________________
११. संस्कृत साहिय एक विहंगावलोकन
भगवान् महावीर के युग में संस्कृत पंडितों की भाषा बन गयी थी । भाषा के आधार पर दो वर्ग स्थापित हो गए थे - एक वर्ग उन पंडितों का था, जो संस्कृतविदों को ही तत्त्वद्रष्टा मानते थे और संस्कृत नहीं जानने वालों की बुद्धि पर अपना अधिकार किये हुए थे। दूसरा वर्ग उन लोगों का था, जो यह मानते थे कि संस्कृतविद् ही तत्त्व की व्याख्या कर सकते हैं ।
भगवान् महावीर ने अनुभव किया कि सत्य को खोजने की क्षमता हर व्यक्ति में है । उस पर भाषा का प्रतिबंध नहीं हो सकता । जिसका चित्त राग-द्वेषशून्य है, वह संस्कृतविद् न होने पर भी सत्य को उपलब्ध हो जाता है और जिसका चित्त राग-द्वेषशून्य नहीं होता, वह संस्कृतविद् होने पर भी सत्य को उपलब्ध नहीं होता । सत्य और भाषा का गठबंधन नहीं है— इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए भगवान् महावीर ने जनभाषा प्राकृत को सत्य निरूपण का माध्यम बनाया ।
:
I
भगवान् महावीर ने प्राकृत में उपदेश किया। उनके प्रमुख शिष्य गौतम आदि गणधरों ने उसका प्राकृत में ही गुंफन किया । उनके निर्वाण की पांचवीं शताब्दी तक धर्मोपदेश तथा ग्रंथ-रचना में प्राकृत का ही उपयोग होता रहा । निर्वाण की छठी शताब्दी में फिर संस्कृत का स्वर गुंजित हुआ । आर्यरक्षित' ने संस्कृत और प्राकृत दोनों को ऋषि-भाषा कहा । उनकी यह ध्वनि स्थानांग के स्वरमण्डल में भी प्रतिध्वनित हुई । उमास्वाति (स्वामी) ने मोक्षशास्त्र ( तत्त्वार्थ सूत्र ) का संस्कृत में प्रणयन किया । उनका अस्तित्व काल विक्रम की तीसरी से पांचवी शताब्दी के मध्य माना जाता है। जैन परंपरा में इसी कालावधि में संस्कृत युग प्रारंभ हुआ । जैन आचार्यों ने प्राकृत को तिलाञ्जलि नहीं दी । प्राकृत में ग्रन्थ रचना का कार्य, १. आर्य रक्षित का जन्म काल : ईस्वीपूर्व ४ ( वि० सं० ५२), दीक्षा ई० स० १८ ( वि० सं०७४), युगप्रधान ई० स० ५८ (वि० स० ११४), स्वर्गवास ई० स०७१ (वि० सं० १२७) ।
२. अणुओगद्दा राई, स्वर मण्डल :
सक्कयं पागयं चेव, पसत्थं इसिभा सियं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org