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________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (२) ५१ वाला बनता जाता है। फिर समनस्क, अतीन्द्रियज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी बनता है। यह सारा जैविक विकास स्वतंत्र संकल्प-शक्ति और इच्छा-शक्ति के आधार पर होता है। हम एकान्ततः न नियतिवाद को स्वीकार कर सकते हैं और न संकल्पवाद की स्वतंत्रता को स्वीकार कर सकते हैं। हम उन्हें एक सीमा में ही स्वीकार कर सकते हैं । नियति की भी एक सीमा है और संकल्प की भी एक सीमा है। ये दोनों सीमायें मिलकर एक तीसरे मार्ग का उद्घाटन करती हैं। वह है-सापेक्षता का मार्ग । मनुष्य का सारा कार्य नियति-सापेक्ष भी है और संकल्प-सापेक्ष भी है। मनुष्य नियति से बंधा हुआ है, इसलिए विकास के निश्चित क्रम में चल रहा है। विकास का जो क्रम प्रारंभ हो गया वह विकास मनुष्य होने तक और आचार का निर्धारण करने तक चलता रहता है। मनुष्य स्वतंत्र संकल्पवादी है । वह आगे का चुनाव भी करता है। वह नियति के क्रम को तोड़कर एक दूसरी सृष्टि का सृजन करता है, दूसरे जगत् में चला जाता है। यह है-अश्रेय से छूटना, दुःख का निरोध करना। भगवान् महावीर ने जिस आचार-शास्त्र का निरूपण किया, उसके पीछे नियतिवाद और स्वतंत्र संकल्पवाद-ये दोनों सिद्धान्त सम्मत हैं । ये दोनों मिलकर ही हमारे आचार-शास्त्र की दिशाओं का निर्धारण करते हैं। - प्रस्तुत सूत्र में एकांगी मतों का भी उल्लेख हुआ है। जो एकांतवादी दर्शन हैं वे दुःख के उत्पाद को नहीं जानते और उनमें दुःख का उत्पाद संभव भी नहीं होता। जो भूतवादी हैं, वे आत्मा का शाश्वत अस्तित्व स्वीकार नहीं करते, इसलिए उनके लिए दुःख की बात प्राप्त नहीं होती। उनका दुःख मात्र वर्तमान का होता है। उस दुःख के पीछे कोई हेतु नहीं होता, जिसके आधार पर आचारशास्त्रीय मीमांसा की जा सके। इस दुःख का हेतु क्या है और उस हेतु को निरस्त कैसे किया जा सकता है ये प्रश्न वहां प्राप्त नहीं होते। उन दर्शनों के अनुसार गहरे में जाने की जरूरत नहीं होती। वे मानते हैं कि वर्तमान परिस्थिति जो मन के प्रतिकूल है, वही दुःख है और यदि उस परिस्थिति को बदल दिया जाए तो दुःख समाप्त हो जाता है। वहां केवल परिस्थिति के परिवर्तन की ही बात आती है, आगे-पीछे की बात नहीं आती। उन दर्शनों में इस संबंध की गहरी मीमांसा भी नहीं है। ____ आत्मवादी दर्शनों के अनेक प्रकार हैं। दर्शन आत्मवादी है, किन्तु वह अक्रियावाद को मानता है तो वहां आत्मा का कोई स्वतंत्र कर्तृत्व प्राप्त नहीं होता। वहां दुःख आत्म-चेतित नहीं होता। दुःख-सुख आत्म-चेतित नहीं हैं, मात्र संयोग हैं । यह संयोग आत्मा के विकास में कोई अवरोध उत्पन्न नही करता और आत्मा के मुक्त होने में कोई नयी दिशा प्रदान नहीं करता । एक जटिल प्रश्न उपस्थित होता है कि जहां हमारी आत्मा का कोई कर्तृत्व नहीं है, दुःख के प्रति और सुख के प्रति, वहां फिर आत्मा से कोई संबंध स्थापित नहीं होता। यह सारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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