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________________ ४२ मनन और मूल्यांकन है। वह शाश्वत और अशाश्वत की स्पष्ट सीमाओं को स्वीकार करता है । वह दोनों में भेद मानता है । जीवन के दोनों पक्ष हैं, किन्तु वह दोनों का मिश्रण कभी स्वीकार नहीं करता । शाश्वत का अपना मूल्य है, सर्वोपरि मूल्य है । सामयिक का अपना मूल्य है, अल्पकालिक मूल्य है। केवल समाज के सम्पर्क में ही उसका मूल्य है। शाश्वत की सीमा में वह मूल्यहीन है। उन्होंने कहा-अध्यात्म, दर्शन और आचार-शास्त्र की एक सीमा है और समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र की दूसरी सीमा है। दोनों का पृथक अस्तित्व है। यदि दोनों अपनी-अपनी सीमा का अतिक्रमण करते हैं तो दोनों मूल्यहीन बन जाते हैं। शाश्वत की सीमा में शाश्वत का मूल्य है और अशाश्वत की सीमा में अशाश्वत का मूल्य है। भारतीय दार्शनिकों के सामने यह स्पष्ट भेद-रेखा थी। किन्तु यदि हम पश्चिमी दार्शनिकों को पढ़ते तो यह ज्ञात हो जाता है कि उनके सामने अध्यात्म की रेखाएं स्पष्ट नहीं थीं। उनका दर्शन केवल जीवन के एक पक्ष की मीमांसा प्रस्तुत करता है। ____ वास्तव में मानना यह चाहिए कि दर्शन मुख्यतया तत्त्व मीमांसा है, मोक्ष और आत्मा की मीमांसा नहीं है। उसका दर्शन या तत्त्वज्ञान के आधार पर व्यावहारिक आचार-शास्त्र बना, आचार-शास्त्र की मीमांसा हुई, किन्तु मोक्ष, आत्मा या अध्यात्म के आधार पर उसकी अभिव्यक्ति नहीं हुई। यदि पश्चिमी दार्शनिकों के सामने अध्यात्म की दृष्टि होती तो आचार-शास्त्र का स्वरूप और मीमांसा दूसरे प्रकार की होती। मार्क्स ने कहा-."दर्शन आदमी को ज्ञान देता है पर बदलता नहीं, इसलिए ऐसा दर्शन चाहिए जोसमाज को बदल सके।" पश्चिमी दार्शनिकों का यह दृष्टिकोण निष्कारण नहीं था। उनके दर्शन की पृष्ठभूमि यही थी। उन्होंने तत्त्वज्ञान और आचार को विभक्त कर दिया। पर यह विभाजन उचित नहीं था। दर्शन और आचार को अलग नहीं किया जा सकता। भगवान् महावीर के दो शब्द-बुज्झज्ज, तिउज्जा —इसी ओर संकेत करते हैं। ज्ञान प्रथम आवश्यकता है। जानने के बाद आचरण करना, तोड़ना आवश्यक होता है । जानो और करो। फिर प्रश्न उठा कि क्या जाने ? क्या करें? आर्य जम्बू ने गणधर सुधर्मा से पूछा-'किमाहु बंधणं वीरे-बंधन क्या है ? किं वा जाणं तिउट्टई'- क्या जानने से बंधन टूटता है ? बंधन क्या है-इसे जानना है । उसको तोड़ने का उपाय क्या है-इसे जानना है और करना है। आर्य सुधर्मा ने आचारशास्त्रीय दृष्टि से यहां एक बहुत बड़े सत्य का उद्घाटन किया है। उन्होंने कहा-"परिग्रह बंधन है।" यह सूत्र समूचे आचारशास्त्र का आधार-सूत्र है। हमारी जीवन-यात्रा परिग्रह से शुरू होती है। यदि परिग्रह नहीं है तो समाज भी नहीं है और जीवन-यात्रा भी नहीं है। परिग्रह का अर्थ है-बाहर से कुछ लेना। बाहर से लेना बंधन है। हमः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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