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________________ अतीन्द्रिय चेतना ११३ लंबी हो सकती है और अनास्था भी उत्पन्न कर सकती है। अग्रमस्तिष्क (फन्टल लॉब) कषाय या विषमता का केन्द्र है। अतीन्द्रिय चेतना का केन्द्र भी वही है । जैसे-जैसे विषमता समता में रूपान्तरित होती है, वैसेवैसे अतीन्द्रिय चेतना विकसित होती चली जाती है। उसका सामान्य बिन्दु प्रत्येक प्राणी में विकसित होता है। उसका विशिष्ट विकास समता के विकास के साथ ही होता है। मनुष्य के आवेगों और आवेशों पर हाइपोथेलेमस का नियंत्रण है। उससे पिनियल और पिच्यूटरी ग्लैण्ड्स प्रभावित होते हैं। उनका स्राव एड्रीनल ग्लैण्ड को प्रभावित करता है। वहां आवेश प्रकट होते हैं। ये आवेश अतीन्द्रिय चेतना को निष्क्रिय बना देते हैं। उसकी सक्रियता के लिए हाइपोथेलेमस और पूरे ग्रन्थितंत्र को प्रभावित करना आवश्यक होता है। ग्रन्थितंत्र का संबंध मनुष्य के भावपक्ष से है। भावपक्ष का सृजन इस स्थूल-शरीर से नहीं होता। उसका सृजन सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर से होता है। सूक्ष्म शरीर से आने वाले प्रतिबिम्ब और प्रकंपन हाइपोथेलेमस के द्वारा ग्रन्थितंत्र में उतरते हैं। जैसा भाव होता है, वैसा ही ग्रन्थियों का स्राव होता है और स्राव के अनुरूप ही मनुष्य का व्यवहार और आचरण बनता है। यह कहने में कोई जटिलता नहीं लगती कि मनुष्य के व्यवहार और आचरण का नियंत्रण ग्रन्थितंत्र करता है और ग्रन्थितंत्र का नियंत्रण हाइपोथेलेमस के माध्यम से भावतंत्र करता है और भावतंत्र सूक्ष्म-शरीर के स्तर पर सूक्ष्म-चेतना के साथ जन्म लेता है। स्मृति, कल्पना और चिन्तन की पवित्रता से भावतंत्र प्रभावित होता है और उससे ग्रन्थितंत्र का स्राव बदल जाता है। उस रासायनिक परिवर्तन के साथ मनुष्य का व्यवहार और आचरण भी बदल जाता है। यह परिवर्तन मनुष्य की अतीन्द्रिय चेतना को सक्रिय बनाने में बहुत सहयोग करता है। ___ मनुष्य का शरीर अनेक रहस्यों से जुड़ा हुआ है। उसमें इन्द्रिय की क्षमता है। शरीर के कुछ भाग ज्ञान और संवेदना के साधन बने हुए हैं। वे भाग 'करण' कहलाते हैं । आंख एक 'करण' है। उसके माध्यम से रूप को जाना जा सकता है। किन्तु मनुष्य के पूरे शरीर में 'करण' बनने की क्षमता है। यदि संकल्प के विशेष प्रयोगों के द्वारा पूरे शरीर को 'करण' किया जा सके तो कपोलों से भी देखा जा सकता है, हाथ और पैर की अंगुलियों से भी देखा जा सकता है। यह इन्द्रिय चेतना का ही विकास है। इसे अतीन्द्रिय चेतना का विकास नहीं कहा जा सकता। पूरे शरीर से सुना जा सकता है, चखा जा सकता है, गंध का अनुभव किया जा सकता है। इन्द्रिय चेतना की भांति मानसिक चेतना का भी विकास किया जा सकता है। स्मृति मन का एक कार्य है। उसे विकसित करते-करते पूर्वजन्म की स्मृति (जातिस्मृति) हो जाती है। यह भी अतीन्द्रिय चेतना (एक्स्ट्रा सेंसरी परसेप्सन-ई० एस० पी०) नहीं है । दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, दूर-आश्वादन और दूर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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