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आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व ( २ ) ५३.
नहीं होता, केवल अर्थ - पर्याय होता है । अर्थ- पर्याय स्वाभाविक पर्याय है । व्यंजनपर्याय वैभाविक पर्याय है । इन द्रव्यों में कोई कृत पर्याय हो सकता है औपचारिक रूप में। किन्तु किसी पदार्थ के आन्तरिक घुलन - मिलन के स्वभाव से पर्याय का परिवर्तन नहीं होता । पुद्गल और जीव-इन दो द्रव्यों में व्यंजन पर्याय होता है । पुद्गल जीव को प्रभावित करता है और जीव पुद्गल को प्रभावित करता है । पुद्गल के संयोग से जीव बदल जाता है और जीव के संयोग से पुद्गल में परिवर्तन आ जाता है । आत्मा अपने स्वरूप में स्थित नहीं है क्योंकि वह अनादिकाल से पुद्गल के साथ मिली हुई है। पुद्गल भी पूर्णतः स्वतंत्र नहीं है । जीव के द्वारा पुद्गलों में बहुत परिवर्तन घटित होता है ।
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शरीर पुद्गल है । जीव आत्मा है । हमारा जो व्यक्तित्व आचार का निर्धारण और पालन करता है वह न केवल आत्मा है और न केवल शरीर । वह न केवल अचेतन है और न केवल चेतन । वह पुद्गल और चेतन के संयोग से निष्पन्न तीसरा तत्व है । उसे हम जीव कहते हैं । जीव को हम केवल आत्मा भी नहीं कह सकते और केवल शरीर भी नहीं कह सकते। यह दोनों का एक मौलिक (या भौतिक) मिश्रण है । आत्मा और पुद्गल का एक योग मिला और एक नयी शक्ति पैदा हुई । उसे प्राण कहा जाता है । इसीके द्वारा समूचे जीवन का संचालन होता है । प्राण-शक्ति-संपन्न आत्मा, जिसके साथ पुद्गल मिला हुआ है, उसका नाम है— जीवन | जीवन न केवल पौद्गलिक है और न केवल आत्मिक । यह यौगिक है - दोनों के योग से निष्पन्न है । इस यौगिक व्यक्तित्व में हम जो कुछ करते हैं वह सारा व्यंजन पर्याय के आधार पर करते हैं । सारे व्यक्त या स्थूल पर्याय जीव और पुद्गल से निष्पन्न हैं । इस दृष्टि से जीव भी पूरा स्वतंत्र नहीं है और पुद्गल भी पूरा स्वतंत्र नहीं है । यह एक नियति है कि जीव और पुद्गल अलग नहीं होते । ये दोनों नियति के आधार पर साथ-साथ चलते हैं ।
यह एक निश्चित सिद्धान्त है, नियतिवाद है कि जब तक हमारा जीवन प्राण-शक्ति के द्वारा संचालित है तब तक संकल्प सर्वथा स्वतंत्र नहीं हो सकता । यह सार्वभौम सत्य है । इस नियति की स्थिति में, जीव और पुद्गल — दोनों के योग से चलने वाले व्यक्तित्व में एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया पैदा होती है। वह प्रक्रिया है - असंयम ।
आत्मा को लेना कुछ भी नहीं है । उसे केवल छोड़ना है। जो योग है, विजातीय है, उसे छोड़ना है । किन्तु वह निराकांक्षी नहीं बन सकती, क्योंकि वह आत्मा नहीं, अभी जीव है । जीव है इसलिए उसमें आकांक्षा होना स्वाभाविक है । कुछ लेना स्वाभाविक है । प्राण शक्ति विद्यमान है तो कुछ लेना पड़ेगा । इस प्राण-शक्ति के कारण ही एक विशेष प्रकार की परिस्थिति निर्मित होती है । उसी का नाम असंयम है | असंयम प्राण-शक्ति की स्वाभाविक प्रक्रिया है । जब तक प्राणी है,
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