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________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (२) ४६ स्वीकृत नहीं हो सकती। संकल्प के पीछे भी कोई कारण है । संकल्प एक कार्य है। उसका कारण अवश्य ही होना चाहिए। कार्य जब कारण से प्रतिबद्ध है तो उसे एकान्तिक रूप से स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता । वह सापेक्ष है । यदि ऐसा न हो तो मनुष्य किसी भी कार्य के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। इसलिए नियतिवाद भी सापेक्ष है। नियतिवाद और कार्य-कारणवाद या संकल्प की स्वतन्त्रता और नियतिइन दोनों की सापेक्ष स्वीकृति ही दुःख के उत्पाद और निरोध में सहायक बनती है। प्रत्येक प्राणी विकास करना चाहता है। वनस्पति प्राणीवर्ग से ही स्वतंत्रता उद्भूत होने लग जाती है। मनुष्य का विकास एकेन्द्रिय से होता है, वनस्पति से होता है। जगत् में सबसे अधिक जीवों का संग्रहण वनस्पति में है। वह जीवों का अक्षय भंडार है। कहा जा सकता है कि वनस्पति जीव-वर्ग समूचे जीवों के विकास का आधारभूत है। जितने भी जीव विकास-क्रम में आए हैं, वे वनस्पति से आए हैं। वनस्पति का एक जीव-वर्ग है-निगोद । वह जीवों का अक्षय कोष है। वनस्पति जीवों के दो प्रकार हैं१. प्रत्येक शरीरी-एक शरीर में एक ही जीव की अवस्थिति। २. साधारण शरीरी-एक शरीर में अनन्त जीवों की अवस्थिति। वनस्पति का अनन्तजीवी वर्ग निगोद संज्ञा से अभिहित होता है। उसमें अनन्तअनन्त जीव हैं। वह कभी रिक्त नहीं होता । वह कभी जीवशून्य नहीं होता। निगोद की जीवराशि एक ओर तथा शेष सारी जीवसृष्टि एक ओर-फिर भी दोनों की तुलना नहीं हो सकती। निगोद की जीवराशि उससे बहुत विशाल है। अंगुली टिके जितने भाग में निगोद के अनन्त जीव होते हैं। वे अव्यवहार-राशि के जीव कहलाते हैं। वे वहां से निकलकर व्यवहार में आते हैं (स्थूल जगत् में आते हैं)। अव्यवहार-राशि के जीवों में न भाषा का व्यवहार है और न चिंतन का स्पष्ट व्यवहार है। उनमें कोई विभाग नहीं होता। वे सब एक ही श्रेणी के होते हैं। वे एकेन्द्रिय हैं। वहां से निकलकर वे विभाग के जगत् में आते हैं । वहां उनके विभाग प्रारंभ हो जाते हैं। वे विभाग हैं-पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तथा मनस्क, अमनस्क आदि। यह सारा विकास या विभाग अव्यवहार-राशि से व्यवहार-राशि में आने वाले जीवों का होता है। प्रश्न होता है कि अव्यवहार-राशि से जीव व्यवहार-राशि में कैसे आता है ? उनके आने का कारण संकल्प की स्वतन्त्रता नहीं है। यह काल से नियंत्रित क्रम है। काल-लब्धि के कारण ऐसा होता है । जब काल-लब्धि का पूरा परिपाक होता है तब जीव अव्यवहार-राशि से निकलकर व्यवहार-राशि में आ जाता है। वह वहां अनन्त काल से अविकास की भूमिका में पड़ा हुआ था। वहां से वह विकास की भूमिका में आता है। जब तक जीव व्यवहार-राशि में नहीं आता तब तक वह अविकसित अवस्था में अनन्त-काल तक पड़ा रहता है। जीव का अव्यवहार-राशि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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