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________________ २. संबोधि और अहिंसा मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-आर्त और अनार्त। जिसकी चेतना इन्द्रिय और मन के स्तर पर ज्यादा काम करती है, केवल विषयों से संपृक्त रहती है, वह आर्त होता है। आर्त मनुष्य बोधि को सहज रूप में प्राप्त नहीं कर सकता। वह ज्ञान के स्तर पर जीता है। ऐसा मनुष्य आत्मा के आधार पर निर्धारित किए जाने वाले आचार का अनुशीलन नहीं कर पाता। जो आचार आत्मा को केन्द्र में रखकर निश्चित किया जाता है उसका पहला रूप बनता है—अहिंसा । आचार के निर्धारण में तीन सन्दर्भ जुड़ते हैं १. प्राणी जगत् के प्रति व्यवहार । २. पदार्थ के प्रति व्यवहार। ३. अपने प्रति व्यवहार । प्राणी जगत् के प्रति व्यवहार कैसा हो-इसका सम्बन्ध जुड़ता है अहिंसा से । पदार्थ के प्रति व्यवहार कैसा हो—इसका सम्बन्ध जुड़ता है अपरिग्रह से । अपने प्रति व्यवहार कैसा हो--इसका सम्बन्ध जुड़ता है आत्म-रमण से । आत्म-रमण के आधार पर आचार का निश्चय होता है। आचार का निश्चय जब प्राणी जगत् के सन्दर्भ में बनता है तब उसका पहला सूत्र बनता है--अहिंसा। अहिंसा को समझने के लिए चेतना की जो भूमिका चाहिए वह है-संबोधि । जब तक संबोधिस्तरीय चेतना जागृत नहीं होती तब तक अहिंसा के सिद्धान्त को समझा नहीं जा सकता। क्योंकि जहां इन्द्रिय और मन के स्तर पर चेतना का विकास होता है वहां इन्द्रिय और मन की लालसा की पूर्ति ही मुख्य बनती है और मानव यही चिन्तन करता है कि इन्द्रिय और मन को सुख और आनन्द मिले । इससे आगे उसका चिन्तन विकसित नहीं होता । वह यह सोच ही नहीं सकता कि इन्द्रिय और मन की तृप्ति से बड़ी कोई दूसरी सिद्धि हो सकती है। उसकी परिधि मात्र इन्द्रिय और मन ही रहता है। वह उस परिधि की परिक्रमा करता रहता है। वह मन और इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगा रहता है। इस स्थिति में वह आर्त बनता है। जब वह आर्त होता है तब प्रव्यथित रहता है। कभी भी उसकी व्यथा का शमन नहीं होता। व्यथा बनी ही रहती है। अपनी व्यथा को मिटाने के लिए वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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