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८६ मनन और मूल्यांकन
अनवरत चलता रहा। भगवान महावीर ने लोकभाषा के प्रति जो दृष्टिकोण निर्मित किया था, उसे विस्मृत नहीं किया गया और संस्कृत के अध्येताओं में जो पांडित्य-प्रदर्शन की भावना थी, उसे भी स्मृति में रखा गया। फिर भी दर्शनयुग की स्थापना के काल में जैन दर्शन को प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से संस्कृत की अनिवार्यता अनुभव की। सिद्धर्षि ने जैन लेखकों की इस अनुभूति को स्पष्ट अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने लिखा है
'संस्कृता प्राकृता चेति, भाषे प्राधान्यमहतः। तत्रापि संस्कृता तावद्, दुर्विदग्धहृदि स्थिता ।। बालानामपि सद्बोध-कारिणी कर्णपेशला। तथापि प्राकृता भाषा, न तेषामभिभाषते ॥ उपाये सति कर्तव्यं, सर्वेषां चित्तरञ्जनम् ।
अतस्तदनुरोधेन, संस्कृतेऽयं करिष्यते ॥' -'संस्कृत और प्राकृत—ये दो प्रधान भाषाएं हैं। संस्कृत दुर्विदग्ध-पंडितमानी जनों के हृदय में बसी हुई है।
'प्राकृत भाषा जन-साधारण को प्रकाश देने वाली और श्रुति-मधुर है, फिर भी उन्हें वह अच्छी नहीं लगती। ___ 'मेरे सामने संस्कृतप्रिय जनों के चित्तरंजन का उपाय है। इसीलिए उनके अनुरोध से मैं प्रस्तुत कथा को संस्कृत भाषा में लिख रहा हूं।'
गुप्त साम्राज्य-काल में संस्कृत का प्रभाव बहुत बढ़ गया। जैन और बौद्ध परंपराओं में भी संस्कृत भाषा प्रमुख हो गयी।
- उत्तर भारत में गुजरात और राजस्थान—दोनों जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। इन दोनों में जैन मुनि स्थान-स्थान पर विहार करते थे। उनकी साहित्यसाधना भी प्रचुर मात्रा में हुई। राजस्थान की जैन परंपरा में संस्कृत-साहित्य के प्रथम निर्माता हरिभद्रसूरि हैं। उनका अस्तित्व-काल विक्रम की आठवीं-नौवीं शताब्दी (७५७-८५७) है। उन्हें प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं पर समान अधिकार प्राप्त था। उनकी लेखनी दोनों भाषाओं पर समान रूप से चली। उनकी प्राकृत-रचनाएं जितनी विपुल संख्या में और जितनी महत्त्वपूर्ण हैं, उतनी ही महत्त्वपूर्ण और उतनी ही विपुल संख्या में उनकी संस्कृत रचनाएं हैं। उन्होंने धर्म, योग, दर्शन, न्याय, अनेकान्त, आचार, अहिंसा आदि अनेक विषयों पर लिखा । आगम सूत्रों पर अनेक विशाल व्याख्या-ग्रन्थ लिखे।
जैन दर्शन ने सत्य की व्याख्या नय-पद्धति से की। 'तीर्थंकर का कोई भी वचन नयशून्य नहीं है'- इस उक्ति की प्रतिध्वनि यह है कि कोई भी वचन निरपेक्ष नहीं है। प्रत्येक वचन को नयदृष्टि से ही समझा जा सकता है। सिद्धसेन दिवाकर और समंतभद्र ने अनेकांत और नयवाद को दार्शनिक धरातल पर प्रस्फुटित किया।
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