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११४ मनन और मूल्यांकन
स्पर्शन का विकास भी इन्द्रिय चेतना का ही विकास हं । ये सब विशिष्ट क्षमताएं हैं । फिर भी इन्हें अतीन्द्रिय चेतना ( ई० एस० पी०) नहीं कहा जा सकता । कल्पना और चिन्तन के विकास से भी अनेक अज्ञात रहस्य जान लिये जाते हैं । फिर भी वह अतीन्द्रिय चेतना की उपलब्धि नहीं है । औत्पत्तिको बुद्धि के द्वारा अदृष्ट, अश्रुत बातें जान ली जाती हैं । पर यह अतीन्द्रिय चेतना नहीं है । परामनोविज्ञान के अनुसार पूर्वाभास अतीन्द्रिय ज्ञान माना जाता है । पर वास्तव में वह संधिकालीन ज्ञान है । उसे न इन्द्रिय ज्ञान कहा जा सकता है और न अतीन्द्रियज्ञान | वह इन्द्रिय और मन से उत्पन्न नहीं है, इसलिए उसे इन्द्रियज्ञान नहीं कहा जा सकता । अतीन्द्रियज्ञान की क्षमता उत्पन्न होने पर भविष्य में घटित होने वाली घटना अथवा अतीत-कालीन घटना को प्रत्येक अवधान के साथ जाना जा सकता है । किन्तु पूर्वाभास में ऐसा नहीं होता । उसमें भविष्य की घटना का आकस्मिक आभास होता है । अवधान के साथ उसके ज्ञान का निश्चित संबंध नहीं होता, इसलिए उसे अतीन्द्रिय ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता। वह दिन और रात की संधि की भांति इन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियज्ञान का संधिज्ञान है ।
मनुष्य का स्थूल शरीर सूक्ष्मत र शरीर का संवादी होता है । सूक्ष्मतर शरीर में जिन क्षमताओं के स्पंदन होते हैं, उन सबकी अभिव्यक्ति के लिए स्थूल शरीर में केन्द्र बन जाते हैं । उसमें शक्ति और चैतन्य की अभिव्यंजना के अनेक केन्द्र हैं । वे सुप्त अवस्था में रहते हैं | अभ्यास के द्वारा उन्हें जागृत किया जाता है । अपनी जागृत अवस्था में वे 'करण' बन जाते हैं । 'करण' को विज्ञान की भाषा में विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र (एलेक्ट्रो मेग्नेटिक फील्ड) कहा जा सकता है। तंत्रशास्त्र और हठयोग में छह या सात चक्रों का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ है। प्रतिपादन की प्राचीन शैली रूपकमय है । अतः चक्रों के विषय में स्पष्ट कल्पना करना कठिन है । बहुत लोगों ने उन्हें किसी विशिष्ट अवयव के रूप में स्थूल शरीर में खोजने का प्रयत्न किया, पर उन्हें अपनी खोज में कभी सफलता नहीं मिली । स्थूल शरीर में ग्रन्थियां हैं। शरीर शास्त्र के अनुसार उनका कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण है । उन्हें चक्र माना जा सकता है । चक्रों और ग्रन्थियों के स्थान भी प्रायः एक ही हैं। मूलाधार चक्र का किसी ग्रन्थि से सीधा संबंध नहीं है । स्वाधिष्ठान चक्र का कामग्रन्थि ( गोनाइस) से संबंध है । मणिपूर चक्र का एड्रीनल से, अनाहत चक्र का थाइमस से, विशुद्धि चक्र का थाइराइड से, आज्ञाचक्र का पिच्युटरी से और सहस्रार चक्र का पिनियल से संबंध स्थापित किया जा सकता है। जैन पराविद्या के अनुसार शक्ति और चैतन्य के केन्द्र अनगिन हैं । वे पूरे शरीर में फैले हुए हैं। उन्हें ग्रन्थियों तक सीमित नहीं किया जा सकता । ग्रन्थियों का काम सूक्ष्मतर या कर्मशरीर से आने वाले कर्म-रसायनों और भावों का प्रभाव प्रदर्शित करना है । अतीन्द्रिय चेतना को प्रकट करना उनका मुख्य कार्य नहीं है । वे
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