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अहिंसा और अनेकान्त २६
वरणीय है, स्वीकार्य है । इसका अर्थ है मुनि बनना । अन्यथा मुनित्व प्राप्त ही नहीं होता। इस स्थिति में जीवन-धारण के लिए अशक्य कोटि की हिंसा भी कभी मान्य नहीं हो सकती। दूसरे संदर्भ में अशक्य कोटि की हिंसा मुनि को मान्य हो सकती है, जीवन-धारण के संदर्भ में नहीं । वह संदर्भ यह है । सारा संसार जीवाकुल है । अनन्त अनन्त जीव हैं । सूक्ष्म स्थूल, त्रस -स्थावर - सभी प्रकार के जीव भरे पड़े हैं । एक अणुमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है जहां जीव का अस्तित्व न हो । आकाश Math प्रदेश भी जीवमुक्त नहीं है। अनन्त जीव हैं । उस स्थिति में मुनि श्वास लेता है, चलता-फिरता है, उठता बैठता है, सोता-जागता है, सब कुछ वह करता है तब क्या यह संभव है कि उससे किसी जीव की हिंसा न हो ? उसके शरीर के योग से कोई जीवन मरे, क्या यह संभव है ? नहीं, यह कभी संभव नहीं हो सकता । उसके प्रमाद से भी जीव हिंसा हो सकती है और अप्रमाद अवस्था में भी जीव हिंसा हो सकती है । कोई जीव ऊपर से उसके शरीर पर गिरकर मर सकता है । कोई जीव उसके पैरों के नीचे आकर मर सकता है । जाने-अनजाने भी मर सकता है। तो फिर अहिंसा का सर्वपालन कैसे होगा ? उस स्थिति में यह प्रतिपादित किया गया कि अशक्य कोटि की हिंसा मुनि से भी हो जाती है । वह हिंसा करता नहीं, किन्तु वह हो जाती है । यह शरीर की अनिवार्यता है, इसfare हो जाती है । किन्तु मुनि शरीर धारण के लिए उस हिंसा का आश्रयण नहीं ले सकता । इसमें इतना अन्तर आ गया। एक मुनि भूखा है। रोटी प्राप्त नहीं हो रही है, फिर भी वह रोटी नहीं पकाएगा, आरम्भ नहीं करेगा । वह अनारम्भ रहेगा । शरीर चला जाए तो जाए, वह इस हेतु से आरम्भ नहीं करेगा। मुनि के लिए ये दोनों बातें बहुत स्पष्ट हैं कि भोजन के लिए अशक्य कोटि की हिंसा का सर्वथा निषेध है । वह कभी नहीं कर सकता । किन्तु उसका शरीर है, उसके योग से कभी हिंसा हो भी जाती है । सामाजिक प्राणी जो अहिंसा में विश्वास करता है उसके लिए यही बात प्राप्त है कि वह शाक्य कोटि की हिंसा को छोड़े यानी अनर्थ हिंसा को छोड़ दे । किन्तु जो उसके लिए अशक्य है, भोजन पकाना आदि, वह नहीं छोड़ सकता। मकान बनाना वह छोड़ नहीं सकता । कपड़े बुनना, खेती करना वह छोड़ नहीं सकता। जो अर्थ हिंसा है, आवश्यक हिंसा है उसको वह करता है किन्तु अनावश्यक हिंसा - अनर्थ हिंसा को नहीं करता । यह उसकी सीमा है । इस आधार पर अनगारधर्म और आगारधर्म का विकास हुआ।
यह माना जाता है कि आचारांग सूत्र में केवल मुनिधर्म का ही प्रतिपादन है, केवल अहिंसा का ही वर्णन है। गृहस्थ के धर्म का वर्णन नहीं है । गृहस्थ को प्रमत्त
बतलाया है और गृहवास की निन्दा ही की है । कुछ अंशों में यह सत्य हो सकता है । किन्तु यदि हम थोड़े गहरे में जाएं तो यह प्रश्न आता है कि जब पूर्ण अनारंभ या पूर्ण अहिंसा की बात कही है, जहां पूर्ण अहिंसा की बात है तो क्या गहस्थ के
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