________________
अहिंसा और अनेकान्त
भी हैं । आध्यात्मिक का अर्थ केवल अच्छा ही नहीं है । इसका मूल अर्थ है - भीतर में होना । भीतर में अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी हो सकता है । जैसे गुण आध्यात्मिक होते हैं, वैसे ही दोष भी आध्यात्मिक होते हैं । जैसे सुख आध्यात्मिक होता है, वैसे ही दुःख भी आध्यात्मिक होता है । सांख्य दर्शन में आध्यात्मिक ताप का सुन्दर वर्णन है ।
जो व्यक्ति कषायमुक्त है, राग-द्वेष के जाल से छूट चुका है, उसका आध्यात्मिक अच्छा ही होगा, निर्मल होगा। जिसका कषाय अवशिष्ट है, उसका आध्यात्मिक अच्छा ही होता है, यह नियामकता नहीं आती।
छंदोवणीया अज्झोववण्णा - इच्छा भीतर से जागती है और आदमी आसक्त बन जाता है। आरंभ ( प्रवृत्ति ) में आसक्त होता है और फिर नयी आसक्ति को जन्म देता है । यह एक चक्र बन जाता है । इच्छा से आसक्ति, आसक्ति से आरंभ और आरंभ से फिर इच्छा । यह चक्र चलता रहता है। यह चक्र सारे संसार का मूल है।
भगवान् भहावीर ने इस चक्र को तोड़ने का उपाय बताया। उन्होंने कहासेवमं सव्वसमन्नागय-पन्नाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मं (१-१७४) sant तोड़ने के लिए पूरी प्रज्ञा का उपयोग करो, पाप कर्म मत करो, अनारंभ हो । सबसे पहला सूत्र है --- आरंभ मत करो, अनारंभ रहो। किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो, अहिंसक रहो। उन्होंने प्रवृत्ति का सर्वथा निषेध किया है । यह बात व्यवहार से कुछ दूर जा पड़ती है । 'सव्वं पावं अकरणीयं' - यदि सारे पाप अकरणीय हैं तब तो संसार चलेगा ही नहीं। क्योंकि सबसे पहले शरीर का प्रश्न है। और अपने लिए भोजन का प्रश्न है । और सारी बातों को छोड़ दें । शरीर-धारण के लिए भोजन और भोजन के लिए आरंभ । 'सर्वारम्भास्तन्दुलप्रस्थमूला:'मनुष्य की सारी प्रवृत्ति सेर भर चावल के लिए होती है या यों कहें कि उसकी प्रवृत्ति रोटी के लिए होती है । प्रवृत्ति का मूलस्रोत है - भूख । यह सब प्राणियों में है तो फिर अनारंभ या अप्रवृत्ति की बात संगत नहीं लगती । एक ओर समूचा व्यवहार और एक ओर अनारंभ । एक ओर प्रवृत्ति और एक ओर अप्रवृत्ति । दोनों परस्पर विरोधी । अनारंभ की बात कैसे संभव हो सकती है ? अहिंसा का उपदेश असंभव का उपदेश जैसा लगता है । इस असंभाव्यता या विरोध के कारण ही अहिंसा का सिद्धान्त व्यापक बना । यदि यह विरोध नहीं आता तो अहिंसा का निरूपण इतना विस्तृत नहीं होता । यह संक्षिप्त हो जाता। बात तो इतनी-सी थी कि अनारंभ रहो, किसी को मत मारो। किन्तु यह सारे जीवन का सिद्धान्त बन गया। जीवन तो चाहता है प्रवृत्ति, क्योंकि समूचा जीवन-धारण प्रवृत्ति पर निर्भर है । और यह अनारंभ की बात बिल्कुल निवृत्ति की बात है । अहिंसा निवृत्ति चाहती है। एक ओर ससूचे संसार का प्रश्न है जीवन-धारण और दूसरी ओर है.
Jain Education International
२७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org