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________________ संबोधि और अहिंसा १३ हो नहीं आता। गाली देना प्रारंभ किया तो गाली देता ही जाएगा। सामने फिर कोई भी क्यों न हो । हंसना शुरू किया तो हंसता ही रहेगा। रोना शुरू किया तो रोता ही रहेगा । उस धारा को तोड़ने की क्षमता उसमें नहीं रहती। आसक्ति की धारा इतनी तीव्र हो जाती है कि वह पागलपन बन जाती है। यह अनुभव होता है-इच्चत्थं गढिए लोए (१-४६)-लोक इसमें ग्रथित है, आसक्त है, पागल है। वह आसक्त होकर ही नाना प्रकार के जीवों की हिंसा करता है। इस प्रसंग में यह प्रश्न प्राप्त होता है-जीव क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने 'षड्जीवनिकाय' का निरूपण किया। जीव छह प्रकार के हैं-पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव, अग्निकायिक जीव, वायुकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीव और त्रसकाथिक जीव । समूचे भारतीय दर्शन में यह निरूपण एक नया निरूपण है। आचार्य सिद्ध सेन ने द्वात्रिंशिका में लिखा है-"भगवन् ! आप सर्वज्ञ थे, यह समझने के लिए और अधिक प्रमाण की जरूरत नहीं है, केवल षड् जीवनिकाय का निरूपण ही यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि आप सर्वज्ञ हैं।" षड् जीवनिकाय में पहला है-पृथ्वीकाय। सूत्रकार कहते हैं- ग्रथित व्यक्ति स्वीकाय के जीवों की हिंसा करता है, मिट्टी के जीवों की हिंसा करता है। इस प्रसंग में एक रहस्य का उद्घाटन भी होता है कि जो पृथ्वीकाय की हिंसा करता है वह केवल पृथ्वी काय के जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु पृथ्वी के आश्रय में रहने वाले अनेक दूसरे जीवों की भी हिंसा करता है। जीवों का परस्पर इतना गहरा सम्बन्ध है कि एक जीव दूसरे जीव के आश्रय में जीता है। मनुष्य त्रसकायिक प्राणी है। वह प्रत्येकशरीरी है। उसमें एक ही आत्मा है। किन्तु उस आत्मा के सहारे असंख्य जीव पलते हैं। उन जीवों को आत्मा का अंश समझकर कुछ लोग यह कल्पना करते हैं कि एक शरीर में एक आत्मा नहीं होती, किन्तु मानव शरीर में असंख्य आत्माएं होती हैं। एक होती है मूल आत्मा और उसके आश्रित होती हैं असंख्य आत्माएं। जो शरीर की आरंभक आत्मा होती है, वह मूल आत्मा है । जिसने शरीर का आरंभ किया, जिसने शरीर का निर्माण किया, वह है आरंभक आत्मा। आरंभक आत्मा के सहारे रहने वाली आत्माएं आश्रित आत्माएं कहलाती हैं। जैसे वृक्ष का बीज आरंभक आत्मा है, किन्तु बीज जब अंकुरित होता है, बढ़ता है और शरीर का विस्तार करता है तब दूसरी-दूसरी आत्माएं उसके सहारे पनपने लगती हैं। पत्र, पुष्प, फल आदि असंख्य आत्माएं उससे जुड़ जाती हैं। पृथ्वीकाय के आश्रय में भी अनेक आत्माएं होती हैं। पृथ्वीकाय के आश्रय में पृथ्वी के जीव ही नहीं रहते, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीव भी रहते हैं। पृथ्वी के जीवों की हिंसा करने वाला केवल पृथ्वी की ही हिसा नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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