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________________ ५२ मनन और मूल्यांकन एक वलय में होता है, परिधिगत होता है। उसका कोई केन्द्र नहीं होता। केन्द्र है ही नहीं, सारा परिधिगत है। परिधि केन्द्र के बिना होती है, यह बात सहजगम्य नहीं है। अक्रियावाद या अकारकवाद में सबसे बड़ी कठिनाई है-केन्द्रशून्य परिधि का प्रपंच। जिस सुख-दुःख या श्रेय-अश्रेय के निर्माण में केन्द्र की शुन्यता और परिधि की स्वीकृति है, वह तथ्य संगत नहीं हो सकता क्योंकि अक्रियावाद यदि सम्मत है तो भी दुःख का उत्पाद कैसे होता है, यह नहीं जाना जा सकता और दुःख के निरोध को भी नहीं जाना जा सकता। एकात्मवाद में भी यही समस्या है। यदि एक ही आत्मा है और वह व्यापक है तो दुःख के उत्पाद और निरोध की बात ही प्राप्त नहीं हो सकती। कौन दुःख भोगने वाला है, कौन दुःख करने वाला है और दुःख क्या है ? सब कुछ आत्मा ही आत्मा है। इन सभी संदर्भो में यह प्रश्न बहुत जटिल बन जाता है कि दुःख उत्पन्न कैसे होता है ? ___ जो एकांगी मतों की चर्चा करने वाले दर्शन हैं वे इस चर्चा को नहीं जानते कि आत्मा अनादि है, अकृत है। पर्याय उत्पन्न होता है, नष्ट होता है। दुःख-सुख उत्पन्न होता है, नष्ट होता है। वह सारा आत्मा के द्वारा कृत है, अकृत नहीं है, आत्म-संचेतित है। गणधर सुधर्मा कहते हैं-'सुयं च मे अज्झत्थियं च मे, बंधपमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव'-मैंने सुना है और जाना है कि बंध और मोक्षदोनों तुम्हारे अन्तःकरण में हैं, तुम्हारी लेश्याओं में हैं, तुम्हारे अध्यवसाय में हैं। वे बाहर से नहीं आते। वे बाहर से प्रेरित भी नहीं हैं। यह आत्म-कर्तृत्ववाद है। प्रश्न होता है कि फिर दुःख किससे उत्पन्न होता है ? दुःख का उत्पादक कौन है ? आत्म-कर्तृत्ववाद में यह स्पष्ट अभिमत है कि दुःख का कर्ता स्वयं आत्मा है। दूसरी कोई सत्ता नहीं है जो दुःख का उत्पादक हो। अश्रेय का उत्पादक आत्मा है। कोई दूसरी सत्ता अश्रेय को उत्पन्न नहीं कर सकती। फिर प्रश्न होता है कि दुःख क्यों उत्पन्न होता है ? दुःख का उत्पादक तत्त्व है-असंयम। जितना दुःख है वह सारा व्यक्ति के असंयम से उत्पन्न होता है। इसी मूल तत्त्व के आधार पर भगवान् महावीर ने समूचे आचार-शास्त्र की व्यवस्था की है। असंयम-लालसा के कारण व्यक्ति संग्रह करता है। यह परिग्रह है। इसीलिए परिग्रह असंयमकृत है। यदि आत्मा अपने स्वरूप में, चैतन्यस्वरूप में हो तो उसे बाहर से कुछ भी लेने की आवश्यकता नहीं होती। प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में स्थित होता है, चेतन चेतन में स्थित होता है और अचेतन अचेतन में स्थित होता है। परमाणु परमाणु में स्थित होता है और आत्मा आत्मा में स्थित होता है। लोकस्थिति के छह द्रव्य हैं। उनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल-ये चार द्रव्य स्वरूप-स्थित हैं। इनमें कोई व्यंजन पर्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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