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५४ मनन और मूल्यांकन
प्राण-शक्ति है, असंयम के कारण प्राण-शक्ति के द्वारा ही संचालित होता है तो वह बाहर से लेता ही लेता है। असंयम का पहला काम है बाहर से लेना। आहार लेना, शरीर के परमाणुओं को लेना, श्वास के परमाणुओं को लेना, भाषा और चिन्तन के परमाणुओं को लेना, कर्म के परमाणुओं को लेना, यह सब प्राण-शक्ति के द्वारा होता है। जितना भी परमाणुओं का आदान-प्रदान है, जो प्राणशक्ति के लिए आवश्यक है, वह असंयम के साथ-साथ चलता है। जब तक ग्रहण का यह क्रम रहेगा तब तक असंयम रहेगा । असंयम दुःख उत्पन्न करता है। बाहर से लेना ही दुःख है। जब आत्मा बाहर से कुछ नहीं लेती तब कोई दुःख नहीं होता। जब तक वह बाहर से लेती रहती है तब तक दुःख का क्रम नहीं टूटता। जैन पारिभाषिक शब्दावली में कहा जाता है कि जब जीव अयोगावस्था में पहुंचता है, शैलेशी अवस्था को उपलब्ध होता है तब दुःख का पूर्ण निरोध हो जाता है। जब तक योगावस्था है-मन, वचन और शरीर की चंचलता की स्थिति है तब तक केवली या वीतराग हो जाने पर भी दुःख का पूर्ण निरोध नहीं होता। केवली के भी दुःख का उदय होता है। वह केवली व्यक्ति दुःख का संवेदन नहीं करता क्योंकि ज्ञान का वहां पूर्ण विकास हो चुका होता है। किन्तु शरीर में दु:ख के परमाणु आते हैं और शारीरिक वेदना उत्पन्न करते हैं। असंयम ही दुःख का मूल है।
दुःख-निरोध का मूल तत्त्व है---संयम । सूत्रकार ने बताया है कि संयम करो, उससे दुःख का निरोध होता है। दुःख के उत्पन्न होने का हेतु है—असंयम और दुःख के निरोध का हेतु है-संयम। जब बाहर से लेना बंद होता है तब संयम घटित होता है। जब तक बाहर से लेना चलता रहता है तब तक असंयम बना रहता है। . पहला तत्त्व है कि बाहर से न लिया जाए। परिग्रह न किया जाए। इस क्रम में सबसे पहले हमें स्थूल से चलना होगा। पहले क्षण में यह नहीं हो सकता कि श्वास न लें। यह संभव नहीं है। पहले हम स्थूल को छोड़ें, उपधि ग्रहण न करें। पदार्थों को छोड़ें। धन-धान्य और मकान को छोड़ें। पदार्थों पर ही यह प्रतिबंध हो सकता है कि हम उनका परिग्रहण न करें। यह संभव भी है। जब संयम की यह स्थिति परिपक्व हो जाए तब हम भाषा के परमाणुओं का ग्रहण न करें। यह मौन के विकास का आदि-बिन्दु है। इससे वाकगुप्ति घटित होगी। चिन्तन के परमाणुओं को न लें तो मनोगुप्ति घटित होगी। ___ आचार-शास्त्र के मूल अंग हैं-मनोगुप्ति, वाक्गुप्ति और कायगुप्ति । इनका आधार है---असंयम का निरोध । असंयम का निरोध यानी भाषा के परमाणुओं का अग्रहण, मन के परमाणुओं का अग्रहण। जब ये दोनों घटित हो जाते हैं तब काया के परमाणुओं का अग्रहण स्वयं प्राप्त हो जाता है। मनोगुप्ति सधती है,
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