________________
आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (१) ४१ निषदिक दर्शन -सभी वीतराग-चेतना को स्वीकृति देते हैं । दोनों धाराएं बराबर
चलती रहीं। कर्म और अर्थ की धारा भी चलती रही और धर्म और मोक्ष की 'धारा भी चलती रही। जो व्यक्ति अध्यात्म को उपलब्ध हो गए, जिन्हें अध्यात्म
का साक्षात्कार हो गया, उन्हें वीतराग-चेतना से नीचे उतरकर राग-चेतना के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना उचित नहीं लगा।
अध्यात्मवेत्ताओं ने राज्य-व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था, काम-व्यवस्था और समाजव्यवस्था के विषय में लेखनी नहीं चलाई। उनकी दृष्टि स्पष्ट थी । उन्होंने कहा"जब हम शाश्वत सत्यों की व्याख्या कर रहे हैं, तब सामयिक सत्यों की व्याख्या करना अपेक्षित नहीं है। शाश्वत और सामयिक सत्यों का मिश्रण नयी कठिनाइयां पैदा करता है। उससे नया रूढ़िवाद जन्म लेता है। एक ओर शाश्वत सत्यों की व्याख्या और दूसरी ओर सामयिक या अशाश्वत सत्यों का प्रतिपादन-दोनों में कोई सामंजस्य नहीं है। जिन्होंने दोनों का प्रतिपादन किया है वहां वे दोनों के मिश्रण से बच नहीं पाए हैं। उससे अनेक गड़बड़ियां हुई हैं।" ___ भारतीय राज्यशास्त्रियों ने लिखा--"राजा ईश्वर का पुत्र होता है। वह ईश्वरीय सत्ता है। वह देवता है। उसे राज्य करने का जन्मसिद्ध अधिकार है।" शाश्वत सत्य की दृष्टि से राजा न ईश्वर का पुत्र है, न ईश्वरीय सत्ता है और न देवता है। वह केवल शक्ति के अर्जन या संवर्धन से राजा बन गया या परिपाटी से राजा बना दिया गया। ___ आज राजतंत्र, ईश्वरीय सत्ता और देववाद-सारे समाप्त हो गए । वर्तमान के चिंतन में राजा को देव या ईश्वर मानना उचित नहीं लगता। वह हमारे जैसा ही एक मनुष्य है। __जब शाश्वत और सामयिक-दोनों का मिश्रण हो जाता है तब समस्याएं उत्पन्न होती हैं। महावीर ने कहा.-अहिंसा शाश्वत सत्य है, धर्म है। यदि वे इसके साथ-साथ यह भी कह देते कि राज्य-रक्षा करना धर्म है तो बड़ी समस्या 'पैदा हो जाती। अहिंसा को धर्म कहने वाला व्यक्ति ही यदि कहे कि राज्य रक्षा भी धर्म है तो अहिंसा का सिद्धान्त अपने आप खंडित हो जाता है। कोई भी राज्यशास्त्री या समाजशास्त्री यही कहेगा कि राज्य-रक्षा करना पहला धर्म है और अहिंसा दूसरा धर्म है । अध्यात्मशास्त्री कहेगा-अहिंसा ही धर्म है, राज्य-रक्षा धर्म नहीं है। दोनों में कितना विरोधाभास है ? राज्य-रक्षा में या राज्य-व्यवस्था में हजारों लोग मरते हैं, उसकी राज्य को चिंता नहीं होती। उसे हिंसा या अधर्म की 'चिंता नहीं होती। उसे केवल रक्षा और व्यवस्था की चिंता होती है। यदि अध्यात्मशास्त्री कह दे-राज्य-रक्षा धर्म है तो फिर अहिंसा का शाश्वत मूल्य समाप्त हो जाएगा। वह शाश्वत सत्य नहीं रहेगा।
भारतीय दर्शन जीवन के प्रति समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत नहीं करता, यह भ्रांति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org