं होता, शरीर और आत्मा की भिन्नता का अवबोध नहीं होता, उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है । पुनर्जन्म मृत्यु के पश्चात् आत्मा का विनाश नहीं होता । उसका पुनर्जन्म होता है । जीवन के अन्त में जिस भाव की स्मृति होती है, उसी भाव वह में जन्म लेता है । जैन साहित्य में पुनर्जन्म की व्याख्या लेश्या सिद्धान्त के आधार पर दी गयी है । प्राणी जिस लेश्या (भावधारा) में मरता है उसी लेश्या में उत्पन्न होता है ' । स्याद्वाद गीता के ब्रह्मविषयक निर्वचन को पढ़ते ही स्याद्वाद की स्मृति हो आती है । ब्रह्म न सत् है और न असत् । वह सर्वेन्द्रिय व्यापारों से व्यापृत है और सर्वेन्द्रिय वर्जित है । वह बाह्य भी है और अंतर भी है । वह चर भी है और अचर भी है । वह दूरस्थ भी है और निकटस्थ भी हैं । जैन दर्शन के अनुसार जगत् की प्रकृति विरोधी युगलात्मक है। प्रत्येक प्रदार्थ पक्ष और प्रतिपक्ष के नियम से प्रतिबद्ध है । विरोधी युगलों में समन्वय की खोज ही अनेकान्तवाद और स्याद्वाद है अविरोध या एकांगी दृष्टिकोण विश्व व्यवस्था के अनुकूल नहीं है । १. गीता, १३।२ : २ . वही, ६८ : क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत् तज्ज्ञानं मतं मम । यं यं वाऽपि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कोन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ ३. प्रज्ञापना, १७।९२ : जल्ले से उववज्जति तल्लेसे उव्वदृति । ४. गीता, १३।१२: अनादिमत्परं ब्रह्म, न सत्तन्नासदुच्यते । ५. वही, १३।१४, १५ : सर्वेन्द्रियगुणाभासं, सर्वेन्द्रियविवजितम् । असक्तं सर्वभृच्चैव, निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ बहिरन्तश्च भूतानां चरमचरमेव च । सूक्ष्मत्वादविज्ञेय, दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ मनन और मूल्यांकन संकल्प और काम काम संकल्प से उत्पन्न होता है - यह एक सिद्धांत है । यह सिद्धान्त काव्य की भाषा में इस प्रकार उपलब्ध होता है— काम ! मैं तेरे रूप को जानता हूं । तू संकल्प से उत्पन्न होता है। मैं तेरा संकल्प नहीं करूंगा, इसलिए तू मेरे मन में उत्पन्न नहीं होगा । तुलना के बिन्दु एक बड़ी रेखा का निर्माण कर सकते हैं । अभी केवल बिन्दु प्रस्तुत किये गए हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अद्वैत और द्वैत की धाराओं में प्रवाहित गीता का रहस्य अनेकान्त का रहस्य भी बन सकता है । १. गीता, ६।२४ : संकल्प प्रभवान् कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः । मनः सर्वेन्द्रियग्रामं, विनियम्य समन्ततः । २. अगस्त्यचूर्णि में उद्धत श्लोक 'काम ! जानामि ते रूपं, संकल्पात् किल जायसे । नाहं संकल्पयिष्यामि ततो मे न भविष्यसि ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. मात्मा का अस्तित्व . दार्शनिक जगत् में दृश्य और मूर्त पदार्थ की भांति अदृश्य और अमूर्त पदार्थ की खोज चालू रही है। अदृश्य और अमूर्त के विषय में सबका एकमत होना संभव नहीं है। दृश्य और मूर्त के विषय में भी सब एकमत नहीं हैं, तब फिर अदृश्य और अमूर्त के विषय में सबकी सहमति की आशा कैसे की जा सकती है ? महावीर ने कहा-आत्मा अमूर्त है, इसलिए वह इन्द्रियगम्य नहीं है। सुकरात ने कहासच्चा दार्शनिक आत्मा की खोज में लगा रहता है। आत्मा के अस्तित्व और नास्तित्व का अभ्युपगम हजारों वर्षों से चला आ रहा है। भारतीय दर्शनों में श्रमण और ब्राह्मण-दोनों परंपराओं के अनेक आचार्य आत्मा को पौद्गलिक मानते रहे हैं। आत्मा के अस्तित्व को नकारने में सबसे अधिक प्रसिद्धि बृहस्पति या चार्वाक दर्शन को मिली है। सूत्रकृतांग के अध्ययन से ज्ञात होता है कि महावीर के युग में भूतवादियों के अनेक संप्रदाय रहे हैं। अजितकेशकंबल एक श्रमण संप्रदाय के आचार्य थे, साथ-साथ आत्मा के अस्तित्व को नकारने में भी अग्रणी थे। आत्मा के स्वरूप के विषय में सांख्य, वेदान्त, न्याय-वैशेषिक और पूर्व मीमांसा-ये सब एकमत नहीं हैं, फिर भी आत्मा के अस्तित्व का' स्वर सबने उच्चरित किया है। बौद्ध दर्शन में आत्मा का विषय एक जटिल पहेली है। उसके अस्तित्व और नास्तित्व-दोनों की घोषणा किसी झिझक के बिना नहीं की जा सकती। जैन दर्शन में आत्मा की स्वीकृति बहुत स्पष्ट है। पश्चिमी दार्शनिकों में भी यह विषय मतभेद का रहा है। ल्यूक्रेटियस (यूनानी दार्शनिक ई० पू० ८८-५५) ने प्रतिपादित किया-आत्मा केवल विशेष प्रकार के भौतिक परमाणुओं का ही रूप है। • सुकरात (यूनानी दार्शनिक ई० पू० ५००) ने आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया। उसने प्रस्थापित किया- 'यदि आत्मा अपरिवर्तनशील और शाश्वत तत्त्वों को जान सकती है तो वह भी अपरिवर्तनशील और शाश्वत होनी चाहिए । वह जब शरीर को ज्ञान का माध्यम बनाती है तब उसे अशाश्वत के क्षेत्र में घसीटा जाता है। पर जब वह अपने आप में लौटती है तब उसका जगत् दूसरा होता है । वह विशुद्धि, Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ मनन और मूल्यांकन शाश्वतता और अमरता का क्षेत्र है। वह अपरिवर्तनीय है। सुकरात के अनुसार शरीर एक कारा है। आत्मा उसमें बंदी बना हुआ है। इन्द्रिय और कषायों के दूषण से आत्मा को दूषित करने का स्रोत भी यही है। जब हम शरीर के प्रभावों से कम-से-कम प्रभावित होते हैं, तब हम ज्ञान के अधिक समीप होते हैं-ज्ञान की वास्तविक सीमा में प्रवेश पा जाते हैं। पूर्ण विशुद्धि के लिए आत्मा का शरीर से सर्वथा पृथक् होना अनिवार्य है। सुकरात ने मृत्यु के अन्तिम क्षणों में अपने मित्रों से कहा-सच्चा दार्शनिक सदा आत्मा की खोज में रहता है। अतः वह सदा मृत्यु के अभ्यास में व्यस्त रहता है। अरस्तू (यूनानी दार्शनिक, ई० पू० ३८४-३२२) ने कहा-आत्मा का अस्तित्व है या नहीं, यह जानना विश्व में सबसे अधिक कठिन कार्य है। इस विषय में उसका तर्क है कि ल्यूक्रेटियस आत्मा को केवल भौतिक अस्तित्व मानता है तो वह भी किसी प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर नहीं मानता। आत्मा के अभौतिक अस्तित्व को मानने वालों के पास भी कोई प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है, इसलिए आत्मा के विषय में विश्वस्त ज्ञान प्राप्त करना बहुत कठिन कार्य है। अरस्तू के अनुसार आत्मा के कारण ही जीवित पदार्थों में जीवन का अस्तित्व है। प्लेटो (यूनानी दार्शनिक, ई०पू० ४२८-३४८) के अनुसार आत्मा का अस्तित्व शरीर से पूर्ववर्ती है। उसका अस्तित्व स्वतंत्र है और उसका अपना स्वरूप है। उसने तीन प्रकार की आत्माएं प्रतिपादित की हैं--वनस्पति, प्राणी और मनुष्य । वनस्पति निम्नतम आत्माएं हैं। प्राणी मध्यकोटि की आत्माएं हैं और मनुष्य उत्तम कोटि की आत्माएं हैं। विवेकपूर्ण चिन्तन के कारण ही मनुष्य को यह स्थान मिला है। . देकार्ट (फ्रेंच दार्शनिक, ई० १५६६-१६५०) ने आत्मा के अस्तित्व को अभौतिक माना । उसने अपने पक्ष के समर्थन में यह प्रश्न प्रस्तुत किया-मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं। चिन्तन आत्मा का गुण है, इसलिए चिन्तनशील प्राणी ही आत्मवान् है। मनुष्य ही केवल वैसा प्राणी है। अन्य प्राणी या वनस्पति में उसका अभाव है। लाक और कान्ट ने देकार्ट के तर्क को त्रुटिपूर्ण बताया और उसमें कुछ संशोधन जोड़े। लाक (अंग्रेज दार्शनिक, ई० १६३२-१७०४) ने यह स्थापना की, चिन्तन के अतिरिक्त संवेदन, स्मृति और कल्पना भी आत्मा के गुण हैं। इसलिए मनुष्य के अतिरिक्त प्राणी भी आत्मवान् हैं। वनस्पति आत्मवान् नहीं है। ___काण्ट (जर्मन दार्शनिक, ई० १७२४-१८०४) ने 'मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं' देकार्ट के इस तर्क का खण्डन किया। उसके अनुसार देकार्ट के तर्क से आत्मा का अन्तर्दर्शन नहीं हो सकता, उसके सरलता, चेतनता, शाश्वतता आदि गुणों का Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का अस्तित्व १२७ आन्तरिक ज्ञान नहीं हो सकता। तर्क का ज्ञान 'मैं' के स्वरूप का वास्तविक ज्ञान नहीं दे सकता। इसलिए आत्मा का अस्तित्व प्रत्ययात्मक है, वस्तुरूप नहीं है। फिर भी व्यावहारिक जगत् में आत्मा का शाश्वत और अभौतिक अस्तित्व मानना आवश्यक है। उसके आधार पर ही नैतिक नियम बन सकते हैं। बर्कले (अंग्रेज दार्शनिक, ई० १६८५-१७५३) देकार्ट के तर्क का समर्थन करता है और चिन्तन के आधार पर आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करता है। उसके अनुसार आत्मा अभेद्य, अरूपी, अनाकार और पूर्ण शुद्ध है। विलियम्स जेम्स (अमेरिकन मनोवैज्ञानिक दार्शनिक, ई० १८४२-१९१०) ने कहा-हमारे तर्क आत्मा के नास्तित्व को सिद्ध करने में असफल रहे हैं। ___ आत्मा के विषय में अनेक दार्शनिकों के अभिमतों की समीक्षा करने पर निष्कर्ष के रूप में दो शब्द उभर आते हैं-प्रत्यक्ष ज्ञान और तर्क । आत्मा के अस्तित्व का स्वीकार और अस्वीकार-दोनों ही अधिकांशतया तर्क के आधार पर चल रहे हैं। इसलिए आत्मा की स्वीकृति भी आनुमानिक स्वीकृति है और अस्वीकृति का मूल्य प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर अर्थहीन हो जाता है। अणुवीक्षण के द्वारा परमाणु की संरचना का साक्षात् होने हर आनुमानिक संरचना का स्वरूप ही बदल गया । आत्मा के सूक्ष्म स्वरूप का प्रत्यक्ष बोध होने पर भी ऐसा ही होता है । आत्मा अमूर्त होने पर इन्द्रियग्राह्य नहीं है-भगवान् महावीर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कर आत्मा के अस्तित्व को तर्कातीत घोषित किया था। परोक्ष ज्ञान की परिक्रमा करने वाले लोग प्रत्यक्षज्ञान की अपेक्षा तर्क में ही अधिक विश्वास करते हैं और इसे अनुचित भी नहीं कहा जा सकता। प्रत्यक्ष ज्ञान स्वसंवेद्य होता है। दूसरे के लिए परोक्ष ज्ञान ही उपयोगी बनता है। इसलिए सूक्ष्म या स्थूल, अमूर्त या मूर्त किसी भी द्रव्य के अस्तित्व या नास्तित्व का समर्थन तर्क के द्वारा करने की परंपरा चल रही है। सूक्ष्म और अमूर्त पदार्थ के अस्तित्व या नास्तित्व की स्वीकृति या अस्वीकृति प्रत्यक्ष ज्ञान की सीमा में है, यह जानते हुए भी उसे परोक्ष की सीमा से परे नहीं रखा जा सकता । दर्शन के क्षेत्र में तर्क का एक लम्बा जाल बिछा हुआ है। प्रत्यक्ष का कोई जाल नहीं होता। साक्षात्कार होते ही संदेह एक क्षण में समाप्त हो जाता है। विस्तार परोक्ष में ही हो सकता है। पक्ष की स्थापना, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन-ये सब परोक्ष की भूमिका में ही होते हैं। उनके द्वारा चर्चा लम्बी हो जाती है। भारतीय और पश्चिमी दर्शनों ने आत्मा के पक्ष और प्रतिपक्ष में जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, उन सबका पुनर्मूल्यांकन करना इस युग की एक अपेक्षा बन गयी है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की प्रमुख कृतियां • जैन दर्शन : मनन और मीमांसा • मन के जीते जीत • चेतना का ऊर्ध्वारोहण O जैन योग ० किसने कहा मन चंचल है • आभामण्डल O एसो पंच णमोक्कारो • अप्पाणं सरणं गच्छामि • एकला चलो रे • मनन और मूल्यांकन ० O महावीर की साधना का रहस्य मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति O भिक्षु विचार दर्शन • सम्बोधि • नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण • घट घट दीप जले ० अणुव्रत दर्शन • तट दो : प्रवाह एक • विचार का अनुबंध O अहिंसा तत्त्व दर्शन • अनुभव चिन्तन मनन आदि-आदि Page #140 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