________________
४० मनन और मूल्यांकन
क्योंकि प्लेटो, अरस्तू आदि दार्शनिकों ने समग्रदृष्टि से विचार किया और उसकी व्यवस्थाएं भी दीं। उन्होंने काम और अर्थ के विषय में चिन्तन किया, व्यवस्थाएं दी, उसी प्रकार राजनीति और राज्य के विषय में भी विचार किया, व्यवस्थाएं दी। पश्चिमी ताकिक मानस के लोग यह जानना चाहेंगे कि जैसे प्लेटो और अरस्तू ने राज्य-व्यवस्था के सत्र दिए, क्या उसी प्रकार महावीर, बुद्ध और भारतीय दार्शनिकों ने भी कुछ सूत्र दिए हैं ? वस्तुतः भारतीय दार्शनिकों ने ऐसा नहीं किया और इसलिए नहीं किया कि यहां लौकिक और आध्यात्मिक-दोनों धाराएं स्वीकृत थीं। भगवान महावीर और बुद्ध ने आध्यात्मिक पक्ष का प्रतिपादन किया और समाज का चिन्तन करने वाले ऋषि-महर्षियों ने काम और अर्थ की भावनाएं प्रस्तुत की। वात्स्यायन ने कामशास्त्र लिखा । वह काम-शाखा का मूल ग्रन्थ है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र लिखा। शुक्रनीति ग्रन्थ का प्रणयन हुआ और भी अनेक ग्रन्थ लिखे गए। जैन और जैनेतर विद्वानों ने इस विषय के अनेक ग्रन्थ लिखे । परन्तु वे सब इस बात पर एकमत रहे कि दोनों पक्षों-लौकिक और आध्यात्मिक-का मिश्रण न हो। कामशास्त्र में वात्स्यायन ने लिखा है- 'स्थविरे धर्ममोक्ष'-अर्थ और काम से धर्म और मोक्ष स्थविर हैं, बड़े हैं। वे जानते थे कि काम और अर्थ जीवन की तृप्ति के लिए हैं। दोनों आवश्यकताएं हैं जीवन की। किन्तु ये वास्तविक नहीं हैं। ये जीवन का उन्नयन करने वाली नहीं हैं। यद्यपि कौटिल्य ने कहा'अर्थः प्रधानं'- अर्थ प्रधान है, यह प्रधानता भी अर्थ की दृष्टि से है। उन्होंने धर्म का विस्मरण कभी नहीं किया। उन्होंने अध्यात्म के अनेक ग्रन्थ लिखे और काम और अर्थ को हेय बतलाया। ___इस प्रकार लौकिक धारा और आध्यात्मिक धारा-दोनों धाराएं स्वतन्त्र रहीं। किन्तु प्रश्न होता है कि क्या अध्यात्म के आचार्य यह नहीं जानते थे कि काम और अर्थ से सुख मिलता है, अर्थ काम की पूर्ति का साधन है ? वे जानने थे
और इसका प्रतिपादन भी करते थे कि काम के सेवन से सुख मिलता है, किन्तु वे साथ-साथ उसकी हेयता का भी प्रतिपादन करते थे। उनके सामने दोनों धाराओं का स्पष्ट विवेक था, विवेचन था।
चेतना की दो धाराएं हैं। एक है - राग-चेतना की धारा और दूसरी हैवीतराग-चेतना की धारा। जीवन में दोनों धाराओं का समन्वय होता है। जो व्यक्ति वीतराग चेतना में जीता है, वह कभी राग-चेतना की उपादेयता को स्वीकार नहीं करेगा । वह कभी उस दिशा में प्रस्थान नहीं करेगा। राग-चेतना को स्वीकार करने वाले वीतराग-चेतना को अस्वीकार नहीं करते हैं। अपवाद रूप में चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन वीतराग-चेतना को अस्वीकार करते हैं। सभी भारतीय दर्शन एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि राग-चेतना जीवन की अन्तिम उपलब्धि नहीं है। वास्तव में अन्तिम उपलब्धि है-वीतराग-चेतना। जैन, बौद्ध और औप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org